भारतीय वन अधिकार अधिनियम, जंगलों पर आश्रित लगभग 15 करोड़ लोगों, चार करोड़ हेक्टेयर जमीन और 1,70,000 गांवों को प्रभावित करता है। आदिवासियों और जंगलों पर आश्रित उन सभी समुदायों के लिए यह एक महत्वपूर्ण कानून है, जो उपनिवेशी दौर में अपनी जमीनों से बेदखल कर दिए गए थे। लेकिन कई मीडिया रिपोर्ट्स बताती हैं कि इस कानून को पूरी तरह लागू किया जाना अभी बाकी और इसमें कई व्यवस्था संबंधी चुनौतियां हैं।
इस आलेख में हम वन अधिकार अधिनियम, इसकी जरूरत, वन समुदायों को इससे मिलने वाले लाभ और इसकी सफलता में आड़े आ रही कमियों पर बात कर रहे हैं।
वन अधिकार अधिनियम क्या है?
अनुसूचित जनजाति और अन्य परम्परागत वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम, 2006 या वन अधिकार अधिनियम (एफआरए), साल 2008 में लागू किया गया था। यह कानून उन आदिवासी और वनवासी समुदायों को उनके पारंपरिक वन अधिकार सौंपता है, जो पीढ़ियों से जंगलों में रहकर वहां खेतीबाड़ी और संरक्षण करते रहे हैं। इस अधिनियम के तहत वन भूमि पर उनका अधिकार भी शामिल है।
जंगलों में रहने वाली वे अनुसूचित जनजातियां वन अधिकार के लिए दावा कर सकती हैं जो जंगलों की मूल निवासी हों और अपनी आजीविका के लिए उन पर निर्भर हों। यह दावा करने के लिए किसी व्यक्ति या समुदाय का 13 दिसंबर, 2005 से पहले कम से कम तीन पीढ़ियों (75 वर्ष) से वन-निवासी होना अनिवार्य है।
यह अधिनियम तीन प्रकार के वन अधिकारों को मान्यता देता है: व्यक्तिगत वन अधिकार (आईएफआर), सामुदायिक वन अधिकार (सीएफआर), और सामुदायिक वन संसाधन अधिकार (सीएफआरआर)।
व्यक्तिगत वन अधिकार के तहत, किसी व्यक्ति और परिवार को वन भूमि पर खेती और निवास का अधिकार मिलता है। सामुदायिक वन अधिकार के तहत, समुदाय परंपरागत सामुदायिक संसाधनों और लघु वनोत्पाद जैसे बांस, शहद, तेल (वुड ऑयल) और महुआ वगैरह प्राप्त कर सकते हैं। इसमें चराई, मछली पकड़ने और जल स्रोतों तक पहुंच के अधिकार भी शामिल होते हैं। साथ ही, सीएफआर में विशेष रूप से पिछड़े आदिवासी समुदायों के लिए आवास और चरवाहा व घुमंतू समुदायों के लिए पारंपरिक मौसमी संसाधनों तक पहुंच के अधिकार का भी प्रावधान है। इसके अलावा, सीएफआर पीढ़ी दर पीढ़ी चले आ रहे पारंपरिक अधिकारों को भी मान्यता देता है। यानी वे अधिकार भी इसके अंतर्गत आते हैं, जो रिवाजों में तो हैं लेकिन उनका कोई लिखित कानून नहीं हैं। ये रिवाज आमतौर पर जंगलों की रक्षा, उनके पुनर्जनन, संरक्षण और प्रबंधन से संबंधित होते हैं जो लंबे समय तक जंगलों का अस्तित्व बनाए रखने और उनके उपयोग के लिहाज से जरूरी होते हैं। यह समुदाय को विकास से जुड़े उद्देश्यों जैसे स्कूल, स्वास्थ्य केंद्र और सामुदायिक भवन या फिर कब्रिस्तान और श्मशान घाट के लिए वन भूमि का इस्तेमाल करने का अधिकार भी देता है।
सामुदायिक वन संसाधन अधिकार, सीएफआर से एक कदम आगे बढ़कर, जंगल विभाग की बजाय ग्राम पंचायत को जंगल से जुड़े अधिकारों का प्रबंधन करने की जिम्मेदारी देता है। इन प्रावधानों का उद्देश्य वन समुदायों के अधिकारों को सुनिश्चित करना और उन्हें विस्थापन से बचाना है।
एफआरए इन समुदायों के लिए एक महत्वपूर्ण कानूनी साधन है क्योंकि ऐतिहासिक रूप से, अंग्रेजी राज में और यहां तक कि आजादी के बाद भी, इन्हें अन्याय और अधिकारों के हनन का सामना करना पड़ा है। इस दौरान जंगलों का बुरी तरह दोहन किया गया। यह अधिनियम आदिवासी अधिकारों को मान्यता देकर जंगलों के प्रबंधन और सुरक्षा को सुनिश्चित करने का प्रयास करता है।
वन अधिकार अधिनियम की जरूरत क्यों थी?
