कॉमन्स की अवधारणा इस विचार पर आधारित है कि कुछ संसाधन निजी स्वामित्व में नहीं हो सकते हैं। ये संसाधन मानव जीवन, संस्कृति और पारिस्थितिकी तंत्र का आधार होते हैं और इन पर पूरे समुदाय का अधिकार होना चाहिए। जैसे, हवा या समुद्र पर किसी एक व्यक्ति का स्वामित्व नहीं हो सकता है क्योंकि ये पूरे जीवमंडल का हिस्सा हैं। इसी तरह जल, जंगल और जमीन भी अन्य उदाहरण हैं। हिंदी में भी अधिकांश लोग इनके लिए कॉमन्स शब्द का इस्तेमाल करते हैं। लेकिन “सामुदायिक संसाधन” या “साझा संसाधन” इसके लिए अधिक उपयुक्त और सरल शब्द हो सकते हैं।
साझा संसाधनों की कई श्रेणियां हैं, जैसे भौतिक, सांस्कृतिक, डिजिटल और परंपरागत ज्ञान।
भौतिक कॉमन्स: ये साझा संसाधन मानव जीवन और पारिस्थितिकी के लिए अहम होते हैं। ये सीधे तौर पर हमारी आजीविका, खाद्य सुरक्षा, जैव विविधता संरक्षण और सांस्कृतिक गतिविधियों में मददगार होते हैं। इनके महत्व को उदाहरण से समझते हैं-
1. जल संसाधन: नदियां, झीलें और भूजल जैसे स्त्रोत ग्रामीण और शहरी जीवन, दोनों के लिए मायने रखते हैं। साथ ही ये जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को संतुलित करने में सहायक है।
2. वन संसाधन: उष्णकटिबंधीय जंगल, मैंग्रोव और पर्वतीय वन जैसे संसाधन जैव विविधता को संरक्षित करने, आदिवासी और ग्रामीण समुदायों के लिए आजीविका का साधन होने के साथ-साथ उद्योगों के लिए भी अहम हैं।
3. तटीय संसाधन: तटीय और अंतर्देशीय मछली पालन खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने में मददगार है। इसके जरिए तटीय और आंतरिक जलीय क्षेत्रों में लाखों लोगों को रोजगार मिलता है। मछली पालन आर्थिक विकास का हिस्सा है, विशेष रूप से तटीय क्षेत्रों में।
4. भूमि संसाधन: सामुदायिक चारागाह, शुष्क और अर्ध-शुष्क क्षेत्र जमीन का महत्वपूर्ण हिस्सा है। स्थायी पशुधन प्रबंधन, ग्रामीण अर्थव्यवस्था और स्थानीय पर्यावरणीय संतुलन में इनकी भूमिका अहम हो जाती है।
एक अनुमान के अनुसार, दुनिया भर में 2.5-3 अरब लोग अपनी आजीविका और सांस्कृतिक या आध्यात्मिक आवश्यकताओं के लिए कॉमन्स पर निर्भर हैं। कॉमन्स खासतौर पर उन लोगों को लाभ देते हैं जो समाज में हाशिए पर हैं, जैसे भूमिहीन किसान या आदिवासी समुदाय। कुल मिलाकर भौतिक कॉमन्स हमारे जीवन और पर्यावरण के लिए अनमोल हैं। ये केवल संसाधन नहीं हैं, बल्कि सामाजिक और पारिस्थितिक स्थिरता का आधार हैं। इनका संरक्षण और सतत प्रबंधन मानवता के सामूहिक भविष्य के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है।
डिजिटल कॉमन्स: इसमें ऐसे संसाधन और प्लेटफॉर्म शामिल हैं, जो डिजिटल माध्यम में साझा, स्वतंत्र और सार्वजनिक उपयोग के लिए उपलब्ध होते हैं। ये आमतौर पर सहकारी प्रयासों और सामुदायिक प्रबंधन के माध्यम से तैयार और संचालित किए जाते हैं। जैसे, मुफ्त और ओपन-सोर्स सॉफ्टवेयर लिनक्स, मोज़िला फायरफॉक्स और एंड्रायड, या फिर सामूहिक ज्ञान मंच जैसे विकीपीडिया और डिजिटल शिक्षा प्लेटफॉर्म। ये सॉफ्टवेयर नि:शुल्क होते हैं और उनके सोर्स कोड को कोई भी देख, समझ और संशोधित कर सकता है। डिजिटल कॉमन्स सभी को ज्ञान और जानकारी तक पहुंच प्रदान करते हैं। इसके साथ ही सामूहिक प्रयास और सह-निर्माण के सिद्धांतों पर आधारित ओपन-सोर्स सॉफ़्टवेयर और प्लेटफॉर्म नए विचारों और प्रौद्योगिकी के विकास को प्रोत्साहित करते हैं।
