जल, जंगल, जमीन, भाषा, और पारंपरिक रीति-रिवाज यानी सामुदायिक विरासत और संसाधन या ‘कॉमन्स’, भारत में करोड़ों लोगों के जीवन, आजीविका और संस्कृति से जुड़े हैं। ये केवल उपयोग की वस्तुएं नहीं हैं बल्कि सामाजिक रिश्तों और पारंपरिक ज्ञान से भी इनका सीधा संबंध है। वन्य जीवन और जैव विविधता (बायो डायवर्सिटी) भी इनमें शामिल हैं जो समुदायों के जीवन का अटूट हिस्सा हैं। लेकिन जैसे-जैसे कॉमन्स पर नियंत्रण केन्द्रीकृत हो रहा है, वैसे-वैसे समुदायों की भागीदारी सीमित होती जा रही है। आज सवाल सिर्फ ये नहीं हैं कि कॉमन्स का प्रबंधन कौन करे बल्कि यह भी है कि क्या जो समुदाय इन्हें पीढ़ियों से संभालते आए हैं, वे खुद इससे जुड़े निर्णय लेने के हकदार माने जाते हैं?
इस सवाल का सीधा संबंध ग्राम-सभाओं से है। ग्राम-सभाएं संवैधानिक रूप से मान्यता प्राप्त पहली इकाइयां होती हैं जहां समुदाय सीधे निर्णय की प्रक्रिया में हिस्सा ले सकता है। लेकिन अक्सर यह देखा गया है कि अधिकांश ग्राम-सभाओं का आयोजन औपचारिकताएं और कागजी कार्यवाही पूरा करने तक ही सीमित रह जाता है। यहां पर सामुदायिक संसाधनों, पोषण, स्वास्थ्य और पर्यावरण जैसे जरूरी मुद्दों पर ठोस चर्चा कम ही होती है। यही वजह है कि ग्राम-सभाओं को सशक्त बनाना और उनके एजेंडे को कॉमन्स और समुदाय की जरूरतों पर केंद्रित करना आज जरूरी हो गया है।
जब संसाधनों से रिश्ते टूटने लगते हैं
देश के अलग-अलग हिस्सों से आने वाले उदाहरण बताते हैं कि जब समुदायों को अधिकार, जानकारी और नेतृत्व का अवसर मिलता है तो वे कॉमन्स की रक्षा न केवल बेहतर ढंग से करते हैं, बल्कि भविष्य के लिए स्थाई तरीके भी स्थापित करते हैं। लेकिन जब ये उनकी पहुंच से बाहर होने लगते हैं तो इनका विपरीत प्रभाव भी उतना ही गहरा होता है।
राजस्थान में गांवों की गोचर, ओरण और शामलात जमीनें कभी पूरे समुदाय की सामूहिक जिम्मेदारी थीं। लेकिन हाल के वर्षों में पशुपालन में कमी आने के बाद से इन्हें बंजर मान लिया गया और इन पर अतिक्रमण बढ़ने लगा। कुछ जगहों पर गांव के ही ताकतवर लोग टुकड़ों में इन्हें बांटने लगे तो कहीं पर इन जमीनों का औद्योगिक या संस्थागत उपयोग किया जाने लगा। इसी तरह झारखंड के आदिवासी बहुल क्षेत्रों में जहां जंगल भोजन, दवा, ईंधन और सांस्कृतिक परंपरा के स्रोत हैं; वहां खनन और अन्य परियोजनाओं ने बड़े पैमाने पर विस्थापन और पारिस्थितिक नुकसान किया है। जंगलों का कटना सिर्फ पेड़ों का नुकसान ही नहीं होता बल्कि यह ज्ञान, रिश्तों और संसाधनों की पूरी श्रृंखला को प्रभावित करता है।
कॉमन्स की इस टूटन में बाहरी हस्तक्षेपों की एक बड़ी भूमिका तो है ही, लेकिन समुदायों के भीतर मौजूद जाति और जेंडर आधारित असमानताओं से यह और गहरा जाती है। राजस्थान के कई गांवों में गोचर जमीन पर पहला अधिकार उन्हीं का होता है जिनके पास पहले से निजी जमीनें हैं। घुमंतू समुदायों और दलित परिवारों को या तो इस जमीन से बेदखल कर दिया जाता है या उन्हें गांव की बैठकों में बुलाया ही नहीं जाता है। अगर बुलाया भी जाता है तो उनकी बात को अक्सर गंभीरता से नहीं लिया जाता है। झारखंड सहित कई राज्यों में ऐसी ही तस्वीर ग्राम-सभा की बैठकों में सामने आती है। महिलाएं बैठकों में आती हैं लेकिन बोलती नहीं क्योंकि गांव के फैसले अब भी कुछ गिने-चुने पुरुष ही लेते हैं। खासकर जमीन, खनन और बाहरी हस्तक्षेप जैसे मामलों में महिलाओं की उपस्थिति तो होती है पर उनके फैसले निर्णायक नहीं माने जाते हैं।
