हम बिहार राज्य के पटना जिले की कुल पांच मुसहर बस्तियों में चल रही एक शैक्षिक पहल से जुड़े हुए हैं। हम यहां डिवाइस संस्था के साथ फील्ड कॉर्डिनेटर के तौर पर टीचिंग-लर्निंग सेंटर चलाते हैं। यह सेंटर मुसहर समुदाय के बच्चों को शिक्षा से जोड़ने की कवायद है, जो अमूमन सामाजिक और शैक्षणिक स्तर पर मुख्यधारा से वंचित होते हैं।
स्वयं मुसहर समुदाय से होने के कारण हम इस बात से भली-भांति परिचित हैं कि इस समुदाय के बच्चों के लिए स्कूल में बने रहना कितना चुनौतीपूर्ण होता है। अक्सर जातिगत भेदभाव, आर्थिक तंगहाली और संसाधनों की कमी उनकी पढ़ाई में रुकावट बनती है। नतीजतन, कई बच्चे या तो देरी से स्कूली शिक्षा की शुरुआत करते हैं या फिर परिवार की रोजी-रोटी में हाथ बंटाने के लिए बीच में ही पढ़ाई छोड़ने को विवश हो जाते हैं। ऐसे में वे प्राथमिक शिक्षा की बुनियादी समझ से वंचित रह जाते हैं।
एक क्लासरूम का अंदरूनी ढांचा भी समान नहीं होता। कई बच्चे तेजी से सीखते हैं, तो बहुतों को समय लगता है। ऐसे में जिस बच्चे को सीधी रेखा तक न खींचनी आती हो, उससे ‘क, ख, ग’ लिखने की अपेक्षा कैसे की जा सकती है? साथ ही मुसहर समुदाय के बच्चों को आज भी स्कूलों के भीतर जातिगत उपेक्षा और उपहास सहना पड़ता है। बहुत से बच्चे इससे निराश होकर पढ़ाई छोड़ देते हैं और स्कूल से पूरी तरह कट जाते हैं। इन सभी स्थितियों को ध्यान में रखते हुए हम एक वैकल्पिक शिक्षण मॉडल पर काम कर रहे हैं।
चूंकि हमारे यहां पूर्व-विद्यालयी (प्री-प्राइमरी) शिक्षा पर ज्यादा जोर नहीं दिया जाता और आंगनवाड़ियों के लिए अकेले सब कुछ कर पाना संभव नहीं है, इसलिए हम बच्चों के बुनियादी कौशल को मजबूत करना चाहते हैं। इसकी शुरुआत होती है हिंदी पढ़ने, लिखने, समझने और बोलने से। हाशिए पर रहने वाले समुदायों के बच्चों के लिए शिक्षा तभी समावेशी बनती है, जब हम उसे उनके अनुसार ढाल पाते हैं।
उदाहरण के लिए, हम सबसे पहले बच्चों को रेखाएं बनाना सिखाते हैं। इसके बाद उन्हें बताया जाता है कि कैसे अलग-अलग रेखाओं से हिंदी के अक्षर बनाये जा सकते हैं। जब उन्हें अक्षरों का ज्ञान हो जाता है, तो हम उन्हें अक्षरों से बनने वाले शब्दों के बारे में बताते हैं। जैसे ‘क’ से कड़ाही, कटोरी, करछुल आदि। हमारा उद्देश्य सूचना देना नहीं, बल्कि समझ बनाना है। इसलिए हम वही शब्द चुनते हैं, जिनका बच्चों के रोजमर्रा के जीवन से संबंध होता है। जब वे शब्द सीख जाते हैं, तो हम उन्हें खेल-खेल में शब्दों से वाक्य बनाना सिखाते हैं।
इसी तरह गणित की मूल शिक्षा के लिए हमने एक लूडो आधारित खेल तैयार किया है। इसमें बच्चे खेल-खेल में जोड़-घटाव करना सीखते हैं और साथ ही उन्हें अंकों का शुरुआती ज्ञान भी मिलता है। यह तमाम तरीके पढ़ने और सीखने की प्रक्रिया को सतत और सुलभ बनाते हैं।
शिक्षा को समावेशी बनाने का अर्थ है पहले उन बच्चों तक पहुंचना, जो शिक्षा से वंचित हैं। हम अभी मुसहर समुदाय के 20–25 बच्चों को नियमित रूप से पढ़ा पा रहे हैं। यह संख्या भले ही छोटी लगे, लेकिन इसे उस सामाजिक संदर्भ में देखा जाना चाहिए, जहां नियमित पढ़ना-लिखना आज भी एक बड़ी चुनौती है।
हमारे लिए निरंतर काम करते रहना जरूरी है, ताकि हम अपने समुदाय के बच्चों के लिए शिक्षा का एक स्थायी माहौल तैयार कर सकें। अगर पढ़ाई एक बार रुक जाती है, तो बच्चों को फिर उससे जोड़ना कठिन होता है। एक बार शिक्षा छूटने पर उसका असर केवल छात्र पर नहीं पड़ता, बल्कि पूरा परिवार और समुदाय उससे प्रभावित होता है। इसलिए यह केवल एक बच्चे का नहीं, पूरे समाज के भविष्य का प्रश्न है।
जीतू कुमार और बसंत कुमार मांझी डिवाइस संस्था के साथ फील्ड कोऑर्डिनेटर हैं।
शैलेंद्र और अनीता ने भी इस लेख में योगदान दिया है।
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