पुराने डेटा के आधार पर हो रहा है भोजन के अधिकार का फ़ैसला

मार्च 2022 में मेरी बात राजस्थान के सिरोही ज़िले के पिंडवारा गांव के भरत कुमार से हुई। उनसे बात करके मैंने जाना कि उन्हें राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम (नेशनल फ़ूड सिक्योरीटी एक्ट या एनएफ़एसए) 2013 के तहत मिलने वाला अनाज नहीं मिल पाता है। भरत ने बताया कि हक़दारों की सूची में उनका और उनके परिवार के सदस्यों का नाम शामिल करवाने के लिए उन्होंने कई आवेदन दिए लेकिन हर बार उनका आवेदन अस्वीकृत हो गया।

इस समस्या से निपटने के लिए भरत ने राजस्थान सम्पर्क में एक शिकायत दर्ज करवाई। राजस्थान सम्पर्क जवाबदेही आंदोलन के माध्यम से नागरिकों के लिए राज्य सरकार के पास अपनी शिकायतें दर्ज कराने के लिए एक केंद्रीकृत पोर्टल है। सिरोही के खाद्य और नागरिक आपूर्ति विभाग के इंफ़ोर्समेंट इंस्पेक्टर ने शिकायत के जवाब में कहा कि राज्य के एनएफ़एसए सूची में नए नामों को जोड़ने के लिए प्रयोग किया जाने वाला पोर्टल बंद था। पोर्टल के बंद होने के कारण ही भरत के मामले में उपयुक्त कार्रवाई करना सम्भव नहीं था।

असंतोषजनक जवाब मिलने के कारण शिकायत को आगे विभाग के ज़िला आपूर्ति अधिकारी (डीएसओ) के पास भेजा गया। डीएसओ के जवाब में यह कहा गया था कि विभाग की नीति के अनुसार खाद्य सुरक्षा सूची में नए नामों को जोड़ने पर रोक लगी थी जिसके कारण भरत के मामले में कार्रवाई असम्भव थी। डीएसओ ने अपने जवाब में एक नोटिस का संदर्भ दिया था। इस नोटिस में कहा गया था कि राजस्थान में, भारत सरकार एनएफएसए के तहत अधिकतम 4.46 करोड़ लोगों को अधिकार प्रदान करती है और किसी भी नए आवेदन को इस समय स्वीकार नहीं किया जा रहा है। यह मामला पोर्टल के ‘तकनीकी’ कारणों से बंद होने के मुद्दे से बिल्कुल भिन्न था।

भोजन का अधिकार संवैधानिक अधिकार होने के बावजूद एनएफएसए सूची में नए नाम नहीं जोड़ने का कारण यह है कि राज्य को 2011 की जनगणना के जनसंख्या आंकड़ों के आधार पर केंद्र द्वारा खाद्यान्न आवंटित किया जाता है। यह डेटा 10 वर्ष से अधिक पुराना है। और वर्तमान जनसंख्या अनुमानों के तहत राजस्थान में लगभग 54 लाख लोग एनएफएसए के तहत मिलने वाले लाभों से वंचित हैं। वास्तव में यह स्थिति भोजन के अधिकार की गारंटी देने वाले राष्ट्रीय कानून और कई न्यायिक निर्णयों का उल्लंघन करती है।

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मज़बूत एनजीओ बनाने के लिए पे व्हाट इट टेक्स 

एनजीओ की प्रशासनिक और प्रबंधन से जुड़ी फंडिंग में लगातार आ रही कमी, उनके विकास और अधिक से अधिक समुदायों की सेवा करने की क्षमता पर एक रुकावट की तरह है। जैसा कि दसरा में साधन निर्माण के भूतपूर्व निदेशक अनंत भगवती ने कहा, ‘प्रबंधन लागत के क्षेत्र में एनजीओ के लिए फंडिंग का अभाव है।’

एनजीओ क्षेत्र से जुड़े अनेक प्रमुख लोगों से विचार-विमर्श करने के बाद हमने जाना कि अनेक निवेशक इस बात से डरते हैं कि उनके द्वारा किए गए निवेश को अगर उसी कार्यक्रम तक सीमित नहीं रखा गया जिसके लिए उन्होंने निवेश किया है तो उसका परिणाम अच्छा नहीं आ पाएगा। लेकिन अनेक एनजीओ के उदाहरणों से यह बात ग़लत साबित हो जाती है। उनके अनुभवों से यह पता चला है कि कुछ ऐसे ज़रूरी खर्चे जो कार्यक्रम की लागत का हिस्सा नहीं होते, जैसे कि रणनीति, नेतृत्व विकास और वित्तीय प्रबंधन, इनके लिए पर्याप्त धनराशि वास्तव में समाज में उनके योगदान में अत्यधिक लाभकारी हैं, और इससे ऐसी संस्थाओं का निर्माण होता है जो विपरीत परिस्थितियों में भी समुदाय और समाज की सेवा करने में सक्षम होते हैं।  

क्वालिटी एजुकेशन सपोर्ट ट्रस्ट (क्वेस्ट)—बच्चों की प्रारम्भिक शिक्षा पर केंद्रित एनजीओ ऐसा ही एक उदाहरण है। यह संस्था 13 वर्षों में, एक छोटी ग्रासरूट संस्था से महाराष्ट्र के 24 जिलों में 2,60,000 से अधिक सुविधाहीन बच्चों को शिक्षा संपन्न बनाने वाले सफल स्टार्ट-अप के रूप में विकसित हुई है। क्वेस्ट के संस्थागत साधन निर्माण में अगर निवेशकों ने निवेश नहीं किया होता तो क्वेस्ट के लिए इस स्तर पर सफलता प्राप्त करना संभव नहीं हो पाता। 

एक एनजीओ के लीडर के अनुसार कार्यक्रम के अलावा निवेश नहीं मिल पाने के कारण, यह कोई आश्चर्य नहीं है कि स्वयंसेवी संस्थाएँ वांछित से कम स्तर (‘सब-स्केल’) पर काम करने के लिए मजबूर हैं। धन की कमी तीन गैर-कार्यक्रम श्रेणियों पर प्रभाव डालती हैं:

कई भारतीय निवेशक जिसे ‘साक्ष्य की गंभीर कमी’ कहते हैं, वह फंडिंग प्रथाओं में बदलाव के पैरोकारों के लिए भी बड़ी बाधा रही है। इस कमी को दूर करने के लिए, द ब्रिजस्पैन ग्रुप ने इस सेक्टर का प्रतिनिधित्व करती 388 स्वयंसेवी संस्थाओं का सर्वेक्षण किया और 40 अग्रणी और अपेक्षाकृत अच्छी तरह से वित्त पोषित स्वयंसेवी संस्थाओं का वित्तीय विश्लेषण किया। हमारा सर्वेक्षण और वित्तीय विश्लेषण एक नए पे व्हाट इट टेक्स (पीडबल्यूआईटी ) इंडिया इनिशिएटिव का हिस्सा है, जिसकी पहल ब्रिजस्पैन और पाँच मुख्य सहभागी: ए.टी.ई. चंद्रा फाउंडेशन, चिल्ड्रेन्स इनवेस्टमेंट फंड फाउंडेशन, एडेलगिव फाउंडेशन, फोर्ड फाउंडेशन और ओमिडयार नेटवर्क इंडिया द्वारा की गई है। सभी सहभागी भारत में और अधिक मज़बूत, और विपरीत परिस्थितियों से उभरने में समर्थ एनजीओ के निर्माण के लिए प्रथाओं और अन्य हितधारकों की मानसिकता को बदलने के लिए साथ कार्य करने के लिए प्रतिबद्ध हैं। हमारे शोध से भगवती द्वारा बताए गए व्यवस्थित तरीके के अभाव का एक स्पष्ट स्वरूप उभरकर आया। 

शोध में सामने आने वाले कुछ मुख्य बिन्दु निम्नलिखित हैं:

पानी के पाईप की एक क़तार जिसमें ताला लगा हुआ है_एनजीओ फंडिंग
प्रबंधन लागत के क्षेत्र में एनजीओ के लिए फंडिंग का अभाव है। | चित्र साभार: फ़्लिकर

जहाँ सामाजिक क्षेत्र प्रतिबंधात्मक सरकारी नियमों के तहत काम करना जारी रखे हुए है, फंडरों के साथ-साथ स्वयंसेवी संस्थाओं द्वारा अच्छी प्रथाओं को अपनाने से अधिक सामाजिक कल्याण करने के लिए आवश्यक विश्वास और पारदर्शिता को बेहतर बनाने में मदद मिल सकती है। सैक्टर के लीडरों के साथ हमारे शोध और साक्षात्कार ने हमें चार ऐसी बेहतर प्रथाओं को पहचानने में मदद की जो फंडर और स्वयंसेवी संस्थाओं को नए मार्ग बनाने की संभावना दिखाती हैं।

1. फंडरस्वयंसेवी संस्था के बीच अनेक वर्षों के लिए सहभागिता (पार्टनरशिप) विकसित करना

साझा उद्देश्यों के आधार पर दीर्घकालिक साझेदारी का भरोसा, अनुदान लेने वाले और फंडर के बीच बेहतर और पारस्परिक विश्वास का निर्माण करती है। परिणामस्वरूप, दोनों ही अनुदानों को लेन-देन की नज़र से देखना बंद कर देते हैं और बेहतर सामाजिक कल्याण प्रदान करने के लिए सभी ज़रूरी बातों पर ध्यान केंद्रित कर सकते हैं।

2. अप्रत्यक्षलागत क्षेत्र में फंडिंग की कमी को ख़त्म करना

अप्रत्यक्ष-लागत के क्षेत्र में फंडिंग की कमी को ख़त्म करने के लिए फंडरों को अनुदान देने के बारे में सोचने के तरीके को बदलने की आवश्यकता होगी – जिसे स्वयंसेवी क्षेत्र अपनी आवश्यकताओं को स्पष्ट रूप से बताकर सरल बना सकता हैं। फंडरों के लिए, इसका मतलब – अपने कर्मचारियों को प्रशिक्षित करना और वास्तविक लागतों के विकल्प के रूप में कम, निश्चित अप्रत्यक्ष-लागत दरों पर निर्भर रहने के बजाय स्वयंसेवी लीडरों से उनके विशिष्ट मिशन, ऑपरेटिंग मॉडल और आवश्यकताओं के बारे में बातचीत में शामिल करना है।

3. संस्थागत विकास (ऑर्गनाइज़ेशन डेवलेपमेंट) में निवेश करना

स्वयंसेवी संस्थाएँ, संस्थागत विकास के लिए ऐसी अनुदान राशि का इस्तेमाल करती हैं जिनके ऊपर किसी तरह की सीमा नहीं लगाई गई होती है। लेकिन इस तरह की धनराशि कम ही रहती है। फंडर अनुदान लेने वाली संस्थाओं को बता सकते हैं कि वे इस बात को समझते हैं कि संस्थाओं को मजबूत बनाना कितना ज़रूरी होता है और वे इसके लिए आवश्यक वित्तीय सहायता प्रदान करने के लिए तैयार हैं। एनजीओ को अपनी संस्थागत विकास की छोटी और दीर्घकालिक ज़रूरतों और उन पर होने वाले खर्च का आकलन साझा करने से फायदा होगा। 

4. संचित कोष बनाएँ

जब संभव हो, तब निवेशकों को सीधे अनुदान लेने वाले की संचित कोष को मज़बूत करने में निवेश करना चाहिए। उन्हें स्वयंसेवी संस्थाओं को प्रोत्साहित करना चाहिए कि वे कामकाज के लिए मिले धन से कुछ धन बचाएँ जिन्हें आरक्षित निधि में परिवर्तित किया जा सकता है। स्वयंसेवी संस्थाओं को अपने निवेशकों और उनके बोर्डों को प्रमुख बातों, जैसे ऑपरेटिंग सरप्लस तथा आरक्षित निधि कितने महीनों की है जैसी बातों के बारे में सूचित करना चाहिए, ताकि वित्तीय लचीलापन बनाने के महत्व पर ज़ोर दिया जा सके।

फंडिंग में लगातार कमी उन सामाजिक उद्देश्यों को हानि पहुंचाती है जिसके लिए फ़ंडर और स्वयंसेवी संस्थाएँ प्रयास करती हैं। सच्ची लागत फंडिंग (ट्रू कॉस्ट फ़ंडिंग) की दिशा में बढ़ने के लिए गहरे पैठ चुके दृष्टिकोण और प्रथाओं को दूर करना होगा। और इसके लिए सब्र और मजबूत इरादे की ज़रूरत होगी। यह एक जटिल और व्यवस्था से जुड़ा मुद्दा है, और सभी हितधारकों को इसे हल करने के लिए एक साथ काम करने की आवश्यकता है। लेकिन इस बदलाव की पहल फंडरों को ही करनी होगी। 

