भारत के वित्तीय सेवाओं से जुड़े मुद्दों को उठाना इतना मुश्किल क्यों है

भारत सामाजिक और आर्थिक रूप से हाशिये पर जी रहे अपने लोगों तक आसानी से पहुँचने के लिए वित्तीय सेवाओं में नवाचार कर रहा है। उदाहरण के लिए यह सामाजिक कल्याण योजनाओं से सीधे बैंक खातों (नकद या इन हैंड सेवाओं के बजाय) में धन का हस्तानांतरण करके यूनीफाइड पेमेंट इंटरफेस (यूपीआई) जैसे तरीकों को बढ़ावा देता है। साथ ही यह सामाजिक कल्याण से जुड़े फ़ायदों के लिए हाल ही में शुरू किए गए ई-आरयूपीआई प्लैटफ़ार्म के माध्यम से डिजिटल टोकन भी मुहैया करवाता है। लेकिन जब लक्षित लोगों को इन सेवाओं तक पहुँचने में कठिनाई होती है तब वे खराब उपभोक्ता संरक्षण और शिकायत निवारण तंत्र (जीआरएम) के साथ जूझते हैं। इस तरह के अनुभवों से इस नए समाधान पर से उनका विश्वास घटता है और उनके लाभ को प्रभावित करता है। 

ग्राम वाणी जहां दोनों ही लेखक काम करते हैं और सावर्जनिक वित्त और नीति के लिए राष्ट्रीय संस्थान (एनआईपीएफ़पी) ने 2020–21 में बैंकिंग सेवाओं के संबंध में उपलब्ध जीआरएम की पहुँच, प्रभावशीलता और समावेशिता को सामने लाने के लिए एक शोध किया था। इस शोध को बिहार, झारखंड, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और तमिल नाडु में ग्राम वाणी के मोबाइल वाणी सामुदायिक मीडिया प्लैटफ़ार्म पर किए गए सर्वेक्षण के आधार पर संचालित किया गया था। इस सर्वेक्षण में 900 से अधिक लोगों ने जवाब दिया था जिसमें 80 प्रतिशत लोग 18–35 वर्ष की आयु सीमा वाले थे और जिनकी मासिक आय 5,000 रूपये से कम थी। 

शिकायत निवारण प्रणाली कैसे काम करती है?

हमारे सर्वेक्षणों ने इस तरफ इशारा किया कि बैंकिंग सेवाओं के साथ विभिन्न प्रकार के मुद्दों के बावजूद 69 प्रतिशत लोगों ने अपनी शिकायतें दर्ज नहीं कारवाई। 20 प्रतिशत लोग ऐसा इसलिए नहीं कर पाये क्योंकि वे नहीं जानते थे कि शिकायत कैसे दर्ज कारवाई जाती है।

बैंकिंग लोकपाल सेवाओं को प्राप्त शिकायतों में से केवल 10 प्रतिशत शिकायतें ही ग्रामीण इलाकों से है।

भारतीय नियामक प्राधिकरणों ने अपनी वित्तीय सेवाओं के लिए दो-स्तरीय शिकायत निवारण प्रणाली की स्थापना की है। पहले स्तर में वित्तीय संस्थानों के पास उपयोगकर्ताओं की शिकायतों पर काम करने के लिए औपचारिक माध्यम का होना आवश्यक है जिसे अक्सर ‘आंतरिक समाधान फोरम’ के नाम से जाना जाता है। दूसरे स्तर पर, क्षेत्र-विशिष्ट लोकपाल, उपभोक्ता निवारण फोरम या दीवानी अदालतों जैसे बाहरी विकल्प होते हैं। भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) ने बैंकों, गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों (एनबीएफ़सी) और डिजिटल भुगतान सेवा प्रदाताओं के लिए लोकपाल सेवाएँ शुरू की हैं। पीड़ित उपयोगकर्ता पत्रों या ऑनलाइन माध्यमों से अपने मुद्दे उठा सकते हैं। 

सामाजिक-आर्थिक रूप से हाशिये पर रहने वाले और ग्रामीण समुदायों में इन प्रणालियों की जानकारी और इनके इस्तेमाल के प्रति जागरूकता न्यूनतम स्तर पर है। आरबीआई के लोकपाल सेवाओं के 2019–20 के वार्षिक रिपोर्ट में यह बताया गया है कि बैंकिंग लोकपाल सेवाओं को प्राप्त शिकायतों में से केवल 10 प्रतिशत शिकायतें ही ग्रामीण इलाकों से आई है। ज़्यादातर शिकायतें ऑनलाइन दर्ज की गई थीं जो इस बात की तरफ इशारा करती हैं कि इस सुविधा का ज्यादा लाभ ऐसे समुदायों के सदस्य उठाते हैं जिन्हें डिजिटल सुविधाएं उपलब्ध हैं। जहां एक तरफ हमारे सर्वेक्षण में भाग लेने वाले हर पाँच में से एक उत्तरदाता को यह नहीं पता था कि शिकायत कहाँ करनी है वहीं अन्य उत्तरदाताओं ने शिकायत न करने के कई कारणों के बारे में हमें बताया। इस मामले में भी 30 प्रतिशत लोगों ने बैंक के अधिकारियों के साथ उनकी बातचीत से पैदा हुए असंतोष को ही शिकायत न करने का कारण बताया। 

उपयोगकर्ता शिकायत क्यों नहीं करते हैं?

ये संख्या पूरी तरह से इस ओर इशारा करते हैं कि शिकायत पंजीकरण की वर्तमान प्रणाली समावेशी, आसानी से पहुँच में आने वाली या उपयोगकर्ताओं को ध्यान में रख कर बनाई गई प्रणाली नहीं है। हमनें उन कुछ प्राथमिक कारणों की खोज की है जिनकी वजह से लोग वर्तमान में प्रयुक्त होने वाले वित्तीय शिकायत प्रणाली का उपयोग नहीं करते हैं:

1. खराब व्यवहार वाले बैंक अधिकारी, काम न करने वाली स्वचालित टेलर मशीनें (एटीएम) 

जहां पैसों का डिजिटल लेनदेन व्यापक रूप से उपलब्ध हैं वहीं नकद आज भी वित्तीय लेनदेन के केंद्र में बना हुआ है—जिसके लिए बैंक या एटीएम तक जाने की जरूरत होती है। हालांकि, कई उत्तरदाताओं ने यह बताया कि बैंक के अधिकारी उनके साथ अच्छा बर्ताव नहीं करते हैं जिसके कारण उन्हें बैंक जाने में डर लगता है या वे वहाँ जाना टाल देते हैं। अन्य लोगों ने कहा कि उन्हें बैंक या एटीएम के माध्यम से अपने खातों से पैसे निकालने में मुश्किल होती है।

एक औरत मोबाइल फोन का इस्तेमाल करते हुए_बिल & मेलिंडा गेट्स फ़ाउंडेशन/संजीत दास-शिकायत निवारण प्रणाली बैंक
शिकायत निवारण तंत्र का मूल्यांकन लिंग के आधार पर किया जाना चाहिए ताकि यह समझा जा सके कि महिलाओं और अन्य लिंगों के लिए उन्हें कैसे सुलभ बनाया जा सकता है। | चित्र साभार: बिल & मेलिंडा गेट्स फ़ाउंडेशन/संजीत दास

2. महिलाओं के लिए डिजिटल पहुँच का अभाव

बैंकिंग सुविधाओं का महिला उपयोगकर्ताओं तक पहुँचने के लिए हम लोगों ने उन उत्तरदाताओं से संपर्क किया जिन्होनें ग्राम वाणी के महिला-केन्द्रित मंचों के माध्यम से जवाब दिया था। लेकिन अक्सर परिवार के पुरुष सदस्य ही फोन उठाते थे। ज़्यादातर मामलों में जब महिलाओं ने फोन उठाया तब उन्होनें अपने बैंक के खातों से जुड़ी शिकायतों के बारे में बताने के लिए परिवार के पुरुष सदस्य को फोन दे दिया। भले ही व्यापक आर्थिक विकास में महिलाओं के वित्तीय समावेशन की भूमिका पर काफी चर्चा हो रही है लेकिन इसे हासिल करने के लिए वित्तीय सेवाओं को महिलों की जमीनी हकीकत में निहित सूक्ष्म समाधानों की जरूरत है। और भारत में लैंगिक आधार पर महिलाओं के पास मोबाइल की उपलब्धता और डिजिटल साक्षरता को देखते हुए डिजिटल समाधान सबसे उपयुक्त समाधान नहीं हो सकते हैं। 

3. जटिल, तेजी से बदलती हुई तकनीक 

कई उत्तरदाताओं ने बैंकिंग मुद्दों के कारण उन्हें नहीं मिलने वाली कल्याणकारी लाभों से संबंधित शिकायतों को उठाने के लिए मदद की मांग की। जब हम लोगों ने इन उत्तरदाताओं से बातचीत की तब हमें इस बात का एहसास हुआ कि ज़्यादातर लोग अपने बैंक खातों में आने वाले लाभों की जटिलता को नहीं समझ पाये हैं। लगभग 15 प्रतिशत शिकायतें ऐसी थी जिनका बैंकिंग मुद्दों से कोई लेनादेना नहीं था बल्कि उन मामलों में उपयोगकर्ता किसी खास कल्याणकारी योजना का लाभ उठाने के योग्य नहीं था। इसके अलावा, एक्सेस चैनल, प्रपत्रों की भाषा और शिकायत दर्ज करने की प्रक्रिया के अन्य पहलू तकनीकी हैं। यह कम वित्तीय साक्षरता वाले लोगों के लिए जीआरएम को मुश्किल बनाता है, खासकर जब वित्तीय उपकरण और सेवाएं तेजी से बदल रही हैं।

4. जटिल प्रक्रिया, न्यूनतम सफलता दर 

बैंकिंग-संबंधित शिकायत निवारण पर एनआईपीएफ़पी द्वारा प्रशिक्षित मोबाइल वाणी के स्वयंसेवकों ने ऐसे 235 सर्वेक्षण उत्तरदाताओं से संपर्क किया जो अपने बैंकिंग की समस्या के लिए शिकायत दर्ज करवाने में सहायता चाहते थे। लेकिन उनमें से कईयों ने विपरीत या नकारात्मक प्रभाव के डर से प्रक्रिया को जारी रखने से मना कर दिया। इसलिए स्वयंसेवकों ने सिर्फ उन्हीं 74 उत्तरदाताओं के लिए सरकारी पोर्टल पर ऑनलाइन प्रक्रिया के तहत शिकायत दर्ज करने की शुरुआत की जिन्होनें सहमति जताई थी। जब हम लोगों ने 30 दिनों बाद दोबारा उनसे संपर्क किया तब उनमें से केवल एक उत्तरदाता ने अपने शिकायत के संबंध में बैंक से फोन आने की बात बताई। इसके बाद स्वयंसेवकों ने 42 उपयोगकर्ताओं के लिए आरबीआई लोकपाल में शिकायत दर्ज कारवाई। फिर भी शिकायत ऑनलाइन शुरू करने के 60 दिनों के बाद भी केवल 6 उपयोगकर्ताओं को अपने शिकायत के संबंध में प्रतिक्रियाएँ मिली थीं।

प्रशिक्षित और डिजिटल रूप से साक्षर लोगों के लिए भी इन सरकारी पोर्टलों पर शिकायत दर्ज करना एक जटिल काम है।

2019–20 की आरबीआई की वार्षिक रिपोर्ट में बताया गया है कि पंजीकृत शिकायतों में से लगभग 32 प्रतिशत को खारिज कर दिया गया था क्योंकि उनकी व्याख्या अच्छी तरह से नहीं की गई थी। मोबाइल वाणी के स्वयंसेवकों ने यह बात स्पष्ट की कि प्रशिक्षित और डिजिटल रूप से साक्षर लोगों के लिए भी इन सरकारी पोर्टलों पर शिकायत दर्ज करना एक जटिल काम है। इसके लिए आपके पास स्मार्टफोन/इंटरनेट से जुड़े उच्च स्तर का कौशल चाहिए ताकि आप इन पोर्टलों तक पहुँच सकें। आवेदन पत्रों को सही ढंग से समझने के लिए वित्तीय शब्दावलियों की गहरी जानकारी होनी चाहिए, शिकायत को विस्तार से बताने की योग्यता होनी चाहिए और एक ऐसा मोबाइल होना चाहिए जिसपर वन-टाइम पासवर्ड (ओटीपी) प्राप्त किया जा सके। और बेशक उपयोगकर्ता के पास शिकायत दर्ज करने का समय भी होना चाहिए।

भारत के सामाजिक कल्याण वितरण की एक रिपोर्ट से यह बात सामने आई है कि ज़्यादातर लोगों को बिना किसी बाहरी मदद के यह व्यवस्था और प्रणाली जटिल लगती है, जो इस क्षेत्र में नागरिक समाज के हस्तक्षेप की जरूरत को पैदा करता है।

सभी तक पहुँचने वाली शिकायत निवारण प्रणाली का निर्माण कैसे करें

शिकायत निवारण को लेकर किए गए हमारे सर्वेक्षणों के परिणाम और अनुभव यह बताते हैं कि उपयोगकर्ताओं की पहुँच इस प्रणाली से जुड़ी सूचनाओं तक आसानी से होनी चाहिए। चूंकि लोगों को इस बात का डर होता है कि शिकायत करने से उन्हें बैंक के अधिकारियों द्वारा परेशान किया जा सकता है, इसलिए उन्हें एक ऐसे मंच की जरूरत होती है जहां वे अपनी पहचान छुपाकर बिना किसी आशंका के शिकायत दर्ज कर सकते हैं। 

शिकायतों को दर्ज करने के लिए लिखित संचार माध्यम के अलावा आवाज़-आधारित (वॉइस-बेस्ड) इंटरफेस भी मुहैया करना चाहिए ताकि अधिक से अधिक उपयोगकर्ताओं को शामिल किया जा सके। जीआरएम का मूल्यांकन लिंग के आधार पर भी किया जाना चाहिए ताकि इस बात को समझा जा सके कि औरतों और अन्य लिंग के लोगों के लिए इसे कैसे अधिक से अधिक पहुंचाया जा सकता है। 

कल्याण वितरण के लिए ई-आरयूपीआई जैसी सुविधाओं की शुरुआत के साथ ही, ये बदलाव वित्तीय क्षेत्र में शिकायत निवारण को प्रासंगिक और सब तक पहुँचने लायक बनाने के लिए एक शुरुआती बिन्दु की तरह काम कर सकता है। साथ ही उपयोगकर्ताओं के विश्वास को बढ़ा सकता है और वित्तीय सेवाओ को ऊंचाई पर ले जाने में मददगार हो सकता है। 

शोएब रहमान और मतिउर रहमान के योगदान के साथ।

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समावेशी समुदायों को बनाना नागरिक समाज का कर्तव्य है

अक्सर तीसरे क्षेत्र के रूप में देखे जाने वाले नागरिक समाज ने सहस्त्राब्दी विकास लक्ष्य (एमडीजी) और टिकाऊ विकास लक्ष्य (एसडीजी) को आकार देने में बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। साथ ही यह नीति, योजना और निष्पादन के क्षेत्रों में राज्य और बाज़ारों के प्रमुख किरदारों के साथ काम करना भी जारी रखता है। 

पिछले कुछ दशकों में नागरिक समाज ने कुछ नई भूमिकाएँ निभानी भी शुरू कर दी हैं जैसे नीतियों और कार्यक्रमों को बनाने के लिए किसी विषय से संबंधित क्षेत्रीय ज्ञान और अनुभव के आधार पर विशेषज्ञ के रूप में अपनी सेवा देना। इसके अलावा प्रशिक्षण देकर क्षमता निर्माता के रूप में, इंक्यूबेटर के रूप में, सामाजिक समस्याओं को दूर करने के लिए डिज़ाइन और पायलट समाधानों में मदद करना। 

