पिछले वर्ष रोहिणी नीलेकणि फिलैंथ्रॉपीज में हमने सामाजिक क्षेत्र की 14 प्रमुख हस्तियों और वित्तपोषकों (फंडर्स) का साक्षात्कार लिया था। इस साक्षात्कार का उद्देश्य यह पता लगाना था कि वर्तमान में समाज में सबसे अहम मुद्दे क्या हैं, और इनके समाधान में फिलैंथ्रॉपी क्या भूमिका निभा सकती है।
इसमें कोई हैरानी की बात नहीं कि इस सूची में मानसिक स्वास्थ्य, जलवायु परिवर्तन से निपट पाने की क्षमता, शहरों पर बढ़ता दबाव, ग्रामीण मुद्दे और बेरोजगारी के कारण बढ़ते अपराध सबसे ऊपर रहे।
इस समूह द्वारा भारत के वित्तपोषण परिदृश्य (फंडिंग) का भी मूल्यांकन किया गया, जिसमें कुछ रोचक बातें सामने आयी। पहला, भारत में व्यक्तिगत और पारिवारिक संपत्ति में कई गुना वृद्धि हुई है, लेकिन उस अनुपात में दान में वृद्धि नहीं हुई है। दूसरा, जो संभवतः पहले की व्याख्या कर सकता है, दानदाता अपने द्वारा दिए गए धन और जमीनी स्तर पर उससे होने वाले लाभ का तत्काल परिणाम देखना चाहते हैं। सामूहिक राय यह थी कि इसने जटिल मानवीय कार्यों को एक तय ढांचे में बांध दिया है और आंकड़ों पर अत्यधिक केंद्रित बना दिया है। फीडबैक का आखिरी बिंदु यह था कि दानदाता अब आंकड़ों में परिवर्तन को ही सामाजिक बदलाव समझने लगे हैं।
इन तीनों बातों से यह स्पष्ट होता है कि सामाजिक परिवर्तन के लिए ‘एक्टिविज़्म’ आवश्यक है, लेकिन हम ‘डेटाविज़्म’, अर्थात प्रत्येक सामाजिक कार्यक्रम के परिणाम को केवल मात्रा और आंकड़ों द्वारा साबित करने में उलझ कर रह गए हैं।
यह बदलाव हताशाजनक है। डेटा की अपनी सीमाएं होती हैं, और जब हम सामाजिक कार्यक्रमों को समझने के लिए उस पर जरूरत से ज्यादा निर्भर हो जाते हैं, तो वास्तविक तस्वीर सामने नहीं आ पाती है। बाजार के विपरीत, हम परिणामों को न तो संचालित कर सकते हैं और न ही माप सकते हैं। इसका कारण यह है कि बाजार के उलट हमें केवल प्रोत्साहन, फीडबैक लूप, औपचारिक दायित्व तथा अंतिम परिणाम (जो बाजार की कार्रवाई को संभव बनाता है) को ही ध्यान में नहीं रखना होता है। हमारे पास सरकार की तरह अधिकार या बजट भी नहीं होता है कि हम सामाजिक कार्यक्रमों को बड़े पैमाने पर और सबके लिए संचालित कर सकें।
गैर-लाभकारी संस्थाओं द्वारा सामाजिक कार्यक्रमों के मूल्य और शक्ति को बाजार या सरकार की भाषा में प्रस्तुत करने से इस सेक्टर की वास्तविक योग्यता खत्म हो जाती है। यह ऐसा कार्य है जो मूल्यों, संबंधों और देखभाल को प्रमुखता देता है और हमेशा से समाज द्वारा संचालित रहा है।

दार्शनिक और प्रोफेसर सी.थी. गुयेन इसे बिल्कुल सही ढंग से व्यक्त करते हुए लिखते हैं, “ये सीमाएं (डेटा संग्रह और बड़े डेटासेट वाले कंटेंट) विशेष रूप से तब चिंताजनक हो जाती हैं जब हम सफलता (लक्ष्यों, उद्देश्यों और परिणामों) के बारे में सोचते हैं। जब काम को डेटा की भाषा में उचित ठहराना जरूरी हो जाता है, तो डेटा की सीमाएं मानवीय मूल्यों को भी सीमित कर देती हैं।”
डेटा से हमें क्या पता नहीं चलता है?
