मेरा नाम नेत्रा है और मैं 19 साल की हूं। मैं एक फ़ुटबॉल खिलाड़ी और कोच हूं। मैं अपना ज़्यादातर समय अपने समुदाय के किशोर लड़कों और लड़कियों के प्रशिक्षण में लगाती हूं। ऐसा करते हुए मैं उनसे लैंगिक मानदंडों और स्टीरियोटाइप्स के बारे में बातचीत करती हूं। इस बातचीत के लिए मैं खेल को माध्यम बनाती हूं।
मैं मुंबई में अपनी बहनों और मां के साथ रहती हूं। कुछ समय पहले तक हम पास में ही, अपनी नानी के घर में मामा और उनके परिवार के साथ रह रहे थे। एक संयुक्त परिवार में बड़े होने के कारण, मैंने कई तरह की पाबंदियों और चुनौतियों का सामना किया है।
फ़ुटबॉल से मेरा परिचय 15 साल की उम्र में हुआ था। उस समय मेरी सबसे अच्छी दोस्त ऑस्कर फाउंडेशन की ओर से खेलती थी। ऑस्कर फाउंडेशन एक समाजसेवी संस्था है जो कम आय-वर्ग वाले समुदायों के बच्चों में, जीवन के लिए जरूरी कौशल विकसित करने के लिए खेलों का उपयोग करती है। मेरी दोस्त ने स्कूल ख़त्म होने के बाद ओवल मैदान में, हमारे कुछ अन्य दोस्तों के साथ मुझे भी खेल से जुड़ने के लिए प्रोत्साहित किया। शुरुआत में मेरे अंदर थोड़ी झिझक थी क्योंकि इससे पहले मैंने कभी कोई खेल नहीं खेला था। लेकिन पहले ही गेम में मुझे बहुत मज़ा आया और मैंने वहां जाना शुरू कर दिया।
जल्द ही मैं ऑस्कर फाउंडेशन के कार्यक्रम में शामिल हो गई और नियमित रूप से प्रैक्टिस के लिए जाने लगी। रोजाना दोपहर साढ़े तीन बजे से प्रैक्टिस शुरू हो जाती थी। इसलिए मैं स्कूल खत्म होने के बाद सीधे मैदान पर जाती थी। मैं अपने साथ एक जोड़ी कपड़े और अपनी पूरी फुटबॉल किट ले जाती थी।
शुरूआत में मैंने स्कूल ख़त्म होने के बाद फ़ुटबॉल खेलने के बारे में अपने घर वालों को बताया ही नहीं था। जब मैंने पहली बार उन्हें इस बारे में बताया तो उनकी सबसे बड़ी चिंता यह थी कि मुझे खेलते समय शॉर्ट्स (छोटी पैंट) पहनने होंगे। उन्होंने तब और विरोध किया जब उनको पता चला कि मैं अक्सर लड़कों के साथ फ़ुटबॉल खेलती हूं।
इन सब के बावजूद, मैंने प्रैक्टिस में जाना जारी रखा। मैदान में जाना मेरे लिए किसी थैरेपी की तरह था। खेलते समय मैं अपने घर के हालात भूल जाती थी। समय के साथ यह सीखने के एक बेहतरीन अनुभव में बदल गया। जब मुझे फाउंडेशन के लीडरशिप ट्रेनिंग प्रोग्राम के लिए चुना गया तो यह सचमुच मेरे जीवन का एक महत्वपूर्ण मोड़ था। प्रशिक्षण से पहले मैं यह नहीं जानती थी कि घर के काम करने के अलावा मेरा भविष्य क्या हो सकता है। खैर, इस कार्यक्रम की मदद से मैंने कई और कौशल विकसित किए। इन कौशलों ने मुझे अपनी इच्छाओं और उद्देश्यों के बारे में सोचने के लिए प्रेरित किया।
सुबह 6.00 बजे: सुबह का समय मेरे लिए हमेशा भागदौड़ वाला होता है क्योंकि मुझे कॉलेज पहुंचना होता है। मैं जल्दी से तैयार होती हूं और नाश्ते के लिए रसोई की तरफ़ भागती हूं। मेरी मां हमेशा मेरे लिए कुछ न कुछ बनाकर तैयार रखती हैं। मैं कुछ अंडे और ब्रेड लेकर जल्दी से, अपने सुबह के लेक्चर के लिए कॉलेज निकल जाती हूं।