भारत में अंग्रेजों के शासन के दौरान, आदिवासी और अन्य वन निवासियों की वन-प्रबंधन क्षमता पर अविश्वास और एक ‘वैज्ञानिक’ प्रबंधन व्यवस्था के गठन के लिए, एक केंद्रीकृत वन-प्रबंधन व्यवस्था बनाई गई थी। अंग्रेजों ने 1864 में इंपीरियल फ़ॉरेस्ट डिपार्टमेंट बनाया था और 1865 में भारतीय वन अधिनियम लागू किया गया। यह कानून तब स्थानीय सरकार को किसी भी जंगली इलाके को सरकारी जंगल घोषित करने का अधिकार देता था। साल 1878 में भारतीय वन अधिनियम में संशोधन कर जंगलों को आरक्षित वन (पूरी तरह से सरकारी नियंत्रण), संरक्षित वन (आंशिक रूप से सरकारी नियंत्रण) और ग्रामीण वनों (गांवों से जुड़े या आसपास के गांवों द्वारा नियंत्रित) में बांट दिया गया, जिससे सभी समुदाय अलग-थलग पड़ गये। स्थानीय खेतिहर कामों, जैसे चराई और झूम खेती को प्रतिबंधित कर दिया गया। आदिवासी समुदायों, जो नैतिकतापूर्ण तरीकों से जंगलों का इस्तेमाल कर रहे थे और लंबे समय से भोजन, ईंधन, दवाओं और आजीविका के लिए उन पर आश्रित थे, के जंगलों में प्रवेश को प्रतिबंधित कर दिया गया। इस दौरान, अंग्रेजी शासन ने अपने व्यावसायिक फायदों के लिए जंगलों की अंधाधुंध कटाई की। हालात यह थे कि साल 1878 में सरकारी जंगलों का जो क्षेत्रफल 14,000 वर्गमील था, वह 1890 में बढ़कर 76,000 वर्गमील हो गया, जिसका दो तिहाई हिस्सा आरक्षित वन इलाका था।
साल 1927 में अधिनियम में एक और संशोधन किया गया, जिसके बाद आदिवासी समुदायों को सरकार द्वारा अनुचित माने जाने वाले कामों के लिए दंडित किया जाने लगा। मसलन, अगर वे सरकार की इजाजत के बगैर जंगली इलाको में रहते हैं तो उन्हें उनकी ही जमीन पर गैर-कानूनी अतिक्रमण करने वाला कहा गया। साथ ही, अधिनियम में कहीं पर भी ‘संरक्षण’ शब्द का जिक्र नहीं किया गया था।
आजादी के बाद का शासन अपनी तरह की चुनौतियां लेकर आया। स्वतंत्र भारत में भी अंग्रेजों द्वारा बनाए गए दमनकारी वन कानूनों को जारी रखा गया। लेकिन वनों की कटाई को लेकर बढ़ती चिंता के चलते वन संरक्षण अधिनियम, 1980 लाया गया। इसके जरिए खनन, उद्योग और इंफ़्रास्ट्रक्चर जैसे उद्देश्यों के लिए वन भूमि के इस्तेमाल को रोका गया। ऐसे किसी भी इस्तेमाल के लिए पहले केंद्र सरकार की अनुमति को अनिवार्य किया गया।
जब वन निवासी समुदायों की जमीनें वन से संबंध न रखने वाली गतिविधियों के लिए ली जाने लगीं तो उनका विस्थापन बिना रुकावट होता। नतीजतन, समुदायों को विस्थापन, बेदखली, अभियोग और अपराधीकरण का सामना करना पड़ा और जमीन पर उनके अधिकार प्रतिबंधित कर दिए गए। वन संरक्षण से जुड़े उनके गहन ज्ञान या उनके लिए वनों के सांस्कृतिक महत्व पर कोई विचार नहीं किया गया।/ जैसे-जैसे वन निवासी समुदायों की जमीन को गैर-वन उद्देश्यों के लिए छीना गया, उनका विस्थापन लगातार जारी रहा। इसका नतीजा यह हुआ कि इन समुदायों को न सिर्फ उनकी जमीन से उजाड़ा गया, बल्कि उन पर मुकदमे चले, उन्हें अपराधी बनाया गया और उनसे उनकी जमीन पर अधिकार लगभग छीन लिए गए। न तो जंगलों को संरक्षित रखने के उनके पारंपरिक ज्ञान को महत्व दिया गया, न ही जंगलों से जुड़ी उनकी सांस्कृतिक विरासत को समझा गया।
