पब्लिक सेक्टर बनाम प्राइवेट सेक्टर: किसकी कितनी हैप्पी दिवाली?

1. बोनस की घोषणा – कर्मचारी प्रसन्न या सन्न?

दिवाली पर कर्मचारियों के अनुभव_दीपावली

2. बोनस को लेकर – कितने अरमान… अरमान… अरमान…

दिवाली पर कर्मचारियों के अनुभव_दीपावली

3. तैयारी में मेहनत – जिसकी जितनी जेब भारी, उसने की उतनी तैयारी

दिवाली पर कर्मचारियों के अनुभव_दीपावली

4. छुट्टी मैथ्स – एक दिवाली की छुट्टी की कीमत तुम क्या जानो एचआर बाबू?

दिवाली पर कर्मचारियों के अनुभव_दीपावली

5. ऑफिस लौटकर – कल का काम भी आज कर, तभी मिलेगा जाने घर

दिवाली पर कर्मचारियों के अनुभव_दीपावली

6. बजट पर असर – किसी की दिवाली, किसी का दिवाला

दिवाली पर कर्मचारियों के अनुभव_दीपावली

गुजरात में राठवा समुदाय और अनुसूचित जनजाति के अधिकार

एक आदमी पूजा करते हुए_राठवा समुदाय
राठवा समुदाय को गुजरात में एक अनुसूचित जनजाति माना जाता है, लेकिन इसकी विविधताएं सवाल खड़े करती हैं। | चित्र साभार: सेजल राठवा

मैं गुजरात के छोटाउदेपुर जिले के पनीबर गांव में रहने वाली एक पत्रकार हूं। यहां से मैं आदिम संवाद नाम का एक यूट्यूब चैनल चलाती हूं जो विभिन्न आदिवासी समुदायों से जुड़े मुद्दों पर बात करता है। राठवा जनजाति से होने के कारण, मैंने अपने जीवन के अलग-अलग चरणों में भेदभाव का अनुभव किया है। इसमें शिक्षकों, सहपाठियों और साथियों का जातिवादी रवैया और टिप्पणियां भी शामिल हैं।

हालांकि राठवा समुदाय को गुजरात में एक अनुसूचित जनजाति माना जाता है, लेकिन इसकी विविधताएं सवाल खड़े करती हैं। हमारे समुदाय के लोग राठवा-कोली या कोली-राठवा जैसे हाइफ़नेटेड उपनाम लिखने के आदी थे, जिसमें या तो उस राज्य, क्षेत्र या गांव का नाम शामिल होता था जिसमें वे रहते थे, या उनके पेशे का नाम जो उन्होंने अपना रखा था। यह समुदाय का अपनी व्यक्तिगत पहचान पर जोर देने का तरीका था। लेकिन जब सरकार ने रेवेन्यू रिकॉर्ड और अन्य कागजात तैयार किए तो उनमें जुड़े हुए उपनामों का ही इस्तेमाल हुआ। इस कारण इन उपनामों को राठवा समुदाय से अलग माना जाता है। मेरा सवाल है कि इतने वर्षों के बाद भी हमारी आदिवासी पहचान इन कागजों के आधार पर क्यों तय की जाती है?

अब यह साबित करने के लिए कि हम वास्तव में आदिवासी हैं, और अपना अनुसूचित जनजाति प्रमाणपत्र प्राप्त करने के लिए आदिवासियों को अपने आप को साबित करना पड़ता है। कुछ समय पहले एक कमेटी बनाई गई – ट्राइबल एडवाइजरी कमेटी जिसमें हम आदिवासी है या नही, इसके लिए हमें एफिनिटी टेस्ट देना पड़ता है। इसके लिए हमें कई सवालों का सामना करना पड़ता है। जैसे कि हमारी बोली क्या है, हमारे मुख्य देव कौन हैं, उनका क्या महत्व है? या फिर उनके फ़ोटो भी पेश करने पड़ते हैं।

ये सब होने के बावजूद, हमें अपने दादा-परदादा के स्कूल रजिस्टर या ऐसे ही अन्य रिकॉर्ड पेश करने होते हैं। उसमें भी अगर राठवा मिला तो ही वह सही माना जायेगा अन्यथा उस व्यक्ति को जनजाति प्रमाणपत्र नहीं मिलेगा। अगर किसी के पूर्वज स्कूल नहीं गए तो क्या उन्हें गैर-आदिवासी घोषित कर दिया जाएगा?

ऐसा नहीं है कि सिर्फ राठवा ही इस समस्या का सामना कर रहे हैं। इसी क्षेत्र में नायक और धानका जनजातियां भी रेवेन्यू रिकॉर्ड में अपने नाम के कारण जाति पहचान के लिए संघर्ष कर रही हैं। राठवा, मध्य प्रदेश में भिलाला जनजाति की एक उपजाति है, जहां ताड़ावाला, बामनिया और जमोरिया जैसी सौ से अधिक भिलाला उपजातियां मौजूद हैं। वे भी अपने राजस्व रिकॉर्ड में हाइफ़नेटेड उपनामों का उपयोग करते हैं, लेकिन उन्हें उनकी राज्य सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त है। फिर गुजरात सरकार जातिगत पहचान की इस जटिलता पर विचार क्यों नहीं करती है?

2022 में, राज्य सरकार ने एक नया परिपत्र निकाला जिसमें राठवा अनुसूचित जनजाति के तहत अपना उपनाम कोली-राठवा और राठवा-कोली लिखने वालों को मान्यता देने की बात कही गई थी। ऐसा इसीलिए किया गया ताकि उनके रास्ते में आने वाली बाधाएं को दूर हों और शिक्षा के संबंध में राठवा समुदाय को अनुसूचित जनजाति को मिलने वाले लाभ प्राप्त हों। लेकिन रेवेन्यू रिकॉर्ड में राठवा उपनाम अभी भी निर्णायक मानदंड है। साथ ही, कोली-राठवा या राठवा-कोली वाले किसी भी व्यक्ति को राजस्व रिकॉर्ड और संस्कृति, परंपराओं, धार्मिक मान्यताओं जैसे अन्य साक्ष्यों का आवेदक द्वारा दायर हलफनामे के अलावा, मूर्तियां, त्यौहार, पहनावा, बोली और विवाह इत्यादि के सत्यापन करने के बाद ही होगा।

ये लड़ाई कब ख़त्म होगी? अगर सर्कुलर बदलता है या कोई हमारी पहचान पर सवाल उठाते हुए मुकदमा दायर करता है तो क्या हमें फिर से संघर्ष करना होगा? यह हमारी जनजाति का डर और चिंता है।

सेजल राठवा एक स्वतंत्र पत्रकार हैं और गुजरात के छोटाउदेपुर जिले में रहती हैं।

इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें

अधिक जानें: जानें कैसे स्किल डेवलपमेंट कार्यक्रमों पर जातिगत पक्षपात का असर पड़ता है।

अधिक करें: लेखक के काम के बारे में विस्तार से जानने और उन्हें अपना समर्थन देने के लिए उनसे [email protected] पर संपर्क करें।

दिल्ली के सरकारी स्कूलों में हुए उद्यमिता शिक्षा के प्रयोग से क्या पता चलता है?

