सोशल सेक्टर के लिए बढ़िया प्रशासन क्यों ज़रूरी है?

गवर्नेंस या प्रशासन शब्द का अर्थ है, किसी संगठन को चलाने का काम या तरीका। इसके लिए संचालन या व्यवस्था शब्द का इस्तेमाल भी किया जा सकता है। यह उस नेतृत्व और प्रबंधन से अलग है जहां प्रशासन ‘प्रबंधकों का प्रबंधन करता है’। जहां प्रबंधक संगठन में हर दिन का कामकाज सम्भालते हैं, वहीं प्रशासन उन सीमाओं को तय करता है जिनमें रहकर वे अपनी भूमिकाएं निभाते हैं।

डेवलपमेंट सेक्टर में एक अच्छे संचालन का मतलब होता है, समाजसेवी संगठन या सामाजिक व्यवसाय को निष्ठा और पारदर्शिता के साथ, उस उद्देश्य की तरफ लेकर जाना जिसके लिए इसकी स्थापना की गई थी।

सोशल सेक्टर में संचालन का क्या महत्व है?

सामाजिक संगठन अपना अधिकतर समय और ऊर्जा ज़मीन पर लोगों का जीवन बदलने में खर्च करते हैं। उनके लिए उनके कार्यक्रम और उनके लोग ही सबसे अधिक मायने रखते हैं। इसलिए नियम-क़ायदे बनाने और संचालन के बेहतर तरीके तय करना उनकी वरीयता सूची में नहीं होता है। 

हालांकि मज़बूत नीतियों और भीतरी नियंत्रण का संबंध केवल नियमों का पालन करने से नहीं होता है। ये आपके दानदाताओं, भागीदारों और यहां तक ​​कि उन लोगों का भरोसा जीतने के लिए भी जरूरी है जिनके साथ आप काम करते हैं।

ऐसे संगठन जिनका संचालन उचित तरीक़े से नहीं किया जाता है, उन्हें अपने सीमित संसाधनों के अनुचित खर्च, आय में कमी और धोखाधड़ी का अधिक जोखिम होने जैसी चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है। इससे भीतरी और बाहरी, दोनों ही तरह के लोगों का संगठन पर भरोसा कम होता है। और, एक बार जब भरोसा टूट जाता है और छवि ख़राब हो जाती है, फिर इसे दोबारा बना पाना लगभग असंभव होता है।

प्रशासन, इसीलिए बहुत महत्वपूर्ण होता है। यह आपकी विश्वसनीयता स्थापित करता है जो आपके दानदाताओं के लिए बहुत महत्वपूर्ण होती है। इससे उन्हें बेहतर फैसले लेने में मदद मिलती है, पारदर्शिता का स्तर बेहतर होता है और यह सुनिश्चित होता है कि आपका संगठन अपने लक्ष्य की दिशा में काम कर रहा है।

अच्छे प्रशासन में पांच चीजें ज़रूर होती हैं। और भले ही आपका संगठन एक सीमित संसाधनों वाला छोटा सा संगठन ही क्यों न हो, इन्हें लागू करना बहुत आसान होता है।

1. एक प्रशासनिक इकाई

यह आमतौर पर एक बोर्ड होता है। यह या तो ट्रस्टी सदस्यों का बोर्ड होता है या निदेशकों का बोर्ड जिनकी भूमिका निर्देशन एवं नियंत्रण करना होता है। अपना बोर्ड बनाते समय आपको दो महत्वपूर्ण बातों का ध्यान रखना चाहिए:

आपको नियमित रूप से बोर्ड मीटिंग का आयोजन करना चाहिए। यह भी सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि बोर्ड के सदस्यों/ट्रस्टियों को इतनी मात्रा में जानकारियां दी जा रही हैं कि वे सही फ़ैसले ले सकें। हर तीन साल में बोर्ड का मूल्यांकन होना चाहिए ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि आपका बोर्ड प्रभावी एवं प्रासंगिक दोनों है। यह काम आंतरिक रूप से या किसी बाहरी एजेंसी के जरिए किया जा सकता है।

2. नीतियां एवं प्रक्रियाएं

इसकी शुरुआत एक स्पष्ट उद्देश्य, लक्ष्य और मूल्यों को बताने वाले कथन होते हैं जो कर्मचारियों को संगठन के उद्देश्य से जुड़ी दिशा एवं स्पष्टता प्रदान करते हैं। साथ ही यह भी सुनिश्चित करते हैं कि आपकी टीम हमेशा आपके संगठन के लक्ष्यों से जुड़ी हुई है।

Ipad पर वार्षिक रिपोर्ट के बारे में कुछ टेक्स्ट_सामाजिक क्षेत्र
एक प्रभावी नियंत्रण व्यवस्था प्रोटोकॉल को स्थापित करती है, धोखाधड़ी और ग़लतियों को रोकती है और उनका पता लगाती है। | चित्र साभार: निक यंगसन

हालांकि इतना होना भर काफ़ी नहीं है। संगठन के रोजमर्रा के कामकाज के लिए स्पष्ट रूप से लिखित नीतियों और प्रक्रियाओं का एक सेट होना चाहिए। नीतियों का काम किसी संगठन के महत्वपूर्ण पहलुओं, जैसे मानव संसाधन, वित्तीय प्रबंधन, खर्च, खरीद, अधिकारों के बंटवारे, हितों के टकराव से जुड़े प्रबंधन के लिए सिद्धांत निर्धारित करना होता है।

प्रक्रियाएं इन नीतियों को लागू करने के लिए विस्तृत निर्देश तय करती हैं। उदाहरण के लिए खर्च की भरपाई का दावा कैसे करें, छुट्टी कैसे लें, एडवांस कैश कैसे सेटल करें, वगैरह। नीतियां और प्रक्रियाएं, मिलकर आपके सभी कर्मचारियों और हितधारकों के बीच नियमित संवाद तथा बेहतर कामकाज को सुनिश्चित करती हैं।

3. आंतरिक नियंत्रण

एक प्रभावी नियंत्रण व्यवस्था प्रोटोकॉल को स्थापित करती है, धोखाधड़ी और ग़लतियों को रोकती है और उनका पता लगाती है। साथ ही, यह आपदा प्रबंधन में मददगार साबित होती है और सुनिश्चित करती है कि फायनेंशियल आंकड़े सटीक हों। नियंत्रण आपके बोर्ड को यह विश्वास भी दिलाता है कि आपके संगठन का प्रबंधन कैसे किया जा रहा है।

इसका एक उदाहरण, फ़ायनेंस और ख़रीदी के कामों को अलग-अलग करना है। विक्रेताओं के साथ अनुबंध पर बातचीत करने वाला व्यक्ति, भुगतान करने वाले व्यक्ति से अलग होना चाहिए। ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि भुगतान को मंजूरी देने वाली टीम और विक्रेता के बीच अलग से किसी तरह की सांठगांठ न हो। हालांकि, छोटे आकार वाली टीमों में अधिकारी एक प्रक्रिया में कई तरह के काम करते हैं। ऐसे मामलों में, एक मजबूत निगरानी और समीक्षा तंत्र स्थापित किया जाना चाहिए। यह सीनियर मैनेजर या उन गतिविधियों को मंज़ूरी देने वाला निदेशक हो सकता है।

4. भूमिकाएं एवं जिम्मेदारियां

अपने कर्मचारियों की भूमिकाओं को रेखांकित करने और संगठन चार्ट को जल्दी स्थापित करने के महत्व के बारे में कोई भी संगठन साफ बातचीत नहीं करता है। भूमिकाएं स्पष्ट होनी चाहिए, बातचीत के विषय और रिपोर्टिंग का स्पष्ट दस्तावेज़ीकरण महत्वपूर्ण है।

इससे यह सुनिश्चित होता है कि कर्मचारी उनसे की जाने वाली अपेक्षाओं को लेकर स्पष्ट हैं। इससे उन्हें अपनी भूमिकाओं और कामों को लेकर जवाबदेह बनाए रखने में आसानी होती है। उदाहरण के लिए, एक कैशियर को यह सुनिश्चित करना होता है कि नक़द लेनदेन का ब्योरा सही तरीक़े से दर्ज किया जाए। क्योंकि बाद में इसके लिए उसे ही ज़िम्मेदार माना जाएगा। 

5. वित्तीय रिपोर्टिंग और पारदर्शिता

अंत में, बढ़िया प्रशासन सीधे आपके संगठन द्वारा दिखाए गए पारदर्शिता के स्तर से संबंधित होता है। यदि आपका संगठन तथ्यों और वित्तीय जानकारियों की रिपोर्टिंग नियमित अंतराल पर ठीक से करता है तो इससे बाहरी हितधारकों- जैसे दाताओं, भागीदारों और मीडिया का विश्वास बढ़ता ही है।

वित्तीय रिपोर्ट में आय, लागत, शुल्क आदि जैसे आंकड़ों पर ज़ोर दिया जाता है। आप इसका उपयोग गुणवत्ता से जुड़े पहलुओं को प्रकट करने और इन आंकड़ों तक ले जाने वाली, संगठन की गतिविधियों के बारे में बताने के लिए भी कर सकते हैं। 

इसलिए वित्तीय रिपोर्ट आपके हितधारकों को केवल आपके संगठन के वित्तीय स्वास्थ्य के बारे में ही नहीं बताती हैं। बल्कि पिछले प्रदर्शन के साथ उचित तुलना के जरिए आपके प्रभाव के उद्देश्यों की दिशा में विकास और प्रगति का संकेत भी देती हैं।

कुल मिलाकर, अपने संगठन में बढ़िया प्रशासन को कामकाज का तरीक़ा बनाने से और भी कई फ़ायदे हैं। आख़िरकार, किसी का भरोसा हासिल करना छोटी बात नहीं है।

डिस्क्लेमर: संध्या इंडिया डेवलपमेंट रिव्यू की बोर्ड की सदस्य हैं।

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बिना ट्रांसफ़र सर्टिफिकेट, दोबारा स्कूल जाएं भी तो कैसे?

दीपिका राजस्थान के उदयपुर जिले से बाहर एक गांव में रहती है, जहां वह एक सस्ते प्राइवेट स्कूल मे पढ़ रही थी। कोविड महामारी में स्कूल बंद रहने और घर में स्मार्टफोन और डिजिटल डिवाइस न होने के कारण दीपिका शिक्षा से पूरी तरह से दूर हो गई। माता-पिता का रोजगार भी छूट गया और वे दो साल तक दीपिका के स्कूल की फीस नहीं दे पाए। स्कूल संचालक को भी शिक्षकों को हटाना और स्कूल बंद करना पड़ा।

महामारी के बाद दीपिका ने नए स्कूल में दाखिला लेना चाहा। लेकिन उसके पुराने स्कूल ने फीस नहीं देने की वजह से उसका ट्रांसफर सर्टिफिकेट यानी टीसी जारी नहीं किया। (टीसी एक ऐसा दस्तावेज है जो छात्रों को स्कूल और कॉलेज छोड़ने पर दिया जाता है।) टीसी के बिना उसके अभिभावक निशुल्क सुविधा वाले किसी सरकारी स्कूल में भी उसका नामांकन नहीं करवा पाए।टीसी अभिभावकों के हाथ बांधने और दीपिका जैसे गरीब बच्चों को शिक्षा से वंचित करने का एक ताकतवर साधन बन गया है। कुछ राज्य ओपन स्कूलों में भी दाखिले के लिए टीसी को अनिवार्य बना रहे हैं, जबकि ओपन स्कूल औपचारिक शिक्षा से वंचित बच्चों के लिए शिक्षा जारी रखने का आखिरी उपाय होते हैं।

हाल ही में कुछ राज्यों के शिक्षा विभागों ने स्कूलों में दाखिले के लिए टीसी की अनिवार्यता को खत्म करने के दिशानिर्देश जारी किए हैं। आदेश ना मानने की स्थिति में सख्त कार्यवाही के प्रावधान हैं। यह आदेश प्राइवेट स्कूलों और गैर-राज्य बोर्डों पर भी लागू होता है।

