निचली ब्रह्मपुत्र घाटी के चरों (नदी द्वीपों) के बीच बसे, असम के बारपेटा और धुबरी जिलों में हर साल बाढ़ आती है। इससे हर बार 10 लाख से अधिक लोग और 5 लाख जानवर प्रभावित होते हैं। लेकिन इतना नुकसान उठाने के बाद भी, इलाक़े का पशुपालक समुदाय अपनी जमीन और जानवरों से बंधा रहता है।
2024 में आई बाढ़ के दौरान, ह्यूमेन सोसाइटी इंटरनेशनल/इंडिया की आपदा राहत टीम को इन नदी द्वीपों पर जानवरों को तत्काल राहत पहुंचाने के लिया भेजा गया। जल्दी ही यह साफ हो गया कि लोगों के लिए उनकी पहली प्राथमिकता उनका घर या सामान नहीं बल्कि जानवर थे। समुदाय के एक सदस्य का कहना था कि “हमारे जानवर हमारे लिए सब कुछ हैं। हमारी रोज़ाना की ज़रूरतें उनसे पूरी होती है। जब बाढ़ आती है, हम सबसे पहले उन्हें बचाते हैं क्योंकि उनके बग़ैर हमारे परिवार को कोई भविष्य नहीं है।”
जब चरवाहे अपना पशुधन खो देते हैं तो इसके दूरगामी नतीजे देखने को मिलते हैं। हर नुक़सान के चलते उन्हें आर्थिक संकट का सामना करना पड़ता है। यह संकट साल-दर-साल आने वाली आपदाओं के साथ बढ़ता जाता है। इसलिए बाढ़ आने पर जानवरों को पीछे छोड़ना उनके लिए कोई विकल्प नहीं है।
सुदूर इलाक़ों की भूगोलिक और आर्थिक सीमाएं लोगों को एक से दूसरी जगह पर ले जाने में भी बाधा बनती हैं। अक्सर यदि जानवरों को आश्रय उपलब्ध नहीं करवाया जाता है तो लोग भी वहां जाने से इनकार कर देते हैं। असल में ज़्यादातर परिवार कहीं और जाकर बसने का खर्च उठाने में सक्षम ही नहीं होते हैं। उनकी जीवन शैली उनके अपने इलाक़े के आधार पर बनी है जिसमें जानवरों को पालना, चारे और जूट के लिए घास उगाना मुख्य रूप से शामिल है। लेकिन बाढ़ का असर इस पर भी पड़ता है। एक पशुपालक बताते हैं कि “जब पानी बढ़ता है तो घास ख़त्म हो जाती है और जो बचती भी है, वह कीचड़ से ढक जाती है। हमारे जानवर इसे खा नहीं सकते और अगर खाते भी हैं तो बीमार पड़ जाते हैं। उन्हें स्वस्थ रखने के लिए हमारे पास पर्याप्त चारा नहीं होता है। हम जो कर सकते हैं, करते हैं।”
हर बाढ़ के साथ, समुदाय को जल्दी से ऊंचे स्थानों पर चले जाना पड़ता है – जहां बाढ़ का पानी ना पहुंच सके। लोग बांस, तिरपाल और प्लास्टिक शीट जैसी, स्थानीय तौर पर उपलब्ध चीजों से अपने और अपने जानवरों के लिए अस्थायी आश्रय बनाते हैं। बिना बिजली और मच्छरों के भारी आतंक वाले ये अस्थाई ठिकाने कई महीनों के लिए उनका घर बन जाते हैं। अक्सर परिवार जानवरों का चारा लाने के लिए दूर-दूर तक जाते हैं और उन्हें बीमारी से बचाने के लिए उनके चारों ओर मच्छरदानी लगाते हैं। एक अन्य पशुपालक के मुताबिक़ “हमें जो कुछ भी मिलता है, हम उससे रहने का ठिकाना बनाते हैं। यहां बहुत मच्छर हैं और बिजली भी नहीं है। लेकिन हमारे पास कोई विकल्प नहीं हैं। हमें अपने जानवरों को बचाना है।”
राहत प्रयासों और आवश्यक आपूर्ति के वितरण में काफी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। दूर-दराज के इलाक़ों में बाढ़ से प्रभावित रास्तों और परिवहन के सुचारू तरीक़े से ना चलने की दिक़्क़तें भी होती हैं। ऐसे में ज़मीनी इलाक़े तक पहुंचने का एकमात्र साधन नावें रह जाती हैं। जब ब्रह्मपुत्र का पानी, ख़तरे के निशान से ऊपर जाता है तो ज़मीनी इलाक़े तक परिवहन बंद हो जाता है, और नदी द्वीपों में रहने वाले समुदाय और उनके जानवर लंबे समय तक फंसे रह जाते हैं।
जिला प्रशासन, इस दौरान पशुओं के लिए कुछ चारा उपलब्ध कराता है। लेकिन उसकी मात्रा इतनी नहीं होती है कि इससे संकट के दौरान और बाढ़ का पानी उतरने के बाद ताजा घास उगने तक, पशुओं का भरण-पोषण किया जा सके। इसके अलावा, दूरदराज के इलाकों में पशु चिकित्सा सेवाएं भी नहीं होती हैं। यहां कई घायल या बीमार जानवरों को इलाज के बिना छोड़ दिया जाता है। बाढ़ के बाद की स्थिति जानवरों पर बहुत असर डालती है। इससे अक्सर कई तरह के संक्रमण और बीमारियां जैसे डायरिया, लेप्टोस्पायरोसिस और त्वचा संक्रमण के मामलों में बढ़त हो जाती है। तत्काल उपचार के बिना, जानवर संक्रमण फैला सकते हैं और/या उसके चलते मर सकते हैं। गंभीर प्रयासों के बगैर, वार्षिक बाढ़ न केवल उनकी भूमि को नष्ट करती रहेगी बल्कि साल-दर-साल उनकी जीवटता को भी ख़त्म करती रहेगी।
प्रवीण एस ह्यूमेन सोसाइटी इंटरनेशनल/इंडिया (एचएसआई/इंडिया) में आपदा तैयारी और प्रतिक्रिया के प्रबंधक हैं।
इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ें।
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