पूरी दुनिया में टिकाऊ आर्थिक विकास के लिए उद्यमशीलता और स्व-रोजगार के महत्व पर जोर दिया जा रहा है।

स्टार्ट-अप और सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यम (एमएसएमई) रोजगार के अवसरों को पैदा कर, क्षेत्रीय असमानताओं को दूर कर और विभिन्न समुदायों के लोगों के जीवन स्तर में सुधार लाते हुए देश की आर्थिक वृद्धि में अपना महत्वपूर्ण योगदान देते हैं। व्यापक आर्थिक अवसरों और जनसांख्यिकीय लाभांश की विशाल क्षमता को देखते हुए – 2030 तक भारत में कामकाजी लोगों की कुल संख्या 104 करोड़ होने का अनुमान है – भारत सरकार मेक इन इंडिया और स्टार्टअप इंडिया जैसे कार्यक्रमों के जरिए उद्यमिता पर जोर दे रही है। हालांकि, अगर कामकाजी आबादी में उद्यमशीलता कौशल और महत्वाकांक्षाओं की कमी है तो ऐसे में इस तरह के प्रयासों के कम पड़ने की संभावना है। इसलिए, इस बात की तत्काल आवश्यकता है कि भारत की आबादी को ‘उद्यमिता के लिए तैयार’ किया जाए।

एक आंकड़े के मुताबिक, भारत में स्नातक छात्रों के नामांकन की दर लगभग 25–28 फीसद है। इसका मतलब यह है कि प्रत्येक वर्ष, हायर सेकंडरी की पढ़ाई पूरी करने वाले लगभग तीन चौथाई छात्र उच्च शिक्षा के लिए अपना नामांकन नहीं करवाते हैं और इसके बदले उनकी रुचि श्रम बाज़ार में प्रवेश करने में होती है। इनमें से अधिकांश छात्रों के पास रोजगार योग्य कौशल नहीं होता है और कुछ में बुनियादी कौशल का भी अभाव होता है। देश में युवा बेरोजगारी दर 25 प्रतिशत के आसपास है।

भारत की जनसंख्या के इस विशाल आकार को देखते हुए, स्कूलों से अपनी पढ़ाई पूरी करने वाले युवाओं को रोजगार की तलाश करने और स्वयं रोजगार पैदा करने के लिए उन्हें विभिन्न प्रकार के कौशल प्रशिक्षण देने की जरूरत है। यदि विद्यालय से ही युवाओं को उद्यमिता शिक्षा दी जाए तो यह भारतीय समाज के लिए मूल्यवान साबित होगा।

शुरुआती स्तर पर ही उद्यमिता सिखाने के प्रयोग

वर्तमान में, भारत में उद्यमिता की औपचारिक शिक्षा को बीए और एमए के स्तरों पर और केवल तकनीकी और प्रबंधन संस्थानों में ही शामिल किया गया है। ज्यादातर मामलों में, इन पाठ्यक्रमों को पढ़ाने के लिए शिक्षण के पारंपरिक तरीकों का ही प्रयोग किया जाता है और इसके लिए छात्रों को सक्रिय रूप से इसमें शामिल होने की जरूरत नहीं होती है। इस प्रथा पर सवाल उठाते हुए कि उद्यमिता शिक्षा केवल कॉलेज में पढ़ रहे छात्रों के लिए है, दिल्ली सरकार के स्कूलों में कक्षा 9-12 के लिए उद्यमिता मानसिकता पाठ्यक्रम (ईएमसी) शुरू किया गया था। इस पहल का मूल विचार यह था कि, स्कूल में अनुभव आधारित शिक्षा के जरिए बच्चों में उद्यमशीलता की क्षमताओं और मानसिकता का विकास न केवल रचनात्मकता, नवाचार और कुछ नया बनाने या किसी सामाजिक समस्या को हल करने के जुनून को प्रेरित करेगा, बल्कि इससे छात्रों को सही करियर चुनने में भी सुविधा मिलेगी।

साल 2021 में, पाठ्यक्रम के अनुभावनात्मक घटक को और अधिक बढ़ाने के लिए बिजनेस ब्लास्टर्स नाम के एक बड़े पैमाने वाले कार्यक्रम की घोषणा की गई थी। इसके तहत कक्षा 11 और 12 के छात्रों को ऐसे बिज़नेस आइडियाज पर काम करना होगा जिससे लाभ मिल सके/या सामाजिक प्रभाव पैदा किया जा सके।

कार्यक्रम को उद्यमिता के लिए आवश्यक जागरूकता और कौशल निर्माण करने के लिए डिज़ाइन किया गया था, जिसमें व्यावसायिक कौशल, जिज्ञासा, सहयोग, संचार और विफलता के डर पर काबू पाना शामिल है। 10 छात्रों की प्रत्येक टीम को 2,000 रुपये तक की प्रारंभिक पूंजी आवंटित की गई थी। छात्रों के इन समूहों को ऐसे व्यावसायिक विचारों लाने के लिए कहा गया जो उपयोगी, व्यावहारिक, लाभ कमाने वाले हों, या जो सामाजिक प्रभाव पैदा करते हों और जिनमें विकास की संभावना हो। हर टीम को अपने व्यावसायिक विचार को अंतिम रूप से निवेशकों के सामने पेश करने से पहले उसमें सुधार करने की सलाह दी गई। छह महीने की अवधि वाले इस कार्यक्रम में लगभग तीन लाख छात्रों, 1000 स्कूल नेताओं या प्रधानाध्यापकों, 10,000 से अधिक शिक्षकों, 1000 बिज़नेस कोच और मेंटर और शिक्षा विभाग के विशेष कार्य बल (स्पेशल टास्क फ़ोर्स) को शामिल किया गया था। दिल्ली के शिक्षा मंत्री ने व्यक्तिगत रूप से इस कार्यक्रम की देखरेख की थी। चूंकि यह अपने तरह की एक नई पहल थी, इस कार्यक्रम के दौरान हमने अनुभवात्मक घटक के साथ शिक्षाशास्त्र और उद्यमशीलता शिक्षा के कार्यान्वयन के संबंध में बहुत कुछ सीखा। यहां हम अपने कुछ खास अनुभवों के बारे में बता रहे हैं।

कला की शिक्षा में स्कूल की कुछ ड़कियां_सरकारी स्कूलों में उद्यमिता
इस बात की तत्काल आवश्यकता है कि भारत की आबादी को ‘उद्यमिता के लिए तैयार’ किया जाए। | चित्र साभार: प्लानेटकास्ट मीडिया सर्विसेज लिमिटेड

1. इससे करियर के विकल्प खुलते हैं

अनुभवात्मक उद्यमिता पर शुरू किया गया यह बड़े पैमाने का कार्यक्रम वास्तविक जीवन में करियर चुनने में मदद करने वाली प्रयोगशाला साबित हुआ। इससे छात्रों को अपने परिवेश के प्रति अधिक चौकस और जागरूक बनने में मदद मिली, जिसके परिणामस्वरूप उनके अंदर संभावित अवसरों और संभावनाओं के प्रति जिज्ञासा और आलोचनात्मक सोच की भावना विकसित हुई। छात्रों का कहना था कि उन्हें यह जानकर खुशी हुई कि वे न केवल अपने पर्यावरण की समस्याओं को सुलझा सकते थे बल्कि इस काम को करते हुए अपनी आजीविका भी कमा सकते थे।

दिल्ली के सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले ज्यादातर छात्र निम्न सामाजिक-आर्थिक परिवेश से आते हैं। इन छात्रों के परिवारों में उनके माता/पिता ही मुख्य रूप से कमाते हैं जो सहायक, सफ़ाईकर्मी, मैकेनिक होते हैं, या फिर क्लेरिकल काम करते हैं। अपनी आर्थिक परिस्थिति को स्वीकार करते हुए, इन छात्रों को अपने परिवारों का सहयोग करने के लिए जल्द से जल्द (स्कूल की पढ़ाई खत्म होने के तुरंत बाद) श्रम बाजारों में प्रवेश करने की जरूरत होती है। इसके कारण उनके पास उच्च शिक्षा के सीमित अवसर रह जाते हैं।

