August 5, 2025

भारत की आपराधिक न्याय प्रणाली​​ में​​ वंचित ​​समुदायों की उपेक्षा

​बिहार में कारावास की हकीकत आज भी जातीय भेदभाव और ढांचागत पक्षपात से प्रभावित है, जिसे समावेशी और न्यायपूर्ण बनाने के लिए बुनियादी बदलाव की जरूरत है।​
10 मिनट लंबा लेख

2025 की इंडिया जस्टिस रिपोर्ट​ के मुताबिक, भारत में कुल विचाराधीन कैदियों में से ​42 प्रतिशत​ केवल तीन राज्यों—उत्तर प्रदेश, बिहार और महाराष्ट्र—से आते हैं। इनमें से देश में ​कैदियों की दूसरी सबसे बड़ी आबादी​ बिहार में है, जिनमें से लगभग ​66 प्रतिशत​ बंदी वंचित और हाशिए पर रहने वाले समुदायों से ताल्लुक रखते हैं। यह आंकड़े सामान्य से कहीं ज्यादा हैं।​ 

​​वर्ष 2019 से हमारी गैर-लाभकारी संस्था ​लॉ फाउंडेशन​ बिहार की जेलों में बंद वंचित और सामाजिक रूप से पिछड़े समुदायों के लोगों को सामाजिक और कानूनी सहायता, पुनर्वास समर्थन और सामाजिक समावेशन से जुड़ी सेवाएं मुहैया करवा रही है। हम ऐसे मामलों को प्राथमिकता देते हैं, जिनमें कैदी लंबे समय से जेल में हैं, या उन्हें जमानत मिल चुकी है लेकिन वे ​जमानती बॉन्ड​ नहीं भर सकते, अपने लिए वकील नियुक्त नहीं कर सकते, या उन्हें गलत आधार पर बंदी बनाया गया है।​ 

​​हमारे रोजमर्रा के काम में यह बात साफ उभरकर आती है कि मौजूदा आपराधिक न्याय प्रणाली का बोझ सबसे ज्यादा उन्हीं लोगों पर पड़ता है, जो समाज में पहले से ही वंचित हैं और हाशिए पर रहते हैं।​ 

​​1. जातिगत हिंसा और रूढ़ियों में जकड़ा हुआ तंत्र​ 

​​बिहार की सामाजिक संरचना में जाति-आधारित हिंसा का एक लंबा ​इतिहास​ रहा है। हम फिलहाल पटना और जहानाबाद के जिलों में काम कर रहे हैं। इन क्षेत्रों में हम ऐसे मामलों पर ध्यान देते हैं, जहां अक्सर जातीय हिंसा का सबसे वीभत्स रूप सामने आता है।​ 

फेसबुक बैनर_आईडीआर हिन्दी

​​जेल के अंदर की दुनिया में अमूमन वही ढांचे और भेदभाव दोहराए जाते हैं, जो बाहरी दुनिया में मौजूद हैं। समाज में मौजूद जाति, वर्ग और लिंग से जुड़ी तमाम असमानताएं जेल व्यवस्था में भी साफ तौर पर नजर आती हैं।​ 

​​एक हालिया मामला इस सच्चाई को उजागर करता है। वंचित समुदाय के एक 16 वर्षीय लड़के को, जिस पर एक बाइक चुराने का आरोप था, पुलिस ने गिरफ्तारी से पहले बुरी तरह पीटा। थाने में 16 सीसीटीवी कैमरे होने के बावजूद उसे जानबूझकर एक ऐसे कमरे में रखा गया, जहां निगरानी की कोई व्यवस्था नहीं थी।​ 

​​जब उसे किशोर न्याय बोर्ड के सामने पेश किया गया, तो मुख्य मजिस्ट्रेट ने जिम्मेदार अधिकारियों के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई की। ये सभी अधिकारी समान दबंग जाति से ताल्लुक रखते थे। उन्होंने लड़के को ‘​आदतन अपराधी​’ बताते हुए यह मानने से इनकार कर दिया कि वह नाबालिग है। जब मामला मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट (सीजेएम) के पास पहुंचा, तो जातिगत भेदभाव के चलते कोई भी वकील उसका पक्ष रखने को तैयार नहीं हुआ। हम फिलहाल उसे कानूनी सहायता दे रहे हैं, लेकिन हमें भी विरोध झेलना पड़ा है। यहां तक कि न्यायपालिका और पुलिस के कुछ वरिष्ठ अधिकारियों ने हमसे आग्रह किया कि हम उसकी मदद न करें।​ 

