स्वतंत्रता की 75वीं वर्षगांठ के जश्न के बाद, अब अगले मील के पत्थर – 2047 यानी आज़ादी की शताब्दी की ओर उत्सुकता से देखने का समय आ चुका है। आने वाले पच्चीस साल हमारी सामूहिक राष्ट्रीय आकांक्षाओं और उन्हें पूरा करने में आने वाली बाधाओं पर ध्यान केंद्रित करने के लिहाज़ से महत्वपूर्ण हैं।
बीते 75 सालों में जहां हमने बहुत कुछ हासिल कर लिया है, वहीं अब भी बहुत कुछ बाक़ी रह गया है। इस बात को समझाने के लिए केवल दो आंकड़ों का ही हवाला देना काफ़ी होगा। साल 1947 में भारतीयों की औसत जीवन प्रत्याशा 32 वर्ष थी जो बढ़कर 2022 में 70 वर्ष हो चुकी है। लेकिन राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएस – 5, 2019–21) की रिपोर्ट के अनुसार, भारत के 35.5 फ़ीसद बच्चे विकसित, 19.3 फ़ीसद कुपोषित और 32.1 फ़ीसद कम वजन वाले हैं।
हम दशकों से सांस्कृतिक, सामाजिक, आर्थिक या राजनीतिक और पर्यावरण से जुड़े क्षेत्रों में भी ऐसा ही द्वन्द देखते आ रहे हैं। बाघों की हालिया जनगणना के अनुसार, पांच-दशक-पुराने, प्रोजेक्ट टाइगर ने भारत में बाघों की संख्या को दोगुना कर दिया है और अब इनकी संख्या 3,000 से अधिक हो चुकी है। लेकिन फिर भी 2021 तक भारत के कुल भौगोलिक क्षेत्र में सघन और मध्यम सघन वनों के क्षेत्रफल में 12.4 फीसद की कमी आई है। आर्थिक परिदृश्य की बात करने पर भी हमें ऐसा ही द्वन्द दिखाई पड़ता है। एक ओर, भारत अपनी जीडीपी के आकार और वृद्धि दर के आधार पर शीर्ष की पांच अर्थव्यवस्थाओं में से एक बन चुका है, और वहीं दूसरी ओर, यहां ग़रीबों की संख्या सबसे अधिक है। साथ ही, यह आय और संपत्ति की असमानता में सबसे ऊंचे स्तर पर पहुंच चुका है। राजनीतिक रूप से देखें तो हम दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र हैं – 2024 तक भारत में मतदाताओं की कुल संख्या 94 करोड़ से भी अधिक हो जाएगी – और फिर भी हम हमारी राजनीति में आई भयानक गिरावट के मूक गवाह बने हुए हैं। फिर चाहे बात मणिपुर से मेवात तक की हो रही हो या लोकसभा से लेकर स्थानीय स्वशासन तक की।
विकास और उपेक्षा के दो चरमों के बीच असंगति स्पष्ट है। ‘सर्वेसुखिनाभवन्तु’ से लेकर ‘सर्वोदय’ जैसे पीढ़ियों पुराने श्लोकों और ‘ग़रीबीहटाओ’, ‘सबकीप्रगति’ और ‘सबकासाथ, सबकाविकास’ जैसे नारों के बावजूद, सर्वांगीण प्रगति और कल्याण हासिल करने में हमारी असमर्थता के क्या कारण हैं? यह महज़ एक संयोग नहीं हो सकता है, और यह स्पष्ट है कि सत्ता और विशेषाधिकार प्राप्त लोगों ने नीति और शासन का उपयोग अपने फ़ायदे के लिए और देश की आबादी के एक बड़े हिस्से को नुक़सान पहुंचाने के लिए किया है। मैं यह कहना चाहता हूं कि भारत का अभिजात्य वर्ग, जिसने स्वतंत्रता आंदोलन का नेतृत्व किया था और जिसमें अधिकतर अपना बलिदान देने वाले आदर्शवादी लोग शामिल थे, स्वतंत्रता के बाद उनकी जगह धीरे-धीरे बहुत अधिक स्वार्थी और भौतिकवादी लोगों ने ले ली। कुछ अपवादों को छोड़ दें तो स्वतंत्रता के बाद के अभिजात वर्ग की नैतिकता ‘मेरे और मेरे परिवार के लिए अधिकतम लाभ’ तक सीमित थी जो कुछ मामलों में, ‘मेरे विस्तृत परिवार’ – आमतौर पर जाति भाइयों के लिए – तक जाती थी।
हमारा मुख्य काम राजनीतिक व्यवस्था में सुधार करना और इस खेल के नियमों को बदलना है क्योंकि यह जीवन के हर पहलू पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है।
