January 15, 2025

फोटो निबंध: अपने श्रम अधिकारों के लिए साकी नाका के श्रमिकों का संघर्ष

मुंबई के कुर्ला में हमाल श्रमिक उचित वेतन और सामाजिक सुरक्षा के अभाव में संघर्ष कर रहे हैं। हालांकि, अब वे अपने अधिकारों की रक्षा के लिए संगठित होकर अपनी आवाज बुलंद कर रहे हैं।
7 मिनट लंबा लेख

भारत के विभिन्न शहरों में अधिकांश अनौपचारिक श्रमिक, बिचौलियों और मजदूर नाकों (वे स्थान जहां श्रमिक रोजगार की तलाश में इकट्ठा होते हैं) से काम हासिल करते हैं। मुंबई के कुर्ला में साकी नाका क्षेत्र के पास ऐसा ही एक नाका स्थित है, जो शहर के सबसे बड़े उत्पादन और रीसाइक्लिंग केंद्रों में से एक है। इस इलाक़े में उत्पादन और प्रोसेसिंग करने वाली कई फैक्ट्रियां हैं। ये मुख्य रूप से धातु, केमिकल और कपड़ों के उत्पादन से जुड़ी हैं। इस इलाके में एक और महत्वपूर्ण उद्योग कचरा इकट्ठा करने और उसकी रिसाइक्लिंग से भी जुड़ा है।

हालांकि इन श्रमिक नाकों पर विभिन्न प्रकार के श्रमिक, काम की तलाश में मुंबई आते हैं। कुछ नाकों पर चौबीसों घंटे हमाल या ‘लोडिंग-अनलोडिंग करने वाले श्रमिकों’ को ख़ासतौर पर रखा जाता है। ये श्रमिक मुख्य रूप से लोडिंग, अनलोडिंग, ढुलाई, स्टैकिंग और इसी तरह के कार्यों में लगे रहते हैं। वे छोटे उद्योगों और इमारतें बनाने के काम में मज़दूरी करते हैं। हमाल श्रमिक काम की तलाश में इन नाकों पर इकट्ठा होते हैं और इस क्षेत्र में रहते हैं। इनमें से अधिकांश श्रमिक उत्तर प्रदेश के बलरामपुर, सिद्धार्थनगर, गोंडा और बस्ती, तथा बिहार के दरभंगा, खगड़िया, पूर्णिया और कटिहार जैसे जिलों से प्रवासी होते हैं। इसके अलावा, कुछ श्रमिक नेपाल के दूरदराज इलाकों से भी आते हैं।

हाथगाड़ी धकेलता मजदूर_श्रमिक
मुंबई के साक़ी नाका में हमाल अपनी ठेला-गाड़ियों पर सामान ढोते हैं | चित्र साभार: गुफरान खान

हमाल श्रमिक शहरी असंगठित श्रमिकों का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं और वे आर्थिक और सामाजिक दृष्टि से सबसे अधिक हाशिए पर हैं। साकी नाका में ज्यादातर हमाल श्रमिक मुस्लिम हैं। यह एक ऐसा समूह है जो 2023 में जारी पीरियोडिक लेबर फ़ोर्स सर्वे के आंकड़ों के अनुसार, ‘प्रमुख धार्मिक समूहों में से सबसे कम संपत्ति रखने और सबसे कम संसाधनों की खपत करने वाला’ समूह है। साथ ही, यह ‘देश के सबसे गरीब धार्मिक समूहों’ में से भी एक है। साकी नाका में मुस्लिम हमाल श्रमिकों को कार्यस्थल पर और उसके बाहर, दोनों जगह भेदभाव का सामना करना पड़ता है। उन्हें अक्सर धातु का कचरा ढोने जैसे अति-असुरक्षित और जोखिमपूर्ण कामों में लगाया जाता है। समुदाय से अलगाव और काम न मिलने के डर से मुस्लिम श्रमिकों के लिए साकी नाका के इस पूरी तरह से अनौपचारिक श्रम बाजार में काम करना और काम देने वालों के साथ बातचीत करना कठिन हो जाता है।

