अहमदाबाद के कपड़ा कारीगरों पर जलवायु परिवर्तन का असर

शीलाबेन अहमदाबाद के पटड़ नगर की रहने वाली हैं। वे दो कमरों के घर में रहती हैं जिनमें से एक कमरे का उपयोग वे ब्लाउज और स्कर्ट पर पत्थर चिपकाने का काम करने के लिए करती है। एक ब्लाउज का काम पूरा करने में उन्हें दो से तीन घंटे का समय लगता है। एक कपड़े पर उन्हें लगभग 15 से 25 रुपए तक मिल जाते हैं। यह काम उन्हें ठेकेदार से मिलता है और यह नियमित नहीं है।

त्योहारों विशेष रूप से नवरात्रि का समय यह तय करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है कि उन्हें कितना काम मिलने वाला है। शीलाबेन बताती हैं कि “त्योहारों के मौसम आने से पहले मैं रात के 12 बजे तक काम करती हूं। हमारे पास अतिरिक्त काम होता है और यही समय होता है जब हम थोड़े ज़्यादा पैसे कमा कर अपने लिए कुछ बचा सकते हैं।”

शीलाबेन के लिए, अपने इस छोटे से घर में काम करना आसान नहीं है। उनके जैसे अनगिनत कारीगर यहां ऐसे घरों में रहते हैं जहां आमतौर पर छतें और दीवारें स्थायी नहीं होती हैं। इन घरों में मौलिक सुविधाएं भी नहीं होती हैं। उदाहरण के लिए, जल निकासी की उचित व्यवस्था न होने के कारण मानसून के दिनों में इन घरों में पानी भर जाता है। इसके चलते, कच्चे माल को नुक़सान पहुंचता है।

जलवायु परिवर्तन के कारण होने वाली मौसम में आए चरम बदलाव सीधे इनके घरों को प्रभावित करते हैं। इसका असर इनके काम पर भी होता है। शीलाबेन ने बताया कि “हमारी छतें एस्बेस्टस की बनी होती हैं, इसलिए यह बहुत ज़्यादा गर्म हो जाती हैं। इसके नीचे बैठना मुश्किल हो जाता है लेकिन हमें फिर भी काम करना पड़ता है। मैं अपने काम से होने वाली आमदनी पर कोई समझौता नहीं कर सकती हूं।” घर के अंदर प्रचंड गर्मी के कारण उनके काम करने की क्षमता पर असर पड़ता है। ऐसे में उन्हें इधर-उधर जाकर काम करना और रात में मौसम ठंडा होने पर काम करना पड़ता है।

मानसून में काम करने की अपनी अलग चुनौतियां हैं। बारिश के मौसम में गोंद को सूखने में अधिक समय लगता है और घर की सीलन कपड़ों को नुक़सान पहुंचाती है। इलाक़े में सीवर पाइप न होने के कारण पानी रिसता है जो आख़िर में काम पर असर डालता है। शीलाबेन आगे बताती हैं कि “मैं मानसून में काम नहीं करती हूं क्योंकि उन दिनों में जितना फायदा होता है, उससे ज़्यादा कपड़ों का नुक़सान हो जाता है। इससे मुझ पर ठेकेदार का भरोसा भी कम होता है।” 

यही काम करने वाली पटड़ नगर की एक अन्य कारीगर मालतीबेन कहती हैं कि “दोपहर में, माला (मनके हार) बनाने वाली हमारे आस-पड़ोस की महिलाएं कभी-कभी काम करने के लिए सामुदायिक मंदिर या छायादार सड़कों के नीचे बैठती हैं। लेकिन हम ऐसा नहीं कर सकते हैं क्योंकि हमारे लिए टुकड़ों को एक जगह से दूसरी जगह ले जाना आसान नहीं है। पत्थर चिपकाने के बाद कपड़े को सीधा रखकर सुखाने की ज़रूरत होती है।”

इलाके की दूसरी महिलाएं माला-बनाने, दर्ज़ी का काम करने और चम्मचों की पैकेजिंग जैसे काम करती हैं। पत्थर चिपकाने के काम से कम पैसे मिलने के बावजूद रुक्मिणीबेन माला बनाने का ही काम करती हैं। उनका कहना है कि “पत्थर चिपकाने का काम हर कोई नहीं कर सकता है। मैं कपड़े कहां सूखने के लिए डालूंगी? मेरे घर में बैठने और काम करने की जगह नहीं है।”

अनुज बहल एक अर्बन रिसर्चर और व्यवसायी हैं।

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भारत के भूमि क़ानून महिलाओं को भूमि अधिकार दिला पाने में सक्षम क्यों नहीं हैं?

दुनियाभर के देशों से तुलना करें तो भारत की महिलाएं सामाजिक और आर्थिक रूप से सबसे अधिक पिछड़ी हुई हैं। पिछले दिनों वैश्विक महामारी के कारण उनकी स्थिति पहले से बदतर ही हुई है। इसका पता इस बात से चलता है कि दुनियाभर में महिलाओं की भागीदारी और सुरक्षा को मापने वाले महिला शांति एवं सुरक्षा सूचकांक (वीमेन पीस एंड सेक्युरिटी इंडेक्स) में भारत 2019 के अपने 133वें स्थान से फिसलकर 2021 में 148वें पर पहुंच गया है। भारत में महिलाओं के ज़मीन पर मालिकाना हक़ को लेकर उपलब्ध मौजूदा आंकड़ा व्यापक नहीं है। लेकिन फिर भी यह एक निराशाजनक तस्वीर पेश करता है। आर्थिक रूप से सक्रिय महिलाओं में 80 फ़ीसद महिलाएं कृषि के क्षेत्र में काम करती हैं लेकिन उनमें से केवल 13 फ़ीसद महिलाओं के पास ही खेती की ज़मीन का मालिकाना हक़ है।

महिला सशक्तिकरण के साधन के रूप में भूमि अधिकारों का महत्व स्पष्ट है, क्योंकि यह महिलाओं को वित्तीय सुरक्षा, आश्रय, आय और आजीविका के अवसर प्रदान करता है। लेकिन भारत में भूमि से संबंधित मौजूदा कानूनी ढांचा महिलाओं के भूमि अधिकारों को कितनी गम्भीरता से लेता है? और वे कौन सी समस्याएं हैं जिन पर बात करने की आवश्यकता है? इन सवालों के जवाब जानने के लिए सेंटर फ़ॉर सोशल जस्टिस और वर्किंग ग्रुप फ़ॉर वीमेन एंड लैंड ओनरशिप के अनुभवों के आधार पर इस लेख में तीन प्रकार के भूमि क़ानूनों और महिलाओं के भूमि अधिकारों पर पड़ने वाले उसके प्रभाव पर प्रकाश डालने का प्रयास किया गया है।

राज्य में निहित भूमिवितरण का विनियमन

भूमि अधिग्रहण (उचित पुनर्वास और पुनर्स्थापन का अधिकार) अधिनियम, 2013, (एलएआरआर) और वन अधिकार अधिनियम, 2006, (एफआरए) इस क्षेत्र में दो अभिन्न कानून हैं। एलएआरआर में नागरिकों से किए जाने वाले भूमि अधिग्रहण शामिल होते हैं वहीं एफआरए के तहत उन्हें भूमि के अधिकार प्रदान किए जाते हैं।

एलएआरआर ने भूमि अधिग्रहण अधिनियम 1984 को निरस्त कर दिया जिसका वर्णन एक क्रूर कानून के रूप में किया जाता रहा है क्योंकि इसके तहत विकास के नाम पर किसानों के साथ बहुत अन्याय किया गया। इसकी बजाय एलएआरआर क़ानून ने कई प्रगतिशील प्रावधान पेश किए, जैसे कि प्रभावित होने वाले परिवारों से सहमति प्राप्त करने की अनिवार्यता और मुआवजे की ऊंची दर वगैरह।

एफआरए वन में रहने वाले आदिवासी समुदायों के हित के लिए बनाया गया क़ानून है। यह जंगल की भूमि तथा संसाधनों पर इन समुदायों के अधिकार की बात करता है जिन पर लोग अपनी आजीविका, आवास और अन्य सामाजिक-सांस्कृतिक ज़रूरतों के लिए निर्भर होते हैं। संसाधनों से भरपूर जंगलों का दोहन करने का प्रयास करने वाले उन पक्षों ने ऐतिहासिक रूप से इन समुदायों का शोषण किया है जिन पर ये भरोसा करते थे। इसलिए, एफआरए को इनकी सुरक्षा को सुनिश्चित करने के लिए डिज़ाइन किया गया है।

ये क़ानून कई तरह से महिलाओं के भूमि अधिकारों को बढ़ावा देते हैं।

1. भूमि अधिग्रहण (उचित पुनर्वास और पुनर्स्थापन का अधिकार) अधिनियम, 2013:

2. वन अधिकार अधिनियम, 2006:

नदी के किनारे चलती महिला किसान-ज़मीन अधिकार
दुनिया भर में भारत की महिलाएं सामाजिक एवं आर्थिक रूप से सबसे अधिक पिछड़ी हुई हैं। | चित्र साभार: एडम कोहन / सीसी बीवाय

निजी भूमि के हस्तांतरण के नियम

धार्मिक स्वतंत्रता को बनाए रखने के लिए भारत की मौजूदा प्रणाली के तहत देश के विभिन्न धार्मिक समुदायों पर विभिन्न प्रकार के विरासत कानून लागू होते हैं। भारत की ज्यादातर महिलाएं हिंदुओं, सिखों, बौद्धों और जैनियों को नियंत्रित करने वाले हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956, (एचएसए) के दायरे में आती हैं।

2005 में एचएसए में हुए संशोधन से पहले, पैतृक सम्पत्ति पर केवल बेटों का ही अधिकार था। इस संशोधन में कहा गया है कि विवाहित और अविवाहित बेटियों को भी परिवार की पैतृक संपत्ति में बराबर का हिस्सा मिलना चाहिए। इसके अतिरिक्त, इसने उस प्रावधान को भी ख़ारिज कर दिया जिसके तहत यदि पुरुष उत्तराधिकारी अपने हिस्से के विभाजन का फ़ैसला लेता है तो केवल अनुमति प्राप्त महिला उत्तराधिकारी को ही विभाजन पर अपने हक़ के दावे का अधिकार होता था। इस संसोधन से पहले, कृषि भूमि का हस्तांतरण बहुत ही पुराने और अत्यधिक भेदभाव वाले राज्यवार कार्यकाल क़ानूनों (टेन्योरियल लॉ) द्वारा संचालित होता था। इस संशोधन ने स्पष्ट रूप से कृषि भूमि को एचएसए के दायरे में भी लाया।

ये क़ानून कहां कम पड़ जाते हैं

1. समावेशी लेकिन पर्याप्त नहीं

हालांकि एलएआरआर उन लोगों के अधिकारों को मान्यता देता है जो पुनर्वास के लिए ज़मीन पर ही निर्भर होते हैं लेकिन उनके पास ज़मीन नहीं होती है। इस क़ानून के अनुसार, इलाक़े की ज़मीन पर मालिकाना हक़ रखने वाले 70–80 फ़ीसद परिवारों को अधिग्रहण के लिए सहमति देनी होगी। इस तरह ग़ैर-भूमि वाले परिवारों की महिलाओं को बड़े पैमाने पर पुनर्वासित तो किया जाता है लेकिन इसके लिए उनसे सहमति नहीं ली जाती है। ज़मीन पर मालिकाना हक़ रखने वाले परिवारों को मुआवजे, पुनर्वास और स्थान-परिवर्तन का अधिकार होता है। लेकिन भूमिहीन परिवार मुआवजे एवं पुनर्वास, दोनों के अधिकार से वंचित रहते हैं। मामूली रक़म, साल भर के अनुदान और आवास इकाई आदि वाले पुनर्वास पैकेज के अंतर्गत भी इन परिवारों को कोई अधिकार नहीं मिलता है।

एलएएआर एकल महिलाओं के अधिकारों को, पात्रता की एक अलग इकाई के रूप में मान्यता देता है। लेकिन जिस तरह से यह अधिनियम ज़मीन पर मालिकाना हक़ रखने वाले और भूमिहीन परिवारों के बीच अंतर करता है, उससे भ्रामक स्थिति उत्पन्न होती है। अधिनियम “किसी भी लिंग के वयस्क, फिर चाहे वह जीवनसाथी या बच्चों या आश्रितों के साथ हो या उनके बगैर,” को एक अलग परिवार मानता है। इसलिए, एक ज़मींदार परिवार में, अविवाहित वयस्क बेटी को एक अलग ग़ैर-ज़मींदार परिवार के रूप में देखा जा सकता है। इसके चलते, उसके माता-पिता को एक ज़मींदार होने के नाते मिलने वाले सभी अधिकारों से वह वंचित हो जाएगी।

2. समुदायों के रहने के तरीके को बदलना

अपने काम के दौरान, हमने देखा है कि बड़े पैमाने पर सामूहिकता पर ज़ोर देने वाले इलाकों में लोगों के वन अधिकारों को मान्यता दिए जाने से एक-एक व्यक्ति को महत्व देने वाला नजरिया बनने लगा है। एक समूह के रूप में काम करने से इन समुदायों की महिलाओं को बड़े पैमाने पर सामाजिक सुरक्षा मिलती है। इसलिए व्यक्ति केंद्रित सोच का उन पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। सीमाओं के तय होने के कारण, भूमि आधारित प्राकृतिक संसाधनों तक उनकी पहुंच और उन पर नियंत्रण भी सवालों के घेरे में आ गया है। इससे परंपरागत रूप से, संसाधनों को साझा करने वाले समुदायों के बीच टकराव और तनाव की स्थिति पैदा हुई है। लॉकडाउन के दौरान, हमने गुजरात के डांग ज़िले के एक गांव का दौरा किया था जिसके पास एक ऐसा जलस्रोत था जिसका इस्तेमाल आसपास के सभी गांव करते थे। चूंकि लॉकडाउन के दौरान स्थानीय लोगों को अपने गांव की सीमाओं को पार नहीं करने का निर्देश दिया गया था। इसलिए, पीढ़ियों से इस पानी का उपयोग कर रहे लोगों से कहा गया कि वे अब अपनी ज़रूरतों को पूरा करने के लिए कहीं और जाकर पानी खोजें।

कार्यान्वयन में आने वाली चुनौतियां

हालांकि वर्तमान में जिस तरह से कानून बनाए गए हैं, उसमें महिलाओं के लिए कई तरह की सुरक्षा मौजूद है। लेकिन इन्हें जिस तरह से लागू किया जाता है, उसमें आने वाली कठिनाइयों के कारण महिलाओं को भूमि अधिकारों का लाभ नहीं मिल पाता है।