यह कानून पहले स्थानीय सरकार को किसी भी जंगली इलाके को सरकारी जंगल घोषित करने का अधिकार देता था।
इसी तरह, वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम, 1972 लागू किया गया जो जंगली जानवरों के शिकार, तस्करी और अवैध व्यापार पर रोक लगाता है। इसके तहत वन्यजीव अभयारण्यों और राष्ट्रीय उद्यानों जैसे संरक्षित क्षेत्रों का निर्माण किया गया। इन्हें मानव मुक्त क्षेत्र बनाने के लिए, यहां से भी आदिवासियों और अन्य वन समुदायों को पर्याप्त पुनर्वास और पुर्नस्थापन के बगैर ही बेदखल कर दिया गया।
इस अन्याय के खिलाफ आदिवासियों और वन-निवासी समुदायों ने कई विद्रोह और आंदोलन किए है। इनमें मुख्य रूप से मुंडा विद्रोह, कोया विद्रोह, संथाल विद्रोह और नर्मदा बचाओ आंदोलन शामिल हैं।
इस कड़ी का एक अहम पड़ाव मई 2002 में आया, जब भारत के पर्यावरण और वन मंत्रालय ने राज्य सरकारों को एक निर्देश जारी कर वन भूमि से अतिक्रमण हटाने के लिए कहा। मंत्रालय के निर्देश में वन निवासियों के ‘गैर-कानूनी अतिक्रमण’ को वन्यजीव इलाकों और वन संरक्षण के लिए खतरा बताया गया था। आठ राज्यों के वन क्षेत्रों में अतिक्रमण का अनुमानित क्षेत्रफल 12,50,000 हेक्टेयर था। इस आदेश के चलते बड़े पैमाने पर समुदायों को जंगलों से बेदखल किया गया, जिससे लाखों लोग विस्थापित हुए। इस बेदखली के लिए केंद्र सरकार ने एक सेंट्रल इम्पॉवर्ड कमेटी (सीईसी) बनाई जिसमें कई संरक्षणवादी शामिल थे, लेकिन आदिवासी समुदायों का कोई प्रतिनिधित्व नहीं था।
कैंपेन फ़ॉर सर्वाइवल एंड डिग्निटी (सीएसडी) के नेतृत्व में हुई आमजन की प्रतिक्रिया और लामबंदी ने आदिवासी अधिकारों के लिए आवाज उठाने की शुरूआत की। 2004 की शुरूआत में, पर्यावरण और वन मंत्रालय ने बेदखली आदेश को वापस लेने और आदिवासी भूमि अधिकारों की मान्यता को समर्थन देने वाला एक नोटिस जारी किया। कुछ समय बाद, जनजातीय मामलों के मंत्रालय को वन अधिकारों को मान्यता देने वाले कानून का मसौदा तैयार करने का ज़िम्मा सौंपा गया, जिसके चलते वन अधिकार अधिनियम, 2006 अस्तित्व में आया। इस कानून का उद्देश्य वन निवासी समुदायों के पारंपरिक भूमि अधिकारों को मान्यता देना था। यह उन्हें अतिक्रमणकारी की तरह देखे जाने की बजाय भूमि पर उनके पुश्तैनी अधिकार को स्वीकृति की ओर ले जाने वाला बदलाव था।

वन अधिकार अधिनियम को लागू किया जाना एक चुनौती क्यों हैं?
