मैं एक किसान और पर्यावरण संरक्षक हूं और असम के जोरहाट जिले के एक छोटे से कस्बे तीताबोर में रहता हूं। मैं हमेशा से अपनी जमीन के छोटे से हिस्से पर असम के राज्य पुष्प कोपौ का एक जंगल उगाना चाहता था। यह बसंत ऋतु में खिलने वाला एक दुर्लभ किस्म का फॉक्सटेल ऑर्किड है।
साल 2013 में मैंने अपने घर के पास मौजूद दो बीघा जमीन पर कोपौ और कुछ अन्य पेड़-पौधों की खेती करनी शुरू की। कोपौ एक ऐसा फूल है जो आमतौर पर नमी, आर्द्रता और हरियाली वाले जंगलों में ही पनपता है। इसलिए इसकी खेती के लिए जंगल जैसा माहौल बनाना जरूरी होता है ताकि यह तेजी से, स्वस्थ रूप से और लंबे समय तक खिल सके। अप्रैल में मनाए जाने वाले बोहाग बिहू के दौरान इन फूलों का सांस्कृतिक महत्व बढ़ जाता है, क्योंकि यह बसंत में खिलता है। बिहू के समय खिलने के कारण इसे नए साल का प्रतीक भी माना जाता है।
बचपन में मैं देखता था कि जंगलों में कोपौ के फूल भरपूर मात्रा में मिलते थे। लोग बहुत आसानी से इसके पौधे उखाड़कर ले आते थे और फूल तोड़ लेते थे। वे उनका इस्तेमाल बिहू के दौरान या आम सजावट के लिए करते थे। इसके बाद वे पौधों को फेंक देते थे, क्योंकि उनके खत्म या कम होने का कोई डर नहीं था। लेकिन समय के साथ इनकी संख्या घटती चली गई। पहले जिन फूलों को हाथ बढ़ाकर तोड़ा जा सकता था, अब उनके लिए लंबी लकड़ी का सहारा लेना पड़ता है। साथ ही, तेजी से बढ़ते शहरीकरण और जंगलों की कटाई से वह सघन और नम वातावरण भी खत्म होता जा रहा है, जहां कोपौ पनप सके।
मुझे डर है कि अगर कोपौ पूरी तरह खत्म हो गए तो हमारी आने वाली पीढ़ियां अपने राज्य पुष्प को केवल तस्वीरों में ही देख पाएंगी, असल जीवन में नहीं।
मैंने अपने घर के पास सुपारी और कई अन्य छोटे पौधों के बीच कोपौ का एक छोटा सा जंगल तैयार किया है। इन्हें कतारों में लगाया जाता है। यह फूल ज्वार की बालियों की तरह, गुच्छे में खिलता है, जिसमें गुलाबी और बैंगनी रंग की घनी पंखुड़ियां होती हैं। बिहू के दौरान महिलाएं नृत्य करते समय इन्हें अपने जूड़े में सजाती हैं।
मैं अपने इस काम को किसी व्यवसाय की तरह नहीं देखता। मेरी परवरिश एक किसान के तौर पर हुई है और इसीलिए मैं यह काम पर्यावरण और प्रकृति से अपने प्रेम के कारण करता हूं। लेकिन जैसे-जैसे लोगों को मेरे संरक्षण प्रयासों के बारे में पता चलने लगा है, कुछ लोग बिहू जैसे बड़े आयोजनों में सजावट के लिए मुझसे कोपौ और अन्य पौधे खरीदने लगे हैं।
संरक्षण के इन प्रयासों को जारी रखने में आर्थिक चुनौतियों का सामना तो करना ही पड़ता है, लेकिन जलवायु परिवर्तन इसे और मुश्किल बना देता है। इसके प्रभाव के चलते इलाके में नाजुक पेड़-पौधों के लिए अनुकूल वातावरण खत्म होता जा रहा है। बसंत खत्म होने के बाद मुझे आठ से नौ महीने तक इस जंगल की देखभाल करनी होती है। ऐसा इसलिए, क्योंकि तभी यह सुनिश्चित हो सकेगा कि अगली बसंत में ऑर्किड खिलेंगे या नहीं।
जैसा कि नम्रता गोहैन को बताया गया।
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