मेरा मानना है कि हमारी यह स्थिति दरअसल हमारी राजनीतिक व्यवस्था के ढांचे की कमियों का परिणाम ही है। हमने सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार वाले चुनावी संसदीय लोकतंत्र को चुना। इससे यह सुनिश्चित हुआ कि राजनीतिक समानता, सामाजिक और आर्थिक समानता लाने के लिए एक महत्वपूर्ण उपकरण बनेगी। लेकिन, व्यवहार में, सामाजिक और आर्थिक असमानताओं ने राजनीतिक प्रक्रिया पर कब्ज़ा कर लिया है और तमाम तरीक़ों से सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार को एक सांकेतिक क़वायद भर बनाकर रख दिया है – जो पहले की सामाजिक और आर्थिक असमानताओं को जारी रखने की प्रक्रिया पर अपनी मोहर लगाता है। उत्साही नागरिकों वाले अभिजात वर्ग की अनुपस्थिति में, लोकतंत्र को जनसंख्या और अंध-जनसमर्थन (डेमोग्राफी प्लस डेमोगॉगरी)1 रहने तक सीमित कर दिया गया है और राष्ट्र-निर्माण को लूट के बड़े पैमाने पर बंटवारे के साथ भ्रष्टाचारतंत्र2 में बदल दिया गया है।
इसलिए, हमारा मुख्य काम राजनीतिक व्यवस्था में सुधार करना और इस खेल के नियमों को बदलना है, क्योंकि यह जीवन के हर पहलू पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है। इस प्रक्रिया को कम से कम पांच मूलभूत तरीकों से पूरा किया जाना चाहिए:
1. राजनीतिक दल प्रणाली में सुधार
यह महत्वपूर्ण है क्योंकि संसदीय लोकतंत्र इस पर निर्भर करता है। राजनीतिक दल लोकतंत्र की आधारशिला हैं, फिर भी विरोधाभासी रूप से अधिकांश राजनीतिक दल न तो आंतरिक रूप से लोकतांत्रिक ही हैं और न ही लोगों के प्रति जवाबदेह हैं। पिछले कुछ वर्षों में, चुनाव आयोग ने कई अनिवार्य घोषणाओं को जोड़ा है जो दलों को करनी होती है, लेकिन इनका केवल शब्दों में ही अनुपालन किया जा रहा है ना कि वास्तविक स्तर पर। इसके अलावा, केवल एक या दो राज्यों में सक्रिय दलों को लोकसभा चुनावों में शामिल होने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए। केवल उसी पार्टी को ऐसा करने की अनुमति दी जानी चाहिए, जिसने कम से कम पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में न्यूनतम, मान लीजिए, 5 फीसद वोट प्राप्त किए हों। इससे यह सुनिश्चित किया जा सकेगा कि लोकसभा वास्तव में राष्ट्रीय और अंतरराज्यीय मुद्दों को देखती है, ना कि एक या दो राज्यों में लोकप्रिय दलों की लॉबी के रूप में काम करती है।
2. चुनाव प्रक्रिया में सुधार
चुनावी निष्पक्षता सुनिश्चित करने के लिए चुनाव प्रक्रिया में सुधार किया जाना चाहिए। इसमें चुनाव पर किए गए उन खर्चों की निगरानी भी शामिल है जिसे आमतौर पर दर्ज नहीं किया जाता है। ऐसा करने से मतदान से चुनाव के पहले नकदी और शराब बांटने जैसे कदाचार में कमी आएगी। चुनावी बॉण्ड से राजनीतिक दलों को फंडिंग मिलना एक बड़ी समस्या है जिसे ठीक किया जाना चाहिए। हमें चुनावी उम्मीदवारों के लिए सार्वजनिक फंडिंग की मात्रा बढ़ाने की ज़रूरत है। इसके लिए हम एक ऐसी प्रणाली अपना सकते हैं जहां चुनाव आयोग खुदरा योगदान (जैसे, प्रति दानकर्ता अधिकतम 2,000 रुपये) का इंतज़ाम करेगा और इस प्रकार पार्टियों को कुछ धनी लोगों की बजाय बड़ी संख्या में आम लोगों से धन इकट्ठा करने के लिए प्रोत्साहित करेगा।
3. चुनाव की भौतिक यांत्रिकी में सुधार करना