जिन लोगों ने पहले से ही बेहतर अनुदान प्रथाओं को अपनाया है, उन्होंने देखा है कि कैसे क्वेस्ट जैसी संस्थाएं अपने सामाजिक मिशन की दिशा में बेहतर नतीजे दे सकती हैं। इसके अलावा, हमारे शोध से यह समझ में आता है कि अब समय आ गया है कि फंडर सुनिश्चित करें कि समाज की जटिल समस्याओं से जूझती स्वयंसेवी संस्थाओं के पास मजबूत संस्थागत आधार और विपरीत परिस्थितियों से उबरने के लिए आवश्यक संसाधन हों। जस का तस जैसी स्थिति से किसी का भला नहीं होने वाला है। 

प्रिथा वेंकटचलम और डोनाल्ड येह मुंबई में स्थित ब्रिजस्पैन के पार्टनर हैं, और शशांक रस्तोगी ब्रिजस्पैन के प्रिन्सिपल हैं।

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फ़ोटो निबंध: प्रदूषण और कचरे के ढ़ेर में दबता हुआ हिमालय

फरवरी 2022 में पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने जुलाई से डिस्पोजेबल कटलरी, गुब्बारे और पॉलीस्टाइरीन सहित कुछ सिंगल यूज वाले प्लास्टिक पर प्रतिबंध लगाने की घोषणा करते हुए एक नोटिस जारी किया। हालांकि यह कदम स्वागत योग्य है, लेकिन देश भर में इसे लागू करना और इस पर निगरानी रखना एक मुश्किल काम होगा, खासकर छोटे शहरों और पहाड़ी इलाकों में।

नीति आयोग और विश्व बैंक की रिपोर्ट का अनुमान है कि भारतीय हिमालयी क्षेत्र (आईएचआर) अब सालाना पांच से आठ मिलियन मीट्रिक टन से अधिक कचरा उत्पन्न करता है। 2010 से अब तक उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश में पर्यटकों की कुल संख्या 400 मिलियन रही है और ये दोनों राज्य ठोस अपशिष्ट प्रबंधन के मामले में सबसे ख़राब प्रदर्शन वाले राज्यों की सूची में शामिल हैं। खराब कचरा संग्रह और बुनियादी ढांचे के कारण 60 प्रतिशत से अधिक कचरा जला दिया जाता है, उनका ढ़ेर लगा कर छोड़ दिया जाता है या फिर गंगा, यमुना और सतलज जैसी प्रमुख नदियों में नीचे की ओर बहा दिया जाता है।

उपरोक्त विश्व बैंक की रिपोर्ट में इस बात पर प्रकाश डाला गया है कि इस तरह के परिदृश्य में उत्पन्न होने वाले कचरे की मात्रा और प्रकार को लेकर पर्याप्त डेटा उपलब्ध नहीं है। रिपोर्ट ने यह भी पुष्टि की है कि कचरा संग्रह प्रणाली केवल पर्वतीय राज्यों के शहरी क्षेत्रों में मौजूद है और जमा किए गए कचरे को आमतौर पर नदियों के पास स्थित खुले लैंडफिल में फेंक दिया जाता है। यह तरीक़ा पिछड़े समुदायों को ग़ैर-आनुपातिक ढंग से प्रभावित करता है। इसके अतिरिक्त, अपशिष्ट डंपिंग का स्थानीय वनस्पतियों और जीवों की 30,000 से अधिक प्रजातियों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है, जिनमें से कुछ प्रजातियां दुर्लभ हो चुकी हैं और विलुप्त होने की कगार पर हैं।

भारतीय हिमालयी क्षेत्र में पहाड़ियों पर कचरे को जलाना कचरा प्रबंधन का एक आम तरीक़ा है-प्रदूषण कचरा
भारतीय हिमालयी क्षेत्र में पहाड़ियों पर कचरे को जलाना कचरा प्रबंधन का एक आम तरीक़ा है। । चित्र साभार: वेस्ट वॉरियर्स

इस इलाक़े में कचरा इतनी बड़ी समस्या क्यों है?

ग्रामीण इलाक़ों में वस्तुओं के उपयोग के तरीक़े में बदलाव

ऐतिहासिक रूप से भारत के ग्रामीण एवं पर्वतीय इलाक़ों में कचरा प्रबंधन की ज़रूरत नहीं होती थी क्योंकि इस्तेमाल किए जाने वाला ज़्यादातर सामान बायोडिग्रेडेबल होता था। हालांकि, हाल के दशकों में टिकाऊ और उपयोग में लाई जाने वाली चीज़ें—विशेष रूप से बहुस्तरीय प्लास्टिक पैकेजिंग में फास्ट-मूविंग कंज्यूमर गुड्स (एफएमसीजी)—हिमालय के अधिकांश गांवों में पहुंच गए हैं। कपड़े, लकड़ी, पत्ते, बांस और अन्य स्थानीय सामग्रियों से बने घरेलू उत्पादों की जगह बड़े पैमाने पर प्लास्टिक से बनी चीज़ें इस्तेमाल होने लगी हैं। इससे ग्रामीण इलाक़ों में प्राकृतिक रूप से नहीं सड़ने वाला कचरा पैदा हो रहा है। किसी भी तरह के कचरा प्रबंधन व्यवस्था के न होने से ग्रामीण इलाक़ों के आम लोग और प्रशासन मजबूरन इन कचरों को जलाते या घाटियों में फेंक देते हैं और नदियों में बहा देते हैं।

मेरे नेतृत्व वाले संगठन वेस्ट वॉरियर्स द्वारा एकत्र किए गए कचरा संग्रह के आंकड़ों से पता चला है कि परिवहन की सुविधा वाले पर्यटक स्थलों पर प्रत्येक घर से हर माह लगभग 6 किलोग्राम कचरा निकलता है, दूरदराज के गांवों में प्रति माह प्रति परिवार 2 किलोग्राम से अधिक सूखा कचरा निकलता है। उदाहरण के लिए, उत्तरकाशी में गोविंद वन्यजीव अभयारण्य (एक हिम तेंदुआ संरक्षण क्षेत्र) के अंदर 5,000+ घर और हर साल यहां आने वाले हजारों पर्यटक प्रति माह 15 मीट्रिक टन से अधिक सूखा कचरा उत्पन्न करते हैं। इस पूरे कचरे को या तो जंगल/नदी/पहाड़ी इलाक़ों में यूं ही फेंक दिया जाता है या फिर जला दिया जाता है।

पर्यटन और एकल उपयोग वाले उत्पादों की भारी आमद

सड़क, ट्रेन और हवाई मार्ग से यात्रा के अधिक विकल्पों की उपलब्धता के कारण पर्यटक तेजी से हिमालयी राज्यों में आ रहे हैं। इसके अलावा वे दूरदराज़ के इलाक़ों और ट्रेकिंग रुट्स पर भी जाते हैं। पर्यटकों की शहरी जीवनशैली ने इन इलाक़ों के ग्रामीणों पर अपना असर डाला है। नतीजतन इन क्षेत्रों के लोगों ने एफ़एमसीजी पैकेटों, पीईटी बोतलों और सिंगल-यूज वाले प्लास्टिक की ख़रीद-बिक्री शुरू कर दी है ताकि वे पर्यटन, खाद्य और हॉस्पिटैलिटी सेक्टर की भारी मांगों की पूर्ति कर सकें। इससे पर्यटन क्षेत्रों और इसके आसपास के इलाक़ों में बाहरी मात्रा में कूड़ा जमा हो रहा है, उन्हें डम्प किया जा रहा है और प्रबंधन के उद्देश्य से जलाया जा रहा है।

उत्तरकाशी में ट्रेकिंग मार्गों में फेंके हुए प्लास्टिक कचरे को खा रही एक गाय-प्रदूषण कचरा
उत्तरकाशी में ट्रेकिंग मार्गों में फेंके हुए प्लास्टिक कचरे को खा रही एक गाय।। चित्र साभार: वेस्ट वॉरियर्स

रसद और बुनियादी ढांचे के लिए कठिन इलाका

कठिन हिमालयी इलाकों के कारण दैनिक लागत में वृद्धि होती है, इससे रसद परिवहन जटिल होता है और नज़दीकी रीसाइक्लिंग फैक्टरियों से दूरी भी बढ़ती है। आईएचआर में अपशिष्ट संग्रह (वाहन), सूखा अपशिष्ट प्रसंस्करण (सामग्री पुनर्प्राप्ति सुविधाएं), और गीला अपशिष्ट प्रसंस्करण (खाद या बायोगैस इकाइयां) के लिए बुनियादी ढांचों की कमी है। सुनिश्चित किए गए अनौपचारिक डंपिंग स्थल आमतौर पर नदी के किनारे के पास होते हैं ताकि मानसून के दौरान कचरा बह सके।

उत्तरकाशी में भागीरथी नदी के बगल में लैंडफिल साइट, जो अंततः गंगा नदी में मिलती है-प्रदूषण कचरा
उत्तरकाशी में भागीरथी नदी के बगल में लैंडफिल साइट, जो अंततः गंगा नदी में मिलती है।। चित्र साभार: वेस्ट वॉरियर्स

एक्सटेनडेड प्रोड़्यूसर रेस्पॉन्सिबिलिटी की पहुंच का अभाव

प्लास्टिक वेस्ट मैनेजमेंट रुल्स 2016 के तहत एक्सटेनडेड प्रोड़्यूसर रेस्पॉन्सिबिलिटी जनादेश के एक हिस्से के रूप में पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने सभी एफ़एमसीजी ब्रांडों को अपने प्लास्टिक कचरे के प्रबंधन के लिए रिवर्स लॉजिस्टिक्स की व्यवस्था स्थापित करने और उसमें सहायता के आदेश दिए थे। लेकिन पहाड़ी इलाक़ों में कचरा संग्रहण की लागत उच्च होने के कारण ज़्यादातर ब्रांडों ने इन इलाक़ों में रिवर्स लॉजिस्टिक्स सिस्टम स्थापित नहीं किए। इसके अलावा, इन गांवों में उपलब्ध कई उत्पाद स्थानीय ब्रांडों द्वारा उत्पादित किए जाते हैं, जिनमें रिवर्स लॉजिस्टिक्स में निवेश करने की क्षमता नहीं होती है। पर्यटक अपने साथ लोकप्रिय ब्रांडों के उत्पाद लेकर आते हैं और उनके द्वारा पीछे छोड़े गए कचरे को न तो एकत्र किया जाता है और न ही उनके रिसायक्लिंग की व्यवस्था होती है।

उत्तरकाशी का एक डम्प साइट-प्रदूषण कचरा
उत्तरकाशी का एक डम्प साइट। । चित्र साभार: वेस्ट वॉरियर्स

नीति प्रवर्तन और अभिसरण का अभाव

आईएचआर में कचरा संग्रह छिटपुट स्तर पर होता है और कचरे को तुरंत या तो पहले से ऐसे निश्चित स्थलों पर डम्प कर दिया जाता है जिनके लिए पर्यावरणीय मंजूरी नहीं होती है या सीधे घाटी में फेंक दिया जाता है और नदियों में बहा देते हैं। अनौपचारिक कचरा बीनने वाले और स्क्रैप डीलर सामग्री की वसूली में मुख्य भूमिका निभाते हैं, लेकिन उनकी यह भूमिका केवल उच्च मूल्य वाली सामग्री जैसे पीईटी प्लास्टिक, धातु, कार्डबोर्ड और कांच आदि तक ही सीमित होती है। इसके अतिरिक्त, इस तरह का कचरा उठाना शहरी और पर्यटन क्षेत्रों तक ही सीमित है। अधिकांश ग्राम पंचायतें और गांव या प्रखंड विकास प्राधिकारी स्थानीय लोगों और पर्यटकों द्वारा पैदा किए जाने वाले कचरे के प्रबंधन के काम में सक्षम नहीं हैं।

इसके अलावा, जबकि कचरा आमतौर पर वन क्षेत्रों में डंप किया जाता है, वन विभाग के पास ग्रामीण क्षेत्रों में अपशिष्ट प्रबंधन प्रणाली स्थापित करने का अधिकार नहीं है। पर्यटन विभाग विभिन्न पर्यटन स्थलों में कूड़ेदान लगाने में निवेश करता है, लेकिन संग्रह और प्रसंस्करण प्रणाली ठीक से कारगर नहीं है।

