काशी* लोगों से थोड़ी दूर से बात करती हैं क्योंकि बंधेज उन्हें दूसरी महिलाओं के पास जाने से रोकता है। वे बुंदेलखंड क्षेत्र की उन कई महिलाओं में से एक हैं, जो बंधेज की रस्म से बंधी हैं। बंधेज का शाब्दिक अर्थ है ‘प्रतिबंध’। उन्होंने हमें बताया कि यह एक ऐसी प्रथा है जो उन औरतों को निभानी पड़ती है जो मां नहीं बन पाती हैं या फिर जिनका गर्भपात हो जाता है। वैसे तो, इसके कई कारण हो सकते हैं, मसलन बाल विवाह और कुपोषण लेकिन इस समुदाय के लोगों का मानना है कि बांझपन और गर्भपात इसलिए होता है क्योंकि देवता और आत्माएं महिलाओं से नाखुश रहती हैं।
इन देवताओं को खुश करने और गर्भवती होने के लिए महिलाओं को कुछ ख़ास नियमों से बंध कर रहना पड़ता है। एक स्थानीय पुजारी, जिसे पंडा कहा जाता है वही आमतौर पर यह रीति करवाता है। उनका ऐसा दावा है कि देवता उनसे बात करते हैं और उन्हें बताते हैं कि गर्भवती होने के लिए महिलाओं को क्या करने की ज़रूरत है। काशी ने मुझे बताया कि बंधेज के रस्म के दौरान वे अपने मायके नहीं जा सकती हैं। यह प्रतिबंध अमूमन एक साल तक चलता है। हालांकि पूरे घर के लिए खाना वे ही पकाती हैं लेकिन फिर भी उन्हें अपना खाना अलग पकाना पड़ता है। उनके लिए श्रृंगार करना भी मना है। काशी ने हमें यह भी बताया कि वे अपनी जीविका जंगल से चुनी लकड़ियों को बेचकर चलाती हैं। लेकिन बंधेज के कारण उनके बाज़ार जाने पर भी रोक लग गई है। यहां तक कि जंगल साथ जाने वाली महिलाएं भी रास्ते में उनसे 20 मीटर की दूरी बना कर रखती हैं।
परंपरा यहां तक जाती है कि अगर कोई स्वास्थ्य संबंधी समस्या होती है तो ये महिलाएं एलोपैथी की शरण में भी नहीं जा सकती हैं। उनके लिए टीका लगवाना, नियमित स्वास्थ्य जांच करवाना और यहां तक कि दवा खाना भी मना होता है। हालांकि आजकल महिलाएं मासिक जांच के लिए जाती हैं। लेकिन वे अपने रक्तचाप और हीमोग्लोबिन की जांच के लिए केवल पुरुष डॉक्टरों या रजोनिवृत्ति तक पहुंच चुकी महिलाओं को ही अपने पास आने देती हैं।
गांव के बुजुर्गों का कहना है कि इस प्रथा के पीछे का प्रारंभिक विचार उन महिलाओं को आराम और पोषण देना था जिन्हें गर्भधारण करने में परेशानी होती है। लेकिन समय बीतने के साथ ये नियम बहुत ही कठोर होते चले गए। मैंने जिन 30 महिलाओं से बात की उनमें से 20 से अधिक महिलाओं ने कहा कि उन्हें अनुष्ठान के साथ आने वाले नियम पसंद नहीं हैं। उन्हें ऐसा लगता है कि इनसे फ़ायदे से अधिक नुक़सान होता है। सभी नियमों का पालन करने के बावजूद भी कई सारी औरतें गर्भवती नहीं हो पाती हैं। लेकिन इन प्रथाओं पर असफलता की बढ़ती दर का कुछ ख़ास असर नहीं होता है।
कुदन गांव के सरपंच का कहना है कि “आस्था में गहरे जमे पीढ़ियों पुराने इस विश्वास को मिटाना आसान नहीं है। खासकर जब इन दूरदराज के गांवों में रह रही महिलाओं के लिए अन्य प्रकार की स्वास्थ्य सेवाएं एवं सुविधाएं आसानी से उपलब्ध नहीं है। इस ख़ालीपन में लोगों ने चिकित्सा से जुड़ी एक जटिल समस्या से निपटने के लिए स्वदेशी ज्ञान का उपयोग किया है। हताशा में उनके सामने यही एक रास्ता उन्हें दिखाई पड़ता है।”
*गोपनीयता बनाए रखने के लिए नाम बदल दिया गया है।
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निवेदिता रावतानी एक इंडिया फेलो हैं जो वर्तमान में मध्य प्रदेश के पन्ना में प्रोजेक्ट कोशिका के साथ काम कर रही हैं। इंडिया फेलो आईडीआर पर #ज़मीनीकहानियां के लिए एक कंटेंट पार्टनर है। मूल लेख यहां पढ़ें।
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