बिजनेस ब्लास्टर्स कार्यक्रम के कारण उन्हें स्कूल समाप्त होने के बाद उद्यमिता को एक कानूनी और बेहतर करियर विकल्प के रूप में देखने में मदद मिली।

2. यह रोजगार योग्यता कौशल और आत्म-प्रभावकारिता को बढ़ाने में मदद करता है

छात्रों के साथ हमारी बातचीत से हमें पता चला कि व्यवसाय चलाने की प्रक्रिया में प्राप्त कौशल और योग्यताएं, परिणाम की परवाह किए बिना एक स्थायी प्रभाव पैदा कर सकती हैं।

विचारों को सोचने, प्रतिक्रिया लेने, विचारों को बेहतर बनाने, टीम के साथ काम करने, पिच तैयार करने, उत्पाद का निर्माण करने और इसे बेचने की गहन व्यावहारिक प्रक्रिया के दौरान छात्रों को अपनी ताकतों, कमज़ोरियों, बढ़े हुए आत्मविश्वास और बेहतर हुई कार्यक्षमता का ज्ञान हुआ। साथ ही उन्होंने जोखिम उठाना सीखा और अपने विचारों को प्रभावी तरीक़े से रखने और समस्याओं का समाधान करने में सक्षम हुए।

कक्षा में सीखने और मॉक गतिविधियों में भाग लेने से उन्हें इस तरह के कौशल विकसित करने में मदद नहीं मिलती। ऐसे छात्र जो टीम लीडर की भूमिका में थे, उन्होंने यह भी बताया कि, पहली बार उन्हें समूह में मिलकर (टीमवर्क) और सहयोग की भावना के साथ काम करने का महत्व समझ में आया। उनका यह भी कहना था कि इसके अलावा प्रक्रिया के दौरान उन्होंने योजना और क्रियान्वयन के दौरान चुनौतियों का सामना करना और असफलताओं से निपटने के तरीके को भी समझा। अनुभवात्मक शिक्षा ने शिक्षण को अधिकांश छात्रों के लिए अपेक्षाकृत अधिक प्रासंगिक और वास्तविक बना दिया है।

3. इससे हितधारकों की मानसिकता में बदलाव आता है

कार्यक्रम में शामिल बिज़नेस कोच, शिक्षक और अफ़सरों ने बताया कि भाग लेने वाले छात्रों को अपने व्यवसायों का निर्माण करते और उसकी ज़िम्मेदारी उठाते हुए देखकर उन्हें यह बात समझ में आई कि इन छात्रों में भी – उनके अपने बच्चों की तरह ही – क्षमता है। कार्यक्रम में शामिल विभिन्न हितधारकों ने हमसे साझा किया कि छात्र तब और अधिक बेहतर स्थिति में आ गये जब उन्हें प्रदान की जाने वाली सहायता को दान और सशक्तिकरण के दायरे से दूर कर दिया गया। इसकी बजाय, ऐसे अवसरों पर ध्यान केंद्रित करना बेहतर होता है जो आमतौर पर छात्रों को उपलब्ध नहीं होते हैं।

बड़े पैमाने पर एक नई तरह परियोजना का संचालन करना

परियोजना की समयबद्ध प्रकृति, पहली बार लागू किए जाने के कारण होने वाली अनिश्चितता, और इसमें शामिल नाबालिगों की सुरक्षा की चिंताओं से हमें नए विचारों के बड़े पैमाने पर परियोजना प्रबंधन के बारे में सीखने में मदद मिली। कार्यक्रम के संचालन के तरीके के हमारे विश्लेषण के आधार पर, यह स्पष्ट था कि जहां नीतिनिर्माता दृष्टिकोण प्रदान कर सकते हैं, वहीं इस दृष्टिकोण को क्रियान्वित करने के लिए सहयोग और समर्पण की भावना से काम करने वाले लोगों की एक टीम की आवश्यकता होती है। परियोजन के निम्नलिखित दृष्टिकोणों से काम कर रही टीम (ऑन-ग्राउंड टीम) को लाभ मिला:

 1. सख्त समयसीमा

परियोजन को लागू करने की ज़िम्मेदारी जिन लोगों पर थी, उन्होंने साझा किया कि उन्हें प्रक्रिया के दौरान कड़ी निगरानी और समय सीमा का विचार पसंद आया। इससे उन्हें ऐसे कामों को करने में मदद मिली जो उनकी ज़िम्मेदारी और विशेषज्ञता से बाहर के दायरे के थे। उन्होंने यह भी कहा कि संभव है कि समयसीमा की अनुपस्थिति में, टीम का प्रदर्शन इतना अच्छा नहीं होता।

2. स्वायत्ता

उन्होंने आगे स्वीकार किया कि बड़े पैमाने की परियोजना को क्रियान्वित करने की चुनौती ने उन्हें कुछ नया करने और काम पूरा करने के लिए अपने स्वयं के संसाधन खोजने के लिए प्रेरित किया। यह न केवल निगरानी के कारण हुआ, बल्कि शीर्ष टीम द्वारा विभिन्न स्तरों पर ज़मीन पर काम कर रहे (ऑन-ग्राउंड) टीमों को दी गई परिचालन स्वायत्तता (स्थितिजन्य और परियोजना बाधाओं के भीतर) भी एक कारक था, जिसके कारण परियोजना का सफल कार्यान्वयन संभव हो सका। स्कूल टीमों ने अपने स्कूल की छात्र टीमों की इस यात्राओं को आकार देने में मिली स्वतंत्रता की भी सराहना की।

3. साझा सबक़

स्कूलों में चिंताओं और समाधानों को साझा करने में सक्षम होने से, सलाहकारों को ढूंढने और छात्र सुरक्षा सुनिश्चित करने जैसे जटिल मुद्दों के लिए जल्दी से सीखना और समाधान ढूंढना संभव हो गया है।

ना तो सभी समस्याओं की परिकल्पना केंद्रीय टीम द्वारा की जा सकी और ना ही कार्यान्वयन टीमों के भीतर ही सभी समस्याओं का हल मिल सका। सभी दिशाओं में होने वाले मुक्त संवाद से परियोजन को खत्म करने और रास्ते में आने वाली चुनौतियों का सामना करने में मदद मिली।

हमारे सामने आई प्रमुख चुनौतियों में से एक व्यावसायिक प्रशिक्षकों, निवेशकों और अन्य लोगों के नेटवर्क से संबंधित थी जिन्होंने छात्रों के लिए एक सहायक वातावरण बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

कई स्थानीय उद्यमी और बीबीए/एमबीए छात्र निःशुल्क आधार पर व्यावसायिक प्रशिक्षकों की भूमिका निभाने के लिए तैयार हुए। हालांकि, पीछे मुड़कर देखने पर हमें लगता है कि काम की निस्वार्थ प्रकृति पर दोबारा सोचने की और सलाहकारों के बेहतर प्रबंधन की जरूरत है क्योंकि कार्यक्रम के दौरान उन्हें विभिन्न प्रकार की चुनौतियों का सामना करना पड़ा।

मेंटर और कोच को विभिन्न टीमों से मिलने के लिए समय निकालने और यात्रा करने में परेशानी का सामना करना पड़ा और अंत में उनमें से कइयों ने स्वयं को इस परियोजना से बाहर कर लिया। कोचों को थोड़ी बहुत छूट मिली थी कि वे अपने सत्रों को अपने अनुसार निर्धारित कर सकें, क्योंकि छात्रों (जो नाबालिग हैं) के साथ बैठकें स्कूल के घंटों के दौरान स्कूल शिक्षक की उपस्थिति में आयोजित की जानी थीं।