एक और बड़ी चुनौती विभिन्न सरकारी विभागों की एक दूसरे के साथ प्रभावी ढंग से सहयोग करने में असमर्थता है। उदाहरण के लिए, पेयजल और स्वच्छता मंत्रालय (स्वजल के माध्यम से) स्वच्छ भारत मिशन-ग्रामीण का प्रभारी है, जो प्लास्टिक कचरा प्रबंधन इकाई के निर्माण के लिए प्रति ब्लॉक 16 लाख रुपये आवंटित करता है। ग्राम पंचायतों को प्रदान की गई धनराशि का अधिकतम उपयोग सुनिश्चित करना पंचायती राज विभाग के दायरे में आता है। हालांकि स्वजल का अधिदेश केवल सामग्री रिकवरी सुविधा का निर्माण है जिसमें इसके संचालन कि ज़िम्मेदारी को सौंपने के विषय पर बहुत कम स्पष्टता है। इसके अलावा ग्राम-पंचायत अपने दिन-प्रतिदिन के संचालन के लिए इस विशेष अनुदान के प्रयोग को लेकर सशंकित रहते हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि जियोटैगिंग के माध्यम से पूरा होने का प्रमाण मिलने पर इस तरह की गतिविधि को आम तौर पर मंजूरी मिल जाती है। हालांकि, दिन-प्रतिदिन के कार्यों को जियोटैग नहीं किया जा सकता है।

वेस्ट वॉरियर्स के सफ़ाई साथी देहरादून में सामग्री रिकवरी सुविधा केंद्र पर-प्रदूषण कचरा
वेस्ट वॉरियर्स के सफ़ाई साथी देहरादून में सामग्री रिकवरी सुविधा केंद्र पर। । चित्र साभार: वेस्ट वॉरियर्स

सामाजिक कलंक और अनौपचारिक आजीविका

आजीविका के लिए कचरे और कूड़े का काम करने वालों के साथ एक तरह के सामाजिक कलंक का भाव जुड़ा हुआ है। ज़्यादातर शहरी इलाक़ों में कचरे के संग्रहण एवं इसके पृथक्करण का काम अनौपचारिक प्रवासी मज़दूरों के हिस्से में होता है। हालांकि ये प्रवासी मज़दूर गांवों की ओर आकर्षित नहीं होते हैं।

अपशिष्ट प्रदूषण के कारण होने वाली पर्यावरणीय चुनौतियों से निपटने के अलावा, ग्राम पंचायतों, ग्राम विकास अधिकारियों और राष्ट्रीय संस्थाओं जैसे राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन को इस कलंक को दूर करने की दिशा में काम करने का प्रयास करना चाहिए। इसके लिए इन इकाइयों को ग्रामीण निवासियों के साथ समन्वय स्थापित करना चाहिए तथा मिलकर काम करने के साथ ही उनके लिए वैकल्पिक उत्पादों के लिए अपशिष्ट संग्रह संचालन, सामग्री की वसूली और बाजार से जुड़ाव आदि के क्षेत्र में आजीविका के अवसर पैदा करने के प्रयासों का समर्थन करना चाहिए।

एक अन्य महत्वपूर्ण कारक यह भी ही कि अधिक घनी आबादी वाले मैदानी इलाक़ों की तुलना में पहाड़ी क्षेत्रों के कठिन इलाक़ों में जनसंख्या का फैलाव व्यापक होता है। इसके कारण स्वच्छ भारत मिशन-ग्रामीण निर्देशों के तहत केंद्र सरकार द्वारा ग्राम पंचायतों को प्रति व्यक्ति दी जाने वाली राशि ख़र्चों से निपटने के लिए अपर्याप्त होती है।

समस्या की इस व्यवस्थित प्रकृति का सीधा मतलब यह है कि इसके लिए किसी एक संस्था या हितधारक को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है। निश्चित रूप से आईएचआर में कचरा प्रबंधन समस्या को हल करने की तत्काल आवश्यकता है, लेकिन इस दिशा में मौजूदा प्रयास इस मुद्दे के पैमाने के अनुरूप नहीं हैं। महासागर प्लास्टिक प्रदूषण से निपटने में महत्वपूर्ण वैश्विक निवेश को देखते हुए अब समय आ गया है कि हम अपने शक्तिशाली हिमालय की रक्षा के लिए आवश्यक संसाधनों का भी निवेश करें।

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रेगिस्तान में बाढ़ महिलाओं की आकांक्षाओं को बहा ले जा रहा है

कहते हैं ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’लेकिन पढ़ाएं कहां से?” राजस्थान के बाड़मेर ज़िले की खारंतिया गांव की एक बुजुर्ग महिला ने हमसे पूछा। 

पश्चिमी राजस्थान का बाड़मेर जिला अपने इलाके, तापमान, पानी में नमक के स्तर और थार रेगिस्तान से नज़दीक होने के कारण राज्य के सबसे चरम जलवायु वाली परिस्थितियों का एक जीवंत उदाहरण है। बाड़मेर ज़िले से लूनी नदी होकर गुजरती है जो इस रेगिस्तान की सबसे लम्बी नदी है। 2021 में अपने फ़ील्डवर्क के लिए मुझे खारंतिया गांव की यात्रा करनी पड़ी। यह गांव नदी के तट पर बसा है और हर बार मानसून में बाढ़ से बुरी तरह प्रभावित हो जाता है। बाढ़ के कारण यूं तो सभी का जीवन और आजीविका दोनों ही प्रभावित होते है लेकिन इसका सबसे अधिक असर औरतों और युवा लड़कियों पर पड़ता है।

समुदाय के सदस्य विशेष रूप से मानसून के दौरान शिक्षा, स्वास्थ्य देखभाल, और बुनियादी सार्वजनिक सेवाओं जैसे परिवहन, बिजली और अन्य सुविधाओं तक पहुंच की कमी को लेकर बहुत मुखर थे। दरअसल मानसून के दिनों में लूनी का जल-स्तर बढ़ने से खारंतिया साल में कई महीनों के लिए आसपास के शहरों से कट जाता है।

गांव में कॉलेज जाने वाली पहली-पीढ़ी की करिश्मा का कहना है कि “ससुराल नहीं जाना है, पहले पढ़ना हैजॉब करनी है।”
करिश्मा और उनकी बहन पूजा याद करते हुए बताते हैं कि बाढ़ के समय सड़कों पर सीने तक पानी भर जाता था और वे उसे पार करके स्थानीय स्कूल में पढ़ने जाते थे। कोविड-19 के आने से पहले से ही उनकी कक्षाएं रद्द होती हैं और उन्हें परीक्षाओं में आने वाली बाधाओं से जूझना पड़ता है।

बाढ़ के कारण लड़कियां पढ़ाई बीच में हो छोड़ देती हैं। इसके अलावा इस इलाक़े में बेटियों की शादियां 18 साल और उसके आसपास कर दी जाती हैं। शादी के निर्णय के समय उनकी आर्थिक स्वायत्ता या भावनात्मक तैयारी को भी नज़रअन्दाज़ कर दिया जाता है। कम उम्र में शादी से बचने और अपनी स्वतंत्रता हासिल करने के लिए, स्कूल जाने वाली लड़कियों पर खुद को जल्दी से कुछ बनाने का बहुत अधिक दबाव होता है। इसके लिए वे सरकारी नौकरी या किसी अच्छी निजी कम्पनी में नौकरी हासिल करने की कोशिश में लगी रहती हैं। हालांकि अब भी खारंतिया में 10वीं की पढ़ाई पूरी करने वाली लड़कियों की संख्या बहुत कम है। मनरेगा साथी बनने के लिए न्यूनतम योग्यता 10वीं तक की पढ़ाई है।

इस गांव में एक स्वास्थ्य केंद्र भी है जो बाढ़ और सुदूर इलाक़े में स्थित होने के कारण उपयोग में नहीं रहता है। यहां कई वर्षों से किसी भी सरकारी डॉक्टर की नियुक्ति नहीं हुई है। कुछ निजी डॉक्टरों ने यहां अपना अस्पताल या क्लिनिक शुरू किया था लेकिन इन्हीं कारणों से वे भी इस जगह को छोड़ कर चले गए। भारी बारिश और बाढ़ के कारण एएनएम का दौरा भी नियमित रूप से नहीं होता है और ये चार-पांच महीनों में एक या दो बार आते हैं।

एक अन्य स्थानीय महिला ने बताया कि “गर्भवती महिलाओं को बहुत दूर-दूर जाना पड़ता है डिलीवरी के लिए, रास्ते में कुछ भी हो सकता है।”

दीपानिता मिश्रा फाउंडेशन फॉर इकोलॉजिकल सिक्योरिटी के लर्निंग, मॉनिटरिंग एंड इवैल्यूएशन विभाग में प्रोजेक्ट मैनेजर के पद पर कार्यरत हैं।

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अधिक जानें: इस लेख को पढ़ें और जानें कि युवा लड़कियां स्कूल क्यों नहीं जा रही हैं।

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तकनीक को लेकर सामाजिक क्षेत्र की सोच कैसे ग़लत है

आज तकनीक सामाजिक क्षेत्र से जुड़े हर तरह के कामकाज का हिस्सा बन गई है—तमाम प्रक्रियाओं को लागू करने और उनकी गुणवत्ता तय करने, डेटा इकट्ठा करने से लेकर निगरानी, मूल्यांकन और संगठन को आगे बढ़ाने तक में यह मददगार है। कोरोना महामारी के दौरान यह तब साफ़तौर पर दिखाई दिया जब सभी संगठनों ने अपने समुदायों के संपर्क में रहने और कार्यक्रमों को उन तक पहुंचाने के लिए व्हाट्सएप औऱ ज़ूम जैसे साधनों का रुख किया। इसके बाद भी सोशल सेक्टर में तकनीक को एक अतिरिक्त साधन की तरह देखा जाता है। कार्यक्रमों का बजट बनाते हुए, स्वयंसेवी संस्थाओं (और दानदाताओं) को अपनी मानसिकता बदलने और तकनीक को इंफ़्रास्ट्रक्चर (मूलढांचे) की तरह देखने की ज़रूरत है। ऐसा ना करने पर संस्थाओं को नुक़सान होता है क्योंकि तकनीक का खर्च उन्हें यूं भी वहन करना ही पड़ता है। ऐसे में इसका समुचित उपयोग न कर पाना समझदारी नहीं है।

हम तकनीक को ठीक से नहीं समझते हैं

1. तकनीक सुविधा है, समाधान नहीं

टेक4डेव में अपने काम के दौरान हमने देखा कि जब तकनीक का इस्तेमाल करने वाली स्वयंसेवी संस्थाओं की बात आती है तो हमें कुछ गलतफहमियों या धारणाओं का सामना करना पड़ता है। सोशल सेक्टर में इससे जुड़ी पहली धारणा यह है कि तकनीक समाधान है। दरअसल तकनीक एक सुविधा है—यह एक प्रभावी, कुशल समाधान को संभव बनाती है। यह खुद किसी समस्या का समाधान नहीं कर सकती है। उदाहरण: मोबाइल डेटा कलेक्शन के लिए तकनीक का इस्तेमाल करना बढ़िया बात है। लेकिन प्रभावी तरीक़े से तकनीक का इस्तेमाल करने के लिए संगठन के पास ऐसी प्रक्रिया और व्यवस्था होनी चाहिए जो सुनिश्चित करें कि कौन सा डेटा इकट्ठा करना है, किससे करना है। साथ ही इन प्रक्रियाओं और व्यवस्थाओं में प्रशिक्षित फ़ील्ड कर्मचारियों की भी ज़रूरत होती है जिन्हें डेटा संग्रहण और इससे जुड़ी समस्याओं के बारे में भी जानकारी हो। इस स्थिति में तकनीक की मदद से उच्च-गुणवत्ता वाला डेटा इकट्ठा किया जा सकता है लेकिन इसे कैसे करना है यह केवल संस्था को पता होता है।

2. संगठन के छोटे या बड़े होने से फर्क नहीं पड़ता है

एक दूसरी धारणा यह है कि तकनीक आधारित समाधान के क्रियान्वयन से पहले संगठन का एक विशेष आकार तक पहुंचना आवश्यक होता है। दूसरे शब्दों में तकनीक ज़मीनी स्तर पर काम करने वाले छोटे संगठनों के लिए नहीं होता है। इस बारे में सोचने का बेहतर तरीक़ा यह है कि आप स्वयं से पूछें कि: क्या अभी मेरे पास इस समस्या का समाधान है, और क्या उस समाधान के क्रियान्वयन का कोई व्यवस्थित तरीक़ा अभी उपलब्ध है? यदि आपका जवाब हां है तो इस बात का कोई ख़ास महत्व नहीं रह जाता है कि संगठन कितना बड़ा है। उदाहरण के लिए, हमने छोटे संगठनों को बहुत ही प्रभावी तरीक़े से गूगलशीट का इस्तेमाल करते देखा है। आप छोटे स्तर पर सस्ती तकनीक का इस्तेमाल कर सकते हैं, और आप बड़े स्तर पर भी सस्ती तकनीक का प्रयोग कर सकते हैं। हमने बड़े और छोटे दोनों ही स्तर के संगठनों में ख़राब तकनीक का इस्तेमाल भी देखा है। इसलिए इतना तो तय है कि तकनीक के इस्तेमाल का संबंध संगठन के आकार से नहीं बल्कि व्यवस्थात्मक दृष्टिकोण से होता है। तकनीक चीजों को आसान और कुशल तो बनाती है लेकिन यह उसकी जटिलता को बढ़ा भी देती है। इसका इस्तेमाल करने के लिए कर्मचारियों को कई नई बातें जानने और सीखने की ज़रूरत पड़ती है।