जैसा कि होना था स्कूल संचालक यह कहते हुए इसका विरोध कर रहे हैं कि इस तरह के आदेश का इस्तेमाल अभिभावक फीस देने से बचने और अपने बच्चों को एक से दूसरे स्कूल में भर्ती करने के लिए करेंगे। कुल मिलाकर यह पूरा मामला बहुत जटिल है। राज्य सरकारों को गरीब और कमजोर तबके के बच्चों के हितों को देखते हुए इस पर तुरंत ध्यान देना चाहिए, और ये सुनिश्चित करना चाहिए कि स्कूल टीसी नहीं दिए जाने को बच्चों को शिक्षा से वंचित करने का हथियार ना बना पाए।

सफ़ीना हुसैन ‘एजुकेट गर्ल्स’ की संस्थापक हैं।

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अधिक जानें: जानें कि कैसे जन आधार कार्ड राजस्थान में महिला शिक्षा के मार्ग में एक बाधा बन गया है

अधिक करें: सफ़ीना के काम के बारे में विस्तार से जानने के लिए उनसे [email protected] पर सम्पर्क करें।

समाजसेवी संगठन, सरकार के साथ सहजता से काम करने के लिए इन पांच रणनीतियों को अपना सकते हैं

भारत में समाजसेवी संगठनों का इतिहास रहा है कि उन्हें सरकार के साथ साझेदारी में काम करते हुए अनगिनत चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। इन चुनौतियों में जटिल आवेदन प्रक्रियाएं, लंबी समय सीमाएं और समझौतों में अनिश्चितता जैसी बातें शामिल हैं। फिर भी, आठ से दस साल पहले की तुलना में अब सरकारी संस्थाएं समाजसेवी संस्थाओं के साथ साझेदारी को लेकर अधिक उदार हो गई हैं। लेकिन इन साझेदारियों में साथ काम करने के लिए, किसी प्रकार की तय मानक प्रक्रिया नहीं है जो इसे और मुश्किल बना देता है।

सरकारी संस्थाओं के साथ काम करना चुनौतीपूर्ण तो हो सकता है, लेकिन इसके नतीजे बहुत अच्छे भी हो सकते हैं। उदाहरण के लिए, सरकारी व्यवस्थाओं के पास पर्याप्त मात्रा में धन उपलब्ध होता है लेकिन ज़्यादातर समाजसेवी संस्थाओं को इन फंड्स तक पहुंचने का तरीक़ा नहीं मालूम होता है। नतीजतन, उनके पास स्वतंत्र रूप से धन जुटाने जैसा चुनौतीपूर्ण विकल्प ही बचता है और वे इसका ही सहारा लेते हैं। सरकारी अनुदानों के लिए सफलतापूर्वक आवेदन करने या टेंडर प्रक्रिया में शामिल होने के तरीके को समझने में समय लगाकर, समाजसेवी संस्थाएं फंडिंग से जुड़ी अपनी कुछ चुनौतियों को कम कर सकती हैं। इसी प्रकार, एक या कई स्तरों पर काम करने की इच्छुक समाजसेवी संस्थाओं के पास, सरकार के साथ काम करने से बेहतर कोई विकल्प नहीं है। सरकार के पास वित्तीय और मानव संसाधनों की उपलब्धता एक समाजसेवी संगठन के पास होने वाली इसकी उपलब्धता की तुलना में बहुत अधिक होती है।

लीडरशीप फ़ॉर इक्विटी में हमने पिछले छः वर्षों का समय ज़िला, राज्य एवं राष्ट्रीय स्तर की सरकारों के साथ काम करने में बिताया है। अपने अनुभवों के आधार पर हम यहां वे पांच बातें बता रहे हैं जिन्हें सरकारी व्यवस्था के साथ काम करने वाली समाजसेवी संस्थाएं इस्तेमाल कर सकती हैं।

1. सरकार की संरचना और सूचना के प्रवाह को समझें

सरकार की संरचना को तीन पहलुओं: स्तर, सरकारी निकाय और व्यक्तियों से जाना जा सकता है। राष्ट्रीय स्तर पर ऐसे मंत्री होते हैं जो विभिन्न क्षेत्रों के लिए राष्ट्रीय एजेंडा तय करते हैं। इसमें शिक्षा, कृषि और स्वास्थ्य जैसे विषय शामिल होते हैं। केंद्र सरकार के नीचे राज्य सरकार होती है और राज्य सरकार के नीचे ज़िला, प्रखंड और तालुक़ा जैसी सरकारी स्थानीय इकाइयां होती हैं। सरकारी व्यवस्था में उच्च स्तर के निकाय, निचले स्तर पर काम कर रहे निकायों को जिम्मेदारियां देते हैं। इन ज़िम्मेदारियों को पूरा करते हुए विभिन्न स्तरों पर प्रत्येक इकाई की स्वायत्तता का स्तर अलग-अलग हो सकता है। विभिन्न स्तरों पर सरकार का प्रत्येक निकाय, इसके लोगों (यानी कर्मचारियों) से बना होता है जो इन इकाइयों के नेतृत्व और संचालन के लिए ज़िम्मेदार होते हैं।

विभिन्न सरकारी स्तरों की व्याख्या करने वाला एक चार्ट_सरकार
स्त्रोत: लीडरशीप फ़ॉर इक्विटी

2. सरकार के उस स्तर के बारे में अच्छी तरह सोचें जिसके साथ आप जुड़ना चाहते हैं

सरकार की वह इकाई जिससे एक संगठन सम्पर्क करेगा और जिस हैसियत से संपर्क किया जाएगा, दोनों ही उनके द्वारा बनाए गए मध्यस्थता कार्यक्रमों (इंटरवेंशन) और उसके लाभार्थियों पर निर्भर करता है। किसी एक संगठन की विशेषज्ञता छात्रों या शिक्षकों के साथ सीधे काम करने में हो सकती है। वहीं, दूसरा टीकाकरण प्रदान करने के लिए आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं के साथ काम कर सकता है। दूसरे वाले मामले में संगठन सीधे समुदाय के साथ काम करता है इसलिए इस संगठन को राज्य स्तर के नेतृत्व से अनुमति या सहयोग के लिए सम्पर्क करने की जरूरत होगी न कि साझेदारी करने की।

जिला स्तर के निकायों को अक्सर कार्यक्रमों को लागू करने में मदद चाहिए होती है, और किसी समाजसेवी संस्था से इस प्रकार की सहायता मिलने से वे खुश हो जाते हैं।

हमारे अनुभव में, जिला-स्तरीय निकाय आमतौर पर सबसे अधिक ग्रहणशील होते हैं क्योंकि वे अंतिम लाभार्थी के सबसे करीब होते हैं। उनकी विशिष्ट जिम्मेदारियां होती हैं, वे समझते हैं कि उनके परिवेश में क्या ज़रूरी है, और वे निर्णय लेने की स्थिति में होते हैं। हालांकि, वे अक्सर राज्य और राष्ट्रीय मंत्रालयों द्वारा सौंपी जाने वाली प्राथमिक जिम्मेदारियों से दबे होते हैं। लेकिन फिर भी, जिला स्तर के निकायों को अक्सर कार्यक्रमों को लागू करने में मदद की जरूरत होती है, और किसी समाजसेवी संस्था से इस प्रकार की सहायता मिलने से वे खुश हो जाते हैं। उच्च स्तर पर, निर्णय लेने में एक राजनीतिक पहलू भी शामिल होता है जिससे वहां स्थिति जटिल हो सकती है।

3. समानांतर व्यवस्था या मध्यस्थता कार्यक्रम बनाएं

यदि कोई समाजसेवी संस्था सरकार के साथ काम कर रही है लेकिन उनका समाधान सरकार के काम के साथ चलने वाला है तो वे मौजूदा समाधान को बेहतर करने या उसका लाभ उठाने के बजाय इकोसिस्टम को खराब करते हैं। उदाहरण के लिए, स्टेट काउंसिल ऑफ एजुकेशन रिसर्च एंड ट्रेनिंग की ज़िम्मेदारी सरकारी स्कूलों में शिक्षकों को प्रशिक्षण देना है। कई समाजसेवी संस्थाएं शिक्षकों के प्रशिक्षण के लिए विकासशील मॉड्यूल में अच्छा-खासा निवेश करती हैं, जिसके लिए वे सरकार से संपर्क करती हैं। यह समाधान सरकार के प्रयासों का पूरक होने की बजाय मौजूदा प्रणाली को बदलने का प्रयास करता है। यदि एक समानांतर कार्यक्रम को सरकार की मंजूरी मिल भी जाती है तो यह अंततः शिक्षकों और छात्रों को भ्रमित करने वाला होता है। ऐसा इसलिए क्योंकि उन्हें एक ही विषय पर कई स्रोतों से अलग-अलग निर्देश मिलते हैं। नतीजतन, एक बेहतर शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया का अंतिम उद्देश्य अधूरा रह जाता है। 

इसलिए समाजसेवी संस्थाओं द्वारा डिज़ाइन किए गए समाधान, आवश्यकता-अंतर विश्लेषण पर आधारित यानी जरूरत के मुताबिक होना चाहिए और इसे व्यवस्था द्वारा छूट गई कमियों को पूरा करने का काम भी करना चाहिए। मौजूदा सरकारी कार्यक्रमों में अपने हस्तक्षेपों को एकीकृत करके समाजसेवी संस्थाएं एक अधिक टिकाऊ, मजबूत और प्रभावी साझेदारी विकसित कर सकती हैं। हमारा अनुभव कहता है कि कुछ सरकारी निकायों की रणनीति बहुत ही अच्छी हैं और कुछ प्रभावी रूप से किसी एक योजना का संचालन कर सकते हैं। लेकिन इनमें से ज़्यादातर बड़े पैमाने पर निगरानी ढांचे की योजना बनाने और उन्हें लागू करने में पिछड़ जाते हैं। यहां पर एक समाजसेवी संस्था किसी भी सरकार के लिए एक मूल्यवान साझेदार हो सकती है। यह कार्यक्रम के बड़े लक्ष्यों को छोटे-छोटे उद्देश्यों में बांट सकती है और हर उद्देश्य पर नजर बनाए रखने वाला एक ढांचा तैयार कर सकती है।

4. अधिकारियों से रणनीतिक रूप से संपर्क करें

व्यवस्था के भीतर, अपने हितों को साधने में मदद करने वाले व्यक्ति की पहचान करने के लिए समाजसेवी संस्थाओं को पहले सरकारी अधिकारियों की विभिन्न भूमिकाओं और जिम्मेदारियों को समझना होगा। सरकारी निकायों के भीतर नेतृत्व के पदों पर ऐसे राजनीतिक या प्रशासनिक प्रमुखों का कब्जा होता है जिन पर उनके कामों को पूरा करने की जिम्मेदारी होती है। राजनीतिक प्रमुख आमतौर पर लक्ष्य तय करने जैसे बड़े कार्यों पर काम करते हैं। वहीं प्रशासनिक प्रमुखों का काम नीतियों तथा कार्यक्रमों के जरिए इस लक्ष्य को हासिल करना, होता है।