इन सभी भूमिकाओं के लिए एक सामान्य विषय है। एक सूत्रधार, संयोजक, नवप्रवर्तनकर्ता या वकील के रूप में सभी राज्य और बाजार से जुड़े हुए हैं जिससे उन्हें बेहतर मानव विकास और कल्याण के लिए अच्छा काम करने में मदद मिलती है। 

जहां यह बहुत जरूरी है, इन दो हितधारकों पर अधिक ध्यान केन्द्रित करने के कारण समुदायों को समावेशी और प्रगतिशील बनने में मदद करने के आदेश को कम प्राथमिकता दी गई है। 

एसडीजी हासिल करने के लिए समावेशी समुदाय महत्वपूर्ण हैं 

एसडीजी हासिल करने के लिए केवल शासन और बाज़ारों में सुधार ही पर्याप्त नहीं है; इसके लिए समुदायों को समावेशी होने की जरूरत होती है। लिंग, जाति, वर्ग और धर्म के आधार पर लोगों को बाहर रखने वाले समुदायों के साथ एसडीजी को हासिल करने के लिए राज्य, बाजार और नागरिक समाज द्वारा किए गए सभी प्रयास हमेशा ही कम पड़ेंगे। 

कुछ वर्षों की प्रगति के बाद 2018 में लैंगिक अंतर वास्तव में बहुत अधिक बढ़ गया।

नागरिक समाज में ज़्यादातर लोग इस बात से सहमत होते हैं कि समुदायों को निश्चय ही समावेशी और जीवंत होना चाहिए; हालांकि प्रमुख सोच यही है कि समुदाय के लिए अपनी सीमाओं को संबोधित करना ही सबसे अच्छा उपाय है। इस सोच में निश्चय रुप से प्रतिभा शामिल है, हालांकि जैसा इतिहास से स्पष्ट है जरूरी नहीं है कि ऐसा होता ही है। जहां प्रगति संभव है वहीं यह अपरिहार्य नहीं है। इसके लिए कई हितधारकों द्वारा लंबे समय तक व्यवस्थित और निरंतर प्रयासों की जरूरत होती है। और कुछ मामलों में हमें विपरीत स्थिति भी दिखती है या फिर ऐसा होता है कि प्रगति को रोक दिया जाता है। 

कुछ वर्षों की प्रगति के बाद 2018 में लैंगिक अंतर वास्तव में बहुत अधिक बढ़ गया। वैश्विक लैंगिक अंतराल रिपोर्ट 2018 के अनुसार मापे गए चार स्तंभों में से केवल एक—आर्थिक अवसर—ने 2018 में लैंगिक अंतर में कमी दिखाई। अन्य तीन स्तंभों—शिक्षा, स्वास्थ्य और राजनीति—ने वास्तव में कमी में वृद्धि को देखा था। 

नागरिक समाज समुदायों को और अधिक समावेशी और प्रगतिशील बनने में मदद करने के पहलू को नज़रअंदाज क्यों करता है?

इसका एक कारण विकासवादी हो सकता है। जहां नागरिक समाज सरकार और बाज़ार से अलग होकर स्वतंत्र बनने में सक्षम हो गया, वहीं यह इसके साथ विकसित होने के कारण इसने समुदाय के साथ घनिष्ठ संबंध भी बना लिया है। इसलिए समुदाय और नागरिक समाज के बीच का भेद अक्सर अस्पष्ट होता है। 

कांटेदार तार_फ्लिकर-समावेशी समुदाय नागरिक समाज
नागरिक समाज समुदाय की ताकतों पर ध्यान केन्द्रित करना पसंद करता है, वहीं अपने बहिष्करण ढांचे और अभ्यासों को नज़रअंदाज करने का चुनाव करता है। | चित्र साभार: फ्लिकर

इससे नागरिक समाज के लिए अक्सर अस्तित्ववाद संबंधित दुविधा पैदा हो जाती है, और इसलिए यह अपने बहिष्करण ढांचे और अभ्यासों को नज़रअंदाज करने का चुनाव करते हुए समुदाय की ताकतों पर ध्यान केन्द्रित करना पसंद करता है। उदाहरण के लिए, अगर कोई स्वयंसेवी संस्था अपने टीकाकरण कार्यक्रम को बेहतर बनाने के लिए सरकार के साथ काम कर रही है तब इसका लक्ष्य सार्वभौमिक पहुँच से अधिक संबंधित होता है न कि इस बात से कि कुछ समूह और समुदाय सेवा से वंचित क्यों रह गए या उन तक कम सेवा और सुविधा क्यों पहुंची। इसी तरह, शिक्षा के क्षेत्र में आमतौर पर ध्यान समग्र स्तर पर सीखने के परिणामों में सुधार लाने के काम पर होता है, जबकि इस तथ्य की अनदेखी की जाती है कि पहुँचने वाले लाभ जातीय और धार्मिक समूहों के बीच महत्वपूर्ण रूप से अलग हो सकते हैं। 

आंशिक रूप से ऐसा इसलिए होता है क्योंकि जाति, लिंग, पितृसत्ता और ऐसे ही कई विषयों से जुड़े मुद्दों को हल करने की कोशिश करने से कुछ संभावित लाभों की भरपाई हो सकती है, जो हस्तक्षेप की पहुँच या परिणामों की गुणवत्ता में सुधार कर सकते हैं, खासकर कम समय अंतराल से मध्यम समय अंतराल में। 

लेकिन क्या हम समुदायों को और अधिक समावेशी बनने में उनकी मदद करने के अवसर से चूक रहे हैं?

ऐसे कई उदाहरण हैं जहां नागरिक समाज संगठनों ने राज्य या बाज़ारों द्वारा समुदायों तक सेवा वितरण की पहुँच और गुणवत्ता में सुधार लाने के क्षेत्र में काम किया है। लेकिन साथ ही उसी समुदाय के अंदर सामाजिक नियमों, पितृसत्तात्मक व्यवहारों और भेदभाव से निबटने के अवसर से चूक गए हैं। 

दलित समाज के 94 प्रतिशत बच्चे एएनएम के रूप में जमीन पर काम कर रहे कार्यकर्ताओं द्वारा किए जाने वाले भेदभाव का शिकार होते हैं।

2006 में राजस्थान में आए बाढ़ के दौरान ऐसा दर्ज किया गया था कि ‘दूसरों को प्रदूषित’ करने के डर के कारण दलितों को ‘राहत शिविरों’ से निकलने के लिए कहा गया था। 2008 में बिहार में कोसी में आने वाले बाढ़ के दौरान ऐसा पाया गया कि राहत कार्य के दौरान राहत शिविरों में अलगाव और प्रमुख जतियों वाले शिविरों में अन्य लोगों को वंचित करना एक नियम जैसा था। कुछ मामलों में राहत शिविरों में दलित परिवारों का पंजीकरण नहीं किया गया था। 2007 में बिहार में आए बाढ़ के दौरान दलितों के साथ हिंसा की खबरें भी सामने आई थीं।

ये एक-आध घटनाएँ नहीं हैं। उत्तर प्रदेश, बिहार, आंध्र प्रदेश, तमिल नाडु और राजस्थान, इन पाँच राज्यों के लगभग 531 गांवों से लिए गए नमूनों के आधार पर किए गए अध्ययन से यह सामने आया कि सरकार की मिड डे मील योजनाओं और सार्वजनिक वितरण प्रणाली के बँटवारे में उच्च जातियों के अभिभावकों द्वारा भेदभावपूर्ण व्यवहार किया जाता है। 

एक दूसरे शोध से यह बात सामने आई कि दलित समाज के 94 प्रतिशत बच्चे एएनएम के रूप में जमीन पर काम कर रहे कार्यकर्ताओं द्वारा किए जाने वाले भेदभाव का शिकार होते हैं क्योंकि ये लोग इन बच्चों तक स्वास्थ्य सेवाएँ पहुंचाने के लिए इनके घरों के भीतर नहीं जाते हैं। 

एक और पायलट अध्ययन से इस बात के प्रमाण मिले हैं जो यह संकेत देते हैं कि कुछ खास किस्म की नौकरियों में प्रवेश के समय दलित समाज की महिलाओं के साथ भेदभाव किया जाता है और उनका बहिष्कार होता है। व्यवसायों की शुद्धता और प्रदूषण की धारणा के कारण सफाई कर्मचारी के समुदायों से संबंध रखने वाली महिलाओं को रसोइया या नौकरानी के रूप में काम पर नहीं रखा जाता है। 

नागरिक समाज को इसे बदलने की जरूरत है 

केवल एक बेहतर शासन और बाजार ही प्रगति करने और एसडीजी तक पहुँचने के लिए पर्याप्त नहीं होगा। पिछले दशकों में भारत की जीडीपी (सकल-घरेलू उत्पाद) लगभग छ: प्रतिशत तक बढ़ा है; हालांकि महिला श्रम बल की भागीदारी में 1999–2000 में 34 प्रतिशत से 2011–12 में 27 प्रतिशत तक की गिरावट आई है। जहां इसके कई कारण हैं, वहीं पितृसत्तात्मक बर्ताव, एजेंसी और नियंत्रण में कमी और निम्न स्तर ऐसे मुख्य कारक हैं जिनका योगदान अधिक है। 

वास्तव में, बढ़े हुए आर्थिक सशक्तिकरण से उन महिलाओं और लड़कियों के खिलाफ समुदाय और व्यक्तिगत प्रतिक्रिया के उदाहरण भी हो सकते हैं जो अपनी एजेंसी का प्रयोग करती हैं और लैंगिक सामाजिक-सांस्कृतिक मानदंडों को चुनौती देती हैं। प्रमाण दिखाते हैं कि वित्तीय संसाधनों तक महिलाओं की पहुँच में वृद्धि वैवाहिक हिंसा को बढ़ावा दे सकती है। प्रतिक्रिया के अन्य मामलों में स्कूलों से लड़कियों को निकाल देना, उनकी शादियाँ करवा देना और यहाँ तक कि ऑनर किलिंग (सम्मान की रक्षा के लिए जान से मार देना) आदि शामिल हैं। 

नागरिक समाज को वर्तमान की अपनी भूमिका से आगे बढ़कर कुछ करने की जरूरत है।

जितना हम चाहेंगे, समुदाय में सुधार स्वत: घटित नहीं होगा। नागरिक समाज को वर्तमान की अपनी भूमिका से आगे बढ़कर कुछ करने की जरूरत है। और समुदाय के साथ इसके घनिष्ठ संबंधों को देखते हुए ऐसा करने के लिए यह अच्छी तरह से तैयार है। यह समुदाय के नेताओं, समूहों और व्यक्ति विशेष के साथ साझेदारी स्थापित करके इस बदलाव को लाने का काम कर सकता है। 

हालांकि, हम कुछ बदलावों को देख रहे हैं 

अगर आप आज की तारीख में जातीय गतिशीलता को देखते हैं तब आप पाएंगे कि इसमें से कुछ आर्थिक वृत में बदल चुका है। पहले कृषि (ग्रामीण भारत के लिए आजीविका का मुख्य स्त्रोत) में कुछ खास जातियाँ ही किराए पर जमीन लेती थीं वहीं दूसरी जातियाँ मजदूरों के रूप में काम करती थीं। लेकिन नए अवसरों के आने के बाद आर्थिक प्रारूप बदल गया है। गैर-कृषि पेशे सामने आए हैं और लोग इन्हें चुन सकते हैं। 

मजदूरों की कमी को देखते हुए उच्च जाति वाले समुदायों के लोगों ने साझा फसलों के लिए निम्न जाति के किसानों को अपनी ज़मीनें देनी शुरू कर दी है। 

हालांकि इस विकास को सामाजिक और राजनीतिक दुनिया में बदलाव के रूप में नहीं देखा गया। सामाजिक संवाद आज भी सीमित है—भिन्न जतियों के बीच होने वाली शादियाँ आज भी दुर्लभ हैं; और एक दूसरे के सामाजिक सम्मेलनों में भी लोगों का शामिल होना उसी तरह है। राजनीति में भी यही हाल है, जहां राजनीतिक बनावट आज भी जाति-आधारित है चूंकि इसका मुख्य उद्देश्य शक्ति और संसाधनों का विलय है। 

इन क्षेत्रो में बदलाव लाना मुश्किल है; हालांकि यह महत्वपूर्ण है कि इन मुद्दों को स्पष्ट किया जाये और नागरिक समाज उनपर काम करने पर विचार करे। समुदायों को समावेशी और प्रगतिशील बनाने में मदद करना हमारे केंद्रीय कार्यसूची का हिस्सा होना चाहिए। 

नागरिक समाज सरकार के साथ अपने काम करने के तरीके पर भी समान दृष्टिकोण को अपना सकता है। कई तरह के विभाजनों का सामना करने के बावजूद—उदाहरण के लिए पैमाने पर उपस्थित लेकिन सीमित निष्पादन क्षमता; जवाबदेही व्यवस्था और असमान शक्ति संरचनाओं का सह-अस्तित्व; और निहित स्वार्थों का प्रबंधन करते हुए कल्याण को अधिकतम करने का इरादा—नागरिक समाज यह मानता है कि उसे सरकार के सभी अच्छे-बुरे हिस्सों से निबटना है। और यह एक ऐसा दृष्टिकोण है जिसे वह समुदाय के साथ काम करते वक्त अपना सकता है।

समुदाय के साथ संबंधों को संतुलित करने और दोबारा परिभाषित करने के तरीकों की खोज-प्रक्रिया में कई तरह की चुनौतियाँ होंगी। इसके लिए हमें नए ज्ञान और उपकरणों की जरूरत के साथ-साथ असफलताओं और नाकामयाबियों से उबरने के लिए अतिरिक्त संसाधनों और तंत्रों की जरूरत भी होगी। लेकिन इससे हमें इस तथ्य से विचलित नहीं होना चाहिए कि नागरिक समाज के लिए इस दिशा में आगे बढ़ना एक आवश्यक मामला है। 

अस्वीकरण: डॉक्टर रेड्डीज फ़ाउंडेशन सामाजिक क्षेत्र में कम चर्चित विषयों पर शोध और प्रसार के लिए आईडीआर का समर्थन करती है।

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“हमारे पास सबमें फिट होने वाली एक ही आकार की संचार रणनीति नहीं हो सकती है”

पश्चिम अफ्रीका के बेनीन में एम&सी सातची (एक संचार एजेंसी) ने साइटसेवर्स (एक स्वयंसेवी संस्था) के साथ मिलकर कोविड-19 पर सामाजिक और व्यावहारिक परिवर्तन संचार (एसबीसीसी) के डिज़ाइन पर काम किया है। यह रचनात्मक संपत्ति एक टेलीविज़न विज्ञापन (टीवीसी) था जिसे पहले एम&सी सातची ने छ: स्थानीय भाषाओं में सबटाइटल के साथ प्रसारित किया था। अन्य सम्पत्तियों में रेडियो, बिलबोर्ड, पोस्टर, पर्चे और स्वास्थ्य कर्मियों के साथ-साथ धार्मिक और पारंपरिक नेताओं के लिए प्रशिक्षण पुस्तिका भी शामिल थी। मिलाजुला कर चलने वाले और आसानी से उपलब्ध डिज़ाइन के सुझावों पर साइटसेवरों ने अपनी सलाह दी। इन सलाहों के साथ टीवीसी ने एक सांकेतिक भाषा वाले दुभाषिये की मदद की और अलग रंग में गाए शब्दों की आवाज़ को बढ़ा दिया। उन्होनें पर्दे पर दिखने वाले संकेतक के आकार और उसकी स्थिति के साथ ही संकेतक के चेहरे पर मास्क का उपयोग भी किया था जिससे कि वह अपने चेहरे के हावभाव और मुंह कि गति में कमी ला सके।

इसका परिणाम यह निकला कि इस डिज़ाइन ने उन लोगों की मदद की जिनके सुनने की क्षमता खत्म हो गई थी, जो बहरे थे, जिनके काम करने की याददाश्त के साथ दिक्कत थी, या गति के साथ तालमेल नहीं बैठा सकते थे या फिर डिस्लेक्सिया जैसी बीमारी से पीड़ित थे। टीवीसी के लिए आधिकारिक मंजूरी मिलने से पहले स्वास्थ्य मंत्रालय के प्रतिनिधि ने एक्सिसिबिलिटी का समर्थन कर दिया था। एम&सी सातची के प्रतिनिधि ने कहा कि, “इस अपेक्षाकृत समावेशी अभियान ने इस आधार पर बड़ी हिस्सेदारी प्रदान की है कि हमें समावेशन को ध्यान में रखते हुए संचार की प्रक्रिया को कैसे विकसित करना चाहिए। यह भविष्य में हमारे अभियानों की शुरुआती बिन्दु को तैयार करेगा जिसमें हम अपने पिछले काम के आधार पर इनका निर्माण करते हैं और साथ ही संचार प्रदान करने में आगे बढ़ने के ऐसे तरीकों की तलाश करते हैं जो समावेशी हैं।”

कोविड-19 के प्रति हमारी प्रतिक्रिया ने हमें क्या सिखाया?