संख्याओं के साथ लेबल की गई कुकीज़ जो '1+2=4' की जोड़ की गलती को दर्शाता है-तकनीक स्वयंसेवी संगठन
हमें तकनीक के लिए एक ऐसा ज्ञानाधार बनाने की ज़रूरत है जिसे हर कोई स्वयंसेवी संस्था, दानकर्ता और सॉफ़्टवेयर पार्ट्नर सीख सके। | चित्र साभार: पिक्साबे

हम एक स्वयंसेवी संगठन के साथ काम कर रहे थे—चलिए इसका नाम टीम हेल्थ रख लेते हैं—इनके पास बहुत बड़ी संख्या में फ़ील्ड कर्मचारी थे जिनसे यह संगठन व्हाट्सएप, ईमेल और फ़ोन कॉल जैसे विभिन्न माध्यमों से डेटा प्राप्त कर रहा था। इसमें से एक भी डेटा मानक या व्यवस्थित नहीं था और न ही इसमें कोई भी डेटा रिकॉर्डेड था। टीम हेल्थ इसे बदलना चाहती थी। वे एक ऐसा ऐप चाहते थे जिसमें उनके सभी फ़ील्डकर्मचारियों को पता हो कि तकनीक की आवश्यकतानुसार जानकारी को सटीक तरीके से कैसे दर्ज करना है। इससे उन्हें अपनी ज़रूरत के अनुसार मानक डेटा प्राप्त हो जाएगा। लेकिन उस समय उनकी प्रक्रिया मानकीकृत नहीं थी और उनके फ़ील्डवर्कर को एक ख़ास तरीक़े से ही डेटा जमा करने की आदत थी, इसलिए इस ऐप से उनकी समस्या का समाधान नहीं होता। अगर उन्होंने ये तरीक़ा अपना लिया होता तो शायद उनके लिए स्थितियां और बुरी हो सकती थीं।

3. दानदाताओं सेफंड टेकयानी तकनीक के लिए सहयोग मांगना

संगठनों के बीच तीसरी सबसे बड़ी धारणा यह है कि दानदाता तकनीक के लिए पैसे देने में संकोच करते हैं। दानदाताओं से ‘तकनीक के लिए फंड’ की मांग करने के बजाय स्वयंसेवी संस्थाओं को यह बताना चाहिए कि संगठन के संचालन के लिए तकनीक क्यों महत्वपूर्ण है। उन्हें इस बिंदु को अपने प्रस्तावों में इसी रूप में अवश्य शामिल करना चाहिए। इसे संभव बनाने के लिए हमें दानदाताओं और स्वयंसेवी संस्थाओं, दोनों को ही इसके बारे में समझाने की ज़रूरत है।

चलिए, अब टीम सैनिटेशन नाम के एक संगठन का उदाहरण लेते हैं जो भारत में शहरी गरीब लोगों के लिए सामुदायिक शौचालय उपलब्ध करवाने का काम करता है। अपने दिन प्रति दिन के कामकाज के लिए यह संगठन डेटा संग्रहण और भौगोलिक सूचना व्यवस्था (जीआईएस) के लिए ठीक-ठाक मात्रा में तकनीक का इस्तेमाल करती है। इसलिए टीम सैनिटेशन ने अपने फ़ंडिंग प्रस्तावों में इन तकनीकों से जुड़े ख़र्चों (उदाहरण के लिए लाईसेंसिंग और संचालन लागत) को अनिवार्य प्रोजेक्ट खर्च के रूप में शामिल करना शुरू कर दिया। ऐसा करने पर उन्हें अपने दानदाताओं से किसी तरह के प्रतिरोध का भी सामना नहीं करना पड़ा। यदि एक संगठन अपने कार्यक्रमों के अनुरूप ही तकनीक की आवश्यकता का प्रदर्शन करता है तो ज़्यादातर दानदाताओं को ऐसे मुख्य ख़र्चों के लिए सहायता देने में समस्या नहीं होगी।

4. यह मानना कि आपकी समस्या किसी और की समस्या नहीं है

कई संगठन चौथी सबसे आम गलती, यह सोचने की करते हैं कि उन्हें कस्टम टेक सॉल्यूशन यानी उनके लिए ख़ासतौर पर तैयार किए गए तकनीक समाधानों पर एकदम शून्य से काम करने की ज़रूरत है। इसके बारे में सोचने से पहले स्वयंसेवी संस्थाओं को उनकी समस्याओं और ज़रूरतों को परिभाषित करने की ज़रूरत होती है। उनकी प्रमुख समस्याएं क्या हैं, वे महत्वपूर्ण क्यों हैं, और वे जिस काम को करने की कोशिश कर रहे हैं तकनीक उसे कैसे प्रभावित करती है। यह जानकारी उन्हें यह समझने में सहायक होगी कि तकनीक किन परिस्थितियों में उनकी मदद कर सकती है और किन परिस्थितियों में नहीं। यदि तकनीक ही असली समाधान है तो वास्तव में बहुत कम स्वयंसेवी संस्थाओं के पास ऐसी अलग औऱ मुश्किल समस्याएं होंगी जिन्हें हल किए जाने की ज़रूरत है। संदर्भ, समुदाय और संसाधन भिन्न हो सकते हैं, लेकिन मूल रूप से जिस समस्या का हल एक स्वयंसेवी संगठन ढूंढने का प्रयास कर रहा है, संभव है कि उसका समाधान किसी अन्य व्यक्ति द्वारा ढूंढ़ा जा चुका होगा।

तकनीकी समाधानों के लिए शून्य से शुरूआत करने की बजाय मौजूदा समाधानों और उपकरणों को खोजना बेहतर है।

उदाहरण के लिए, एक ऐसे संगठन को लेते हैं जो प्राथमिक विद्यालय के शिक्षकों के प्रशिक्षण के लिए काम करता है। संगठन को पता चलता है कि इतने बड़े पैमाने पर, शिक्षकों को व्यक्ति रुप से प्रशिक्षित करना बहुत महंगा है। निश्चित रूप से ऐसे और संगठन भी होंगे जिन्हें लागत और बड़े पैमाने पर काम करने से जुड़ी इन चुनौतियों का सामना करना पड़ा होगा और उन्होंने इसके समाधान के लिए प्रयास किए होंगे। लेकिन इसके बाद भी नॉन-प्रॉफिट सेक्टर में कस्टम टेक प्लेटफ़ॉर्म बनाने का एक चलन है। दानदाता और स्वयंसेवी संस्थाओं दोनों को ही इसका खर्च उठाना पड़ता है और फिर कोई समाधान मिल पाता है। कुछ मामलों में असफल होने पर निवेश रद्द कर दिया जाता है और कुछ में इतनी प्रगति नहीं हुई होती कि जिसे दिखाया जा सके। कस्टम तकनीक न केवल संसाधनों, समय और प्रयास की बर्बादी है बल्कि इसे बड़े पैमाने पर कर पाना भी मुश्किल होता है। इस कारण से, शुरू से समाधान खोजने में संसाधनों के निवेश की बजाय पहले से मौजूद ऐसे समाधानों और उपकरणों को खोजना बेहतर है जिन्हें अपनी ज़रूरतों के मुताबिक़ बदला जा सकता हो। हमने विभिन्न स्वयंसेवी संस्थाओं में मोबाइल डेटा संग्रह प्लेटफ़ॉर्म, केस मैनेजमेंट सिस्टम और ग्राहक संबंध प्रबंधन (सीआरएम) सिस्टम के कई कस्टम बिल्ड देखे हैं, जिनमें से अधिकांश वर्तमान समय में मौजूद ओपन-सोर्स और व्यावसायिक रूप से उपलब्ध समाधानों की तुलना में कमतर और अपर्याप्त थे। ‘रिसर्च बिफोर बिल्ड’ एक ऐसा मंत्र है जिसका हम टेक4डेव में निष्ठापूर्वक पालन करते हैं।

हमें सहयोग और ज्ञान साझा करने वाली एक ऐसी संस्कृति बनाने की जरूरत है जहां सभी को लाभ हो

कई स्वयंसेवी संस्थाएं जिन समस्याओं को हल करने की कोशिश कर रही हैं अगर उनके समाधान पहले से ही मौजूद हैं तो सवाल यह उठता है कि ऐसी जानकारी तक पहुंचने के रास्ते में कौन सी बाधाएं हैं?

अधिकांश स्वयंसेवी संस्थाओं के पास ऐसा तकनीकी ज्ञान या विशेषज्ञता नहीं है जो यह समझने में सहायक हो कि उनकी किसी ख़ास समस्या के लिए कौन से उपकरण उपयोगी हो सकते हैं। समस्या और संभावित उपयोगी तकनीकों के बीच के बिंदुओं को जोड़ने की ज़िम्मेदारी आमतौर पर सॉफ़्टवेयर पार्टनर की होती है। हालांकि सॉफ़्टवेयर पार्टनरों के पास अक्सर सोशल सेक्टर में सीमित अनुभव होता है इसलिए संगठन की समस्या के प्रति उनका दृष्टिकोण केवल स्वयंसेवी संस्थाओं के लिए एक समाधान भर तैयार करना होता है। यह आदर्श स्थिति से बहुत अलग है। हमें न केवल ऐसे सॉफ़्टवेयर पार्टनर की ज़रूरत है जो सोशल सेक्टर और स्वयंसेवी संस्थाओं के उद्देश्यों दोनों से वाक़िफ़ हो बल्कि हमें ऐसे स्वयंसेवी संगठनों की भी ज़रूरत है जो तकनीक की अपनी समझ को मज़बूत बनाएं।

इस क्रम में, हमें तकनीक के लिए एक ऐसा ज्ञानाधार बनाने की ज़रूरत है जिससे हर कोई सीख सके—स्वयंसेवी संस्था, दानकर्ता और सॉफ़्टवेयर पार्टनर। इस तरह का खुला इकोसिस्टम फ़ंडर को यह महसूस करने में भी मदद करेगा कि वे किन बिंदुओं पर एक ही समाधान के लिए कई संगठनों में निवेश कर रहे हैं और इससे संगठनों को भी एक दूसरे के काम से सीखने में मदद मिलेगी।

हमें काम के ओपन-सोर्स प्रकाशन को प्राथमिकता देनी होगी

तकनीक के समाधान स्वयंसेवी संगठनों के लिए सुलभ हों, ऐसी व्यवस्था बनाने के लिए पहला कदम मौजूदा ज्ञान को सभी संबंधित हितधारकों के साथ बांटना है। स्वयंसेवी संगठनों को अपने कार्यक्रम, चुनौतियों, समाधानों और अनुभवों को आम जनता के साथ साझा करना चाहिए। उदाहरण के लिए, यदि कोई स्वयंसेवी संगठन अपने एक प्रोजेक्ट में 300 घंटे काम करता है तो उसे कम से कम 10 घंटे का समय ओपन-सोर्स सामग्री तैयार करने में लगाना चाहिए। इससे लोगों को उनके द्वारा किए जा रहे काम को समझने में मदद मिल सकेगी।

संगठनों को अपने ‘ट्रेड सीक्रेट’ को दूसरों के साथ साझा करने के डर से आगे बढ़ना चाहिए।

सोशल सेक्टर में काम कर रहे संगठनों के लिए ओपन-सोर्स सामग्रियों के जरिए जागरूकता फैलाना जरूरी है ताकि वे एक-दूसरे की मदद कर सकें और एक-दूसरे से सीख सकें। लेकिन यह तुरंत नहीं हो सकता है। जैसे-जैसे और अधिक संगठन तकनीकी विशेषज्ञता साझा करने लगेंगे वैसे-वैसे सोशल सेक्टर का अपना व्यापक इकोसिस्टम तेज़ी से बनने लगेगा। संगठनों को अपने ‘ट्रेड सीक्रेट’ को दूसरों के साथ साझा करने के डर से आगे बढ़ना चाहिए और इस तथ्य में विश्वास रखना चाहिए कि इसमें निवेश से उन्हें भविष्य में लम्बे समय में लाभ होगा।