‘डेटा’ शब्द का प्रयोग पहली बार 1946 में उस जानकारी के लिए किया गया था, जिसे कंप्यूटर में संग्रहित और हस्तांतरित किया जा सकता था। आज, यह शब्द सूचना और समझ का समानार्थी बन गया है। यह स्पष्ट रूप से एक चिंता का विषय है।
डेटा का अर्थ समझ नहीं हो सकता, क्योंकि यह इंसान की एक गहन क्षमता है। इसे केवल शब्दों या आंकड़ों में पूर्ण रूप से व्यक्त नहीं किया जा सकता। कई बार भले ही हम चीजों को शब्दों में व्यक्त न कर पाते हों, लेकिन उन्हें समझ लेते हैं।
डेटा, जानकारी और ज्ञान, ये तीनों अलग-अलग पहलू हैं। डेटा वह जानकारी है जिसे कंप्यूटर संसाधित कर सकता है। यह वास्तविकता का एक विशेष अंग है, जो अक्सर पूरी तरह सटीक भी नहीं होता है। इसके बावजूद डेटा पर आधारित नीतियों, पाठ्यक्रमों आदि को निर्णय लेने का सबसे बेहतर तरीका माना जाता है।
कई मायनों में डेटा की अपनी सीमाएं होती है। यह इस पर निर्भर करता है कि इसे कैसे, किसके द्वारा और किसके लिए एकत्र किया गया है। सामाजिक कार्यक्रमों में त्रुटिरहित और पूरी तरह से निष्पक्ष डेटा जैसी कोई चीज नहीं होती। डेटा का निष्पक्ष इस्तेमाल बहुत कम होता है, क्योंकि यह इस बात पर निर्भर करता है कि उसे कौन और किस उद्देश्य से इस्तेमाल कर रहा है। यह सवाल शक्ति के समीकरणों और अतीत के अनुभवों से भी जुड़ा होता है।
एक थिंक-टैंक में काम करने वाले मेरे एक दोस्त का कहना है, “पश्चिमी देशों में वे डेटा के आधार पर नीतियां बनाते हैं। भारत में हम नीतियों के हिसाब से डेटा बना लेते हैं।”
डेटा के जरिए देखभाल को मापने के तरीके बेहद सीमित हैं, और इसी वजह से वे देखभाल के लिए उपयुक्त परिवेश और समाज का निर्माण नहीं कर पाते।
जब डेटा का स्रोत और इसका प्रयोग दोनों ही त्रुटिपूर्ण है, तो फिर विकास के काम में ‘डेटाविज़्म’ इतना हावी क्यों हो रहा है? एक स्पष्ट कारण यह है कि वस्तुओं और सेवाओं के मूल्यांकन के लिए बाजार का अर्थशास्त्र ही प्रमुख तरीका है। इसलिए, सामाजिक क्षेत्र में मूल्य निर्धारण के लिए भी यही तरीका अपनाया जा रहा है। हालांकि यह भ्रामक है, क्योंकि यह कई आर्थिक सिद्धांतों का उल्लंघन करता है। इसमें यह धारणा भी शामिल है कि लोग हमेशा दूसरों के बजाय अपने हित को प्राथमिकता देते हैं।
लेकिन जब हम मानव समझ को पीछे छोड़कर केवल डेटा साइंस को महत्व देते हैं, तो हम क्या खोने का जोखिम उठाते हैं?