राष्ट्रीय स्तर पर पदों के क्रम को देखने पर हम पाते हैं कि एक कैबिनेट मंत्री होता है जिसे एक विशेष मंत्रालय सौंपा जाता है। यदि हम शिक्षा का उदाहरण लेते हैं तो यह व्यक्ति शिक्षा मंत्री होगा। एक मंत्री वह राजनीतिक प्रमुख होता है जिसका काम मंत्रालय के उद्देश्य और संवाद को सम्भालना होता है। राज्य स्तर पर इसका कार्यान्वयन प्रमुख सचिव द्वारा किया जाता है, जो एक आईएएस अधिकारी होता है। हालांकि ज़्यादातर विभागों का ढांचा एक समान होता है लेकिन अमूमन ज़िला-स्तर पर इनमें विविधता आ जाती है। प्रत्येक स्तर पर प्रशासनिक एवं राजनीतिक प्रमुखों का एक समूह होता है। उदाहरण के लिए मुख्य जिला-स्तरीय अधिकारी कलेक्टर होता है जो जिले का नियुक्त मुखिया होता है। कलेक्टर के अधीन मुख्य कार्यकारी अधिकारी/मुख्य विकास अधिकारी (सीईओ/सीडीओ) होते हैं। ये अधिकारी विभिन्न विभागों में कार्यक्रमों को लागू करने की ज़िम्मेदारी सम्भालते हैं। सीईओ/सीडीओ द्वारा देखे जाने वाले विभागों के अपने संबंधित प्रमुख होते हैं, जो सीईओ/सीडीओ के मार्गदर्शन में इन विभागों के प्रशासन को संभालते हैं।

यदि कोई समाजसेवी संगठन नीति के स्तर पर काम कर रहा है, तब भी उसे जमीनी स्थितियों के बारे में जानना चाहिए और उचित सुझाव देना चाहिए।

यदि कोई समाजसेवी संस्था नीति से जुड़े कार्यक्रम पर काम कर रही है तो यह नेतृत्व कर रहे अधिकारियों के साथ मिलकर काम करेगी। उदाहरण के लिए राज्य स्तर पर, संस्था प्रमुख सचिव और शिक्षा आयुक्त के साथ काम करेगी। यदि कोई समाजसेवी संस्था कार्यान्वयन पर ध्यान केंद्रित करना चाहती है तो उसे जिला और ब्लॉक स्तर के अधिकारियों के साथ काम करना चाहिए। इसलिए कि ये अधिकारी समुदायों के भीतर कार्यक्रमों को लागू करने का काम देखते हैं। यह भी है कि अगर कोई समाजसेवी संस्था केवल नीति के स्तर पर काम कर रही हो, तो भी उसे जमीनी परिस्थितियों के बारे में जानना चाहिए और उचित सुझाव देते रहना चाहिए।

नई दिल्ली में सचिवालय भवन_सरकार
सरकारी प्रणालियों के साथ काम करना चुनौतीपूर्ण हो सकता है लेकिन समाजसेवी संस्थाओं के लिए यह बेहद फायदेमंद भी हो सकता है। | चित्र साभार: मैथ्यू टी रेडरसीसी बीवाई

5. सरकारी अधिकारियों के साथ सहानुभूतिपूर्वक जुड़ें

समाजसेवी संस्थाओं के लिए यह बहुत जरूरी है कि वे अथॉरिटी की तरह बर्ताव न करें। ऐसा करने से यह लग सकता है कि संगठन में इस स्तर का अहंकार है कि वह सरकार को काम करने के तरीक़े सिखा सकता है। सार्वजनिक विभागों से जुड़ी आम धारणा उन्हें धीमा, आलसी और अप्रभावी मानती है। लेकिन, प्रणालीगत अनिश्चितताएं जैसे फंड वितरण में देरी, राजनीतिक/अधिकारी वर्ग के नेतृत्व में बदलाव, और बेहद सीमित समय सीमा जैसी वजहें असल में इन विभागों के अनियमित प्रदर्शन के लिए जिम्मेदार हैं। निकायों में बुद्धिमान और कुशल अधिकारी भी होते हैं लेकिन वे काम के बोझ से दबे होते हैं। इसके अतिरिक्त ज़मीन से जुड़े और ज़मीनी स्तर पर काम करने वाले सरकारी अधिकारी अपने प्रभार के तहत समुदायों की गहरी समझ विकसित कर लेते हैं और जानते हैं कि समुदायों की मदद किस तरह की जा सकती है। फिर भी, ऐसा संभव है कि इन समुदायों में बदलाव को अकेले ही प्रभावी बनाने के लिए उनके पास समुचित संसाधनों की कमी हो। इसलिए, सरकारी अधिकारियों के साथ काम करते हुए उनके सामने आने वाली विभिन्न चुनौतियों के प्रति संवेदनशील होना जरूरी होता है। साथ ही, उनकी विशेषज्ञता और विचारों को नज़रअन्दाज़ करके उनके काम में टांग अड़ाने से भी बचना चाहिए।

ऐसे कोई नियम नहीं हैं जो समाजसेवी संस्थाओं को, सहयोगी प्रयासों में शामिल होने के उद्देश्य से सरकारी निकाय से संपर्क करने से रोकते हों।

ऐसे कोई नियम नहीं हैं जो समाजसेवी संस्थाओं को, सहयोगी प्रयासों में शामिल होने के उद्देश्य से किसी सरकारी निकाय से संपर्क करने से रोकते हों। लेकिन इन निकायों का नेतृत्व करने वाले अधिकारियों की मानसिकता, किसी भी प्रस्ताव को स्वीकार करने में एक प्रमुख भूमिका निभाती है। जहां कुछ सरकारी निकाय किसी भी तरह के सहयोग का स्वागत कर सकते हैं। वहीं अन्य वैकल्पिक समाधान के प्रस्ताव को, अपने द्वारा किए जा रहे काम के लिए खतरे के रूप में देख सकते हैं। उनकी आशंकाओं को पहचानना और एक सम्मानजनक और सहानुभूति भरे तरीके से इन्हें दूर करना जरूरी है। ऐसा करके सफलता और स्थिरता लाने वाली एक टिकाऊ साझेदारी स्थापित की जा सकती है। यह भी है कि सरकार के साथ की जाने वाली साझेदारी की सफलता और असफलता कई कारकों पर निर्भर करती है लेकिन इन पांच सिद्धांतों को ध्यान में रखकर शुरुआत करने से विषम परिस्थितियां भी अनुकूल हो सकती हैं।

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हकीमसिनन के किसान परंपरागत बीजों को फिर अपना रहे हैं

पश्चिम बंगाल के बांकुड़ा जिले में जंगलों से घिरे गांव हकीमसिनन के निवासियों ने पाया कि समय के साथ उनके इलाक़े की मिट्टी का क्षरण हुआ है। ऐसे उंचाई वाले इलाक़ों की जमीनें जहां कभी घास (कोदो), मक्का और दाल (बिरी कोलाई) जैसी स्वदेशी फसलें उगाई जाती थीं, वे अब कई सालों से अनुपयोगी पड़ी हुई हैं। यहां रहने वालों के मुताबिक खेती के तरीक़ों में आए बदलाव के कारण स्थानीय भूमि और पारिस्थितिकी (इकॉलजी) का क्षरण हुआ है।

गांव के लोग बताते हैं कि उनके पूर्वज सूखी ज़मीन में, पहले से अंकुरित बीजों को बोते थे; इस प्रक्रिया को डायरेक्ट सीडिंग राइस (डीएसआर) या थूपली/चाली धान कहा जाता था। बाद में इस इलाक़े में भी धान को रोपने वाला तरीक़ा अपना लिया गया। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि पास के बर्दवान और हुगली जिलों में यह बहुत प्रचलित तरीक़ा था। इन इलाक़ों में खेतिहर मज़दूरी का काम करने वाले ज़्यादातर लोग बांकुड़ा के हैं। रोपाई के लिए नर्सरी की जरूरत होती है। धान के बीजों को पहली बार नर्सरी में बोया जाता है और उनके छोटे-छोटे पौधे तैयार किए जाते हैं। बाद में, इन छोटे पौधों को उखाड़कर पहले से जुते हुए और पानी से लबालब खेतों में लगाया जाता है। इन खेतों में 4–5 सेमी जलस्तर बनाए रखने के लिए प्रत्येक दिन सिंचाई (अगर बारिश न हो तो) की ज़रूरत होती है। बर्दवान और हुगली में पानी की प्रचुरता है और ये भौगोलिक रूप से मैदानी (समतल स्थलाकृति वाले) इलाके हैं। फलस्वरूप, ये इलाक़े रोपाई के लिए अनुकूल हैं। लेकिन बांकुड़ा की अनियमित वर्षा और ढलान वाली स्थलाकृति के कारण, रोपाई से फ़ायदे की बजाय नुकसान हुआ है।

वर्षा की कमी के कारण अक्सर ही अंकुर सूख जाते हैं। इससे फसल चक्र में देरी हो जाती है और फसल के उत्पादन पर भी इसका प्रभाव पड़ता है। इसके अलावा, बार-बार खेतों में पानी इकट्ठा करके उसे पोखर सरीखा बना देने से, इसकी मिट्टी में जल धारण क्षमता भी कम हो जाती है। ऐसा करते हुए, बांकुड़ा के किसानों ने उगाए जाने वाले धान की क़िस्मों में भी बदलाव देखा। उन्होंने स्वदेशी बीजों जैसे भूतमुरी, बादशभोग, कलोचिता और सीतासाल के स्थान पर अधिक उपज देने वाली, धान की क़िस्मों का इस्तेमाल किया। स्वदेशी बीजों को कम पानी की आवश्यकता होती थी और उनका भंडारण लम्बे समय तक किया जा सकता था। साथ ही, इनसे होने वाली फसल जैविक खाद पर ही उपज जाती थी। लेकिन नए बीजों को रासायनिक उर्वरकों की ज़रूरत होती है जिनका लम्बे समय तक उपयोग करने से मिट्टी की उत्पादन क्षमता कम होने लगती है।

बांकुड़ा के एक निवासी, बेहुला बताते हैं कि ‘हम वे लोग हैं जिन्होंने अपनी ज़रूरतों को पूरा करने के लिए अपनी ज़मीनों का शोषण किया है। आज हमारी ज़मीन ने हार मान ली है लेकिन अब भी हमारी ज़रूरतें पूरी नहीं हुई हैं।’

शरण्मयी कर पश्चिम बंगाल मेंप्रदान के साथ एक टीम समन्वयक के रूप में काम करती हैं।

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अधिक करें: लेखक के काम के बारे में विस्तार से जानने और उनका समर्थन करने के लिए उनसे [email protected] पर सम्पर्क करें।

एक खिलाड़ी जो लैंगिक भेदभाव के ख़िलाफ़ अपनी लड़ाई फुटबॉल के मैदान पर लड़ती है

मेरा नाम नेत्रा है और मैं 19 साल की हूं। मैं एक फ़ुटबॉल खिलाड़ी और कोच हूं। मैं अपना ज़्यादातर समय अपने समुदाय के किशोर लड़कों और लड़कियों के प्रशिक्षण में लगाती हूं। ऐसा करते हुए मैं उनसे लैंगिक मानदंडों और स्टीरियोटाइप्स के बारे में बातचीत करती हूं। इस बातचीत के लिए मैं खेल को माध्यम बनाती हूं।

मैं मुंबई में अपनी बहनों और मां के साथ रहती हूं। कुछ समय पहले तक हम पास में ही, अपनी नानी के घर में मामा और उनके परिवार के साथ रह रहे थे। एक संयुक्त परिवार में बड़े होने के कारण, मैंने कई तरह की पाबंदियों और चुनौतियों का सामना किया है।

फ़ुटबॉल से मेरा परिचय 15 साल की उम्र में हुआ था। उस समय मेरी सबसे अच्छी दोस्त ऑस्कर फाउंडेशन की ओर से खेलती थी। ऑस्कर फाउंडेशन एक समाजसेवी संस्था है जो कम आय-वर्ग वाले समुदायों के बच्चों में, जीवन के लिए जरूरी कौशल विकसित करने के लिए खेलों का उपयोग करती है। मेरी दोस्त ने स्कूल ख़त्म होने के बाद ओवल मैदान में, हमारे कुछ अन्य दोस्तों के साथ मुझे भी खेल से जुड़ने के लिए प्रोत्साहित किया। शुरुआत में मेरे अंदर थोड़ी झिझक थी क्योंकि इससे पहले मैंने कभी कोई खेल नहीं खेला था। लेकिन पहले ही गेम में मुझे बहुत मज़ा आया और मैंने वहां जाना शुरू कर दिया। 