लगभग 35 वर्षों का अनुभव रखने वाले हमाल श्रमिक मलिक को एक कठिन परिस्थिति का सामना करना पड़ा, जब उनको काम देने वाले ने लगभग एक वर्ष तक उनकी – लगभग 1.5 लाख रुपये मजदूरी रोक ली। इसके बावजूद, बेरोजगारी और श्रम बाजार से बाहर होने के भय से मलिक को बिना भुगतान के भी नौकरी पर बने रहने के लिए मजबूर होना पड़ा।

फेसबुक बैनर_आईडीआर हिन्दी
हाथगाड़ी के साथ मजदूर_श्रमिक
साकी नाका में अधिकांश हमाल श्रमिक मुस्लिम हैं, जो कम वेतन पर रोजाना 12 घंटे काम करते हैं। | चित्र साभार: गुफरान खान

साकी नाका में श्रमिकों द्वारा चुनी गई कार्य व्यवस्था और संबंधित मजदूरी दरें सर्वेक्षण डेटा द्वारा प्रस्तुत निष्कर्षों को दर्शाती हैं। अधिकांश हमाल श्रमिक एकल, पुरुष प्रवासी होते हैं और आमतौर पर दो प्रकार की कार्य व्यवस्थाओं में शामिल होते हैं। पहले प्रकार में, उन्हें पूरे दिन (8 से 12 घंटे) काम करने के लिए लगभग 800 रुपये का भुगतान किया जाता है और भोजन भी उपलब्ध कराया जाता है। दूसरे प्रकार में, उन्हें छोटे समय के लिए 200-500 रुपये का भुगतान मिलता है जो उनके प्रयास और पूरे किए गए विशिष्ट कार्यों, जैसे धातु के हिस्सों, फर्नीचर या निर्माण सामग्री की लोडिंग और अनलोडिंग पर निर्भर करता है।

महाराष्ट्र मथाडी, हमाल और अन्य मैनुअल श्रमिक (रोजगार और कल्याण का विनियमन) अधिनियम, 1969 में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि राज्य सरकार एक योजना के माध्यम से मजदूरी दरों, काम के घंटों और सामाजिक सुरक्षा, आवास आदि की व्यवस्था की निगरानी कर सकती है। हालांकि, इस मेहनत का आकलन करने और श्रमिक को उचित या अनुरूप पारिश्रमिक देने के लिए कोई मानकीकृत तरीका नहीं है। यह श्रमिकों के मालिकों (जो स्थिर नहीं होते और बदलते रहते हैं) पर निर्भर करता है और हमेशा से ऐसा ही रहा है। इससे भी महत्वपूर्ण यह है कि 2023 में मौजूदा अधिनियम में किए गए संशोधन ‘असुरक्षित श्रमिक’ की परिभाषा को सीमित करते हैं, जिससे और भी अधिक भ्रम पैदा होता है। इसके अलावा, मथाडी अधिनियम प्रवासी श्रमिकों के बारे में स्पष्ट जानकारी नहीं प्रदान करता, जिससे उनकी स्थिति और भी असुरक्षित हो जाती है।

पिछले 17 वर्षों से हमाल नाका कार्यकर्ता बृजनाथ* ने बताया कि पिछले कुछ वर्षों में मजदूरी में ज्यादा वृद्धि नहीं हुई है। 2009-10 में, वे प्रतिदिन 300-400 रुपये कमाते थे। एक दशक से भी अधिक समय बाद, उनके वेतन में केवल 100-200 रुपये की मामूली वृद्धि देखी गई है। हालांकि, नाके पर काम दिन-रात लगातार चलता रहता है। बृजनाथ कहते हैं, “अगर कोई ट्रक रात के एक बजे भी आता है तो हमें उसे लोड/अनलोड करने के लिए जाना पड़ता है। कभी-कभी, पुणे, सतारा, बेंगलुरु या अन्य शहरों की यात्रा के लिए श्रमिकों को सुबह पांच बजे अपना दिन शुरू करना पड़ता है और वे रात 8-9 बजे तक ही वापस लौट पाते हैं।”