दान दाताओं और मध्यस्थ संगठनों की भूमिका महत्वपूर्ण होती है

आईडीइन्सायट जैसे संगठनों ने अपने काम को समय-समय पर प्रकाशित कर बहुत ही शानदार काम किया है। यह उनके ब्लॉग और लिंक्डइन पेज पर देखा जा सकता है। इस जानकारी को साझा करने से इकोसिस्टम के विविध खिलाड़ियों को मदद मिलती है जिससे एक मज़बूत इकोसिस्टम तैयार होता है। दानदाता इन संगठनों को अपने काम को प्रकाशित करने के लिए प्रेरित कर सकते हैं क्योंकि इसका मुख्य उद्देश्य ज्ञान को जल्द से जल्द प्रसारित करने में मदद करना है। हमें तब तक इंतजार नहीं करना चाहिए जब तक कि सही और अच्छी तरह से तैयार की गई रिपोर्ट न बन जाए। काम की प्रगति के साथ ही उसे प्रकाशित करना उन परियोजनाओं का एक और मंत्र है जिन्हें हम टेक4डेव में चलाते हैं।

वर्तमान में भारत में एक इकोसिस्टम बनाने की जिम्मेदारी स्वयंसेवी संस्थाओं की तुलना में दानदाताओं और मध्यस्थ संगठनों पर अधिक है। ऐसा इसलिए है क्योंकि स्वयंसेवी संस्थाओं के पास संसाधनों की कमी है और वे अपने अधिकांश प्रयासों को अपने कार्यक्रमों के प्रति ही समर्पित रखते हैं। इसके अलावा, उनके पास उस तरह का प्रभाव और दबदबा नहीं है जो दानदाताओं के पास है, और सम्भव है कि उनमें इस काम के लिए पर्याप्त कौशल की भी कमी हो।

पहला कदम जो दानदाता उठा सकते हैं, वह पारंपरिक अनुबंधों से दूर जाना है जो सामग्रियों और बौद्धिक संपदाओं (आईपी) के वितरण पर रोक लगाते हैं और सार्वजनिक डोमेन में आईपी साझा करने की दिशा में बढ़ना है। इसके अलावा, यह देखते हुए कि दानदाता आमतौर पर एक विशिष्ट क्षेत्र के भीतर कई संगठनों के साथ काम करते हैं, वे यहां एक बड़ी तस्वीर तैयार कर सकते हैं। वे स्वयंसेवी संस्थाओं को सॉफ़्टवेयर पार्टनर चुनने में भी मदद कर सकते हैं। यहां उन्हें फ़ंडर-नॉनप्रॉफिट वाली पावर डायनामिक की विषमताओं के प्रति संवेदनशील रहना होगा और एक निर्देश देने वाली भूमिका से निकलकर सहयोगी की भूमिका में आना होगा। सोशल सेक्टर के भीतर ही तकनीकी इकोसिस्टम को मज़बूत बनाने के लिए फ़ंडर बहुत कुछ कर सकते हैं। दुर्भाग्यवश बहुत कम दानदाता और संगठन इस इकोसिस्टम पर ध्यान देते हैं। हमें इकोसिस्टम और प्लेटफार्मों को बहुत तेज़ी से बनाने और उन्हें बनाए रखने के लिए पर्याप्त सहायता प्रदान करने की दिशा में अधिक प्रयास करने की ज़रूरत है। सोशल सेक्टर को इसकी ज़रूरत है ताकि संगठन अपने द्वारा किए जाने वाले कामों में तकनीक को बेहतर और अधिक सुनियोजित तरीके से शामिल कर सकें।

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कच्छ के एक बाटिक शिल्पकार की दुविधा

शकील खत्री, एक बाटिक शिलकर कपड़े पर प्रिंट करने के लिए हैंड ब्लॉक का उपयोग करते हैं-बाटिक कच्छ

मैं गुजरात के कच्छ ज़िले के खत्री नामक शिल्पकार समुदाय से संबंध रखता हूँ। मेरे परिवार के लोग पिछले छह पीढ़ियों से बाटिक का काम करते हैं। बाटिक एक पारम्परिक ब्लॉक-प्रिंटिंग शिल्प है जिसमें मोम की मदद से रंगाई का काम किया जाता है।

कुछ दशक पहले तक इस इलाक़े में बाटिक का काम करने वाले ढ़ेर सारे शिल्पकार थे। लेकिन समय के साथ उनमें से ज़्यादातर शिल्पकारों ने अपने कारख़ाने बंद कर दिए और अब इस काम को करने वाले केवल थोड़े ही शिल्पकार रह गए हैं। इसके पीछे कई कारण हैं। खत्री समुदाय बहुत अधिक प्रतिस्पर्धी होता है—नतीजतन कई शिल्पकारों को अपने उत्पादों की क़ीमत कम करने के लिए बाध्य होना पड़ता है। एक समय के बाद गुणवत्ता से समझौता किए बिना क़ीमत को कम करना सम्भव नहीं होता है। और इसलिए ही वे निम्न गुणवत्ता वाले उत्पाद बनाने लग गए। जब ऐसा होने लगा तो धीरे-धीरे उनके ग्राहक आने बंद हो गए और अंत में उन्हें अपनी दुकान बंद करनी पड़ गई। इस प्रतिस्पर्धा के कारण कई कारख़ाने ठप्प पड़ गए।

इस स्थिति के पीछे का एक कारण और भी है। 2001 में कच्छ में आए भूकम्प के बाद मुंद्रा पोर्ट का निर्माण किया गया। सरकार ने भी 10 वर्ष तक आयकर की छूट की घोषणा कर दी, नतीजतन कई कम्पनियों ने इस इलाक़े में अपनी फैक्टरियां स्थापित कर लीं। इससे रोज़गार के नए अवसरों का निर्माण हुआ। युवा पीढ़ियों की पहली पसंद इन फैक्टरियों में मिलने वाला रोज़गार बन गया, क्योंकि उन्हें कम शारीरिक मेहनत में ही अच्छी तनख़्वाह भी मिलती है। शिल्पकारी से जुड़े काम में बहुत अधिक मेहनत होती है और इसके कारण युवा पीढ़ी शिल्प को अपना करियर बनाने से कतराते हैं।

इन सबके अलावा, बाटिक उत्पादन एक खर्चीली प्रकिया है। इसलिए इस काम को शुरू करने वाले किसी भी व्यक्ति को कड़ी मेहनत और बहुत अधिक धन निवेश के लिए तैयार होना पड़ता है। उदाहरण के लिए रंगों वाले केमिकल की क़ीमत में 25 फ़ीसदी की बढ़ोतरी हो गई है और कपड़े की क़ीमत हर साल प्रति मीटर 10 रुपए बढ़ जाती है। बाटिक के काम में बहुत अधिक मात्रा में मोम का इस्तेमाल किया जाता है जो एक पेट्रोलियम उत्पाद है। इसलिए जब भी पेट्रोलियम की क़ीमत बढ़ती है मोम भी महंगा हो जाता है। एक साल पहले मोम की क़ीमत 102 रुपए प्रति किलो था। आज इसका मूल्य 135 रुपए प्रति किलो तक पहुंच गया है और इस पर ऊपर से 18 प्रतिशत जीएसटी भी लगता है। यह सब मिलकर हमारे लिए बहुत महंगा हो जाता है।

पहले जब शिल्पकारों की संख्या बहुत अधिक थी तब हमारा एक यूनियन था। उसकी मदद से हमें मोम ख़रीद पर सरकार से सब्सिडी मिलती थी। जैसे ही हमारी संख्या कम हुई हमारा यूनियन भंग हो गया और अब हमें सब्सिडी की सुविधा नहीं मिल सकती है।शिल्पकारों का एक बड़ा समूह ही सब्सिडी की मांग कर सकता है। हालांकि अब हम में से बहुत कम लोग बच गए हैं और परिस्थितियां ऐसी हैं कि किसी नए व्यक्ति के लिए बाटिक जैसे प्रतिस्पर्धी और बहुत अधिक मेहनत वाले व्यापार में शामिल होने के लिए शून्य के बराबर प्रोत्साहन बचा है। यह कुछ-कुछ कैच-22 जैसी स्थिति है।

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शकील खत्री रैंबो टेक्सटाइल्स और नील बाटिक के मैनेजिंग पार्ट्नर हैं। नील बाटिक 200 मिलियन आर्टिज़न्स के साथ काम करता है जो आईडीआर की #ज़मीनीकहानियां के लिए कंटेंट पार्ट्नर है।

अधिक जानें: पढ़ें कि भारत को अपने शिल्पकारों के समुदायों को सशक्त करने की ज़रूरत क्यों हैं।

अधिक करें: शकील खत्री के काम के बारे में विस्तार से जानने के लिए उनसे @shakil_ahmed_2292 पर सम्पर्क करें।

प्यार या अवैतनिक काम? एक ट्यूशन टीचर की दुविधा

छात्रों से घिरे फर्श पर बैठे शिक्षक-ट्यूशन ओड़िशा

ओड़िशा के गांवों में सामुदायिक शिक्षण की अवधारणा बहुत अधिक लोकप्रिय है। इसके तहत अभिभावक अपने बच्चों को अपने ही समुदाय के एक शिक्षक के पास भेजते हैं। बच्चे अपनी स्कूल की पढ़ाई पूरी करने के बाद वहां जाकर कुछ नया सीखते हैं। आमतौर पर, एक गांव या समुदाय में एक या उससे अधिक सामुदायिक शिक्षक होते हैं। यह अभिभावकों का अपने समुदाय के लोगों पर गहरे विश्वास का नतीजा है। इसके अलावा यह एक तथ्य भी है कि जब माता-पिता काम पर होते हैं तब किसी ऐसे की ज़रूरत होती है जो उनके छोटे-छोटे बच्चों की देखभाल करे और उन्हें पढ़ाए।

थिंकज़ोन नाम के एक शैक्षणिक स्वयंसेवी संस्था में अपने काम के रूप में मैंने देखा है कि इन सामुदायिक शिक्षकों में ज़्यादातर महिलाएं हैं। ये गांव के विभिन्न घरों की बेटियां या बहुएं हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि लोगों का मानना है कि महिलाएं बच्चों के देखभाल के काम में स्वाभाविक रूप से अच्छी होती हैं। यह एक ऐसा काम है जिसे महिलाएं अपनी पढ़ाई या काम से जुड़ी अपनी दिनचर्या को प्रभावित किए बिना ही कर सकती हैं। शिक्षकों से बात करने पर, अविवाहित युवा महिलाओं ने कहा कि वे अपनी पढ़ाई पूरी करने के लिए सामुदायिक ट्यूशन में हिस्सा लेती हैं। वहीं विवाहित महिलाओं ने बताया कि इससे उनके निजी ख़र्चों के लिए कुछ अतिरिक्त पैसे आ जाते हैं।

कटक ज़िले में बलिसाही गांव की सौभाग्यलक्ष्मी कहती है कि “पूरा गांव मेरे परिवार की तरह है, और इस गांव का हर परिवार मुझे अपनी बहू की तरह ही सम्मान देता है। इसी भरोसे के कारण माता-पिता अपने बच्चों को मेरे पास भेजते हैं।”

हालांकि समुदाय के बच्चों की देखभाल और उनकी शिक्षा के क्षेत्र में महिलाओं की इस महत्वपूर्ण भूमिका की कोई ख़ास क़ीमत नहीं है। सौभाग्यलक्ष्मी की तरह ही अन्य महिलाएं भी अपने समुदाय के बच्चों को बहुत ही कम शुल्क या कभी-कभी बिना किसी शुल्क के पढ़ाती हैं। चूंकि वे समुदाय का हिस्सा होती हैं इसलिए बच्चे किसी न किसी तरह से उनके संबंधी होते हैं। नतीजतन पैसों की बात करना सही नहीं माना जाता है। अभिभावक भी यही मानते हैं कि शिक्षक जो भी कर रहे हैं वह उनका कर्तव्य है, और उन्हें इसके लिए वेतन नहीं लेना चाहिए। बातचीत में एक अभिभावक ने कहा “वह ट्यूशन टीचर नहीं है; वह मेरी बेटी जैसी है जो सिर्फ़ मेरे बच्चे की देखभाल कर रही है।” इससे उन महिलाओं को कठिनाई होती है जिनके लिए शिक्षण का काम आय का एक स्त्रोत होता है। सौभाग्यलक्ष्मी ने आगे बताया, “अभिभावक नियमित रूप से ट्यूशन का शुल्क नहीं देते हैं। वे अपनी सुविधा के अनुसार मुझे पैसे देते हैं। कभी-कभी तो मुझे चार महीने में एक बार पैसा मिलता है। मैं इस गांव की बहू हूं और एक बहू के लिए पैसे की मांग करना अच्छा नहीं माना जाता है। इसके अलावा अपने रिश्तेदार से पैसे मांगना भी स्वीकार्य नहीं होता है।”

इतिश्री बेहेरा अपने राज्य ओड़िशा में थिंकज़ोन नाम के एक शैक्षणिक स्वयंसेवी संस्था के साथ काम करती हैं।

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अधिक जानें: जानें कि बच्चों की शिक्षा अभिभावकों से क्यों शुरू होती है।

