“मैं किसे सिखाउंगी?” वे सब मुझसे यही कहते हैं कि ‘कौन यह गंदा काम करेगा?’” मूहिया देवी ने मुझसे यह उस समय कहा जब मैं फूस के छत वाले उनके छोटे से कच्चे घर के सामने बैठी थी। “वे खून और इस गंदगी को बर्दाश्त नहीं कर सकते हैं।” मूहिया देवी बिहार के जमुई ज़िले के सरारी गांव में रहने वाली एक 60 वर्षीय बुजुर्ग महिला हैं जिनका संबंध मांझी समुदाय (एक अनुसूचित जाति) से है। उनके अनुसार वह पिछले 50 वर्षों से दाई का काम कर रही हैं।
दाई या ट्रेडिशनल बर्थ अट्टेंडेंट (टीबीए) आमतौर पर एक औरत होती है जो अपने समुदाय में प्रसव, प्रसवोत्तर और नवजात शिशु की देखभाल का काम करती है। मांझी समुदाय से ही आने वाली पूजा देवी कहती है कि “हमारी जाति का यही काम है।” बीस साल की पूजा जमुई के ही एक दूसरे गांव हसडीह की रहने वाली है। उसने अपने परिवार की तीन पीढ़ियों की महिलाओं को दाई का काम करते देखा है।
हो सकता है कि बिहार में उन्हें दाई के नाम से जाना जाता हो लेकिन टीबीए कई सदियों से पूरे भारत भर में पाई जाती हैं और अपने समुदाय की बहुत महत्वपूर्ण इकाई होती हैं। समय के साथ इस काम ने एक जाति-आधारित पेशे का रूप ले लिया है। दाईयों को औरतों के शरीर के सम्पर्क में रह कर काम करना पड़ता है। वे प्रसव के दौरान शरीर से निकलने वाले द्रव और अन्य प्रकार की गंदगी साफ़ करती है। इस काम को “अपवित्र” माना जाता है और इसलिए जाति व्यवस्था के तहत इसकी ज़िम्मेदारी दलित समुदायों पर है।
हालांकि मुझसे बातचीत करने वाली सभी दाईयां इस काम से जुड़े पारम्परिक ज्ञान को लेकर मुखर थीं और उनका मानना था कि वे “भलाई का काम” कर अपने समुदाय के लोगों की मदद करती हैं। लेकिन साथ ही उन्हें यह कहने में भी किसी तरह का संकोच नहीं हो रहा था कि यह काम गंदगी से जुड़ा हुआ है।
जमुई के मसौदी गांव की मांझी टोला में रहने वाली लालजित्या देवी पिछले 40 वर्षों से दाई का काम करती आ रही हैं। उन्होंने हमें बताया कि “घर पर प्रसव करवाना एक बहुत गंदा काम है। सफ़ाई की पूरी ज़िम्मेदारी मुझ पर ही होती है। प्रसव के दौरान और उसके बाद मुझे बहुत सारी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। मेरी भूख मर जाती है। मुझे बिल्कुल अच्छा महसूस नहीं होता है।”
दूसरों की तरह मूहिया देवी को प्रसव करवाने का काम अपवित्र नहीं लगता है। वह कहती हैं “अगर मुझे लगता कि यह काम अश्लील है तो मैं कैसे करती?” लेकिन वह इस बात से इनकार नहीं करती हैं कि यह अरुचिकर या घिनौना हो सकता है। “मैं घर के पुरुष सदस्यों से शराब की कुछ घूँट देने के लिए कहती हूं। इससे मुझे लगातार जागते रहने, सर्दी-जुकाम से लड़ने और मानसिक संतुलन बनाए रखने में मदद मिलती है। मूहिया देवी ने कहा कि “शराब नहीं पीने पर घृणा होने लगेगी।”
मूहिया देवी कहती है कि “हमारे लिए काम का मतलब या तो ये है या फिर दिहाड़ी मज़दूरी।” दाई का काम करने से पैसे की कमाई होती है और आजकल हर एक प्रसव या मालिश के काम के लिए 500 से 2,000 रुपए मिलते हैं। इसके अलावा कभी-कभी एक साड़ी, कुछ किलो दाल या चावल भी मिल जाता है। लेकिन इसकी अस्थायी प्रकृति हमेशा ही बदलती रहती है। वह कहती है कि “प्रसव का काम होने पर मेरी कमाई हो जाती है। जब प्रसव का काम नहीं रहता है तो मैं नहीं कमा पाती हूं। बिना काम वाले दिनों में मैं यूं ही बेकार बैठी रहती हूं।”
इंडियाफ़ेलो आईडीआर की #ज़मीनीकहानियां का कंटेंट पार्ट्नर है। इस कहानी का एक लंबा संस्करण पहली बार यूथ की आवाज़ पर प्रकाशित हुआ था।
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