September 24, 2024

फोटो निबंध: असम के कैबार्ता समुदाय को अब नदी से आजीविका क्यों नहीं मिल पा रही है

असम के कैबार्ता समुदाय की आजीविका और संस्कृति अब जलवायु परिवर्तन, औद्योगिक प्रदूषण और अत्यधिक मछली पकड़े जाने जैसे कारणों के चलते संकट में है।
9 मिनट लंबा लेख

दुनिया की सबसे बड़ी नदियों में से एक, ब्रह्मपुत्र, असम राज्य से होकर बहती है। यह राज्यभर में फैली लगभग 3,000 बड़ी और छोटी आर्द्रभूमियों का घर है, जो 1,400 वर्ग किमी के क्षेत्र में फैला हुआ है। स्वाभाविक रूप से, ये जल प्रणालियां कई पक्षियों और जानवरों का घर हैं। साथ ही, वे इसमें और इसके आसपास रहने वाले समुदायों के लिए आजीविका का एक स्रोत भी हैं। वर्षा जल से भरने वाले स्रोत, ज्यादा पानी में होने वाली फसलों जैसे धान वगैरह उपजाने में मददगार होने के साथ-साथ मछली पकड़ने के क्षेत्र भी हैं, क्योंकि यहां कई तरह की मछलियां पाई जाती हैं।

मछली असम की संस्कृति का प्रमुख हिस्सा है। उदाहरण के लिए, कई समुदाय जैसे कैबार्ता अपनी पहचान मछली पकड़ने के इर्द-गिर्द ही परिभाषित करते हैं। हालांकि, जलवायु परिवर्तन के कारण हो रही अनियमित वर्षा, औद्योगिक प्रदूषण और जरूरत से ज्यादा मछली पकड़े जाने जैसे कारणों के चलते इनका पेशा अब खतरे में है। यह फोटो निबंध, राज्य की अलग-अलग नदियों के किनारे बसे जिलों में रहने वाले, कैबार्ता समुदाय के लोगों के जीवन पर बात करता है। यह बताता है कि कैसे समुदाय बदलते सामाजिक और भौगोलिक वातावरण में अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रहा है।

मछली का जाल पकड़े मछुआरा_कैबार्ता समुदाय
मछली पकड़ने के जालों को दोपहर में खोला जाता है और दिनभर में मिली मछलियों को सीधे शाम के बाजार में ले जाया जाता है।

कैबार्ता का इतिहास, संक्षेप में

असम में कैबार्ता समुदाय ब्रह्मपुत्र के नदी क्षेत्रों में निवास करता रहा है। उनके नाम का अर्थ है -‘वे लोग जो पानी से अपनी आजीविका कमाते हैं।’ ऐतिहासिक रूप से, वे भारत में असम, बंगाल, बिहार और ओडिशा के साथ-साथ नेपाल, बांग्लादेश और भूटान में भी रहते आए हैं। कैबार्ता पारंपरिक रूप से मछुआरे, नाव चलाने वाले और किसान होते हैं। समुदाय को व्यवसाय के आधार पर उपजातियों में भी विभाजित किया गया है: जलिया कैबार्ता (मछली पकड़ने और नाव चलाने का काम करने वाले लोग) और हलिया कैबार्ता (जो खेती का काम करते हैं)। असम के आर्द्रभूमि क्षेत्रों में, इस समुदाय की अच्छी-खासी आबादी है और इसके सदस्य कामरूप जिले के सुआलकुची, हाजो, बामुंडी और ज़िलगुरी जैसे कस्बों और गांवों में कैबार्ता टोलों में रहते हैं। शिक्षाविद बताते हैं कि कैबार्ता जिन इलाकों में रहते हैं, उसकी वजह उनकी निम्न सामाजिक स्थिति के साथ-साथ ऐतिहासिक रूप से भूमिहीन होना भी है। इन परिस्थितियों के बावजूद, अपने कौशल के कारण वे आजीविका कमाने में कामयाब रहे हैं।

मछली पकड़ते दो बच्चे _कैबार्ता समुदाय
हेलोगांव गांव में मनोरंजन के लिए सुबह-सुबह मछली पकड़ते दो बच्चे।

हालांकि, बीते कुछ सालों में, जलवायु परिवर्तन उनकी जीवटता के लिए खतरा बनकर उभरा है और उनके आर्थिक और सांस्कृतिक अस्तित्व के लिए गंभीर चुनौतियां पैदा कर रहा है।