जब लोग मिलकर रास्ता बनाते हैं
कॉमन्स की उपयोगिता से आगे उन्हें जीवन के अभिन्न हिस्से की तरह देखना ग्रामीण समुदायों की विशेषता रही है। उन्हें परंपराओं और पुरखों के इतिहास से जोड़कर देखने वाला नजरिया, समुदायों को भावनात्मक रूप से भी उनसे जोड़ता है। ऐसे में ग्राम सभाएं उस साझा मंच की तरह काम करती हैं जहां लोगों की चिंताएं, संगठित होकर कुछ करने की दिशा में आगे बढ़ पाती हैं। इसे कुछ उदाहरणों से समझने का प्रयास करते हैं।
राजस्थान के भीलवाड़ा जिले के हस्तिनापुर गांव में एक समय चारागाह की जमीन पर जब कब्जे बढ़ने लगे तो गांव के लोगों ने मिलकर तय किया कि इसे बचाएंगे। इसके लिए सबसे पहले राजस्व रिकॉर्ड से जमीन की सीमा तय की गई और उसे गांव की दीवारों पर सार्वजनिक रूप से चस्पा किया गया। गांव की भागीदारी से कांटेदार झाड़ियों की बाड़बंदी की गई, मनरेगा के तहत तालाब खुदवाया गया, और तीन महीने के लिए पशु चराई पर सामूहिक रोक लगाई गई। गांव वालों ने खुद बारी-बारी से निगरानी की और आज यह जमीन न केवल हरी-भरी है, बल्कि पूरे गांव के लिए उपयोगी है।

ऐसा ही एक उदाहरण इसी क्षेत्र के चंदगो गांव का भी है, जहां ग्राम-सभा निष्क्रिय थी और लोग पलायन कर चुके थे। तीन सालों तक लगातार कोशिश कर ग्राम-सभा को सक्रिय किया गया, महिलाओं को नेतृत्व दिया गया और पेसा (पंचायतों के प्रावधान (अनुसूचित क्षेत्रों तक विस्तार) अधिनियम) के तहत भूमि व जंगल से जुड़ी कमेटियां बनाई गईं। जब खनन परियोजना की खबर आई तो गांव ने सामूहिक रूप से उसका अध्ययन किया और विरोध दर्ज कराया। महिलाओं ने प्रशासन से संवाद किया और दस्तावेज सौंपे। आखिरकार उन्हें परियोजना को रोकने में सफलता मिली।
ग्राम-सभा की सक्रियता सिर्फ विरोध तक सीमित नहीं रहती, समुदाय और गांव के विकास से जुड़े जरूरी फैसलों पर मुखरता से बात रखना भी ग्राम-सभा का महत्वपूर्ण काम है। यहां पर ग्राम-सभाओं को सक्रिय करने के अर्थ और इसे कैसे किया जाए, यह भी समझना जरूरी है। सबसे जरूरी यह है कि समुदाय यह जाने कि ग्राम-सभा के संसाधन क्या हैं, अर्थात कितनी राजस्व भूमि है, कितनी सामुदायिक भूमि है, कितना वन क्षेत्र उनके अधिकार क्षेत्र में आता है, और पानी, मछली और वनोपज के स्रोत क्या हैं आदि। जब इन सबको मिलाकर देखते हैं तो समुदाय के सामने ग्राम-सभा के संसाधनों और अधिकार क्षेत्र की व्यापकता उजागर हो पाती है। समुदाय के पारंपरिक अगुवाओं जैसे विभिन्न आदिवासी समुदायों में पाहन, जोग मांझी, पुजार, मानकी और देवां आदि का समुदाय में एक प्रभाव होता है। लोग इन्हें सुनते हैं, ऐसे लोगों को ग्राम सभा की आधिकारिक समितियों से जोड़ना भी ग्राम-सभा को सक्रिय और मजबूत करने में कारगर सिद्ध होता है।