1. सामाजिक दबाव

एचएसए द्वारा संचालित ग्रामीण महिलाओं से हमारी बातचीत के अनुभव के आधार पर हमने पाया कि अधिकांश महिलाओं को इस अधिनियम के तहत पैतृक सम्पत्ति में बेटियों के अधिकार जैसे क़ानूनों की जानकारी है। लेकिन खुद पर पड़ने वाले सामाजिक दबाव के कारण ये महिलाएं अपने अधिकार नहीं मांग पाती हैं। उदाहरण के लिए, महिलाओं को इस बात का डर लगता है कि अपना हक़ मांगने से परिवार के भीतर वैमनस्य की भावना पैदा हो सकती है। या फिर उनसे यह कहा जा सकता है कि उन्हें अपने हक़ की बात भूल जानी चाहिए क्योंकि उनकी शादी के लिए दहेज दिया गया था। महिला समूहों की बड़ी उपस्थिति वाले क्षेत्रों में महिलाओं के लिए परिस्थितियां अपेक्षाकृत अधिक अनुकूल हैं क्योंकि इन समूहों ने प्रचलित पितृसत्तात्मक मानसिकता को बदलने के प्रयास किए हैं। लेकिन ऐसी महिलाओं की संख्या बहुत कम है और वे उनका एक हिस्सा भर हैं जिन्हें बेहतर संरचनात्मक समर्थन की आवश्यकता है।

2. विचाराधीन मुद्दे

एलएआरआर में कहा गया है कि मुआवजे की ज़मीन पति और पत्नी के नाम पर संयुक्त रूप से आवंटित किया जा सकता है। हालांकि, प्रावधान की भाषा में “सकता है” का प्रयोग विचार के लिए पर्याप्त जगह छोड़ता है और यह स्पष्ट नहीं करता है कि भूमि के दस्तावेजों में पत्नी का नाम दर्ज किया जाएगा। नतीजतन, ऐसा संभव है कि उस भूमि को पूरी तरह से केवल पति के नाम पर ही आवंटित किया जाए।

भारत की अनुसूचित जनजातियां, अपने जनजातीय प्रथा कानूनों को मानती हैं। ये क़ानून इन जनजातियों की महिलाओं के जीवन की वास्तविकताओं के प्रति अधिक संवेदनशील होते हैं। उदाहरण के लिए, हमने दक्षिण गुजरात में जिस आदिवासी समुदाय के साथ काम किया था, उसमें दो विवाह करने की अनुमति है। जनजातीय प्रथा का विरासत क़ानून है, पति की सम्पत्ति में उसकी दूसरी पत्नी को भी बराबर के अधिकार देता है। दूसरी पत्नी को दिए जाने वाले अधिकार को इस बहुविवाह प्रथा के आधार पर मान्यता प्राप्त है जिस पर किसी और स्थिति में विचार भी नहीं किया जाएगा। हालांकि, हमारे अनुभव इस ओर संकेत करते हैं कि कभी-कभी इन समुदायों की प्रथाओं के प्रति संवेदनशील और ज़मीन स्तर पर काम करने वाले अधिकारी ही, अक्सर इन पर एचएसए लागू करने का प्रयास करते हैं। नतीजतन, वे दूसरी पत्नी का नाम दर्ज करने से मना कर देते हैं और उसे उसके अधिकारों से वंचित कर देते हैं।

3. राज्यविशिष्ट कृषि कानून बनाम एचएसए संशोधन

एचएसए संशोधन ने कृषि भूमि को अपने दायरे में लाने का काम किया है। लेकिन राज्य-विशिष्ट कृषि कानूनों और इसके बीच तनाव की स्थिति है क्योंकि संविधान की सातवीं अनुसूची संकेत करती है कि कृषि पर कानून बनाने का अधिकार केवल राज्यों के पास ही है। हालांकि केंद्र उत्तराधिकार पर कानून बना सकता है लेकिन अब भी कृषि भूमि के उत्तराधिकार से जुड़े कानून को लेकर विवाद चल रहा है।

परिणामस्वरूप, कृषि भूमि के उत्तराधिकार से संबंधित मामलों पर उच्च न्यायालय एवं सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय परस्पर विरोधी रहे हैं। जहां एक ओर इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने कहा कि एचएसए को राज्य के कानून द्वारा हटा दिया जाएगा, वहीं दिल्ली उच्च न्यायालय और हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय का मानना है कि राज्य के कानून को एचएसए द्वारा रद्द कर दिया जाएगा। दूसरी तरफ, सुप्रीम कोर्ट का कहना था कि संशोधन के मुताबिक कृषि भूमि एचएसए के अंतर्गत आएगी, लेकिन कोर्ट ने अधिनियम और अल्पकालिक कानूनों के बीच संवैधानिक संघर्ष पर किसी तरह की टिप्पणी नहीं की। इस स्थिति में इस मुद्दे की क़ानूनी स्थिति अब भी अनिश्चित है और कृषि संपत्ति अभी भी महिलाओं के प्रति भेदभावपूर्ण पुरातन काश्तकारी कानूनों के अनुसार हस्तांतरित की जा रही है। इस प्रकार राज्य-विशिष्ट कानूनों पर एचएसए की शक्ति की पहचान एक विधायी और न्यायिक प्राथमिकता होनी चाहिए।

कमियों को किस प्रकार दूर किया जा सकता है?

1. प्रशिक्षण और संवेदीकरण

महिलाओं के भूमि अधिकार, अक्सर भूमि कानूनों को लागू करने वाले निकायों की प्राथमिकता सूची में शामिल नहीं होते हैं। उदाहरण के लिए, ग्रामीण विकास के लिए राष्ट्रीय और राज्य संस्थानों के क्षमता निर्माण कार्यक्रमों का मार्गदर्शन करने वाली ग्रामीण विकास और पंचायती राज के लिए 2015 की राष्ट्रीय प्रशिक्षण नीति में महिलाओं के भूमि अधिकारों को शामिल नहीं किया गया है। ये विभाग ग्राम-स्तर के सरकारी अधिकारियों और भूमि राजस्व मामलों के प्रभारी के प्रशिक्षण के लिए जिम्मेदार हैं। ऐसी स्थिति में उनके प्रशिक्षण कार्यक्रमों में महिलाओं के भूमि अधिकारों को शामिल नहीं करने से यह बात तय होगी कि महिलाएं अपना अधिकार पाने में सक्षम होगीं या नहीं।

अधिकारियों को महिलाओं के भूमि अधिकारों के उद्देश्य के प्रति अधिक संवेदनशील होने की भी आवश्यकता है। न्यायिक अधिकारियों को प्रशिक्षित करने वाली संस्था, राष्ट्रीय न्यायिक अकादमी की समीक्षा से पता चलता है कि हालांकि इसने 2018 से 2021 तक सात लिंग संवेदीकरण प्रशिक्षण सत्र और 130 कार्यशालाएं आयोजित की हैं। लेकिन इनमें से किसी में भी महिलाओं के भूमि अधिकारों से जुड़े विषयों को शामिल नहीं किया गया है।1

कानूनी सेवा प्राधिकरण (एलएसए) पिछड़े तबकों को कानूनी सहायता और प्रशिक्षण प्रदान करते हैं। लेकिन उनके प्रशिक्षण निर्देशपुस्तिका (मैनुअल) में संपत्ति के अधिकारों वाले हिस्से में महिलाओं के भूमि अधिकारों का ज़िक्र भर शामिल किया गया है। इस प्रकार, इस मुद्दे पर उन लोगों को शिक्षित करने की आवश्यकता है जिनका काम यह सुनिश्चित करना है कि महिलाओं को उनका अधिकार मिले।

2. आंकड़े एवं लक्षित कार्यक्रम

भारत में महिलाओं की भूमिहीनता की सटीक सीमा निर्धारित करने के लिए महिलाओं के भूमि स्वामित्व पर लिंग संबंधी अलग-अलग डेटा की कमी इस मार्ग में आने वाली एक महत्वपूर्ण बाधा है। हालांकि नीति आयोग भूमि रिकॉर्ड के डिजिटलीकरण पर काम कर रहा है, लेकिन भूमि के स्वामित्व पर लिंग संबंधी अलग डेटा एकत्र करने का कोई उल्लेख नहीं है। महिलाओं की भूमिहीनता की असल स्थिति का पता लगाना महिलाओं की भूमि के स्वामित्व की समस्या को दूर करने का पहला कदम है। इस क्रम में सटीक डेटा एकत्र करने के प्रयासों की कमी उद्देश्य के प्रति प्रतिबद्धता की कमी को दर्शाती है।

सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय द्वारा विकसित राष्ट्रीय संकेतक ढांचे में भूमि स्वामित्व पर लिंग संबंधी अलग-अलग डेटा को शामिल करने से राज्यों को इस अंतर को दूर करने की दिशा में काम करने के लिए बाध्य होना पड़ेगा। विशेष रूप से, ऐसा चाहने वाले जिलों के लिए लिंग संबंधी अलग-अलग डेटा के प्रावधान के साथ तय उद्देश्य और निरंतर निगरानी से, देश के कुछ सबसे अविकसित क्षेत्रों में महिलाओं की भूमिहीनता के मुद्दे को लेकर जाएगा।

गुजरात में, हम भूमि अभिलेखों को अपडेट करने वाले एक सरकारी कार्यक्रम के साथ जुड़े और अपडेट किए जा रहे सभी भूमि दस्तावेज़ों में महिलाओं के नाम शामिल करने की वकालत की। यदि एलएसए महिलाओं के भूमि अधिकारों को समान रूप से प्राथमिकता देते हैं और इस काम में महत्वपूर्ण संसाधनों को पूरी तरह से लगाते हैं, तो ऐसी स्थिति में वे अधिक प्रभावी ढंग से सहयोग करने में सक्षम होंगे।

अनाहिता सूर्या, आदित्य गुजराती, गाथा नंबूदरी, तन्वी सिंह और नूपुर सिन्हा ने इस आलेख को तैयार करने में अपना योगदान दिया है।

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फुटनोट:

  1. रीना पटेल, ‘जेंडर एंड लैंड राइट्स इन चेंज़िंग ग्लोबल कॉनटेक्स्ट्स’, 2022

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मुख्यधारा के मीडिया से भारत के आदिवासी समुदाय गायब हैं

मेरा जन्म पश्चिम बंगाल के झारग्राम ज़िले के बेलपहाड़ी नाम के गांव में हुआ था। मैं संथाल समुदाय से आती हूं जो झारखंड, ओड़िशा और पश्चिम बंगाल में बसने वाली एक खानाबदोश जनजाति है।

मैं चार साल की उम्र तक अपने माता-पिता और भाई-बहनों के साथ बेलपहाड़ी में रहती थी। उसके बाद मुझे और मेरी बहन को कोलकाता हमारे रिश्तेदारों के पास रहने के लिए भेज दिया गया था ताकि हम अपनी पढ़ाई-लिखाई कर सकें।

कोलकाता जाकर रहना मेरे लिए आसान नहीं था। कोलकाता शहर ने मुझे आराम और अवसर तो दिए थे लेकिन मुझे अपने माता-पिता और अपने समुदाय के लोगों की याद आती थी। भाषा भी एक चुनौती थी। संथाली मेरी पहली भाषा थी और हम घर पर इसी भाषा में बातचीत करते थे। लेकिन स्कूल जाने और पढ़ाई करने के लिए मुझे बंगाली सीखनी पड़ी।

इन्हीं दिनों मुझे रेडियो के बारे में पता चला। हर शाम, मैं ‘संताली अखरा’ नाम से आने वाला एक कार्यक्रम सुनती थी जिसमें संथाली भाषा के गीत और बातचीत आधारित कार्यक्रम आते थे। खेलते हुए मैं अपनी बहन के लिए न्यूज़रीडर और रेडियो जॉकी (आरजे) का रोल-प्ले करती थी। रेडियो जल्द ही मेरे लिए अपने समुदाय से जुड़े रहने का एक साधन बन गया। साथ ही, इसने कोलकाता में मेरे बड़े होने के दौरान महसूस किए गए अकेलेपन की भावना को दूर करने में भी मेरी मदद की।

बहुत लम्बे समय तक हमारे पास मनोरंजन के साधन के रूप में केवल रेडियो ही था। हालांकि बाद में हमारे घर में टेलिविज़न आ गया लेकिन रेडियो के प्रति मेरी दीवानगी में कमी नहीं आई। मुझे यह सोच कर रोमांच होता था कि कैसे आरजे अपना चेहरे दिखाए बिना ही इतने सारे लोगों से जुड़ जाते हैं। मैं सोचती थी कि मैं भी किसी दिन ऐसा ही कुछ करुंगी।

रेडियो तक का सफ़र

स्कूली शिक्षा पूरी करने के बाद मैंने अपने माता-पिता को इस बात के लिए राज़ी करने का प्रयास किया कि मैं मास कम्यूनिकेशन की पढ़ाई करने के बाद आरजे बनूं। लेकिन वे शुरू से ही इसके ख़िलाफ़ थे। वे चाहते थे कि मैं किसी ऐसे पेशे में जाऊं जिससे मुझे आर्थिक सुरक्षा मिले। लेकिन इससे मैंने सपने देखना नहीं छोड़ा। 

मैं एक शिपबिल्डिंग और इंजीनियरिंग कम्पनी में एप्रेंटिस पद की परीक्षा की तैयारी कर रही थी। तभी मेरी नज़र एक फ़ेसबुक पोस्ट पर गई जिसमें बताया गया था कि झारग्राम में रेडियो मिलन नाम से एक नए सामुदायिक रेडियो (कम्यूनिटी रेडियो) चैनल की शुरुआत हो रही है। इस पोस्ट में यह भी जानकारी दी गई थी कि उन्हें संथाली भाषा का आरजे भी चाहिए। उस समय मुझे इस बारे में ज़रा भी मालूम नहीं था कि इस नौकरी के मिलने का अर्थ था भारत की पहली संथाली आरजे होना। इस बात का महत्व मुझे तब समझ में आया जब मैंने एक लेख पढ़ा जिसमें मीडिया में विभिन्न भाषाओं और समुदायों के प्रतिनिधित्व के संदर्भ में मेरा ज़िक्र किया गया था।

मैंने सबसे पहले जिस कार्यक्रम का संचालन किया था उसका नाम ‘जोहार झारग्राम’ (नमस्ते झारग्राम) था। यह संथाली संस्कृति और प्रथाओं का उत्सव मनाने वाला कार्यक्रम था। इसमें समुदाय की वास्तविकता के विभिन्न पहलुओं जैसे उनके सपने, उनकी चुनौतियों आदि पर चर्चा होती थी। यह एक ऐसा मंच था जहां समुदाय के लोग भले ही भौतिक रूप से एक साथ न हों लेकिन यहां एक साथ आकर अपनी बातें और विचार साझा करते थे।