मेंटरशिप के लिए किसी भी तरह का शुल्क नहीं है इसलिए छात्रों के साथ हर महीने प्रति सप्ताह दो से तीन घंटे बिताने वाले बिजनेस प्रशिक्षकों को प्रोत्साहित करने के लिए नए तरीके खोजने की जरूरत है। दूरी और यात्रा के मुद्दों पर काम करने के तरीके के रूप में निरंतर समर्थन देने के उद्देश्य से ग्रुप चैट और वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग का उपयोग किया जा सकता है। लेकिन भविष्य में बजट बनाते समय कुछ आमने-सामने की बैठकों को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए।

जैसे-जैसे कार्यक्रम आगे बढ़ेगा, व्यावसायिक प्रशिक्षकों की दीर्घकालिक संलग्नता के लिए, उन्हें समर्थन और पुरस्कृत करने के तरीके निकालना अधिक व्यावहारिक बन जाएगा। इसके अतिरिक्त, स्कूली शिक्षकों-जिनमें से कई पहली बार व्यावसायिक विचारों पर छात्रों को सलाह दे रहे थे-को प्रशिक्षित करने की आवश्यकता है।

बिजनेस ब्लास्टर्स कार्यक्रम जैसे और प्रयोगों के लिए, स्कूल प्रणाली और नौकरशाही की संपूर्ण भागीदारी पर बहुत अधिक जोर नहीं दिया जा सकता है।उच्च शिक्षा के वर्तमान संकट और बेरोजगारी के उच्च दर को ध्यान में रखते हुए, हमारा मानना ​​है कि ऐसे प्रयोग अनुकरणीय हैं। प्रयोग की सफलता का एक व्यवस्थित विश्लेषण ऐसे कार्यक्रम के अगले संस्करण के बेहतर कार्यान्वयन में मदद करेगा।

इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें

अधिक जानें

अलीपुरद्वार: नदियों में पत्थर और रेत खनन से बढ़ता पर्यावरण संकट

पश्चिम बंगाल के अलीपुरद्वार जिले की नदियां इलाक़े के एक तबके के लिए उनकी आजीविका का मुख्य स्त्रोत बन गई हैं। यहां बहुत से लोग मज़दूरी के साथ-साथ पत्थर बीनने और रेत इकट्ठा करने का काम करते हैं। 

इकट्ठा किए गए रेत और पत्थरों को ट्रैक्टरों में भरकर क्रशर तक ले जाया जाता है। यहां पत्थरों को और तोड़कर उन्हें निर्माण कार्य में इस्तेमाल के लायक़ बनाया जाता है। इसके बाद, क्रशर मालिक और कारोबार से जुड़े अन्य लोग इसे आगे बेच देते हैं। आगे इनका इस्तेमाल कंस्ट्रक्शन के काम या बाहर सप्लाई करने के लिए होता है।

इस काम को करने वाले कुछ मजदूर चाय बागान में भी काम करते हैं। लेकिन बाग़ानों में नियमित रूप से रोज़गार नहीं मिलता है या अक्सर बाग़ान ही बंद हो जाते हैं। ऐसे में लोगों के पास रेत-पत्थर का यह काम करने या फिर पलायन कर जाने के ही विकल्प बचते हैं। 

स्थानीय लोग, इसे लेकर एक अलग ही पक्ष सामने लाते हैं। उनका कहना है कि नदियों से इस तरह से पत्थर निकाले जाने से नदियों की अवरोधक क्षमता कम होती जा रही है और गहराई बढ़ती जा रही है। इसके चलते, भूमि का कटाव भी बढ़ रहा है। साथ ही, जिले के भूटान की सीमा से लगे होने के कारण वहां से नदियों में प्रदूषित पानी आ रहा है, जिससे प्रदूषण का खतरा भी बढ़ रहा है। 

राहुल सिंह एक स्वतंत्र पत्रकार हैं और झारखंड में रहते हैं। वे पूर्वी राज्यों में चल रही गतिविधियों, खासकर पर्यावरण व ग्रामीण विषयों पर लिखते हैं।

इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़े

अधिक जानें: जानें असम के नदी-द्वीप माजुली में बाढ़, भूमि कटाव और पुनर्वास के संघर्ष के बारे में। 

अधिक करें: लेखक के काम को विस्तार से जानने और अपना समर्थन देने के लिए उनसे [email protected] पर सम्पर्क करें।

लोगों की सामूहिक स्मृति से राजस्थान में जंगलों की सुरक्षा हो रही है

अलवाव के एक पवित्र वन के एक जलाशय में भैंसें_राजस्थान के ओरण
जब से ओरान का निर्माण हुआ है, तब से ही समुदाय के लोग पूरी ताकत से इसकी रक्षा कर रहे हैं। | चित्र साभार: इंडिया डेवलपमेंट रिव्यू

राजस्थान के अलवर जिले का पशुपालक गुज्जर समुदाय अपने मवेशियों को चराने के लिए और शहद, जड़ी-बूटियां, फल और जंगल से मिलने वाले अन्य छोटे-मोटे वन उत्पादों के लिए ओरणों (पवित्र वन) का उपयोग करता है।

गुज्जरवास गांव में देवबानी (स्थानीय देवता देवनारायण के नाम पर) नाम का एक ऐसा ही ओरण है जिसमें पीलू, जंगली तुलसी, नीम और गिलोय जैसे देशी पेड़ और जड़ी-बूटियां पाई जाती हैं। इन पौधों और जड़ी-बूटियों का उपयोग पारंपरिक चिकित्सा में ल्यूकोरिया और मलेरिया जैसी बीमारियों के इलाज के लिए शरीर की प्रतिरक्षा को बढ़ाने के लिए किया जाता है।

किसान अपनी भैंसों को सुबह-सुबह ओरण में लेकर जाते हैं और सूर्यास्त तक वहीं रहते हैं। दिन भर उनकी भैसें वहां चरती हैं। खेती और पशुपालन का काम करने वाले जसराम गुज्जर ने हमें वह जगह दिखाई जहां उनकी पत्नी हर दिन उनके लिए दोपहर का खाना लेकर आती हैं। वह अपनी पत्नी को उस जगह का स्थानीय नाम बताते हैं ताकि उन्हें ढूंढ़ने में आसानी हो, और वह हमेशा ही सही जगह पर पहुंच जाती हैं। ओरण के भीतर ही जगहों के कई प्रकार के विभाजन हैं जिनके बारे में केवल स्थानीय लोगों को ही याद है। यह बात अलग है कि किसी बाहर के व्यक्ति को पूरा ओरण एक जैसा ही दिखाई पड़ता है।

अलवर स्थित समाजसेवी संस्था क्रपाविस के संस्थापक अमन सिंह का कहना है कि समुदाय के लोग देवबानी को अपने देवता देवनारायण की पूजा का ही विस्तृत रूप मानते हैं, और यही कारण है कि वे इस ओरण को अपनी आजीविका के स्रोत से कहीं अधिक महत्व देते हैं। ‘स्थानीय लोग बताते हैं कि ओरण के निर्माण के समय विस्तृत अनुष्ठान हुआ था, गांव का प्रत्येक चरवाहा मिट्टी के बर्तन में गर्म दूध लाता था और उस बर्तन को अपने सिर पर रखकर उस भूमि की परिक्रमा करता था; बर्तनों से टपकने वाले दूध से ही देवबानी की सीमाओं को चिन्हित किया गया था।’