​​यह पूरी घटना इस बात का प्रमाण है कि भारत की आपराधिक न्याय प्रणाली में जाति और सत्ता किस तरह हिंसा, संस्थागत लापरवाही, डर और खंडन के जरिए सक्रिय भूमिका निभाते हैं।​ 

​​इस ढांचे को बदलने के लिए यह बेहद जरूरी है कि बार और बेंच—अर्थात वकीलों और न्यायाधीशों—दोनों में वंचित समुदायों का प्रतिनिधित्व बढ़े, ताकि न्याय की राह सुलभ बन पाए। इसलिए हम सोच-समझकर ऐसे समुदायों से आने वाले वकीलों के साथ काम करते हैं, जिन्हें अक्सर अपने पेशे में आगे बढ़ने के अवसर नहीं मिलते। देश भर की अदालतों (विशेष रूप से जिला स्तर पर) में आज भी पुरुषों और ऊंची जातियों का वर्चस्व है। अक्सर कानून की व्याख्या करने का सारा जिम्मा उन लोगों को सौंप दिया जाता है, जिन्होंने वंचित समुदायों के साथ होने वाले अन्याय को खुद कभी नहीं झेला होता। ऐसे में न्यायिक प्रक्रिया स्वाभाविक रूप से असमान और पक्षपाती हो जाती है।​ 

​​2. पूर्वाग्रह के चलते अनुचित कारावास​ 

​​जब किसी वंचित समुदाय से आने वाले व्यक्ति को गिरफ्तार किया जाता है, तो अक्सर उन्हें केवल एक नहीं, बल्कि कई लंबित प्राथमिकी मामलों में नामजद कर दिया जाता है। भले ही उन्होंने एक चोरी की घटना को अंजाम दिया हो, लेकिन उन्हें चार-पांच अन्य मामलों में भी बिना किसी ठोस सबूत के आरोपी बना दिया जाता है। ऐसा इसलिए, क्योंकि पुलिस अपने पुराने या लंबित मामलों को जल्द से जल्द बंद करना चाहती है, ताकि यह दर्शाया जा सके कि अपराधों को सुलझा लिया गया है।​ 

​​समाज में गहराई से जड़ें जमा चुका जातिगत पूर्वग्रह इस प्रक्रिया को और आसान बना देता है। इसके कारण दलितों, आदिवासियों और अन्य हाशिए पर खड़े जातिगत समूहों को निशाना बनाया जाना आम बात है। इसके लिए कभी उनके किसी ​मामूली अपराध​ को आधार बनाया जाता है, तो कभी उनका बस मौका-ए-वारदात के आसपास होना ही उन्हें दोषी बना देता है। कभी-कभी बिल्कुल ही निराधार गिरफ्तारियों के मामले भी सामने आते हैं। जैसे, एक रिक्शा चालक को रेलवे स्टेशन पर सोने के दौरान गिरफ्तार कर उसे एक ऐसे मामले में दोषी बनाया गया, जो उससे काफी दूरी पर घटा था।​ 

​​ऐसे मामलों में गिरफ्तार होने वाले लोग एक तरह के दुष्चक्र में फंस जाते हैं। उन्हें एक नहीं, बल्कि कई मामलों में अलग-अलग अदालतों में अपने बचाव के लिए हाजिर होना पड़ता है। अक्सर जिला अदालतें ऐसे मामलों में (खासकर जब एक से अधिक एफआईआर दर्ज हों) जमानत देने से इनकार कर देती हैं, जिससे परिवारों को हाई कोर्ट का रुख करना पड़ता है। लेकिन हाई कोर्ट में जमानत याचिका दायर करना एक महंगी और जटिल प्रक्रिया है, जो उन्हें न्याय के रास्ते से और दूर कर देती है।​