झारखंड के गुमला जिले के लुपुंग पाट गांव को इसके उदाहरण के तौर पर देखा जा सकता है। असुर आदिवासी समुदाय के इस गांव में जब ग्राम-सभा को सक्रिय करने की इन प्रक्रियाओं को अपनाया गया तो वह वन अधिकार कानून के तहत सामुदायिक वन अधिकार (सीएफआर) प्राप्त करने में सफल हुए। झारखंड में ऐसी कई सक्रिय ग्राम सभाओं के उदाहरण मौजूद हैं जहां समुदाय ने खुद अनुशासन कायम किया है। कुछ आदिवासी क्षेत्रों में ग्राम-सभा ने यह नियम बनाया कि अगर कोई परिवार लगातार दो-तीन बैठकों में शामिल नहीं होता है तो अगली बैठक उसी परिवार के घर होगी और उसकी व्यवस्था भी वही करेंगे। इस तरह की सामुदायिक निगरानी ने ग्राम-सभा को जीवंत बनाए रखा है।
समितियों के जरिए जिम्मेदारी
ग्राम-सभा का मतलब केवल बैठकें करना भर नहीं है। जब हम कहते हैं कि “हम ही सरकार हैं” तो इसमें ग्राम विकास समिति, शिक्षा समिति, स्वास्थ्य समिति, मॉनीटरिंग समिति जैसी लगभग आठ समितियां शामिल होती हैं। इन समितियों को सक्रिय करने से ही ग्राम-सभा समुदाय के साथ मिलकर सशक्त रूप से काम कर सकती है। जब किसी व्यक्ति को यह जिम्मेदारी दी जाती है कि वह स्वास्थ्य समिति का अध्यक्ष या सदस्य है तो उसमें जवाबदेही का भाव आता है। फिर वही लोग ग्राम-सभा में सवाल करते हैं और सवालों के जवाब ही उस क्षेत्र का विकास तय करते हैं। इस तरह जब एक सक्रिय ग्राम सभा से वार्ड मेम्बर या पंचायत प्रधान जैसे चुने हुए लोग आगे जाते हैं तो वो पंचायती व्यवस्था में स्पष्टता के साथ समुदाय की बातें रखने में सक्षम हो पाते हैं।

महाराष्ट्र के गढ़चिरौली जिले के मेंढा-लेखा गांव में सामुदायिक वन अधिकार के तहत गांव के लोग खुद तय करते हैं कि जंगल से कब, कितनी और किस तरह वनोपज ली जाएगी। इससे जो आमदनी होती है; उसका उपयोग गांव के स्कूल, स्वास्थ्य और बुनियादी ढांचे को बनाने या सुधारने में होता है। यहां “हमारा गांव, हमारे जंगल” सिर्फ नारा नहीं, एक कार्य संस्कृति बन चुकी है।
ओडिशा की चिल्का झील में जब मछुआरों की आजीविका पर कॉर्पोरेट हस्तक्षेप बढ़ने लगा तो स्थानीय समुदायों ने संगठित होकर सहकारी समितियों के जरिए झील का प्रबंधन अपने हाथ में लिया। आज वे खुद तय करते हैं कि मछली पकड़ने के नियम क्या होंगे, और कैसे झील की पारिस्थितिकी का संतुलन बना रहेगा।
समुदायों की भागीदारी को लेकर संवैधानिक और कानूनी उपाय
वर्ष 1992 में हुए संविधान के 73वें संशोधन ने पंचायतों को स्थानीय स्व-शासन की प्राथमिक इकाई और सामुदायिक संपत्तियों के संरक्षक के रूप में स्थापित करके, कॉमन्स के लिए सामुदायिक निर्णय लेने की रूपरेखा को मजबूत किया। वर्ष 1996 का पेसा अधिनियम (अनुसूचित क्षेत्रों में पंचायत व्यवस्था) इस व्यवस्था का विस्तार पांचवीं अनुसूची वाले क्षेत्रों (अनुसूचित जनजाति क्षेत्र) में करता है।
इसके बाद के दशकों में कई कानूनों ने सामुदायिक अधिकारों और सामूहिक संसाधन प्रबंधन को मजबूत किया है, जैसे:
- जैविक विविधता अधिनियम, 2002
- महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा), 2005
- भूमि अधिग्रहण, पुनर्वास और पुनर्स्थापन अधिनियम, 2013
- वन अधिकार अधिनियम (एफआरए), 2006
हालांकि, सामुदायिक भूमि का शासन राज्यों के अनुसार अलग-अलग होता है क्योंकि भूमि और पानी राज्य सूची में आते हैं। वहीं, वन समवर्ती सूची में आते हैं और केंद्र व राज्य दोनों द्वारा देखे जाते हैं। इसलिए प्रत्येक राज्य कॉमन्स को अलग तरह से परिभाषित और शासित करता है।
ओडिशा, उदाहरण के लिए, पांचवीं अनुसूची वाला राज्य है और वहां सामुदायिक भूमि की कई श्रेणियां दर्ज हैं — जैसे गोचर (चराई भूमि), रक्षित (सुरक्षित भूमि), और सरब-साधारण (सामान्य भूमि)। लेकिन राज्य ने अभी तक पेसा के नियम नहीं बनाए हैं जिससे समुदायों और पंचायतों की सामूहिक संरक्षकता असुरक्षित रह जाती है।
इसके अलावा, कॉमन्स की सुरक्षा के लिए बने कई कानूनों को कुछ जगहों पर कमजोर समुदायों के खिलाफ इस्तेमाल किया गया है। उदाहरण के लिए, सुप्रीम कोर्ट का जगपाल सिंह बनाम पंजाब राज्य वाला फैसला कॉमन्स के संरक्षण के लिए था, लेकिन कई मामलों में इसका इस्तेमाल दलित और घुमंतू समुदायों को उनकी भूमि से बेदखल करने में किया गया है।

यहां तक कि जहां पेसा और एफआरए लागू हैं, वहीं दूसरे कानून इनके प्रावधानों को कमजोर कर देते हैं। उदाहरण के लिए, राजस्थान के भूमि राजस्व (नवीकरणीय ऊर्जा आधारित विद्युत संयंत्र हेतु भूमि आवंटन) नियम, 2007 के तहत ‘सरकारी भूमि’ को नवीकरणीय ऊर्जा परियोजनाओं के लिए पट्टे पर दिया जा सकता है, जिससे चरागाह भूमि का विचलन हो रहा है।
इसके बावजूद, कई जगहों पर समुदायों ने कानूनों का इस्तेमाल करके अपने सामुदायिक अधिकारों को स्थापित किया है और सामूहिक शासन प्रणालियों को पुनर्जीवित किया है।
भागीदारी के रास्ते में क्या रुकावटें हैं
कई राज्यों में संसाधनों के सामुदायिक प्रबंधन की नींव रखी तो गई है, लेकिन जमीनी स्तर पर यह काम आसानी से नहीं चलता। उदाहरण के लिए, साल 2006 में एफआरए लागू होने के बाद, ओडिशा के कालाहांडी जिले में प्रशासन ने चार वर्षों में लगभग 120 ग्राम सभाओं को सामुदायिक वनाधिकार के पट्टे जारी किए। लेकिन इनमें से कई पट्टे गांवों तक पहुंचे ही नहीं, और जहां पहुंचे भी, वहां समुदायों को यह समझाने की कोई प्रक्रिया नहीं थी कि इन अधिकारों का उपयोग कैसे होगा। सेवा निकेतन के कार्यक्रम प्रबंधक सीतल कुमार बताते हैं कि इस खालीपन को देखते हुए उन्होंने और ओडिशा जंगल मंच के साथियों ने गांव-गांव जाकर समझाना शुरू किया कि सीएफआर का मतलब क्या है, इससे कौन-कौन सी जिम्मेदारियां आती हैं और इससे गांव क्या बदल सकता है।