जल्द ही मैं ऑस्कर फाउंडेशन के कार्यक्रम में शामिल हो गई और नियमित रूप से प्रैक्टिस के लिए जाने लगी। रोजाना दोपहर साढ़े तीन बजे से प्रैक्टिस शुरू हो जाती थी। इसलिए मैं स्कूल खत्म होने के बाद सीधे मैदान पर जाती थी। मैं अपने साथ एक जोड़ी कपड़े और अपनी पूरी फुटबॉल किट ले जाती थी।

शुरूआत में मैंने स्कूल ख़त्म होने के बाद फ़ुटबॉल खेलने के बारे में अपने घर वालों को बताया ही नहीं था। जब मैंने पहली बार उन्हें इस बारे में बताया तो उनकी सबसे बड़ी चिंता यह थी कि मुझे खेलते समय शॉर्ट्स (छोटी पैंट) पहनने होंगे। उन्होंने तब और विरोध किया जब उनको पता चला कि मैं अक्सर लड़कों के साथ फ़ुटबॉल खेलती हूं।

इन सब के बावजूद, मैंने प्रैक्टिस में जाना जारी रखा। मैदान में जाना मेरे लिए किसी थैरेपी की तरह था। खेलते समय मैं अपने घर के हालात भूल जाती थी। समय के साथ यह सीखने के एक बेहतरीन अनुभव में बदल गया। जब मुझे फाउंडेशन के लीडरशिप ट्रेनिंग प्रोग्राम के लिए चुना गया तो यह सचमुच मेरे जीवन का एक महत्वपूर्ण मोड़ था। प्रशिक्षण से पहले मैं यह नहीं जानती थी कि घर के काम करने के अलावा मेरा भविष्य क्या हो सकता है। खैर, इस कार्यक्रम की मदद से मैंने कई और कौशल विकसित किए। इन कौशलों ने मुझे अपनी इच्छाओं और उद्देश्यों के बारे में सोचने के लिए प्रेरित किया।

सुबह 6.00 बजे: सुबह का समय मेरे लिए हमेशा भागदौड़ वाला होता है क्योंकि मुझे कॉलेज पहुंचना होता है। मैं जल्दी से तैयार होती हूं और नाश्ते के लिए रसोई की तरफ़ भागती हूं। मेरी मां हमेशा मेरे लिए कुछ न कुछ बनाकर तैयार रखती हैं। मैं कुछ अंडे और ब्रेड लेकर जल्दी से, अपने सुबह के लेक्चर के लिए कॉलेज निकल जाती हूं।

सुबह 10.00 बजे: कॉलेज में सभी क्लासेज ख़त्म होने के बाद मुझे ऑस्कर फ़ाउंडेशन के दफ़्तर पहुंचना होता है। चूंकि दफ़्तर कॉलेज के पास ही है इसलिए मैं पैदल ही वहां चली जाती हूं। वहां पहुंचने के बाद मैं सबसे पहले उन बच्चों की फ़ाइल देखती हूं जिन्हें मैं प्रशिक्षण दे रही हूं। एक फुटबॉल कोच के रूप में, मुझे सावधानीपूर्वक प्रत्येक बच्चे की प्रोग्रेस को रिकॉर्ड करना होता है। उनकी प्रोग्रेस पर नज़र रखने के लिए इस रिकॉर्ड को हम अपने सर्वर पर अपलोड करते हैं।

दोपहर 12.00 बजे: ऑफिस में अपना बाक़ी समय उन कुछ प्रोजेक्ट्स के अगले चरणों के बारे में सोचने और उसकी योजना बनाने में लगाती हूं जिनकी ज़िम्मेदारी मुझ पर है। लर्निंग कम्यूनिटी इनिशिएटिव इसी तरह का एक प्रोजेक्ट है जिस पर मैंने साल 2021–22 में एमपावर नाम के एक संगठन के साथ मिलकर काम किया था। यह संगठन पिछड़े समुदायों के युवाओं को सशक्त बनाने के लिए, काम कर रही अन्य ज़मीनी स्तर की संस्थाओं और संगठनों की मदद करता है। मैं एमपावर से पहली बार कोविड-19 के दौरान सम्पर्क में आई थी। मैंने उनके ‘इन हर वॉईस’ नाम के एक शोध अध्ययन में हिस्सा लिया था। इस अध्ययन का हिस्सा होने के नाते मैंने भारत भर से आई 24 लीडरों, जिनमें सभी लड़कियां ही थीं, के साथ अपने आसपास की लड़कियों का इंटरव्यू किया था। इस इंटरव्यू का उद्देश्य यह जानना था कि महामारी ने उन्हें किस प्रकार प्रभावित किया था।

उसके बाद मैं मेंटॉर के रूप में उस संगठन के लर्निंग कम्यूनिटी प्रोजेक्ट से जुड़ गई। मैंने अपने हालिया बैच की 10 लड़कियों की मेंटॉरिंग की है। हम लोगों ने मिलकर अपने समुदायों में फ़ुटबॉल की पोशाक और फ़ुटबॉल खेलते समय लड़कियों के शॉर्ट्स पहनने की आवश्यकता को लेकर जागरूकता फैलाने के लिए कई कार्यक्रम भी किए। हमने इस साल की शुरुआत में अपना यह प्रोजेक्ट पूरा कर लिया लेकिन मैं नहीं चाहती हूं कि जिन लड़कियों के साथ मैंने काम किया, वे इस मोड़ पर अपनी पढ़ाई या प्रशिक्षण बंद कर दें। इसलिए, मैं इस समय अन्य परियोजनाओं को डिजाइन करने पर विचार कर रही हूं जिसमें उन्हें व्यस्त रखा जा सके और शामिल किया जा सके।

ऑस्कर फाउंडेशन में फुटबॉल खेलती दो लड़कियां_लैंगिक भेदभाव
लड़कियों के साथ अपने प्रशिक्षण सत्र के दौरान, मैं अक्सर उनसे कहती हूं कि वे किसी ख़ास गतिविधि को पहले एक लड़के के रूप में और फिर एक लड़की के रूप में करें। | चित्र साभार: ऑस्कर फ़ाउंडेशन

दोपहर 2.00 बजे: जल्दी से दोपहर का खाना ख़त्म करके मैं छात्रों के साथ फुटबॉल कोचिंग सेशन के लिए मैदान में चली जाती हूं। मुझे फ़ुटबॉल कोच के रूप में काम करना बहुत पसंद है। और मुझमें एक कोच बनने का आत्मविश्वास मेरी इस यात्रा के दौरान मिलने वाले बेहतरीन कोचों के कारण ही पैदा हुआ। ख़ासकर, मेरे पहले कोच राजेश सर ने मेरा हौसला बहुत बढ़ाया। वे पहले व्यक्ति थे जिन्हें विश्वास था कि मुझमें और आगे जाने की क्षमता है। एक साल तक मुझे प्रशिक्षित करने के बाद उन्होंने फ़ाउंडेशन के लीडरशिप कार्यक्रम में नामांकन के लिए मुझ पर जोर दिया। कार्यक्रम के दौरान मैंने पारस्परिक कौशल (इंटरपर्सनल स्किल) तथा समानुभूति के महत्व के बारे में जाना और दूसरों की बात को सुनना सीखा। प्रशिक्षण के बाद मेरे आत्मविश्वास का स्तर और बढ़ गया। मैंने अपने आसपास आयोजित होने वाले कार्यक्रमों में सक्रियता से भाग लेना शुरू कर दिया। मेरे अंदर खेल में फ़ॉर्वर्ड पोजिशन पर खड़े होकर खेलने का विश्वास भी पैदा हुआ!

दोपहर 3.00 बजे: मुझे प्रैक्टिस की शुरुआत मज़ेदार, स्फूर्तिदायक खेलों से करना अच्छा लगता है। मैं इन्हें लैंगिक भूमिकाओं पर कुछ गतिविधियों के साथ मिलाने की कोशिश करती हूं जिन्हें मैंने फाउंडेशन के लैंगिक प्रशिक्षण कार्यक्रम में भाग लेकर सीखा था। यह एक साल का प्रशिक्षण कार्यक्रम था जिससे मुझे जेंडर नॉर्म्स की गहरी समझ हासिल करने में मदद मिली। इस कार्यक्रम के संचालकों ने हमें उन स्टीरियोटाइप के बारे में सोचने के लिए प्रेरित किया जिनका हम अपने जीवन में सामना करते हैं। मुझे याद है कि इस एक सत्र के दौरान उन्होंने कुछ अवधारणाओं को तोड़ने के लिए, फुटबॉल को उदाहरण की तरह इस्तेमाल किया था। उन्होंने हमें बताया कि कैसे फुटबॉल को आमतौर पर पुरुषों के खेल के रूप में जाना और समझा जाता है। जबकि वास्तव में फुटबॉल खेलने के लिए केवल एक पैर और एक गेंद की जरूरत होती है। फिर लिंग कहां से और कैसे आ जाता है? इस बात ने मुझे रुककर अपने जीवन के बारे में सोचने पर मजबूर कर दिया। मुझे वह बातें भी याद आने लगीं कि कैसे इस खेल को आगे खेलने के लिए मुझे भी ऐसी ही बाधाओं का सामना करना पड़ा था।

इस लैंगिक कार्यक्रम ने मुझे अपने इलाके की लड़कियों के साथ काम शुरू करने के लिए प्रेरित किया था। मैंने प्रशिक्षण के लिए लगभग 38 लड़कियों की एक टीम बनाने का फ़ैसला किया। मैं घर-घर जाकर प्रत्येक अभिभावक से मिली और उन्हें इसके लिए तैयार किया। उस समय तक हासिल किए अनुभवों से मुझे इस काम में मदद मिली। 38 लड़कियों के इस टीम को तैयार करने में मुझे लगभग दो महीने का समय लगा था।

मैं अपने छात्रों को इस बात के लिए प्रोत्साहित करती हूं कि वे मेरे सत्रों से सीखी गई बातों को अपने मातापिता के साथ बांटें।

लड़कियों के साथ मेरे ट्रेनिंग सेशन के दौरान, वार्म-अप करते हुए मैं अक्सर उन्हें एक लड़के के रूप में और फिर एक लड़की के रूप में किसी ख़ास तरीक़े का व्यवहार करने के लिए कहती हूं। उदाहरण के लिए, मैं उन्हें लड़कों की तरह और फिर लड़कियों की तरह हंसने और चलने की नक़ल करने को कहती हूं। जब वे लड़कों की तरह चलने की नक़ल करती हैं तो आमतौर पर अपनी छाती फूला लेती हैं या तेज आवाज़ में हंसती हैं। लड़कियों की तरह नक़ल करने में उनका रवैया बिल्कुल विपरीत होता है। जब मैं उन्हें इस तरह के बर्ताव के चुनाव की प्रक्रिया के बारे में सोचने के लिए कहती हूं तो उन्हें इस बात का अहसास होता है कि उन्होंने इस तरह का व्यवहार अपने आसपास देखा है। इसी तरह जब मैं लड़कों के साथ कोई सेशन करती हूं तो मेरी कोशिश उन्हें यह सोचने पर मजबूर करना होता है कि फ़ुटबॉल या ऐसे ही किसी खेल को खेलने के लिए किन चीजों की ज़रूरत होती है और उन्हें ऐसा क्यों लगता है कि लड़कियों में इन कौशलों की कमी होती है।

मैं अपने छात्रों को अपने माता-पिता के साथ मेरे सेशन्स में सीखी गई बातों को साझा करने के लिए भी प्रोत्साहित करती हूं। इन बातों के प्रति कुछ अभिभावकों का रवैया सकारात्मक नहीं होता है। लेकिन मैंने देखा है कि माएं आमतौर पर अधिक समझदार होती हैं।