​​हमारा अनुभव यह रहा है कि भले ही जमानत की सारी कागजी प्रक्रिया पूरी हो, तब भी लंबित मामलों के भार के चलते पटना हाई कोर्ट में याचिका सूचीबद्ध होने में ही एक महीने से ज्यादा का समय लग जाता है। इसका मतलब यह है कि आरोपी अगर गुनहगार नहीं है और उसे दोषी भी नहीं ठहराया गया है, तब भी उसे हफ्तों या महीनों तक जेल में रहना पड़ता है।​ 

​​ऐसे में वे अक्सर सजा से भी ज्यादा समय जेल में बिता देते हैं, वह भी बिना दोष सिद्ध हुए। महीनों या सालों तक जेल में रहने के बाद, उनका मानसिक तनाव इस कदर बढ़ जाता है कि कई बार वे उन ​अपराधों को भी स्वीकार​ कर लेते हैं जो उन्होंने कभी किए ही नहीं होते।​ 

​​3. जिला-स्तर पर सशक्त अधिवक्ताओं की कमी​ 

​​यह एक आम धारणा है कि न्याय अंत में उच्च न्यायालयों या सर्वोच्च न्यायालय से मिलता है। लेकिन वंचित समुदायों के लिए, न्याय की असली लड़ाई जिला अदालतों में लड़ी जाती है। उच्च न्यायालय मुकदमे नहीं चलाता है। वह मुख्य रूप से अपील और जमानत याचिकाओं की सुनवाई करता है। जबकि जमानत की सुनवाई, आरोप तय करना, मुकदमा चलाना और दोष सिद्ध करने जैसी तमाम प्रक्रियाएं निचली अदालतों में ही होती हैं। इसके बावजूद, जिला अदालतें आज भी संसाधनों और मान्यता के अभाव से जूझ रही हैं।​ 

​​इसका नतीजा यह होता है कि जिला स्तर पर जुझारू और काबिल अधिवक्ताओं की भारी कमी देखने को मिलती है। अधिकतर वकील उच्च न्यायालयों में अभ्यास करना चाहते हैं, जिससे जिला अदालतों में छोटे-मोटे मामलों के मुकदमे भी 10 से 15 सालों तक चलते रहते हैं।​ 

जमीन पर घेरे में बैठी महिलाओं के समूह को संबोधित करते दो पुरुष_आपराधिक न्याय प्रणाली
​अक्सर कानून की व्याख्या करने का सारा जिम्मा उन लोगों को सौंप दिया जाता है, जिन्होंने वंचित समुदायों के साथ होने वाले अन्याय को कभी नहीं झेला होता। | चित्र साभार: लॉ फाउंडेशन ​

​​हम लगातार वंचित समुदायों से आने वाले ऐसे सजायाफ्ता कैदियों से मिलते हैं, जिन्होंने कभी यह सोचा भी नहीं होता कि वे उच्च न्यायालय में अपील कर सकते हैं। इसका कारण उनका दोषी होना नहीं, बल्कि यह है कि उन्हें उच्च न्यायालय तक पहुंच पाना असंभव सा लगता है। वे आर्थिक संसाधनों और सामाजिक पूंजी के अभाव में यह रास्ता अपनाने से पहले ही ठिठक जाते हैं।​ 

​​इस खाई को पाटने के लिए जरूरी है कि देश के मान्यता प्राप्त विधि संस्थान अपने स्नातक छात्रों के लिए जिला अदालतों में कम से कम तीन से पांच वर्षों के अभ्यास को अनिवार्य रूप से लागू करें। जमीनी हकीकत की समझ न होने के कारण अधिकांश युवा वकील अपनी अच्छी शिक्षा के बावजूद जिला स्तर पर प्रभावी रूप से काम नहीं कर पाते हैं।​ 

​​4. परिवार से जुड़ी प्रक्रियाएं अक्सर कठिन होती हैं​ 

​​भारत की अदालतों में परिजनों द्वारा हलफनामा दाखिल करना जमानत पाने की एक मामूली औपचारिकता है। लेकिन कई मामलों में यही सबसे बड़ी बाधा बन जाती है।​ 