यह चुनौती केवल ओडिशा की नहीं है। पीएचआईए फाउंडेशन के निदेशक जॉनसन टोपनो बताते हैं कि झारखंड जैसे राज्यों में पेसा और एफआरए दोनों पर ग्राम सभाओं के साथ पर्याप्त काम नहीं हुआ है, इसलिए अधिकार तो दिए गए लेकिन उन्हें कैसे लागू किया जाए, यह समझ विकसित नहीं हो पाई। कई जगह तो गांवों के पास भूमि के आधिकारिक रिकॉर्ड भी नहीं थे। सीमाएं पेड़ों, पत्थरों, नदी-ढलानों की सामुदायिक स्मृति में थीं, लेकिन राजस्व नक्शों में नहीं। साल 2006 के एफआरए में हाथ से बने साधारण नक्शे मान्य थे, लेकिन साल 2012 में अनिवार्य जीआईएस मैपिंग लागू होने के बाद, कई जगह अधिकारियों ने तकनीकी प्रक्रिया का इस्तेमाल कर जंगल की सीमा कम कर दी। कालाहांडी में इससे निपटने के लिए ग्राम सभाओं ने अपने स्तर पर जीपीएस लेकर जंगल की परिधि नापी—13-15 किलोमीटर तक पैदल चलकर सीमा-बिंदु दर्ज किए। भले इसमें त्रुटियां हों, लेकिन इससे समुदायों के पास अपना ठोस प्रमाण तैयार हुआ।

यह भी देखा गया कि कुछ जगह अधिकारियों ने खाली कागज पर हस्ताक्षर करवाकर रिकॉर्ड बाद में बदल दिए। लेकिन वन विभाग की भूमिका यहीं खत्म नहीं होती। गैर-काष्ठ वन-उत्पाद बेचने के लिए ट्रांजिट परमिट भी वही जारी करता है। कालाहांडी में एक ग्राम सभा को यह परमिट पाने में दो साल लगे। इसी वजह से ग्राम सभाओं का संगठित होना और भी जरूरी हो जाता है। कालाहांडी की महासमिति तकनीकी सहायता देती है, लेकिन निर्णय गांवों में खुली बैठकों में लिए जाते हैं, जैसे बांस या तेंदू पत्ता काटने की मजदूरी कितनी होगी, कितना पैसा संरक्षण में लगेगा और ग्राम सभा के पास कितना रहेगा। पहले तेंदू पत्ता, विभाग 50 पत्तों के 3.40 रुपये में लेता था और 7 रुपये में बेच देता था। अब ग्राम सभाएं सामूहिक रूप से मोलभाव कर बेहतर कीमत पर खुद बेच रही हैं। महाराष्ट्र के गढ़चिरौली में भी महा-ग्राम सभा यही प्रक्रिया अपनाती है, ताकि लाभ सीधे परिवारों तक पहुंचे।
रास्ता वही है, लेकिन साझेदारी चाहिए
भारत के कई हिस्सों में समुदाय अपने साझा संसाधनों- जंगल, चराई भूमि, पानी, खेती की जमीन को मिलकर बचा रहे हैं। यह काम केवल कानूनों या योजनाओं से नहीं होता बल्कि उस साझेदारी से होता है। इसमें गांव वाले खुद नियम बनाते हैं, पालन करते हैं, और जरूरत पड़ने पर उन्हें बदलते भी हैं। उदाहरण के लिए, विकास नगर (राजस्थान) जैसे गांवों में परिवार बारी-बारी से चरागाह की देखरेख करते हैं, ताकि हर घर को बराबर चराई का मौका मिले और भूमि का दोहन न हो। सिक्किम के लाचेन और लाचुंग में ‘जुम्सा’ नाम की स्थानीय संस्था जंगल और पवित्र उपवनों की रक्षा करती है जहां कोई बाहरी दखल नहीं, निर्णय पिपोन और गांववासियों की सहमति से होते हैं। वहीं महाराष्ट्र और ओडिशा में कई ग्राम सभाएं मिलकर महा-सभा बनाती हैं, ताकि तेंदू पत्ता जैसे जंगल उत्पादों की बिक्री सामूहिक रूप से तय हो सके और लाभ गांव में ही रहे। इन उदाहरणों से साफ है कि रास्ता कहीं बाहर से नहीं आता बल्कि वही समाधान टिकाऊ होता है जिसे लोग स्वयं मिलकर बनाते और निभाते हैं। इसलिए कानून, योजनाएं और नीतियां जितनी जरूरी हैं, उतनी ही जरूरी है लोगों की आवाज, उनका अधिकार, और उनकी साझेदारी।
सृष्टि गुप्ता और तनुप्रिया सिंह ने इस लेख में योगदान दिया है।
इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ें।
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