शाम 6.30 बजे: मैं प्रैक्टिस ख़त्म करके घर के लिए निकल जाती हूं। हाथ-मुंह धोने के बाद मैं बैठकर थोड़ी सी पढ़ाई करती हूं। उसके बाद का समय परिवार के साथ रात का खाना खाने का होता है। खाते समय मैं अक्सर अपनी मां और बहनों के साथ अपने उस दिन के बारे में बातचीत करती हूं।

रात 9.30 बजेरात में सोने जाने से पहले मैं अपनी डायरी लिखती हूं। इस काम से मुझे खूद को जानने में बहुत मदद मिलती है। लीडरशिप ट्रेनिंग के दौरान मुझे यह आदत लग गई। उन दिनों ही मैंने यह जाना कि किसी परिस्थिति में उलझने पर लिखने से मुझे उसके बारे में सोचने और उसका समाधान ढूंढने में मदद मिलती है। कभी-कभी मैं अपनी डायरी में फूल भी चिपका देती हूं। मुझे लगता है यह फूल मेरी भावनाओं को दर्शाता है।

आज मैं अपनी मेंटॉर सिमरन और मेरे बीच हुई बातचीत के बारे में लिख रही हूं। सिमरन भी लैंगिक प्रशिक्षण कार्यक्रम की मैनेजर हैं। उनसे बात करने से भविष्य में भी युवा लड़कियों और लड़कों के साथ काम करना जारी रखने और उन्हें लैंगिक भूमिकाओं की सीमाओं से बाहर निकलने में मदद करने का मेरा संकल्प मजबूत होता है।

मेरा सपना एक ऐसी दुनिया बनाने का है जहां लड़कियां और लड़के बराबरी के साथ खेल सकें। जहां लड़कियों को भी बिल्कुल वही मस्ती और आज़ादी अनुभव हो जो मैंने पहली बार फ़ुटबॉल खेलने पर महसूस की थी। पुरुषों को लगता है कि पुरुष होने के कारण उनमें बहुत ताक़त है लेकिन यह सच नहीं है। महिलाएं कड़ी मेहनत करती हैं- दरअसल वे घर में बिना किसी वेतन के काम करती हैं और फिर बाहर जाकर भी मेहनत करती हैं। मुझे लगता है कि यदि हम पुरुषों और लड़कों को ऐसी कुछ बातों को समझने में मदद करें तो हमारी बहुत सारी समस्याएं यूं ही सुलझ जाएंगी। 

जैसा कि आईडीआर को बताया गया।

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चार तरीके जो फंडरेज़िंग को आसान बनाते हैं

किसी कार्यक्रम के चलते रहने के लिए प्रभावी फंडरेजिंग जरूरी है। एक सामाजिक उद्यमी होने के नाते, हमें इसे हासिल करने वाले कौशल में निपुण होना पड़ता है। इससे हम फंड की कमी से होने वाली समस्याओं से बच सकते हैं और अपना काम जारी रख सकते हैं।

हालांकि अपने अनुभवों से मैंने यही सीखा है कि इसका कोई एक तय तरीका नहीं होता है। लेकिन मैं यह भी जानती हूं कि ऐसे कई कदम हैं जिनका इस्तेमाल करने से सफल होने की संभावना बढ़ जाती है। यह बात किसी भी आकार के संगठन पर समान रूप से लागू होती है।

1. छोटे स्तर से शुरू करें, फिर आगे बढ़ें

एक समाजसेवी संस्था होने के नाते, जब बात हमारे किसी कार्यक्रम की आती है तब हम हर तरह की चुनौती का सामना करने के लिए तैयार रहते हैं। फिर फंडरेजिंग के लिए भी हमें यही नज़रिया क्यों नहीं अपनाना चाहिए?

फंडरेजिंग रिश्ते बनाना है

फंडरेजिंग पूरी तरह से इस बारे में है कि आप और आपके फंडर के बीच कैसे संबंध हैं। यानी, यह इस बात पर निर्भर करता है कि धन लेने से पहले और धन लेने के बाद यह संबंध कितना बदलता है। हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि किसी से पहली मुलाक़ात में ही फंड की मांग नहीं करनी चाहिए। इसकी बजाय आप लोगों से मार्केटिंग, मैनेजमेंट इंफॉर्मेशन सिस्टम (एमआईएस) या तकनीक से जुड़ी मदद मांग सकते हैं। बाद में, जब वे आपकी यात्रा का हिस्सा बन जाएं और आपसे या आपके संगठन के नाम से जुड़ने की इच्छा जताएं, तब आप इसकी पहल कर सकते हैं। आप उनसे यह पूछ सकते हैं कि “क्या आप वित्तीय मदद करने वाले किसी व्यक्ति या संगठन को जानते हैं?” ऐसे में वे खुशी-खुशी आपसे यह जानकारी साझा करेंगे।

हम बहुत ही जल्दी पैसे की मांग कर लेते हैं। मेरा अनुभव कहता है कि हमें ऐसा नहीं करना चाहिए।

एक बार जब आपको उनका सहयोग हासिल हो जाए तो आपको उन्हें अपने सह-यात्री के रूप में देखना चाहिए, न कि एक बाहरी व्यक्ति या संगठन के रूप में। आपको उनके साथ ऐसा संबंध स्थापित करना है जिसमें आप किसी भी कामकाजी या रणनीतिक चुनौती के बारे में उनसे मुक्त भाव से बात कर सकें और उनकी राय हासिल कर सकें।

धैर्य रखें और लगे रहें

सितम्बर 2015 में मैं एक कॉरपोरेट के साथ मीटिंग करने की कोशिश कर रही थी जिसकी सीएसआर (कॉर्पोरेट सोशल रिस्पॉन्सिबिलिटी) रणनीति अर्पण के उद्देश्यों के साथ मेल खाती थी। मैंने एक मिड-लेवल के व्यक्ति से मुलाक़ात की जिसने मेरा परिचय सीएसआर में उसके साथी से करवाया। मैं इन-पर्सन मीटिंग करने की कोशिश कर रही थी लेकिन उनका लगातार यही कहना था कि “नहीं, हमारे पास पर्याप्त पैसे नहीं है”, “हम आपसे सम्पर्क करेंगे।” मैंने उनकी बात सुनी और लगभग चार सप्ताह बाद उनसे फिर सम्पर्क किया। फिर दो महीने बाद और फिर ऐसे ही थोड़े-थोड़े समय अंतराल पर मैं उनसे लगातार सम्पर्क करती रही। मैंने 2015 का अपना पूरा साल और 2016 का अपना ज़्यादातर समय इसी काम में लगाया।

2016 में मैं अपने एक मेंटॉर से मिली। मैंने उन्हें बताया कि मैं एक मीटिंग करने का प्रयास कर रही हूं लेकिन मुझे अब तक इसमें सफलता नहीं मिली है। उन्होंने एक कॉल किया और उसके एक महीने के भीतर ही, दिसंबर 2016 में मीटिंग हो गई। 2017 के मार्च में हमें फ़ंडिंग भी मिल गई। इस काम में दो साल का समय और बहुत सारा धीरज लगा। 2015 में हमने उनसे पहली बार सम्पर्क किया, 2016 के दिसंबर में मीटिंग हुई और अंत में 2017 के मार्च में फंड मिला। 

ब्लॉक्स से money लिखा है_फंडरेज़िंग
चित्र साभार: पीटी मनी 

अपनी रणनीति को लेकर गम्भीर रहें

सफलता, आंकड़ों से भी उतनी ही संबंधित होती है जितनी रिश्तों से। इसके लिए आपको अपनी सेल्स प्रोसेस यानी प्रस्ताव की प्रक्रिया और रूपांतरण अनुपात दोनों पर ही ध्यान देना होगा। रूपांतरण से यहां मतलब किसी प्रस्ताव के फ़ंडिंग हासिल करने वाले नतीजों में बदलने से है। आपको यह ध्यान रखना होगा कि आपको कितने लोगों से मिलना चाहिए और कितने प्रस्ताव, असल फ़ंडिंग में बदल सकेंगे।

सफलता आंकड़ों और रिश्तों दोनों से जुड़ी होती है।

उदाहरण के लिए 2016-17 में हम लोगों ने 88 प्रस्तावों पर बातचीत से शुरू किया था। उनमें से छत्तीस असफल रहे। अभी हमारे पास ‘फ़नल’ में 34 लाइव संवाद हैं यानी वे बातचीत जो चल रही हैं, अन्य 13 प्रस्ताव के स्तर पर हैं और पांच रूपांतरण के करीब हैं।

फनल जितना अधिक व्यापक होगा सफलता की संभावना उतनी ही मजबूत होगी। बहुत सारे लोग बाहर हो जाएंगे और इस बात को ध्यान में रखना जरूरी है कि रूपांतरण की समय-सीमा लगभग नौ महीने से एक साल होता है। इसका कोई छोटा रास्ता या शॉर्टकट नहीं है।

शुरुआत में बड़ी राशियों पर ध्यान दें

मैंने पाया है कि खुदरा या छोटे अनुदानों (एकाधिक दाताओं से 1,000 रुपये) की तुलना में थोक अनुदान (5 लाख रूपये से अधिक की राशि) प्राप्त करना अधिक आसान होता है। खुदरा अनुदान आकर्षक तो हो सकते हैं लेकिन इन पर बाद में ध्यान केंद्रित करना चाहिए क्योंकि शुरुआती वर्षों में आपके पास समय की कमी हो सकती है। साथ ही, आपके पास फ़ंडरों का एक छोटा-मोटा समूह होना चाहिए ताकि किसी एक फ़ंडर के चले जाने से आपके संगठन को किसी प्रकार की चुनौती का सामना न करना पड़े।

2. नए रिश्ते बनाएं

अपना नेटवर्क बनाएं और आपकी सिफ़ारिश करने वालों को खोजें

फ़ंडरेज़िंग के लिए कड़ी मेहनत करनी पड़ती है, ताकि लगातार आपकी उपस्थिति बनी रहे और ज़्यादा से ज़्यादा मीटिंग करने की कोशिश की जा सके। मेरा अनुभव कहता है यदि आप अपना सारा समय पैसे की चिंता करने में लगाते हैं और इसके लिए जरूरी काम नहीं करते हैं तो आपके पास कभी पैसा नहीं आने वाला है। किसी प्रभावशाली व्यक्ति द्वारा आपकी सिफारिश किया जाना, आधी लड़ाई जीत लेने जैसा है। जब अर्पण, गोल्डमैन सैक्स के चेयरपर्सन की सिफारिश के साथ बैठक में जाता है तो उसे गंभीरता से लिया जाता है। उन लोगों से सम्पर्क बनाएं जो आपके लिए नए दरवाज़े खोलने में मददगार साबित होंगे। मुझे किसी ख़ास परिचय और सिफ़ारिश के बग़ैर, एक लाख रुपए से अधिक का एक भी अनुदान आज तक नहीं मिल पाया है।

कॉर्पोरेट साइकल से जुड़कर काम करें

एक सेल्स साइकल में पहली मीटिंग से फंड मिलने तक अमूमन 6 से 9 महीने तक का समय लगता है। इस प्रक्रिया को तेज करने वाला कारक आपकी टाइमिंग होती है। सभी प्रकार के सीएसआर प्रस्तावों को कार्यसमिति की बोर्ड बैठक में मंज़ूरी मिलती है। इसलिए विभिन्न कॉरपोरेट्स के लिए समय-सीमा और प्रणालियों के बारे में जानना महत्वपूर्ण है। कम्पनियां सीएसआर पर चर्चा करने के लिए तिमाही या छमाही बैठकें भी करती हैं। यदि उनकी छमाही बैठक कुछ दिनों पहले ही ख़त्म हुई है तो ऐसा संभव है कि आपके प्रस्ताव पर अगले छः महीने तक किसी तरह की चर्चा न हो।