हालांकि यह एक आसान यात्रा नहीं थी। मैं कई सालों तक अपने गांव से दूर रही थी और वास्तविक रूप से संथाली जीवनशैली, भाषा या परम्परा से जुड़ी नहीं रह गई थी। उदाहरण के लिए हमारे कार्यक्रम के प्रसारण के बाद मुझे अपने ग़लत उच्चारण आदि से जुड़ी शिकायतें मिली थीं। मैं संथाली के लिए इस्तेमाल की जाने वाली ओल चिकी लिपि में मिलने वाले संदेश भी नहीं पढ़ पा रही थी। हालांकि शुरुआत में ये मेरे लिए हैरानी वाली बात थी लेकिन मैंने इसे खुद पर हावी नहीं होने दिया। मैंने अपना सारा ख़ाली समय मेरे अपने समुदाय संथाली जनजाति से जुड़ी चीजों के बारे में जानने में लगाया। इसके लिए मैंने विभिन्न स्त्रोतों का सहारा लिया। पढ़ने की बात की जाए तो उस के लिए बहुत स्त्रोत उपलब्ध नहीं थे लेकिन मैंने जनजाति के इतिहास के बारे में ज़्यादा से ज़्यादा पढ़ने की कोशिश की। हालांकि किताबों की बजाय अपने गांव में लोगों से बातचीत करने से मुझे ज़्यादा फायदा हुआ। मैंने अपने पड़ोसियों और गांव के अन्य लोगों से उनके जीवन के अनुभवों, उनकी उम्मीदों और सपनों के बारे में बातचीत की। मैं घंटों गांव के बाजार में बैठ कर लोगों को एक दूसरे से बातचीत करते सुनती थी। मैं अपने साथ अपना नोटबुक लेकर जाती और छोटी-छोटी बातों को लिखा करती थी। घर में मैं सक्रियता से भी रीति-रिवाजों और पर्व-त्योहारों जैसे कि बहा पोरोब आदि में भाग लेती थी जिसमें बसंत में खेती का नया साल शुरू होने के उपलक्ष्य में हम लोग बोंगों (संथाली धर्म में आध्यात्मिक प्राणियों/गुरुओं) को फूल चढ़ाते हैं और फसलों की सुरक्षा के लिए उनका आशीर्वाद मांगते हैं। मैंने सोहराई नाम के हमारे फसल उत्सव के बारे में भी जाना जो दीवाली के आसपास मनाया जाता है। इस पर्व में महिलाएं अपने घरों को भित्ति चित्रों से सजाती हैं और हम अपने मवेशियों की पूजा करते हैं। 

रीति-रिवाज, संस्कृति, और लोगों की भागीदारी और एक दूसरे के साथ बातचीत आदि ऐसी चीजें हैं जिनके प्रत्यक्ष अनुभव के बिना सीखना मेरे लिए असम्भव था। इससे इस मंच का उपयोग करने के मेरे संकल्प को मजबूती मिली और मेरा यह निश्च्य दृढ़ हुआ कि मुझे संथाली समुदाय से जुड़ना था और उनकी कहानियों और उनकी सच्चाई को ईमानदार और प्रामाणिक तरीके से दुनिया के सामने लाना था।

शिखा मंडी-मीडिया आदिवासी
रेडियो जल्द ही मेरे लिए अपने समुदाय से जुड़े रहने का एक साधन बन गया। | चित्र साभार: शिखा मंडी

समर्थन तथा जागरूकता के लिए रेडियो

‘जोहार झारग्राम’ के अपने इस कार्यक्रम में मैं अक्सर अतिथियों को आमंत्रित करती थी जो अपने समुदाय की जमीनी सच्चाइयों और उनके जीवन की समस्याओं पर प्रकाश डालते थे और उन पर बात करते थे। हमारे श्रोता भी हमें फ़ोन करते थे और कार्यक्रम में ही अपनी समस्याओं के बारे में हमें बताते थे। 

मुझे यह आज़ादी मिली हुई थी कि मैं अपने कार्यक्रम की पटकथा को अपने श्रोताओं के साथ की जाने वाली बातचीत और मेरी अपनी समझ तथा अनुभवों के आधार पर इस प्रकार तैयार करूं जिससे वे जुड़ाव महसूस कर सकें। मुझे अपने जिस प्रसारण को लेकर गर्व है और जो बहुत अधिक सफल भी रहा था, उसमें ‘इंतज़ार करने’ के आसपास बातचीत शामिल थी। मुझे यह विचार आया कि इंतज़ार की भावना सार्वभौमिक विषय है जिससे प्रत्येक व्यक्ति खुद को जोड़ता है क्योंकि हम सभी हमेशा ही किसी न किसी चीज के होने का इंतज़ार करते ही रहते हैं। यह बचपन से ही शुरू हो जाता है – पहले हम बड़े होने का इंतज़ार करते हैं, उसके बाद पढ़ाई पूरी होने और जीवन के बनने का इंतज़ार करते हैं। हम हमेशा ही इस बात का इंतज़ार करते हैं कि चीजें हमारे साथ या हमारे लिए घटित हों।

मेरा एक और पसंदीदा प्रसारण महिला दिवस पर हुआ कार्यक्रम था। मैंने इस विशेष कार्यक्रम को करने का फ़ैसला किया था क्योंकि मुझे लगा कि इस दिन को लेकर मच रहा शोर केवल एक दिखावा है और इसका कोई सार नहीं है। हालांकि सभी इस दिन को मनाते हैं लेकिन वास्तविकता में महिलाओं के लिए कुछ भी नहीं बदलता है। उदाहरण के लिए, मेरे इलाके में, महिलाओं को खासतौर पर शराब की बिक्री में लगाया जाता है। इस प्रसारण के माध्यम से, मेरा प्रयास ऐसी कई चीजों और ऐसे असंख्य अवसरों को लेकर जागरूकता फैलाना था जिनसे वे अब तक अनजान थीं। इसका उद्देश्य उन्हें विकल्पों की जानकारी देना था, और यह बताना था कि कैसे वे आमदनी के अपने स्रोत बनाने के लिए तमाम और तरह के काम कर सकती हैं।

इन बातचीतों पर आने वाली प्रतिक्रियाओं ने मुझे महसूस कराया कि मैंने हमारे समुदाय के लिए कुछ महत्वपूर्ण करने का प्रयास किया है। रेडियो के माध्यम से, एक बिना चेहरे की आवाज के रूप में, मैं बड़े पैमाने पर समुदाय से जुड़ने में सक्षम थी। यह कुछ ऐसा था जिसकी मैंने कभी कल्पना भी नहीं की थी। उनकी प्रतिक्रियाओं ने मुझे एहसास कराया कि मेरे इन कार्यक्रमों में अनगिनत लोग शामिल हो रहे थे। उन्होंने यह साबित किया कि मीडिया में विभिन्न आवाजों, संस्कृतियों और अनुभवों का कितना प्रभावशाली प्रतिनिधित्व हो सकता है। 

रेडियो मिलन में आरजे के रूप में काम करने के लगभग तीन साल बाद, मैंने 2020 में आगे बढ़ने का फैसला किया। मैं इस बात को लेकर स्पष्ट नहीं थी कि मैं आगे क्या करना चाहती हूं इसलिए मैंने अपने माता-पिता के साथ गांव में रहने का फ़ैसला किया। यह कोविड-19 महामारी वाला समय था और देश भर में अनिश्चिता और डर का माहौल था। हालांकि मेरे गांव में लोगों ने इस महामारी को स्वीकार करने से मना कर दिया था। उनका मानना था कि वे स्वस्थ थे और उनके अनुसार यह ‘शहरी बीमारी’ थी जिसका असर उन पर नहीं हो सकता था क्योंकि वे शहर से कटे हुए लोग हैं। खबरों के लिए एक विश्वसनीय स्रोत की अनुपस्थिति का मतलब था कि लोग कही-सुनी बातों पर भरोसा कर रहे थे। कई लोगों ने तो टीका लगवाने से भी मना कर दिया। मैंने कोविड-19 के बारे में फैलाई जा रही किसी भी गलत सूचना को ख़ारिज करने की कोशिश की और अपने आसपास के लोगों को टीका लगवाने के लिए मनाया। इस अनुभव ने मुझे सामुदायिक रेडियो के निर्माण के महत्व का एहसास कराया। यह जानकारी का ऐसा स्त्रोत था जिस पर समुदाय के सदस्य भरोसा करते थे और सुनते थे, और जो इस तरह की महत्वपूर्ण स्थितियों में ग़लत सूचनाओं की कड़ी को तोड़ सकता था।

भविष्य की आशा

मैं अब झारखंड के दुमका जिले में यहां के समुदायों में आज भी प्रचलित बाल विवाह सहित विभिन्न सामाजिक मुद्दों के बारे में जागरूकता फैलाने के लिए अपना ऑनलाइन रेडियो शुरू करने के लिए काम कर रही हूं। लेकिन इस चैनल के केंद्र में केवल संथाल जनजाति नहीं होगी। मैं अन्य जनजातीय समुदायों को भी शामिल करना चाहती हूं। कई लोग ‘आदिवासी’ शब्द का ग़लत अर्थ निकालते हैं। हमें अक्सर ही एक शब्दावली के अंदर इस प्रकार से समाहित कर दिया जाता है जैसे कि हम लोगों का एक सजातीय समूह हों। मेरा लक्ष्य इस धारणा को तोड़ना है। झारखंड और पश्चिम बंगाल में 30 से अधिक जनजातियां हैं और मीडिया के किसी भी तबके में इनका प्रतिनिधित्व शून्य है। मैं ऐसे सभी समुदायों को आमंत्रित करना चाहती हूं और उन्हें अपनी समस्याओं के बारे में बात करने का अवसर देना चाहती हूं। ऑडियो माध्यमों के अलावा, मैं विभिन्न संथाली परंपराओं जैसे धनुष और तीर के उपयोग आदि पर एक डॉक्यूमेंट्री बना रही हूं जिनका संथाली जनजाति के लिए सांस्कृतिक महत्व है। इस डॉक्यूमेंट्री में हम धनुष और बाण के उपयोग वाली परम्पराओं और उनके कारणों, उनकी ऐतिहासिक प्रासंगिकता और उनके निर्माण आदि जैसे तत्व शामिल कर रहे हैं। वे व्यक्ति के जन्म और मृत्यु के दौरान भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। उदाहरण के लिए, जन्म के समय बच्चे की नाभि को तीर से काट दिया जाता है। हालांकि, युवा पीढ़ी इस तरह की प्रथाओं से परिचित नहीं है। हमारे समुदाय लगातार अपनी जड़ों से कट रहे हैं। मैं अपने समुदाय की परंपराओं और प्रथाओं को वीडियो और ऑडियो रूप में दर्ज करना चाहती हूं। मैं उन विषयों पर प्रकाश डालने का प्रयास करती हूं जिनकी उपस्थिति अक्सर ही लोकप्रिय मीडिया में शून्य होती है। समुदाय के लोग अभी भी इन परंपराओं के माध्यम से सीख सकते हैं लेकिन मुझे लगता है कि अन्य समुदायों को भी हमारी इन परम्पराओं के बारे में जानना चाहिए। और यह केवल मीडिया के माध्यम से ही सम्भव हो सकता है।

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बैंक महिलाओं के वित्तीय समावेशन को कैसे संभव बना सकते हैं

उत्तर प्रदेश के नयागांव मोहम्मदपुर गांव की फूलबानो ज़री का काम करती हैं। अपने तीन बच्चों के साथ वे गांव में ही रहती हैं। जब से फूलबानो के पति काम की तलाश में दिल्ली गए हैं, तब से पूरे घर की जिम्मेदारी उनके कंधों पर ही आ गई है। वे कहती हैं कि “राजेश नाम के एक बिज़नेस करेसपॉन्डेंट ने मुझे बताया कि मेरे कपड़ों या खाने के डब्बों में छिपाए गए पैसे या तो चोरी हो सकते हैं या फिर खर्च हो सकते हैं। उन्होंने ही मुझे बताया कि इतने कम पैसों को भी बैंक में जमा करवाया जा सकता है। ऐसा करना अधिक सुरक्षित है और लम्बे समय तक बचत करने से भविष्य में मुझे बैंक से कर्ज़ा लेने में आसानी होगी।” फूलबानो की पड़ोसन शरीना बी एक छात्र होने के साथ-साथ अपना घर भी सम्भालती हैं। वे भी औपचारिक बचत के महत्व को समझती हैं। शरीना का कहना है कि “केवल बचत से ही कोई आगे बढ़ सकता है और तरक़्क़ी कर सकता है। अगर मैं बचत करूंगी तो उससे मैं आगे की पढ़ाई कर सकती हूं।”

बचत महिलाओं को जरूरी आर्थिक सुरक्षा और आज़ादी दे सकती है और मुश्किल वक्त में उनकी मदद कर सकती है। हालांकि, भारत में फूलबानो और शरीना जैसी महिलाओं की कहानी आम नहीं है। 2024–25 में 5 ट्रिलियन डॉलर वाली अर्थव्यवस्था बनने का लक्ष्य रखने वाले इस देश को चाहिए कि यह वित्तीय समावेश (फायनेंशियल इन्क्लूजन) के जरिए महिलाओं के आर्थिक सशक्तिकरण में निवेश करे। यदि महिलाएं उपयोगी और किफ़ायती वित्तीय उत्पादों और सेवाओं का लाभ उठा पाएंगी तो उनके सामने पैसे कमाने, सम्पत्ति बनाने और उनके जीवन से जुड़े फ़ैसले लेने के अधिक अवसर उपलब्ध होंगे। इसका सकारात्मक प्रभाव न केवल महिलाओं के जीवन पर पड़ेगा बल्कि उनके समुदाय और अर्थव्यवस्था पर भी होगा। इसके अलावा नियमित औपचारिक बचत से बीमा, पेंशन और क्रेडिट जैसी अन्य वित्तीय सेवाओं का भी लाभ मिलता है जिनसे महिलाओं में किसी बाहरी आपात स्थिति से उबरने की क्षमता विकसित होती है।

पुरुषों की तुलना में महिलाएं डिजिटल लेनदेन को लेकर कम सहज होती हैं।

प्रधानमंत्री जन-धन योजना (पीएमजेडीवाय) जैसी सरकारी पहलों का उद्देश्य पिछड़े समुदायों से आने वाले हर व्यक्ति को बैंकिंग सुविधाएं प्रदान करना है। यह उद्देश्य इस संदर्भ में भारत की विकास यात्रा के लिए महत्वपूर्ण है। विशेष रूप से, पीएमजेडीवाय ने लाखों देशवासियों को बैंक में पैसे जमा करने का अवसर दिया है। 2014 में अपने लॉन्च के बाद से इस योजना के तहत खुलने वाले बैंक खातों की संख्या मार्च 2015 में 14.72 करोड़ और अगस्त 2022 में 46.25 करोड़ हो गई थी।

यह भी गौर करने वाली बात है कि महिलाएं अपने पीएमजेडीवाय खातों का उपयोग बचत के अलावा, सरकारी पहलों से मिलने वाले लाभों के लिए भी सक्रियता से करती हैं। विमेंस वर्ल्ड बैंकिंग में हमारे शोध से इस बात की पुष्टि हुई है कि ग्रामीण तथा निम्न आय वर्ग की महिलाएं ऐसा मानती हैं कि बैंक उनके और उनकी छोटी बचतों के लिए नहीं होते हैं। इसके अलावा, इंक्लूसिव फ़ायनांस इंडिया रिपोर्ट 2022 के अनुसार 12.7 करोड़ वयस्कों ने पहली बार सीधे डिजिटल भुगतान सुविधा का इस्तेमाल कोविड-19 महामारी के दौरान किया था। रिपोर्ट यह भी बताती है कि पुरुषों की तुलना में महिलाएं डिजिटल लेनदेन को लेकर कम सहज होती हैं।

वह क्या है जो महिलाओं को औपचारिक बैंकिंग से दूर रखता है?