आराम करते मजदूर_श्रमिक
काम का इंतजार करते हुए आराम करते हमाल श्रमिक। | चित्र साभार: गुफरान खान

पिछले कुछ वर्षों में जहां मजदूरी स्थिर रही है या उसमें गिरावट ही आई है और महंगाई आसमान छू रही है। मुंबई जैसे शहर में रहने की लागत हमाल श्रमिकों के लिए एक बड़ी चुनौती बन चुकी है, जिन्हें कम से कम 8-10 श्रमिकों के साथ एक साझा कमरे में किराए के लिए प्रति व्यक्ति 1,000-1,500 रुपये खर्च करने पड़ते हैं। इसके अलावा, भोजन और अन्य दैनिक खर्चों पर 200-300 रुपये और खर्च होते हैं। जो श्रमिक किराए की गाड़ी करने में असमर्थ होते हैं, उन्हें अक्सर गाला या फैक्ट्री इकाइयों में रहना पड़ता है, जो मालिकों के साथ उनके नेटवर्क के कारण आसान हो जाता है, क्योंकि ये मालिक कुछ मामलों में श्रमिकों के आसपास के गांवों या शहरों से होते हैं। मलिक कहते हैं, “सभी आवश्यक चीजों पर खर्च करने के बाद, हम जो कमाते हैं उसका आधा हिस्सा ही बचता है, जिसे हम घर भेज देते हैं।” *पैंसठ वर्षीय मलिक, जिन्हें इलाके में प्यार से चौरासी कहा जाता है, वह भी उतनी ही मजदूरी कमाते हैं जितनी बृजनाथ कमाते हैं, लेकिन उम्र की वजह से वे महीने में केवल 15 दिन ही काम कर पाते हैं। मलिक बताते हैं कि बाकी दिनों में, वे लोहे की वस्तुओं को लोडिंग और परिवहन करने का सहारा लेते हैं। “छोटे टेम्पो ने हमारे परिवहन कार्य को प्रभावित किया है ।” “आजकल हमें केवल लोडिंग-अनलोडिंग का काम ही मिलता है।”

नाकों पर काम करने वाले श्रमिकों को सार्वजनिक शौचालय और पीने के पानी जैसी बुनियादी सुविधाओं के लिए भी संघर्ष करना पड़ता है। अक्सर, उन्हें पीने का पानी पास के रेस्तरां से प्राप्त करना पड़ता है। साकी नाका के पास कुर्ला (एल-वार्ड) जो सबसे अधिक आबादी वाले नाकों में से एक है, वहां 350 से अधिक श्रमिकों का आना-जाना होता है, लेकिन उनके पास वहां कोई ऐसी जगह नहीं है जहां वे काम की प्रतीक्षा करते समय आराम कर सकें। इसके परिणामस्वरूप, श्रमिकों को आसपास के दुकानदारों के मौखिक दुर्व्यवहार का सामना करना पड़ता है, जो उन्हें दुकानों के पास बैठने या आराम करने से रोकते हैं।

एक साथ बैठे मजदूर_श्रमिक
माल श्रमिक दिनभर काम की तलाश में अपनी गाड़ी पर बैठे रहते हैं। | चित्र साभार: गुफरान खान