सुबह 10.00 बजे: कॉलेज में सभी क्लासेज ख़त्म होने के बाद मुझे ऑस्कर फ़ाउंडेशन के दफ़्तर पहुंचना होता है। चूंकि दफ़्तर कॉलेज के पास ही है इसलिए मैं पैदल ही वहां चली जाती हूं। वहां पहुंचने के बाद मैं सबसे पहले उन बच्चों की फ़ाइल देखती हूं जिन्हें मैं प्रशिक्षण दे रही हूं। एक फुटबॉल कोच के रूप में, मुझे सावधानीपूर्वक प्रत्येक बच्चे की प्रोग्रेस को रिकॉर्ड करना होता है। उनकी प्रोग्रेस पर नज़र रखने के लिए इस रिकॉर्ड को हम अपने सर्वर पर अपलोड करते हैं।
दोपहर 12.00 बजे: ऑफिस में अपना बाक़ी समय उन कुछ प्रोजेक्ट्स के अगले चरणों के बारे में सोचने और उसकी योजना बनाने में लगाती हूं जिनकी ज़िम्मेदारी मुझ पर है। लर्निंग कम्यूनिटी इनिशिएटिव इसी तरह का एक प्रोजेक्ट है जिस पर मैंने साल 2021–22 में एमपावर नाम के एक संगठन के साथ मिलकर काम किया था। यह संगठन पिछड़े समुदायों के युवाओं को सशक्त बनाने के लिए, काम कर रही अन्य ज़मीनी स्तर की संस्थाओं और संगठनों की मदद करता है। मैं एमपावर से पहली बार कोविड-19 के दौरान सम्पर्क में आई थी। मैंने उनके ‘इन हर वॉईस’ नाम के एक शोध अध्ययन में हिस्सा लिया था। इस अध्ययन का हिस्सा होने के नाते मैंने भारत भर से आई 24 लीडरों, जिनमें सभी लड़कियां ही थीं, के साथ अपने आसपास की लड़कियों का इंटरव्यू किया था। इस इंटरव्यू का उद्देश्य यह जानना था कि महामारी ने उन्हें किस प्रकार प्रभावित किया था।
उसके बाद मैं मेंटॉर के रूप में उस संगठन के लर्निंग कम्यूनिटी प्रोजेक्ट से जुड़ गई। मैंने अपने हालिया बैच की 10 लड़कियों की मेंटॉरिंग की है। हम लोगों ने मिलकर अपने समुदायों में फ़ुटबॉल की पोशाक और फ़ुटबॉल खेलते समय लड़कियों के शॉर्ट्स पहनने की आवश्यकता को लेकर जागरूकता फैलाने के लिए कई कार्यक्रम भी किए। हमने इस साल की शुरुआत में अपना यह प्रोजेक्ट पूरा कर लिया लेकिन मैं नहीं चाहती हूं कि जिन लड़कियों के साथ मैंने काम किया, वे इस मोड़ पर अपनी पढ़ाई या प्रशिक्षण बंद कर दें। इसलिए, मैं इस समय अन्य परियोजनाओं को डिजाइन करने पर विचार कर रही हूं जिसमें उन्हें व्यस्त रखा जा सके और शामिल किया जा सके।
दोपहर 2.00 बजे: जल्दी से दोपहर का खाना ख़त्म करके मैं छात्रों के साथ फुटबॉल कोचिंग सेशन के लिए मैदान में चली जाती हूं। मुझे फ़ुटबॉल कोच के रूप में काम करना बहुत पसंद है। और मुझमें एक कोच बनने का आत्मविश्वास मेरी इस यात्रा के दौरान मिलने वाले बेहतरीन कोचों के कारण ही पैदा हुआ। ख़ासकर, मेरे पहले कोच राजेश सर ने मेरा हौसला बहुत बढ़ाया। वे पहले व्यक्ति थे जिन्हें विश्वास था कि मुझमें और आगे जाने की क्षमता है। एक साल तक मुझे प्रशिक्षित करने के बाद उन्होंने फ़ाउंडेशन के लीडरशिप कार्यक्रम में नामांकन के लिए मुझ पर जोर दिया। कार्यक्रम के दौरान मैंने पारस्परिक कौशल (इंटरपर्सनल स्किल) तथा समानुभूति के महत्व के बारे में जाना और दूसरों की बात को सुनना सीखा। प्रशिक्षण के बाद मेरे आत्मविश्वास का स्तर और बढ़ गया। मैंने अपने आसपास आयोजित होने वाले कार्यक्रमों में सक्रियता से भाग लेना शुरू कर दिया। मेरे अंदर खेल में फ़ॉर्वर्ड पोजिशन पर खड़े होकर खेलने का विश्वास भी पैदा हुआ!