बेशक, महिलाएं सहज रूप से बचत करने वाली होती हैं लेकिन सभी महिलाएं बैंकों में औपचारिक रूप से बचत नहीं करती हैं। इसके लिए वे अपने घरों में पैसा रखने जैसे पारंपरिक तरीक़ों पर ही भरोसा करती हैं। बचत करने, खातों को चलाने और क्रेडिट हिस्ट्री या अन्य वित्तीय उत्पादों जैसे माइक्रो-इंश्योरेंस, पेंशन या लघु ऋण आदि के जरिए वित्तीय मामलों से गहराई से जुड़ना महिला ग्राहकों की प्राथमिकता नहीं होती है। इसके कई कारण हैं, सबसे बड़ा तो यह है कि महिलाएं अपनी आमदनी को नगण्य मानती हैं, और इसीलिए उन्हें लगता है कि उनके थोड़े से पैसे बैंकों में जमा करने लायक नहीं हैं। पारम्परिक रूप से भी महिलाओं को आर्थिक फ़ैसले लेने के लिए प्रशिक्षित नहीं किया जाता है और इसलिए स्वायत्ता को लेकर उन्हें संघर्ष करना पड़ता है। इससे अक्सर ही उन्हें बचत के अपने ऐसे तरीके विकसित करने पड़ते हैं जो उन्हें सबकुछ नियंत्रण में होने का एहसास करवा सकें। नतीजतन, महिलाएं बैंक को अपने लिए बचत करने की जगह के रूप में नहीं देखती हैं – विशेष रूप से ‘छोटी सी’ राशि के लिए – क्योंकि यह उन्हें अपरिचित और अपेक्षाकृत अधिक चुनौतीपूर्ण लगता है।

एक बीसी सखी दो अन्य महिलाओं से बात कर रही है_महिला बैंक
वित्तीय समावेशन से परे, बैंकों के लिए महिला ग्राहकों में निवेश करने की एक व्यावसायिक वजह भी है। | चित्र साभार: वीमेन्स वर्ल्ड बैंकिंग

उदाहरण के लिए, हमारे शोध से यह भी पता चला है कि ग्रामीण महिलाओं के अपने नाम से बैंक में खाते हैं लेकिन वे उनका उपयोग नहीं करती हैं। ग्रामीण महिलाओं के पास आमदनी के ऐसे कुछ ही स्त्रोत होते हैं जिन्हें वे अपना कह सकती हैं। अपने परिवार की खेती से जुड़ी गतिविधियों में शामिल होने और काम करने के बावजूद वे खुद को परिवार की आमदनी में योगदान देने वाले के रूप में नहीं देखती हैं। वे घर के आर्थिक तथा वित्तीय फ़ैसलों में भी सक्रियता से भाग नहीं लेती हैं और ना ही अपने पीएमजेडीवाय खातों में आने वाले डायरेक्ट बेनिफ़िट ट्रान्स्फ़र्स (डीबीटी) यानी सीधे आने वाले पैसों का लाभ ही उठा पाती हैं। सीधे शब्दों में कहें तो महिलाओं को बैंकिंग सेवाओं का कोई खास उपयोग या महत्व नहीं दिखाई देता है।

भारत के शहरों की स्थिति थोड़ी अलग है। शहर की महिलाएं काम से होने वाली आमदनी से अपना जीवनयापन करती हैं। साथ ही, वे अपने पीएमजेडीवाय खातों को विभिन्न सरकारी योजनाओं के तहत मिलने वाले लाभों के लिए उपयोग में लाती हैं। लेकिन आमतौर पर शहर की महिलाएं भी इन खातों में बचत के पैसे जमा नहीं करतीं हैं। हमारे शोध में यह बात सामने आई कि शहरी इलाक़ों में निम्न आयवर्ग की महिलाओं को बैंक में पैसे जमा करना सुविधाजनक नहीं लगता है और वे स्थानीय बिज़नेस करेस्पॉन्डेंट के बारे में नहीं जानती हैं। यह उनके व्यवहार और नज़रिए में बदलाव न आने का एक बड़ा कारण है।

बैंकों को महिलाओं में निवेश क्यों करना चाहिए?

वित्तीय समावेशन के अलावा बैंकों के लिए अपनी महिला ग्राहकों में निवेश करने का एक व्यावसायिक कारण भी है। हमारा अनुमान है कि यदि निम्न आयवर्ग की लगभग 10 करोड़ महिलाएं बैंक में बचत के पैसे जमा करवाना शुरू करती हैं तो उस स्थिति में बैंक 2 करोड़ लाभार्थियों को 10,000 करोड़ रुपए का ओवरड्राफ़्ट और जमा में 20,000 करोड़ रुपए के इनफ्लो की स्थिति में आ सकते हैं।

हमने मुंबई, दिल्ली और चेन्नई में महिलाओं को उनके पीएमजेडीवाय खाते के विभिन्न इस्तेमालों के लिए जन धन प्लस प्रोग्राम चलाया। हमने पाया कि जब पुरुष एवं महिलाएं दोनों ही सक्रिय रूप से पीएमजेडीवाय (हर साल कम से कम चार बार खाते में लगभग 500 रुपए जमा करना) खातों का उपयोग करते हैं, तब महिलाओं का औसत बैंक बैलेंस पुरुषों की तुलना में 30 फ़ीसद अधिक होता है और महिला ग्राहक का आजीवन रेवेन्यू भी पुरुष ग्राहक के आजीवन रेवन्यू से 12 फ़ीसद ज़्यादा होता है। ऐसा महिलाओं के खातों में अधिक पैसे होने के कारण होता है। इससे यह और भी जरूरी हो जाता है कि बैंक अपने महिला ग्राहकों को अधिक गम्भीरता से लेना शुरू करें।

महिलाओं के साथ भरोसेमंद बैंकिंग संबंध बनाना

हमें भारत के शहरी, ग्रामीण एवं उपनगरीय इलाकों के सार्वजनिक क्षेत्रों के बैंक के साथ काम करने का अनुभव है। अपने इन अनुभवों के दौरान हमने पाया कि सबसे पहले घरों और सार्वजनिक जगहों पर जाकर महिलाओं से बातचीत करना जरूरी है। ताकि उनके लिए उनसे संबंधित एवं सांस्कृतिक रूप से अनुकूल मार्केटिंग अभियानों के तहत उनमें जागरूकता फैलाई जा सके। यह सबसे मुख्य काम है क्योंकि निम्न आय वाली ज़्यादातर महिलाओं को अपने घरों से बाहर निकलने की अनुमति नहीं होती है लेकिन वे अन्य महिलाओं के साथ समूह बनाकर बाहर जा सकती हैं।

बैंकिंग करेसपॉन्डेंट (बीसी) और बीसी सखी (सामुदायिक स्तर पर महिला बैंकिंग एजेंटों के रूप में काम करने के लिए राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन द्वारा नियुक्त) महिला पीएमजेडीवाय ग्राहकों तक पहुंचने में सबसे अधिक प्रभावी नेटवर्क साबित होते हैं। शहरी इलाक़ों में बीसी के सम्पर्क में रहने वाली 32 फ़ीसद महिलाएं बैंक में बचत के बारे में सोचती हैं, वहीं 18 फ़ीसद महिलाओं ने बचत की अपनी इस आदत को बरकरार रखा है।

हालांकि, बैंक अंतिम व्यक्ति तक बैंकिंग सेवाएं पहुंचाने के लिए बीसी के नेटवर्क विकास में निवेश तो कर रहे हैं। लेकिन फिर भी सभी बैंक करेसपॉन्डेंट्स के पास यह कौशल नहीं होता कि वे सरकार से मिलने वाले लाभों के हस्तांतरण के अलावा ग्रामीण इलाक़ों में महिला पीएमजेडीवाय खाता धारकों को जोड़ सकें। अधिकांश बीसी केवल कैश-इन और कैश-आउट मुहैया करवाने पर ही ध्यान देते रहे। जन सुरक्षा बीमा और पेंशन योजनाओं जैसे अन्य उत्पादों में महिलाओं को निवेश के लिए सक्रियता से प्रोत्साहित करने वाले बीसी भी संख्या में बहुत कम मिले।

बैंकों को बीसी तथा बीसी सखियों की क्षमता को बढ़ाने में निवेश करने की आवश्यकता है।

अच्छे से संवाद करने वाले और संबंधों को महत्व देने वाले बीसी, महिला ग्राहकों के साथ बेहतर सम्पर्क स्थापित करने में सक्षम थे और उन्हें अपने खातों में बचत का पैसा और बीमा या पेंशन जैसी योजनाओं में पैसे के निवेश को बरकरार रखने के लिए प्रोत्साहित कर रहे थे। चाहे यह ग्रामीण इलाक़ों में बीसी केंद्र से संचालित होने वाला बीसी हो या फिर शहरी इलाक़ों में किराना दुकानों से संचालित होने वाले बीसी। महिला ग्राहकों तक लाभ पहुंचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले मुख्य नेटवर्क के साथ भरोसेमंद रिश्ता बनाने की जरूरत है।

शहरी इलाक़ों में बीसी की सफलता दर तीन गुना अधिक है जहां वे निम्न-आयवर्ग की महिला ग्राहकों को अन्य वित्तीय सेवाओं में शामिल कर पाते हैं। बीसी सक्रिय रूप से महिला ग्राहकों को शामिल कर उन्हें बीमा और पेंशन की क्रॉस-सेलिंग करके बेहतर रेवेन्यू और कमीशन प्राप्त कर सकते हैं। इससे क्रेडिट हिस्ट्री बनाने, कर्ज और क्रेडिट प्राप्त करने और बचत को बढ़ावा देने में मदद मिलती है।

इसलिए बैंकों को बीसी तथा बीसी सखियों की क्षमता को बढ़ाने में निवेश करने की आवश्यकता है। इन एजेंटों, विशेष रूप से महिला एजेंटों को व्यापार प्रबंधन और निम्न आय वाले या ग्रामीण महिला ग्राहकों को सेवा देने के लिए लैंगिक संवेदनशीलता (जेंडर सेंसिटिविटी) का प्रशिक्षण दिया जाए। बैंकों और आजीविका मिशनों को बीसी और बीसी सखियों के पर्यवेक्षण का समर्थन करने के लिए निवेश करना चाहिए। साथ ही, उन्हें नेटवर्क को मजबूत करने और अधिक लोगों को बैंकिंग एजेंट बनने के लिए प्रोत्साहित करने के अलावा समय-समय पर उनकी सेवाओं को पहचानने के साथ-साथ उनके काम पर फीडबैक भी देना चाहिए।

महिला केंद्रित डिजाइनों की योग्यता

महिला-केंद्रित डिजाइन का नजरिया महिलाओं की ज़रूरतों को पूरा करने और बैंकों में बचत जमा करने में आने वाली बाधाओं से निपटने पर केंद्रित होता है। बचत करने के लिए एक सहज स्थान के रूप में बैंक का एक मेंटल मॉडल बनाना, महिलाओं के लिए सुलभ और विश्वसनीय चैनलों का उपयोग करके बैंकों में बचत करना आसान बनाना, बचत को सहज और फ़ायदेमंद बनाना, उन्हें औपचारिक रूप से बचत करने की आदत बनाने के लिए प्रेरित करना और याद दिलाते रहना, एक मजबूत महिला-से-महिला बैंकिंग नेटवर्क तैयार करना, और महिलाओं के लिए उपयुक्त और सरल बैंकिंग उत्पाद बनाना निश्चित रूप इस दिशा में लिए जाने वाले सही कदम हैं। डिजिटल तकनीकों का लाभ उठाने से भारत की अर्थव्यवस्था और लिंग-समावेशी वित्त की संभावनाओं को सामने लाया जा सकता है। अंत में, महिला ग्राहकों के व्यवहार में अंतर को समझने के लिए सेक्स-डिसएग्रीगेटेड आंकड़ों पर ध्यान देना सबसे महत्वपूर्ण है। इससे वित्तीय समावेशन को बेहतर करने में वित्तीय संस्थानों तथा नीति-निर्माताओं को मदद मिलेगी।

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राम मंदिर की ईंटों की कीमत पशुपालकों की आजीविका है

2021 में, राजस्थान सरकार ने भरतपुर जिले में बंध बारेठा वन्यजीव अभ्यारण्य (वाइल्डलाइफ सैंक्चुअरी) के कुछ हिस्सों को डिनोटिफाई किया था। इसे लेकर अधिकारियों का कहना था कि अभ्यारण्य के उन हिस्सों (ब्लॉक्स) के वातावरण में गिरावट के कारण यह फैसला लिया गया है।

लेकिन, अब इस क्षेत्र का खनन गुलाबी पत्थरों के लिए किया जा रहा है। ये पत्थर अयोध्या में राम मंदिर के लिए इस्तेमाल हो रहे हैं। अभ्यारण्य में लोगों की ज़मीन चले जाने की भरपाई करने के लिए, आस-पास के जंगली इलाकों, जैसे करौली जिले की मासलपुर तहसील को अभ्यारण्य में ही शामिल कर लिया गया है।

मासलपुर में लगभग 100 गांव हैं, जहां गुर्जर और मीणा जैसे पशुपालक समुदाय रहते हैं। ये समुदाय इन जंगलो का ओरण (पवित्र बाग) की तरह संरक्षण करते रहे हैं। साथ ही, वे अपनी आजीविका के लिए इन जंगलों पर निर्भर हैं।

भरतपुर की स्थिति भी सही नहीं कही जा सकती है। यहां खनन के कारण वनस्पतियों और जीव-जंतुओं की हालत खराब है। दूसरी तरफ, स्थानीय लोगों को बताया जा रहा है कि खान से उन्हें नौकरियां मिलेंगी। लेकिन वे पूछ रहे हैं कि अगर खान के मालिक और श्रमिक बाहर के हैं तो उन्हें नौकरियां कहां से मिलेंगी?

अमन सिंह राजस्थान में जमीनी स्तर पर काम करने वाले एक समाजसेवी संगठन, कृषि एवं पारिस्थितिकी विकास संस्थान (KRAPAVIS) के संस्थापक हैं।

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अधिक जानें: जैसलमेर में बारिश होना अच्छी ख़बर क्यों नहीं है?

अधिक करें: अमन के काम को विस्तार से जानने और उन्हें अपना समर्थन देने के लिए उनसे [email protected] पर सम्पर्क करें।

समाजसेवी संगठन अपने कामकाज को डिजिटल कैसे बनाएं?