उन्हें वह बताएं जो वे जानना चाहते हैं, कि वह जो आप कहना चाहते हैं

आमतौर पर उद्यमी या कॉर्पोरेट क्षेत्र के पेशेवर लोग ही आपके डोनर होते हैं। वे संख्याओं और प्रतिशतों के बारे में जानना चाहते हैं और आपको उनकी भाषा में बात करना आना चाहिए। चाहे आप कोई प्रस्ताव लिख रहे हों या किसी मीटिंग में जा रहे हों, आपके लिए यह समझना जरूरी है कि वे वास्तव में क्या जानना चाहते हैं। अक्सर हमारा ध्यान उन बातों पर होता है जो हम कहना चाहते हैं न कि उन बातों पर जो वे जानना चाहते हैं।

अपने कारण को उनका एजेंडा बनाएं

कई बार आपका उद्देश्य आपके फ़ंडर के लिए ‘महत्वपूर्ण’ नहीं होता है। जब हम लोगों ने अर्पण में बाल यौन शोषण के मुद्दे को उठाना शुरू किया, तब यह किसी भी संगठन या कॉर्पोरेट के एजेंडे में शामिल नहीं था। मुझे इसे बदलने और उनके लिए बाल यौन शोषण को एक जरूरी मुद्दा बनाने की जरूरत थी।

कम से कम 12-15 महीने का कैश फ्लो बनाए रखें।

ऐसा करने के लिए मुझे उन्हें इस मुद्दे का महत्व समझाना पड़ा और उन समाधानों को सामने रखना पड़ा जिसे अर्पण ने इस समस्या से निपटने के लिए विकसित किया था। आपको अपने दानदाताओं को बताना पड़ेगा और अपने काम को उनके एजेंडे में शामिल करना होगा। आपके काम और उनकी प्राथमिकताओं के बीच के संबंध को समझना भी मददगार होता है।

नए दानदाताओं से छोटी और पुरानों से बड़ी राशि की मांग करें

सीधे एक बड़ी राशि के बजाय छोटा राशि का अनुदान मांगना हितकर होता है। दानदाताओं को पहली बार छोटे से अनुदान के लिए तैयार करना आसान होता है। जब कोई कॉर्पोरेट साझेदार बन जाता है, तब उनके छोड़ के जाने की संभावना बहुत ही कम हो जाती है। पहले वर्ष में उनके दृष्टिकोण एवं प्रणालियों के बारे में जानने का प्रयास करें, साथ ही यह भी देखें कि क्या यह संबंध आगे भी बना रह सकता है।

यदि यह आपके रणनीतिक उद्देश्यों से मेल नहीं खाता है तो नहीं कहना सीखें

सीमित संसाधनों वाले समाजसेवी संगठन, पैसों के पीछे भाग सकते हैं। जैसे वे इसके लिए अलग-अलग भौगोलिक क्षेत्रों में जा सकते हैं। लेकिन अपने वास्तविक मूल्यों पर टिके रहना जरूरी होता है। साथ ही, अपनी रणनीतिक दिशा को परिभाषित करना एक ऐसी भूमिका है जिसे बोर्ड के सदस्यों और सलाहकारों को बेहतर ढंग से निभाना चाहिए। कई बार ऐसा होता है कि हमें डोनर के साथ सहमति जतानी पड़ती है। ऐसे मामलों में यह तय कर लेना बेहतर होता है कि ऐसा करने के पीछे एक मज़बूत रणनीतिक कारण मौजूद हो।

3. मौजूदा संबंधों को बनाए रखें

विश्वसनीयता बनाएं

अर्पण के शुरुआती वर्षों में मैंने ग्लोबल फ़ाउंडेशन द्वारा संचालित होने वाले इंडिया एनजीओ पुरस्कार के लिए आवेदन दिया था। हालांकि मैं उनके बारे में पहले से नहीं जानती थी लेकिन मुझे लगा कि एक अंतरराष्ट्रीय इकाई हमें कुछ विश्वसनीयता प्रदान कर सकती है। हमने एक करोड़ रुपए वाली श्रेणी के लिए आवेदन किया और जीत गए। उसके बाद मैंने हमारी इस जीत का उपयोग अपने मौजूदा और नए दानदाताओं के सामने करना शुरू कर दिया। मैं यह जानती थी कि दोनों ही तरह के दानदाता, बाहर से सम्मान हासिल करने वाली संस्था के बारे में आश्वस्त होंगे।

बाहरी सत्यापन महत्वपूर्ण है

इसी प्रकार, आंतरिक एवं बाहरी दोनों तरह की एजेंसी के सत्यापन से मजबूत हुआ एम-एंड-ई (मॉनिटरिंग एंड इवॉल्यूशन) फ़ंडर को इस बात के लिए आश्वस्त करता है कि आपका संगठन नई चीजों को सीखने वाला, विश्वसनीय और बाहरी दुनिया में भी सम्मानित है। एम-एंड-ई आपके संगठन की रणनीतिक दिशा तय करने में मदद करता है और आपके आगे बढ़ने की यात्रा में आपके दानदाताओं को भी साथ लेकर आता है।

4. एक टीम बनाएं

आर्थिक संबंधों को विकसित एवं पोषित करने में बहुत अधिक समय एवं प्रयास की ज़रूरत होती है। अक्सर इस काम के लिए संस्थापक/सीईओ पर अतिरिक्त निर्भरता होती है। फंडरेजिंग से जुड़े प्रयासों में मदद के लिए टीम बनाने का काम शुरू करें। यदि आपके पास सीमित फ़ंडिंग है तो उस स्थिति में लीडर्स की मदद के लिए इंटर्न की नियुक्ति करें। मझले और वरिष्ठ पदों पर कार्यरत कार्यक्रम कर्मचारी प्रस्ताव लिखने में मदद कर सकते हैं। बजट में वृद्धि होने पर किसी एक वरिष्ठ की नियुक्ति के बाद फंडरेजिंग के लिए एक टीम विकसित करें। इसे खर्च की बजाय निवेश की तरह देखें।

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कोविड-19 ने साफ़ किया है कि ग्रामीण रोज़गार को बनाए रखने में मनरेगा की क्या भूमिका है

महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) 2005, रोज़गार को एक अधिकार मानता है। यह सरकार को आधिकारिक दावे के 15 दिनों के भीतर रोज़गार प्रदान करने के लिए कानूनी रूप से बाध्य करता है। यह एक मांग-आधारित और संचालित कार्यक्रम है। इसे इस तरह तैयार किया गया है कि यह महामारी सरीखी आपदाओं के दौरान बीमा तंत्र की भूमिका निभाता है। नतीजतन समय-समय पर इसे कठिन परीक्षाओं से भी गुजरना पड़ता है। 2021 के नवम्बर और दिसम्बर महीनों में अज़ीम प्रेमज़ी यूनिवर्सिटी ने नैशनल कन्सॉर्टियम ऑफ़ सिविल सोसायटी ऑर्गनायज़ेशन्स ऑन नरेगा और कॉलैबरेटिव रिसर्च एंड डिसिमिनेशन (सीओआरडी) के साथ मिलकर नरेगा पर एक सर्वेक्षण किया था। इस सर्वेक्षण का उद्देश्य महामारी के दौरान आर्थिक रूप से कमजोर परिवारों को सहायता प्रदान करने में मनरेगा की भूमिका को समझना था। 

बिहार, कर्नाटक, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र के आठ विकासखंडों (ब्लॉक) के दो हज़ार घरों के साथ यह सर्वे किया गया। इस दौरान नमूना लेने के लिए एक खास तरीके का प्रयोग किया गया। इसका उद्देश्य यह सुनिश्चित करना था कि सर्वेक्षण से मिलने वाला परिणाम प्रत्येक विकासखंड के सभी जॉब-कार्ड धारकों का प्रतिनिधित्व करे। 

इस अध्ययन में मनरेगा का विश्लेषण निम्न कारकों के आधार पर किया गया: जॉब कार्ड धारक परिवारों पर कार्यक्रम का कुल प्रभाव, अधूरी रह गई मांगों की मात्रा, मजदूरी भुगतान, महामारी के दौरान कार्यक्रम के कामकाज में बदलाव और कठिन परिस्थितियों में आर्थिक सुरक्षा देने में मनरेगा की प्रभावशीलता। अध्ययन में पाया गया कि मनरेगा के तहत काम करने के इच्छुक सभी जॉब कार्ड धारक परिवारों में से लगभग 39 प्रतिशत को महामारी के पहले वर्ष 2020-21 में एक भी दिन काम नहीं मिला। साथ ही, इस साल काम करने वाले परिवारों में से औसतन केवल 36 प्रतिशत को ही काम करने के 15 दिनों के भीतर अपनी मजदूरी प्राप्त हुई।

इन कमियों के बावजूद नतीजों से यह बात सामने आई कि मनरेगा ने महामारी के दौरान महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी और आर्थिक रूप से सबसे कमजोर वर्ग के परिवारों को आय के नुक़सान से बचाया था। नतीजे ये भी बताते हैं कि जिन विकासखंडों में सर्वे किया जा रहा था, वहां आय में होने वाले नुक़सान की लगभग 20 से 80 फ़ीसद भरपाई मनरेगा से हुई है।

अध्ययन के सह-लेखक और अज़ीम प्रेमज़ी विश्वविद्यालय के अध्यापक राजेंद्र नारायणन कहते हैं कि “हमारे अध्ययन से पता चलता है कि मज़दूर वर्ग मनरेगा की आवश्यकता और उपयोगिता को कितना अधिक महत्व देता है। 10 में से आठ से अधिक परिवारों ने सिफारिश की कि मनरेगा को प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष 100 दिनों का रोजगार प्रदान करना चाहिए। हमें बड़े पैमाने पर पर्याप्त से कम धनराशि (अंडरफ़ंडिंग) के मामले भी देखने को मिले। एक अनुमान के तहत, सर्वेक्षण किए गए विकासखंडों में आवंटित राशि को वास्तव में आवंटित राशि का तीन गुना होना चाहिए था, तब ही सही मायनों में मांग को पूरा किया जा सकता था।” 

नरेगा कंसोर्टियम के अश्विनी कुलकर्णी कहते हैं कि “मनरेगा के कई उद्देश्यों में से एक उद्देश्य संकट के समय सामाजिक सुरक्षा प्रदान करना है। महामारी और लगातार लगाए गए लॉकडाउन के कारण स्थिति बहुत बुरी हो गई थी और मनरेगा ने उम्मीद के अनुसार जरूरत के समय अपनी भूमिका निभाई। लॉकडाउन के बाद के सालों में मनरेगा के तहत, बड़ी संख्या में गांवों और परिवारों को रोज़गार मिला। पिछड़ेपन को कम करने में मनरेगा की भूमिका पर फिर से जोर दिया जा रहा है और महामारी के बाद के समय में भी इसकी महत्ता बरकरार है। नागरिक संगठनों की जिम्मेदारी है कि वे कार्यान्वयन प्रक्रिया को ठीक करने के लिए नीति निर्माताओं तक लोगों की आवाज पहुंचाएं। यह रिपोर्ट इस संबंध में एक प्रयास है।”

प्लेड शर्ट पहना एक आदमी सड़क पर चल रहा है_मनरेगा
रोज़गार की मांग से निपटने के लिए मनरेगा कार्यक्रम के व्यापक विस्तार की आवश्यकता है। | चित्र साभार: पेक्सेल्स

मुख्य निष्कर्ष 

अध्ययन के सुझाव

मांग का पूरा न होना और समय पर मज़दूरी न मिलना चिंता का विषय रहा है। समग्र ग्राम विकास और समुदायों को सशक्त बनाने में सहायता करते हुए भारत के सबसे कमजोर परिवारों को आय सुरक्षा प्रदान करके, इस चिंता से निपटने में मनरेगा की भूमिका महत्वपूर्ण रही है। इन लक्ष्यों को प्रभावी ढंग से प्राप्त करने के लिए, इनके आवंटन में वृद्धि करने, सरकार की जवाबदेही बढ़ाने और संरचनात्मक मामलों के लिए केवल तकनीकी सुधारों से बचने की आवश्यकता लगातार बनी हुई है।