फेसबुक बैनर_आईडीआर हिन्दी

मिट्टी के कटाव और बार-बार आने वाली बाढ़ के कारण खेती को होने वाले नुकसान ने इन द्वीपों में कई लोगों के लिए खेती करना मुश्किल बना दिया है। स्थानीय लोगों के अनुसार, इससे उपजातियों के बीच व्यावसायिक मतभेद भी मिट गए हैं जिससे जलिया के साथ-साथ हलिया समूह को भी मछली पकड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा है।

कामरूप के हलोगांव गांव के महलदार (मछुआरा समुदाय के प्रमुख) दीपेन दास कहते हैं, “यहां के लोगों को मछली पकड़ने से मुश्किल से ही काम भर की आय हो पाती है। ऐसे में आप मछली पकड़ने या ना पकड़ने वाली जातियों के ऐतिहासिक उपविभाजन के बने रहने की उम्मीद कैसे कर सकते हैं?” दीपेन कहते हैं कि आजकल आर्थिक हताशा, कैबार्ता लोगों को प्रजनन के मौसम (अप्रैल से मध्य जुलाई) में भी मछली पकड़ने पर मजबूर करती है। इस समय असम सरकार की ओर से सार्वजनिक जल निकायों में मछली पकड़ने पर प्रतिबंध लगा दिया जाता है।

समुद्र की और देखता पुरुष_कैबार्ता समुदाय
सुआलकुची में मछुआरे का काम करने वाले गौतम दास, यहां की स्थलाकृतियों के बारे में बताते हैं।

चूंकि इन द्वीपों में आजीविका खतरे में है, इसलिए जीवनयापन के साधन के रूप में मछली पकड़ने पर बहुत ज्यादा निर्भरता है। दीपेन के अनुसार, “यहां तक ​​कि (कैबार्ता की तुलना में अधिक वित्तीय सुरक्षा वाले समूहों समेत) परंपरागत रूप से मछली ना पकड़ने वाले समुदाय कोलकाता से बेहतर उपकरण खरीद रहे हैं और ब्रह्मपुत्र में मछली पकड़ने के व्यापार को सीख रहे हैं।” हालांकि, मछली पकड़ने की प्रतिस्पर्धा बढ़ने के बावजूद, मछली की प्रजनन दर में गिरावट आ रही है। दीपेन कम प्रजनन दर की वजह न केवल जलवायु परिवर्तन बल्कि तेजी से हो रहे शहरीकरण, जैसे मुख्य गुवाहाटी और न्यू गुवाहाटी के बीच नए पुलों के निर्माण को मानते हैं। विभिन्न देशों में वैज्ञानिकों द्वारा किए गए अध्ययनों से पता चला है कि पुल निर्माण का नदियों और नालों के जलीय जीवन पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।

मछली पकड़ने का जाल_कैबार्ता समुदाय
एक स्थायी जाल, जिसे स्थानीय तौर पर मछली पकड़ने का चीनी जाल कहा जाता है। असम सरकार ने प्रजनन के मौसम के दौरान कई प्रकार के मछली पकड़ने वाले जालों के उपयोग पर प्रतिबंध लगा दिया है।

सामाजिक गतिशीलता और लैंगिक मानदंड

कैबार्ता समुदाय के सदस्यों की आर्थिक स्थिति पूरे राज्य में और यहां तक कि एक ही जिले के अलग-अलग इलाकों में अलग-अलग है। उदाहरण के लिए, कामरूप के सुआलकुची में रहने वाले कैबार्ता लोग उसी जिले के हाजो, हलोगांव और ज़िलगुरी में रहने वाले लोगों से बेहतर स्थिति में हैं। लेकिन सुआलकुची की समृद्धि का श्रेय स्वदेशी रेशम बुनाई उद्योग को जाता है। सुआलकुची में कैबार्ता लोगों ने अपनी अगली पीढ़ी को शिक्षित करने और उन्हें बेहतर (व्हाइट-कॉलर) नौकरियां हासिल करने के लिए प्रेरित करने के साथ, अपनी आय के साधन बढ़ाने के लिए ज्यादा फायदा देने वाले रेशम बुनाई के पेशे को अपनाया है।

यह देखना दिलचस्प है कि मछली पकड़ने की बजाय बुनाई को प्राथमिकता देने ने भी, समुदाय में लैंगिक मानदंडों को कमजोर करने में मदद की है। सुआलकुची में पुरुषों के साथ-साथ महिला बुनकर भी हैं। यह मछली पकड़ने से एकदम उलट है जहां लैंगिक भूमिकाएं स्पष्ट रूप से परिभाषित होती हैं। इसमें कैबार्ता महिलाएं मछली पकड़ने से पहले और बाद की गतिविधियों में तो शामिल होती हैं, लेकिन वे मछली पकड़ने में सीधे तौर पर शामिल नहीं होती हैं। समुदाय के सदस्य बताते हैं कि ऐसा माना जाता है कि नदियां महिलाओं के लिए सुरक्षित नहीं होती हैं। लेकिन हाजो की महिलाएं इसका अपवाद हैं क्योंकि उनके गांव में नदी तक पहुंचना आसान नहीं है, और मछली पकड़ने का काम तालाबों, आर्द्रभूमि और दलदलों में किया जाता है।