हमाल का काम अत्यंत खतरनाक होता है। प्रतिदिन 8 से 12 घंटे तक भारी वस्तुओं को खींचने, धकेलने, उठाने और परिवहन करने से श्रमिकों को विभिन्न प्रकार की हड्डियों और मांसपेशियों से जुड़ी समस्याओं का सामना करना पड़ता है। इस कार्य के दौरान, श्रमिकों को अक्सर मोच आ जाती है और उनके हाथ-पैर कुचल जाते हैं या कट जाते हैं। ऐसी स्थिति में, उन्हें भारी चिकित्सा खर्च का सामना करना पड़ता है, क्योंकि वे इलाज के लिए स्थानीय फार्मेसियों या निजी अस्पतालों में जाते हैं। चूंकि उन्हें चोट लगने पर न तो मुआवजा मिलता है और न ही घायल होने पर दिन की मजदूरी ही मिलती है तो इसलिए वे सरकारी अस्पतालों में जाने से बचते हैं, जहां लंबी कतारें और धीमी सेवाएं होती हैं। ऐसे परिस्थितियां उन्हें अपनी पूरी कमाई गंवाने पर मजबूर कर देती हैं।

ऐसे कठिन काम और रहने की परिस्थितियां हमाल श्रमिकों को गंभीर रूप से हाशिये पर धकेल देती हैं। अनौपचारिक श्रमिकों के सामान्य संघर्षों—जैसे अनियमित नौकरी उपलब्धता, आकस्मिक श्रम के लिए अपरिभाषित मजदूरी, और स्वच्छता, पानी, विश्राम क्षेत्र, आवास, सवैतनिक अवकाश और चिकित्सा सहायता जैसी बुनियादी सुविधाओं की कमी के अलावा, प्रवासी श्रमिकों को अतिरिक्त मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। उन्हें अक्सर उनकी पहचान के आधार पर भेदभाव और विभाजनकारी राजनीति का शिकार होना पड़ता है, जो जमीनी स्तर पर संगठित होना और सामूहिक रूप से काम करना कठिन बना देती है। प्रवासी श्रमिकों के लिए सामूहिक स्थानों पर अपनी आवाज़ उठाना या यूनियनों में नेतृत्व की भूमिका निभाना चुनौतीपूर्ण हो जाता है, जहां अक्सर स्थानीय श्रमिकों का वर्चस्व होता है और भाषाई, क्षेत्रीय या सामाजिक-राजनीतिक जुड़ाव प्रभावित करते हैं। उनके कार्यस्थलों पर सामाजिक सुरक्षा और कल्याण लाभों की कमी उनकी समस्याओं को और बढ़ा देती है। अधिकांश श्रमिक सरकारी पोर्टल जैसे ई-श्रम या आयुष्मान भारत पर अपंजीकृत होते हैं, और उनके पास केवल आधार कार्ड और पैन कार्ड जैसे बुनियादी पहचान दस्तावेज होते हैं।

कई मजदूर _श्रमिक
आजीविका ब्यूरो के मुंबई कार्यालय में कामगार सहायता समिति के सदस्य। | चित्र साभार: गुफरान खान

जमीनी स्तर पर सामूहिकीकरण के अपने प्रयासों से, आजीविका ब्यूरो ने मुंबई में अनौपचारिक श्रमिकों को कामगार सहायता समिति (केएसएस) के तहत एकजुट किया है। यह एक श्रमिक-नेतृत्व वाली संस्था है, जो अनौपचारिक क्षेत्र के श्रमिकों के अधिकारों की रक्षा और वकालत करती है। केएसएस के एक सक्रिय सदस्य बृजनाथ, अन्य हमाल श्रमिकों को अपने अधिकारों के लिए आवाज उठाने और एकजुट होकर काम करने के लिए प्रेरित करते हैं।

कुछ समझाते हुए_श्रमिक
कुर्ला, मुंबई के विनिर्माण क्षेत्र में स्थित एक प्रमुख फ़ैक्टरी इकाई। | चित्र साभार: गुफरान खान