सांस्कृतिक कॉमन्स: सांस्कृतिक कॉमन्स में वे चीजें शामिल होती हैं, जो हमारे विचारों, परंपराओं, रचनात्मकता और सांस्कृतिक पहचान को दर्शाती हैं। इसमें एक समुदाय के लोग अपने रीति-रिवाजों, भाषाओं और कलाओं को साझा करते हैं। उदाहरण के तौर पर त्यौहार मनाना, स्थानीय भाषा में बोलचाल या कला आधारित विभिन्न प्रयास इसमें शामिल हैं। आसान भाषा में कहें तो सांस्कृतिक कॉमन्स समुदायों की पहचान को सुरक्षित बनाए रखते हैं।
डिजिटल और सांस्कृतिक कॉमन्स सामाजिक और आर्थिक असमानता को कम करने के साथ ही नए विचार और रचनात्मकता को प्रोत्साहित भी करते है। वैसे सामुदायिक संसाधन (कॉमन्स) केवल स्थानीय स्तर तक सीमित नहीं हैं, बल्कि ये वैश्विक संसाधनों जैसे वायुमंडल और महासागरों तक फैले हुए हैं। उदाहरण के लिए वायुमंडल एक ऐसा सामुदायिक संसाधन है, जिसमें ग्रीनहाउस गैसों को अवशोषित करने की क्षमता सीमित है। इस विषय में होने वाली बातचीत में “सामान्य लेकिन अलग-अलग जिम्मेदारियों” (सीबीडीआर) के सिद्धांत का जिक्र जरूर होता है। सीबीडीआर के अनुसार जलवायु परिवर्तन से निपटने की जिम्मेदारी सभी देशों की है, लेकिन उनकी जिम्मेदारियों में फर्क है। विकसित देशों ने पुरातन समय से ही ज्यादा ग्रीनहाउस गैसें उत्सर्जित की हैं, इसलिए उन्हें न केवल उत्सर्जन घटाने में नेतृत्व करना चाहिए, बल्कि विकासशील देशों की मदद भी करनी चाहिए। यह नजरिया वैश्विक स्तर पर सामूहिक संसाधनों की पहचान और उनके न्यायसंगत व टिकाऊ प्रबंधन के लिए एक तंत्र बनाने में मददगार हो सकता है।

सामुदायिक संसाधनों का उपयोग
सामुदायिक संसाधन साझा उपयोग पर आधारित होते हैं, क्योंकि इन्हें लोगों से अलग करना महंगा या कठिन होता है। साथ ही, ये संसाधन सीमित होते हैं और उपयोग के चलते खत्म हो सकते हैं। उदाहरण के लिए, ओडिशा के नयागढ़ जिले के सुलिया जंगल में जरूरत से ज्यादा दोहन ने इसकी प्राकृतिक पुनर्जीवन दर को प्रभावित किया, जिससे जंगल खत्म हो गया।
इस संदर्भ में, गैरेट हार्डिन ने “कॉमन्स की त्रासदी” की अवधारणा प्रस्तुत की है। उन्होंने कहा कि जब संसाधनों का उपयोग सामूहिक होता है, तो लोग अपने स्वार्थ के कारण उनका अति-शोषण करते हैं। हालांकि, हार्डिन के विचारों की आलोचना भी हुई है। नोबेल पुरस्कार विजेता एलीनॉर ओस्ट्रॉम ने दिखाया कि कैसे समुदाय सामूहिक प्रबंधन के प्रभावी तरीके भी विकसित कर सकते हैं। नियम, संस्थान और सहयोगी प्रणालियां बनाकर उपयोगकर्ता संसाधनों के दोहन और पुनर्पूर्ति के बीच संतुलन स्थापित कर सकते हैं, जिससे उनके टिकाऊ उपयोग को सुनिश्चित किया जा सके।
नीतिगत और कानूनी ढांचा