सी.थी. गुयेन इसे ‘वैल्यू कैप्चर’ के माध्यम से समझाते हैं। यह वह प्रक्रिया है, जिसमें “हमारे सबसे गहरे मूल्य संस्थागत मापदंडों में बंध जाते हैं और फिर उनका स्वरूप कमजोर या विकृत हो जाता है। अकादमिक लोग वास्तविक समझ के बजाय साइटेशन रेट (कोई शोध या काम कितनी बार दूसरों द्वारा इस्तेमाल या मान्यता प्राप्त हुआ) को प्राथमिकता देते हैं; वहीं पत्रकार खबर की गुणवत्ता के बजाय क्लिकों की संख्या पर ध्यान देते हैं। वैल्यू कैप्चर में, हम अपने मूल्य को बड़े संस्थानों को आउटसोर्स करते हैं। फिर ये सभी गैर-व्यक्तिगत (इम्पर्सनल), संदर्भ-विहीन, और विशेषज्ञता-विहीन फिल्टर हमारे मूल्यों में शामिल हो जाते हैं। और एक बार जब हम उन बेनाम मूल्यों को अपना मान लेते हैं, तो हमें पता भी नहीं चलता कि हम किस चीज को खो रहे हैं।”
ऐसी ही एक चीज जिसे मौजूदा दौर में नजरअंदाज किया जा रहा है, वह है देखभाल।
बाजार की दृष्टि से पारस्परिक देखभाल का कोई मतलब नहीं है। जिस व्यक्ति के पास शक्ति और संसाधन हैं, वह स्वेच्छा से उन्हें दूसरे व्यक्ति की भलाई के लिए खर्च करता है। देखभाल का अर्थ इतना गहरा है कि मस्तिष्क उसे समेट नहीं पाता। ‘मस्तिष्क’ यहां मुख्य शब्द है। हम देखभाल को मस्तिष्क से समझने की कोशिश करते हैं, जबकि वास्तव में यह हमारे शरीर में होती है और अक्सर शरीर के जरिए ही परिपूर्ण होती है।
डेटा के जरिए देखभाल को मापने के तरीके बेहद सीमित हैं, और इसी वजह से वे देखभाल के लिए उपयुक्त परिवेश और समाज का निर्माण नहीं कर पाते। देखभाल वाले खास और गहरे रिश्तों के अलावा, इंसानों में यह महसूस करने की एक अनकही क्षमता भी होती है कि वे एक बड़े समूह का हिस्सा हैं। हम इंसानियत, पृथ्वी और पूरे ब्रह्मांड से जुड़ाव महसूस करते हैं। यह एहसास हमारे भीतर से होता है, न कि किसी ठोस, साबित की जा सकने वाली बात के आधार पर।

हम अक्सर लघु उद्यमियों, आविष्कारकों, जलवायु संरक्षकों और विभिन्न परिस्थितियों में काम करने वाले असंख्य धनी और गरीब, दोनों तरह के लोगों को देखते हैं। ये सभी दुनिया को बेहतर बनाने के लिए सामूहिक देखभाल की दिशा में कार्यरत होते हैं। इस तरह की सामूहिक सामाजिक भावना को हमेशा स्पष्ट, तत्काल या आंकड़ों में व्यक्त करना संभव नहीं होता है।
डेटाविज़्म (जिसे हमने संभावित रूप से बाजार से सीखा है) ने दानदाताओं के बीच इस भावना को बढ़ावा दिया है कि सामाजिक कार्यक्रमों के प्रभाव को आंकड़ों में दिखाया जा सकता है और ऐसा किया जाना जरुरी भी है। इन्हीं आंकड़ों के आधार पर, देखभाल संबंधी हस्तक्षेपों को सफल या असफल माना जा सकता है।
डेटाविज़्म कहां चूकता है?
डेटाविज़्म उन छोटे-छोटे सुधारों को प्राथमिकता देता है, जिन्हें आंकड़ों में मापा जा सकता है। लेकिन यह इसके बदले होने वाले सामाजिक नुकसान को नजरअंदाज कर देता है। इसका कारण है कि ये छोटे सुधार तुरंत दिखाई देते हैं, जबकि सामाजिक नुकसान (सोशल कॉस्ट) समय बीतने के बाद सामने आता है।
आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई) के बढ़ते प्रयोग के साथ, हमारे सामने उस खतरे का भी जोखिम है जिसे अर्थशास्त्री डैरेन एसीमोग्लू ‘सो–सो टेक्नोलॉजीज़’ कहते हैं। ये ऐसी तकनीकें हैं, जो रोजगार में बाधा डालती हैं और कामगारों को पीछे धकेलती हैं। यह न तो उत्पादकता बढ़ाती हैं और न ही सेवाओं की गुणवत्ता में कोई खास सुधार लाती हैं। किराने की दुकान में सेल्फ-चेकआउट कियोस्क या फोन पर ऑटोमेटेड कस्टमर सर्विस इसके चुनिंदा उदाहरण हैं।
डेटाविज़्म तकनीक की रचनात्मक क्षमता को भी घटाता है। इसे लेखिका लता मणि ने ‘द इंटीग्रल नेचर ऑफ थिंग्स: क्रिटिकल रिफ्लेक्शंस ऑन द प्रेजेंट’ में समझाया है। तकनीक को केवल एक उपकरण के रूप में देखकर, डेटाविज़्म इस तथ्य की अनदेखी करता है कि तकनीक ‘धारणाओं को बदल सकती है और नयी इच्छाएं सृजित करती है”। ऐसे में यह केवल एक मध्यस्थ के बजाय सामाजिक प्रक्रिया का हिस्सा बन जाती है।
आज फिलैंथ्रॉपी सेक्टर के लगभग हर कार्यक्रम में तकनीक का उपयोग किया जा रहा है। लेकिन इस बीच यह सवाल नदारद है कि यह देखभाल के रिश्ते को क्या और कैसे संभव बनाती है?