दोपहर 3.00 बजे: मुझे प्रैक्टिस की शुरुआत मज़ेदार, स्फूर्तिदायक खेलों से करना अच्छा लगता है। मैं इन्हें लैंगिक भूमिकाओं पर कुछ गतिविधियों के साथ मिलाने की कोशिश करती हूं जिन्हें मैंने फाउंडेशन के लैंगिक प्रशिक्षण कार्यक्रम में भाग लेकर सीखा था। यह एक साल का प्रशिक्षण कार्यक्रम था जिससे मुझे जेंडर नॉर्म्स की गहरी समझ हासिल करने में मदद मिली। इस कार्यक्रम के संचालकों ने हमें उन स्टीरियोटाइप के बारे में सोचने के लिए प्रेरित किया जिनका हम अपने जीवन में सामना करते हैं। मुझे याद है कि इस एक सत्र के दौरान उन्होंने कुछ अवधारणाओं को तोड़ने के लिए, फुटबॉल को उदाहरण की तरह इस्तेमाल किया था। उन्होंने हमें बताया कि कैसे फुटबॉल को आमतौर पर पुरुषों के खेल के रूप में जाना और समझा जाता है। जबकि वास्तव में फुटबॉल खेलने के लिए केवल एक पैर और एक गेंद की जरूरत होती है। फिर लिंग कहां से और कैसे आ जाता है? इस बात ने मुझे रुककर अपने जीवन के बारे में सोचने पर मजबूर कर दिया। मुझे वह बातें भी याद आने लगीं कि कैसे इस खेल को आगे खेलने के लिए मुझे भी ऐसी ही बाधाओं का सामना करना पड़ा था।
इस लैंगिक कार्यक्रम ने मुझे अपने इलाके की लड़कियों के साथ काम शुरू करने के लिए प्रेरित किया था। मैंने प्रशिक्षण के लिए लगभग 38 लड़कियों की एक टीम बनाने का फ़ैसला किया। मैं घर-घर जाकर प्रत्येक अभिभावक से मिली और उन्हें इसके लिए तैयार किया। उस समय तक हासिल किए अनुभवों से मुझे इस काम में मदद मिली। 38 लड़कियों के इस टीम को तैयार करने में मुझे लगभग दो महीने का समय लगा था।
मैं अपने छात्रों को इस बात के लिए प्रोत्साहित करती हूं कि वे मेरे सत्रों से सीखी गई बातों को अपने माता–पिता के साथ बांटें।
लड़कियों के साथ मेरे ट्रेनिंग सेशन के दौरान, वार्म-अप करते हुए मैं अक्सर उन्हें एक लड़के के रूप में और फिर एक लड़की के रूप में किसी ख़ास तरीक़े का व्यवहार करने के लिए कहती हूं। उदाहरण के लिए, मैं उन्हें लड़कों की तरह और फिर लड़कियों की तरह हंसने और चलने की नक़ल करने को कहती हूं। जब वे लड़कों की तरह चलने की नक़ल करती हैं तो आमतौर पर अपनी छाती फूला लेती हैं या तेज आवाज़ में हंसती हैं। लड़कियों की तरह नक़ल करने में उनका रवैया बिल्कुल विपरीत होता है। जब मैं उन्हें इस तरह के बर्ताव के चुनाव की प्रक्रिया के बारे में सोचने के लिए कहती हूं तो उन्हें इस बात का अहसास होता है कि उन्होंने इस तरह का व्यवहार अपने आसपास देखा है। इसी तरह जब मैं लड़कों के साथ कोई सेशन करती हूं तो मेरी कोशिश उन्हें यह सोचने पर मजबूर करना होता है कि फ़ुटबॉल या ऐसे ही किसी खेल को खेलने के लिए किन चीजों की ज़रूरत होती है और उन्हें ऐसा क्यों लगता है कि लड़कियों में इन कौशलों की कमी होती है।
