एकता परिषद के भूमि अधिकार कार्यकर्ता के रूप में, मैं साल 2006 से मणिपुर आता-जाता रहा हूं। हाल में की गई मेरी एक सप्ताह लंबी यात्रा बहुत उदास करने वाली थी। जून में, राज्य में हुई हिंसा के दौरान मैंने अपने एक 24 वर्षीय सहकर्मी को खो दिया। बसंता उस समय शांति समिति के सदस्य के रूप में अपने गांव में गश्त लगा रहे थे जब एक स्नाइपर ने उन्हें गोली मार दी। वे एक भूमि अधिकार कार्यकर्ता भी थे और 2017 से हमारे साथ जुड़े हुए थे।
इस राज्य में हो रहे संघर्ष के कई जटिल, ऐतिहासिक कारण और तात्कालिक कारण हैं। हालांकि, मैतेई और कुकी के बीच चल रही हिंसा पर चर्चा करते समय, मैं मुख्य मुद्दों में से एक के बारे में सोचने से खुद को नहीं रोक पाता हूं। मणिपुर में भूमि अधिकारों को लेकर हमेशा ही अस्थिरता की स्थिति रही है और इस क्षेत्र पर इसके प्रभाव को अक्सर नजरअंदाज कर दिया जाता है।
सामाजिक-आर्थिक और जाति जनगणना रिपोर्ट (एसईसीसी), 2011, एक चौंकाने वाले आंकड़े का खुलासा करती है: मणिपुर में लगभग दो-तिहाई आबादी भूमिहीन या बेघर लोगों की है। यह आंकड़ा सभी पूर्वोत्तर राज्यों में यहीं सबसे अधिक है। 1960 के मणिपुर भूमि राजस्व और भूमि सुधार अधिनियम से राज्य में भूमि सुधार लाया जाना था, लेकिन इसका व्यावहारिक कार्यान्वयन न्यूनतम रहा है। हाल के वर्षों में, घाटी के जिलों में बढ़ती जनसंख्या के परिणामस्वरूप भूमि पर दबाव भी बहुत अधिक बढ़ गया है। बुनियादी ढांचे और रियल एस्टेट के लिए भी भूमि अधिग्रहण बड़े पैमाने पर हुआ है। पहाड़ियों और घाटी में, भूमि दावों को निपटाने के बजाय, सरकार ने वन अतिक्रमण से निपटने वाले कानून तैयार कर लिए हैं। इस कानून से सबसे अधिक प्रभावित वे लोग होंगे जो परंपरागत रूप से इन भूमियों के निवासी रहे हैं।
एकता परिषद में अपने काम के जरिए भूमि अधिकारों में एक दशक की भागीदारी से, हम समझ सके हैं कि भूमि शक्ति और स्थिरता का एक अभिन्न स्रोत है। साथ ही, हम यह भी जान चुके हैं कि भूमि की अनुपस्थिति में, सामाजिक-आर्थिक असुरक्षाएं और कमजोरियां बढ़ती हैं। मणिपुर में, इन अस्थिरताओं के कई कारणों में भूमि से जुड़ी मदद और उपाय के उचित तरीकों की कमी भी शामिल है।
भूमिहीनता के अलावा, मणिपुर में खाद्य संकट भी पैदा हो रहा है। सभी प्रकार के कृषि कार्य ठप हो गये हैं क्योंकि दोनों तरफ बंकर हैं। सुरक्षा और सैन्य बलों ने लोगों की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए उन्हें घर पर रहने के लिए कहा है। स्थानीय किसान संगठनों द्वारा किए गए एक क्षेत्र-व्यापी सर्वेक्षण से पता चला है कि इस संकट के कारण वर्तमान में लगभग 30,000 एकड़ कृषि भूमि पर खेती नहीं हो रही है। यह वर्तमान में एक लंबे संघर्ष की तरह दिखने वाली स्थिति को जटिल बनाने वाला है।
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रमेश शर्मा भारत में भूमि और वन अधिकारों पर काम करने वाले एकता परिषद नाम के एक सामाजिक आंदोलन के राष्ट्रीय समन्वयक हैं।
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