अधिक करें: इतिश्री के काम के बारे में विस्तार से जानने और उनका सहयोग करने के लिए उनसे [email protected] पर सम्पर्क करें।

अनौपचारिक श्रमिकों के लिए सुरक्षित प्रवास की स्थायी व्यवस्था कैसे की जा सकती है

मार्च 2020 में कोविड-19 महामारी की शुरुआत और उसके बाद देश भर में लगे लॉकडाउन ने भारत में गांव से शहरों की तरफ़ हुए पलायन की गम्भीरता और प्रवासी श्रमिकों एवं उनके परिवारों की वास्तविक दुर्दशा को सामने लाने का काम किया था। सामाजिक और आर्थिक रूप से वंचित ग्रामीण समुदायों के लिए काम के लिए शहरों में जाकर बसना एक मुख्य रणनीति रही है।

प्रवासी श्रमिकों के साथ काम करने के बाद हमारा अनुभव कहता है कि प्रवासन के चलते होने वाला विकास उस क्षेत्र की सामाजिक और आर्थिक छवि को प्रभावित कर सकता है। प्रवासी श्रमिकों द्वारा दिया गया धन गावों की अर्थव्यवस्था की सुगमता बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इससे न केवल प्रवासी श्रमिकों के परिवार लाभान्वित होते हैं बल्कि पूरे गांव की अर्थव्यवस्था को लाभ पहुंचता है। इससे जीवन स्तर बेहतर होता है, बेहतर शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं के ज़रिए मानव विकास (ह्यूमन डेवलपमेंट) में निजी निवेश बढ़ता है, उत्पादन से जुड़े संसाधनों का बेहतर इस्तेमाल होता है और पैदावार में वृद्धि होती है। इसके अलावा इस तरह से हुआ विकास लंबे समय तक चलता रह सकता है।

किसी आपदा या संकट के कारण होने वाले प्रवास और रोज़गार के नए मौक़े खोजने के लिए किए गए प्रवास के बीच अंतर करना ज़रूरी है। इन दोनों को अलग करने वाली चीज़, लोगों में प्रवास से जुड़े फ़ैसलों को नियंत्रित करने की क्षमता है। इसे इस उदाहरण से समझ सकते हैं: जलवायु-संवेदनशील क्षेत्रों में प्रवास के विषय पर किए गए एक अध्ययन में जीवन को बचाने के लिए किए गए प्रवास और अनुकूलन के लिए किए गए प्रवास के बीच के अंतर को पहचाना गयाइसे दूसरे शब्दों में संकट से निकलने के लिए किया गया प्रवास और विकास के लिए किया गया प्रवास कहा जा सकता है।

आदमी अपनी साइकिल को पानी के पार ले जा रहा है-प्रवासी मज़दूर
अधिकतर सरकारी नीतियां प्रवासियों के जीवन पर कोई संतोषजनक प्रभाव नहीं डाल पाती हैं। | चित्र साभार: ग्राम विकास

साल 2019 से सेंटर फ़ॉर मायग्रेशन एंड इंक्लूसिव डेवलपमेंट (सीएमआईडी) और ग्राम विकास मिलकर ओडिशा में सुरक्षित और सम्मानजनक प्रवासन पर काम कर रहे हैं।

यह काम करते हुए साल 2019 से 2021 के बीच हम लोगों ने चार इंडिपेंडेंट एम्पिरिकल स्टडीज़ (स्वतंत्र प्रयोग और अनुभव आधारित अध्ययन) किए। ओडिशा के कुछ चुनिंदा जिलों में किए इन अध्ययनों का उद्देश्य देशभर में लगे लॉकडाउन से पहले यहां के परिवारों को मिलने वाली उस मासिक धनराशि का अनुमान लगाना था जो उन्हें उनके प्रवासी सदस्य भेजते थे। इन चुने हुए ज़िलों के परिवारों को मिलने वाली मासिक धनराशि अच्छी थी। एक अनुमान के अनुसार यह धनराशि गंजम में 124 करोड़ रुपए , कालाहांडी में 37 करोड़ रुपए, गजपति में 15 करोड़ रुपए और कंधमाल ज़िले में 16 करोड़ रुपए दर्ज की गई। कालाहांडी ज़िले के थुआमूल रामपुर प्रखंड में प्रवासियों के परिवारों को मिलने वाली धनराशि 30 करोड़ रुपए रही। यह धनराशि विभिन्न ग्रामीण विकास कार्यक्रमों के तहत सरकार द्वारा सालाना खर्च की जाने वाली राशि के बराबर है।

इस अध्ययन से यह भी सामने आया कि यदि लोगों को उनके गांव में ही 10,000–12,000 रुपए की मासिक आय देने वाला कोई काम मिल जाए तो उनमें से ज्यादातर अपना घर छोड़कर बाहर नहीं जाना चाहेंगे। हालांकि आर्थिक गतिविधियों के निम्न स्तर को देखते हुए निकट भविष्य में देश के अधिकांश इलाक़ों में यह सम्भव होता दिखाई नहीं पड़ता है। इसके साथ ही, जलवायु परिवर्तन जैसी नई उभरती चुनौतियों के कारण और ज्यादा लोगों को आजीविका के लिए दूसरी जगह जाने पर बाध्य होना पड़ रहा है। यह सही है कि प्रवासी कामगार भारत के महानगरों की रीढ़ हैं और उनके गांव छोड़ देने के कारण ही पीछे रह गए लोगों को तत्कालिक आर्थिक समाधान मिल पाता है। लेकिन प्रवासियों और उनके परिवारों को इसकी भारी क़ीमत चुकानी पड़ती है।

भारत के अधिकतर राज्यों में राशन कार्ड व्यक्तिगत रूप से आवंटित करके पूरे घर को आवंटित किया जाता है, जिससे समस्या और अधिक जटिल हो जाती है।

वैसे तो सरकारी नीतियां लोगों को जीवन के अनुकूल वातावरण प्रदान करती हैं लेकिन इनसे प्रवासियों के जीवन में कोई संतोषजनक अंतर नहीं आया है। उदाहरण के लिए, अंतरराज्यीय प्रवासी कामगार विनियमन अधिनियम (1979) ठेकेदारों के लिए लाइसेंस और उनके अपने राज्यों से बाहर के श्रमिकों को काम पर रखने के लिए प्रतिष्ठानों का रजिस्ट्रेशन अनिवार्य बनाता है। इसके साथ ही यह श्रमिकों के लिए कई अन्य कल्याणकारी साधन प्रदान करता है। इन साधनों में विस्थापन भत्ता, यात्रा भत्ता, स्थानीय श्रमिकों के बराबर मज़दूरी और बिना किसी लिंग-भेद के मज़दूरी दिया जाना शामिल है। हालांकि यह प्रवासी मज़दूरों के लिए बहुत अधिक उपयोगी साबित नहीं हुआ। संबंधित क्षेत्र के श्रम विभाग में सीमित मानव संसाधन, नियमों के ख़राब क्रियान्वयन, भ्रष्टाचार, सीएसओ और ट्रेड यूनियनों के सीमित प्रभाव, जागरूकता की कमी और प्रवासी श्रमिकों की अपने अधिकारों को लेकर बातचीत कर सकने की अयोग्यता जैसे कारक भी इस स्थिति के मुख्य कारण हैं। अनौपचारिक रूप से नियुक्त होने के कारण इन श्रमिकों को कर्मचारियों के राज्य बीमा या भविष्य निधि सुविधाओं का लाभ भी नहीं मिलता है।

हालांकि वन नेशन वन राशन कार्ड (ओएनओआरसी) योजना पोर्टबिलिटी (देश के किसी भी राज्य में राशन कार्ड के इस्तेमाल की योग्यता) की सुविधा प्रदान करता है लेकिन इससे अभी तक प्रवासी श्रमिकों को उनके काम वाली जगहों पर राशन प्राप्त करने में कुछ ख़ास मदद नहीं मिल सकी है। ज़्यादातर योजनाओं की तरह ही इस पहल को भी सही तरह से प्रचारित न किए जाने के चलते सम्भावित लाभार्थियों में इसे लेकर कोई जागरुकता नहीं है। भारत के ज़्यादातर राज्यों में राशन कार्ड व्यक्ति विशेष के लिए न होकर पूरे परिवार के लिए आवंटित किया जाता है जो इस तरह के मामलों को और अधिक जटिल बना देता है। ओएनओआरसी के तहत राशन को मूल निवास और प्रवास स्थान के बीच विभाजित किया जा सकता है लेकिन इस तरह की समझ के साथ काम किया जाना उतने बड़े स्तर पर संभव नहीं हो पाया है।

प्रवासन के दर में होने वाली वृद्धि की सम्भावना और नीतियों के कार्यान्वयन में उपस्थित कमियों को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि परिवारों के सुरक्षित, सम्मानजनक और समावेशी प्रवासन को सुनिश्चित करने में स्वयंसेवी संगठन अपनी स्पष्ट भूमिका निभा सकते हैं। महामारी के दौरान इन मुद्दों पर काम के अपने अनुभवों के आधार पर हम कुछ उपाय सुझा रहे हैं जिनका उपयोग स्वयंसेवी संस्थाएं प्रवासियों के साथ काम करने के दौरान कर सकती हैं।

मूल निवास से प्रवास स्थान (सोर्स-डेस्टिनेशन कॉरिडोर) तक पहुंचने में मध्यस्थता करना

सोर्स-डेस्टिनेशन कॉरिडोर के विचार में मूल निवास से प्रवास स्थान तक की पूरी प्रक्रिया और अनुभव की जानकारी होती है। इससे प्रवासियों, उनके परिवारों और दोनों ही संदर्भों में एक बड़े समुदाय के सामने आने वाले अवसरों और चुनौतियों की पहचान करने में मदद मिलती है।

मूल निवास और प्रवास स्थान दोनों ही क्षेत्रों को शामिल कर मध्यस्थता करना सिर्फ़ एक क्षेत्र को शामिल करने वाली मध्यस्थता की तुलना में अधिक असरदार होता है। प्रवास के दोनों सिरों पर ध्यान देना श्रमिकों और उनके परिवार के सदस्यों के लिए अंतरराज्यीय समन्वय और सेवाओं तक निर्बाध पहुंच को सुविधाजनक बनाता है। यह तरीका उस स्थिति में अधिक कारगर होता है जब या तो संगठन की उपस्थिति मूल निवास और प्रवास स्थान दोनों ही जगहों पर होती है या फिर मूल निवास और प्रवास स्थानों पर काम कर रहे संगठनों के बीच समन्वय होता है।

उदाहरण के लिए, राजस्थान, सूरत, अहमदाबाद और मुंबई में काम कर रही आजीविका ब्यूरो नाम की स्वयंसेवी संस्था कामकाज के लिए राजस्थान के ग्रामीण इलाक़ों से उदयपुर, अहमदाबाद या मुंबई जाने वाले प्रवासी श्रमिकों की मदद करती है।

ग्राम विकास एवं सीएमआईडी मूल निवास से प्रवास स्थान तक सुरक्षित प्रवास कार्यक्रम के लिए एक साथ मिलकर काम कर रहे हैं। जब ओडिशा के कालाहांडी ज़िले के श्रमिक काम के लिए केरल वापस नहीं लौट पा रहे थे तब ग्राम विकास ने दूसरे गांवों से प्रवासियों को लाने और उनकी यात्रा बीमा करवाने का प्रबंध किया था। ग्राम विकास से प्रवासियों की ज़रूरतों से संबंधित जानकारी मिलने के बाद सीएमआईडी ने वहां पहुंच रहे प्रवासी श्रमिकों के लिए सम्भावित औपचारिक रोज़गार अवसरों की पहचान का काम शुरू कर दिया। इसने ओडिशा से केरल की उनकी यात्रा की पूरी ज़िम्मेदारी उठाई और वहां पहुंचने के बाद श्रमिकों की कोविड-19 की जांच भी की गई। इसके अलावा श्रमिकों को बैंक खाता खुलवाने में भी मदद दी गई और किसी भी तरह की शिकायत का निवारण मिल-जुलकर कोशिश कर किया जाता था।

साक्ष्यों पर आधारित कार्यक्रम बनाएं (एविडेंस इंफॉर्म्ड इंटरवेंशन)