समाजसेवी संस्थाओं के लीडर और प्रोजेक्ट मैनेजर अपने संगठनों और परियोजनाओं के डिजिटलीकरण की बढ़ती आवश्यकता और अपने इरादों को सामने ला रहे हैं। बड़ी परियोजनाओं, ख़ासकर राज्य और केंद्र सरकार के विभिन्न विभागों के साथ साझेदारी में काम करने वाली कई समाजसेवी संस्थाओं ने पहले से ही अपने कार्यक्रमों में तकनीक के इस्तेमाल को अपना लिया है। इसके बावजूद, हमने पाया है कि तकनीकी समाधानों या आंकड़ों से जुड़ी विश्लेषण प्रक्रिया में ज़्यादातर समाजसेवी संस्थाएं हिचकिचाहट दिखाती हैं। शायद ऐसा पूरी तैयारी न होने की भावना के कारण होता हो। आसान शब्दों में कहा जाए तो समाजसेवी संस्थाओं के लीडर्स तकनीक का बेहतर उपयोग करना तो चाहते हैं लेकिन अक्सर उन्हें इसके तरीक़ों की जानकारी नहीं होती है। कई लोग तकनीक को महंगे संसाधन की तरह देखते हैं। वे मानते हैं कि जब तक फंडर इसकी मांग न करे और इस खर्चे का वहन न करे, तब तक इसे टाला जा सकता है।

डिजिटलीकरण करने के आसान तरीके भी हैं

हमें समाजसेवी संस्थाओं के संदर्भ में डिजिटलीकरण (डिज़िटाइज़ेशन) को समझना आवश्यक है। हमारे अनुभव के आधार पर, हमने निम्नलिखित श्रेणियों का वर्गीकरण किया है जिसमें समाजसेवी संस्थाओं की लगभग सभी डिजिटलीकरण आवश्यकताएं शामिल हैं:

ऑफ़िस ऑटोमेशन

  1. पे-रोल और मानव संसाधन प्रबंधन
  2. लेखांकन और वित्त (अकाउंटिंग एंड फायनेंस)
  3. इन्वेंटरी या संपत्ति प्रबंधन
  4. ई-मेल और आंतरिक संचार

फंडरेजिंग और संचार

  1. वेबसाइट डेवलपमेंट
  2. सोशल मीडिया एंगेजमेंट
  3. ई-मेल और न्यूजलेटर कम्युनिकेशन
  4. खुदरा या व्यक्तिगत फंडरेजिंग
  5. क्राउडफ़ंडिंग अभियान

परियोजना (प्रोजेक्ट) और अनुदान प्रबंधन

  1. अनुदान प्रबंधन (फंड की उपलब्धता का पता लगाना, फंड का व्यय, उपयोग किये गये फंड की जानकारी आदि)
  2. मुख्य (कोर) परियोजना संचालन प्रबंधन
  3. परियोजना पर निगरानी (मॉनीटरिंग)
  4. टास्क मैनेजमेंट
  5. एम&ई आंकड़ा संग्रह और विश्लेषण
  6. भागीदारों के साथ उद्देश्यों, रणनीतियों और क्षमताओं का आकलन

हितधारक प्रबंधन

  1. डोनर को रिपोर्ट देना
  2. वॉलंटीयर एंगेजमेंट
  3. लाभार्थी एंगेजमेंट
  4. कर्मचारी ज्ञान एवं विकास

क्षेत्र-विशिष्ट उपयोग के मामले भी हैं, जैसे कि स्वास्थ्य के मामले में रोगी प्रबंधन या शिक्षा के मामले में शिक्षा और कक्षा प्रबंधन।

निवेश के क्षेत्र को पहचानने के लिए समीक्षा की आवश्यकता होती है ताकि सहकर्मियों की उन चुनौतियों और बाधाओं के बारे में जाना जा सके जिन्हें तकनीक के उपयोग से दूर किया जा सकता है। जहां एक तरफ़ सभी समस्याओं का त्वरित समाधान तकनीक को स्वीकार करना नहीं हो सकता है (नहीं होना चाहिए)। वहीं, इसका इस्तेमाल उचित स्थान पर करने से मदद अवश्य मिल सकती है। उदाहरण के लिए, क्या किसी क्षेत्र में डिजीटलीकरण करने से टीम के समय, खर्च या मेहनत को बचाया जा सकता है? क्या इससे टीम की उत्पादकता में वृद्धि आएगी? क्या यह तात्कालिक आधार पर कुछ महत्वपूर्ण जानकारी उपलब्ध कराएगा? क्या इससे प्रोजेक्ट या संगठन का आकार बढ़ाने में मदद मिलेगी? किसी भी प्रकार की तकनीक का मूल्यांकन और उसकी प्राथमिकता तय करते समय ऐसे प्रश्न महत्वपूर्ण होते हैं और इन पर विचार किया जाना चाहिए।

क्या आपको अपने लिए एक नए सॉफ़्टवेयर का निर्माण करना चाहिए या किसी प्रमाणित सॉफ़्टवेयर को किराए पर लेकर उसका उपयोग करना चाहिए?

ऊपर ज़िक्र किए गए सभी बिंदुओं के लिए, बाजार में कई ऑफ-द-शेल्फ सिस्टम उपलब्ध हैं। हो सकता है कि ये सिस्टम आपकी जरूरत के मुताबिक स्पेसिफिकेशन्स, लुक और फील या यूज़र एक्सपीरियंस की आवश्यकताओं को पूरा ना करें, लेकिन अक्सर ये कम खर्चीले होते हैं। साथ ही, इन्हें नया सिस्टम बनाने की तुलना में आसानी से और कम समय में इस्तेमाल में लाने के लिए तैयार किया जा सकता है। चूंकि इनमें से ज़्यादातर सिस्टमों का अक्सर मुफ़्त ट्रायल वर्जन उपलब्ध होता है, इसलिए आप इस्तेमाल के पहले दिन से ही इनके बारे में जान सकते हैं। इसके अलावा, इनमें से अधिकतर मासिक सब्सक्रिप्शन पर उपलब्ध होते हैं। 

बड़े पैमाने पर और दीर्घकालिक कार्यक्रमों की चरण-दर-चरण प्रक्रियाओं द्वारा संचालित, बहुत अनुकूलित (कस्टमाइज) समाधानों से जुड़े मामलों में, ऑफ-द-शेल्फ सिस्टम आपकी विशिष्ट आवश्यकताओं को पूरा करने में सक्षम नहीं होते हैं। उत्पादों को संशोधित या बड़े पैमाने पर अनुकूलित करने की उनकी अपनी सीमाएं होती हैं। ऐसी स्थिति में अपनी जरूरत के मुताबिक कस्टम सॉल्यूशन तैयार करने के प्रयास और लागत को उचित ठहराया जा सकता है।

महिलाओं के हाथ में सर्वे के लिए दो डिजिटल डिवाइस_डिजिटल एनजीओ
आपके डिजिटल समाधान में आपकी टीम और भौगोलिक उपस्थिति के विकास के अनुरूप बड़े-पैमाने पर विकसित होने की क्षमता होनी चाहिए। | चित्र साभार: © बिल & मेलिंडा गेट्स फ़ाउंडेशन / प्रशांत पंजियार

डिजिटाइज़ करते समय याद रखने लायक़ सात बातें

1. जब तक आपकी प्रक्रियाएं परिपक्व नहीं हो जातीं, तब तक डिजिटाइज़ करें

यदि आपका संगठन, आपकी परियोजना या प्रक्रियाएं नई हैं या लगातार विकसित हो रही हैं तो आपको तब तक डिजिटलीकरण से बचना चाहिए जब तक कि आप एक स्थिर अवस्था में न पहुंच जाएं। यह इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि किसी भी प्रयास के प्रारंभिक चरणों के दौरान डिजिटलीकरण करने से भविष्य में उस पर दोबारा बहुत अधिक काम करना पड़ सकता है और पहले से तैयार किसी उत्पाद के लिए दोबारा अनुकूलित करना एक मुश्किल काम है जिससे कि समय के साथ टीम के लोग इसके प्रयोग से बचते हैं।

2. छोटी शुरूआत करें और एकएक कदम बढ़ाएं

यदि आप अपने संगठन में प्रक्रियाओं को डिजिटाइज़ करना चाहते हैं, तो प्रमुख सेवाओं (वर्टिकल्स) या प्रोजेक्ट से शुरुआत करें। आरंभिक चरण में शुरुआती परियोजनाओं पर ध्यान दें और उनके ठीक तरह स्वीकृत हो जाने के बाद उस तकनीक को आप अन्य टीम या परियोजनाओं में भी प्रयोग करने का प्रस्ताव दे सकते हैं। उदाहरण के लिए, यदि आपको एम&ई डेटा कलेक्शन, विश्लेषण और डैशबोर्ड पर विजुअलाईजेशन के लिए तकनीक की ज़रूरत है तो आप डेटा कलेक्शन को डिजीटाईज़ करने के लिए एक मोबाइल ऐप के प्रयोग के बारे में सोच सकते हैं। इसके बाद, डेटा कलेक्शन प्रणाली स्थिर होने के बाद आप डेटा विश्लेषण और विज़ुअलाइज़ेशन को डिजिटाइज़ कर सकते हैं। मूल तथा ठोस समस्याओं का समाधान पहले किया जाना चाहिए। इससे टीम के सदस्यों को समझने और सहज होने का भी समय मिल जाता है।

3. स्केल के लिए निर्माण

आपके सभी प्रकार के डिजिटल समाधान आपकी टीम और भौगोलिक उपस्थिति के विकास के अनुरूप विकसित होने में सक्षम होने चाहिए। और, यह आपके टेक वेंडर पर आपकी निर्भरता के बिना ही होना चाहिए। इसके अतिरिक्त, बड़े आकार की टीम और परियोजनाओं को अक्सर भूमिका-आधारित या सीमित पहुंच वाले आंकड़ों की ज़रूरत होती है। इसे देखते हुए आपके द्वारा निर्मित तकनीक में सेल्फ़-कंफिगरेशन यूज़र प्रबंधन या अनुमति मोडयूल (परमिशन मोडयूल) होना चाहिए।

4. इसे स्थिर होने का समय दें

किसी भी नई आईटी प्रणाली (सिस्टम) से रातोंरात चमत्कार की उम्मीद न करें। इसकी आवश्यकता के अनुरूप व्यवहार में परिवर्तन को देखते हुए किसी भी नई प्रणाली को अक्सर ही प्रतिरोध का सामना करना पड़ता है। यह एक तथ्य है कि मानव का स्वभाव परिवर्तन का प्रतिरोध करता ही है। इन कारणों को देखते हुए हमेशा एक परिवर्तन प्रबंधन प्रणाली की योजना तैयार करनी चाहिए जो शुरुआत से ही आपके मुख्य हितधारकों को इसमें शामिल करे। ताकि वे इस बात को समझ सकें कि यह नई प्रणाली उनको किस प्रकार लाभ पहुंचाएगी। हमारे अनुभव में, किसी भी नई आईटी प्रणाली को स्थिर होने में कम से कम तीन से छह महीने लगते हैं।

5. अपनी स्वयं की तकनीकी परिपक्वता का आकलन करें और चुनौतियों का पूर्वानुमान लगाएं

ध्वनि में हम संगठनों को तकनीकों के वर्तमान उपयोग के आधार पर तीन श्रेणियों में रखते हैं।

आपके संगठन की तकनीकी परिपक्वता के आधार पर, आपकी टीमों को किस प्रकार की चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है, इसका अनुमान लगाना और उस आधार पहले से तैयारी करना मददगार साबित होता है।

6. तकनीकी क्षमता निर्माण में निवेश करें

जब तकनीक को अपनाने की बात आती है, तो नेतृत्व टीम और मध्य स्तर के प्रबंधन की क्षमता का निर्माण करना महत्वपूर्ण होता है। यह उन्हें डिजिटलीकरण की जरूरतों को स्पष्ट रूप से समझाने में सक्षम बनाता है और संयुक्त रूप से अपने विक्रेताओं के साथ एक उपयुक्त समाधान की पहचान करता है। इसके अतिरिक्त, आईटी सिस्टम के उपयोग को बड़ी टीम के लिए सही संदर्भ में रखता है, और यह भी सुनिश्चित करता है कि उनकी टीम तकनीकी समाधान की विशेषताओं और सीमाओं को सही ढंग से समझती है।

7. आपके फंडिंग प्रस्तावों में आईटी सिस्टम के लिए बजट

हमने देखा है कि अधिकांश फंडिंग प्रस्तावों में आईटी समाधान के लिए अलग से बजट की मांग नहीं की जाती है और न ही इसे बजट की आवश्यकताओं वाली सूची में रखा जाता है। गिनती में कम ही रहने वाले डोनर्स से सीमित मात्रा में अनुदान लेने के लिए प्रतिस्पर्धा को देखते हुए इसे समझा जा सकता है। हालांकि, यह आदर्श रूप नहीं है क्योंकि अक्सर ही प्रस्ताव पारित हो जाने के बाद यदि टीम द्वारा किसी तरह के डिजिटाईजेशन की ज़रूरत महसूस होती है तो धन उपलब्ध नहीं होता है। इसलिए अक्सर ऐसा होता है कि आईटी पर होने वाला यह खर्च संगठन के पहले से ही तय ख़र्चों के लिए आवंटित धन के बजट से ही निकाला जाता है। नतीजतन या तो खर्च में कमी लानी पड़ती है या किसी और स्त्रोत से मिलने वाले फंड का इस्तेमाल करना पड़ता है। इसके बदले यदि फ़ंडर आईटी समाधानों के प्रति उत्साहित हों तो समाजसेवी संगठनों में अपनी ज़रूरतों को पूरा करने वाले नए समाधानों के प्रयास के लिए आत्मविश्वास की भावना पैदा होगी। 

यदि संगठन पहले अपनी जरूरतों को स्पष्ट रूप से समझने के लिए पर्याप्त समय देते हैं, अपनी खुद की तकनीक अपनाने की चुनौतियों का आकलन करते हैं, तकनीक अपनाने के लिए आंतरिक क्षमता का निर्माण करते हैं। साथ ही, जहां भी संभव हो, कुछ ऑफ-द-शेल्फ समाधानों को आजमाते हैं और इन समाधानों को स्थिर होने के लिए पर्याप्त समय देते हैं तो ऐसी स्थिति में डिजिटलीकरण बहुत कुशलता के साथ किया जा सकता है। फंडिंग संगठनों को चाहिए कि वे समाजसेवी संस्थाओं को इन तकनीकों को अपनाने के लिए प्रोत्साहित करें। लम्बे समय में यह बहुत अधिक लाभप्रद साबित होगा।

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कबीर को जीना: संस्कृति और परंपरा को सामाजिक बदलाव तक बढ़ाना

भारत में प्राचीन काल से ही जाति समुदायों की एक पहचान रही है। यह पहचान शायद उनके काम से थी और उनकी आजीविका का साधन भी थी। लोग चाहे उस काम से खुश हों या न हों, उनको वह काम करना ही पड़ता था (या अभी भी करना पड़ता है, नहीं तो सामाजिक दंड दिया जाता है)।

मैं भी एक ऐसी ही जाति – भाट/भांड से आता हूं जो मध्य-राजस्थान में बसती है। भाट/भांड समुदाय का जातिगत काम कविता करना था। इस जाति को जाचक, ढोली और अन्य नाम भी दिए गए हैं। इनका काम आगे चलकर जजमानों के यहां होने वाले शादी-विवाह जैसे मांगलिक कार्यक्रमों में ढोल बजाना भी बना। 