यदि तकनीक वास्तव में हमारी सेवा के लिए है, तो इसमें देखभाल को शामिल करना अनिवार्य है।
इसके लिए हमें भावनाओं को निष्पक्षता का विरोधी मानना बंद करना होगा। जैसे-जैसे हम तकनीकी परिवर्तन के असीम दौर में आगे बढ़ रहे हैं, हर कोई इस बात में उलझा हुआ है कि कल क्या होगा। लेकिन प्रमुख भविष्यवक्ता मानते हैं कि अपनी भावनाओं और इच्छाओं से जुड़ना ही यह बताता है कि हम भविष्य में क्या अनुभव करेंगे और उसके प्रति क्या प्रतिक्रिया देंगे। जेन मैकगोनिगल अपनी किताब ‘इमेजिनेबल’ में इसे अपने मस्तिष्क को खुला रखने और दूसरों की इच्छाओं को समझने के लिए गहरी समानुभूति का अभ्यास करने के रूप में समझाती हैं।
डेटा समझ को बढ़ाने में हमेशा प्रभावी नहीं होता है
सवाल यह नहीं है कि क्या डेटा हमें समझने में मदद करता है। बेशक, यह सही है। असली सवाल यह है कि क्या हमारे संवेदी उपकरण (सेंसिंग टूल) उस परिवेश के अनुकूल हैं, जिसे हम समझने की कोशिश कर रहे हैं? अगर लक्ष्य समझना है, तो डेटा तब बेहतर काम करता है जब समस्या की परिभाषा सीमित हो, और वातावरण सरल और नियंत्रित हो।
जैसे-जैसे परिवेश जटिल होता है, डेटा और समझ के बीच का संबंध भी जटिल होता जाता है। डेटा आपको कुछ शुरुआती आधार दे सकता है, लेकिन असली समझ परिवेश को जानने, अनुभव और परखने की प्रक्रिया से आती है। ऐसी समझ विकसित होने में समय लगता है और यह कोई क्रमिक रूप से चलने वाली प्रक्रिया नहीं होती है। लेकिन क्या हमारे पास इतना धैर्य है?
सामाजिक कार्यक्रमों में त्रुटिरहित और पूरी तरह से निष्पक्ष डेटा जैसी कोई चीज नहीं होती।
स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय की लेक्चरर और विज्ञान पत्रकार ग्रेस हकिंस अपने निबंध ‘द एंड ऑफ अंडरस्टैंडिंग’ में कहती हैं, “यह पूछना कभी भी समझदारी भरा नहीं रहा कि विज्ञान का उद्देश्य नई तकनीकों और उपायों का विकास करना है या ब्रह्मांड को समझना। सदियों से, ये दोनों लक्ष्य एक ही रहे हैं। अब जब बिग डेटा और एआई ने इन दोनों उद्देश्यों को अलग कर दिया है, यह तय करना हमारी जिम्मेदारी है कि इनमें से कौन सा अधिक मायने रखता है। डेटा हमें अपने आसपास की दुनिया को समझने की जरूरत महसूस न करने की अनुमति देता है।”
सामाजिक विज्ञान का अपना क्षेत्र है
भविष्य का सामना करते हुए, सामाजिक क्षमताओं को मजबूत बनाना बेहद जरूरी है। इससे हम आने वाली अनजान चुनौतियों के लिए तैयार रहेंगे। सामाजिक क्षेत्र हमेशा इस निवेश के लिए सबसे उपयुक्त जगह रहा है। हाल ही में बीती एक सदी की सबसे बड़ी महामारी के दौरान हमने यह देखा कि सबसे पहले नागरिक संगठनों ने मदद का हाथ आगे बढ़ाया। देखभाल के मजबूत सामुदायिक नेटवर्क ने हमें उन शुरुआती महीनों में सहारा दिया, जहां विज्ञान पीछे रह गया था।
तो फिर, सामाजिक क्षेत्र के निर्माण में फिलैंथ्रॉपी की क्या भूमिका है?