​​कई बार आरोपियों के परिवार का कोई अता-पता नहीं होता, या वे सामने आने से हिचकिचाते हैं। पुलिस के डर और कानूनी प्रक्रिया की जटिलताओं के कारण वे किसी पचड़े में नहीं पड़ना चाहते। यदि आरोपी स्वयं परिवार का मुखिया है, तो उसकी अनुपस्थिति से पूरा घर आर्थिक रूप से अस्थिर हो जाता है। और अगर वह प्रवासी है, तो कई बार उसके पास जरूरी दस्तावेज ही नहीं होते हैं। ऐसे में हमारे सामाजिक कार्यकर्ता इन परिवारों को कानूनी प्रक्रिया समझाने और जेल में अपने रिश्तेदारों से मिलने में मदद करते हैं।​ 

​​लेकिन कई आरोपियों का या तो कोई परिवार ही नहीं होता, या वे उन्हें छोड़ चुके होते हैं। एक मामले में, एक सफाई कर्मचारी को केवल इसलिए गिरफ्तार कर लिया गया क्योंकि वह मौका-ए-वारदात के पास नशे की हालत में पाया गया था। उसका एक भाई था, लेकिन वह भी कहीं लापता था। इस कारण वो व्यक्ति बिना किसी मुकदमे के तीन-चार साल तक जेल में ही रहा। हमने उसकी ओर से हलफनामा दाखिल किया है, लेकिन चूंकि हम उसके परिजन नहीं हैं, इसलिए यह प्रक्रिया बहुत धीमी और जटिल है। अदालत द्वारा इसे स्वीकार करने में लंबा समय लग सकता है। हमारे न्यायिक ढांचे में ऐसे अपवादों के लिए कोई स्पष्ट प्रावधान नहीं है। यह प्रणाली उन लोगों को ध्यान में रखकर नहीं बनी है, जिनके पास कोई सामाजिक या पारिवारिक सहारा नहीं है।​ 

​​ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के लिए यह ढांचा और भी अधिक बहिष्कारी साबित होता है। उनके परिवार अक्सर उन्हें स्वीकार नहीं करते और उनसे संबंध तोड़ लेते हैं। ऐसे मामलों में आमतौर पर कोई अन्य ट्रांसजेंडर व्यक्ति या मित्र उनके लिए हलफनामा देते हैं। लेकिन चूंकि अदालतें इन रिश्तों को कानूनी मान्यता नहीं देतीं, इसलिए ऐसे हलफनामों को भी कई बार अस्वीकार कर दिया जाता है।​ 

​​5. जमानत हासिल करना एक बड़ी चुनौती है​ 

​​बिहार में जमानत की पारंपरिक व्यवस्था मुख्य रूप से जमानती बॉन्ड पर आधारित है, जिसमें जमानत पाने के लिए व्यक्ति को जमीन या वाहन स्वामित्व से संबंधित दस्तावेज पेश करने होते हैं। यहां नकद जमानत की कोई मान्य प्रथा नहीं है। यह व्यवस्था उन लोगों के लिए बड़ी अड़चन बन जाती है, जिनके पास ऐसे कोई भी संपत्ति संबंधी दस्तावेज नहीं होते हैं।​ 

​​इस चुनौती का समाधान ढूंढते हुए, हमने पर्सनल रिकॉग्निजेंस (पीआर) जमानत प्रणाली को अपनाना शुरू किया। पीआर बॉन्ड के तहत आरोपी को केवल इस शपथ के आधार पर रिहा किया जा सकता है कि वह सभी सुनवाइयों में स्वयं उपस्थित होगा। इसके लिए उसे जमानत के रूप में कोई संपत्ति या धनराशि देने की आवश्यकता नहीं होती।​ 