सामुदायिक संसाधनों के प्रबंधन का एक और दृष्टिकोण कानूनी और नीतिगत ढांचे से जुड़ा है। उदाहरण के लिए, 2006 का वन अधिकार अधिनियम (एफआरए) आदिवासी और वन-निवासी समुदायों के परंपरागत भूमि और संसाधन अधिकारों को मान्यता देता है। अधिनियम में ‘सामुदायिक वन संसाधन’ (सीएफआर) की नई श्रेणी भी जोड़ी गई, जो गांव की परंपरागत सीमाओं के भीतर का वन क्षेत्र है।
एफआरए ने वन संरक्षण में एक नया आयाम जोड़ा, जिसमें लगभग 1.79 लाख ग्राम सभाओं को उनके परंपरागत क्षेत्र के भीतर वन, वन्यजीव और जैव विविधता की सुरक्षा, संरक्षण और प्रबंधन का अधिकार दिया गया। इसने संसाधन प्रबंधन में समुदायों की महत्वपूर्ण भूमिका को स्थापित किया।
सहभागी निर्णय-निर्माण
संसाधनों के प्रबंधन का एक और पहलू सह-शासन है। इतिहासकार पीटर लाइनबॉघ ने “कॉमनिंग” शब्द को लोकप्रिय बनाया, जो संसाधनों के सामूहिक प्रबंधन और पुनरुत्पादन की प्रक्रिया को दर्शाता है। यह साझा जिम्मेदारियों और सहयोगात्मक निर्णय-निर्माण की आवश्यकता पर जोर देता है। भारत के कोरोमंडल तट पर पारंपरिक मछुआरा समुदायों के उदाहरण से इसे समझा जा सकता है। यहां की मछुआरा परिषदें स्थानीय जल क्षेत्रों में टिकाऊ मछली पकड़ने के नियम बनाती हैं, जैसे कुछ उपकरणों के उपयोग पर प्रतिबंध लगाना। नियम तोड़ने वालों पर जुर्माना लगाकर संसाधन संरक्षण सुनिश्चित किया जाता है।
साझा संसाधनों का यह मॉडल कोविड-19 महामारी या बाढ़ जैसी आपदाओं में सामुदायिक राहत कार्यों में भी दिखा, जब राशन और अन्य संसाधनों को साझा कर मदद की गई। यह दर्शाता है कि सामुदायिक प्रबंधन और सहयोग टिकाऊ विकास और सामाजिक समृद्धि के लिए कितना महत्वपूर्ण है।
1. सामुदायिक संसाधन भारत के लिए क्यों महत्वपूर्ण हैं?
भारत में कॉमन्स देश की कुल भूमि का लगभग पांचवां हिस्सा हैं और ये ग्रामीणों की आजीविका और पर्यावरण का संतुलन बनाए रखने में बहुत अहम हैं। कॉमन्स के तहत आने वाली सार्वजनिक भूमि को भारत के अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग नाम से जाना जाता है। जैसे इसे राजस्थान में शामिलात भूमि, ओडिशा में सरबसाधारण और तमिलनाडु में पोरम्बोक कहते हैं। ये भूमि ग्रामीण परिवारों की जीवनरेखा है, क्योंकि इससे उन्हें पानी, ईंधन, चारा और लकड़ी जैसे संसाधन मिलते है। भारत के अर्ध-शुष्क क्षेत्रों में, सामुदायिक संसाधन (सीपीआर) ग्रामीण परिवारों की आय में लगभग 15 से 25 प्रतिशत योगदान करते हैं। सार्वजनिक भूमि के सभी तत्व गरीब और भूमिहीन परिवारों के लिए संकट के समय, यानी प्राकृतिक आपदा, संक्रमण, फसलों के खराब हो जाने जैसी परिस्थितियों में काम आते है। इसकी अहमियत को एक उदाहरण से समझते हैं- राजस्थान के जैसलमेर जिले में ओरण सार्वजनिक भूमि पर बनाए जाने वाले सार्वजनिक वन है। ये पवित्र वन ग्रामीण समुदायों के पारंपरिक नियमों और धार्मिक मान्यताओं के लिए संरक्षित किए जाते हैं। खास बात यह है कि राजस्थान के राज्य पक्षी और भारत के सबसे संकटग्रस्त पक्षियों में से एक सोहन चिड़िया के संरक्षण के लिए ओरण काफी मददगार साबित हुए हैं। इसका एक कारण यह है कि ये वन स्थानीय देवी-देवताओं से जुड़े होते हैं और इनकी देखभाल सामुदायिक सहभागिता से की जाती है।