एक महिला_कैबार्ता समुदाय
हाजो में मछली पकड़ने वाली महिलाएं सैरॉन्ग या लुंगी जैसे कपड़े पहनती हैं जो उन्हें चलने-फिरने में सहूलियत देता है।

हाजो में कैबार्ता समुदाय के लोग नदी तक अपनी सीमित पहुंच और सीमित आर्थिक विकल्पों की तुलना सुआलकुची से करते हुए कहते हैं कि “उनकी पहुंच नदी तक है। हमें छोटे जलस्रोतों से जो मिल पाता है, वही मिल पाता है।”

एक मछली_कैबार्ता समुदाय
एक टेंगरा मछली, हाजो में एक मछुआरा ने अपने आधे दिन की मेहनत के बाद इस छोटी मछली को पकड़ पाया था।

अस्तित्व खोने की तरफ बढ़ता एक समुदाय

एक समय गर्व की वजह रहा मछली पकड़ने का व्यवसाय, अब असम के कैबार्ताओं के लिए लंबे समय तक स्थाई आजीविका देने वाला काम नहीं रह गया है। इसलिए अब युवा पीढ़ी आजीविका के दूसरे विकल्प तलाशने के लिए मजबूर हो रही है जिन्हें पाना मुश्किल है। यह कहानी, पारंपरिक रूप से मछली पकड़ने वाले उन कई समुदायों की कहानियों में से एक है जो किसी तरह अपने सांस्कृतिक इतिहास को बचाए हुए हैं। लेकिन उनकी पहचान पर आए इस खतरे को टालने में कोई मदद मिलती नहीं दिख रही है।

मानो कि औद्योगिक प्रदूषण, प्रतिस्पर्धा और जल स्रोतों का नुकसान पर्याप्त नहीं था कि कैबार्ता को सरकार के दबाव का भी सामना करना पड़ा। हालांकि सरकार की नीयत सही है लेकिन मछली पकड़ने की अवधि के साथ-साथ, कुछ खास तरह के जालों के उपयोग पर असम सरकार के प्रतिबंधों ने स्थिति को और खराब कर दिया है। समुदाय के सदस्य अक्सर प्रधान मंत्री मत्स्य सम्पदा योजना जैसी योजनाओं के असफल वादे के बारे में बोलते हैं, जिसके तहत असम सरकार मछली ना पकड़े जाने के महीनों में 1,500 रुपये देती है।

ऐसे समय में, जब सरकार देश में नीली क्रांति और मत्स्य पालन क्षेत्रों को विकसित करने पर जोर दे रही है, तब उसे उन लोगों को नजरअंदाज नहीं करना चाहिए, जिन्होंने तमाम बाधाओं को पार करते हुए पीढ़ियों से नदियों के किनारे जीवनयापन किया है। असल में, उनका ज्ञान मछली उद्योग के निर्माण की हर उस योजना के लिए महत्वपूर्ण हो सकता है जिसकी कल्पना सरकार करती है।

इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ें

अधिक जानें

  • असम में पारंपरिक मछली पकड़ने की प्रक्रिया को समझने के लिए यह फोटो निबंध पढ़ें
  • असम में कैबार्ता समुदाय के इतिहास के बारे में जानें
  • समझिए कि औद्योगिक प्रदूषण तमिलनाडु में आर्द्रभूमि को कैसे नष्ट कर रहा है।

लेखक के बारे में
जाह्नबी मित्रा-Image
जाह्नबी मित्रा

जाह्नबी मित्रा अम्बेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली में एक पीएचडी स्कॉलर हैं। वे पॉइंट ऑफ व्यू, मुंबई के साथ बतौर नॉलेज एसोसिएट भी काम करती हैं। यहां उनका काम भाषाई पहचान, प्रवास, जेंडर और तकनीक के अंतर्संबंधों और मनोसामाजिक प्रभावों पर केन्द्रित है। इससे पहले वे यूनिसेफ़ और राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के साथ भी काम कर चुकी है। उनके लेख इंडियन एक्सप्रेस, द क्विंट, लाइव वायर और द सिटीजन पर प्रकाशित होते रहे हैं।

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