एक से दूसरी जगह पर प्रवासन के लिए कार्यक्रम बनाते हुए पहले उपलब्ध जानकारी और अनुभवों का इस्तेमाल कर इसे अधिक कारगर तरीक़े से किया जा सकता है। मूल निवास वाले स्थानों पर यह समझना कि कितनी बड़ी संख्या में लोगों को बाहर जाना है, सामुदायिकता के आधार पर अलग तरह से प्रवास की व्यवस्था और लोगों की उम्मीदों के मुताबिक़ मध्यस्थता की सुविधा दी जा सकती है। उदाहरण के लिए ग्राम विकास और सीएमआईडी द्वारा किए गए अध्ययन से यह सामने आया कि कालाहांडी और कंधमाल के ज़्यादातर श्रमिक केरल जाते हैं, वहीं गंजम ज़िले के मज़दूर प्रवास के लिए सूरत जाते हैं। इस तरह की जानकारियों से मूल निवास क्षेत्रों में कार्यरत संगठनों को सहयोग के लिए संबंधित प्रवास स्थानों पर कार्यरत संगठनों का पता लगाने में सुविधा होती है और वे अपने क्षेत्रों से जाने वाले श्रमिकों के कल्याण को सुनिश्चित कर पाते हैं।

श्रमिकों की मातृभाषा में वॉइस संदेश के माध्यम से सूचना देने से अनपढ़ लोग भी लाभान्वित हो सकते हैं।

प्रवास स्थानों पर, प्रवासी श्रमिकों की प्रोफाइल की जानकारी उपलब्ध होने से उन तक पहुंचने के लिए कारगर रणनीति तैयार करने में मदद मिल सकती है। उदाहरण के लिए, प्रिंट मीडिया में सूचना, शिक्षा और संचार सामग्री से अनपढ़ श्रमिकों को लाभ नहीं होगा। हालांकि ऐसे टारगेटेड समूहों तक उनकी मातृभाषा में तैयार किए गए वॉइस संदेश आसानी से पहुंच सकते हैं। केरल के एर्नाकुलम ज़िले में 40 फ़ीसदी प्रवासी मज़दूर पश्चिम बंगाल के मूल निवासी हैं, वहीं 20 फ़ीसदी असम और तमिलनाडु से और 12 फ़ीसदी प्रवासी श्रमिक ओडिशा के हैं। आगे बढ़कर काम करने वाले कार्यकर्ताओं की भर्ती और इन प्रवासी श्रमिकों के साथ प्रभावी संचार सुनिश्चित करने के लिए और एक उपयुक्त भाषा का चुनाव करने के लिए यह जानकारी महत्वपूर्ण है।

क्रॉस-कटिंग पार्टनरशिप बनाएं

प्रवासी श्रमिकों के कल्याण को सुनिश्चित करने में सरकारी-निजी साझेदारी की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। इस तरह की साझेदारी का लाभ प्रवास स्थानों पर प्रवासी श्रमिकों के स्वास्थ्य की देखभाल पर स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ता है। सार्वजनिक स्वास्थ्य केंद्रों पर आम तौर पर आउट पेशेंट सेवाओं या डॉक्टरों से सलाह लेने का समय और प्रवासियों के काम का समय एक ही होता है। ऐसे में उनके लिए दिन की मजदूरी खोए बिना मुफ्त स्वास्थ्य सेवा प्राप्त करना मुश्किल हो जाता है। इसके कारण उन्हें अपने काम के बाद बग़ैर डॉक्टरी सलाह के निजी फ़ार्मेसी से दवाएं लेने पर बाध्य होना पड़ता है। दवा की दुकानों पर अक्सर बिना जांच के ही प्रवासी श्रमिकों को दवा दे दी जाती है। इस तरह, तपेदिक से पीड़ित किसी श्रमिक को टीबी की जांच और उसके उचित इलाज की उचित सलाह मिलने की बजाय साधारण कफ सिरप भर मिलता है।

सीएमआईडी के पास सार्वजनिक स्वास्थ्य में विशेषज्ञता थी और वे प्रवासी श्रमिकों की सुविधा के अनुसार अपनी सेवाएं भी दे सकते थे लेकिन उनके पास मोबाइल क्लिनिक को चलाने के लिए वित्तीय संसाधन उपलब्ध नहीं थे। मंगलोर रिफ़ायनरी एंड पेट्रोकेमिकल लिमिटेड (एमआरपीएल) एक सार्वजनिक क्षेत्र का उद्यम है। इसने मोबाइल क्लिनिक के रूप में इस्तेमाल किए जाने वाले वाहन को ख़रीदने में होने वाला खर्च अपने ज़िम्मे लेने का प्रस्ताव दिया। विप्रो लिमिटेड ने अपने सीएसआर पहल के अंतर्गत इस मोबाइल क्लिनिक के संचालन के लिए आर्थिक मदद देने की पेशकश की। इस खर्च में कर्मचारियों, दवाइयों, अन्य सामग्री तथा गाड़ी के लिए ईंधन की लागत शामिल थी। नेशनल हेल्थ मिशन (एनएचएम) ने इस कार्यक्रम के क्रियान्वयन के तकनीकी पहलुओं का ज़िम्मा अपने ऊपर लिया और साथ ही किसी भी अन्य प्रकार की दवाइयां और सामग्री को उपलब्ध करवाने का काम भी किया। एनएचएम ने रेफरल सेवाओं/फॉलो-अप की आवश्यकता वाले मामलों के प्रबंधन करने के लिए एर्नाकुलम में सार्वजनिक स्वास्थ्य संस्थानों के साथ जोड़े जाने की सुविधा प्रदान की। इससे सीएमआईडी बंधु क्लिनिक के संचालन में सक्षम हो सका। बंधु क्लिनिक एक ऐसा मोबाइल क्लिनिक है जो श्रमिकों को उनके काम के घंटे ख़त्म होने के बाद मुफ़्त प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध करवाता है। इस क्लिनिक ने कई ईंट भट्टों, मछली पकड़ने वाले तटों, प्लाईवुड कारखानों, मछली प्रसंस्करण इकाइयों, औद्योगिक समूहों, फुटलूज़ श्रम के आवासीय क्षेत्रों और एर्नाकुलम के बाजारों में 40,000 से अधिक प्रवासी श्रमिकों को अपनी सेवा प्रदान की है। इन मोबाइल क्लीनिकों ने 70,000 प्रवासी श्रमिकों को कोविड-19 का टीका लगवाने में भी प्रशासन की मदद की है।

ज़रूरत के मुताबिक सुविधा तंत्र बनाना

मूल निवास एवं प्रवास स्थान दोनों ही जगहों पर रिसोर्स सेंटर की उपयोगिता बहुत अधिक है। मूल निवास क्षेत्रों में ये केंद्र प्रवास से जुड़े निर्णय लेने की प्रक्रिया में संभावित प्रवासी श्रमिकों की मदद कर सकते हैं। साथ ही उन्हें रोज़गार अवसरों और आवश्यकताओं से जुड़ी सूचना देकर उन्हें एक अच्छी नौकरी तक पहुंचने के योग्य बना सकते हैं। वे यात्रा की योजना बनाने, टिकट आरक्षण और कोविड-19 टीका प्रमाणपत्र जैसे ज़रूरी काग़ज़ात तैयार करने में श्रमिकों की मदद कर सकते हैं। इसके साथ ही वे बैंक खाता खुलवाने और स्थानीय प्रशासनों से उनके सम्पर्क में भी मदद पहुंचा सकते हैं जिससे श्रमिकों को सामाजिक सुरक्षा से जुड़ी सुविधाएं मिल सके।

ग्राम विकास, गंजम ज़िले में बेरहामपर रेलवे स्टेशन के पास श्रमिक बंधु सेवा केंद्र नाम का एक रिसोर्स सेंटर चलाता है। इस रेलवे स्टेशन से भारी संख्या में श्रमिक देश के अंदर और बाहर विभिन्न जगहों की यात्रा के लिए जाते हैं। यह सेंटर श्रमिकों को काम पर जाने या उनके वापस घर लौटने, दोनों ही समय में परिवहन से जुड़ी सुविधाएं मुहैया करवाता है।

कालाहांडी जिले के थुआमुल रामपुर ब्लॉक और कंधमाल जिले के दरिंगबाड़ी ब्लॉक में, ऐसे केंद्रों का एक नेटवर्क दूरदराज के गांवों के श्रमिकों को सूचना और दस्तावेज़ीकरण से जुड़ी सेवाएं प्रदान करता है। इन केंद्रों ने परिवार के सदस्यों को लापता श्रमिकों का पता लगाने, नियोक्ताओं द्वारा प्रवास स्थान पर जबरन हिरासत में लिये गए श्रमिकों की रिहाई करवाने और घर से दूर मरने वाले प्रवासी श्रमिकों के शवों की वापसी आदि जैसे कामों में मदद की है।

बैंक खाते खोलना और आंगनवाड़ी और स्कूलों में बच्चों के प्रवेश की सुविधा प्रदान करना उन सेवाओं में से हैं जिनका लाभ प्रवासी अपने प्रवास स्थान पर रिसोर्स सेंटर से प्राप्त कर सकते हैं।

प्रवास स्थान पर होने वाले रिसोर्स सेंटर विभिन्न सामाजिक कल्याणकारी योजनाओं में रजिस्ट्रेशन करवाने, सरकारी विभागों में शिकायत दर्ज करवाने और उनके निवारण के लिए समय-समय पर पूछताछ करने में श्रमिकों की मदद करते हैं। बैंक में खाते खोलना, आंगनवाड़ी और स्कूलों में बच्चों के प्रवेश की सुविधा, टीकाकरण के लिए नामांकन और श्रमिकों को नौकरी खोजने या कानूनी सहायता प्राप्त करने में मदद करना ऐसी कुछ सेवाएं हैं जो प्रवासी अपने प्रवास स्थान के रिसोर्स सेंटर्स से प्राप्त कर सकते हैं।

यह बात याद रखना महत्वपूर्ण है कि प्रवासन की प्रक्रिया में केवल प्रवासी श्रमिक ही एकमात्र हितधारक नहीं है बल्कि उनके पीछे छूट जाने वाला उनका परिवार भी उतना ही महत्वपूर्ण है। उनकी ज़रूरतें और चुनौतियां हमेशा ही बहुआयामी होती हैं और इसलिए उनकी मदद के लिए तैयार संसाधन भी बहुआयामी होने चाहिए। इसके लिए कई विषयों से संबंधित क्षेत्रों में काम करने और एजेंसियों के विविध समूह को एक साथ लाने की ज़रूरत है। मूल निवास के स्तर पर पंचायती राज संस्थान, सरकारी विभाग और वित्तीय संस्थान, यात्रा की सुविधा देने वाली संस्था, कौशल निर्माण संस्थान, पंचायती राज संस्थान, सरकारी विभाग और सेवा प्रदाता जैसे वित्तीय संस्थान, यात्रा सुविधा प्रदाता, कौशल संस्थान, भर्ती एजेंसियां और संसाधन केंद्र स्रोत स्तर पर प्रवासियों के लिए महत्वपूर्ण इकाइयां हैं। प्रवास स्थान पर नियोक्ता, उद्यम संघ, ट्रेड यूनियनों, मीडिया और यहां तक कि वहां के समाज की भूमिका भी महत्वपूर्ण होती है।

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एक दानदाता के दृष्टिकोण से धन इकट्ठा करना

बीते एक दशक में भारत का सोशल सेक्टर उल्लेखनीय रूप से विकसित हुआ है। अब अपेक्षाकृत कमजोर तबकों की मदद और राष्ट्र-निर्माण, दोनों ही क्षेत्रों में स्वयंसेवी संस्थाओं की भूमिका को पहचाना जाने लगा है। इसके बावजूद स्वयंसेवी संस्थाओं के लिए आर्थिक मदद हासिल करना (फंडरेजिंग) अब भी एक बड़ी चुनौती है। स्वयंसेवी संस्थाओं की तमाम मुश्किलों और पूंजी जुटाने की जटिलताओं सरीखी दो वास्तविकताओं पर गौर करें तो यह कहा जा सकता है कि किसी समाजसेवी संगठन को सफलतापूर्वक चलाने के लिए धन इकट्ठा करना सबसे जरूरी चीज है।

स्वयंसेवी संस्थाओं के लिए धन इकट्ठा करने की ज़िम्मेदारी उठाने वाले यानी एक फंडर (दानदाता) के रूप में हमें कई ऐसे अग्रणी संगठनों के साथ काम करने का मौक़ा मिला जो भारतीयों की सबसे बड़ी मुश्किलों को हल करने के लिए काम करते हैं। बीते एक दशक में धन इकट्ठा करने के लिए हमने 100 से भी अधिक स्वयंसेवी संस्थाओं के साथ काम किया। इसी दौरान हुए अपने कुछ उल्लेखनीय अनुभवों को हम यहां साझा कर रहे हैं।