सेवा वितरण के क्षेत्र में काम न करने वाली एक नागरिक समाज संगठन के रूप में ब्रेकथ्रू में हम लोगों ने कोविड-19 के प्रति अपनी सामुदायिक प्रतिक्रिया पर अंतहीन बहसें की हैं। मेरी ज़ूम स्क्रीन के उस काल डब्बे के पीछे से आने वाली आवाज़ें गुस्से और हताशा से भरी थीं। मेरे सहकर्मी ने कहा कि “हम विभिन्न स्तरों पर बहुत सारी महामारी के साथ लड़ रहे हैं क्योंकि तकनीक और सोशल मीडिया ने बहुत ही तेज गति से गलत सूचनाओं को लोगों तक पहुंचाने का काम किया है। इससे हमें उन समुदायों के साथ तालमेल बैठाने में मुश्किल हो गई है आ जिनके साथ काम करने में हमें मतौर पर मजा आता था। अब वे लोग हमें शक की नज़रों से देखने लगे हैं क्योंकि हम टीका और उपचार की बात कर रहे हैं।”

नतीजतन, हमने यह फैसला किया कि चूंकि हम लोग फिर से शुरुआत कर रहे हैं इसलिए हमारा ध्यान महामारी पर संवाद वाले क्षेत्र और संवाद को विषय-संबंधित करने पर होगा। इसके अलावा हम इस पर भी ध्यान देंगे कि हमारा यह संवाद उन लोगों की प्रतिध्वनि हो जिनके साथ हम काम करते हैं। यह सबकुछ उस महत्वपूर्ण अनुभव पर आधारित था जो हमने संकट के दौर में पिछले 18 महीनों में हासिल किया था। अगर हम लोग उस समुदाय के साथ लगातार बातचीत नहीं करेंगे जिनके लिए हम सेवाओं को तैयार कर रहे हैं और साथ ही ऐसे विषयों को लक्ष्य नहीं बनाएँगे जो उन लोगों के लिए प्रासंगिक है तो ऐसा हो सकता है कि वे गलत सूचनाओं और गलत ख़बरों का हिस्सा बनने लगें।

क्या हमनें वास्तव में इस बात का ध्यान रखा है कि संचार सामाजिक व्यवहार परिवर्तन का निर्माण प्रभावशाली ढंग से कर सकता है?

सरकारों, नागरिक समाज संगठनों, दानकर्ताओं, राजनीतिक नेताओं, डॉक्टरों और वैज्ञानिकों ने इस संकट पर भारी प्रतिक्रिया दी है। और इन प्रतिक्रियाओं में से ज़्यादातर हिस्सा प्रोटोकॉल, उपचार और टीके के बारे में है। महामारी के हर पहलू को लेकर सूचनाओं का एक ढ़ेर चारों तरफ बिखरा हुआ है। लेकिन क्या उस संचार के विकास को लेकर हम लोग रणनीतिक या समावेशी हो पाए? क्या हमनें वास्तव में इस बात पर ध्यान दिया कि संचार सामाजिक व्यवहार परिवर्तन का निर्माण प्रभावशाली ढंग से कर सकता है?

अतीत से सीखना

अपने पिछले अनुभवों से हमने सीखा है कि संचार में निर्मित सामुदायिक जुड़ाव और सामाजिक परिवर्तन रणनीतियाँ 1990 और 2000 के दशक में बड़े पैमाने पर टीकाकरण लाभ से लेकर इबोला तक, और पोलियो की चुनौती को पूरा करने जैसे कामों में महत्वपूर्ण साबित हुई हैं।

अगर आप पश्चिमी अफ्रीका में इबोला के मामलों को देखते हैं तो आप पाएंगे कि सबसे सफल संचार रणनीतियों में से कुछ सामुदायिक जुड़ाव और सबसे अधिक जोखिम का सामना कर रहे समूहों के लिए लक्षित स्वास्थ्य संचार थे। प्रकोप की शुरुआत में, गलत सूचना और मिथकों से लड़ने के प्रयास बहुत मजबूत नहीं थे, और इसलिए हानिकारक समाधानों को सही समाधानों के रूप में पेश किया गया था।लेकिन बाद में रेडियो पर ‘इबोला ऑवर’ जैसे कार्यक्रमों का इस्तेमाल मिथकों को तोड़ने और स्वास्थ्य संबंधी स्पष्ट और सही जानकारी देने के लिए बहुत कारगर साबित हुआ। लाइबेरियन वकालत समूहों ने उन लोगों तक पहुँचने के लिए फेसबुक पर स्थानीय भाषाओं में इबोला के बारे में ऑडियो घोषणाएँ पोस्ट कीं जो अँग्रेजी नहीं समझते हैं या फिर पढ़ नहीं सकते हैं। स्थिति का विश्लेषण करने और स्थानीय समुदायों के साथ सहयोग में सुधार करने के लिए अंतर्राष्ट्रीय संगठनों ने गिनी में स्थानीय मानववैज्ञानिकों के साथ काम किया। उन्होनें पाया कि इबोला के उपचार ने अब तक सिर्फ बायोमेडिकल पहलुओं पर ही ध्यान केंद्रित किया था और समुदाय, समाज और संस्कृति जैसे मानकों की अवहेलना की थी। नतीजतन, उन्होनें स्थानीय समुदायों की आशंकाओं, चिंताओं और पारंपरिक मान्यताओं को गंभीरता से लेना शुरू कर दिया। उन्होनें पाया कि स्थानीय लोग ‘आइसोलेशन केन्द्रों’ को ‘डेथ चैंबर’ समझते हैं जहां से कोई भी जिंदा वापस नहीं लौटता है। एक बहुत ही सरल उपाय बताते हुए मनोवैज्ञानिकों ने सुझाव दिया कि इसे बदलकर ‘उपचार केंद्र’ कर दिया जाये। इसके अलावा प्रभावित समुदायों को वायरस की रोकथाम और प्रबंधन को प्रभावी ढंग से संप्रेषित करने के लिए एक बहु-मोडल रणनीति पर भी ध्यान केंद्रित किया गया था।

एक आंगनबाड़ी कार्यकर्ता टेलीकाउन्सेलिंग के लिए लाभार्थी महिलाओं के एक समूह को स्मार्टफोन से वीडियोकॉल करते हुए_गेट्स आर्काइव/सौम्या खंडेलवाल-कोविड-19 संचार
संचारकर्ताओं के लिए यह बहुत जरूरी था कि वे दर्शकों के चश्में से देखें और उनकी जरूरतों, अनुभूतियों और आत्म-प्रभाव को समझने की कोशिश करे। | चित्र साभार: © गेट्स आर्काइव/सौम्या खंडेलवाल

ऐसा लगता है कि कोविड-19 के शुरू होने पर इबोला के प्रकोप से मिलने वाले अनुभव वैश्विक समुदाय में मुश्किल से ही प्रसारित हुए थे। इस दौर में मैंने एक नई शब्दावली ‘इन्फोडेमिक’ के बारे में जाना जो विविध और बहुअर्थी है। सोशल मीडिया प्लैटफ़ार्म के इस विशाल प्रभाव ने अफवाहों और संदिग्ध सूचनाओं को बढ़ावा दिया है। एल्गोरिदम ने सामग्री प्रचार और सूचना प्रसार के काम में मदद की है। इसने महामारी के शुरुआती दिनों से ही बेतुकी बातों को आकार देने में उनकी मदद की है। इसके उदाहरणों में बिल गेट्स को एक प्रयोगशाला में वायरस की उत्पत्ति से जोड़ने वाली गलत सूचना और भारत में दूसरी लहर और वैक्सीन रोलआउट के रूप में टीके से नपुंसकता पैदा होने वाली अफवाहें शामिल हैं। अफवाहों और गलत सूचनाओं के इस मेल से पैदा होने वाले डर के कारण लोगों ने स्वास्थ्य कर्मियों पर हमले भी कर दिये। कई संगठनों ने इनमें से कुछ मिथकों को तोड़ने और सोशल मीडिया पोस्ट और फिल्मों के माध्यम से झूठी सूचनाओं का मुकाबला करने पर ध्यान केंद्रित किया। उदाहरण के लिए बीबीसी मीडिया एक्शन द्वारा प्रसारित काउंटडाउन जैसी फिल्म।

हमारा शोध हमें क्या बताता है?

जून 2021 के अंतिम सप्ताह में ब्रेकथ्रू में हमनें इसे लेकर एक डिपस्टिक शोध किया कि कैसे कोविड-19 उन क्षेत्रों में महिलाओं और लड़कियों को बुरी तरह से बिना भेदभाव के प्रभावित कर रहा है जहां हम काम करते हैं। हमने महसूस किया कि ग्रामीण, वंचित समुदायों में लोगों के लिए टीकाकरण के बाद के लक्षणों जैसी अवधारणाओं को समझना मुश्किल है क्योंकि बुखार आना बीमारी का संकेत देता है, न कि इस बीमारी से लड़ने के लिए एंटीबॉडी बनाने की प्रक्रिया को बताता है। उत्तर प्रदेश के एक गाँव में रहने वाले रामशरण ने बताया कि “शुरुआत में गाँव के लोग टीका लगवाने के लिए तैयार थे लेकिन हमनें सुना कि टीका लगवाने के बाद बहुत सारे लोग बीमार हो जा रहे हैं। इसलिए हमनें सोचा कि अगर बहुत सारे लोगों के साथ ऐसा हो रहा है तब हमें टीका क्यों लगवाना चाहिए?” हमारे अध्ययन के परिणाम में भी यह बात स्पष्ट है कि डिजिटल पंजीकरण के कारण बहुत कम संख्या में औरतों ने टीका के लिए पंजीकरण करवाया है क्योंकि उनके पास मोबाइल या कंप्यूटर की उपलब्धता नहीं है। साथ ही जब घर के कामों की ज़िम्मेदारी की बात आती है तो परिवार में एक स्पष्ट पदानुक्रम होता है जहां काम के लिए सबसे पहले औरतों को ही आगे आना पड़ता है। अगर वह बीमार हो जाती है तो उससे उम्र में बड़ी लड़कियां उन जिम्मेदारियों को उठाती हैं। घर के मर्द या लड़के सिर्फ उन्हीं स्थितियों में घर का काम करते हैं जब परिवार की सभी औरतें एक साथ बीमार हो जाती हैं।

हम क्या कर सकते हैं?

अब जब हम कोविड की दूसरी लहर से आगे बढ़ते हैं और चीजों के पुनर्निर्माण की शुरुआत करते हैं तब हमें यह सोचना चाहिए कि हम कोविड-19 पर होने वाले संवाद को कैसे बेहतर कर सकते हैं? मैंने इस मुद्दे पर कुछ विशेषज्ञों से बात की है। बीबीसी मीडिया एक्शन की कार्यकारी निदेशक प्रियंका दत्ता ने कहा कि संवाद के विकास के लिए अपेक्षाकृत अधिक रणनीतिक, मानव-केन्द्रित सोच को अपनाना महत्वपूर्ण है। उनका सवाल है कि “क्या हम महामारी पर साक्ष्य-आधारित, आकर्षक और प्रभावशाली सामाजिक और व्यवहार परिवर्तन वाले संवाद लोगों तक पहुंचा सकते हैं?”

संचार और परिवर्तन केंद्र-भारत (सीसीसी-आई) की उप निदेशक संजीता अग्निहोत्री ने कहा कि एक एकीकृत, सटीक और विश्वसनीय संदेश को साझा करना महत्वपूर्ण है। वह आगे कहती हैं कि “इन संदेशों को विभिन्न श्रोताओं के अनुसार बदलना (भी) आवश्यक है।”

जैसा कि प्रियंका कहती हैं, हमें सामान्य सूचनाओं से आगे बढ़ना होगा और उन लोगों के नजरिए से संवाद को देखना शुरू करना होगा जिनकी सोच जटिल है और जिनकी जरूरतें परतदार हैं और जिनपर कोविड-19 का बहुत बुरा असर पड़ा है। एसबीसीसी द्वारा किए जाने वाले तैयारी के प्रयास स्वास्थ्य प्रणाली को मजबूत करने के लिए एक अभिन्न अंग के रूप में काम करता है और एक आपातकालीन सावर्जनिक स्वास्थ्य संकट से निबटने के इसकी क्षमता को बढ़ा सकता हैं। इस तरह के संचार का निर्माण विभिन्न हितधारकों की पहचान करने, उनकी भूमिकाओं को समझने और किसी समस्या को हल करने के लिए उन्हें एक साथ जोड़ने की आवश्यकता को दर्शाता है—उदाहरण के लिए, टीकों की आवश्यकता के बारे में बात करने के लिए ऐसे स्थानीय लोगों को लेकर आना जिनका प्रभाव इलाके में बहुत अधिक है। एसबीसीसी यह भी सुनिश्चित करता है कि विभिन्न हितधारकों के बीच संरचनाएं और नेटवर्क स्थापित किए गए हैं, जिसके परिणामस्वरूप नीति निर्माताओं और गैर-लाभकारी संस्थाओं, चिकित्सा आपूर्ति के वितरकों और सामुदायिक स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं के बीच सफल समन्वय प्रयास होते हैं। ये और इसके अलावा अन्य शुरुआत स्वास्थ्य प्रणालियों के समग्र परिवर्तन में योगदान कर सकती हैं, जिससे वे अच्छी तरह से काम कर सकें और आवश्यक होने पर आपात स्थिति से निबटने में सक्षम हो सकें।

हमें टीके लेने सहित कोविड-19 उपयुक्त व्यवहार को अपनाने के प्रति लोगों के दृष्टिकोण को समझने पर ध्यान देना चाहिए।हमें ग़लत सूचनाओं से निबटने हेतू लोगों को तैयार करने के लिए सामूहिक रूप से और अधिक प्रयास करना चाहिए, जिसमें कल्पना से तथ्य बताना सीखना और दोस्तों और परिवार के साथ साझा करने से पहले डेटा की सत्यता की जांच करना शामिल है।

प्रत्येक व्यक्ति के पास दुनिया को देखने के लिए एक अलग दृष्टि होती है।

क्या विभिन्न समुदायों को लगता है कि उनके पास व्यक्तिगत और सामूहिक कौशल और कोविड-19 उपयुक्त व्यवहार अपनाने की क्षमता है? संजीता और प्रियंका दोनों ने हाशिए के समुदायों की विशिष्ट जरूरतों को पूरा करने के लिए संचार को तैयार करने के बारे में बात की। प्रत्येक व्यक्ति के पास दुनिया को देखने के लिए एक अलग दृष्टि होती है। संचारकों के लिए जरूरी है कि वे उस दृष्टि को समझें और दर्शकों की ज़रूरतों, धारणाओं और आत्म-प्रभावकारिता पर भी ध्यान दें। संजीता ने यह भी बताया कि हमारे हस्तक्षेपों को किस तरह से संशोधित किया जा सकता है ताकि यह पता लगाया जा सके कि लोग अपने व्यवहार परिवर्तन के किस स्तर पर हैं: क्या वे परिवर्तन के लाभों को स्वीकार करने की स्थिति में हैं? क्या उन्होंने ऐसा कोई कदम उठाया है जिससे पता चलता है कि वे इसके लिए तैयार हैं? या वे पूर्व-महामारी मुक्ति वाले दिनों में लौट रहे हैं?

