मानसिक स्वास्थ्य पर भी उतनी ही गंभीरता और वरीयता से बात करने की जरूरत है जैसे शारीरिक स्वास्थ्य के बारे में की जाती है। इस पर बात न किए जाने की सबसे बड़ी वजह, इससे जुड़ी सामाजिक भ्रांतियां हैं। हमारे यहां अक्सर मानसिक समस्याओं को सीधे ‘पागलपन’ से जोड़कर देखा जाता है। लेकिन असल में, मानसिक स्वास्थ्य हमारे सोचने, महसूस करने, घटनाओं और परिस्थितियों पर प्रतिक्रिया देने और खुद को अभिव्यक्त करने से जुड़ा हुआ है। जब हम मानसिक रूप से स्वस्थ होते हैं तो तनावपूर्ण स्थितियों को बेहतर तरीके से संभाल पाते हैं, सही फैसले ले सकते हैं और अपने रिश्तों को मजबूत बना सकते हैं।
मानसिक स्वास्थ्य समस्याएं किसी को भी हो सकती हैं और सही इलाज और सहयोग मिलने पर लोग उनसे बाहर निकल सकते हैं। खेल और सिनेमा की कुछ बड़ी हस्तियां इसका उदाहरण पेश कर चुकी हैं। जैसे साल 2014 में भारतीय क्रिकेटर विराट कोहली ने अपने मानसिक तनाव से गुजरने की बात कही थी और बताया कि खेल में लगातार खराब प्रदर्शन के कारण वे अवसाद (डिप्रेशन) और अकेलापन महसूस कर रहे थे। विराट ने सार्वजनिक रूप से थैरेपी (मनोवैज्ञानिक परामर्श) लेने की बात भी कही थी और मानसिक स्वास्थ्य पर खुलकर बात करने की जरूरत को स्वीकार किया था। इसी तरह, जानी मानी फिल्म एक्ट्रेस दीपिका पादुकोण भी अवसाद से जुड़े अपने अनुभव पर खुलकर बात करती रही हैं। अपने इस निजी अनुभव के चलते ही उन्होंने साल 2015 में मानसिक स्वास्थ्य जागरूकता बढ़ाने के लिए लिव लव लॉफ फाउंडेशन की शुरूआत की थी।
विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की मानें तो दुनिया में हर दस में से एक व्यक्ति किसी न किसी मानसिक स्वास्थ्य समस्या से जूझ रहा है। लेकिन ज्यादातर लोग इसका इलाज नहीं करवाते हैं, यहां तक कि इस बारे में बात करने से भी कतराते हैं। अगर समय रहते मानसिक समस्याओं का पता लग जाए और सही इलाज मिल जाए तो चिंता (एंग्जायटी) और अवसाद जैसी समस्याओं को गंभीर होने से रोका जा सकता है। इस आलेख में हम विस्तार से समझेंगे कि मानसिक स्वास्थ्य के बारे में बात होना क्यों जरूरी है और इससे जुड़ी भ्रांतियां क्या हैं?
भारत मानसिक स्वास्थ्य को कैसे देखता रहा है?