एफआरए लागू किए जाने के बाद भी भारतीय वन अधिनियम, 1927; वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम, 1972; और वन संरक्षण कानून, 1980 के कानूनी ढांचे में कोई बदलाव नहीं किया गया। यही कानून वन निवासी समुदायों के साथ हुए ऐतिहासिक अन्याय के लिए जिम्मेदार रहे हैं। एफआरए को सहजता से लागू किया जा सके, इसके लिए भी इन कानूनों में किसी संशोधन या समन्वय के प्रयासों पर विचार नहीं किया गया।कानून के स्तर पर यह अनिश्चितता संस्थागत या प्रशासनिक स्तर पर चुनौतियों की वजह बनती है, क्योंकि वन विभाग पुराने कानूनों का पालन करता दिखाई देता है। अंग्रेजी राज की तरह, आज भी इस बात को लेकर अविश्वास जताया जाता है कि वन निवासी समुदाय जंगलों का संरक्षण, सुरक्षा, प्रबंधन और पुनर्जनन करने में सक्षम हैं या नहीं। इसलिए ग्रामीणों को उनके वन अधिकारों की जानकारी देने के लिए उतने प्रयास नहीं किए जाते हैं, जितनी जरूरत है।
अपने अधिकारों के लिए दावे दायर करने के बाद भी समुदायों को फैसले के लिए सालों का इंतजार करना पड़ता है। दस्तावेजों की अनिवार्यता के चलते दावा प्रक्रिया भी जटिल है। इस पर, लोगों को कई बार इस बात का पता ही नहीं चल पाता है कि उनका दावा खारिज कर दिया गया है। यह जानकारी उन तक पहुंचाया जाना जरूरी है, ताकि वे दोबारा दावा कर पायें। अधिकांश दावा खारिज किए जाने का कारण भी नहीं बताया जाता है। जिन मामलों में लोगों को भूमि अधिकार मिलते भी हैं, उनमें आवंटित क्षेत्र अक्सर उनकी मांग से कम होता है और अमूमन आजीविका के लिए भी पर्याप्त नहीं होता है।
ग्रामीणों को उनके वन अधिकारों की जानकारी देने के लिए उतने प्रयास नहीं किए जाते हैं, जितनी जरूरत है।
स्थानीय सरकारें भी अपनी शक्तियों का पूरा इस्तेमाल नहीं कर पाती हैं। ग्राम सभाओं को वन अधिकारों की प्रक्रिया शुरू करने का अधिकार दिया गया है। ऐसा करने का उद्देश्य वन शासन को विकेंद्रीकृत करना था। ग्राम सभा एक प्रतिनिधि वन अधिकार समिति (एफआरसी) बनाती है, जिसमें दो-तिहाई आदिवासी और एक-तिहाई महिलाएं होती हैं। यह समिति दावों को प्राप्त कर उन्हें इकट्ठा करती है, सत्यापित करती है और उनका नक्शा तैयार करती है। इसके बाद, दावों को सब-डिवीजनल स्तर की समिति (एसडीएलसी) के पास भेजा जाता है, जहां से यह राज्य स्तरीय समिति के पास पहुंचता है। हालांकि यह तीन-स्तरीय प्रक्रिया नीचे से ऊपर की ओर (बॉटम-अप) फैसले लेने की सोच पर आधारित है। इसमें ग्राम सभा को निर्णय लेने वाली प्रमुख संस्था माना गया है। लेकिन जमीनी हकीकत कुछ और ही है। जिला और वन विभाग के अधिकारी अधिकांश ऊपर से थोपे गए (टॉप-डाउन) निर्णयों की शैली अपनाते हैं, जिसमें ग्राम सभा की भूमिका सीमित हो जाती है और सारा नियंत्रण उनके हाथ में रहता है।
हालांकि व्यक्तिगत और सामुदायिक दोनों प्रकार के वन अधिकारों की दावों की स्वीकृति दर अब भी बेहद कम है, लेकिन सामुदायिक अधिकारों को विशेष रूप से इसका नुकसान उठाना पड़ता है। वन संबंधी नौकरशाही इन्हें पारंपरिक वन प्रबंधन पर अपनी पकड़ कम होने के रूप में देखती है। इसलिए अधिकांश खनन पट्टों या खनिजों के दोहन जैसे राजस्व से जुड़े हित सामुदायिक अधिकारों पर भारी पड़ते हैं।