इसी तरह पश्चिम बंगाल के सुंदरबन मैंग्रोव वन भी हैं, जो सामुदायिक और पारिस्थितिकी उपयोग के लिए संरक्षित हैं। ये मछुआरों की आजीविका का प्रमुख स्रोत हैं और तटीय क्षेत्रों को बाढ़ और कटाव से बचाने में भी अहम भूमिका अदा करते हैं। जैव विविधता के केंद्र सुंदरबन मैंग्रोव में बाघ और अन्य दुर्लभ प्रजातियां निवास करती हैं। इसी के साथ पारंपरिक मत्स्य पालन के लिए ग्रामीण आदिवासी सुंदरबन मैंग्रोव पर निर्भर हैं। ऐसे ही गुजरात में चारागाह, जिसे गोचर भूमि भी कहा जाता है, ग्रामीण समुदायों और पशुपालन आधारित अर्थव्यवस्था के लिए जीवनरेखा की तरह काम करते हैं। ये भूमि सामुदायिक संसाधनों का हिस्सा है और राज्य की पारंपरिक कृषि और पशुधन प्रथाओं में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। पशुपालक और चरवाहा समुदाय, जैसे मालधारी, अपने मवेशियों को इन चारागाहों में चराते हैं। गुजरात में गिर गाय, भुज कच्छ की भेड़ और गुजराती भैंस जैसी नस्लें चारागाहों पर निर्भर हैं। इसलिए ये स्थानीय लोगों के लिए और भी अहम हो जाते हैं। प्रकृति की नजर से देखें तो इस चराई भूमि से मिट्टी का कटाव रोकने में मदद मिलती है।
2. सार्वजनिक भूमि की आधिकारिक पहचान को लेकर भारत में चिंता क्यों?
भारत में कॉमन्स भूमि, यानी सामुदायिक भूमि की परिभाषा और स्थिति को अभी भी आधिकारिक पहचान नहीं मिल पाई है। यही कारण है कि इन भूमि संसाधनों का सही प्रबंधन और संरक्षण एक चुनौती बना हुआ है। राज्य कृषि संबंध और भूमि सुधार के अधूरे कार्यों की समिति (2008) ने ग्रामीण सामान्य संपत्ति संसाधनों (सीपीआर) को परिभाषित किया। इसके अनुसार, सीपीआर “ऐसे संसाधन हैं, जिनके उपयोग के लिए एक पहचान योग्य समुदाय के सभी सदस्यों के अविभाज्य अधिकार हैं।” आसान भाषा में कहें तो सामुदायिक भूमि के संसाधनों का उपयोग हर समुदाय के सदस्य करते हैं और उन्हें कोई भी केवल अपनी व्यक्तिगत संपत्ति के रूप में नहीं रख सकता। वैसे, भारत में साल 1998 के बाद से सामुदायिक भूमि के बारे में जानकारी को लेकर बहुत सारे मत और विचार हैं। साल 1998-99 में इन भूमि संसाधनों का आखिरी व्यापक मूल्यांकन किया गया था। तब से अब तक 25 साल बीत चुके है और सार्वजनिक भूमि की वर्तमान स्थिति पर कोई ताजा डेटा तैयार नहीं हुआ है, जो चिंता का विषय है।
भारत में कॉमन्स देश की कुल भूमि का लगभग पांचवां हिस्सा हैं और ये ग्रामीणों की आजीविका और पर्यावरण का संतुलन बनाए रखने में बहुत अहम हैं।