दुनिया के बाकी देशों की तरह ही, मानसिक स्वास्थ्य भारत में भी कोई नया विषय नहीं है। इसका जिक्र हमारी पारंपरिक चिकित्सा पद्धतियों में भी मिलता है। इनके अनुसार मानसिक स्वास्थ्य, वह अवस्था है जिसमें व्यक्ति मानसिक रूप से संतुलित, भावनात्मक रूप से स्थिर और सामाजिक रूप से सक्रिय रहता है। लेकिन समय के साथ मानसिक स्वास्थ्य को देखने और समझने के दृष्टिकोण में कई बदलाव आए हैं।
चरक संहिता और अष्टांगहृदयम जैसे ग्रंथों में मानसिक समस्याओं को ‘मानसिक व्याधि’ के रूप में परिभाषित किया गया है। आयुर्वेद के अनुसार, मानसिक स्वास्थ्य तीन दोषों—वात, पित्त और कफ—के संतुलन पर निर्भर करता है और ज़्यादातर बार शरीर में वात का असंतुलन इसका मुख्य कारण बनता है। इन ग्रंथों में मानसिक रोगों के लिए ‘सत्वावजय चिकित्सा’ (मन को नियंत्रित करने की चिकित्सा) का उल्लेख मिलता है जो आधुनिक संज्ञानात्मक व्यवहार थैरेपी (कॉग्निटिव बिहैवियरल थैरेपी-सीबीटी) से मिलती-जुलती है।
भारत में ब्रिटिश शासन के दौरान मानसिक स्वास्थ्य को नियंत्रण और देखभाल के नजरिए से देखा जाने लगा था। यही कारण है कि साल 1745 में बॉम्बे लूनाटिक असाइलम (अब जेजे हॉस्पिटल) की स्थापना हुई और धीरे-धीरे दूसरे शहरों में भी ऐसे केंद्र खोले गए। इसके बाद 1912 में ‘भारतीय मानसिक स्वास्थ्य अधिनियम‘ (इंडियन लूनैसी एक्ट, 1912) लागू हुआ लेकिन इसमें मानसिक रोगियों की बेहतरी की बजाय उन्हें सीमित और अलग-थलग रखने पर ज्यादा जोर दिया गया। इसके चलते, समाज में धीरे-धीरे यह धारणा बनने लगी कि मानसिक विकार या परेशानी व्यक्ति को परिवार और समाज से अलग कर सकती है और लोग इस पर बात करने से कतराने लगे। स्वतंत्रता के बाद भारत में मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार की दिशा में कुछ ठोस कदम उठाए गए हैं। साल 1954 में भारतीय मनोरोग सोसायटी की स्थापना की गई। साल 1982 में राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रम शुरू किया गया जिसका उद्देश्य मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं को ग्रामीण क्षेत्रों तक पहुंचाना था।
नब्बे के दशक में मानसिक स्वास्थ्य से जुड़े कानूनों को और अधिक मानवीय दृष्टिकोण से देखने की कोशिश की जाने लगी। साल 1987 का मानसिक स्वास्थ्य अधिनियम और साल 2017 का मानसिक स्वास्थ्य देखभाल अधिनियम इस दिशा में महत्वपूर्ण कदम थे। यही आगे बढ़कर साल 2017 के अधिनियम में, आत्महत्या को अपराध न मानने और रोगियों को गरिमा के साथ इलाज का अधिकार देने का प्रावधान के रूप में देखने को मिला।

भारतीय समाज मानसिक स्वास्थ्य को कैसे देखता है?
आंकड़े बताते हैं कि आज भारत में 15% आबादी मानसिक विकारों से ग्रस्त है। एक अनुमान के अनुसार देश में लगभग पांच करोड़ लोग अवसाद और 3.8 करोड़ लोग चिंता से जूझ रहे हैं। हर चार में से एक किशोर किसी न किसी मानसिक विकार का शिकार होता है, लेकिन 90% मामलों में इसका इलाज नहीं होता है। ऐसा इसलिए भी है क्योंकि देश में प्रति एक लाख लोगों पर केवल 0.3 मनोचिकित्सक ही उपलब्ध हैं जो विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानक से बहुत कम है।