इस मानसिक मानचित्र से अतीत में समुदाय के लोगों को काफ़ी मदद मिली। एक बुजुर्ग पशुपालक चैतराम गुज्जर ने कई ऐसे उदाहरण दिये जिनमें उनकी स्मृति के कारण उन्हें वन विभाग और समुदाय के व्यक्तियों के अतिक्रमण का विरोध करने में मदद मिली। उन्होंने बताया कि, ‘कुछ साल पहले, वन विभाग के लोग ओरण में नर्सरी बनाना चाहते थे। उन्होंने हमारे समुदाय की जमीन पर नर्सरी बेड्स बनाने शुरू किए लेकिन गांव के लोगों ने एकजुट होकर उन्हें उखाड़ फेंका। हम जानते हैं कि कौन सा हिस्सा ओरण का है और कौन सा नहीं।’ आगे उन्होंने कहा कि, ‘हमारे समुदाय के लोगों ने भी इस ज़मीन पर खेती करने और घर बनाने की कोशिश की। लेकिन हर बार हम एकजुट होकर ओरण को नुक़सान से बचाने में कामयाब हुए हैं।’

अमन आगे कहते हैं कि, ‘समुदाय के सदस्यों ने अपनी ज़मीन को पहचाना और इस मामले को लेकर सरपंच और पटवारी के पास गये। उन्होंने रेवेन्यू के काग़ज़ात देखे और पाया कि समुदाय की सामूहिक स्मृति क़ानूनी दस्तावेज में दर्ज चिन्हों से मेल खाते हैं।’

जब से ओरान का निर्माण हुआ है, तब से समुदाय के लोगों ने पूरी ताक़त के साथ इसकी सुरक्षा की है। पिछले कुछ वर्षों में, ग्राम सभा ने यहां पेड़ों को नष्ट करने की कोशिश करने वाले लोगों के लिए कड़े जुर्माने का प्रावधान किया है। अब लकड़ी के एक टुकड़े को काटने वाले पर 101 रुपये और एक पेड़ को काटने पर 2,100 का जुर्माना है। इस तरह की घटनाओं की जानकारी देने वालों के लिए 501 रुपये के इनाम का भी प्रावधान है।

ओरणों की सुरक्षा में समुदाय की शक्ति पर जोर देते हुए, चैतराम कहते हैं, “पूरी बस्ती एक हो जाए तो क्या चले एक की?” (पूरे गांव की इच्छा के सामने एक व्यक्ति के लालच की क्या बिसात?)

जैसा कि आईडीआर को बताया गया।

जसराम गुज्जर ने इस लेख में अपना योगदान दिया है।

अमन सिंह कृषि एवं परिप्रेक्ष्य विकास संस्थान (क्रपाविस) के संस्थापक हैं। चैतराम गुज्जर राजस्थान में एक कृषि-पशुपालक हैं।

इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें

अधिक जानें: जानें कि कैसे ओडिशा के कई गांव एक जंगल की रक्षा के लिए एक साथ आए।

अधिक करें: लेखक के काम के बारे में विस्तार से जानने और उन्हें अपना समर्थन देने के लिए उनसे [email protected] पर संपर्क करें।

विकास सेक्टर में मजबूत फैसिलिटेटर बनने के आठ नुस्खे

सेवाओं को बेहतर बनाने में, विकास सेक्टर में काम करने वाले उन साथियों की भूमिका हमेशा अहम रही है जो ज़मीन पर काम करते हैं। लोगों तक कार्यक्रम की जानकारी पहुंचाने और उसका सही इस्तेमाल करने के तरीके बताने के दौरान ज़मीनी कार्यकर्ताओं के सामने कई चुनौतियां आती हैं। ऐसे साथियों के काम को आसान और बेहतर बनाने के लिए हम यहां पर फैसलिटेशन पर बात कर रहे हैं।

इस वीडियो सामग्री को तैयार करने में हमने विकास सेक्टर में काम करने वाले कुछ ऐसे साथियों से चर्चा की है जिनका फैसिलिटेशन में खासा अनुभव रहा है। और, उनसे समझा है कि अच्छा फैसिलिटेटर बनने के लिए आपको किस तरह की तैयारी, प्रेजेंटेशन या बाक़ी चीजें करने की जरूरत है।

इस सामग्री को तैयार करने के लिए हम इब्तिदा संस्था के अमरदीप, प्रथम से कुलदीप पुंडीर, जीवन रेखा परिषद संस्था से बिराज उपाध्याय और मंथन कोटड़ी संस्था से उम्मेद सिंह का विशेष आभार व्यक्त करते हैं।

अब चलिए, समझते हैं कि एक बेहतरीन फैसिलिटेटर कैसे बना जा सकता है। 

अधिक जानें

जब पीनी पड़े चाय पे चाय, फिर भी काम ना हो पाय!

कॉमिक पैनल जिसमें एक एनजीओ कार्यकर्ता सरकारी दफ़्तर में काम के लिए चक्कर काट रहीं है, पर काम की जगह उन्हें बस चाय पिलाई जा रही है_हल्का फुल्का
चित्र साभार: श्रुति रॉय

आपदा प्रबंधन, केरल और ओडिशा से सीखा जा सकता है

भारत ने, 2022 के साल में 314 दिन ऐसे देखे जब इसके अलग-अलग इलाकों में भारी बारिश, बाढ़ और भूस्खलन जैसे विध्वंसक मौसमी घटनाएं दर्ज की गईं। अनुमान है कि इस एक साल में, लगभग 20 लाख हेक्टेयर फसल भूमि और 4.2 लाख घर क्षतिग्रस्त हो गये। विश्व मौसम विज्ञान संगठन के एक विश्लेषण के अनुसार, 1970 से 2021 के बीच 573 जलवायु-संबंधी आपदाओं में लगभग 1,38,377 भारतीयों की मृत्यु हुई है – जो एशिया में दूसरी सबसे बड़ी संख्या है। ऐसी घटनाओं और मानवता पर इसके प्रभाव के स्पष्ट होने के साथ इन आपदाओं के लिए तैयारी और अनुकूल प्रणालियों का निर्माण आवश्यक होता जा रहा है। लेकिन जैसा कि हमने महामारी के दौरान देखा, स्वास्थ्य और सेवा वितरण सहित हमारी कई प्रणालियां इन चुनौतियों से लड़ने में सक्षम नहीं थीं।

हमारे पॉडकास्ट ऑन द कॉनट्रेरी बाय आईडीआर में, हमने केरल के पूर्व स्वास्थ्य मंत्री केके शैलजा और समाजसेवी संगठन ग्राम विकास की कार्यकारी निदेशक लिबी जॉनसन से बातचीत की। केके शैलजा को उनके नेतृत्व और कोविड-19 महामारी और केरल में नीपा वायरस के प्रकोप से निपटने के लिए राष्ट्रीय और वैश्विक स्तर पर पहचान मिली है। लिबी को जमीनी स्तर और नीतिगत कार्य तथा आपदा प्रबंधन में 25 वर्षों से अधिक का अनुभव है। उन्होंने 1999 के ओडिशा में आये सुपर चक्रवात के साथ-साथ 2004 हिंद महासागर में आई सुनामी के बाद ग्राम विकास की राहत, पुनर्वास और पुनर्निर्माण गतिविधियों में कॉर्डिनेटर की भूमिका निभाई थी। 