ब्रेकथ्रू में मेरे सहकर्मियों का ऐसा मानना है कि कोविड-19 से संबंधित संचार पूरी तरह से आम जनता के नजरिए से नहीं तैयार किया जा सकता है। क्या हमारे पास समस्याओं के प्रतिच्छेदन को लेकर पर्याप्त साक्ष्य नहीं हैं? दुनिया भर में असमान रूप से पीड़ित अल्पसंख्यकों और प्रवासियों से लेकर महिलाओं और लड़कियों को संयुक्त राज्य अमेरिका में सफेद उच्च और मध्यम वर्गों की तुलना में संक्रमण के उच्च जोखिम का सामना करना पड़ रहा है। आप इसे किसी भी तरह से देखें, संचार तब प्रभावी होता है जब इसे उन दर्शकों के अनुरूप बनाया जाता है, जिन तक आप पहुँचने का लक्ष्य रखते हैं।

रणनीतिक एसबीसीसी में बहुत बड़ा काम किया जाना है जो समुदायों को सूचित, सशक्त बना सकता है और उन्हें जोड़ने का काम कर सकता है। इसे समुदायों के सहयोग से तैयार किया जाना चाहिए और सार्वजनिक और निजी क्षेत्र के संगठनों के साथ साझेदारी में वितरित किया जाना चाहिए। हमें यह भी पता लगाने की जरूरत है कि महामारी से उभरने वाले कई अंतर-संबंधी मुद्दों में संचार कैसे भूमिका निभा सकता है—लिंग आधारित हिंसा में वृद्धि, मानसिक स्वास्थ्य संबंधी चिंताएं, और बहुत कुछ। हमारे पास सबमें फिट होने वाली एक ही आकार की संचार रणनीति नहीं हो सकती है। हमें रेडियो पर अपना ‘कोरोना ऑवर’ चाहिए।

ब्रेकथ्रू ग्लोबल अलायंस फॉर सोशल एंड बिहेवियर चेंज का सदस्य है।

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‘विरासत’ में मिले बोर्ड का प्रबंधन

भारत में स्वयंसेवी संस्थाएं अब संचालन के लिए पेशेवर सीईओ को नियुक्त करने लगी हैं। उनके ऐसा करने के पीछे का कारण अक्सर यह होता है कि इसके संस्थापक अब इसे आगे चलाने की स्थिति में नहीं होते हैं या फिर किसी-किसी मामले में वे इसे अब खुद चलाना नहीं चाहते हैं। इसके अलावा बहुत ही कम मामलों में ही सही लेकिन ऐसी स्थितियां भी दिखती है जिनमें संस्थापकों को महसूस होता है कि अब उनके इस पद से आगे बढ़ने का समय आ गया है।

ऐसा कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि अक्सर बोर्ड पहले संस्थापकों के लिए और उसके बाद संगठन या संस्था के लिए होते हैं।

आमतौर पर, संगठन के साथ आने वाले नए नेतृत्व को इसके कर्मचारी, कार्यक्रम के साथ ही इसका बोर्ड भी विरासत में मिलता है। एक बोर्ड जिसका गठन संस्था की स्थापना के समय की जरूरतों को ध्यान में रख कर किया गया था। 

और जहां नया नियुक्त सीईओ आमतौर पर अपनी सोच से संस्था को स्वतंत्र रूप से चलाने का सुख भोगता है, वहीं ऐसा विरले ही होता है कि उसे बोर्ड के स्तर पर किसी भी तरह का बदलाव करने की वैसी ही छूट मिली हो। शुरुआती कुछ सालों में तो बिलकुल भी नहीं मिलती है। इस तरह की परिस्थितियाँ अपने साथ कौन सी चुनौतियाँ लेकर आती है?

संस्थापकों द्वारा गठित बोर्ड से संबंधित कुछ महत्वपूर्ण कारकों को ध्यान में रखना जरूरी है:

  1. ये लोग आमतौर पर संस्थापक के या तो दोस्त होते हैं या परिवार के सदस्य या फिर कुछ मामलों में दोस्तों की सलाह पर चुने गए लोग।
  2. बोर्ड एक ऐसा समूह होता है जो संस्था या संगठन के विकास के दौरान संस्थापक की जरूरतों के हिसाब से काम करता है और उनके बारे में जानता है—इसकी भूमिका उन बातों को मानने से लेकर उन तरीकों का समर्थन करने की है जो उस वक्त की मांग है (भले ही कभी-कभी इसमें कुछ न करना भी शामिल होता है)।
  3. यह रिश्ता मौलिक रूप से संस्थापक—एक व्यक्ति—के साथ होता है न कि संस्था की स्थापना के पीछे के उद्देश्य से, हालांकि कि समय के साथ इसमें बदलाव भी आ सकता है।
  4. बोर्ड के अंदर की गतिकी की व्यवस्था संस्थापक करता है और कभी-कभी उस पद पर बैठा हुआ आदमी जिसे संस्थापक नियुक्त करता है या कर सकता है। संस्थापक और बोर्ड के सदस्यों के बीच एक ख़ास किस्म का रिश्ता होता है जो संवाद के उन तरीको को तय करता है जिनके आधार पर संगठन में उन सदस्यों की भूमिकाएँ तय होती हैं।
  5. आमतौर पर बोर्ड की सक्रियता संस्थापक के इशारे पर होती है और बहुत ही कम मामलों में कोई भी बोर्ड संगठन की संचालन प्रक्रिया में बदलाव लाने के फैसले पर सक्रियता दिखाता है।
  6. जब संरचना में किसी तरह का बदलाव होता है तो इसका कारण भी संस्थापक की कोई नई या अलग जरूरत हो सकती है, और वे आमतौर पर आने वाले बदलाव को सुनिश्चित करने के लिए अपना अंतिम मत देते हैं।

ऐसा कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि किसी भी संगठन का बोर्ड अक्सर पहले इसके संस्थापक के लिए काम करता है और फिर उसके बाद संगठन के लिए।

क्या होता है जब नया सीईओ अपना पदभार संभाल लेता है?

जब एक नया सीईओ अपना पद संभालता है तब उसे बाकी चीजों के साथ विरासत में संस्था का वह बोर्ड भी मिलता है जो संस्थापक/पूर्ववर्ती के साथ एक खास ढांचे में काम करता था। नए सीईओ की उपस्थिती बोर्ड की हर चीज पर असर डालती है—सीईओ के साथ के रिश्ते पर, सदस्यों के आपसी रिश्ते पर और साथ ही वहाँ की प्राथमिक चीजों पर भी। 

इस तरह के बहुत सारे बदलावों से तनाव पैदा होता है—लोगों की एक दूसरे से उम्मीदें बदल जाती हैं, कमियाँ और अधिक स्पष्ट और मजबूत हो जाती हैं, इरादे और उठाए गए कदमों के बारे में धारणाएँ बनने लगती हैं, और भी बहुत कुछ होता है। इन सभी मामलों में सीधे तौर पर तब तक बात नहीं की जाती है जब तक तनाव का स्तर बहुत ऊंचा नहीं हो जाता है, उम्मीदें लंबे समय तक या तो पूरी नहीं होती हैं या अस्पष्ट रह जाती हैं और नया सीईओ एक ऐसे बोर्ड के साथ तालमेल बैठाने पर मजबूर हो जाता है जिसे उसने न तो बनाया है और न ही जिसके काम करने के तरीके से वह सहमत है।

एक आदमी दौड़ में दूसरे आदमी को बैटन पास कर रहा है_फ़्लिकर-स्वयंसेवी संस्था बोर्ड
विरासत में मिला बोर्ड अपने नए सीईओ को वह समर्थन दे सकता है जो संगठन को आगे ले जाने के लिए चाहिए। | चित्र साभार: फ़्लिकर

इन चुनौतियों को कम करने के लिए पहले कुछ महीनों में एक सीईओ क्या-क्या कर सकता है

1. बोर्ड को बेहतर तरीके से समझना

2. बोर्ड की कार्यशैली समझना

3. समय दें और ईमानदार बने रहें

अंत में, विरासत में मिला बोर्ड अपने नए सीईओ को वह समर्थन दे सकता है जो संगठन को आगे ले जाने के लिए चाहिए। हालांकि, ऐसा तभी किया जा सकता है जब चुनौतियों का अनुमान लगा लिया गया और साथ ही विश्लेषण कर लिया गया हो। और साथ ही इसके लिए संभव उपाय ढूंढ लिए गए हों ताकि नकारात्मक परिणामों में कमी लाई जा सके।  

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कार्यस्थल पर अदृश्य विकलांगता से जूझ रहे कर्मचारियों को सहयोग देना

अगर आप काम पर किसी को व्हीलचेयर, हियरिंग एड (सुनने वाली मशीन) या किसी भी तरह का सहारा देने वाली मशीन का इस्तेमाल करते हुए देखते हैं तो आप इस बात को लेकर आश्वस्त हो जाते हैं कि वह आदमी विकलांग है। लेकिन सभी तरह की विकलांगता को आँखों से देखना संभव नहीं है। अदृश्य विकलांगता एक ऐसी व्यापक शब्दावली है जो सभी किस्म की अदृश्य अक्षमता या चुनौतियों को अपने अंदर समाहित करती हैं जिनकी प्रकृति मुख्य रूप से तंत्रिका संबंधी (न्यूरोलोजिकल) है।

ऑटिज्म स्पेक्ट्रम विकार, अवसाद, मधुमेह, और सीखने और सोचने में कठिनाई वाली बीमारियाँ जैसे अटेन्शन डेफ़िसिट हाइपरएक्टिविटी रोग (एडीएचडी) और डिस्लेक्सिया आदि अदृश्य विकलांगता के उदाहरण हैं। इस तरह की अदृश्य विकलांगता किसी भी व्यक्ति के काम, निजी और सामाजिक जीवन की रफ्तार को कम कर सकती है या उसमें बाधा पहुंचा सकती है। इस तरह की चुनौतियों को केवल किसी व्यक्ति की चिकित्सीय परेशानी के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए। इन्हें सामाजिक दृष्टिकोण के हिसाब से भी देखा जाना चाहिए क्योंकि इसमें उस व्यक्ति के आसपास का वातावरण जिसमें उसके काम वाली जगह भी शामिल हैं, उसकी स्थिति को और बदतर या बेहतर बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

अब संगठनों को उनकी नीतियों पर दोबारा काम करना चाहिए

विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट के अनुसार कोविड-19 आपातकालीन प्रतिक्रिया प्रयासों के लिए स्वास्थ्य कर्मचारियों की तत्काल तैनाती होने लगी। इस तैनाती से मानसिक बीमारी से पहले से पीड़ित लोगों के लिए मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं के प्रावधान कमजोर होने लगे। मसलन विक्षिप्तता (डिमेन्शिया) से पीड़ित लोगों को महामारी के दौरान अधिक मदद की जरूरत थी क्योंकि उन्हें कोविड-19 से जुड़ी दिशानिर्देशों को याद रखने और उनका पालन करने में परेशानी होती थी। इसके अलावा कंपनियों में लोगों को काम से निकालने और उनके वेतन में कटौती करने; काम की जगह का पूरी तरह से डिजिटलीकरण होने और इसलिए कई लोगों तक उसकी पहुँच में कमी आने; लंबे समय तक अकेले रहने और सामाजिक दूरी का पालन करने आदि का प्रभाव भी इस पर पड़ा है। यह कहने की जरूरत नहीं है कि शोध की कमी के कारण हम अब भी यह नहीं जानते हैं कि मानसिक बीमारी से ग्रस्त लोगों पर कोविड-19 की दवाइयों का क्या और कैसा दुष्प्रभाव हो सकता है। इन सभी कारकों का लोगों पर मनोवैज्ञानिक असर पड़ा है और विकलांग लोग इससे अपेक्षाकृत अधिक प्रभावित हुए हैं।

देश के सभी दफ्तर और काम करने की जगहें दोबारा खुलने लगी हैं। इसलिए ऐसी नई रणनीतियों पर काम करना बहुत जरूरी हो गया है ताकि उनकी मदद से पहले से अधिक सहायक कार्यस्थल बनाए जा सकें। यह विशेष रूप से जरूरी है क्योंकि अक्सर लोग अपनी अक्षमताओं के बारे में दूसरों को नहीं बताते हैं। उन्हें यह डर होता है कि उनके बारे में उनके सहयोगियों का नज़रिया बदल जाएगा और साथ ही इसका असर संगठन के अंदर उनकी पेशेवर यात्रा पर भी पड़ेगा।

संगठन अदृश्य विकलांगता से ग्रस्त अपने कर्मचारियों की मदद कैसे कर सकते हैं?

अमरीका में सेंटर फॉर टैलंट इनोवेशन द्वारा 2017 में आयोजित एक अध्ययन के अनुसार व्हाइट-कॉलर कर्मचारियों का लगभग 30 प्रतिशत हिस्सा अदृश्य अक्षमता से ग्रसित है। अक्सर इसपर किसी का ध्यान तब तक नहीं जाता है जब तक कि लोग खुद इसके बारे में खुलकर बात नहीं करते हैं। दुर्भाग्यवश, भारत में इससे जुड़ा किसी तरह का पर्याप्त आंकड़ा नहीं है इसलिए हम समस्या की व्यापकता से अवगत नहीं हैं। हमें सिर्फ इतना मालूम है कि जब बात हमारे आसपास के लोगों की अक्षमता के कारण उनके जीवन में आने वाली रोज़मर्रा की परेशानियों की आती है तब हम अमूमन इससे अनजान होते हैं। उदाहरण के लिए, थकान की अपनी पुरानी बीमारी के कारण जब कोई आदमी काम के बीच में कुछ मिनटों का आराम चाहता है तब हम उसे आलसी समझ लेते हैं। समस्या की जड़ को समझने और उस हिसाब से ही नीतियों को बनाकर हम लोगों के लिए अधिक सहायक वातावरण तैयार कर सकते हैं।

जीवन रक्षक की मदद से बीच पानी से किनारे तक पहुँचना_अन्सप्लैश-कार्यस्थल विकलांगता
समस्या की जड़ को समझना और उसी हिसाब से नीतियों का निर्माण करने से लोगों के लिए एक सहयोगी वातावरण तैयार किया जा सकता है। | चित्र साभार: अन्सप्लैश

हम यहां उन कुछ तरीकों के बारे में बता रहे हैं जिससे कोई भी संगठन अदृश्य अक्षमता से ग्रसित अपने कर्मचारियों के लिए एक समावेशी कार्यस्थल तैयार कर सकता है।

1. एक सहज परिस्थितिकी तंत्र का निर्माण

संगठनों को समावेशीकरण से जुड़ी सामयिक सूचना और जागरूकता सत्रों से परे जाने की आवश्यकता है और इसके बजाय इन्हें ठोस कार्यान्वयन योग्य उपायों को व्यवहार में लाना चाहिए। इनमें अक्षम लोगों के साथ बातचीत करते समय उपयुक्त और संवेदनशील शिष्टाचार और संचार पर कर्मचारियों को प्रशिक्षित करने के लिए आंतरिक कार्यशाला और नीतियाँ शामिल होनी चाहिए। फिर इन प्रयासों को लगातार प्रतिक्रिया व्यवस्था के आधार पर सुदृढ़ किए जाने की भी जरूरत है।