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फुटनोट:

  1. लाभार्थी के खाते में सीधे मजदूरी हस्तांतरित करने के लिए कार्य के सत्यापन के बाद कार्यान्वयन एजेंसी (ग्राम पंचायत/ब्लॉक) द्वारा एफटीओ तैयार किए जाते हैं। 
  2. सात रजिस्टरों में जॉब कार्ड (आवेदन, पंजीकरण और जारी करना), घरेलू रोजगार, ग्राम सभा (बैठक और सामाजिक लेखा परीक्षा) मिनट, मांग, आवंटन और काम का पंजीकरण, मज़दूरी का भुगतान, शिकायत और सामग्री से संबंधित जानकारी होती है।

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ओडिशा के जंगलों को वहां के ग्रामीण आदिवासी पुनर्जीवित कर रहे हैं

हर साल मानसून के दौरान कम से कम एक दिन ऐसा ज़रूर होता है जब ओडिशा के केंदुझर जिले के जंगलों में लोक गीत सुनाई पड़ते हैं। नज़दीक से देखने पर पता चलता है कि वहां के स्थानीय लोग गीत गाते हुए और कुछ बीज छीटते हुए जंगलों से गुजर रहे हैं।

पिछले तीन वर्षों से इस ज़िले के सभी 85 गांवों के लोग वन महोत्सव मना रहे हैं। यह महोत्सव दरअसल जंगलों से लिए गए संसाधनों को वापस जंगलों को लौटाने का एक प्रयास है। वन महोत्सव एक सामूहिक बीजारोपण और वृक्षारोपण उत्सव है। इस अभियान के तहत अति पिछड़े जनजातीय समूह के लोग जुलाई में मानसून आने के लगभग दो या तीन महीने पहले से जंगलों से बीज इकट्ठा करना शुरू कर देते हैं। यह वह समय है, जब कटहल, जामुन और कुसुम जैसे स्थानिक बीज सबसे आसानी से उपलब्ध होते हैं। बीजों को एकत्रित करने के इस काम में गांवों की महिलाएं और बच्चे सक्रिय रूप से शामिल होते हैं। वे सिर्फ़ बीज ही नहीं बल्कि जंगलों में वृक्षों के आसपास प्राकृतिक रूप से उपजने वाले छोटे-छोटे पौधों (लत्तरों) को भी जमा करते हैं।

बीज के एकत्रित हो जाने के बाद गांव के लोग सामूहिक रूप से इस बात का फ़ैसला करते हैं कि फिर से बीज लगाने की प्रक्रिया कहां और कब की जाएगी। चुने हुए दिन पर, वे एक साथ जंगल जाते हैं और इकट्ठा किए बीजों को बिखेरते हैं। ग्रामीणों ने यह सुनिश्चित करने के लिए पहले से नियमों का एक सेट तैयार किया है कि बीजों वाले हिस्से को चराई, जंगल की आग और पेड़ों की अवैध कटाई से बचाया जाए।

चंकि मानसून के दौरान गांव के पुरुष खेती के काम में व्यस्त रहते हैं इसलिए जंगलों में बीजारोपण की इस पहल का नेतृत्व महिलाएं ही करती हैं। पहले वे जंगल की ओर निकलती हैं और रास्ते भर बीजों को बिखेरते चलती हैं। अपना मनोबल उंचा रखने के लिए, ये औरतें पारंपरिक लोकगीत भी गाती हैं। जंगल से वापस लौटते समय भी लोकगीत गाए जाते हैं। शाम को वापस गांव लौटने पर समुदाय के लोग मिलकर सामूहिक भोज का आयोजन करते हैं।

इस प्रथा की शुरुआत ओडिशा के कोरापुट ज़िले में समरा खिल्लो नाम के एक व्यक्ति ने की थी। उन्होंने बीज इकट्ठे करके, अपने परिवार वालों की मदद से पूरे जंगल में बिखेरे थे। नतीजतन, इस इलाक़े का जंगल दो-तीन सालों की अवधि में ही पहले से बहुत अधिक सघन हो गया। इस घटना से अन्य गांवों और ज़िलों के लोगों को भी प्रेरणा मिली। साल 2022 में जिले के सभी गांवों में लोगों ने जंगल से लगभग 20 क्विंटल स्थानीय बीज इकट्ठे किए हैं। इस क्षेत्र में 20 से अधिक किस्मों के बीज लगाए गए हैं और यह उम्मीद की जा रही है कि इससे यहां रहने वाले लोगों को बहुत अधिक लाभ होगा।

कार्तिक चंद्र प्रुस्टी जंगलों पर सामूहिक भूमि अधिकारों को सुविधाजनक बनाने और ओडिशा के दूरस्थ आदिवासी क्षेत्रों में स्थानीय लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं को मजबूत करने के विषय पर काम करते हैं।

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अधिक जानें: यह लेख पढ़ें और जानें कि कैसे ओडिशा में महिलाएं चक्रवातों से निपटने के लिए जंगल को फिर से उगा रही हैं।

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गया की महिला किसान जैविक खेती को क्यों चुन रही हैं?

चावल के खेत में गुलाबी साड़ी में एक महिला किसान-महिला किसान
गांवों में महिलाएं जब पैसे कमाने लगती हैं तो उनकी सामाजिक स्थिति बेहतर होने लगती है। उनके अपने परिवार और गांव में उनकी राय का महत्व बढ़ जाता है। | चित्र साभार: प्राण

8 जून, 2007 को अनिल वर्मा जो कि उस समय आजीविका हासिल करने में सहयोग करने वाली ग़ैर-लाभकारी संस्था ‘प्रदान’ के सदस्य थे, बिहार के गया जिले में पड़ने वाले शेखवारा गांव में जैविक खेती पर बातचीत करने के लिए पहुंचे। वहां उन्होंने चावल, गेहूं, सरसों और मक्का वगैरह उगाने के लिए रूट इंटेन्सिफिकेशन प्रणाली (एसआरआई) और उसके फायदों पर विस्तार से बात की। बिना किसी कैमिकल के, कम पानी और थोड़ी मेहनत वाले इस तरीके को खाने की कमी से जूझ रहे और सामाजिक-आर्थिक रूप से पिछड़े इस इलाक़े के लोगों का ध्यान आकर्षित करना चाहिए था, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। समुदाय का एक भी सदस्य इस प्रयोग में शामिल नहीं होना चाहता था। उन्हें इस बात का डर था कि यह किसी तरह का घोटाला है। अनिल वहां से निकलने ही वाले थे कि कुंती देवी नाम की एक दलित महिला ने उन्हें रोक लिया।

कुंती ने कहा, “मैं खेती की आपकी इस तकनीक का इस्तेमाल अपने खेत में करुंगी।” कुंती देवी का फ़ैसला सुनकर गांव के लोग बहुत निराश हुए। इनमें से कई लोगों का मानना था कि कुंती देवी की असफल होना तय है। उन्होंने कहा, “अगर तुम्हारे खेत में धान नहीं उगा तो तुम अपने बच्चों को खिलाओगी क्या?” यहां तक कि कुंती के पति भी उनके इस फ़ैसले से सहमत नहीं थे।

बाद में, जुताई के कुछ ही दिनों के बाद जब धान के नन्हे-नन्हे पौधे दिखने लगे तो उसने जाकर गांव में सबको अपनी सफलता की कहानी सुनाई। कुंती देवी का फ़ैसला सही साबित हुआ था। नतीजतन, उस गांव और आसपास के कई गांवों की ढ़ेर सारी महिलाओं ने जैविक खेती करनी शुरू कर दी। अनिल ने आगे चलकर गया में ही एसआरआई तकनीक के माध्यम से जैविक खेती करने वाली महिलाओं के साथ काम करने वाली समाजसेवी संस्था प्राण (पीआरएएन) की स्थापना की। अनिल का कहना है कि “अपने अनुभव में मैंने महिला किसानों को अपनी सोच में अधिक समावेशी पाया है।” उन्हें अपनी आय के अलावा अपने परिवार के स्वास्थ्य और उनके पोषण की भी उतनी ही चिंता रहती है।

इसके और भी फ़ायदे हैं। जब ग्रामीण भारत की महिलाएं पैसे कमाना शुरू कर देती हैं तो उनकी सामाजिक स्थिति भी बेहतर हो जाती है। परिवार और गांव के मामलों में उनकी राय का भी महत्व बढ़ जाता है। अनिल का कहना है कि उन्होंने महिला किसानों को पंचायत स्तर के नेतृत्व तक पहुंचते भी देखा है। इसके अलावा, उन्होंने मासिक धर्म के दौरान मंदिरों में प्रवेश न करने जैसी कुप्रथाओं को समाप्त करने में भी अपना योगदान दिया है।

गया के बरसोना गांव की महिला किसान रीना देवी का कहना है कि “मुझे लोगों के बीच बोलने में पहले डर लगता था लेकिन अब मैं किसी भी सभा में जाकर लोगों के सामने अपने मन की बात रख सकती हूं। महिला सभाओं की बैठकों में अब मैं खुल कर अपनी बात कहती हूं।”

रीना ने अन्य महिला किसानों को जैविक खेती के तरीके सिखाने के लिए उत्तर प्रदेश में प्रयागराज से बाराबंकी तक की यात्रा की है। वे कहती हैं, “मुझे वहां 20-25 दिनों के काम के लिए 42,500 रुपये मिले। उन पैसों से मैं अपने परिवार के सदस्यों को इलाज के लिए पटना ले गई। मुझे खुशी है कि इसके लिए मुझे अपनी जमीन नहीं बेचनी पड़ी।”

जैसा कि आईडीआर को बताया गया।

रीना देवी एक किसान होने के साथसाथ गया, बिहार के श्री विधि महिला समूह की सदस्य भी हैं। अनिल वर्मा, प्राण (पीआरएएन) के इग्ज़ेक्युटिव निदेशक हैं।

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जब तक जातिगत समुदायों की कोई जानकारी ही नहीं होगी तो उनके विकास की तैयारी कैसे होगी?