लिबी और शैलजा ने इस बातचीत में बताया है कि कैसे अलग-अलग राज्यों के मामले में उनका भूगोल और जनसांख्यिकी अलग तरह की चुनौतियां पैदा करती हैं। उन्होंने लचीलेपन के वास्तविक अर्थ और इसे हासिल करने के तरीकों, नागरिक समाज की भूमिका, और अज्ञात आपदाओं के लिए की जाने वाली तैयारी जैसे विषयों पर भी बात की है।

नीचे दिये गये सम्पादित ट्रांस्क्रिप्ट में आप कार्यक्रम के दोनों अतिथियों की बातचीत की एक झलक पा सकते हैं।

केरल एवं ओडिशा: आपदाओं का पुराना इतिहास 

लिबी जॉनसन: प्राकृतिक आपदाएं राज्य को [ओडिशा] को कई सालों से प्रभावित करती आ रही हैं, और पिछले पांच वर्षों से तो हमारे राज्य में वार्षिक आपदा घटनाएं – चक्रवात या बाढ़ – बहुत ज्यादा होने लगी हैं। साल 2021 में, [कोविड-19] के दौरान मध्यपूर्व और ओडिशा के तटीय इलाकों में एक चक्रवात आया था। इसलिए अंतिम कुछ साल हमारे लिए संघर्ष से भरे रहे। ओडिशा सरकार ने कुछ गंभीर, सशक्त प्रारंभिक चेतावनी प्रणालियां स्थापित की हैं और इसका एक फायदा चक्रवात और इसी तरह की आपदाओं के दौरान जानमाल के नुकसान को रोकना है। 1999 के महा चक्रवात के दौरान हुए अनुभवों की तुलना में यह उल्लेखनीय प्रगति है।

ओडिशा में शहरीकरण की दर भारत में सबसे कम है।

ओडिशा की 40 फीसद आबादी अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजातीय समुदायों से है। राज्य का लगभग दो तिहाई भूगोल पहाड़ी है जिसके बड़े हिस्से में जंगल है। बाकी का बचा एक तिहाई तटीय हिस्सा सघन आबादी वाला इलाका है और यहां विभिन्न व्यवसायों से जुड़े लोग रहते हैं। ओडिशा की जीएसडीपी का लगभग एक-तिहाई हिस्सा खनन और खनिज प्रसंस्करण उद्योगों से आता है। इसलिए, जंगल और जल जैसे प्राकृतिक संसाधनों पर रोज ही इसका प्रभाव पड़ रहा है। [इलाके में] पांच बड़े नदी बेसिन और वार्षिक बाढ़ वाले इलाके हैं। [राज्य में] शहरीकरण की दर भी भारत के अन्य राज्यों की तुलना में सबसे कम है, इसलिए यहां की अर्थव्यवस्था बहुत ही ग्रामीण और कृषि प्रधान है। लेकिन सकल राज्य उत्पाद (ग्रॉस स्टेट प्रोडक्ट) में कृषि का योगदान केवल 15–16 फ़ीसद है जिसके कारण प्रवासन की दर बहुत अधिक है।

ये सभी कारक मिलकर ओडिशा को अपेक्षाकृत असुरक्षित बना देते हैं। [उदाहरण के लिए, कोविड -19 के दौरान], निचले स्तर पर स्वास्थ्य सुविधाओं के अभाव के कारण राज्य वास्तव में तैयार नहीं था। उन्होंने पंचायतों की जिम्मेदारी बढ़ाकर इससे निपटने का प्रयास किया लेकिन ओडिशा में पंचायती राज व्यवस्था अभी भी अपनी प्रारंभिक अवस्था में है, जिसके कारण तेजी से प्रतिक्रिया देने में सक्षम नहीं है।

केके शैलजा: मुझे लगता है, केरल को भी ओडिशा जैसी ही स्थिति का सामना करना पड़ता है और यह भी बाढ़ और तूफ़ान के प्रति अत्यंत संवेदनशील है। भूभाग एक जैसे हैं – जंगलों से ढके पहाड़। साल 2018 और 2019 में राज्य में विनाशकारी बाढ़ आई था और हमने ओखी जैसे तूफान का सामना किया था।

सामाजिक-आर्थिक रूप से, केरल के लिए चीजें तुलनात्मक रूप से बेहतर हैंभूमि सुधार अधिनियम, संपूर्ण साक्षरता मिशन और विकेंद्रीकृत योजना जैसे सामाजिक सुधारों के कारण राज्य का मानव विकास सूचकांक ऊंचा है। भारत के अन्य राज्यों की तुलना में केरल में गरीबी दर भी सबसे कम है। लेकिन 860 प्रति वर्ग किलोमीटर, यानी यहां का जनसंख्या घनत्व बहुत अधिक है, जो महामारी के दौरान एक बड़ा खतरा बन गया था। जीवनशैली से जुड़ी बीमारियां – उच्च रक्तचाप, मधुमेह, कैंसर – भी बड़े पैमाने पर हैं और इस दौरान चिंता का कारण बन गई थीं।

बाढ़ के पानी से भरी सड़क पर चलते लोग_आपदा प्रबंधन
1970 से 2021 के बीच 573 जलवायु-संबंधी आपदाओं में लगभग 1,38,377 भारतीयों ने अपनी जानें गंवाई हैं। | चित्र साभार: रामकृष्ण आश्रम / सीसी बीवाय

आपदा की तैयारी में क्या-क्या शामिल होता है?

1. संकट से परे लचीलेपन का निर्माण

लिबी जॉनसन: 1999 के महा चक्रवात से ओडिशा ने जान को पहुंचने वाली हानि को रोकना सीखा। पिछले कुछ वर्षों में हुई किसी भी आपदा के कारण ओडिशा में होने वाली मौतों की संख्या दहाई में नहीं पहुंची है। जहां यह एक प्रशंसनीय बात है, वहीं किसी आपदा के समय की जाने वाली प्रतिक्रिया अभी भी बहुत ही अनौपचारिक और बिना किसी तैयारी के की जाने वाली प्रतिक्रिया है। तैयारी से जुड़े बहुत सारे काम होते हैं – प्रारंभिक चेतावनी प्रणालियां अपना काम करने लगती हैं, लोगों को चक्रवात आश्रयों में ले जाया जाता है, राष्ट्रीय आपदा प्रतिक्रिया बल (एनडीआरएफ) तुरंत बचाव और राहत कार्य शुरू कर देता है। चाहे हो वह तत्काल भोजन राहत हो या फिर आश्रय सहायता, सब कुछ में बहुत अधिक मनमानी है, [जो कि] सभी अनुभवों [राज्य के अनुभव] को देखते हुए आश्चर्यजनक है। और हम फिर भी इन सभी समस्याओं के लिए तकनीकी-प्रबंधकीय समाधानों (टेक्नो-मैनेजरियल सोल्यूशंस) में भरोसा करते हैं। (इस दृष्टिकोण) की अपनी सीमाएं हैं क्योंकि यह नागरिकों को केंद्र में नहीं रखता है।

लचीलापन लंबे समय में होने वाले विकास और किसी घटना के झटके को झेलने की नागरिकों की क्षमता है। [उदाहरण के लिए], लोगों ने संपत्ति के रूप में लंबे समय तक न टिकने वाले खाद्य पदार्थों का संग्रहण कर रखा हो, लेकिन उनके बैंक में [पर्याप्त] धन नहीं हो। इसके अलावा, जिस परिवार के पास बैंक बैलेंस है और जिसके पास नहीं है, उनके बीच का अंतर बहुत स्पष्ट है। इसलिए, हमें विकास की बुनियादी बातों पर लौटना होगा, और आपदाओं के इर्द-गिर्द इस आभास को दूर करना होगा जिसके कारण लोगों को महसूस होता है कि यह कुछ ऐसा है जो बहुत अलग है।

