भारत का संविधान केवल एक कानूनी दस्तावेज नहीं है, जो ऐतिहासिक रूप से वंचित समुदायों को ‘कानून के समक्ष समानता’ की गारंटी देता है। घुमंतू और विमुक्त जनजातियों (एनटी-डीएनटी) के लिए, जिन्हें औपनिवेशिक काल से ही व्यवस्थागत उपेक्षा और पूर्वाग्रह का सामना करना पड़ा है और जिनके मुद्दे लगातार हाशिए पर धकेले गए हैं, संविधान स्वतंत्रता और गरिमा का भी संरक्षक है।
मैं स्वयं घिसाडी गाडिया लोहार समुदाय से हूं, जो एक विमुक्त जनजाति है। हमारे लिए संविधान में निहित मूल्य हमारी पहचान का मूल आधार हैं—चाहे वह स्वतंत्रता संग्राम में हमारी भागीदारी हो, अभिव्यक्ति की आजादी का तरीका या हमारा जीवन जीने का स्वाभाविक ढंग। महाराष्ट्र में, जहां मैं रहती हूं, संविधान को ‘घटना’ कहा जाता है। हमारे समुदाय में एक प्रचलित कहावत है—“आमचे पण हक्क घटना”—अर्थात संविधान हमारा अधिकार है।
गैर-लाभकारी संस्था अनुभूति, जिसकी स्थापना 2016 में हुई थी, में हम यह प्रयास कर रहे हैं कि संविधान की भाषा को एनटी-डीएनटी समुदायों के लिए सुलभ बनाया जा सके। हमारी यह पहल इस विश्वास पर आधारित है कि जब ये समुदाय संविधान की भाषा और भावना को समझते हैं, तो वे यह जान पाते हैं कि संविधान पहले से ही उनके जीवन का अभिन्न हिस्सा है; कि उनका ज्ञान संविधान के विभिन्न पहलुओं में गहराई से समाहित है और शिक्षा, भूमि, आवास, स्वास्थ्य, या भेदभाव से संरक्षण जैसे अधिकार उनके लिए भी समान रूप से लागू होते हैं।
हमने पिछले एक दशक से अधिक समय से ग्रामीण, अर्ध-शहरी और शहरी क्षेत्रों में बहुजन समुदायों के साथ मिलकर काम किया है। इस दौरान हमने यह सीखा है कि संविधान साक्षरता के कार्यक्रमों को वास्तव में लोकतांत्रिक बनाने के लिए संस्थाओं को किन बातों का ध्यान रखना चाहिए। यहां हम अपनी कुछ महत्वपूर्ण सीख साझा कर रहे हैं।
1. संविधान की ‘मुख्यधारा’ वाली भाषा को सरल बनाना
भारत में ज्ञान का उत्पादन और प्रसार प्रमुख रूप से एकपक्षीय प्रक्रिया है, जिसे अंग्रेजी में ‘टॉप-डाउन प्रोसेस’ भी कहा जाता है। इसका अर्थ है कि कोई चीज प्रभुत्वशाली वर्ग के माध्यम से धरातल तक पहुंचती है। केवल उन्हीं वर्गों के ज्ञान को वैध और विश्वसनीय माना जाता है, जो समाज के उच्च वर्गों और उच्च जातियों से संबंध रखते हैं। हालांकि जमीनी स्तर पर भी अनुभवों से उपजा समृद्ध ज्ञान मौजूद होता है, जो समुदायों के जीवित अनुभवों में निहित है। लेकिन इस ज्ञान को मुख्यधारा के विमर्श में जगह दिलाने के लिए कोई प्रभावी माध्यम मौजूद नहीं है।
महाराष्ट्र में, जहां मैं रहती हूं, संविधान को ‘घटना’ कहा जाता है। हमारे समुदाय में एक प्रचलित कहावत है—“आमचे पण हक्क घटना”—अर्थात संविधान हमारा अधिकार है।
संविधान की व्याख्या और विवरण के लिए प्रयुक्त भाषा भी वर्चस्वशाली पक्ष के नियंत्रण में होती है, जिससे यह आम लोगों की पहुंच से बाहर हो जाती है। अमूमन केवल ऐसी ही आवाजों को ही विश्वसनीय माना जाता है।