वैसे इतिहास में झांके, तो सामुदायिक भूमि को आधिकारिक पहचान देने वाले गंभीर प्रयासों के उदाहरण कम ही देखने को मिलते हैं। ब्रिटिश शासन के दौरान भारत में सामुदायिक संसाधनों पर नियंत्रण को कमजोर किया गया। भारत के औपनिवेशिक काल (1858 से 1947 तक) में भूमि का संकुचन और निजी संपत्ति अधिकारों का विस्तार होना शुरू हुआ। इस कारण सार्वजनिक भूमि को निजी भूमि से अलग किया गया और औपनिवेशिक ब्रिटिश सरकार ने इन पर कब्जा कर लिया। सरकार ने भूमि को राज्य संपत्ति घोषित किया और राजस्व विभाग के तहत इसका अधिग्रहण किया गया। खासतौर पर गांवों के पास की वो भूमि, जो पहले सार्वजनिक संसाधन के रूप में ग्रामवासियों के लिए चराई और दूसरे कामों के लिए उपलब्ध थी, वह अब राज्य की संपत्ति बन गई। इसी दौरान पहले भारतीय वन अधिनियम 1865 के माध्यम से जंगलों और बंजर भूमि को “सुरक्षित जंगलों” के रूप में राज्य संपत्ति घोषित किया गया। इसने आदिवासी और ग्रामीण समुदायों के जंगलों के अधिकार छीन लिए। जैसे गुजरात की नायक व्यवस्था या दक्षिण भारत की फालो भूमि प्रबंधन व्यवस्था को नजरअंदाज कर दिया गया। हालांकि, जंगलों को राज्य संपत्ति में बदलना एक प्रकार से कॉमन्स संसाधन का व्यवसायीकरण किए जाने जैसा ही था।
अब अगर न्यायिक दृष्टिकोण से देखें, तो भारत के संविधान का अनुच्छेद 39(बी) कहता है कि, “समाज के भौतिक संसाधनों का स्वामित्व और नियंत्रण इस प्रकार किया जाना चाहिए कि यह समाज के सर्वोत्तम भले के लिए काम करे।” यह बात अलग है कि यह अनुच्छेद न्यायिक रूप से लागू नहीं हुआ, पर फिर भी भारत को एक कल्याणकारी राज्य (वेलफ़ेयर स्टेट) बनाने की अवधारणा को मजबूत करने के तौर पर काम आता रहा है। वैसे न्याय की किताब से हटकर सार्वजनिक विश्वास सिद्धांत भी कहता है कि राज्य को प्राकृतिक संसाधनों का पूर्ण स्वामी नहीं बल्कि केवल एक संरक्षक माना जाता है। यह सिद्धांत सुनिश्चित करता है कि राज्य संसाधनों का उपयोग जनहित में करे। सार्वजनिक भूमि की पहचान, उसके उपयोग और दुरुपयोग को लेकर कई मामले न्यायलय तक भी जा चुके है। इसमें सबसे चर्चित मामला साल 2011 में आया था। सर्वोच्च न्यायालय ने साल 2011 में एक सिविल अपील (जगपाल सिंह बनाम पंजाब राज्य और अन्य) में अपने फैसले में आदेश दिया कि सभी राज्य सरकारों को गांव की आम जमीनों पर अवैध अनधिकृत कब्जाधारियों को बेदखल करने की योजना तैयार करनी चाहिए और गांव के आम इस्तेमाल के लिए इन्हें ग्राम सभा/ग्राम पंचायत को वापस करना चाहिए।
इस आदेश के संदर्भ में देखें तो सार्वजनिक भूमि प्रबंधन में पंचायतों की भूमिका को अहम माना जाना चाहिए। 73वें संविधान संशोधन के बाद, पंचायती राज संस्थाओं को गांवों की सार्वजनिक भूमि की रक्षा और प्रबंधन की जिम्मेदारी दी गई है। इसके तहत भूमि सुधार, जल प्रबंधन, जल संग्रहण, क्षेत्र विकास, सामाजिक कल्याण और सामुदायिक संपत्तियों के रखरखाव जैसे विषयों की देखरेख पंचायतों को सौंपी गई है। इसके बावजूद राज्य के राजस्व विभाग और वन विभाग ही सार्वजनिक भूमि प्रबंधन करते हैं। अगर सभी संस्थाएं अपनी जिम्मेदारी सही तरीके से निभाएं, तो सार्वजनिक भूमि पर अतिक्रमण और कृषि भूमि का वाणिज्यीकरण जैसे मसले होने ही नहीं चाहिए।
3. क्या हैं कॉमन्स (सामूहिक संसाधनों) के प्रबंधन से जुड़ी चुनौतियां?