सामाजिक बदलाव के लिए काम करने वाली प्रमुख हस्तियों का कहना है कि वर्तमान में विकास क्षेत्र में उन्नति स्थगित है। वे बताते हैं कि इसकी जड़ में समस्याओं से निपटने के लिए हमें प्रणालीगत चुनौतियों, शक्ति समीकरणों, पहचान और प्रोत्साहन से जुड़े विषयों को गहराई से समझना होगा, जिसे डेटाविज़्म पूरी तरह से नजरअंदाज करता है।
वित्तपोषकों के लिए अपने योगदान का परिणाम जानना जरूरी है, और गैर-लाभकारी संस्थाएं अपने कार्यक्रमों के प्रभावों को समझना चाहती हैं। इस प्रकार, निगरानी और मूल्यांकन क्षेत्रीय प्रयासों का अभिन्न अंग है। हालांकि जटिल अनुकूली प्रणालियों में प्रक्रियाओं को समझने और उन पर नजर रखने के लिए ढांचे मौजूद हैं, लेकिन वे जटिल हैं और इनके लिए उच्च विशेषज्ञता की आवश्यकता है। वास्तव में, यह डेटाविज़्म के समर्थकों द्वारा की जाने वाली सबसे आम आलोचना है। लेकिन क्या हम पूरे ढांचे या प्रक्रिया को खारिज किए बिना यह सोच सकते हैं कि किसे ‘जटिल’ माना जाए और किसे ‘विशेषज्ञ’?
क्या हम सामूहिक रूप से इस बात पर विचार कर सकते हैं कि क्षेत्र और मंच को कैसे एकीकृत किया जा सकता है? क्षेत्र-आधारित काम में अर्थपूर्ण कार्य करने के हमारे तरीके में गर्व, सम्मान, घृणा और प्रतिशोध जैसी भावनाओं को शामिल किया जाना चाहिए। सामाजिक विज्ञान और प्रभावों के मापन को इस तरह एकीकृत करने के लिए अधिक पहल की आवश्यकता है, जिससे देखभाल, सम्मान और खुशी की भावनाओं को प्राथमिकता मिल सके।
डेटाविज़्म से भरपूर संभावनाओं की ओर
यदि हम अपने देखने और समझने के तरीकों में बदलाव करेंगे, तो पूंजी को सभी दिशाओं में अधिक आसानी से प्रवाहित किया जा सकता है। इससे हम केवल आंकड़ों और प्रभाव के संकीर्ण नजरिए से बाहर निकल पाएंगे।
अंत में यह कहना आवश्यक है कि इस लेख का उद्देश्य उन सभी लोगों के कड़े परिश्रम को कमतर आंकना नहीं है जो महत्वपूर्ण डेटा को इकट्ठा करते हैं, उसका विश्लेषण करते हैं और उसे इस्तेमाल करते हैं। हम खुद भी यह करते हैं। इसका उद्देश्य यह बताना है कि डेटा की सीमाएं होती हैं और जब हम उन लोगों, जगहों और जीवों की बात करते हैं जो इसके पूर्ण नियंत्रण से बाहर हैं, तो डेटा को केंद्रबिंदु नहीं बनाना चाहिए। हम यह विचार आगे रखना चाहते हैं कि इस क्षेत्र में हमेशा सवालों की संख्या, जवाबों से कहीं ज्यादा होती है।
इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ें।
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