संगठन साथी वाली व्यवस्था का निर्माण भी कर सकते हैं जिसमें कर्मचारियों को अपने विकलांग सहयोगियों के साथ मिलकर एक जोड़ा बनाना होता है। इस व्यवस्था में दो कर्मचारी अपनी आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए एक अनुकूल, आरामदायक कार्यस्थल बनाने के लिए एक दूसरे के साथ काम करते हैं। जहां वे एक दूसरे से किसी भी मुद्दे या सवाल को लेकर बात कर सकते हैं। इस तरह का सहयोगी नेटवर्क तैयार करने से अक्षम कर्मचारियों को संगठन में बनाए रखने की दर को बढ़ाया जा सकता है।

इन उपायों से कंपनी में एक बेहतर स्वीकृति के निर्माण में मदद मिल सकती है और साथ ही अदृश्य अक्षमताओं से ग्रसित लोगों के लिए एक आरामदायक माहौल तैयार किया जा सकता है ताकि वे अपनी समस्याओं के बारे में और अधिक खुलकर बात कर सकें।

2. अदृश्य अक्षमताओं के बारे में सहकर्मियों को बताना

ऐसी संभावना है कि ज़्यादातर लोग इस बात से अच्छी तरह वाकिफ नहीं होंगे कि अदृश्य विकलांगता का क्या मतलब होता है और यह किसी व्यक्ति के जीवन में कैसे आता है। समझ की इस कमी के कारण विकलांग लोगों को लेकर गलत धारणा बन सकती है जो इसके बदले में कार्यस्थल की संस्कृति और उत्पादकता पर असर पड़ सकता है। इसलिए कर्मचारियों को इसके बारे में बताना और उन्हें इसके प्रति संवेदनशील बनाना बहुत जरूरी है और इससे समझौता नहीं किया जा सकता है।

संगठनों को एक समावेशी नौकरी कोच (‘इंक्लूसिविटी जॉब कोच’) को काम पर रखने के बारे में सोचना चाहिए जो विकलांग व्यक्तियों के अधिकार अधिनियम 2016 द्वारा विस्तृत और अनिवार्य नियम के आधार पर विकलांग लोगों के लिए संगठन-व्यापी समान अवसर नीतियों को तैयार करने और लागू करने के लिए एचआर टीम के साथ काम करेगा। इस तरह की नीतियाँ—विकलांग लोगों के लिए भौतिक और डिजिटल जगह प्रदान करना, कर्मचारियों की विकलांगता के आधार पर भेदभाव किए बिना समान भूमिका वाले कर्मचारियों को समान वेतन देना, और ऐसी ही अन्य नीतियाँ—विकलांग लोगों के लिए एक समावेशी वातावरण और संस्कृति के निर्माण में मददगार साबित होंगी।

3. नौकरी की सुरक्षा की भावना को प्रोत्साहित करें

नौकरी की सुरक्षा प्रदान करने का अर्थ केवल बिना शर्त रोजगार स्थिरता सुनिश्चित करने से नहीं है। इसका मतलब प्रदर्शन सुधार कार्यक्रमों के साथ कर्मचारी जुड़ाव उपायों से भी हो सकता है। इससे कर्मचारियों को यह संदेश मिलता है कि संगठन ने उनकी भलाई और पेशेवर विकास में निवेश किया है। इसके लिए जरूरी है कि एचआर विभाग सुनिश्चित करे कि ये सभी प्रयास समावेशी हैं। इससे भी ज्यादा, वर्तमान महामारी जैसे असामान्य संकट या कर्मचारी को काम से निकालने के अन्य मौकों पर विकलांग कर्मचारियों के साथ भी दूसरे कर्मचारियों की तरह ही व्यवहार किया जाना चाहिए न कि उन्हें दूसरों से पहले काम से निकालना चाहिए।

4. विकलांग लोगों के लिए आपकी कंपनी द्वारा मुहैया किए जाने वाले आवास की क़िस्मों की समीक्षा करें

अक्सर लोग यह मान लेते हैं कि कार्यस्थल पर विकलांग कर्मचारियों के लिए बनाया गया विशेष आवास बहुत महंगा होता है। लेकिन हमेशा ऐसा नहीं होता है। इस तरह की व्यवस्थाओं पर किए गए निवेश से मिलने वाले मौद्रिक और गैर-मौद्रिक लाभ बहुत महत्वपूर्ण होते हैं। दरअसल, एक्सेंचर द्वारा 2018 में किए गए एक अध्ययन से यह बात सामने आई कि विकलांग लोगों को नियुक्त करने और उन्हें सहायता देनी वाली कंपनियों ने औसतन 28 प्रतिशत अधिक राजस्व, दोगुनी आय, और अपने समकक्ष कंपनियों की तुलना में 30 प्रतिशत अधिक आर्थिक लाभ कमाया है। इस रिपोर्ट के अनुसार, इन परिणामों के लिए अपना योगदान देने वाला मुख्य कारक यह है कि एक विकलांग कर्मचारी अपनी विशिष्ट जरूरतों के अनुकूल तैयार किए गए काम के एक उत्साहजनक माहौल में काफी बेहतर प्रदर्शन करते हैं। 

जहां किसी भी तरह की विकलांगता के साथ जीना अपने आप में एक चुनौती है वहीं भेदभाव, लांछन और ढांचागत सहायता और समर्थन की कमी इस मुश्किल को बदतर बना देती है।

उदाहरण के लिए लंबे समय से किसी बीमारी से ग्रसित आदमी को काम करने के समय को लेकर लचीलेपन की जरूरत हो सकती है या वह दवाइयों के लिए थोड़े-थोड़े समय पर काम से अवकाश ले सकता है। उन्हें ऐसा करने देने से संगठन के अंदर बिना किसी तरह की समस्या पैदा किए स्वत: ही उनकी स्थिति से निबटने में उनकी मदद की जा सकती है। अगर कोई कर्मचारी यात्रा करने में सक्षम नहीं है तब उस स्थिति में घर पर रहकर काम करने की व्यवस्था के निर्माण से उनकी मदद की जा सकती है। अगर टीम के किसी सदस्य को याददाश्त की समस्या है तो उस स्थिति में दिये गए कामों के लिए मौखिक रूप से कहने के बजाय उन्हें लिखने के अभ्यास को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। समस्या की जड़ को समझना और उसी हिसाब से नीतियों का निर्माण करने से लोगों के लिए एक सहयोगी वातावरण तैयार किया जा सकता है। जहां एक तरफ इस तरह की पहल को स्वीकार करने में सहकर्मियों को समय लग सकता है वहीं समय के साथ इस प्रतिरोध की जगह स्वीकृति ले लेती है।

5. विशेष सेवा और सहायता तक पहुँच प्रदान करना

ये समितियां अन्य सहायता व्यवस्था के रूप में एक ऐसा स्वास्थ्य बीमा दे सकती हैं जिसमें मानसिक स्वास्थ्य के लिए भी प्रावधान हो। या कर्मचारी लाभ पैकेज के रूप में मुफ्त सेवाएँ जैसे कि मानसिक स्वास्थ्य और तनाव के प्रबंधन के लिए कोचिंग प्रदान की जा सकती है।

जहां किसी भी तरह की विकलांगता के साथ जीना अपने आप में एक चुनौती है वहीं भेदभाव, लांछन और ढांचागत सहायता और समर्थन की कमी इस मुश्किल को बदतर बना देती है। इन मुद्दों को सुलझाने के लिए संगठन बहुत सारे कदम उठा सकती है और अब समय आ गया है कि हम अपने सहकर्मियों की मदद के लिए ऐसे प्रयास करें।

अस्वीकरण: डॉक्टर रेड्डीज फ़ाउंडेशन सामाजिक क्षेत्र में कम चर्चित विषयों पर शोध और प्रसार के लिए आईडीआर का समर्थन करता है।

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स्वयंसेवी संस्थाओं के बोर्ड के उन सदस्यों से निबटने के चार तरीके जिनके पास ‘समय नहीं होता है’

स्वयंसेवी संस्थाओं की एक आम शिकायत यह होती है कि बोर्ड के कुछ सदस्य संस्था के कामों में या तो बिलकुल भी अपना योगदान नहीं देते हैं या फिर समय नहीं होने की बात करते हैं। उन लोगों में से ज़्यादातर लोग सिर्फ बोर्ड की बैठकों में आते हैं और कभी-कभी तो यह काम भी उनके लिए चुनौती जैसा ही होता है। ऐसी स्वयंसेवी संस्थाएं बहुत कम हैं जो पूरी तरह से अपने उद्देश्य के लिए काम करती है और जिसका बोर्ड सक्रिय है और उसके सभी सदस्य अपनी जिम्मेदारियाँ निभाते हैं।

मैं अक्सर इस रोग के पीछे के कारण के बारे में सोचती हूँ और मुझे इससे भी जरूरी बात यह लगती है कि इस मामले में क्या किया जा सकता है।

1. बदलती हुई उम्मीदें

संस्थाओं और संस्थापकों/सीईओ के विकास करने के साथ ही बोर्ड से उनकी उम्मीदें भी बदलनी शुरू हो जाती हैं। ऐसा संभव है कि किसी संस्था ने पहले कभी बोर्ड के किसी सदस्य की एक खास प्रतिक्रिया को ‘अनुमति’ दी थी लेकिन इच्छित परिणाम में अचानक आए बदलाव के कारण उसी प्रतिक्रिया को अब स्वीकार करने में कठिनाई हो सकती है। जब बोर्ड के किसी सदस्य को उनकी जिम्मेदारियों के लिए कभी भी ‘दबाव’ नहीं दिया गया है तो उस स्थिति में वे अपने प्रदर्शन को कभी भी बेहतर नहीं बनाएँगे। उम्मीदें दोनों ही पक्ष द्वारा की गई और नहीं की कार्रवाइयों से निर्धारित होती हैं। एक विकासशील संस्था निश्चित रूप से अपने बोर्ड के सामने अपनी अलग-अलग तरह की मांगों को रखेगा और संभव है कि संस्थापक की मदद के लिए शुरुआत में साथ आए लोगों का समूह लंबे समय तक संस्था की उन उम्मीदों को पूरा न कर सके।

2. गलत कारणों से बोर्ड में शामिल होना

कभी-कभी बोर्ड के सदस्य पूरी तरह से या तो निजी संबंध या संस्थापक या अन्य सदस्य के समर्थन के कारण बोर्ड में शामिल हो जाते हैं। ऐसे मामलों में, बहुत हद तक यह संभाव है कि वह सदस्य या कुछ दिनों बाद अपना योगदान देने में असफल हो जाएगा या इसके प्रति उसकी इच्छा या रुचि ख़त्म हो जाएगी। काम की सीमा का अनुमान न होने से, व्यक्तिगत प्रेरणाओं के साथ गलत संरेखण और क्षमता की कमी आदि कारणों से उनकी रुचि में कमी आ सकती है।

3. सही समय पर नहीं छोड़ना या जाने देना

बोर्ड के सदस्यों के साथ का संबंध पेशेवर संबंध से आगे जा सकता है जिसके कारण उनके अपने कर्तव्यों के निर्वाह न करने की स्थिति में चीजें खराब हो सकती हैं। जब ऐसा होता है तब बोर्ड का एक निष्क्रिय सदस्य अपने पद पर बना रहता है और दोनों पक्ष एक दूसरे को जाने देने की पहल नहीं करते हैं। यह बोर्ड के दूसरे सदस्यों के साथ एक तरह का अन्याय होता है क्योंकि किसी न किसी को उस सदस्य के बदले काम करना पड़ता है और अतिरिक्त जिम्मेदारियाँ लेनी पड़ती हैं। समय के साथ ऐसे सदस्य भी खुद को काम के बोझ से दबा महसूस कर सकते हैं और उनकी भागीदारी भी कम हो सकती है। 

खाली कमरे में खाली कुर्सियों की कतार_फ़्लिकर-स्वयंसेवी संस्था बोर्ड
संस्थाओं और संस्थापकों/सीईओ के विकास करने के साथ ही बोर्ड से उनकी उम्मीदें भी बदलनी शुरू हो जाती हैं। | चित्र साभार: फ़्लिकर

योगदान न देने वाले बोर्ड के सदस्यों से निबटने की रणनीतियाँ

1. एक बोर्ड योजना की शुरुआत करें

इसका मतलब सदस्यों को बोर्ड योजना के लिए सहमत करना और बोर्ड के सदस्यों से अपेक्षित कामों की एक ऐसी सूची तैयार करना है जो कार्यकारी संगठन की रणनीतिक योजना को पूरा करने में मदद करेगा। यह प्रत्येक सदस्य को मुद्दों पर होने वाली बहस से बाहर निकालने और उनकी भूमिकाओं पर ध्यान दिलवाने का काम करता है जो बोर्ड के सदस्य के रूप में वे निभा सकते हैं। इसके साथ ही यह प्रत्येक सदस्य द्वारा निभाई जाने वाली विशेष भूमिकाओं पर भी काम करता है। यह बोर्ड के ऐसे सदस्यों की ‘छंटनी’ का सुनहरा अवसर होता है जो योजना में शामिल नहीं हो सकते हैं।

2. रोटेशन नीति का निर्माण

रोटेशन नीति एक ऐसा तंत्र है जो बोर्ड और संस्थापक/सीईओ को पारस्परिक रूप से सहमति से तय किए गए समय अंतराल पर बोर्ड के सदस्यों को बदलने की अनुमति देता है।

इस कदम को उठाने के दो कारण हैं:

रोटेशन नीति अपनाने वाले ज़्यादातर संगठन अपने बोर्ड के लिए एक बने रहने या उनकी सेवा को जारी रखने के लिए शर्त की स्थिति रखते हैं। यदि बोर्ड में बने रहने का शर्त योगदान या योजनाओं पर निर्भर है जिन पर सहमति हुई थी तो बोर्ड के किसी सदस्य को निकालने या जाने देने का निर्णय निष्पक्ष रूप से किया जा सकता है।

3. सलाहकार परिषद के सक्रिय सदस्यों को आमंत्रित करें

सलाहकारों की एक मजबूत परिषद के निर्माण और बोर्ड की बैठकों में शामिल होने के लिए उन्हें आमंत्रित करने से बोर्ड के सदस्यों से की जाने वाली उम्मीदें स्वाभाविक रूप से बढ़ जाती हैं। इन सलाहकारों से बातचीत करने से बोर्ड के सदस्यों को दूसरों के योगदानों और मूल्यों को समझने में मदद मिल सकती है और उन्हें एक ऐसा आदर्श (रोल मॉडल) मिल जाएगा जिसका वे अनुसरण कर सकेंगे। अगर बोर्ड का कोई सदस्य ऐसा नहीं कर पाता है तो उस स्थिति में इस बात की संभावना बढ़ जाती है कि वह अपने पद से हट जाएगा।

4. व्यक्तिगत रूप से जुड़ने की योजना को तैयार करना

इसकी संभावना बहुत अधिक होती है कि बोर्ड के कुछ सदस्य सिर्फ अनुपालन की भूमिका निभाएंगे। इस बात को पारदर्शी बनाना चाहिए ताकि यह स्पष्ट रहे कि उनसे किसी अन्य तरह की अपेक्षा नहीं करनी है। दूसरे सदस्य संगठन के उद्देश्य पूर्ति के प्रति अधिक इच्छुक हो सकते हैं और अधिक योगदान दे सकते हैं। यह बहुत महत्वपूर्ण है कि बोर्ड के प्रत्येक सदस्य की प्रेरणा को समझा जाये और उनकी भागीदारी के माध्यम से इसे सुविधाजनक बनाने वाली एक योजना तैयार की जाए।

इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें    

अपने स्वयंसेवी संस्था को मुश्किलों से दूर रखें

जैसे जैसे स्वयंसेवी संस्थाएँ विकसित होने लगती हैं वैसे वैसे उनकी कार्यप्रणाली और प्रभावशीलता जांच के अधीन आने लगती हैं। यहाँ हम ऐसे नौ नियामक बेस्ट प्रैक्टिस के बारे में बता रहे हैं जिनका पालन स्वयंसेवी संस्थाओं को करना चाहिए, विशेष रूप से तब जब उन्हें सीएसआर वित्तपोषण और विदेशी योगदान (विनियमन) अधिनियम 2010 (एफ़सीआरए) के नियमों का पालन करना होता है:

1. विक्रेता अनुबंध के बजाय अनुदान अनुबंधों का चुनाव करना चाहिए

सीएसआर साझेदारी के लिए नियम एवं शर्तों को तय करते समय कंपनियाँ अक्सर विक्रेता अनुबंध वाले विकल्प का चुनाव करती हैं जहां स्वयंसेवी संस्था को सेवा प्रदाता की भूमिका में देखा जाता है। अनुदान कर्ता और स्वयंसेवी संस्था दोनों को ही इस विकल्प को नजरअंदाज करना चाहिए क्योंकि विक्रेता अनुबंध में जीएसटी और टीडीएस जैसे अतिरिक्त खर्च शामिल होते हैं और साथ ही स्वयंसेवी संस्था को जीएसटी के अंतर्गत पंजीकरण करवाने के लिए अतिरिक्त नियमों का पालन करना पड़ता है। अनुदान अनुबंध न केवल सरल है बल्कि यह इस बात को भी सुनिश्चित करता है कि दूसरे प्रकार के अनुबंध के तहत जीएसटी और टीडीएस के खाते में जाने वाला पैसा भी इस कार्यक्रम पर ही खर्च हो रहा है।

2. उपयोगिता प्रमाणपत्र प्राप्त करना

परियोजना या वित्तीय वर्ष के अंत में आपको अपने चार्टर्ड अकाउंटेंट से उपयोगिता प्रमाणपत्र की मांग करनी चाहिए। इस उपयोगिता प्रमाणपत्र में मिलने वाले कुल अनुदान की राशि, उपयोग की गई राशि, बची हुई राशि (बहुवर्षीय परियोजनाओं के मामले में), बैंक से प्राप्त ब्याज की राशि और परियोजना पर खर्च होने वाली कुल राशि के साथ ही अन्य चीजें शामिल हो सकती हैं। आप किसी भी प्रकार की पूंजी निवेश व्यय (लैपटॉप, कंप्यूटर आदि) का विवरण भी मांग सकते हैं। हालांकि इसकी जरूरत नहीं होती है फिर भी यह एक ऐसी चीज है जो आपके पास होनी चाहिए क्योंकि ऑडिटर (लेखा परीक्षक) इस बात की जांच करेंगे कि सीएसआर के तहत मिलने वाली राशि का उपयोग आपने सही तरीके से किया है। जांच के समय भी इन दस्तावेजों को दिखाया जा सकता है।

3. अनिवार्य विनियमन से परे जाकर बेस्ट प्रैक्टिस को बनाए रखना

स्वयंसेवी संस्थाओं को कानूनी रूप से आयकर अधिनियम 1961 या कंपनी अधिनियम 2013 जैसे नियमों का पालन करना पड़ता है। हालांकि, इनसे परे जाना और आंतरिक स्व-शासन प्रथाओं के निर्माण पर ध्यान देना महत्वपूर्ण है, जैसे एक मजबूत मानव संसाधन नीति, वित्तपोषण की नीति, यौन उत्पीड़न रोकथाम की नीति (यदि संगठन 10 लोगों से बड़ा है) और एक बोर्ड नीति। इन नीतियों के माध्यम से स्वयंसेवी संस्थाएं अधिक कुशलतापूर्वक काम करने के योग्य हो जाती हैं।

4. अपने बोर्ड की सदस्यता में आए बदलाव की रिपोर्ट 15 दिनों के अंदर करें

अगर आप एक ऐसी स्वयंसेवी संस्था है जो एफसीआरए के तहत अनुदान पाने के योग्य है तो आपको यह सुनिश्चित करना होगा कि आप अपने बोर्ड की सदस्यता में आने वाले किसी भी तरह के परिवर्तन की सूचना 15 दिनों के भीतर गृह मंत्रालय को देते हैं। हालांकि आधिकारिक नियम यह कहता है कि बोर्ड में आए बदलाव को 50 प्रतिशत तक पहुँचने पर ही सूचित किया जाना चाहिए लेकिन व्यवहार में इस नियम में संशोधन किया जा चुका है।

इसके अतिरिक्त, इस बात को सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि आपके बोर्ड सदस्यों में विदेशी नागरिक, राजनीतिज्ञ, पत्रकार और सरकारी अधिकारी आदि न हों और आपकी संस्था के मुख्य कार्यकर्ता एफसीआरए के किसी अन्य स्वयंसेवी संस्था के मुख्य कार्यकर्ता न हों। 

5. सीएसआर फंडों को स्वीकार करने से पहले विदेशी स्त्रोतों की सावधानीपूर्वक जांच करें

भारत में सीएसआर करने वाली बहुत सी कंपनियाँ इस बात को लेकर असमंजस में हैं कि वे विदेशी स्रोत हैं या भारतीय स्रोत। विशेष रूप से इस बात पर बहुत अधिक बहस हो चुकी है कि एफसीआरए के तहत कंपनियों की सहायक कंपनियाँ विदेशी स्त्रोत हैं या नहीं। एफसीआरए नियम यह स्पष्ट करते हैं कि एक विदेशी स्रोत एक ऐसा व्यवसाय है जो या तो विदेश में बना है या एक विदेशी कंपनी की सहायक कंपनी है या एक विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनी है। यह फ्लोचार्ट इस काम के निर्धारण में सहायक हो सकता है कि आपकी कंपनी को किस स्रोत के अंतर्गत वर्गीकृत किया गया है और इसके आधार पर एफसीआरए मानदंडों के अनुरूप धन को बांटा जा सकता है।

कंपनी और स्वयंसेवी संस्था दोनों को ही यह बात याद रखनी चाहिए कि सिर्फ इसलिए कि पैसा रुपए में दिया जा रहा है इसका मतलब यह नहीं है कि स्रोत भारतीय है।

विदेशी स्रोत और स्थानीय स्रोत के बीच अंतर दिखाने वाला फ़्लोचार्ट_AccountAble-स्वयंसेवी संस्था
स्त्रोत: AccountAble, 2018

6. एफसीआरए धन से प्राप्त होने वाली सभी रसीदों को विदेशी योगदान के रूप में मानें

एफसीआरए फंड के उपयोग से निकलने वाली किसी भी प्रकार की धनराशि को विदेशी योगदान माना जाएगा और इनका रसीदों के रूप में अलग से हिसाब और रिपोर्ट किया जाना चाहिए। इसका मतलब यह है कि उदाहरण के लिए अगर आपने एफसीआरए के पैसे से एक गाय खरीदी है, उस गाय से दूध निकाला, गाय के दूध से बर्फी बनाई और उस बर्फी को बेचा तो उस बिक्री से होने वाली आय को विदेशी योगदान माना जाएगा।

एफसीआरए के फंडों के लेखांकन की बात आती है तो परियोजनाओं के अनुसार खातों का सिर्फ एक समेकित सेट रखना बेहतर होता है और लगभग सभी संस्थाएं इसका पालन करती हैं।

7. अपने एफसीआरए लाइसेन्स के नवीनीकरण को लेकर सक्रिय रहें

अपने एफसीआरए लाइसेंस के नवीनीकरण के लिए जल्द से जल्द आवेदन करना चाहिए, और अगर संभव हो तो इसके रद्द होने के छ: से बारह महीने के अंदर नवीनीकरण करवा लेना चाहिए। ऐसा करने से प्रक्रिया पूरी करने के लिए पर्याप्त समय मिलता है। इस बात को सुनिश्चित करें कि नवीनीकरण शुल्क जमा हो चुका है, सही ईमेल और मोबाइल नंबर (चूंकि इन्हें नादला नहीं जा सकता है) दिया गया है, और हर एक-दो दिन में अपने आवेदन की स्थिति की जांच करते रहें। जांच के दौरान अगर आवेदन से जुड़ा किसी भी तरह का प्रश्न पूछा गया है तो उसका जवाब 15 दिनों के भीतर देना चाहिए। अगर आवेदन का नवीनीकरण समय से नहीं हुआ है तो उस स्थिति में एफसीआरए फंड लेना बंद कर देना चाहिए।

इस बात का ध्यान रखना भी जरूरी है कि नवीनीकरण के लिए आवेदन की प्रक्रिया के रूप में न्यासियों (ट्रस्टीज़) को एक शपथ पत्र जमा करवाना होता है जिसमें यह लिखा होता है कि वे अपनी जानकारी में आए अपनी संस्था या इसके किसी सदस्य, पदाधिकारी या प्रमुख अधिकारी या अधिकारियों द्वारा एफ़सीआरए की धारा 12(4) के प्रावधानों के उल्लंघन की सूचना देंगे। इस संशोधन का एक हद तक प्रतिरोध हुआ, और शपथ पत्र पर हस्ताक्षर करने के लिए मौजूदा ट्रस्टियों के साथ लंबी बातचीत की आवश्यकता हो सकती है, और/या उन्हें नए ट्रस्टियों के साथ बदल दिया जा सकता है।

बास्केटबॉल रणनीति ड्राइंग बोर्ड_रॉपिक्सेल-स्वयंसेवी संस्था
अनिवार्य विनियमन से परे जाना और आंतरिक स्व-शासन प्रथाओं के निर्माण पर ध्यान देना महत्वपूर्ण है | चित्र साभार: रॉपिक्सेल

8. प्रशासनिक और कार्यक्रम व्यय के बीच के अंतर से सावधान रहें

कंपनी अधिनियम 2013 की धारा 135 और सीएसआर नियमों के तहत यह स्पष्ट रूप से नहीं बताया गया है कि एक प्रशासनिक व्यय के रूप में किन चीजों की गिनती हो सकती है और किन खर्चों को एक कार्यक्रम व्यय के रूप में देखा जा सकता है। अस्पष्टता से बचने के लिए साझेदारी की शर्तों से सहमत होते हुए इसे निर्धारित करना सबसे अच्छा है। एक आम सिद्धांत यह है कि परियोजना के कार्यान्वयन में शामिल किसी भी व्यक्ति (जैसे, एक शिक्षक या आउटरीच कार्यकर्ता) का वेतन कार्यक्रम लागत के अंतर्गत आएगा।

सीएसआर करने वाली कंपनियों के लिए, अपने आंतरिक प्रशासनिक ओवरहेड्स को 5 प्रतिशत तक सीमित करने की अतिरिक्त आवश्यकता होती है।

एफसीआरए का अनुपालन करते समय यह अंतर और अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है जिसके अनुसार विदेशी योगदान का 50 प्रतिशत से अधिक हिस्सा प्रशासनिक व्यय पर खर्च नहीं किया जा सकता है। यह देखते हुए कि स्वयंसेवी संस्थाएं आमतौर पर प्रशासनिक लागतों पर 10–15 प्रतिशत खर्च करती हैं, यह अत्यधिक लग सकता है। हालांकि, एफसीआरए के तहत प्रशासनिक खर्चों को विशेष रूप से परिभाषित किया गया है, और इसमें सभी कर्मचारियों के वेतन के साथ किराया, ओवरहेड्स, शुल्क और यात्रा शामिल है।
यह सभी कर्मचारियों के वेतन का समावेश होता है जिसके परिणामस्वरूप 50 प्रतिशत की सीमा से अधिक हो सकता है और यह एक ऐसी चीज है जिसका स्वयंसेवी संस्थाओं को ध्यान रखना चाहिए।

सीएसआर करने वाली कंपनियों के लिए, अपने आंतरिक प्रशासनिक ओवरहेड्स को 5 प्रतिशत तक सीमित करने की अतिरिक्त आवश्यकता होती है। यदि कंपनी जरूरतें और/या प्रभाव आकलन कर रही है तो सीमा को और 5 प्रतिशत तक बढ़ाया जा सकता है ध्यान देना आवश्यक है कि प्रशासनिक व्यय पर ये प्रतिबंध केवल फंड देने वाले पर लागू होते हैं न कि सीएसआर फंड प्राप्त करने वाली स्वयंसेवी संस्थाओं पर।

9. प्राप्त विदेशी धन को सार्वजनिक करें

एफसीआरए लाइसेंस के साथ ही स्वयंसेवी संस्थाओं को तिमाही के अंत के 15वें दिन तक अपने विदेशी योगदान की त्रैमासिक प्राप्तियों को सार्वजनिक रूप से अपनी वेबसाइट पर या एफसीआरए वेबसाइट पर साझा करना आवश्यक है। एक और कम ज्ञात जरूरत यह है कि स्वयंसेवी संस्थाओं को अपने एफसीआरए लेखा परीक्षित वित्तीय विवरण हर साल अपनी वेबसाइट पर प्रकाशित करना चाहिए (यदि उनके पास एक वेबसाइट है)।

चर्चा 2020 में नोशीर दादरावाला और संजय अग्रवाल ने गैर-लाभकारी संस्थाओं के लिए सीएसआर और एफसीआरए अनुपालन के विषय पर बातचीत की।

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भारत में स्वयंसेवी संस्थाओं को संचालित करने वाले क़ानून

भारत में नागरिक समाज को चलाने वाला कानूनी ढाँचा लगातार विकसित हो रहा है, और भारत में क़ायदे-कानूनों की एक भूलभूलैया है जो स्वयंसेवी संस्थाओं के संचालन, उनकी फ़ंडिंग और उनके कर-संबंधी कामकाज को प्रभावित करती हैं। स्वयंसेवी कानून के अंतरराष्ट्रीय केंद्र की इंडिया फ़िलांथ्रोपी लॉ रिपोर्ट 2019 में इन कानूनों के बारे में बताया गया है, जिसमें हालिया कानूनों को हाइलाइट किया गया है तथा इस बात का विश्लेषण किया गया है कि भारत में स्वयंसेवी संस्थाओं के कामकाज पर उनका क्या प्रभाव पड़ेगा। इस रपट की दस प्रमुख बातें: 

1. भारत में स्वयंसेवी संस्थाएँ आमतौर पर तीन में से एक कानूनी रूप को अपनाती हैं

स्वयंसेवी संस्थाओं का पंजीकरण या तो चैरिटेबल ट्रस्ट, सोसाइटी या सेक्शन 8 के तहत कंपनी के रूप में होता है। एक आकलन के मुताबिक फ़िलहाल भारत में 3.3 मिलियन स्वयंसेवी संस्थाएँ हैं, हालाँकि इनमें बहुत सारी ऐसी संस्थाएँ भी हो सकती हैं जो अब सक्रिय नहीं हैं।

तीनों अलग अलग प्रकार की संस्थाओं का संचालन अलग अलग क़ायदों के मुताबिक़ होता है। चैरिटेबल ट्रस्ट और सोसाइटी आमतौर पर राज्य के कानून के अंतर्गत आते हैं जो अलग अलग राज्य में अलग अलग होता है, जबकि सेक्शन 8 के तहत बनी कंपनियाँ (सार्वजनिक और निजी) केंद्र की भारतीय कम्पनी अधिनियम, 2013, के दायरे में आती हैं।

भारत में स्वयंसेवी संस्थाएँ अनौपचारिक संस्था के रूप में काम करने का चुनाव भी कर सकती हैं, लेकिन ऐसा करते हुए वे कर में छूट हासिल नहीं कर सकती हैं और न ही उनके दानकर्ताओं को कर में कटौती का लाभ मिल सकता है।   