हमारे समुदाय के कुछ लोग अब यह काम छोड़ चुके हैं, कुछ आज भी कर रहे हैं, और कुछ ने इसका स्वरूप बदल दिया है। इसके अनेक कारणों में सबसे बड़ा कारण रहा है – जातिवाद। ऐतिहासिक तौर पर कलाकार समुदाय से होते हुए भी मैं ग्रामीण संस्कृति और सामाजिक बदलावों को जोड़ने के क्षेत्र में आया। 

मैंने भजन और संघर्ष के गीतों को गाकर, अपनी कला में बदलाव किया है। यह लोगों को जागरूक करने और उन्हें अपने हक-अधिकारों के लिए लड़ने में प्रेरित करने वाला रहा है। 

मेरे दो हमउम्र साथी – कार्तिक और ईश्वर, मेरी ही तरह गांव से आते है और संस्कृति, संगीत और कला में रुचि रखते हैं। इन दोनों का जातिगत काम खेती-किसानी था। कलाकार जाति का न होते हुए भी इनको गांव-गांव जाकर ढोल बजाने और गाना गाने में कोई झिझक नहीं है।

हम कोशिश करते हैं कि मीरा, कबीर, रूपा दे, रामसा पीर आदि के विचारों को आज के परिप्रेक्ष्य में रख सकें। युवा, भजन गाने की तरफ कम आते हैं। इसलिए हमारे इस तरीके से प्रभावित होकर, लोगों ने गांव की चौकी (मारवाड़, पाली) में हमें भजन गाने के लिए बुलाया। 

कबीर भगवान को निर्गुण मानते थे। अपने भजन ‘तू का तू’ में वे कहते हैं: 

“इनका भेद बता मेरे अवधू, साँची करनी डरता क्यों,
डाली फूल जगह के माही, जहाँ देखूं वहां तू का तू।”

इसका मतलब है कि भगवान हर जगह हैं, आप में, मुझ में, पत्ते में, डाली में। इसी भजन में कबीर आगे कहते हैं:

“चोरों के संग चोरी करता, बदमाशों में भेड़ो तू,
चोरी करके तू भग जावे, पकड़ने वाला तू का तू।” 

इसका मतलब हुआ कि भगवान जब सब में हैं तो एक चोर में भी है, और जब वो चोर चोरी करके भाग जाता है तो उसे पकड़ने वाले में भी भगवान ही हैं। 

कुछ लोग इसका असल मतलब नहीं समझे और उन्हें लगा कि यह भजन भगवान को चोर कहता है। उन्हें यह पसंद नहीं आया और उन्होंने विरोध किया। हमने लोगों को इस दोहे का असल मतलब समझाया कि भगवान हर जगह हैं। तब उन्होंने हमारा साथ दिया। कुछ लोग ऐसे भी थे जिन्होंने भजन का मतलब खुद से समझा और विरोध करने वालों को समझाने में हमारी सहायता की। लोग कबीर, मीरा, बुल्ले शाह आदि के शब्दों को नकार नहीं सकते क्योंकि ये सभी इन इलाकों से ही हैं।  

महिलाएं भी पितृसत्ता के कारण मंडली में शामिल नहीं होतीं थीं। उन्होंने भी हमारी मंडली में भाग लिया क्योंकि हम गीत के शब्द समझाते हैं और लैंगिक भेदभाव के ख़िलाफ़ भी बोलते हैं।  

इस तरह यह हमारा सांस्कृतिक माध्यमों के जरिए लोगों को अधिकार और समानता, प्यार, करुणा, सद्भावना से परिचित करने का एक तरीक़ा है। 

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क्यों जैसलमेर के किसानों को सोलर प्लांट नहीं चाहिए

जैसलमेर के ओरण (पवित्र बगीचा) को स्थानीय लोगों द्वारा पारंपरिक रूप से सामान्य भूमि के रूप में माना जाता रहा है। जैसलमेर में ज़्यादातर घुमंतू और चरवाहे समुदाय के लोग रहते हैं जो इस विशाल भूमि की देखभाल करते हैं और इलाके के समृद्ध जैव-विविधता का ध्यान भी रखते हैं। इसके बदले में, यह भूमि इन्हें अपने गायों और भैंसों के लिए चारे उपलब्ध करवाती है। हाल ही में, अक्षय ऊर्जा का उत्पादन करने के लिए भूमि के इन बड़े हिस्सों में सौर संयंत्र स्थापित किए गए हैं।

आम धारणा के विपरीत, इन संयंत्रों से स्थानीय लोगों को नौकरियां नहीं मिल रही हैं – यहां के ज़्यादातर कामों की प्रकृति तकनीकी है और समुदाय के लोग इन कामों के लिए प्रशिक्षित नहीं हैं। स्थानीय लोगों को इन संयंत्रों में सुरक्षा गार्ड आदि जैसे कम-वेतन वाले काम ही मिल सकते हैं। इसके अलावा, ये संयंत्र घास की पैदावार को बर्बाद कर रहे हैं जिसका उपयोग यहां के स्थानीय लोग अपने मवेशियों के चारे के रूप में करते हैं। कुछ किसान सोलर फ़र्म में काम कर रहे कर्मचारियों को घी और दूध बेच कर अपनी आजीविका चला रहे हैं। लेकिन घी और दूध का उत्पादन भी मवेशियों के अच्छे और पौष्टिक भोजन पर ही निर्भर होता है।

एक अन्य प्रासंगिक मुद्दा यह है कि सौर संयंत्र उन विभिन्न जानवरों की प्रजातियों को नुकसान पहुंचा रहे हैं जिनके लिए ये ओरण उनका घर हैं। ओरण पारिस्थितिक रूप से विविध हैं और लुप्तप्राय या महत्वपूर्ण के रूप में सूचीबद्ध कई प्रजातियों को सुरक्षा प्रदान करते हैं। पश्चिमी राजस्थान में, ये जंगल गंभीर रूप से लुप्तप्राय सोन चिरैया या गोडावण (ग्रेट इंडियन बस्टर्ड) का घर हैं, जिनमें से लगभग 150 ही बचे हैं। सौर और पवन ऊर्जा परियोजनाओं के हिस्से के रूप में बिछाई गई कई हाई-टेंशन बिजली की तारें ओरण से होकर गुजरती हैं। बिजली की ये तारें पक्षियों के लिए ख़तरा हैं और इनसे टकराने से पक्षियों की मृत्यु के कई मामले सामने आए हैं। ओरण भूमि के नुकसान ने चल रहे संरक्षण प्रयासों को भी बाधित किया है।

वर्तमान में, ओरण भूमि पर इन संयंत्रों की स्थापना को लेकर राजस्थान में पर्याप्त मात्रा में आंदोलन किया जा रहा है। समुदाय के लोग सोलर प्लांट के निर्माण के विरोध में नहीं हैं लेकिन वे चाहते हैं कि इससे होने वाले नुक़सान एवं प्रभावों पर ढंग से बात की जाए और उनकी गंभीरता को समझा जाए। इसलिए यदि ओरण का कुल क्षेत्रफल 100 बीघा है तो उसमें से केवल 25 बीघा का इस्तेमाल ही सोलर प्लांट के निर्माण के लिए किया जाना चाहिए। पिछले सप्ताह 15 ओरणों के लगभग 30 समुदायिक नेता KRAPAVIS द्वारा आयोजित वर्कशॉप में शामिल हुए थे जहां उन्होंने ओरणों से जुड़े विभिन्न मुद्दों पर बातचीत की।

2018 में सर्वोच्च न्यायालय ने घोषणा की थी कि ओरण को जंगल माना जाता है लेकिन स्थानीय सरकारों ने इन्हें जंगल माने जाने की इस मुहिम में तेज़ी नहीं दिखाई और उन्हें जंगल की श्रेणी में नहीं माना गया। इसके अतिरिक्त सोलर पावर परियोजनाओं को पर्यावरणीय प्रभाव के मूल्यांकनों से बाहर रखा गया है। नतीजतन, बड़ी कम्पनियों को स्थानीय लोगों और पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रभावों के बारे में बिना जाने ही अपनी परियोजनाओं को स्थापित करने में आसानी होती है।

अमन सिंह राजस्थान में जमीनी स्तर पर समाजसेवी संगठन, कृषि एवं पारिस्थितीकी विकास संस्थान (KRAPAVIS) के संस्थापक हैं।

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कश्मीरी जनजातियों के सामने रोज़गार या शिक्षा में से एक को चुनने की दुविधा क्यों है?

जहां दुनिया परिस्थितिक तंत्र के संरक्षा और जलवायु अनुकूलन के बारे में जानने के लिए पशुपालकों का सहारा लेती हैं, वहीं जम्मू एवं कश्मीर में इस ज्ञान के संरक्षकों में शिक्षा और काम करने लायक़ साक्षरता की भी कमी है। फलस्वरूप ये जनजातियां अदृश्य एवं पिछड़ों का जीवन जीने के लिए मजबूर हैं।

जम्मू एवं कश्मीर को 2019 केंद्रशासित प्रदेश का दर्जा दिया गया। इस प्रदेश में कुल 11.9 फ़ीसद जनजातीय आबादी है। इसमें पशुपालकों यानी चरवाहों का प्रतिशत सबसे अधिक है। 2011 में सबसे बड़े समुदाय – गुज्जर-बकरवाल – में साक्षरता का प्रतिशत लगभग 22 फ़ीसद था। एक दशक बाद राज्य में शिक्षा पर काम कर रहे लोगों का कहना है कि यह बहुत कम रह गया है। यही स्थिति चोपन समुदाय की भी है जिन्हें अभी भी अनुसूचित जनजाति का दर्जा नहीं मिला है। इस समुदाय द्वारा न केवल स्कूल में नामांकन का स्तर 50 फ़ीसद से कम है बल्कि उनमें से आधे बच्चे प्राथमिक शिक्षा के बाद ही पढ़ाई छोड़ देते हैं। 

इन समुदायों के सदस्य अपने अधिकारों के लिए लड़ने, सरकारी नीतियों और योजनाओं का अधिकतम लाभ उठाने और स्वास्थ्य जैसी सार्वजनिक सुविधाओं का उपयोग कर पाने में असमर्थ हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि वे न तो व्यवस्था से बातचीत करने की भाषा जानते हैं और न ही उनके पास इतना आत्मविश्वास है। उनके लिए बाज़ार तक पहुंचना और उसे समझना मुश्किल है। इसके कारण वे अपनी उच्च-गुणवत्ता वाली पनीर (चीज़), भेड़ के ऊन और पारंपरिक चिकित्सा के ज्ञान से पैसा नहीं कमा पाते हैं।

कश्मीर के शोपियां के गुज्जर-बकरवाल युवा नेता शौकत चौधरी कहते हैं कि “हमारे लोग बादल फटने जैसी प्राकृतिक आपदा के कारण लगातार मरते रहते हैं और राहत कार्य या तो देरी से पहुंचता है या फिर कभी नहीं पहुंच पाता। यहां तक कि इस इलाक़े में काम करने वाली समाजसेवी संस्थाएं भी हमारे पास नहीं आती हैं क्योंकि हम सुदूर इलाक़ों में रहते हैं जहां पहुंच पाना आसान नहीं होता है।”

यह इलाक़ा प्रशासनिक एवं इंफ़्रास्ट्रक्चर की चुनौतियों वाले इलाक़े के रूप में जाना जाता है और इसका राजनीतिक उथल-पुथल का भी अपना इतिहास रहा है। बकरियों, भेड़ एवं भैंस पालने वाली इन समुदायों की जीवनशैली भी शिक्षा के लचीले मॉडल की मांग करती है।

मौसमी प्रवास

गुज्जर-बकरवाल और चोपन अपने मवेशियों के लिए घने चारागाहों की तलाश में गर्मियों के महीनों में अधिक ऊंचाई वाली जगहों पर चले जाते हैं। चूंकि भेड़ एवं बकरियां चराने वाले चरवाहे अपनी जगह छोड़ नई जगह जाते हैं तो उनके बच्चे भी उनके साथ हो लेते हैं। नतीजतन गर्मी के उन महीनों में उनकी पढ़ाई-लिखाई पीछे छूट जाती है।  

बारामूला के कटियांवाली इलाक़े के शिक्षक परवेज अहमद फामदा कहते हैं “मैं जिस सरकारी स्कूल में पढ़ाता हूं वहां के सभी बच्चे गुज्जर-बकरवाल समुदाय के हैं। हर साल अप्रैल से नवंबर-दिसंबर तक ये गुलमर्ग, पीर-पंजाल या हिंदूकुश के जंगलों में चले जाते हैं। गर्मी के मौसम में 50 में से केवल पांच छात्र ही स्कूल आते हैं।” परवेज़ भी इसी समुदाय से आते हैं और वे अधिक से अधिक बच्चों को शैक्षणिक व्यवस्था में लाना चाहते हैं। उनका कहना है कि प्रवास उनके नामांकन में एक बड़ी बाधा है और यह स्कूल में नामांकन करवाने वाले बच्चों की शिक्षा को भी बाधित करता है।

सर्दियों में वापस लौटने के बाद बर्फ़बारी के कारण ये बच्चे स्कूल वापस नहीं लौट पाते हैं। बड़गाम जिले में चरवाहों के बच्चों के लिए स्कूल चलाने वाले शिक्षक रऊफ मोहिउद्दीन मलिक कहते हैं कि “प्रत्येक वर्ष एक ऐसा समय आता है जब बर्फ़ के कारण सब कुछ बंद हो जाता है। नतीजतन ज़्यादातर शिक्षक अपने छात्रों को अधिक से अधिक चार से पांच महीने ही पढ़ा पाते हैं।” नामांकन लेने वाले बच्चों में लगभग 50 फ़ीसद बच्चे नौवीं कक्षा के पहले और अक्सर प्राथमिक स्कूल के बाद ही पढ़ाई छोड़ देते हैं।

पांच बच्चे कैमरे के सामने पोज करते हुए-कश्मीर शिक्षा
प्रवास नामांकन में एक बड़ी बाधा है और यह स्कूल में नामांकन करवाने वाले बच्चों की शिक्षा को भी बाधित करता है। | चित्र साभार: संदीप चेतन | सीसी बीवाई

आजीविका की चुनौती

रिपोर्ट्स बताती हैं कि, महामारी के दौरान कई बच्चों को स्कूल छोड़ना पड़ा क्योंकि उनके माता-पिता आर्थिक संकट से जूझ रहे थे। ज़्यादातर बच्चे अपने माता-पिता के साथ मिलकर काम करने लगे थे और परिवार की आय में अपना योगदान दे रहे थे जो पहले से ही बहुत कम थी। कश्मीर में आरटीआई एक्टिविस्ट राजा मुज़फ़्फर भट चरवाहों के बच्चों के लिए बने स्कूलों के साथ काम करते हैं। उनका कहना है कि “चोपन जिन मवेशियों को पालते हैं वे उनके अपने नहीं होते; इन मवेशियों के मालिक दूसरे लोग होते हैं। प्रतिमाह 10,000–12,000 रुपयों के लिए वे बरसात और कड़कड़ाती ठंड में भी भेड़ों को घास के मैदानों तक लेकर जाते हैं।