मैं अपने छात्रों को अपने माता-पिता के साथ मेरे सेशन्स में सीखी गई बातों को साझा करने के लिए भी प्रोत्साहित करती हूं। इन बातों के प्रति कुछ अभिभावकों का रवैया सकारात्मक नहीं होता है। लेकिन मैंने देखा है कि माएं आमतौर पर अधिक समझदार होती हैं।
शाम 6.30 बजे: मैं प्रैक्टिस ख़त्म करके घर के लिए निकल जाती हूं। हाथ-मुंह धोने के बाद मैं बैठकर थोड़ी सी पढ़ाई करती हूं। उसके बाद का समय परिवार के साथ रात का खाना खाने का होता है। खाते समय मैं अक्सर अपनी मां और बहनों के साथ अपने उस दिन के बारे में बातचीत करती हूं।
रात 9.30 बजे: रात में सोने जाने से पहले मैं अपनी डायरी लिखती हूं। इस काम से मुझे खूद को जानने में बहुत मदद मिलती है। लीडरशिप ट्रेनिंग के दौरान मुझे यह आदत लग गई। उन दिनों ही मैंने यह जाना कि किसी परिस्थिति में उलझने पर लिखने से मुझे उसके बारे में सोचने और उसका समाधान ढूंढने में मदद मिलती है। कभी-कभी मैं अपनी डायरी में फूल भी चिपका देती हूं। मुझे लगता है यह फूल मेरी भावनाओं को दर्शाता है।
आज मैं अपनी मेंटॉर सिमरन और मेरे बीच हुई बातचीत के बारे में लिख रही हूं। सिमरन भी लैंगिक प्रशिक्षण कार्यक्रम की मैनेजर हैं। उनसे बात करने से भविष्य में भी युवा लड़कियों और लड़कों के साथ काम करना जारी रखने और उन्हें लैंगिक भूमिकाओं की सीमाओं से बाहर निकलने में मदद करने का मेरा संकल्प मजबूत होता है।
मेरा सपना एक ऐसी दुनिया बनाने का है जहां लड़कियां और लड़के बराबरी के साथ खेल सकें। जहां लड़कियों को भी बिल्कुल वही मस्ती और आज़ादी अनुभव हो जो मैंने पहली बार फ़ुटबॉल खेलने पर महसूस की थी। पुरुषों को लगता है कि पुरुष होने के कारण उनमें बहुत ताक़त है लेकिन यह सच नहीं है। महिलाएं कड़ी मेहनत करती हैं- दरअसल वे घर में बिना किसी वेतन के काम करती हैं और फिर बाहर जाकर भी मेहनत करती हैं। मुझे लगता है कि यदि हम पुरुषों और लड़कों को ऐसी कुछ बातों को समझने में मदद करें तो हमारी बहुत सारी समस्याएं यूं ही सुलझ जाएंगी।
जैसा कि आईडीआर को बताया गया।
इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें।
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