2. स्वयंसेवी संस्था के पंजीकरण में तक़रीबन तीन से चार महीने का समय लग सकता है

इसके अलावा, आयकर विभाग को कर में छूट का दर्जा (आयकर अधिनियम 1961 का सेक्शन 12एए) देने तथा दानकर्ता के कर में कटौती (सेक्शन 80जी) की प्रक्रिया में तीन से छह महीने का समय और लग सकता है। स्वयंसेवी संस्था जब विदेशी योगदान (विनियमन) अधिनियम (एफ़सीआरए), 2010, के तहत विदेश से फंड लेने के लिए आवेदन देते हैं तो इस प्रक्रिया में तीन से छह महीने का समय लग सकता है।

हालाँकि, शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में काम करने वाले ट्रस्ट, सोसाइटी और सेक्शन 8 कम्पनियों के पंजीकरण की प्रक्रिया अधिक तेजी से पूरी की जा सकती है (एडवोकेसी से जुड़ी संस्थाओं या ऐसी संस्थाओं के मुक़ाबले जिनको व्यावसायिक गतिविधियाँ चलाते देखा जाता हो)।

3. स्वयंसेवी संस्थाओं द्वारा किस तरह की गतिविधियाँ की जा सकती हैं इसको लेकर कुछ प्रतिबंध हैं

भारत में स्वयंसेवी संस्थाओं के विस्तृत प्रकार की राजनीतिक गतिविधियों, जिनमें राजनीतिक प्रचार या सीधे तौर पर किसी राजनीति की हिमायत करने को लेकर रोक है। हालाँकि, वे सांसदों-विधायकों, सरकारी अधिकारियों, या मीडिया से बात कर परोक्ष रूप से राजनीति की प्रक्रिया को प्रभावित कर सकते हैं।

भारत में स्वयंसेवी संस्थाओं के विस्तृत प्रकार की राजनीतिक गतिविधियों में शामिल होने पर रोक है।

हालाँकि किसी स्वयंसेवी संस्था की किस प्रकार की गतिविधियों को ‘राजनीति’ कहा जाए यह स्पष्ट नहीं है, भारत की अदालतों का यह फ़ैसला है कि ऐसी कोई संस्था जिसका प्राथमिक लक्ष्य राजनीति हो, चैरिटेबल मकसद से उसकी स्थापना नहीं हो सकती।

ट्रस्ट, सोसाइटी तथा सेक्शन 8 कम्पनियों की प्रासंगिक आर्थिक गतिविधियों पर किसी तरह का प्रतिबंध नहीं है। किसी स्वयंसेवी संस्था को अपनी व्यावसायिक गतिविधियों के लिए अलग खाता रखना चाहिए, और उससे हासिल होने वाले किसी लाभ को पूरी तरह से स्वयंसेवी संस्था के प्राथमिक चैरिटेबल उद्देश्य में लगा देना चाहिए।

हालाँकि, अगर किसी स्वयंसेवी संस्था की आय अगर दान और अनुदान से प्राप्त आय के बीस प्रतिशत से अधिक हो जाती है तो कर से छूट संबंधी उसका दर्जा समाप्त किया जा सकता है और उनके ऊपर अधिक्तम गैर मामूली कर दर 30 प्रतिशत के आधार पर लगाया जा सकता है।  

4. कंपनीज अधिनियम 2013 में सुधार किया गया ताकि कारपोरेट सामाजिक दायित्व अनुपालन को मजबूत बनाया जा सके 

2013 के कंपनी अधिनियम में यह कहा गया है कि ऐसी कंपनियाँ जिनकी शुद्ध संपत्ति पाँच बिलियन या जिनका सालाना टर्न ओवर 10 बिलियन हो उनके लिए यह आवश्यक है कि वे हर वित्तीय वर्ष के दौरान कर देने से पहले के कुल लाभ का कम से कम दो प्रतिशत सीएसआर से जुड़ी गतिविधियों के मद में खर्च करें। अगर कंपनियाँ इनका पालन नहीं कर पाती हैं तो कंपनी को अपने सालाना रपट में इसके बारे में स्पष्टीकरण देना चाहिए, और उनको बिना किसी तरह की कानूनी कार्रवाई के शेष राशि को खर्च करना चाहिए।   

हालाँकि, कंपनीज (सुधार) अधिनियम, 2019, के अनुच्छेद 21 के तहत जो कंपनी पूरी राशि को खर्च नहीं कर पाती है वह रिज़र्व बैंक ऑफ़ इंडिया अधिनियम, 1934, की दूसरी अनुसूची के तहत शेष राशि को अनुबंध के आधार पर किसी बैंक में जमा कर सकती है, और उस राशि को तीन साल के अंदर सीएसआर से जुड़ी गतिविधियों में खर्च कर सकती हैं। अगर वह अभी भी तीन साल के अंतर्गत उस राशि को खर्च नहीं कर पाती है या उसकी कोई परियोजना चल नहीं रही हो तो उसको कंपनीज अधिनियम 2013 की सातवीं अनुसूची में बताए गए फंड में राशि को डाल देना चाहिए। इनमें प्रधानमंत्री राष्ट्रीय राहत कोष या सामाजिक-आर्थिक विकास को लेकर, राहत या हाशिए के लोगों के कल्याण को लेकर सरकार द्वारा स्थापित कोई कोष शामिल हैं। जनवरी 2020 तक यह प्रावधान लागू नहीं हुआ है।

पुस्तकालय में क़ानून की किताबें_स्वयंसेवी संस्था
भारत में नागरिक समाज को नियंत्रित करने वाला कानूनी ढांचा तेजी से विकसित हो रहा है | चित्र साभार: फ़्लिकर

5. किसी भी स्वयंसेवी संस्था का पंजीकरण रद्द किया जा सकता है अगर वह ऐसी किसी भी गतिविधि में संलग्न पाई जाती है जो उसकी स्थापना संबंधी दस्तावेज में दर्ज नहीं हो

आयकर अधिनियम 1961 के खंड 12एए का संबंध स्वयंसेवी संस्थाओं को कर में दी जाने वाली छूट से है, जिसमें वित्त अधिनियम (संख्या 2) 2019 के तहत सुधार किया गया। इस सुधार के बाद प्रधान कमिश्नर या इनकम टैक्स कमिश्नर को इसकी अनुमति मिल गई कि वह किसी ऐसे चैरिटेबल ट्रस्ट के पंजीकरण को रद्द कर सकता है जो ऐसी गतिविधियों, कार्यक्रमों या परियोजनाओं में शामिल हो जो ट्रस्ट अनुबंध पत्र, स्मरण पत्र और संबद्ध विषयों की सूची में शामिल नहीं हो।

पंजीकरण को रद्द किए जाने से संस्था को मिलने वाले कर संबंधी लाभों पर प्रभाव पड़ सकता है। संस्था को 30 प्रतिशत की दर से सालाना आयकर देना होगा, साथ ही अतिरिक्त आय पर भी कर देना होगा; अर्थात वह राशि जिसके द्वारा कुल संपत्ति का कुल उचित बाजार मूल्य संस्था की कुल कर देयता से अधिक है। यह बाद वाला जो क़ायदा है वह ऐसी संस्थाओं के लिए बहुत महत्व रखता है जिनके पास अचल संपत्ति होती है।

किसी संस्था या सेक्शन 8 कम्पनी की स्थापना किसी लक्ष्य विशेष की पूर्ति के लिए की गई है और वे उस लक्ष्य को पूरा कर लेती है या फिर अब वह लक्ष्य प्रासंगिक नहीं रह जाता है या फिर संस्था की संचालन समिति की दिलचस्पी खत्म हो जाती है तब उस स्थिति में वे अपनी को संस्था बंद कर सकते हैं।

अगर सरकार को ऐसा लगता है कि किसी सोसाइटी या सेक्शन 8 कंपनी की गतिविधियाँ ‘राष्ट्रीय हित या देश की संप्रभुता एवं अखंडता के विरुद्ध’ है तो वह उस सोसाइटी या सेक्शन 8 कंपनी को बंद कर सकती है। 

6. स्वयंसेवी संस्थाओं के ट्रस्टियों तथा अधिकारियों के लिए यह ज़रूरी है कि वे लोकपाल या लोकायुक्त अधिनियम 2013 के तहत अपने संसाधनों को घोषित करें

लोकपाल तथा लोकायुक्त अधिनियम 2013 के खंड 44 के तहत सरकारी सेवकों के लिए यह जरूरी है कि वे गृह मंत्रालय को अपने संसाधन का ब्योरा दें। चैरिटेबल संस्थाओं के ट्रस्टियों और पदाधिकारियों को वैसी स्थिति में सरकारी सेवक माना जाता है जब उस संस्था को एक वित्तीय वर्ष के दौरान भारतीय रुपए में 10 मिलियन से अधिक या एक मिलियन रुपए से अधिक का सरकारी अनुदान मिलता हो।

इस अधिनियम के अंतर्गत विशेष क़ायदों को अभी अंतिम रूप दिया जा रहा है।   

7. भारतीय स्वयंसेवी संस्थाओं को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर काम करने की अनुमति नहीं है और उनके फंड को भारत में ही खर्च किया जाना चाहिए

भारतीय संस्थाओं के लिए प्रतिबंध केवल उसी स्थान पर लागू नहीं रहती है जिस स्थान पर वे काम करती हैं, बल्कि वह विदेशी फंड की स्वीकृति पर भी लागू होता है।

उदाहरण के लिए, अगर किसी स्वयंसेवी संस्था के लिए कोई भारतीय नागरिक विदेश से धन जुटाता है तो एफसीआरए के अंतर्गत उसे विदेशी सहयोग माना जाएगा। इसी तरह अगर भारत के बाहर का कोई नागरिक भारतीय मुद्रा में धन जुटाता है तो उसे विदेशी योगदान माना जाएगा। इसके विपरीत, प्रवासी भारतीयों के धन को विदेशी निवेश के रूप में नहीं देखा जाएगा, बशर्ते कि वह आदमी किसी दूसरे देश का नागरिक न हो गया हो। 

8. एफसीआरए के अन्तर्गत पंजीकृत संस्थाओं के ऊपर नगदी के उपयोग तथा वे विदेशी फंड का उपयोग किन मक़सदों से कर सकते हैं इसको लेकर पाबंदी है

गृह मंत्रलाय द्वारा एफसीआरए के अनुपालन को लेकर एक दिशानिर्देश प्रकाशित किया गया था, जिसमें स्वयंसेवी संस्थाओं के एफसीआरए खाते से 2,000 से अधिक राशि के नगदी भुगतान तथा डेबिट कार्ड से निकालने को लेकर चेतावनी दी गई है। आम तौर पर विदेशी योगदान खाते के लिए डेबिट कार्ड जारी नहीं किया जाता है लेकिन जिन संस्थाओं के पास ऐसे कार्ड हों उनको नगद निकासी या ऑनलाइन भुगतान के लिए इनका उपयोग नहीं करना चाहिए। 

इस चेतावनी का सबसे बड़ा प्रभाव दूरदराज के ग्रामीण इलाक़ों में काम करने वाले नागरिक संगठनों के ऊपर पड़ने वाला है, जो नगदी अर्थव्यवस्था के आधार पर ही चलती है।

इसके अलावा, जो स्वयंसेवी संस्थाएँ विदेशी योगदान लेती हैं उनको अपने फंड का 50 प्रतिशत से अधिक प्रशासनिक मद में खर्च करने की मनाही है। इन प्रशासनिक ख़र्चों में निदेशक मंडल तथा ट्रस्टियों को दिया जाने वाला मेहनताना, दफ़्तर के खर्चे, अकाउंटिंग के खर्च आदि शामिल हैं। संस्था की मुख्य गतिविधियों से जुड़े खर्च जैसे शोधार्थियों, प्रशिक्षकों, अस्पताल के डॉक्टर या स्कूल के अध्यापकों को दिए जाने वाले वेतन को प्रशासनिक नहीं माना जाता है और उनको इस मनाही से बाहर रखा गया है।

इन अवस्थाओं का उल्लंघन होता है तो उसको क्षमायोग्य अपराध माना जाता है, जिसका मतलब यह हुआ कि संबंधित संस्थाएँ शुल्क की राशि को चुकाकर आपसी समझौते के तहत इस मामले को सलटा सकती हैं। हर अपराध के बदले में एफसीआरए न्यूनतम एक लाख रुपए की पेनाल्टी लगाती है।   

9. कुछ निश्चित संस्थाओं को दान देने से दानकर्ताओं को 100 प्रतिशत कटौती की पात्रता प्राप्त है

कुल मिलाकर, दानकर्ताओं को इसकी अनुमति है कि वे ऐसे ट्रस्ट, सोसाइटी और सेक्शन 8 कंपनी को दिए गए योगदान के आधार पर कटौती की माँग कर सकते हैं जिनको चैरिटेबल का दर्जा हासिल है। हालाँकि, ऐसी संस्थाएँ जिनको आयकर अधिनियम के 80जी के तहत सूचीबद्ध किया गया है उनको शत प्रतिशत कटौती का अधिकार प्राप्त है। इस सूची में सरकार से जुड़े अनेक फंड जैसे प्रधानमंत्री राष्ट्रीय राहत फंड तथा साम्प्रदायिक सद्भाव संबंधी राष्ट्रीय न्यास आदि शामिल हैं।  

कर में 10 हजार रुपए से अधिक की किसी भी कटौती के लिए यह जरूरी है कि भुगतान नगद में न किया जाए।

दानकर्ताओं को यह बात दिमाग में रखनी चाहिए कि कुल कटौती उनके सकल आय के दस प्रतिशत से अधिक न हो, और कर में कटौती के योग्य होने के लिए 10 हजार रुपए से अधिक का कोई भी योगदान नगद में नहीं किया जाना चाहिए।

10. विदेशी स्रोतों से व्यावसायिक प्राप्तियों को विदेशी योगदान की तरह नहीं देखा जाता

अगर कोई घरेलू स्वयंसेवी संस्था जिसका एफसीआरए के तहत पंजीकरण नहीं किया गया है व्यावसायिक सेवा के एवज में विदेशी धन को प्राप्त करती है तो इस बारे में उसको एफसीआरए विभाग को सूचित करने की ज़रूरत नहीं है।

खंडन: यहाँ जो सूचनाएँ दी गई हैं वे इसके लेखक के भारत में वर्तमान में प्रचलित क़ायदे कानूनों की समझ पर आधारित हैं, और इसको कानूनी राय या सलाह के रूप में नहीं देखना चाहिए।

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वित्तपोषण के लिए योजनाएं

भारत में वित्तपोषण परिस्थितिकी बहुत ही तेजी से बदल रहा है। ऐसे अंतर्राष्ट्रीय दानकर्ताओं को अपने कार्यक्रमों को वापस लेने के लिए कहा जा रहा है जिन्होंने कभी नए और कम सेवा देने वाले विषयगत क्षेत्रों का समर्थन किया था। वहीं घरेलू दानकर्ताओं का ध्यान विशिष्ट विषयगत और भौगोलिक क्षेत्रों पर अधिक केन्द्रित हो रहा है जो समय के साथ बदल सकते हैं, प्रदर्शित पैमाने की क्षमता पर ज्यादा जोर दिया जा रहा है और प्रभाव मैट्रिक्स पर सावधानीपूर्वक नजर रखना अब पहले से अधिक महत्वपूर्ण हो गया है। यह सब कुछ स्वयंसेवी संस्थाओं द्वारा सामना की जा रही प्रतिक्रिया और एफसीआरए नियमों में बदलाव के अतिरिक्त है।

यह कहने की जरूरत नहीं है कि स्वयंसेवी संस्थाओं को अपने वित्तपोषण के घरेलू स्त्रोतों में विविधता लाने की तत्काल आवश्यकता है। बीस वर्षों तक स्वयंसेवी संस्थाओं के साथ काम करने से प्राप्त अनुभव के आधार पर हमनें यह देखा कि स्वयंसेवी संस्थाएं आमतौर पर दानकर्ताओं को अपने कार्यक्रम के समर्थन के लिए समझाने के काम में अच्छे होती हैं, लेकिन उस पहले तीन या पाँच वर्षीय अनुदान के समाप्ती पर पहुँचने के बाद उन्हें समर्थन लेने के लिए संघर्ष करना पड़ता है।