चोपन सरकारी योजनाओं के लाभार्थी नहीं हैं क्योंकि उन्हें अनुसूचित जनजाति के रूप में मान्यता नहीं मिली है।

सरकारी स्कूलों में नामांकन करवाने और स्कूल जाने के लिए गुज्जर-बकरवाल बच्चों को सरकार की तरफ़ से छोटी सी छात्रवृत्ति मिलती है। परवेज़ जिस ‘स्मार्ट स्कूल‘ में पढ़ाते हैं वहां बच्चों को उनकी उम्र एवं लिंग के आधार पर 500 रुपए से 900 रुपए के बीच की राशि मिलती है। लेकिन यह राशि हमेशा पर्याप्त नहीं होती है। चोपन समुदाय के लोगों को सरकारी योजनाओं का लाभ भी नहीं मिल पाता है क्योंकि अभी तक उन्हें अनुसूचित जनजातियों की सूची में शामिल नहीं किया गया है।

अनंतनाग नगरपालिका समिति की पार्षद और स्थानीय भाजपा नेता आलिया जान कहती हैं कि उनका ज्यादातर समय माता-पिता को अपने बच्चों को पहलगाम, अनंतनाग में उनके द्वारा स्थापित स्कूल में भेजने के लिए राजी करने में चला जाता है। “वे मुझसे कहते हैं कि उनके पास आमदनी नहीं है। वे एक स्तर तक सरकारी स्कूलों का खर्च उठा भी सकते हैं। लेकिन उनके पास अपने बच्चों को 10+2 की पढ़ाई करवाने या उन्हें कॉलेज भेजने के लिए पैसे नहीं हैं।”

एक शिक्षक और सामने छात्रों का एक समूह-कश्मीर शिक्षा
महामारी के दौरान कई बच्चों ने पढ़ाई छोड़ दी क्योंकि उनके माता-पिता आर्थिक संकट से जूझ रहे थे। | चित्र साभार: परवेज अहमद फामदा

लिंग भेद

इन समुदायों की लड़कियों को लड़कों की तुलना में शिक्षा के लिए अधिक चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। प्रवास के दिनों में परिवार के लोग अपने बेटों को दोस्तों या रिश्तेदारों या आवासीय स्कूलों में छोड़ने की इच्छा जताते हैं। लेकिन बेटियों के मामले में ऐसा करने को लेकर वे सहज नहीं हो पाते। चरवाहे समुदायों में महिलाओं के बीच साक्षरता दर देश और अन्य केंद्र शासित प्रदेशों के औसत से बहुत कम है। हाल ही में हुए एक सर्वे के अनुसार जम्मू एवं कश्मीर में महिला साक्षरता दर लगभग 67 फ़ीसद है जो कि पूरे भारत के औसत दर 70 फ़ीसद की तुलना में बहुत कम नहीं है। इस सामाजिक संकेतक के अनुसार केंद्र शासित प्रदेशों का प्रदर्शन देश के अन्य राज्यों की तुलना में बेहतर है। राजा बताते हैं कि “कश्मीर में कई सारी महिलाएं कॉलेज एवं विश्वविद्यालय में पढ़ाई करती हैं। लेकिन उत्तर प्रदेश, बिहार और यहां तक कि दिल्ली में भी मुस्लिम समुदाय की लड़कियां इतनी आगे तक पढ़ाई नहीं कर पाती हैं। लेकिन जब चोपन एवं गुज्जर पहाड़ों में जाते हैं तब उनकी बेटियां स्कूल नहीं जा सकती हैं। और ऐसा इसलिए बिल्कुल नहीं है क्योंकि ये लड़कियां पढ़ना नहीं चाहतीं।”

लड़कियों की पढ़ाई-लिखाई सबसे अंत में आती है।

आलिया का कहना है कि पहलगाम में प्रवास की दर कम हुई है क्योंकि पर्यटन से यहां के लोगों को साल भर आमदनी होती है। लेकिन यहां भी लड़कियों के लिए शिक्षा का मुद्दा सबसे अंत में आता है। वे बताती हैं कि “माता-पिता अपनी बेटियों को स्कूल नहीं भेजना चाहते क्योंकि इन लड़कियों को शादी के बाद अपने ससुराल वालों के साथ रहना होता है।” महामारी से पहले शुरू किए गए इस स्कूल में आलिया लिंग अनुपात में सुधार के लिए काम कर रही हैं। वे आगे बताती हैं कि “मैं परिवारों को समझाती हूं कि एक शिक्षित स्त्री दो परिवारों को सकारात्मक रूप से प्रभावित कर सकती है। एक शिक्षित मां अपनी बेटियों की शिक्षा को सुनिश्चित करेगी।”

सामाजिक भेदभाव

सरकारी स्कूलों में चरवाहों या पशुपालकों के बच्चों की सामाजिक स्थिति भी बहुत ख़राब है। आलिया कहती हैं कि “यहां तक कि स्कूल के शिक्षक भी हमारे लोगों के लिए जंगली या देहाती जैसे अपमानजनक शब्दों का इस्तेमाल करते हैं। किसी को भी अपनी पहचान को लेकर कभी शर्मिंदगी महसूस नहीं करवानी चाहिए।” राजा का कहना है कि “चोपन अपने चरने वाले मवेशियों की सुरक्षा के लिए रात भर जागते हैं। इस कारण दूसरे समुदाय के लोगों को उन पर भरोसा नहीं होता और वे इन्हें चोर पुकारते हैं।” परवेज़ अपनी बात जोड़ते हुए कहते हैं कि शर्मिंदगी से बचने के लिए छात्र अक्सर अपनी पहचान को छुपा लेते हैं। 

आलिया का मानना है कि चरवाहे समुदाय के बच्चों के लिए अलग से एक स्कूल की स्थापना से इस समस्या के निदान में मदद मिल सकती है। इस कलंक के बाद भी अपनी शिक्षा हासिल करने वाले परवेज़ कहते हैं कि उनकी संख्या में वृद्धि से उन्हें मदद मिलेगी। “उच्च शिक्षा वाले संस्थानों में, हमें अपने लोगों का ‘झुंड’ बनाने की जरूरत है।”

एक शिक्षक के चारों ओर छात्रों का एक समूह-कश्मीर शिक्षा
कश्मीर की समस्या मौजूदा शिक्षा कार्यक्रमों के खराब कार्यान्वयन और मूल्यांकन की है। | चित्र साभार: परवेज अहमद फामदा

हस्तक्षेप एवं चुनौतियां

सरकार ने गुज्जर-बकरवालों के लिए शिक्षा की इस कमी को दूर करने की कोशिश की है। लेकिन खराब योजना और कार्यान्वयन के कारण ऐसे हस्तक्षेप बहुत अधिक प्रभावी नहीं हो पाते हैं।

1. मोबाइल स्कूल और मौसमी शिविर

1970 के दशक में सरकार ने कई सारे मोबाइल स्कूल की स्थापना की थी जिसमें शिक्षकों को एक प्रवासी समूह के साथ यात्रा करने की अनुमति दी जाती थी। शिक्षकों को ऐसे टेंट दिए गए थे जिनका इस्तेमाल वे कक्षाओं के रुप में कर सकते थे। ये मोबाइल स्कूल 1990 तक सक्रिय थे लेकिन इलाके की अशांति के कारण यह पहल ठंडी पड़ गई। मौसमी स्कूल को 2002 में दोबारा शुरू किया गया। लेकिन इनकी संख्या इतनी नहीं थी कि ये सभी प्रवासी समूहों तक पहुंच पाते। वहीं इनमें से कई स्कूल ऐसे भी थे जो काग़ज पर तो सक्रिय थे लेकिन वास्तविक रूप से ठप्प पड़ चुके थे। अनंतनाग जैसे सुदूर इलाक़ों में लोगों का कहना है कि लगभग एक दशक से उन्होंने ऐसे किसी स्कूल के बारे में नहीं सुना है। राजा कहते हैं कि “मैं पिछले तीन सालों से उंचाई पर स्थित इन चरागाहों पर जा रहा हूं। लेकिन मैंने ऐसे किसी मोबाइल या मौसमी स्कूल को चलते नहीं देखा है।”

छात्रों के लिए मौजूदा व्यवस्था और बुनियादी ढांचे के साथ पढ़ाई करना चुनौतीपूर्ण है।

परवेज़ कहते हैं कि जहां ऐसे स्कूल चल रहे हैं वहां भी छात्रों के लिए मौजूदा व्यवस्था और बुनियादी ढांचे के साथ पढ़ाई करना चुनौतीपूर्ण है। छात्रों के पास दिन का काम ख़त्म करने के बाद का ही समय होता है और शाम में यहां बिजली नहीं होती है। इस इलाक़े में आवागमन की भी सुविधा नहीं है। ना ही प्रत्येक शिक्षक के पास टेंट है। यहां तक जो टेंट हैं भी, वे भी वाटरप्रूफ़ नहीं हैं। वे अपनी बात आगे बढ़ाते हुए कहते हैं “जंगल में मूसलाधार बारिश होती है। और जब बारिश होती है तब अंदर बैठकर पढ़ना-पढ़ाना असम्भव होता है।” यह भी एक बाधा है कि छात्र विभिन्न आयु-वर्ग के होते हैं। इनमें कईयों ने इससे पहले स्कूल का मुंह तक नहीं देखा होता है। रऊफ़ का कहना है कि “हमने ऐसी परिस्थितियां भी देखी हैं जब एक शिक्षक एक सात-वर्ष की आयु वाले, एक 10 वर्ष की आयु वाले और एक 15 वर्ष की आयु वाले छात्र को एक साथ पढ़ाने के लिए एक आदर्श पाठ्यक्रम तय करने के लिए संघर्ष कर रहा है।”

2. मौसमी शिक्षक

मौसमी स्कूल के लिए कश्मीर सरकार का शिक्षा विभाग शिक्षकों के रूप में वोलन्टीयर का चुनाव करता है। परवेज़ ने बताया कि “इन शिक्षकों की योग्यता प्राथमिक स्तर से आगे के छात्रों को पढ़ाने की नहीं होती है और वे सभी विषयों को भी नहीं पढ़ा सकते हैं।” रऊफ़ इस बात से सहमत होते हुए कहते हैं कि “इनमें से ज़्यादातर 12वीं कक्षा तक भी नहीं पढ़े होते हैं। राजनीतिक पहुंच वाले लोग ही अक्सर इन पदों पर भर्ती हो जाते हैं और वास्तव में कभी स्कूल आते भी नहीं हैं।” हाल तक इन वॉलन्टीयर को प्रति माह 4,000 रुपया मिलता था लेकिन अब उन्हें 10,000 रुपए मिलते हैं। हालांकि योग्य उम्मीदवार इस पद में कम ही रुचि दिखाते हैं क्योंकि इसमें रोज़गार सुरक्षा नहीं है।

3. आवासीय विद्यालय

1991 में पांचवीं कक्षा पास करने वाले जनजातीय छात्रों के लिए आवासीय विद्यालय के स्थापना की पहल हुई। परवेज़ का कहना है कि “ये हास्टल अक्सर ही भ्रष्टाचार के मुद्दों से घिरे रहते थे। उनका संचालन बहुत ही बुरा था और अक्सर ही न तो वहां बिजली होती थी और न ही इनकी स्थिति ऐसी होती थी कि उनमें कोई रह सके। सौभाग्यवश तब से अब तक स्थिति में सुधार आया है।”

हालांकि इन हॉस्टल की संख्या भी पर्याप्त नहीं है। दो साल तक अधिकारियों के पास चक्कर लगाने के बाद शौक़त ने शोपियां में एक हॉस्टल शुरू करने के लिए सरकार को तैयार कर लिया है। शौक़त ने कहा कि “यह हॉस्टल 2021 से चल रहा है और इसमें गुज्जर-बकरवाल समुदाय के 125 छात्र स्नातक की पढ़ाई कर रहे हैं।” इन हॉस्टलों में सीमित संख्या में सीट होती हैं।

जहां कुछ जिलों में गुज्जर-बकरवाल लड़कों के लिए हॉस्टल की सुविधा है वहीं इस समुदाय की लड़कियों के लिए ऐसी कोई सुविधा नहीं है। आलिया ने बताया कि “छात्राओं को अपनी पढ़ाई पूरी करने के लिए बहुत दूर तक की यात्रा करनी पड़ती है।” ऐसा नहीं है कि व्यवस्थाएं ठीक से काम नहीं कर रही हैं। कश्मीर की समस्या है मौजूदा शिक्षण कार्यक्रमों का ख़राब क्रियान्वयन और मूल्यांकन।

मोबाइल स्कूल एवं आवासीय विद्यालय अच्छे विचार हैं लेकिन उसके लिए बेहतर इंफ़्रास्ट्रक्चर और सुप्रशिक्षित एवं अच्छे वेतन पाने वाले शिक्षकों की आवश्यकता है। सरकार अधिक महिलाओं को पढ़ाने के लिए प्रशिक्षित कर सकती है क्योंकि स्कूल इस बात की पुष्टि करते हैं कि छात्र उनसे सीखने में अधिक सहज हैं। इसके अलावा, वे पुरुषों की तुलना में नौकरी में अधिक समय तक टिकी रहती हैं।

समुदायों के शिक्षा विशेषज्ञों ने वैकल्पिक पाठ्यक्रम भी प्रस्तावित किए हैं जो पशुपालक समुदायों के लोगों की आजीविका से मेल खाते हैं। उन्हें लगता है कि बच्चों को स्कूलों में उद्यमिता का पाठ पढ़ाया जाना चाहिए ताकि वे पशुपालन के अपने पारंपरिक ज्ञान को बाजार की समझ के साथ जोड़ सकें। कश्मीर के पशुपालक अपने लिए एक बेहतर कल की योजना बनाने में शामिल होने को तैयार हैं, लेकिन क्या कोई उनकी बात सुन रहा है?

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संगठनात्मक संस्कृति प्रतिभावान कर्मचारियों को रोकने में कैसे मददगार है?