​​इस प्रक्रिया में हमारे सामाजिक कार्यकर्ताओं की भूमिका बेहद महत्वपूर्ण है। अधिकांश विचाराधीन कैदियों के परिजनों तक आसानी से पहुंच पाना संभव नहीं होता। जब उनके परिवार मिल भी जाते हैं, तब भी वे आर्थिक या सामाजिक रूप से इतने कमजोर होते हैं कि आगे आने से हिचकिचाते हैं। इस दूरी को मिटाने के लिए हम स्वयं कैदी के घर जाकर उनकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति का दस्तावेजीकरण करते हैं और प्रमाण के रूप में तस्वीरें इकट्ठा करते हैं।​ 

वंचित समुदाय से आने वाले व्यक्ति को अक्सर गिरफ्तारी के साथ ही कई लंबित मामलों में नामजद कर दिया जाता है।

​​इन जानकारियों को याचिका के रूप में अदालत में प्रस्तुत किया जाता है, जहां हम यह तर्क रखते हैं कि चूंकि परिवार जमानती बॉन्ड नहीं दे सकता, इसलिए आरोपी को पीआर बॉन्ड पर रिहा किया जाए। अगर अदालत इस याचिका को स्वीकार कर लेती है, तो व्यक्ति को जमानत मिल जाती है। लेकिन यदि याचिका खारिज कर दी जाती है, तो हम इस मामले को जिला न्यायाधीश और जरूरत पड़ने पर उच्च न्यायालय तक भी ले जाते हैं।​ 

​​लेकिन यदि वकील किसी मामले को गंभीरता से नहीं लेते, तो संभव है कि वे ये सभी कदम न उठायें। वहीं, कैदियों को न तो अपने अधिकारों की पूरी जानकारी होती है और न ही उनके पास इतने साधन या समझ होती है कि वे बार-बार अपील कर सकें। ऐसे में पीआर जमानती बॉन्ड और सशक्त कानूनी सहायता का समन्वय ही वह कड़ी है, जो न्याय तक वास्तविक पहुंच सुनिश्चित कर सकती है।​ 

​​6. मुकदमा ही स्थायी समाधान है​ 

​​जहां एक ओर जमानत आरोपी को अस्थायी राहत प्रदान करती है, वहीं उसे स्थायी राहत मुकदमे और बरी होने से ही मिलती है। उदाहरण के लिए, मान लीजिए कि किसी व्यक्ति पर चोरी का आरोप है, जिसकी अधिकतम सजा तीन साल है। अगर वह व्यक्ति पहले ही विचाराधीन कैदी के रूप में जेल में ढाई साल बिता चुका हो, तो उसके लिए जमानत मिलना कोई वास्तविक राहत नहीं होगी।​ 

​​जमानत मिलने के बाद भी व्यक्ति को हर सुनवाई पर अदालत में उपस्थित होना अनिवार्य होता है। वंचित समुदायों से आने वाले लोगों के लिए ऐसी हर पेशी का मतलब होता है—यात्रा का खर्च, दिहाड़ी मजदूरी या काम का नुकसान और रोजगार के लिए पलायन न कर पाना। यदि वे किसी एक भी तारीख पर पेश नहीं हो पाते, तो उनकी जमानत रद्द हो सकती है और उन्हें दोबारा जेल भेजा जा सकता है।​ 

​​इसलिए, समय पर मुकदमे की प्रक्रिया पूरी कराना अत्यंत आवश्यक है, विशेषकर तब जब आरोपी पहले ही लगभग पूरी सजा काट चुका हो। ऐसे मामलों में जमानत एक अतिरिक्त बोझ बन जाती है। वहीं गवाहों की अनुपस्थिति या आरोप तय न हो पाने जैसी ढांचागत देरी के चलते भी मुकदमे कई सालों तक चलते रहते हैं। ऐसे में मुकदमा ही वह प्रक्रिया है, जिससे आरोपी के लिए न्याय का मार्ग प्रशस्त होता है। यदि व्यक्ति दोषमुक्त होता है, तो इससे न केवल उसकी गरिमा बहाल होती है, बल्कि वह एक स्थायी आपराधिक रिकॉर्ड से भी बच जाता है।​ 