‘अनुभूति’ में हम इस ‘टॉप-डाउन’ और मुख्यधारा की भाषा को सरल बनाने का प्रयास करते हैं, ताकि सभी समुदाय संविधान को समझ सकें। हम एनटी-डीएनटी समुदायों के लोगों के लिए संवैधानिक मूल्यों पर कार्यशालाएं आयोजित करते हैं। शुरुआत में लोग खुलकर भाग नहीं लेते हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि यह एक जटिल विषय होगा। लेकिन जैसे ही हम कहानियों, खेलों और वास्तविक जीवन के उदाहरणों के माध्यम से परिचय करते हैं, लोग अपने आप हमारे साथ शामिल होने लगते हैं। उन्हें यह एहसास होता है कि संविधान से जुड़ना केवल अनुच्छेदों या कानूनों को रटने का विषय नहीं है, बल्कि यह इस बात को समझने का माध्यम है कि हम गरिमा के साथ कैसे जीते हैं।
चर्चा के दौरान प्रतिभागियों को यह भी समझ में आता है कि संविधान में दर्ज मौलिक कर्तव्यों को वे लंबे समय से अपने जीवन में निभाते आ रहे हैं— भले ही सामाजिक विमर्श में इन्हें महज प्रतीकात्मक, अमूर्त (ऐबस्ट्रैक्ट) या गौण माना जाता हो।
इसी तरह आज जहां समाज में जाति, धर्म और संस्कृति के आधार पर भेदभाव लगातार बढ़ रहा है, वहीं घुमंतू समुदायों के भीतर इस तरह का भेदभाव उतना कठोर नजर नहीं आता। जब समुदाय के सदस्य इन बातों को समझने लगते हैं और संवैधानिक ज्ञान को अपने जीवन से जोड़ते हैं, तो वे यथास्थिति पर सवाल भी उठाने लगते हैं। अमूमन इन समुदायों की युवतियां मुझसे पूछती हैं, “हमारी कला को कला क्यों नहीं माना जाता?” यह सवाल अपने आप में बेहद लोकतांत्रिक है। यह उनके ज्ञान, अभिव्यक्ति और जीवनशैली को आम सांस्कृतिक परिभाषाओं से बहिष्कृत रखे जाने की धारणा को चुनौती देता है।
2. ‘पहुंच’ यानी एक्सेस को सुगम बनाने की जिम्मेदारी लें
इतिहास में हाशिए पर रखे गए समुदाय केवल मुख्यधारा के ज्ञान तंत्रों से बाहर नहीं रहे हैं। अक्सर उनसे यह भी उम्मीद की जाती है कि वे खुद ही इस खाई को पाटें। किसी भी चीज तक पहुंचने और उसे समझने की पूरी जिम्मेदारी हर बार उन्हीं लोगों पर लाद दी जाती है, जो पहले से ही वंचित हैं। वे उन व्यवस्थाओं तक पहुंचने के लिए संघर्ष करते रहते हैं, जो कभी उनके लिए बनी ही नहीं थीं। इस निरंतर बहिष्कार से उनके भीतर हीनता और अपराधबोध की भावना घर कर लेती है।
जब इन समुदायों से स्वतंत्रता संग्राम में उनके योगदान के बारे में पूछा जाता है, तो बहुत से लोग जवाब देने में हिचकिचाते हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि उन्हें अपने पूर्वजों की भूमिका पर संदेह रहता है।
इसका मूल कारण यह है कि इन समुदायों के इतिहास को कभी भी स्वतंत्रता आंदोलन की स्वीकृत धारा का हिस्सा नहीं माना गया। क्या यह बात कभी व्यापक रूप से स्वीकार की गई कि भारत के लगभग 200 आदिवासी समुदायों को ब्रिटिश शासन ने केवल इस आशंका में जेलों में डाल दिया था कि वे विद्रोह कर सकते हैं? अपनी अनोखी कला, संस्कृति, भाषा और जीवनशैली के चलते वे न केवल दृढ़ और गतिशील थे, बल्कि अंग्रेजी हुकूमत को चुनौती देने में भी सक्षम थे।