खाने-पीने की चीजें ख़रीदने से लेकर वित्तीय लेनदेन तक, हमारे जीवन में सब कुछ तेजी से इलेक्ट्रॉनिक रूप से और किसी भी समय और किसी भी स्थान पर हो रहा है। हमें चुनावों में भी इस व्यवहार को अपनाने की ज़रूरत है। साथ ही, चुनाव बूथों के सामने इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन (ईवीएम) पर एक बटन दबाने के लिए घंटों इंतजार करने वाले मतदाताओं की लंबी-लंबी क़तारों से मुक्ति पानी चाहिए। एक ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए जिसमें हम कहीं से भी उस ईवीएम मशीन का बटन दबा सकें। इसका विरोध करने वाले कह सकते हैं कि इससे ग़लत मतदान की संभावना बढ़ जाएगी लेकिन हम एक ऐसा डिज़ाइन तैयार कर सकते हैं जो कम से कम सिक्स सिग्मा (या लाखों में एक) स्तर की सुरक्षा वाला हो। इसका मतलब यह है कि 94 करोड़ मतदाताओं में आप धोखाधड़ी के केवल 940 मामलों की उम्मीद कर सकते हैं, जो कि मौजूदा व्यवस्था की तुलना में बहुत कम है। निश्चित रूप से, अरबों से अधिक आधार कार्ड-आधारित सत्यापन किए जाने वाले और प्रति महीने अरबों रुपये के लेनदेन वाले देश में एक छेड़छाड़-प्रूफ चुनावी प्रणाली को डिजाइन और क्रियान्वित करना असंभव नहीं होगा।
4. आनुपातिक प्रतिनिधित्व के आधार पर चुनावी प्रणाली में सुधार
विविधता वाले हमारे देश में, वर्तमान ‘फर्स्ट-पास्ट-द-पोस्ट’3 प्रणाली की बजाय आनुपातिक प्रतिनिधित्व पर आधारित चुनावी प्रणाली होनी चाहिए। जब विधानमंडलों की सदस्यता विभिन्न सामाजिक समूहों की जनसंख्या के अनुपात में होगी तभी हम किसी राजनीतिक व्यवस्था से सामाजिक और आर्थिक न्याय पाने की उम्मीद कर सकते हैं। ये सामाजिक समूह धर्म के आधार पर हो सकते हैं, और उनके भीतर जाति और/या आर्थिक वर्ग के आधार पर भी बनाये जा सकते हैं। ऐसे लोगों की एक विशेष श्रेणी होगी, जिसके लगातार बढ़ते जाने की उम्मीद है, जो धर्म या जाति के आधार पर समूहीकृत नहीं होना चाहेंगे। वे अपना प्रतिनिधित्व स्वयं चुनेंगे, यह संख्या मत समूह के आधार के रूप में धर्म और जाति से दूर रहने वाले लोगों की संख्या के अनुपात में होगी। आनुपातिक प्रतिनिधित्व से यह बात सुनिश्चित होगी कि बहुसंख्यकों द्वारा किसी भी प्रकार का अत्याचार न किया जा रहा हो, क्योंकि बहुसंख्यक समुदाय का प्रत्येक वर्ग आनुपातिक प्रतिनिधित्व की मांग करेगा और इस प्रकार आंतरिक रूप से प्रतिस्पर्धा की स्थिति उत्पन्न होगी। आनुपातिक प्रतिनिधित्व से विधायिका में महिलाओं के लिए अनिवार्य रूप से 50 प्रतिशत सीटें होंगी, जिससे सत्ता समीकरण में महिलाओं को उचित स्थान मिलेगा।
5. निर्वाचित प्रतिनिधियों को जवाबदेह बनाकर चुनाव प्रणाली में सुधार लाना
केवल चुनाव व्यवस्था को ही बेहतर करना पर्याप्त नहीं है; हमें चुने गये प्रतिनिधियों की जवाबदेही भी बढ़ाने की आवश्यकता है। इसका मतलब है कि मतदाताओं द्वारा उनके प्रदर्शन की वार्षिक समीक्षा की जाये, जो फिर से इलेक्ट्रॉनिक रूप से हो और अपेक्षाकृत कम लागत पर की जा सके। न्यूनतम अनुमोदन रेटिंग हासिल न कर पाने वाले प्रतिनिधियों को पद से हटा दिया जाना चाहिए और उनके स्थान पर किसी अन्य को चुना जाना चाहिए। यह सुनिश्चित करने के लिए कि समीक्षा सही और पर्याप्त जानकारी पर आधारित है, संसद और राज्य विधानसभाओं की कार्यवाही और उनसे संबंधित स्थायी समिति की बैठकों को टेलीविजन पर प्रसारित किया जाना चाहिए, और विधायिका में लोगों की वास्तविक उपस्थिति को बहुत प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।
यह बदलाव ‘हम, भारत के लोग’ ही लायेंगे।