​​निशुल्क कानूनी सेवा: एक सोच​ 

​​कानून के अनुसार, हर व्यक्ति को अपराध सिद्ध होने तक निर्दोष माना जाता है। लेकिन वास्तव में अक्सर इस सिद्धांत का पालन नहीं किया जाता है। ऐसे में, जब व्यवस्था किसी आरोपी के साथ नहीं खड़ी होती, हम यह सुनिश्चित करने का प्रयास करते हैं कि हम पहले उन्हें समझें। बिहार जैसे राज्य में, जहां हर 50 किलोमीटर पर भाषा बदल जाती है, यह और भी जरूरी हो जाता है। एक मामले में, एक महिला केवल इसलिए जेल में रही क्योंकि किसी ने यह जानने की कोशिश नहीं की कि वह क्या कह रही है। जब हमने उसकी भाषा बोलने वाली एक सामाजिक कार्यकर्ता की मदद ली, तो पता चला कि महिला के बयान न केवल स्पष्ट थे, बल्कि पूरी तरह सही भी थे। इसी जानकारी के आधार पर हम उसकी जमानत सुनिश्चित करने में सफल रहे।​ 

​​न्याय तक वास्तविक पहुंच सुनिश्चित करने के लिए कानूनी सहायता में कानूनी साक्षरता और जागरूकता कार्यक्रमों को भी शामिल किया जाना चाहिए। खासतौर से जेलों के अंदर और उन समुदायों में भी, जो अक्सर पुलिस के निशाने पर रहते हैं। जैसे एक मामले में, एक युवक ने जेल में हमारी ओर से दी गई जानकारी का उपयोग करके अपने परिवार को बताया कि वह किशोर न्याय अधिनियम के तहत संरक्षण का पात्र है। उसके इस कदम की वजह से उसे समय से मदद मिल पायी। एक अन्य मामले में, एक मुसहर टोले की युवती ने पुलिस छापे के दौरान अपने अधिकारों का हवाला देते हुए महिला पुलिस अधिकारी की अनुपस्थिति में पुलिस को घर में घुसने से रोका। तब से उसके घर में पुलिस दोबारा नहीं आई है।​ 

​​भारतीय संविधान के ​अनुच्छेद 39 (क)​ के तहत, प्रत्येक नागरिक को निशुल्क कानूनी सहायता का अधिकार प्राप्त है, और किसी भी व्यक्ति को इस अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता। इसलिए, राज्य सरकारों को चाहिए कि वे जिला और तालुका स्तर पर निशुल्क कानूनी सेवाओं के प्रभावी कार्यान्वयन में आ रही चुनौतियों को पहचानें और उन्हें दूर करने पर गंभीरता से काम करें।​ 

​​ये अधिकार अक्सर वंचित समुदायों से जानबूझकर दूर रखे जाते हैं। क्योंकि जब लोग अपने अधिकारों को जान जाते हैं, तो वे अत्याचार का विरोध कर सकते हैं और दमन के खिलाफ लामबंद हो सकते हैं। यही वजह है कि हमारा काम केवल मुकदमेबाजी तक सीमित नहीं है। न्याय तक पहुंच सुनिश्चित करने के लिए, हमें सबसे पहले अधिक से अधिक लोगों को उनके अधिकारों के बारे में जागरूक करना होगा।​ 

​​शालिनी, आनंद, रंजन, खालिद और गौरव ने इस लेख में योगदान दिया है।​ 

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लेखक के बारे में
प्रवीण कुमार-Image
प्रवीण कुमार

​प्रवीण कुमार ​लॉ फाउंडेशन​ के निदेशक और सह-संस्थापक हैं, जहां वह फंडरेजिंग, परियोजना कार्यान्वयन और रणनीतिक पहलों की जिम्मेदारी संभालते हैं। इससे पहले वे टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज के सेंटर फॉर क्रिमिनोलॉजी एंड जस्टिस में क्रिमिनल जस्टिस फैलो रहे हैं, जहां उनका काम विशेष रूप से बिहार के विचाराधीन बंदियों पर केंद्रित था। प्रवीण को प्रैक्सिस फैलोशिप मिल चुकी है और जाति, न्याय और कारावास जैसे विषयों पर इकोनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली सहित कई प्रतिष्ठित शोध पत्रिकाओं में उनके लेख प्रकाशित किए गए हैं।​

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