सरकारी आंकड़ों में सामान्य जमीनों के लिए कोई स्पष्ट श्रेणी या समेकित डेटा नहीं है, जिससे इनका सही आकलन मुश्किल हो जाता है। मसलन, 2011 की जनगणना के मुताबिक भारत में 205 मिलियन एकड़ कॉमन लैंड है, जबकि आर्थिक और सांख्यिकी निदेशालय के आंकड़े इसे 310 मिलियन एकड़ तक बताते हैं। ‘वन’ श्रेणी की अलग-अलग परिभाषाओं ने इन आंकड़ों के बीच बड़ा अंतर पैदा कर दिया है। खास बात यह है कि भारत में सामान्य जमीनों की आखिरी समीक्षा 1998 में हुई थी। तब से अब तक कोई नया आकलन नहीं हुआ, जिससे इनके मौजूदा हालात को समझना और भी मुश्किल हो गया है। इसी कमी ने कमजोर नीतियों, बढ़ते विवादों और सरकारी निगरानी की कमी को जन्म दिया है।
ये खामियां सिर्फ आंकड़ों तक सीमित नहीं हैं। इनसे सामुदायिक संसाधनों के प्रबंधन में गहरी प्रशासनिक चुनौतियां खड़ी हो जाती हैं। मंशा भले अच्छी हो, लेकिन जमीन पर संसाधनों की देखरेख अक्सर खराब ही होती है। इस समस्या को तीन प्रमुख पहलुओं के माध्यम से समझा जा सकता है—
1. पैमाने का असंगत होना
सामूहिक संसाधनों और उन्हें नियंत्रित करने वाले प्रशासनिक निकायों के बीच पैमाने का असंगत होना एक बड़ी समस्या है। उदाहरण के लिए, जिला स्तर के संसाधनों को अक्सर राष्ट्रीय स्तर की प्राधिकरणों द्वारा नियंत्रित किया जाता है।
उदाहरण – तटीय क्षेत्रों का मामला
भारत के तटीय क्षेत्रों में “तटीय नियमन क्षेत्र (सीआरजेड)” अधिसूचना के तहत बनाए गए मानचित्र अक्सर गांव-स्तर के विवरणों को नजरअंदाज कर देते हैं। इससे मछुआरा समुदाय अपने तटीय संसाधनों की पहचान और संरक्षण करने में असमर्थ रहता है। राज्य और जिला स्तर पर तैयार तटीय प्रबंधन योजनाओं में समुद्र तट, मछली पकड़ने के गांव और प्रवाल भित्तियों जैसे स्थानीय कारकों की अनदेखी की जाती है।
2. संस्थागत असंगतता
सामूहिक संसाधनों का प्रबंधन अक्सर ऐसे केंद्रीयकृत निकायों द्वारा किया जाता है, जो स्थानीय परिस्थितियों और समुदायों की वास्तविकताओं से दूर होते हैं।
उदाहरण – वन विभाग और स्थानीय समुदायों के बीच संघर्ष
उदाहरण के तौर पर, वन विभाग का संचालन शहरी केंद्रों से होता है और इसके कर्मचारी, जैसे वन रक्षक, स्थानीय वनों की सुरक्षा में व्यक्तिगत रूप से कम रुचि रखते हैं। “वन अधिकार अधिनियम (एफआरए)” के तहत सामूहिक अधिकारों को मान्यता देने की बजाय, यह अधिनियम अक्सर केवल व्यक्तिगत दावों को प्राथमिकता देता है।
3. प्रोत्साहन का असंतुलन
कई सह-प्रबंधन पहलों, जैसे संयुक्त वन प्रबंधन कार्यक्रम, में सामुदायिक संस्थाओं को प्रोत्साहन और स्वायत्तता की कमी रहती है।
उदाहरण – पंचायती राज संस्थाओं की सीमाएं
73वें संवैधानिक संशोधन के तहत पंचायतों को प्राकृतिक संसाधनों का प्रबंधन करने का अधिकार दिया गया। हालांकि, इन पंचायतों को न तो पर्याप्त बजटीय आवंटन मिलता है और न ही आवश्यक प्रशासनिक स्वतंत्रता। इसके अलावा, संसाधनों के स्वामित्व और रखरखाव का सही दस्तावेजीकरण सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक प्रशिक्षण की भी कमी है।