केके शैलजा: जब भी कोई दुर्घटना होती है हम तभी [लोगों] के बारे में सोचते हैं, और यह पर्याप्त नहीं है। दोबारा बेहतर व्यवस्था के निर्माण का मतलब यह बिलकुल नहीं है कि हम बाढ़ या किसी अन्य आपदा के बाद [उसी संरचना] को दोबारा तैयार करना – इसका मतलब होता है दोबारा ऐसी व्यवस्था बनाना कि लोग इस तरह की कठिनाइयों का सामना कर सकें।

2. योजना और प्रतिक्रिया के केंद्र में नागरिकों को रखना

लिबी जॉनसन: एक नागरिक के रूप में [जब मैं इसके बारे में सोचती हूं] मेरी सरकार ने मेरे साथ कैसा व्यवहार किया है तो मुझे महसूस होता है कि मैंने कक्षा 2 के बच्चे जैसा कुछ गलत किया है और सरकार एक प्रधानाध्यापक है। चिंता और डर का एक भाव निरंतर बना रहता है। राज्य और नागरिकों को दो व्यवस्कों के रूप में एक दूसरे से व्यवहार करना चाहिए; लेकिन ऐसा नहीं हो रहा है। हमारे देश और विशेष रूप से ओडिशा में, यह एक [अपेक्षाकृत] अभिभावक और बच्चे के बीच होने वाले रिश्ते के जैसा है। एक नागरिक का अपने राज्य में विश्वास का स्तर क्या है, जो पंचायत सरपंच, जिला कलेक्टर या मुख्यमंत्री के रूप में प्रकट होता है?

मुझे लगता है कि ओडिशा की एक बड़ी आबादी को अपने मुख्य मंत्री और उनके फ़ैसलों पर बहुत अधिक भरोसा है। लेकिन जिला स्तर पर इस भरोसे की कमी है। हो सकता है कि पंचायत स्तर पर, एक सरपंच बहुत कुछ करना चाहता हो लेकिन उसके हाथ बंधे हुए हैं क्योंकि केरल में जिस तरह का विकेंद्रीकरण हुआ है, ओडिशा में नहीं हुआ है। कोविड -19 के दौरान हुई पुलिसिंग विशेष रूप से [अधिकारियों में नागरिकों का विश्वास बहाल करने में] सहायक नहीं रही है। इसलिए (जबकि) हम नागरिक को केंद्र में रखने के साथ ही, (हमें यह सुनिश्चित करने की आवश्यकता है कि हम) नागरिक के साथ एक वयस्क के रूप में व्यवहार कर रहे हैं।

3. विकेंद्रीकृत प्रणालियों पर ध्यान केंद्रित करना

लिबी जॉनसन: स्थानीय स्तर के मुद्दों को प्रभावी ढंग से प्रबंधित करने के उल्लेखनीय उदाहरण के रूप में केरल, कर्नाटक और पश्चिम बंगाल को लिया जा सकता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि इन राज्यों ने संस्थागत डिजाइन और निर्णय लेने के लिए सब्सिडियरी का सिद्धांत का पालन किया, जिसमें विकेंद्रीकरण महत्वपूर्ण था। उन्होंने तय किया कि आवश्यक निर्णय लेने का अधिकार कलेक्टर की जगह पंचायत के पास होना चाहिए। अब हम केरल में विकेंद्रीकृत योजना अभियान की रजत जयंती मना रहे हैं। साल 1996 में, जब केरल सरकार ने पंचायतों को वित्तीय रूप से सशक्त बनाने का निर्णय लिया, तो बहुत से लोगों ने इसे पैसे की बर्बादी का नाम दिया था। लेकिन [कहना उचित होगा] ऐसा नहीं है।

4. तकनीक को समावेशी तरीके से शामिल करना

लिबी जॉनसन: हमें अपनी योजनाओं में तकनीक को शामिल करने की जरूरत है। हालांकि, तकनीक से जुड़े ढेर सारे नवाचार अब भी औसत नागरिक की पहुंच से दूर हैं; और उन्हें सामने लाने की जरूरत है। उदाहरण के लिए, आप एक किसान और उसकी जमीन के लिए मौसम के पूर्वानुमानों को कैसे प्रासंगिक बनाते हैं? हमें जिला-स्तर और प्रखंड स्तर के पूर्वानुमानों से जुड़ी जानकारी मिलती है, जिससे छोटे किसानों को कुछ खास लाभ नहीं मिल पाता। हम इसे किस तरह से सामने लेकर आएं ताकि अंतिम आदमी तक इसका लाभ पहुंच सके?

5. प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाओं और सूचना प्रणाली को मजबूत करना

लिबी जॉनसन: आज हम सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली में जो कुछ भी कर रहे हैं उसे [हमें पूरी तरह] बदलने की जरूरत है। विशेष रूप से ओडिशा में, जहां तीसरे स्तर की विशिष्ट देखभाल प्रणाली के निर्माण पर ध्यान केंद्रित किया गया है और हम प्राथमिक स्वास्थ्य [व्यवस्थाओं] को नजरअन्दाज कर रहे हैं। चाहे यह एक प्राकृतिक आपदा हो या फिर मलेरिया जैसी कोई साधारण सी बीमारी, जो कि अब वापस जंगलों में लौट आई है, हम इसकी जिम्मेदारी आशा और एएनएम कार्यकर्ताओं पर नहीं छोड़ सकते हैं। और ऐसा लगता है कि प्राथमिक स्वास्थ्य समस्याओं को [अपने दम पर] हल करने के लिए हम अपनी आशा दीदियों और एएनएम दीदियों पर बहुत अधिक भरोसा करते हैं।

केके शैलजा: महामारी से हमने कई सबक सीखे, [जिनमें से एक] यह है कि इस प्रकार की आपात स्थितियों से निपटने के लिए हमें प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों को तैयार करना होगा। हमने अपनी प्रयोगशालाओं को सक्षम बनाना शुरू कर दिया है ताकि वे शुरुआत में ही बीमारियों की पहचान कर सकें, इसके साथ ही हमने दूसरे और तीसरे-स्तर के अस्पतालों को भी बेहतर बनाना शुरू कर दिया। सरकार के पास अब अच्छे ऑपरेशन थिएटर और वार्ड हैं, जिनमें बिस्तरों की संख्या भी बढ़ी है।

[हमने यह भी सीखा कि] महामारी के लिए, हमें [स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओं] को बीमारियों का शीघ्र पता लगाने के लिए प्रशिक्षित करना चाहिए। हम लोगों को महामारियों और बीमारियों के बारे में जागरूक कर रहे हैं। [कोविड-19 के दौरान], हमने ‘मेरा स्वास्थ्य मेरी जिम्मेदारी’ वाले नारे का [उपयोग] शुरू कर दिया था। हम लोगों को सिखा रहे हैं कि वे महामारी और संक्रामक रोगों के साथ कैसे अपना जीवन जी सकते हैं।