हैंक नन संस्थान की प्रमुख हेना फ़क़ुरुद्दीन बताती हैं कि “आमतौर पर समाज में मानसिक स्वास्थ्य को कलंक से जोड़कर भी देखा जाता है। अगर कोई व्यक्ति डिप्रेशन या एंग्जायटी महसूस कर रहा है तो परिवार या समाज इसे ‘बस सोचने का तरीका बदलो’ कहकर टाल देता है। इतना ही नहीं, मानसिक स्वास्थ्य से जूझ रहे व्यक्ति को नौकरी और रिश्तों में भी भेदभाव झेलना पड़ता है।”
मानसिक स्वास्थ्य से जुड़े नजरिए को बदले जाने की ज़रूरत इस लिहाज से भी है कि इन समस्याओं का सीधा असर काम की गुणवत्ता और उत्पादकता पर भी पड़ता है। डब्लूएचओ के अनुसार, मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं के कारण भारतीय अर्थव्यवस्था को 2020-2030 के बीच एक लाख करोड़ डॉलर का नुकसान हो सकता है। इसके बाद कुछ कंपनियों ने अब ‘मानसिक स्वास्थ्य अवकाश’ और ‘कर्मचारी कल्याण कार्यक्रम’ शुरू किए हैं। लेकिन उससे पहले कुछ सामाजिक भ्रांतियों से निपटे जाने की जरूरत दिखाई देने लगी है।
मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी कुछ सामाजिक भ्रांतियां
1. यह केवल अमीरों की समस्या है
सच्चाई: गरीब और ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले लोग भी मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं का सामना करते हैं। वित्तीय समस्याएं और असुरक्षित जीवनशैली उनके मानसिक स्वास्थ्य को और अधिक प्रभावित करती हैं।
उदाहरण: झारखंड के ग्रामीण इलाकों में किए गए एक अध्ययन में पाया गया कि वहां के 65% लोग अवसाद और चिंता से पीड़ित हैं लेकिन जागरूकता के अभाव में वे इसका इलाज नहीं करवा पाते हैं।
2. अगर कोई मानसिक रूप से बीमार है तो वह हिंसक हो जाएगा
सच्चाई: मानसिक बीमारियों से ग्रस्त लोगों का हिंसक होना एक मिथक है। वास्तव में, मानसिक रूप से अस्वस्थ व्यक्ति दूसरों की तुलना में अधिक संवेदनशील होते हैं और उनके स्वयं को नुकसान पहुंचाने की संभावना अधिक होती है।
उदाहरण: बेंगलुरु में नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ मेंटल हेल्थ एंड न्यूरोसाइंसेज के एक अध्ययन में पाया गया कि स्किजोफ्रेनिया से ग्रस्त अधिकांश मरीज हिंसक नहीं थे, बल्कि वे समाज से अलग-थलग हो गए थे। हिंसा का जोखिम मुख्य रूप से उन मामलों में था जहां उपचार नहीं लिया गया था।
3. अगर आप खुश दिख रहे हैं तो आप मानसिक रूप से स्वस्थ हैं
सच्चाई: हाई-फंक्शनिंग डिप्रेशन जैसी स्थितियों में व्यक्ति बाहरी रूप से खुश और सामान्य दिख सकता है, लेकिन अंदर ही अंदर संघर्ष कर रहा होता है।
उदाहरण: साल 2018 में, एक प्रसिद्ध आईटी कंपनी के वरिष्ठ अधिकारी को बेहद सफल और खुशहाल माना जाता था, लेकिन बाद में पता चला कि वे गंभीर अवसाद से जूझ रहे थे। उनकी आत्महत्या के बाद उनके करीबी दोस्तों को इस स्थिति का अहसास हुआ।
मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित करने वाले कारण क्या हैं?
मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित करने वाले कई प्रमुख कारक हैं जो व्यक्ति की भावनात्मक, मानसिक और सामाजिक कल्याण पर असर डालते हैं। इसके प्रमुख कारकों में शामिल हैं:
1. आनुवंशिक कारक: कुछ मानसिक विकार, जैसे स्किजोफ्रेनिया और द्विध्रुवी विकार (बायपोलर डिसॉर्डर), आनुवंशिक कारणों से हो सकते हैं। यदि परिवार में किसी सदस्य को मानसिक विकार है तो बाकी सदस्यों में इसके लक्षण होने की संभावना बढ़ जाती है।
2. पर्यावरणीय कारक: बचपन में दुर्व्यवहार, भावनात्मक उपेक्षा, या आघात जैसे अनुभव मानसिक स्वास्थ्य को नकारात्मक रूप से प्रभावित कर सकते हैं। इसके अलावा, सामाजिक अलगाव, भेदभाव, और गरीबी जैसे कारक भी मानसिक अस्वस्थता को बढ़ाते हैं।
3. शारीरिक स्वास्थ्य: कैंसर या हृदय रोग जैसी शारीरिक बीमारियां मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं का कारण बन सकती हैं। शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के बीच घनिष्ठ संबंध होता है, एक में समस्या होने पर दूसरे पर भी असर पड़ सकता है।
4. जीवनशैली कारक: बहुत ज्यादा तनाव, खराब नींद, और अस्वस्थ आहार जैसी जीवनशैली संबंधी आदतें मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित कर सकती हैं। नियमित व्यायाम की कमी और नशीले पदार्थों का सेवन भी मानसिक समस्याओं का कारण बन सकते हैं।
5. सामाजिक कारक: सामाजिक अलगाव, पारिवारिक विवाद, और वित्तीय समस्याएं मानसिक अस्वस्थता में इजाफा कर सकती हैं। समुदाय या परिवार से मदद की कमी और जीवन में बड़े बदलाव, जैसे नौकरी खोना या किसी प्रियजन की मृत्यु, भी मानसिक स्वास्थ्य पर नकारात्मक प्रभाव डालते हैं।
6. जैविक कारक: आनुवंशिक प्रवृत्ति, न्यूरोट्रांसमीटर की गड़बड़ी और हार्मोनल असंतुलन भी अवसाद का कारण बनते हैं। जैसे ट्रांसजेंडर और महिलाओं में हार्मोनल परिवर्तनों से अवसाद की संभावना ज्यादा होती है।

मानसिक अस्वस्थता को कैसे पहचानें?
मानसिक अस्वस्थता को पहचानने के लिए कई लक्षण होते हैं, जो व्यक्ति के विचारों, भावनाओं और व्यवहार में बदलाव के रूप में दिख सकते हैं। हर व्यक्ति में लक्षण अलग-अलग हो सकते हैं, लेकिन कुछ सामान्य संकेत इस प्रकार हैं—
भावनात्मक लक्षण: इसमें चिंता, डर या घबराहट महसूस होती है। लंबे समय तक उदासी या निराशा बनी रहती है और आत्मग्लानि महसूस होती है।
व्यवहार में बदलाव: अकेले रहने की इच्छा, परिवार और दोस्तों से दूरी बनाना, रोजमर्रा के कामों में दिलचस्पी कम होना, नींद की समस्या, खाने की आदतों में बदलाव, गुस्सा या चिड़चिड़ापन बढ़ जाना।
शारीरिक संकेत: सिरदर्द, पेट दर्द या थकान जो बिना किसी शारीरिक कारण के बनी रहती है। दिल की धड़कन तेज़ होना या सांस लेने में तकलीफ और शरीर में भारीपन या कमजोरी महसूस होना।
इसके अलावा सोचने और ध्यान केंद्रित करने में दिक्कत महसूस होना भी एक प्रमुख लक्षण है। कई बार नकारात्मक विचार आते हैं, खुद को नुकसान पहुंचाने का ख्याल भी आता है।
मदद कहां से मिल सकती है?
मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी समस्याओं के लिए अलग-अलग तरह के विशेषज्ञ होते हैं, जिनकी भूमिका अलग होती है। मनोचिकित्सक वे डॉक्टर होते हैं जो मानसिक बीमारियों का इलाज दवाओं से करते हैं। अगर कोई व्यक्ति डिप्रेशन, बाइपोलर डिसऑर्डर या स्किजोफ्रेनिया जैसी गंभीर समस्याओं से जूझ रहा हो तो उनकी मदद ली जाती है। नैदानिक मनोवैज्ञानिक (क्लनिकल साइकोलॉजिस्ट) दवाएं नहीं लिखते बल्कि बातचीत और थैरेपी के जरिए मानसिक समस्याओं का इलाज करते हैं। मानसिक अस्वस्थता को ठीक करने के लिए कई तरह की थैरेपी और उपचार उपलब्ध हैं। बातचीत आधारित थैरेपी मानसिक समस्याओं के इलाज का एक प्रभावी तरीका है, जहां व्यक्ति की सोच और व्यवहार को बदलने में मदद की जाती है। संज्ञानात्मक-व्यवहार थैरेपी नकारात्मक विचारों को पहचानकर उन्हें सकारात्मक रूप में बदलने पर जोर देती है जबकि डायलेक्टिकल बिहेवियर थैरेपी भावनात्मक अस्थिरता को नियंत्रित करने में सहायक होती है।
वैकल्पिक उपचारों में ध्यान, योग, आर्ट थैरेपी और पशु चिकित्सा शामिल हैं जो मानसिक शांति प्रदान करते हैं। स्वस्थ जीवनशैली, संतुलित आहार, पर्याप्त नींद और करीबी लोगों से बात करना भी मानसिक स्वास्थ्य को बेहतर बनाने में मदद करता है। यदि कोई लक्षण लंबे समय तक बने रहें तो किसी योग्य विशेषज्ञ से परामर्श लेना जरूरी है।
परामर्श मनोवैज्ञानिक (काउंसिलिंग साइकोलॉजिस्ट या थैरेपिस्ट) उन लोगों की मदद करते हैं जो तनाव, चिंता या आत्मविश्वास की कमी जैसी दिक्कतों से गुजर रहे होते हैं। मनोरोग सामाजिक कार्यकर्ता मरीजों और उनके परिवारों को सही सलाह और सरकारी योजनाओं से जोड़ने का काम करते हैं। साइकोथेरेपिस्ट विशेष तरह की थैरेपी देकर लोगों की मानसिक सेहत सुधारने में मदद करते हैं।
समुदाय के मानसिक स्वास्थ्य से जुड़े प्रयास क्या हैं?
देशभर के जिला अस्पतालों और सरकारी मेडिकल कॉलेजों में मानसिक स्वास्थ्य सेवाएं मिलती हैं। भारत सरकार के जिला मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रम के तहत मानसिक स्वास्थ्य विशेषज्ञों को जिलों में नियुक्त किया जाता है, जहां लोग मुफ्त या कम लागत में परामर्श पा सकते हैं। इसके साथ ही मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच आसान बनाने के लिए सरकार ने राष्ट्रीय टेली-मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रम की शुरूआत की है। यह कार्यक्रम 24/7 मुफ्त मानसिक स्वास्थ्य सहायता प्रदान करता है जिससे विशेष रूप से दूरदराज के क्षेत्रों में लोगों को समय पर सहायता मिलती है।
साथ ही, राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रम के तहत मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं को प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली में एकीकृत किए जाने का प्रयास चल रहा है। आत्महत्या की रोकथाम और संकट प्रबंधन के लिए ‘किरण‘ हेल्पलाइन शुरू की गई है। छात्रों के लिए खासतौर पर आत्मनिर्भर भारत अभियान के तहत ‘मनोदर्पण‘ पहल शुरू हुई है। साल 2015 के बाद से भारत सरकार ने चिकित्सा क्षेत्र में अपने बजट में मामूली इजाफा करना शुरू किया है लेकिन मानसिक स्वास्थ्य के लिए विशेष रूप से आवंटित बजट का प्रतिशत काफी कम है इसलिए इस दिशा में और अधिक निवेश करने की जरूरत है।
अगर आप स्वयं या अपने आसपास किसी व्यक्ति को लंबे समय तक मानसिक स्वास्थ्य समस्या से परेशान देखते हैं तो राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य संस्थान की वेबसाइट पर संपर्क कर सकते हैं।यहां आपको आपकी समस्या और सहजता के अनुरूप टोल-फ्री नम्बर मिल सकते हैं। इन पर बात कर या मैसेज के जरिए मानसिक समस्या के संबंध में परामर्श लिया जा सकता है।
हैंक नन संस्थान की प्रमुख हेना फ़क़ुरुद्दीन के विशेष योगदान के साथ, इस आलेख को जूही मिश्रा और रजिका सेठ ने तैयार किया है।
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