फिर भी विमुक्त और घुमंतू समुदायों को लेकर चर्चा प्रायः केवल इस बात पर रुक जाती है कि उन्हें “अपराधी” घोषित कर दिया गया था। शायद ही कभी इस तथ्य पर विचार किया जाता है कि ‘क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट’ महज एक प्रशासनिक निर्णय नहीं था। यह वास्तव में एक राजनीतिक रणनीति थी, जिसका उद्देश्य उन समुदायों का दमन था, जिनकी स्वतंत्रता संग्राम में अहम भूमिका थी। ये वही समुदाय हैं, जिन्होंने भीड़ की हिंसा, शोषण और प्रशासनिक अत्याचार के सबसे पुराने और व्यापक दंश को झेला है।
यह हमारे देश का ही इतिहास है। हम इसे सामने लाते हैं, ताकि ये समुदाय अपना आत्मविश्वास फिर से हासिल कर सकें।
3. अनुभव और वास्तविकता आधारित ज्ञान को केंद्र में लाएं
संविधान संबंधी ज्ञान को केवल शब्दावलियों और परिभाषाओं तक सीमित नहीं किया जाना चाहिए। इसके बजाय समुदाय के व्यवहारिक और अनुभव-आधारित ज्ञान को केंद्र में लाना जरूरी है। यह एक-दो दिन की गोष्ठियों से कहीं आगे की बात है।
उदाहरण के तौर पर, देवदासी प्रथा से गुजरी एक महिला अब 70 अन्य महिलाओं को इकट्ठा कर कहती हैं, “हम अपनी बेटियों को इस प्रथा के लिए समर्पित नहीं करेंगी। हम उन्हें भगवान के हवाले नहीं करेंगे।” यह अनुभव-आधारित ज्ञान है। जब ऐसी गहन समझ आदिवासी और अन्य समुदायों में जमीनी स्तर पर पहले से मौजूद है, तो हमारा काम केवल उन्हें एक-दूसरे से जोड़ना और यह दिखाना है कि समुदाय अपने ज्ञान का सबसे अच्छा इस्तेमाल कैसे कर सकता है।
हम जिन बस्तियों के साथ काम करते हैं, उनमें से एक में लोगों को अपने घर से उजाड़े जाने का खतरा था। कुछ लोग उनकी बस्ती को गिराना चाहते थे और हर रात घरों में पत्थर फेंक कर उन्हें डराने की कोशिश करते थे। डर और तनाव लगातार बढ़ रहा था। हमारे एक शुरुआती सत्र में हमने इसी घटना से जुड़ा एक सवाल उठाया था: यदि कोई आप पर पत्थर फेंके, तो क्या आप भी जवाब में पत्थर फेंकेंगे या संवैधानिक रास्ता अपनाएंगे? उस समय 90 प्रतिशत से ज्यादा लोगों ने कहा था कि वे भी पत्थर से जवाब देंगे।
लेकिन जब उन्हें संविधान द्वारा हासिल अधिकारों की जानकारी मिली तो समुदाय ने एक अलग रास्ता चुना। वे पुलिस स्टेशन गए, आवेदन दर्ज किया, लगातार प्रयासरत रहे और समुदाय के नेताओं से संपर्क किया। इससे पूरा मामला बिना किसी हिंसा के शांति से निबट गया। यह सब तब हुआ, जब वे सीधे हमलों का सामना कर रहे थे। ऐसा इसलिए, क्योंकि अब संविधान उनके लिए केवल एक किताब नहीं, बल्कि जीने का तरीका बन चुका था।
आदिवासी समुदाय का संविधान के बारे में ज्ञान शहरी या सवर्ण व्याख्याओं से अलग हो सकता है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि उसका कोई अस्तित्व ही नहीं है। हम उनके इसी ज्ञान को पहचानते हैं, उससे सीखते हैं और फिर उसे संविधान से जोड़कर चर्चा को समृद्ध बनाने की कोशिश करते हैं।
4. समुदाय के लीडर्स का साथ दें
अगर कोई संगठन जमीनी स्तर पर संवैधानिक साक्षरता पर काम कर रहा है, तो उसका नेतृत्व उसी समुदाय के लोगों के हाथ में होना चाहिए। उदाहरण के तौर पर, हमारे समुदाय जलवायु परिवर्तन से सबसे अधिक प्रभावित होते हैं। फिर भी, इस मुद्दे पर हमारे समुदायों के लिए जागरूकता और क्षमता-विकास के कार्यक्रम अक्सर बाहरी लोगों द्वारा संचालित किए जाते हैं।