साकी नाका में हमाल का काम पीढ़ियों से चलता आ रहा है। बृजनाथ के पिता, चिमाराम*, ने 42 साल तक उसी नाके पर काम किया, जहां आज उनका बेटा कार्यरत है। एक ऊंचे आवासीय परिसर की ओर इशारा करते हुए, वे बताते हैं, “मैंने इन इमारतों को बनते हुए देखा है और वहां काम भी किया है। इन इमारतों के निर्माण ने हम जैसे कई लोगों को रोजगार दिया। मैंने पास के प्रसिद्ध जैन मंदिर में भी काम किया- मैंने यह सब देखा है।” हालांकि चिमाराम और बृजनाथ जैसे हमाल श्रमिकों ने शहर के निर्माण में अहम भूमिका निभाई है, फिर भी वे हमेशा इसके परिधि पर ही रहकर, बुनियादी जीवन निर्वाह और सम्मान के लिए संघर्ष करते हैं।

*गोपनीयता बनाए रखने के लिए नाम बदले गए हैं।

यह फोटो निबंध मूलरूप से माइग्रेंटस्केप पर प्रकाशित किया गया था।

इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें

अधिक जानें

  • जानिए कैसे औद्योगीकरण ने एन्नोर को तबाही की तरफ़ धकेल दिया है?
  • पढ़िए क्यों देश का श्रमिक-वर्ग दस्तावेजों के मकड़जाल में उलझा दिखता है?
  • गुजरात के कपड़ा उद्योग में काम करने वाले बॉयलर श्रमिकों के जीवन की मुश्किलों के बारे में विस्तार से जानने के लिए यह लेख पढ़ें

लेखक के बारे में
अनुराग श्रीनिवासन-Image
अनुराग श्रीनिवासन

अनुराग श्रीनिवासन वर्क फेयर एंड फ्री, बेंगलुरु के एसोसिएट हैं, जहां वे मुख्य रूप से दक्षिणी भारत में प्रवासी श्रमिक विषयों पर शोध करते हैं। अनुराग के शोध में मुख्य रूप से मज़दूरी और मज़दूरों की बेहतरी से जुड़े विषय शामिल होते हैं। ऐतिहासिक नज़रिए से श्रम की अनौपचारिकता समझने में भी उनकी रुचि है जिसका अध्ययन उन्होंने दिल्ली स्थित अंबेडकर विश्वविद्यालय से इतिहास में स्नातकोत्तर के दौरान भी किया था।

गुफरान खान-Image
गुफरान खान

गुफरान वर्तमान में इंडियन इंस्टीट्यूट फॉर ह्यूमन सेटलमेंट्स (आईआईएचएस) के अर्बन फेलो प्रोग्राम में हैं। उनका शोध प्रवासी श्रमिकों के नरेटिव पर केंद्रित है, जिसमें उनके कामकाजी और आवासीय स्थितियों के अंतरसंबंधों पर विशेष ध्यान दिया गया है। इससे पहले, वे आजीविका ब्यूरो के साथ भी काम कर चुके हैं।

स्वाति जाधव-Image
स्वाति जाधव

स्वाति आजीविका ब्यूरो में एक कार्यकारी के रूप में कार्यरत हैं, जहां वे श्रम के सामूहिकीकरण, महिला श्रमिकों की वकालत और व्यावसायिक सुरक्षा एवं स्वास्थ्य को बढ़ावा देने में विशेषज्ञता रखती हैं। स्वाति ने झारखंड स्टेट लाइवलीहुड प्रमोशन सोसाइटी (जेएसएलपीएस), टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज और विधायक ट्रस्ट के साथ एक सहयोगी लैंगिक विषयों पर केंद्रित परियोजना में काम किया है। उन्होंने अजीम प्रेमजी विश्वविद्यालय से विकास में मास्टर डिग्री प्राप्त की है।

टिप्पणी

गोपनीयता बनाए रखने के लिए आपके ईमेल का पता सार्वजनिक नहीं किया जाएगा। आवश्यक फ़ील्ड चिह्नित हैं *