1. किसी संगठन के लिए धन इकट्ठा करना एक मुख्य गतिविधि है कि भटकाव

हाल के सालों में समाजसेवी संगठन और इन्हें चलाने वाले धन इकट्ठा करने को काम के अनिवार्य हिस्से की तरह स्वीकारने लगे हैं। इन्होंने इसे अपने कार्यक्रम के उद्देश्य की तरह ही केंद्र में रखना शुरू कर दिया है। इनके लिए अब यह ‘मुख्य काम’ से भटकाव नहीं है। समाजसेवी कार्यकर्ता अब यह समझते हैं कि इस काम को भी समय देने और इसमें ध्यान लगाने और सक्रिय रहने की ज़रूरत है। इसलिए धन इकट्ठा करने वाली किसी टीम की सफलता के लिए यह आवश्यक है कि वह उद्यमी, अपने लक्ष्य के प्रति जुनूनी और अपने संगठन का सही तरीके से प्रतिनिधित्व करती हो। स्वयंसेवी संस्थाओं के शुरुआती चरण में संस्थापकों को अपना 40–50 फ़ीसदी समय धन इकट्ठा करने में और संगठन में इसकी संस्कृति विकसित करने में लगाने की ज़रूरत पड़ सकती है। 

2. संगठनों को धन इकट्ठा करने के लिए एक अच्छी और ऐसी व्यवस्था बनाने में निवेश करना चाहिए जोउनके उद्देश्य के लिए उपयुक्तहो

एक बढ़िया फंडरेजिंग टीम निस्संदेह सबसे अच्छे शुरुआती निवेशों में से एक है जो एक स्वयंसेवी संस्था कर सकती है। फंडरेजिंग टीम के उद्देश्य संगठन के अपने विकास लक्ष्यों के अनुरूप और उससे आगे होने चाहिए। धन इकट्ठा करने की व्यवस्था को ‘उद्देश्य के लिए उपयुक्त’ होना चाहिए। यानी कि इसे संस्थान की स्थिति, क्षमता और उसके उद्देश्यों को ध्यान में रखते हुए तैयार किया जाना चाहिए।

शुरुआती चरण में आमतौर पर संस्थापक ही धन इकट्ठा करने की ज़िम्मेदारी उठाते हैं।

आज स्वयंसेवी संस्थाओं के सामने धन इकट्ठा करने के सेटअप के कई विकल्प मौजूद हैं जिन्हें वे अपनी आवश्यकता के अनुसार चुन सकते हैं। शुरुआती चरण में आमतौर पर संस्थापक ही धन इकट्ठा करने की ज़िम्मेदारी उठाते हैं। नज फ़ाउंडेशन जैसे कुछ संगठनों के पास केवल धन इकट्ठा करने का ही काम करने वाली एक अलग टीम है। वहीं, प्रथम जैसे संगठन किसी कार्यक्रम के लिए धन इकट्ठा करने से लेकर उसके उद्देश्य को पूरा करने तक का काम एक ही व्यक्ति या टीम को दे देते हैं। इसके अलावा, स्वयंसेवी संस्थाएं बाहरी सहयोगियों का लाभ उठा सकती हैं—जैसे कि वे दसरा और संहिता जैसे संगठनों या व्यक्तिगत स्तर पर काम करने वाले सलाहकारों की मदद ले सकती हैं। ये सहयोगी उच्च आय वर्ग वाले लोगों (हाई नेट वर्थ इंडीविजुअल) और सीएसआर फंड से पूंजी जुटा सकते हैं। बीते कुछ सालों में आईएलएसएस और आईएसडीएम जैसे संस्थान धन इकट्ठा करने में कुशल लोगों को संस्थानों तक पहुंचाने लगे हैं जो इस सेक्टर के लिए अच्छी बात है। कुछ संगठन तो धन इकट्ठा करने के लिए सामुदायिक रिश्तों का लाभ भी उठाते हैं। उदाहरण के लिए जन साहस ने देशभर में समुदाय आधारित ऐसे 12 संगठनों को शामिल किया है जो मिलकर धन इकट्ठा करने का काम करते हैं, और अब उनकी कुल फ़ंडिंग का लगभग आधा हिस्सा सामुदायिक योगदान से ही पूरा होता है।

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दानदाताओं की नीतियों पर ध्यान देने से स्वयंसेवी संस्थाओं को उनके साथ मजबूत संबंध बनाने में मदद मिल सकती है। | चित्र साभार: विवेक ठकयाल / सीसी बीवाय 

3. एक बढ़िया धन इकट्ठा करने के पिच में कहानी, रणनीति और आंकड़ों का संतुलन होना चाहिए

दानदाताओं के सामने जब आप अपनी बात रख रहे हों तो उसमें कई अलग-अलग चीजें शामिल होती हैं। मसलन, शुरूआती हिस्से में संगठन के मुख्य कामों की जानकारी देना उपयोगी होता है। आप मानें या न मानें कई बार फंडर्स इस बात को लेकर बहुत स्पष्ट नहीं होते कि उनकी संस्था वास्तव में क्या करती है, भले ही उन्होंने इससे जुड़े सभी तरह के काग़ज़ात पढ़े हों। एक बार यह साफ़ हो जाए तो आप निम्नलिखित के उपयोग के बारे में सोच सकते हैं:

और अंत में, संस्थापकों या फंडरेजिंग टीम के अलावा भी एक ऐसी टीम होनी चाहिए जो धन इकट्ठा करने से जुड़ी चर्चाओं में सक्रियता से हिस्सा ले। इसे एक बढ़िया कहानी कहने वाली बात से जोड़ा जा सकता है यानी दानदाता को कहानी को आगे बढ़ाने वाले किरदारों के बारे में भी जानना चाहिए।

4. दानदाता को समझना आवश्यक है

अगर आप पहले से ही दानदाताओं के बारे में थोड़ी जानकारी रखते हैं तो आपके लिए यह समझाना आसान हो सकता है कि कोई प्रस्ताव उनके लिए उपयुक्त क्यों है। इसी आधार पर आगे के लिए संबंध क़ायम किया जा सकता है। सभी दानदाता कार्यक्रमों से जुडे जोखिम, अपेक्षा और मदद (फ़ंडिंग के अलावा) के लिए अलग-अलग सुझाव सामने रख सकते हैं। उदाहरण के लिए सीएसआर फ़ंडिंग मुख्य रूप से इसे लोगों तक पहुंचाने और कार्यक्रम के क्रियान्वयन पर केंद्रित होता है। ऐसे में हो सकता है कि फंड का इस्तेमाल करने के सीमित तरीक़े ही हों। वहीं, कॉर्पोरेट अपने ब्रांड के प्रचार के प्रति अधिक सजग हो सकते हैं। दूसरी तरफ अल्ट्रा-एचएनआई या अति-उच्च आय वर्ग वाले लोग अधिक धैर्यवान हो सकते हैं। अपने दीर्घकालिक दृष्टिकोण के चलते वे नए विकसित हो रहे क्षेत्रों और शोध आदि में अधिक जोखिम उठा सकते हैं। 

सभी दानदाताओं की रणनीतिक वरीयताएं अलग-अलग होती हैं, इसलिए इसे समझना भी ज़रूरी है।

सभी दानदाताओं की रणनीतिक वरीयताएं अलग-अलग होती हैं, इसलिए इसे समझना भी ज़रूरी है। यह उन क्षेत्रों के बारे में भी हो सकती हैं जिन पर अब तक उनका फ़ोकस नहीं रहा है। इस पर ध्यान देना ज़रूरी होता है कि वे मुख्य रूप से समुदायों और सरकारी कार्यक्रमों के कार्यान्वयन में जमीनी स्तर के प्रयासों का समर्थन करते हैं या फिर उनका नज़रिया व्यापक है और वे मुद्दों की बेहतर समझ के लिए शोधों के लिए और नीति निर्धारण से जुड़े समाधान खोजने में भी मदद करना चाहते हैं। इस बात का विश्लेषण करें कि क्या दानदाता सेक्टर-लेवल के संस्थानों और ढांचों को बनाने में रुचि रखते हैं। या क्या उनका उद्देश्य इंक्यूबेटरों या एक्सिलेटरों के ज़रिए बदलाव लाने वालों को एकजुट करना भर है? या फिर उनका इरादा कल्याण और परोपकार में लगाए धन को बढ़ाना और मदद की परम्परा को बढ़ावा देना है। फ़ंड देने वालों की रणनीतियों पर पूरा ध्यान देने से स्वयंसेवी संस्थाओं को उनके साथ रिश्ते बनाने में मदद मिल सकती है।

महामारी के दौरान स्वयंसेवी संस्थाओं ने जनकल्याण की भावना, धैर्य, समानुभूति और साहस का प्रदर्शन करते हुए सरकारी योजनाओं को लागू करवाने और लोगों तक इनसे जुड़ी जानकारी पहुंचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। अब जब हम महामारी से उबर रहे हैं, सामाजिक क्षेत्र के सामने ऊंचे उद्देश्य रखने और धन इकट्ठा करने को ध्यान में रखकर रणनीतिक दृष्टिकोण अपनाने का अवसर है।

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रुस-यूक्रेन युद्ध: हिमाचल में सेब के किसानों पर कैसे पड़ा असर

तुलसी राम शर्मा हिमाचल प्रदेश के ठियोग ज़िले में सेब की खेती करते हैं। उन्होंने हमें बताया कि “इस समय हम दोहरी मार झेल रहे हैं। ख़राब मौसम और खाद की कमी ने हम किसानों और बागवानों की कमर तोड़ दी है।” हिमाचल प्रदेश में मुख्य रूप से सब्ज़ियों और सेब की खेती होती है। लेकिन पिछले दिनों खाद की उपलब्धता में आई भारी कमी ने कई किसानों की आजीविका पर बुरा असर डाला है। यह मामला भारत और चीन के बीच बिगड़ते संबंधों से जुड़ा है और चल रहे रुस-यूक्रेन युद्ध का भी असर इस पर पड़ा है। प्रसिद्ध कृषि विशेषज्ञ देवेंद्र सिंह का कहना है कि यह आपदा युद्धग्रस्त यूक्रेन से होने वाली आपूर्ति में आई बाधा का परिणाम है जो यूरिया उर्वरकों का दुनिया का सबसे बड़ा आपूर्तिकर्ता है।

हालांकि हिमाचल प्रदेश स्टेट कोऑपरेटिव मार्केटिंग एंड कंज्यूमर्स फेडरेशन (हिमफेड) ने किसानों एवं बागवानों को राज्य के कृषि एवं बाग़वानी विश्वविद्यालयों द्वारा विकसित किए गए जैविक खाद उपलब्ध करवाने की मुहिम शुरू की है। लेकिन इस बढ़ते संकट के सामने ये सभी प्रयास अपर्याप्त साबित हो रहे हैं। 

राज्य की कुल आबादी का लगभग 69 प्रतिशत हिस्सा कृषि एवं बाग़वानी का काम करता है। जिसका मतलब यह है कि इस कमी से लगभग 9.61 लाख किसान और 2.5 लाख बागवान सीधे रूप से प्रभावित हो रहे हैं। फूल आने से पहले सेब के पौधों को नाईट्रोजन की ज़रूरत होती है। इस ज़रूरत को खाद से पूरा कर दिया जाता है वहीं गेहूं की अच्छी फसल के लिए यूरिया उर्वरक आवश्यक है। दोनों की भारी कमी का मतलब है गेहूं की कमजोर फसल और गर्मी के कारण सेब के फूलों का समय से पहले तैयार हो जाना।

बागवानी विशेषज्ञ डॉ एस पी भारद्वाज ने हमें बताया कि सर्दियों के मौसम में निष्क्रिय पौधे वसंत में दोबारा जीवंत हो जाते हैं। आमतौर पर इसी समय खाद के माध्यम से इन पौधों को पोषक तत्व दिए जाते हैं। ऐसा करके पौधों को अगले फसल चक्र के लिए तैयार किया जाता है। हालांकि उर्वरकों की कमी से पूरा का पूरा फसल चक्र बाधित हो गया है।

बढ़ते तापमान और अपर्याप्त बारिश साथ-साथ लम्बे समय तक शुष्क रहने वाले मौसम भी हिमाचल के किसानों के इस दुख का कारण हैं। मौसम ब्यूरो के डेटा के मुताबिक, मार्च 2022 पिछली सदी का सबसे गर्म मार्च रहा। फलने-फूलने के लिए कम तापमान की आवश्यकता वाली सेब की फसलों को ऐसे कठोर मौसम में बहुत नुकसान होता है। हिमाचल में सेब का सालाना कारोबार 4,500 करोड़ रुपये से अधिक है। लेकिन यदि परिस्थितियां ऐसी ही प्रतिकूल बनी रहीं तो इससे राज्य की आर्थिक सेहत पर असर पड़ना तय है।

रमन कांत एक फ्रीलांस पत्रकार, कॉलमनिस्ट और लेखक हैं और शिमला में रहते हैं।

यह एक लेख का संपादित अंश है जो मूल रूप से 101 रिपोर्टर्स पर प्रकाशित हुआ था।

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अधिक जानें: जानें कि कैसे कश्मीर में होने वाली अखरोट की खेती कभी-कभी लोगों की जान भी ले लेता है।

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