एक विविध वित्तपोषण रणनीति की आवश्यकता

संस्थाओं के लिए आवश्यक है कि वे वित्तपोषण को अपने कार्यक्रम को लागू करने के लिए आवश्यक धन जुटाने वाले तरीके के बजाय एक ऐसी रणनीतिक क्रियान्वयन के रूप में देखें जिनकी मदद से वे अधिक से अधिक कर सकने में सक्षम होंगे। उदाहरण के लिए, यह आत्मनिर्भर बनने, नवाचार करने, वित्तीय भंडार तैयार करने और समान विचारधारा वाले समर्थकों का एक समुदाय बनाने में इनकी मदद कर सकता है।

तो स्वयंसेवी संस्थाएं एक विविध फंडिंग पाइपलाइन बनाने की दिशा में आगे बढ़ने के लिए क्या कर सकते हैं? पाँच प्रकार के वित्तपोषण और उनमें से प्रत्येक के लिए आवश्यक संशोधनों को समझना शुरू करें:

1. संस्थागत वित्तपोषण

यह क्या है: इस तरह के अनुदान आमतौर पर परोपकारी संस्थाओं और न्यासों (ट्रस्ट) द्वारा दिया जाता है। अक्सर उनके पास किसी न किसी प्रकार विषयगत फोकस होता है जिसके तहत वे परियोजनाओं की तलाश करते हैं। वे विशिष्ट कार्यक्रमों को गहराई से करने के लिए या उनके विस्तार के लिए उनमें बहुत अधिक मूल्य जोड़ते हैं और इनकी अवधि आमतौर पर तीन से पाँच वर्षों की होती है जो पूरी परियोजना के खर्च का वहन करने में सक्षम होती है।

जिसकी आपको आवश्यकता है: संस्थागत अनुदान के लिए प्रभावी रूप से धन उगाहने और निष्पादित करने के लिए, एक स्वयंसेवी संस्था को एक परियोजना प्रस्ताव लेखक की आवश्यकता होती है जिसके पास उनके कार्यक्रमों की अच्छी समझ है। ऐसा करने के लिए एक समर्पित संसाधन होने से संस्थाओं को निम्नलिखित कामों की अनुमति मिलेगी:

तमुकू नामक दिलचस्प पहल एक ऐसी सेवा देती है जहां वे संस्थागत वित्तपोषण के अवसरों को अन्य प्रकार के समर्थन के साथ क्यूरेट करते हैं और इन्हें ग्राहकों को भेजते हैं।

लाइटबल्ब आईडिया वाली एक औरत का ग्राफिक-रॉपिक्सेल_वित्तपोषण
संगठनों को एक रणनीतिक कार्य के रूप में धन उगाहने के बारे में सोचने की जरूरत है। चित्र साभार: रॉपिक्सेल

2. सीएसआर वित्त

यह क्या है: यह आमतौर पर छोटी अवधि (एक वर्ष) में होता है और कार्यक्रम/विषय पर केन्द्रित होता है। अक्सर, इस फंडिंग का ध्यान एक विशिष्ट क्षेत्र पर होता है और सेवा वितरण के आसपास केन्द्रित परियोजनाओं को प्राथमिकता देता है।

जिसकी आपको आवश्यकता है: सीएसआर फंडिंग के लिए सही कंपनी की खोज के लिए स्वयंसेवी संस्थाओं को निगम के परिदृश्य और उन क्षेत्रों का नक्शा तैयार करने की जरूरत होती है जिनका वे आमतौर पर समर्थन करते हैं। यह या तो बाहर से लिया जा सकता है या बोर्ड के सदस्यों/कॉर्पोरेट मित्रों के माध्यम से किया जा सकता है जिनके नेटवर्क बेहतर हैं।

अगर आपकी संस्था सीएसआर फंडिंग के लिए शाखाओं की खोज में लगे हैं तो निम्नलिखित बातों को ध्यान में रखना मददगार साबित हो सकता है:

3. अधिक संपत्ति वाले व्यक्तियों (एचएनआई) और परोपकारी लोगों से मिलने वाले अनुदान

यह क्या है: इस तरह की फंडिंग एक ऐसे व्यक्ति द्वारा किए गए मध्यम आकार या बड़े दान का रूप लेती है जो कारण, परियोजना और इसमें शामिल लोगों से सहमत होते हैं।

जिसकी आपको आवश्यकता है: यहाँ मुख्य भूमिका एचएनआई (निर्दिष्टों के माध्यम से ऑफलाइन) की पहचान करना, उनकी रुचियों और फंडिंग की प्राथमिकताओं को समझना और उनसे मिलने की कोशिश करने की होती है। विश्वास बनाने और उनके साथ गहरे संबंध की स्थापना में बहुत समय खर्च होता है लेकिन एक बार हो जाने पर ये दानकर्ता किसी नवाचार वाले और जोखिम वाली पहल, नई व्यवस्था के विकास और गैर-परियोजना कर्मचारियों के वेतन में निवेश करने के लिए तैयार हो सकते हैं।

सबसे महत्वपूर्ण यह है कि एचएनआई के साथ संबंधों को विकसित करने का काम संस्थाओं और संगठनों के प्रमुख द्वारा किसी ऐसे आदमी की सहायता से की जाने की जरूरत होती है जिसके पास लोगों के प्रबंधन के कौशल और कार्यक्रम की अच्छी समझ हो।

4. खुदरा वित्तपोषण

यह क्या है: इसमें आमतौर पर बड़ी संख्या में लोगों से नियमित रूप से 500–1000 रुपए की धनराशि दान के रूप में मिलती है। यह एक दिन में असंख्य लोगों से बातचीत करके (सड़क पर, संदेश, फोन या ज़ूम के माध्यम से) और उन्हें दानकर्ताओं के समूह में शामिल होने के लिए प्रभावित करके किया जाता है। इस प्रकार के फंडरेजिंग का सबसे कीमती पहलू यह है कि इससे प्राप्त धन अप्रतिबंधित होता है—यह किसी भी क्रियाकलाप या परियोजना से बंधा हुआ नहीं होता है।

जिसकी आपको आवश्यकता है: इसमें संसाधन का आकार बहुत बड़ा होता है। इसमें आपको निम्नलिखित चीजों की आवश्यकता होती है:

ज़्यादातर स्वयंसेवी संस्थाएं इस काम की शुरुआत बाहरी मदद से करती हैं। और एक बार जब वे इसके क्रियान्वयन को अच्छे से सीख जाते हैं तब वे इस काम को आंतरिक रूप से करने का चुनाव भी कर सकते हैं। टीम का आकार आपके द्वारा निवेश की जाने वाली धनराशि पर निर्भर करता है। उदाहरण के लिए, ग्रीनपीस जैसे संगठन के पास 506 शहरों में लगभग 10 ऐसे फंड उगाहने वाले लोग हैं जो सड़कों पर काम करते हैं (स्ट्रीट फंडरेज़र), जिसमें उनकी सहायता के लिए संवाद और आंकड़ों की टीम भी शामिल होती है।

बड़ी मात्रा में निवेश की आवश्यकता के कारण खुदरा फंडरेजिंग के मूल्य का अनुमान निवेश पर मिलने वाले धन के आधार पर नहीं किया जाता है बल्कि इससे मिलने वाले लाइफटाइम मूल्य (दानकर्ताओं की संख्या x औसत दान का आकार) के माध्यम से लगाया जाता है। जहां शुरुआत में यह महंगा होता है वहीं इस तरह के फंडरेजिंग में लगने वाली कीमत अमूमन वसूल हो जाती है। हमारे अनुभव के आधार पर हमनें यह देखा है कि तीन साल की अवधि के बाद संगठनों में तेजी से वृद्धि होती है।

5. डिजिटल वित्तपोषण

यह क्या है: ये ऐसी फंडरेजिंग रणनीतियां हैं जो डिजिटल माध्यमों (सोशल मीडिया, केट्टो और मिलाप जैसे वैबसाइटों के माध्यम से चलाये जाने वाले अभियानों, और संगठनों के वेबसाइट) का इस्तेमाल करके धन एकत्रित करती हैं। इसमें ऑनलाइन और ऑफलाइन दोनों ही तरीकों से लोगों को उस मंच तक लाने का काम किया जाता है जिस पर आपका दान अभियान है।

जिसकी आपको आवश्यकता है: फंडरेजिंग का यह स्वरूप तभी काम करता है अगर संगठन इस तरह के अभियान बनाने में सक्षम हो जो शक्तिशाली कहानियाँ कहने और लोगों को काम पर लगाये। संसाधनों के संदर्भ में, इस तरीके में आमतौर पर एक ऐसे रचनात्मक लेखक की जरूरत होती है जो विषय पर लिख सके और इसके अलावा एक डिजिटल मार्केटिंग टीम की जरूरत होती है जो सोशल मीडिया जैसे मंचों पर इन संदेशों को पहुंचाने का काम करे।

फंडरेजिंग रणनीति का निर्माण

जब आप अपने फंडरेजिंग के लिए रणनीति निर्माण की तैयारी में जुटें हैं तो कुछ बातें आपको ध्यान में रखनी चाहिए:

1. अपने विचार को ध्यान में रखें: इससे आपको उन सिद्धांतों और मूल्यों को तय करने में मदद मिलेगी जो फंडरेजिंग की आपकी कोशिशों को संचालित करेंगे। उदाहरण के लिए, आप अपने कार्यक्रम या अभियान को किसी भी शक्तिशाली राजनीतिक आवाज़ से स्वतंत्र रख सकते हैं या श्रम क़ानूनों का उल्लंघन करने के लिए मशहूर कंपनियों या उद्योगों के साथ साझेदारी करने से बच सकते हैं। इससे आपको मिलने वाले पैसों के ऐसे स्त्रोतों की पहचान करने में आसानी होगी जिसे आपको स्वीकार करना है और जिसे आपको स्वीकार नहीं करना है।

2. कार्यक्रम की महत्वाकांक्षा का आकलन: इससे आपको पाँच वर्षों के बजट की रूपरेखा तैयार करने में मदद मिलती है। यह एक बार-बार दोहराई जाने वाली प्रक्रिया है जो आमतौर पर बड़ी महत्वाकांक्षा के साथ शुरू होती है और फिर इसे आंतरिक क्षमताओं, बाहरी संदर्भ और संभावनाओं के अनुसार परिवर्तित किया जाता है या छोटा किया जाता है। ऐसा करने से आपको उन कमियों का वास्तविक ज्ञान होगा जिन्हें आपके फंडरेजिंग के प्रयासों (वर्तमान के वादे और भविष्य में किए जाने वाले निवेश के आधार पर) को बेहतर करने के लिए दूर करना आवश्यक है।

3. अपने फंडरेजिंग मिक्स के बारे में सोचें: एक ऐसी मिश्रित स्थिति की दिशा में प्रयास और काम करें जिसमें विविध परियोजनाओं वित्तपोषण के साथ ही (दानकर्ताओं के बीच विभाजित कार्यक्रमों के साथ) अप्रतिबंधित वित्त का एक छोटा सा समूह भी हो। इसके अतिरिक्त, ऐसे दानकर्ताओं की खोज करना भी एक अच्छा अभ्यास है जो स्वयं भी फंडरेजिंग की प्रक्रिया में निवेश करने के लिए राजी होंगे।

4. समूह को शामिल करें: एक मजबूत फंडरेजिंग रणनीति वह होती है जिसमें पूरे संगठन की भूमिका होती है और जहां कार्यक्रम समूह भी अपनी भूमिका जानते हैं और असफल होने और दोबारा कोशिश करने में सक्षम होते हैं।

अर्थन के फ्यूचर ऑफ फंडरेजिंग सम्मेलन में दिव्या रघुनंदन ने रिटेल फंडरेजिंग की स्थापना पैनल में ये बातें कहीं थीं।

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सामाजिक क्षेत्र में क्राउडफंडिंग से जुड़ी सीख

स्वतालीम में हम लोग वित्तपोषण के विभिन्न तरीकों का पता लगाने के साथ ही यह भी समझने की कोशिश करते हैं कि इससे जुड़े लोग पैसे क्यों दे रहे हैं। एक्सेलेरेटर, फाउंडेशन से मिलने वाले अनुदानों, और पुरस्कार प्रतियोगिताओं के माध्यम से संसाधन जुटाने की कोशिश करने के अलावा हम हमेशा ऑनलाइन व्यक्तिगत दान के तरीके के रूप में क्राउडफंडिंग के बारे में जानने की कोशिश में लगे रहते हैं।

नतीजतन, कोविड-19 महामारी के दौरान, हमने अपने पहले व्यवस्थित रूप से नियोजित क्राउडफंडिंग अभियान की शुरूआत की। दो महीनों में हमने चार महाद्वीपों में फैले हमारे 600 समर्थकों की मदद से लगभग 20,00,000 रुपए  जुटाये थे।

इस प्रक्रिया में हमने निम्नलिखित बातें सीखीं:

हमारा तरीका

अपने अभियान के लिए हमने ‘चैम्पियन अप्रोच’ को अपनाने का फैसला किया जहां हम लोगों ने समर्थकों के ऐसे समूह की पहचान की जिन्होंने हमारे क्राउडफंडिंग अभियान के लिए अपने सोशल मीडिया नेटवर्क के माध्यम से लोगों तक पहुँचकर फंड इकट्ठा करने वाले ‘चैम्पियन’ की तरह काम किया था। दूसरे शब्दों में, हम लोगों ने स्वयंसेवकों के छोटे से समूह का प्रबंधन किया जिसके सदस्यों ने स्वतालीम टीम के सदस्यों के साथ मिलकर फंड लाने का काम किया था।

सफल तरीका

बच्चे साथ बैठे खुश हैं_स्वतालीम-क्राउडफंडिंग
हम यह सीख रहे हैं कि क्राउडफंडिंग फंडरेजिंग का एक प्रारूप है जो भागीदारी, विश्वास और मजबूत संपर्कों के मूल्यों पर आधारित होता है। चित्र साभार: स्वतालीम

असफल तरीका

क्राउडफंडिंग का मामला

हम यह बात सीख रहे हैं कि क्राउडफंडिंग फंडरेजिंग का एक ऐसा प्रारूप है जो साझेदारी, विश्वास और मजबूत संपर्कों के मूल्यों पर आधारित होता है। ‘दानकर्ता’ और ‘दान लेने वाले’ की परिभाषा को व्यापक करते हुए यह मौजूदा अनुक्रमों को तोड़ता है और समुदायों और समर्थकों के बीच एक स्पष्ट संपर्क को स्थापित करता है और साथ ही पारस्परिक सीख और समझ के लिए अवसर प्रदान करता है। इसके अतिरिक्त, डिजिटल-एंड-कम्युनिकेशन-फ़र्स्ट के तरीके से यह पारदर्शी और जिम्मेदार संस्थानों और समर्थकों के बीच संबंध स्थापित करता है। क्राउडफंडिंग समुदाय-स्तर पर परिवर्तनों को भी प्रतिबिंबित करता है, और इससे प्रेरित होता है और निर्णय लेने के लिए समुदाय की जरूरतों और प्राथमिकताओं को सही मायने में प्रतिबिंबित करने की अनुमति देता है। इकट्ठा किए गए धन के इस्तेमाल के तरीकों के चुनाव की छूट रहती है और इसे कभी भी समुदाय की आवश्यकताओं से अलग नहीं किया जाता है जिससे संस्थाएं अपने लक्ष्य पर टिकी रहती हैं।

क्राउडफंडिंग समर्थकों और हितधारकों के साथ भागीदारी, जवाबदेही और खुलेपन के लिए जगह बनाते हुए विशेष रूप से वर्तमान परिस्थिति में बड़े और छोटे दोनों ही स्तर के संस्थाओं को फंडरेजिंग के नए तरीके उपलब्ध करवाता है। 

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