बीती गर्मियों में किए गए अपने एक ट्वीट में एक्टिविस्ट बेजवाड़ा विल्सन ने लिखा था कि भारत में पिछले पांच वर्षों में सीवर और सेप्टिक टैंक में मरने वाले श्रमिकों की संख्या 35 फ़ीसदी तक घट गई है। विल्सन सफ़ाई कर्मचारी आंदोलन के राष्ट्रीय कर्ताधर्ता हैं। यह हाथ से मैला ढोने (भारत की सबसे निचली जाति के लोगों को सौंपा गया काम जिसपर 2013 में प्रतिबंध लगा दिया गया था) की प्रथा समाप्त करने की मांग करने वाले सफाई कर्मचारियों का एक संघ है। 

विल्सन ने अपने ट्वीट में लिखा था कि “आंकड़ों में हेराफेरी करने की बजाय जीवन बचाना ज़्यादा आसान होता।” लेकिन जाति पर आधारित आंकड़ों के साथ तो हेराफेरी की ज़रूरत भी नहीं है क्योंकि जाति-आधारित असमानताओं पर पर्याप्त जानकारी उपलब्ध ही नहीं हैं।

भारत में हाथ से मैला ढ़ोने की परम्परा अब तक क्यों जारी है? सरकार सीवर की सफ़ाई का मशीनीकरण कर इस अमानवीय प्रथा पर रोक क्यों नहीं लगा देती है, जैसा कि इसने संकेत दिया है कि यही इसका उद्देश्य रहा है? इसका उत्तर गहरे तक जमी उस गैर-बराबरी में है जो विकास से जुड़ी चर्चाओं और आंकड़ों दोनों में साफतौर पर दिखाई देती है।

जातिप्रथा, गरीबी और अलगाव को पैदा करती है और इसकी उपस्थिति कई सतत विकास लक्ष्यों (सस्टेनेबल डेवलपमेंट गोल्स – एसडीजी) में साफ़ देखी जा सकती है। जातिगत भेदभाव के सबूत स्पष्ट होने के बावजूद, विकास लक्ष्यों के संदर्भ में तरक्की को दिखाने वाले वे आंकड़े बहुत थोड़े हैं जो जाति पर आधारित ग़ैर-बराबरी की बात करते हों। भारत को आज़ाद हुए सात दशक से भी अधिक का समय बीत चुका है लेकिन जाति पर आधारित भेदभाव और ग़ैर-बराबरी, औपचारिक और अनौपचारिक दोनों ही रूपों में, विकास के प्रयासों को प्रभावित कर रहे हैं। अंतरराष्ट्रीय और राष्ट्रीय दोनों ही स्तरों पर जाति-आधारित आंकड़ों की भारी कमी है।

आंकड़ों की कमी का वास्तविक जीवन पर बहुत अधिक प्रभाव पड़ता है, जैसा हमने ऊपर दिए उदाहरण में देखा। इस ग़ैर-बराबर दुनिया में जिन लोगों की गिनती नहीं होती, वे महज़ गुमशुदा आंकड़े नहीं हैं। अपने कमजोर लोगों की गणना करने में विफल लोकतंत्र उन लोगों को ही मताधिकार से वंचित कर देता है, जिन्हें लोकतंत्र की सबसे अधिक ज़रूरत होती है।

जाति को नज़रअंदाज़ करने से करोड़ों लोग प्रभावित होते हैं

समस्या कितनी गम्भीर है? दुनियाभर में करोड़ों लोग पहले से निर्धारित और अत्यंत असमान सामाजिक वर्ग या जाति व्यवस्था में जन्म लेते हैं। ये व्यवस्थाएं ही इन लोगों को जीवन भर मिलने वाले अवसरों का निर्धारण करती हैं।

यदि इन्हें एक देश मान लिया जाए तो दलितों की कुल संख्या दुनिया के सातवें सबसे बड़े देश की आबादी के बराबर है (और यदि हम उन लोगों को भी शामिल कर लें जिन्होंने बौद्ध या इस्लाम धर्म अपना लिया है लेकिन अब भी उन्हें दलितों में ही गिना जाता है तो ये विश्व की सबसे बड़ी आबादी वाले चौथे देश हो जाएंगे)। दलितों को वंश-आधारित भेदभावों जैसे जाति या जाति जैसी ही अन्य व्यवस्थाओं से निकलने वाली छुआछूत और अपमान आदि का सामना करना पड़ता है। इसी प्रकार, अधिसूचित समुदायों या विमुक्त जातियों (1971 के आपराधिक जनजाति अधिनियम के तहत इस्तेमाल की जाने वाली शब्दावली) के लोगों की कुल संख्या लगभग 15 करोड़ है। ये लोग मुख्य रूप से खानाबदोश वर्ग में आते हैं और भारत के अधिकारिक आंकड़ों से बाहर होते हैं।

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कमजोर लोगों की गणना करने में विफल लोकतंत्र उन लोगों को ही मताधिकार से वंचित कर देता है जिन्हें इसकी सबसे अधिक आवश्यकता होती है। | चित्र साभार: अनस्प्लैश

भारत में अधिकारिक आंकड़ा लोगों को या तो अनुसूचित जाति (निचली जाति के लोग जिनमें दलित भी शामिल हैं) या ग़ैर-अनुसूचित जाति (सवर्ण जातियों का समूह जिनमें उच्च जाति के हिंदू और अन्य पिछड़े वर्ग के लोग शामिल होते हैं) में वर्गीकृत करता है। ये वर्ग आंकड़ों की विषमता पर प्रकाश डालते हैं। ‘अन्य पिछड़ा वर्ग’ की श्रेणी में आने वाले लोग भारत की कुल आबादी का लगभग आधा हिस्सा हैं और इनके एक बड़े तबके का जीवन अनुसूचित जाति वर्ग में आने वाले लोगों के जीवन स्तर के समान ही होता है।

निजी अनुसंधान एजेंसियों द्वारा किए गए सर्वेक्षणों से भारत में गरीबी और असमानता की एक अधिक साफ़ और पूरी तस्वीर सामने आती है। घरेलू स्तर पर उपभोग का आंकड़ा आय की तुलना में जीवन-स्तर को मापने के लिए एक अधिक मज़बूत और कारगर तरीक़ा होता है। इस आंकड़े को यूनीवर्सिटी ऑफ़ मेरीलैंड और एक समाजसेवी थिंकटैंक नेशनल काउन्सिल ऑफ़ अप्लाइड एकनॉमिक रिसर्च के इंडियन ह्यूमन डेवलपमेंट सर्वे द्वारा प्राप्त किया जाता है। हालाकि इनके आंकड़े ग़रीबी और असमानता को अधिक स्पष्ट रूप से दिखाते हैं, पर सरकार एडवोकेसी या नीति परिवर्तन के लिए इस आंकड़े को स्वीकार नहीं करती है।

जाति के वर्ग में शामिल हो पाने का प्रभाव

वर्ग से संबंधित आंकड़ों की कमी मौजूदा ग़ैर-बराबरी को दिखाती है और उसकी पुष्टि करती है। इसके लिए आर्थिक और सामाजिक शक्ति के ऐतिहासिक स्त्रोत, भूमि का उदाहरण लेते हैं। हम नहीं जानते हैं कि भूमि स्वामित्व के मौजूदा आंकड़े में जातियों का क्या अनुपात है। किस जाति के पास अधिक भूमि है? आज़ादी के सात दशकों में किस जाति के लोग अधिक भूमिहीन हो गए?

वर्ग से संबंधित आंकड़ों की कमी मौजूदा ग़ैर-बराबरी को दिखाती है और उसकी पुष्टि करती है।

हमारे पास इससे जुड़ी जानकारी नहीं है कि प्रत्येक जाति के कितने लोगों को सरकारी कल्याणकारी सुविधाओं और सामाजिक सुरक्षा का लाभ मिलता है? हम एसडीजी के आधार पर जाति स्तर पर होने वाली प्रगति पर नज़र नहीं रख सकते हैं। हमारे पास उपलब्ध सीमित आंकड़े हमें यह बताते हैं कि ऐतिहासिक रूप से पिछड़े वर्गों के लोगों का जीवन स्तर बदतर है। उदाहरण के लिए, औसतन, अनुसूचित जाति की महिलाओं की औसत आयु, राष्ट्रीय औसत आयु से 14.6 वर्ष कम है। लेकिन हम नहीं जानते कि अनुसूचित और अन्य पिछड़ी जातियों के रूप में समूहीकृत हजारों विविध जातियों/समुदायों में यह आंकड़ा बदतर है या बेहतर। कितने बाल श्रमिक किस जाति से आते हैं? कितने बेघर दलित या अनुसूचित और अधिसूचित जनजाति के हैं? जातीय स्तर पर शिशु मृत्यु दर का आंकड़ा क्या कहता है? अधिक और बेहतर आंकड़े इकट्ठा किए बिना हम इन सवालों का जवाब नहीं दे सकते हैं और न ही असमानताओं को दूर करने के लिए किसी भी तरह की नीतियां ही विकसित कर सकते हैं।

जाति की उपेक्षा कर विकास को नकारना

यह कोई संयोग नहीं है कि भारत सरकार अलग-अलग जातियों की गणना करने वाले आंकड़े को इकट्ठा करने या प्रकाशित करने का विरोध करती है। हम क्या गिनते हैं और क्या नहीं यह हमारे मूल्यों को प्रतिबिम्बित करता है। जाति की जानकारियों पर आधारित विकास ढांचे की कमी- गुणवत्ता के स्तर पर और राजनीतिक रूप से- उस ढांचे से अलग है जो अन्य पहचान कारकों, उदाहरण के लिए लिंग आदि, की उपेक्षा करता है। एक सामाजिक श्रेणी के रूप में लिंग की महत्ता को व्यापक रूप से स्वीकार किया जाता है। लेकिन जाति का सवाल, विकास और इससे जुड़े लोगों और कर्तव्य-वाहकों दोनों के लिए, अब भी एक अभिशाप बना हुआ है।

उदाहरण के लिए, नीति आयोग (भारत की नीति और नियोजन प्राधिकरण) और भारत में संयुक्त राष्ट्र द्वारा तैयार एसडीजी स्थानीयकरण का भारतीय मॉडल, बड़े पैमाने पर जाति की वास्तविकताओं की उपेक्षा करता है। इस प्रक्रिया में यह एक असंभव स्थिति को प्राप्त करने की कोशिश करता है, और वो है, जातिगत वास्तविकताओं को नज़रअन्दाज़ करके विकास के लक्ष्यों का स्थानीयकरण करना। इसी प्रकार, घोर गरीबी और मानवाधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र के विशेष दूत की एक हालिया रिपोर्ट आई है जिसका उद्देश्य है उन लाखों सामाजिक रूप से कमजोर लोगों के बारे में जागरूकता बढ़ाना जिनके पास सामाजिक सुरक्षा जैसी सुविधाएं या तो उपलब्ध नहीं हैं या वे इन तक पहुंच नहीं पाते हैं। पर यह रिपोर्ट बुरी तरह विफल हो जाता है क्योंकि यह जाति, नस्ल, लिंग, धर्म और यौन झुकावों की चर्चा ही नहीं करता जिनके आधार पर लोग सामाजिक लाभों से वंचित कर दिए जाते हैं।

विश्व स्तर पर, लैक ऑफ़ डेवलपमेंट (विकास की कमी) सामाजिक विकास प्रयासों के डिजाइन, योजना निर्माण एवं उसे लागू करने तथा उसके मूल्यांकन करने के लिए प्रमुख रूपरेखा रही है। ऐसी धारणा है कि धीरे-धीरे ही सही लेकिन विकास अंततः उन लोगों तक पहुंचेगा जो हाशिए के आख़िरी छोर पर हैं। हालांकि सबूत इसके विपरीत हैं। किसी को पीछे नहीं छोड़ने के एजेंडे के (लीव नो वन बिहाइंड एजेंडा) बावजूद हम विकास को समान रूप से सभी तक नहीं पहुंचा पाए हैं।

ऐतिहासिक रूप से हाशिए पर रहने वाली जातियों के अधिकांश लोगों के लिए, प्रासंगिक और गहराई से अध्ययन कर तैयार किए आंकड़े उपलब्ध करवा सकने में व्यवस्था का इनकार भारत को एसडीजी हासिल करने में बाधा उत्पन्न करता है। जाति को मापने के लिए आंकड़े की मौजूदगी या ग़ैर-मौजूदगी हमारे ढांचे और प्राथमिकताओं पर निर्भर करती है। अक्सर हमारे सामने वही आंकड़े आते हैं जिनमें व्यवस्थागत तरीक़े से लोगों और समुदायों को लगातार बाहर ही रखा जाता है। इसे ठीक करने के लिए मेरी राय है कि हम ‘डिनायल ऑफ़ डेवलपमेंट’, विकास से जानबूझ कर दूर रखने वाली नज़र या लेंस, को दिमाग़ में रखें। भारतीय उपमहाद्वीप में यह लेंस असमानता और अभाव के मूलभूत कारण (पर्सिसटेंट स्ट्रक्चरल रीजन) को समझने के लिए जातिगत नजरिए को अहम दर्ज़ा देगा और इससे जाति पर बेहतर डेटा डिज़ाइन और संग्रह भी मुमकिन हो पाएगा।

यह लेख मौलिक रूप से द डाटा वैल्यूज डायजेस्ट में प्रकाशित हुआ था

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