4. स्थानीय समुदायों की क्षमताओं पर संदेह
अगर समस्या की मूल जड़ पर गौर करें, तो यह शायद इस गहरी मानसिकता में छिपी हो सकती हैं कि स्थानीय समुदाय अपने मामलों को ठीक से नहीं संभाल सकते। इसके परिणामस्वरूप सरकारें या तो इन जमीनों को छोटे-छोटे टुकड़ों में बांटकर व्यक्तिगत स्वामित्व में दे देती हैं या फिर इन जमीनों के प्रबंधन को खुद अपने नियंत्रण में ले लेती हैं। ग्राम सभाओं और पंचायतों की भूमिका कमजोर होने से यह स्थिति और बिगड़ती है, जबकि वे कॉमन्स का प्रभावी प्रबंधन कर सकती हैं। आमतौर पर सामूहिक प्रबंधन की आलोचना की जाती है, लेकिन हम यह भी देखते हैं कि कई बार व्यक्तिगत स्वामित्व या सरकारी नियंत्रण में चलने वाली पहलें भी असफल हो जाती हैं।

ग्राम सभाओं की घटती भूमिका
झारखंड और ओडिशा के कुछ क्षेत्रों में पेसा अधिनियम (1996) के तहत ग्राम सभाओं को भूमि, वन और जल पर अधिकार दिए गए थे। लेकिन प्रशासनिक हस्तक्षेप और खनन गतिविधियों ने ग्राम सभाओं के अधिकार सीमित कर दिए, जिससे स्थानीय समुदायों का स्व-प्रबंधन कमजोर हो गया। इसी तरह कर्नाटक और तमिलनाडु में प्राचीन गांव-आधारित जल प्रबंधन प्रणाली (जैसे ‘कुण्ड’ और ‘एरी सिस्टम’) थी, जिसे स्थानीय समुदाय प्रबंधित करते थे। लेकिन सरकार के हस्तक्षेप के कारण ये पारंपरिक व्यवस्थाएं खत्म होती जा रही हैं।
भारत में सामुदायिक भूमि और संसाधनों के प्रबंधन में कई विशेष समस्याएं सामने आती हैं, जैसे कानूनी अधिकारों की अस्पष्टता और स्थानीय संस्थाओं की उपेक्षा। इन कारणों से दुरुपयोग और अतिक्रमण की घटनाएं बढ़ती हैं। वहीं राज्य व केंद्र स्तर की संस्थाओं द्वारा बनाई गई नीतियों में अक्सर स्थानीय समुदायों की जरूरतों और उनकी सहभागिता को नजरअंदाज किया जाता है।
आज के समय में सार्वजनिक भूमि की सही पहचान और उसके बेहतर प्रबंधन की आवश्यकता पहले से कहीं अधिक है। यह न केवल पर्यावरणीय स्थिरता के लिए जरूरी है, बल्कि सामाजिक कल्याण और कमजोर वर्गों की आजीविका को सुनिश्चित करने के लिए भी अनिवार्य है। इसके लिए मजबूत कानूनी और प्रशासनिक ढांचे के साथ-साथ सामुदायिक सहभागिता और पारदर्शिता का होना आवश्यक है।
सरकारी नीतियों और न्यायिक आदेशों के प्रभावी क्रियान्वयन के साथ-साथ स्थानीय समुदायों को निर्णय प्रक्रिया में शामिल करना और उन्हें जिम्मेदारी देना, इन संसाधनों के साझा उपयोग और संरक्षण के लिए महत्वपूर्ण कदम साबित हो सकता है। इस प्रकार सामुदायिक संसाधनों का कुशल प्रबंधन न केवल एक समृद्ध पर्यावरण, बल्कि एक न्यायपूर्ण और समावेशी समाज के निर्माण की दिशा में भी एक ठोस कदम होगा।
इस लेख को जूही मिश्रा और अंजलि मिश्रा ने तैयार किया है, जिसमें अश्विनी छत्रे के साथ-साथ कांची कोहली और जगदीश राव पुप्पाला के सुझाव शामिल हैं, जो कॉमन ग्राउंड पहल का हिस्सा हैं।
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