आफ़ताब एक प्रतिष्ठित और बड़े भारतीय समाजसेवी संगठन में मैनेजर के पद पर कार्यरत है। हालांकि संगठन की ओर से उन्हें वर्क फ़्रॉम होम की सुविधा मिली हुई है, लेकिन आफ़ताब को लगभग रोज ही दफ़्तर जाना पड़ता है। उनके कार्य और जिम्मेदारियां व्यापक हैं और इसलिए उन्हें टीम और अन्य लोगों के साथ निरंतर सम्पर्क में रहने की आवश्यकता होती है। दोपहर के खाने के समय आफ़ताब को अपने सहकर्मियों के साथ बैठना और अपने मन की बात करना पसंद है। आफ़ताब को लगता है कि उनके सहकर्मी इस तरह की पहल का स्वागत करते हैं और अपने निजी एवं पेशेवर जीवन के मुद्दों के बारे में बात करने के लिए समय निकालते हैं। वे एक दूसरे की बात को सुनते एवं समझते हैं। कुछ समय पहले समाजसेवी संस्था ने एक पहल की जिसके अंतर्गत कर्मचारियों के एक बहुत बड़े समूह ने महीने में एक-दो बार दफ़्तर में पॉटलक लंच आयोजित किया था। इस लंच के आयोजन का भार किसी भी एक व्यक्ति को ज़बरदस्ती नहीं दिया गया था और इसमें शामिल होने तथा अपना योगदान देने लिए के सभी आमंत्रित थे।

संगठनात्मक संस्कृति कुछ मेंटल मॉडल्स से मिलकर तैयार होती हैं जिसमें संगठन द्वारा स्वीकार किए गए मूल्य (विविधता, इक्विटी और समावेशन) होते हैं। इसमें दृश्यमान कलाकृतियां जैसे संरचनाएं और प्रथाएं, और अर्ध-दृश्यमान कलाकृतियां जैसे कामकाज का माहौल, पावर डायनमिक्स और संगठन के भीतर संबंध आदि भी शामिल होती हैं। इस प्रकार संगठनात्मक संस्कृति एक संगठन के सामाजिक ताने-बाने को परिभाषित करती है।

इंडियन स्कूल ऑफ डेवलपमेंट मैनेजमेंट (आईएसडीएम) और अशोका यूनिवर्सिटी के सेंटर फॉर सोशल इम्पैक्ट एंड फिलैंथ्रोपी (सीएसआईपी) ने मिलकर भारतीय सामाजिक प्रयोजन संगठनों (एसपीओ) में प्रचलित प्रतिभा प्रबंधन प्रथाओं पर एक अध्ययन किया है। यह अध्ययन क्षेत्र में प्रतिभा की कमी, भर्ती औचित्य, और संगठनों में उचित भुगतान का निर्धारण करने के तरीकों जैसे पहलुओं को समझने के लिए डेटा का एक विश्वसनीय स्रोत हो सकता है। इस रिपोर्ट के निष्कर्ष देश भर में एसपीओ नेताओं और कर्मचारियों के साथ किए गए 90 से अधिक गहन साक्षात्कारों और चार क्वांटिटेटिव सर्वेक्षणों से प्राप्त हुए हैं। हमारा उद्देश्य प्रतिभा को परिभाषित करना; संगठनों द्वारा अपने अंदर पहले से मौजूद प्रतिभा की पहचान, उनको आकर्षित करने तथा उसके समावेशन के लिए अपनाए गए तरीक़ों को समझना; तथाकथित प्रतिभा के व्यक्तिगत लक्ष्यों तथा प्रेरणाओं के असर का मूल्यांकन करना तथा संगठन के भीतर ही प्रतिभा प्रबंधन से जुड़ी चुनौतियों की पहचान करना था।

रिपोर्ट से पता चलता है कि एक स्वस्थ संगठनात्मक संस्कृति का प्रतिभाओं को हासिल करने और उन्हें रोककर रखने पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है। कार्यस्थल का वातावरण और पावर डायनमिक्स जैसे कारक कर्मचारियों के मनोबल और उनके हित को महत्वपूर्ण रूप से प्रभावित करते हैं। रिपोर्ट में यह भी पाया गया कि एक खुली और जन-केंद्रित संस्कृति कर्मचारियों को कार्यालय कार्यक्षेत्र की ओर आकर्षित करती है। नेतृत्व शैली जैसे कारक किसी भी संगठन के भीतर कर्मचारियों के प्रेरणा स्तर को महत्वपूर्ण रूप से प्रभावित करते हैं। इसलिए, एक सामंजस्यपूर्ण संगठनात्मक संस्कृति विभिन्न समूहों या टीम को समस्या-समाधान के लिए नए दृष्टिकोणों की तलाश में सहयोग की अनुमति देती है। यह काम के लिए ‘सही’ दृष्टिकोण अपनाने में भी कर्मचारियों का मार्गदर्शन करता है। रिपोर्ट के इन निष्कर्षों पर इस लेख में विस्तार से चर्चा की गई है।

1. सहकर्मी संबंध कर्मचारी प्रतिधारण को प्रभावित करते हैं

संगठन के भीतर अपने साथियों के साथ संबंध बनाना और बनाए रखने से कर्मचारियों में मनोबल का स्तर उंचा बना रहता है। यह अपनी ज़िम्मेदारी के संबंध में उपयुक्त और सम्मानजनक इंटर-इंट्रा टीम डायनमिक्स की भी पुष्टि करता है। सामान्य कार्यस्थल का माहौल टीम संबंधों तथा उनके हित को प्रभावित करता है। हमारे अध्ययन के लिए किए जाने वाले सर्वे में भाग लेने वाले एक तिहाई लोगों का कहना था कि सहकर्मियों तथा समकालीनों के साथ उनके संबंध उनकी निरंतर व्यस्तताओं तथा संगठन में बने रहने की प्रेरणा पर अपना प्रभाव डालते हैं।

2. कामकाज का एक सकारात्मक माहौल बेहतरी को बढ़ावा देता है

विभिन्न नेताओं के बीच संबंधों की गुणवत्ता और प्रतिभा प्रदर्शन करने वाले भौतिक वातावरण शामिल करने वाले एक संगठन का सामाजिक ताना-बाना कर्मचारी प्रेरणा को प्रभावित कर सकते हैं। ऐसे कार्यक्षेत्र जहां व्यक्तियों के मूल्यों को महत्व देने वाले और उनके मानसिक हित का ख़याल रखने के साथ ही उनके पेशेवर-व्यक्तिगत जीवन के संतुलन को बनाए रखने वाले कार्यक्षेत्र वाले संगठन में प्रतिभा प्रतिधारण की दर बहुत ऊंची होती है। हमारे अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि एक सहृदय, समावेशी और बेहतर आपसी संबंध वाली संस्कृति से कर्मचारियों को कार्यस्थल पर सहजता महसूस होती है और वे अपने सहकर्मियों के साथ काम करने के अपने उत्साह को बनाए रखते हैं। सकारात्मक टीम संबंध कर्मचारियों की प्रेरणा और प्रतिबद्धता को सकारात्मक रूप से प्रभावित करते हैं। हमारे अध्ययन में एक साक्षात्कार प्रतिभागी ने कहा कि उसे काम पर आने में मज़ा आता है और वह इस बात की सराहना करती है कि उसके सहकर्मी दोस्ताना मज़ाक आदि में शामिल होते हैं। उसे यह भी भरोसा है कि उसके सहकर्मी “सब कुछ बेहतर बनाए रखने के लिए कुछ भी करने वाले” लोग हैं।

3. संगठनात्मक मूल्यों का व्यापक प्रभाव पड़ता है

संगठनात्मक मूल्यों को स्थापित करने और जागरूक होने के महत्व को कम करके नहीं आंका जा सकता है। विविधता, इक्विटी, और भर्ती और चयन प्रक्रियाओं में शामिल करने के सिद्धांतों को अपनाने में संगठनात्मक विश्वास जैसे पहलू मानसिक मॉडल हैं जो संगठन की संस्कृति की नींव बनाते हैं। आम तौर पर ऐसे मूल्य ऊपर से नीचे तक जाते हैं और संगठन के संस्थापक नेतृत्व के कार्यों से अत्यधिक प्रभावित होते हैं। किसी संगठन द्वारा अपनाए गए मूल्य उसके आंतरिक और बाहरी हितधारकों के साथ उसके संवाद को आकार देते हैं। साथ ही, ये अपने कार्यों को करने के लिए आवश्यक दृष्टिकोण अपनाने की दिशा में अपनी प्रतिभा का मार्गदर्शन करने में मदद करते हैं। हमारा शोध इस बात की पुष्टि करता है कि, एसपीओ के लिए, संगठन से जुड़े मूल्यों और संस्कृति को बनाए रखना कर्मचारी के प्रदर्शन का एक प्रमुख मानदंड है।

लेगो ब्लॉक का ढेर-कर्मचारी प्रतिभा
एक सामंजस्यपूर्ण संगठनात्मक संस्कृति विभिन्न समूहों या टीम को समस्या-समाधान के लिए नए दृष्टिकोणों की तलाश में सहयोग की अनुमति देती है। | चित्र साभार: पेक्सेल्स

4. संगठनात्मक संस्कृति प्रतिभाओं को बनाए रखने को बहुत अधिक प्रभावित करती है

संगठनात्मक संस्कृति के विकास को केंद्र में रखकर किए गए अभ्यास एक संगठन के भीतर प्रतिभा के आकर्षण और प्रतिधारण यानी उन्हें हासिल करने और बनाए रखने को सकारात्मक रूप से प्रभावित करते हैं। हमारे शोध से स्पष्ट होता है कि संगठनात्मक संस्कृति ने एसपीओ में काम कर रहे 60 फ़ीसद सर्वेक्षण उत्तरदाताओं के निरंतर जुड़ाव और प्रतिधारण को प्रभावित किया है। साथ ही, एक मजबूत संगठनात्मक संस्कृति की उपस्थिति 52 फ़ीसद सर्वेक्षण उत्तरदाताओं के लिए विकास क्षेत्र में काम करना जारी रखने के लिए प्रमुख कारण के रूप में सामने आई।

प्रतिभा प्रबंधन प्रथाओं में संगठनात्मक संस्कृति के घटकों का एकीकरण एसपीओ को प्रतिभा प्रेरणा और कारण के प्रति प्रतिबद्धता में सुधार करने में मदद कर सकता है। इससे नए प्रयोगों और उत्पादकता को बढ़ावा मिलता है और आकर्षण और प्रतिधारण में वृद्धि होती है। नियमित टीम-निर्माण गतिविधियां यह सुनिश्चित कर सकती हैं कि कर्मचारी एक दूसरे के साथ संबंध बनाए रखें और उत्पादक टीम बनाने में सक्षम हों। इस प्रकार, लोगों को अपनी राय, सफलताओं और असफलताओं को साझा करने के लिए सुरक्षित स्थान प्रदान करने से एसपीओ को जटिल सामाजिक मुद्दों को संबोधित करने के लिए सहयोग, क्रॉस-लर्निंग, समस्या-समाधान और नवाचारों को बढ़ावा देने में मदद मिल सकती है।

5. कर्मचारी जनकेंद्रित नेतृत्व शैली की ओर आकर्षित होते हैं

पावर डायनेमिक्स प्रतिभा आकर्षण और प्रतिधारण में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। विकास क्षेत्र में काम कर रहे पेशेवरों के लिए नेताओं द्वारा प्रदर्शित दृष्टिकोण और व्यवहार खासतौर पर मायने रखता है। और, किसी विशेष संगठन में नेतृत्व की शैली संगठन की प्रतिभा और उनके निरंतर जुड़ाव के प्रेरणा स्तरों को काफी प्रभावित करती है। परिणामस्वरूप एक सहभागी (जिसमें टीमों को सुनना, असहमति की अनुमति देना, सामूहिक निर्णय लेना आदि शामिल है), भरोसा करने वाली (प्रतिभा क्षमता में विश्वास करना), सहजता से उपलब्ध, प्रशंसनीय और सहायक (कर्मियों को पहल करने की अनुमति देना) नेतृत्व शैली संगठन की प्रतिभा को बनाए रखने में प्रभावी साबित हो सकते हैं। हमारे शोध में पाया गया है कि सहभागी और उत्साहजनक नेतृत्व शैली भी पूर्व कर्मचारियों को उनके पूर्व संगठनों की ओर आकर्षित करती है। इसलिए, नेतृत्व की एक सहानुभूतिपूर्ण और जन-केंद्रित शैली अपनाने से एसपीओ को प्रतिभा को आकर्षित करने और बनाए रखने में मदद मिल सकती है। इसके विपरीत, नेतृत्व की एक सूक्ष्म प्रबंधन-उन्मुख शैली संगठनों में प्रतिभा की उच्च दर से संबंधित होती है।

6. इंट्राऔर इंटरटीम सहयोग दोनों आवश्यक हैं

अध्ययन के निष्कर्षों से संकेत मिलता है कि विचारों के आदान-प्रदान के लिए टीम के भीतर और टीमों में आपसी सहयोग और अवसरों को बढ़ावा देने के लिए, एक खुली और जन-केंद्रित संस्कृति की उपस्थिति आवश्यक है। जहां व्यक्ति अपनी राय व्यक्त करने के लिए स्वतंत्र महसूस करते हैं और उसके लिए उन्हें जज नहीं किया जाता है। सहकर्मी एक दूसरे के साथ अच्छी तरह से मिलते हैं क्योंकि वे अपने समूहों के भीतर व्यक्तिगत पृष्ठभूमि और राय की विविधता का सम्मान करना सीखते हैं। इससे व्यक्तियों और विभिन्न टीमों के बीच सहयोग की भावना आती है तथा ज्ञान और सूचना के मुक्त-प्रवाह के आदान-प्रदान से सहायता मिलती है।

एक एसपीओ के वित्त और संचालन प्रमुख के अनुसार, विभिन्न टीमों के बीच सुचारू और समय पर बातचीत की संस्कृति बनाने का प्रयास करना बहुत महत्वपूर्ण है। इस तरह की बातचीत से अनमोल अनुभव सामने आते हैं जो संगठनात्मक संस्कृति को जानकारियों से भरते हैं और उसे तैयार करते हैं। चूंकि इस तरह की बातचीत के लिए कई अवसर मिलना मुश्किल है, इसलिए उन्हें इस तरह से बनाया जाना महत्वपूर्ण है जिससे संवाद और चर्चा में आसानी हो और जो एक दूसरे से सीखने की प्रक्रिया को बढ़ाने में मददगार साबित हो सके।

अक्सर, कार्यस्थल में ऐसे माहौल से प्रतिभा के भीतर रचनात्मकता आती है। ऐसी जगहों में आगे की बातचीत से नए समाधान सामने आ सकते हैं, और कर्मियों को अपने कार्यों को पूरा करने के लिए समस्या-समाधान के दृष्टिकोण को सीखने और विकसित करने में मदद मिल सकती है।

कुल मिलाकर, एक सकारात्मक कामकाजी माहौल और मजबूत पारस्परिक संबंधों सहित एक स्वस्थ संगठनात्मक संस्कृति, सामाजिक क्षेत्र में प्रतिभा पर सकारात्मक प्रभाव डाल सकती है। सहकर्मी संबंध, टीम के समीकरणों और भौतिक कामकाजी माहौल, ये सभी संगठनात्मक प्रतिभा के मनोबल और प्रेरणा को प्रभावित करते हैं।

इसलिए, एक सकारात्मक संगठनात्मक संस्कृति बनाने और बनाए रखने से कर्मचारियों में संतुष्टि और प्रतिबद्धता का स्तर बढ़ सकता है और आख़िर में यह उन्हें नए विचारों, सामूहिक समस्या-समाधान और संगठन के भीतर उच्च प्रतिधारण दर के नेतृत्व के लिए प्रेरित कर सकते हैं।

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