दुनिया में हज़ारों काम हैं – कोई कोडिंग कर रहा है, कोई स्टार्ट-अप चला रहा है, तो कोई ट्रैफिक में फंसा सोच रहा है कि उसने एमबीए क्यों किया? और, फिर आते हैं विकास सेक्टर की नाव में सवार पेशेवर। इसलिए हमने बात की एक ऐसे जमीनी कार्यकर्ता से, जो दिनभर फील्ड में दौड़ते हैं, मीटिंग में सिर धुनते हैं और फिर प्रोग्राम लीड की डांट खाकर सो जाते हैं। ज्यादातर इनके साथ होता यह है कि ये जो बात सचमुच बोलना चाहते हैं, उसके अलावा सब-कुछ बोल सकते हैं। इसलिए इन्होंने बातचीत का एक नया तरीका ईजाद किया है। अब ये हर र सवाल का जवाब सिर्फ़ किसी मशहूर शायर के शेर से देते हैं। पेश है इस शायर कार्यकर्ता से आईडीआर की एक्सक्लूसिव बातचीत के कुछ अंश:
आईडीआर:
कितनी तरह के काम हैं, रोज़गार हैं दुनिया में। लेकिन आपने विकास सेक्टर को ही क्यों चुना?
कार्यकर्ता:
बात है रास्ते पे जाने की
और जाने का रास्ता ही नहीं (जौन एलिया)
आईडीआर: फील्ड में कई बार सुबह से कब शाम हो जाती है, ये पता ही नहीं चलता। इस दौड़-धूप के बारे में क्या कहना चाहेंगे?
कार्यकर्ता:
शाम भी ढल रही है घर भी है दूर
कितनी देर और मैं रुकूं साहब (जावेद अख्तर)
आईडीआर: सारे समीकरणों के बाद जब ज़मीन पर आखिरकार आपका ही आईडिया काम आता है, तो आपको कैसा लगता है?
मशवरा लेने की नौबत ही नहीं आ पाती
एक से एक समझदार पड़ा है मुझ में (अंजुम सलीमी)
आईडीआर: आपका काम जलवायु पर है। समुदाय को जलवायु-परिवर्तन जैसे जटिल मुद्दे कैसे समझाते हैं?
कार्यकर्ता:
मौसम की मनमानी है आंखों-आंखों पानी है
साया-साया लिख डालो दुनिया धूप कहानी है (राहत इंदौरी)
आईडीआर: कैसा लगता है जब पूरे दिन की मेहनत के बाद भी प्रोग्राम लीड से डांट खानी पड़ जाती है?
कार्यकर्ता:
ग़लत बातों को ख़ामोशी से सुनना हामी भर लेना
बहुत हैं फ़ाएदे इस में मगर अच्छा नहीं लगता (जावेद अख्तर)
आईडीआर: आपको कैपेसिटी बिल्डिंग या किसी प्रशिक्षण के लिए शहर भी भेजा जाता है, उसके बारे में कुछ बताइए।
कार्यकर्ता:
जहां कमरों में कैद हो जाती है ज़िंदगी
लोग उसे बड़ा शहर कहते हैं (अज्ञात)
आईडीआर: जब फंड आते हैं और खत्म हो जाते हैं, पर उनकी जरूरत खत्म नहीं होती है, इस पर आपका क्या कहना है?
कार्यकर्ता:
कौन इस घर की देख-भाल करे
रोज इक चीज टूट जाती है (जौन एलिया)
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