अलग-अलग राज्यों में कानून का लागू होना और उसके बाद मिलने वाले अधिकार भी अलग–अलग दिखाई देते हैं। कुछ राज्यों का व्यक्तिगत (आईएफआर) और सामुदायिक (सीएफआर) वन अधिकारों को मान्यता देने का रिकॉर्ड बेहद कमजोर रहा है, जबकि कुछ राज्य इन दोनों में से किसी एक क्षेत्र में बेहतर प्रदर्शन करते हैं। एफआरए को लेकर सबसे खराब प्रदर्शन करने वाले राज्यों में बिहार, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश और तमिलनाडु शामिल हैं। वहीं, ओडिशा, छत्तीसगढ़ और महाराष्ट्र सबसे बढ़िया प्रदर्शन करने वाले राज्य हैं, जिनमें से महाराष्ट्र सबसे अधिक सीएफआर टाइटल देने वाला राज्य है।
उत्तर-पूर्वी भारत के सभी राज्यों में एफआरए मान्य है, लेकिन इसे केवल दो राज्यों, असम और त्रिपुरा में लागू किया गया है। कानून लागू ना किए जाने की एक वजह यह है कि कई उत्तर-पूर्वी राज्यों में भूमि एक ऐसा संसाधन है जिसका प्रबंधन समुदाय करता है और जमीन पर लोगों के अधिकार को अन्य तरीकों से मान्यता दी जाती है। उदाहरण के लिए, नागालैंड और मिज़ोरम को, क्रम से अनुच्छेद 371ए और 371जी के जरिए विशेष प्रावधानों की गारंटी दी गई है। इन दोनों राज्यों के मामलों में विधानसभा के पास अधिकार है कि वे एफआरए लागू करना चाहते हैं या नहीं। मिज़ोरम ने 2009 में एफआरए लागू किया था, लेकिन 2019 में वापस ले लिया। वहीं नागालैंड ने एक कमेटी बनाई था, लेकिन अभी तक इस पर कोई फ़ैसला नहीं लिया गया है।
इन तमाम चुनौतियों के बीच वन (संरक्षण) संशोधन अधिनियम, 2023 के कारण भी एफआरए पर संशय की स्थिति बनी हुई है।
वन (संरक्षण) संशोधन अधिनियम, 2023 एफआरए को कैसे प्रभावित कर रहा है?
वन संरक्षण अधिनियम,1980 में 2023 में किया गया संशोधन (एफसीएए), एफआरए की प्रभावशीलता को कम करता है। यह संरक्षण को उन अधिसूचित वनों तक सीमित करता है, जो 25 अक्टूबर, 1980 या उसके बाद सरकारी दस्तावेजों में दर्ज हैं। इसका मतलब है कि वे जंगल जो सरकारी दस्तावेजों में दर्ज नहीं हैं, वे संरक्षण के दायरे में नहीं आते हैं। इसलिए उनका उपयोग प्लांटेशन, इंफ्रास्ट्रक्टर और अन्य व्यावसायिक उद्देश्यों के लिए किया जा सकता है, जो सीधे तौर पर उस इलाके में रहने वाले समुदायों को प्रभावित करेगा। यह सुप्रीम कोर्ट के 1996 गोदावर्मन फैसले के निर्देशों के खिलाफ है। इस फैसले में सरकारी रिकॉर्ड में दर्ज न किए गए जंगलों को भी शामिल किया गया था।
इसके अलावा, एफआरए विकास परियोजनाओं के लिए वन भूमि के इस्तेमाल में ग्राम सभाओं की सहमति को अनिवार्य बनाता है। लेकिन एफसीएए 2023 के तहत, ‘वन’ मानी जाने वाली भूमि के घटे हुए दायरे के परिणामस्वरूप कुछ प्रोजेक्ट्स इन प्रावधानों को नजरअंदाज कर सामुदायिक राय और सहमति को दरकिनार कर सकते हैं।
इस अधिनियम में यह प्रावधान भी है कि अंतरराष्ट्रीय सीमाओं से 100 किलोमीटर के दायरे में आने वाली भूमि को संरक्षण नियमों से छूट दी जाएगी। इससे उत्तर-पूर्वी राज्यों के वनक्षेत्र पर खासतौर पर प्रभाव पड़ेगा। चूंकि यह सीमा अधिकांश क्षेत्र को कवर करती है, इसलिए सिक्किम, जहां 47 प्रतिशत क्षेत्र वनाच्छादित है, और उत्तराखंड, जहां 45 प्रतिशत भूभाग पर जंगल हैं, जैसे राज्य भी इससे प्रभावित होंगे।
इस आलेख को सृष्टि गुप्ता और जैस्मीन बल ने रमेश शर्मा, वैभव पांडा, और कुमार संभव के सुझावों के साथ तैयार किया है।
इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ें।
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