तो ये बदलाव कौन लाएगा? हम राजनीतिक दलों से अपनी बुरी प्रथाओं को सुधारने की उम्मीद नहीं कर सकते। न ही हम संपूर्ण राजनीतिक व्यवस्था से ही इन प्रणालीगत बदलावों की आशा कर सकते हैं। इस काम को ‘हम, भारत के लोग’ ही कर सकते हैं। इन चुनौतियों की प्रतिक्रिया के रूप में, कुछ लोग क्रांति की सलाह देते हैं, भले ही इसके लिए तानाशाही तरीक़ों का इस्तेमाल क्यों न करना पड़े! मैं 360-डिग्री क्रांति का सुझाव नहीं देता हूं जो हमें वहीं वापस ले आती है जहां से हमने शुरू किया था, न ही आधी क्रांति यानी 180-डिग्री मोड़ वाले व्यवधान को ही प्रस्तावित करता हूं जहां सब कुछ विपरीत दिशा में चला जाता है। हमें वास्तव में 90-डिग्री वाले मोड़ की ज़रूरत है, यानी एक चौथाई क्रांति।
पूर्व जेएनयू समाजशास्त्री दीपांकर गुप्ता के वाक्यांश का उपयोग करते हुए, इस चौथाई क्रांति का नेतृत्व ‘अभिजात वर्ग‘ को करना होगा। आजादी के बाद भी, हमारे पास ऐसे ‘योग्य कुलीन’ लोग थे – चाहे वह जय प्रकाश नारायण हों, जिन्होंने आजीवन सर्वोदय कार्यकर्ता बनने के लिए नेहरू के उत्तराधिकारी बनने का प्रस्ताव ठुकरा दिया था। या फिर वर्गीज कुरियन, जिन्होंने अमूल डेयरी को आगे बढ़ाकर श्वेत क्रांति की शुरुआत की थी। इला भट्ट, जिन्होंने सेवा आंदोलन के माध्यम से महिला सशक्तिकरण को वास्तविक बनाया। या अरुणा रॉय, जिन्होंने सूचना का अधिकार आंदोलन और उसके बाद रोजगार गारंटी आंदोलन का नेतृत्व किया। या फिर, डॉ बीडी शर्मा और मेधा पाटकर जिन्होने वन में रहने वाली जनजातियों के साथ हो रहे ऐतिहासिक अन्याय के खिलाफ राष्ट्र को जागरूक करने का काम किया।
आज की निराशाजनक स्थिति में भी, मैं ऐसे सैकड़ों, बल्कि हजारों लोगों को जानता हूं जो सभी बाधाओं के बावजूद समाज में अपना योगदान दे रहे हैं। इसमें सामाजिक कार्यकर्ता, समाजसेवी, सांस्कृतिक हस्तियां, विद्वान, वैज्ञानिक, प्रबंधक, यहां तक कि व्यवसायी, प्रशासनिक अधिकारी और राजनेता भी शामिल हैं। आइये, राजनीतिक व्यवस्था में सुधार के लिए जरूरी, इस चौथाई क्रांति का नेतृत्व इन लोगों के हाथों में सौंप देते हैं। वह पीढ़ी जो अब 29 वर्ष की औसत आयु (10 वर्ष कम या अधिक) के आसपास है, यानी जिनका जन्म 1984 और 2004 के बीच हुआ है, उन्हें शुरू में अपने साथ लाना होगा और फिर नेतृत्व की बागडोर उनके हाथों में देनी होगी। उन्हें हमारी राजनीति को सुधारने के इस कार्य में शामिल करना होगा। यह आलेख ऐसे लोगों तक ही अपनी बात पहुंचाने का एक जरिया है।
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फुटनोट्स:
- जनसांख्यिकी मानव आबादी का सांख्यिकीय अध्ययन है। डेमोगॉगरी का तात्पर्य उन राजनीतिक गतिविधि या प्रथाओं से है जो तार्किकता का उपयोग करने की बजाय आम लोगों की इच्छाओं और पूर्वाग्रहों पर आधारित अपील करके समर्थन मांगते हैं।
- क्लेप्टोक्रेसी सरकार के एक ऐसे रूप को संदर्भित करती है जिसमें नेता अपनी शक्ति का उपयोग उस देश से धन और संसाधन चुराने के लिए करते हैं जिस पर वे शासन करते हैं।
- एक ऐसी प्रणाली जहां प्रत्येक मतदाता एक ही उम्मीदवार के लिए अपना वोट डालता है, और सबसे अधिक वोट पाने वाला उम्मीदवार चुनाव जीतता है।
इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें।
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अधिक जानें
- इस विषय पर अरुण मायरा के दृष्टिकोण के बारे में पढ़ें कि नागरिक समाज को राजनीति से अपने जुड़ाव के स्वरूप पर फिर से विचार क्यों करना चाहिए।
- भारत में लोकतंत्र के क्षरण के बारे में अधिक जानने के लिए ग्लोबल स्टेट ऑफ़ डेमोक्रेसी 2022 की इस रिपोर्ट को देखें।
- वोट देने के अपने अधिकार के बारे में जानने के लिए इस सरल एक्सप्लेनर पर एक नज़र डालें।
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