ऐसे कार्यक्रमों को संचालित करने वाले आमतौर पर यह मानकर चलते हैं कि गांव के लोग ‘स्वतंत्रता’, ‘समानता’ या ‘संवैधानिक अधिकारों’ जैसे शब्दों को समझ नहीं सकते। लेकिन महाराष्ट्र में ‘स्वतंत्रता’ और ‘भाईचारा’ जैसे शब्दों का गहरा भावनात्मक अर्थ है, जो अकादमिक परिभाषाओं से कोसों दूर है।
इन समुदायों के कई कार्यकर्ता या फील्डवर्कर, जो दशकों से जमीनी स्तर पर काम कर रहे हैं, मानते हैं कि उनके पास पर्याप्त ज्ञान नहीं है या वे बौद्धिक रूप से कुछ योगदान नहीं दे सकते हैं। उनके मन में यह बात बिठा दी गई है कि उनका योगदान केवल श्रम तक सीमित है और उन्हें केवल मोबिलाइजेशन करना चाहिए, न कि विचार या समझ पैदा करने से जुड़े कामों में शामिल होना चाहिए। जबकि असल में संविधान के लोकतांत्रिक सिद्धांतों में उनका ही ज्ञान निहित है, जो कहानियों, लोकगीतों, दिनचर्या, आपसी बातचीत और सामुदायिक जीवन के माध्यम से प्रकट होता है।
आदिवासी समुदाय का संविधान के बारे में ज्ञान शहरी या सवर्ण व्याख्याओं से अलग हो सकता है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि उसका कोई अस्तित्व ही नहीं है।
कोविड-19 महामारी के दौरान जब ‘अनुभूति’ राहत कार्य में लगी हुई थी, तब हर घर जाकर राशन पहुंचाना संभव नहीं था। तब हमने लगभग 250 सामुदायिक लीडर्स से संपर्क कर नेतृत्व का एक साझा सेतु बनाया। ये लीडर घुमंतू, अनुसूचित जाति और दलित समुदायों से थे। उनके प्रयासों से हम प्रत्येक समुदाय तक 2–3 लाख रुपए के संसाधन पहुंचा सके। लेकिन फिर भी हमारे फंडिंग संस्थानों ने हमसे पूछा, “क्या गारंटी है कि यह राशन सही लोगों तक पहुंचेगा?”
बाद में हमें पता चला कि इन लीडर्स ने पूरी रणनीति के साथ काम किया था। उदाहरण के लिए, अगर किसी जगह केवल 100 किट मौजूद थी और वहां 200 से अधिक लोग थे, तो उन्होंने जरूरतमंदों की प्राथमिकता सूची बनाई, जिसमें गर्भवती महिलाएं, अकेली माताएं, विकलांग व्यक्ति और बुजुर्ग शामिल थे।
यहीं से मैंने भी सीखा कि असल मायनों में संविधान में वर्णित सामाजिक न्याय, अंतःसंबद्धता (इंटर-सेक्शनेलिटी) और नारीवाद के क्या मायने हैं। इन समुदायों के लीडर्स ने भले ही विश्वविद्यालयों से ये सिद्धांत नहीं पढ़े हैं, लेकिन फिर भी ये उनके दैनिक कामों का एक अहम हिस्सा हैं।
इसलिए जो संगठन संवैधानिक साक्षरता पर काम करते हैं, उन्हें समुदाय में केवल ‘ज्ञान देने’ की मंशा से नहीं जाना चाहिए। यह प्रक्रिया साझेदारी पर आधारित होनी चाहिए। ‘अनुभूति’ में हम हमेशा इस बात का ध्यान रखते हैं कि समुदायों को किसी बैनर तले न खड़ा किया जाए, क्योंकि जमीनी स्तर पर उनकी अपनी पहचान बेहद सशक्त होती है।
संवैधानिक साक्षरता कोई एकतरफा प्रक्रिया नहीं है। यह जमीनी स्तर पर मौजूद समुदायों के ज्ञान को सुनने, उससे सीखने, उसकी महत्ता को स्वीकारने, और उन अधिकारों तक उनकी पहुंच सुनिश्चित करने की एक पहल है, जिनसे वे लंबे समय से वंचित रहे है।
इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ें।
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