6. नागरिक समाज संगठनों के साथ साझेदारी विकसित करना

लिबी जॉनसन: एक समय ऐसा था जब ओडिशा में समाजसेवी संस्थाएं आपदा राहत, या पुनर्वास और पुनर्निर्माण सहित अंतिम व्यक्ति तक सामाजिक कल्याण के लाभ को पहुंचाने वाले सबसे सशक्त एजेंट थे। मुझे याद है कि साल 1999 में, महा चक्रवात के बाद ग्राम विकास ने चार सालों तक पुनर्वास और पुनर्निर्माण पर काम किया था। इसमें राज्य की भूमिका न्यूनतम थी। लेकिन 2013 में आए चक्रवात फेलिन के बाद ऐसा नहीं था, जब अनुदान देने वालों ने सामाजिक-तकनीक साझेदार के रूप में सरकार के साथ मिलकर दूसरे स्तर की भूमिका निभाई और पुनर्निर्माण में सरकार की भूमिका ही मुख्य थी। हालांकि, साल 2018 में तितली चक्रवात या फिर 2019 में आये फानी चक्रवात के बाद, सरकार को तकनीक या सामाजिक भागीदार के रूप में [नागरिक समाज] की आवश्यकता नहीं थी क्योंकि उन्हें भरोसा था कि वे अपने दम पर इससे निपट सकते हैं।

ओडिशा को अपनी पंचायत प्रणालियों को मजबूत करने के लिए भी संगठनों की आवश्यकता है।

राज्य अब परिवारों को वित्तीय सहायता प्रदान कर रहा है, और लोग आवास योजना (सबऑप्टीमल हैबिटैट प्लानिंग) का विकल्प चुन रहे हैं। पर्यावास योजना या हैबिटैट प्लानिंग, यानी बड़े पर्यावरण के हिस्से के रूप में और सार्वजनिक सामान्य स्थानों को ध्यान में रखते हुए व्यक्तिगत घरों को डिजाइन करना, पूरी तरह से नियंत्रण से बाहर हो गई है। ऐसा पूरे ओडिशा में [हो रहा है] कि आपदाओं के बाद, लोगों के घर बेहतर ढंग से बनाए जा रहे हैं, लेकिन आवास के मामले में ऐसा नहीं है। इसके लिए विशिष्ट कौशल और तकनीकी अभिविन्यास की आवश्यकता होती है, जो समाजसेवी संस्थाएं और नागरिक समाज संगठन अपने साथ लेकर आते हैं।

ओडिशा को अपनी पंचायत [प्रणालियों] को मजबूत करने के लिए भी संगठनों की आवश्यकता है, और ऐसा सरपंचों को अधिक शक्ति देकर नहीं किया जा सकता है। [पंचायत मज़बूत तब बनती है] जब नागरिक-पंचायत के बीच का संबंध मज़बूत हो। स्थानों के व्यापक प्रसार और दूरस्थता, और लोगों की शिक्षा [स्तरों] में व्यापक विविधता को देखते हुए, [राज्य] को एक उत्प्रेरक की आवश्यकता है – [इसे] सुविधा प्रदान करने वाले संगठनों की आवश्यकता है। और दुर्भाग्य से, केरल और कुछ अन्य राज्यों के विपरीत, ओडिशा में साक्षरता मिशन या सामाजिक सुधार आंदोलनों जैसे जन आंदोलनों का कोई इतिहास नहीं है। इसलिए, ऐसा करने के लिए हमें मौजूदा नागरिक समाज संगठनों के पास वापस जाना होगा। और साझेदारी की यही वह प्रकृति है जिसे हमें शामिल करने की जरूरत है।

आप इस लिंक पर जाकर इस बातचीत को पूरा सुन सकते हैं।

इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें

अधिक जानें:

राजस्थान में ऊंटों और रायका समुदाय पर आया संकट

रेगिस्तान मे ऊंटों के झुंड मे खड़े व्यक्ति _राजस्थान के ऊंट
राजस्थान के रायकों की कई पीढ़ियां ऊंट चराने का काम ही करती आई हैं। | चित्र साभार: अंसा ऑगस्टीन

बीकानेर जिले के ग्रांधी गांव में गनाराम रायका अपने 300 ऊंटों के बेड़े के साथ रहते हैं। राजस्थान के रायकों की कई पीढ़ियां ऊंट चराने वाली रही हैं। लेकिन, पिछले कुछ वर्षों में इसमें बदलाव आया है।

साल 2015 में राज्य के बाहर ऊंटों की बिक्री और निर्यात पर प्रतिबंध लगाने वाला एक कानून लागू किया गया। इस कानून के कारण स्थानीय ऊंट व्यापार में काफी गिरावट आई। राज्य में इस कानून के लागू होने के बाद से ऊंट व्यापारियों एवं चरवाहों के पास अपने मवेशियों की विशेष देखभाल का कोई कारण नहीं रह गया है। नतीजतन, कई व्यापारी और चरवाहे अपने मवेशियों को खुला छोड़ने पर मजबूर हो गये हैं, और कुछ ने तो अपने ऊंटों को यूं ही जंगल में भटकने के लिए छोड़ दिया है।

चूंकि ऊंट अब उनके लिए लाभदायक नहीं रह गये हैं, इसलिए गनाराम के गांव के कई अन्य रायका परिवारों ने आजीविका के लिए दूसरे पेशे चुन लिए हैं।

गनाराम स्वयं भी खेती करते हैं, लेकिन उनका प्राथमिक पेशा आज भी ऊंट चराना ही है, क्योंकि ऊंट उनकी संस्कृति और मान्यताओं का एक महत्वपूर्ण पहलू हैं। उनका कहना है इन पशुओं में उन्हें भगवान शिव दिखाई पड़ते हैं। अपने मवेशियों की देखभाल के अलावा गनाराम अन्य लोगों द्वारा उनकी देखरेख में छोड़े गए ऊंटों की भी देखभाल करते हैं जो अब उनका भरण-पोषण करने में सक्षम नहीं हैं। कभी-कभी, इस व्यवस्था में पैसों का लेनदेन भी शामिल होता है, जिसमें ऊंट मालिक गनाराम को उनकी सेवा के बदले में प्रति माह एक छोटी राशि देता है। लेकिन जब लोग उन्हें पैसे देने की स्थिति में नहीं होते हैं तब बिना किसी अतिरिक्त शुल्क के वे ऊंट गनाराम की झुंड का हिस्सा हो जाते हैं।

गनाराम अपने ऊंटों के विशाल बेड़े को अपने गांव के आसपास के बचे-खुचे चारागाह में लेकर जाते हैं। ऊंट चराने वाले अपने चरागाहों को गोचर, ओरण और पैठन जैसे विभिन्न नामों से पुकारते हैं। ये नामकरण अलग-अलग क्षेत्रों – घास के मैदान, जंगल और जल जलाशयों का प्रतिनिधित्व करते हैं – जो उनकी देहाती जीवन शैली का अभिन्न अंग हैं। लेकिन जमीनों के क्षेत्रफल में तेजी से कमी आ रही है या फिर इनका पुनर्उपयोग किया जा रहा है। गनाराम परंपरागत रूप से जिस चरागाह भूमि पर निर्भर थे, उसका अधिकांश हिस्सा अब अवैध चूना पत्थर खनन के लिए उपयोग में लाया जाता है, जो क्षेत्र के लोगों को आजीविका प्रदान करता है।

गनाराम ने जहां खनन को रोकने के प्रयास किए, वहीं बकरी जैसे छोटे मवेशियों को पालने वाले चरवाहे, इन चारागाह के सिकुड़ते आकार को लेकर कुछ खास चिंतित नहीं हैं।

अत्यधिक गर्मी और सर्दी में मवेशियों को चराना चुनौतीपूर्ण हो जाता है। ऐसी स्थिति में गनाराम अपने ऊंटों को चारा खिलाना शुरू कर देते हैं।

यह एक महंगा विकल्प है। उनका वित्तीय बोझ तब और बढ़ जाता है जब उनके मवेशी बीमार पड़ने लगते हैं और उन्हें इलाज की ज़रूरत पड़ती है। गनाराम जैसे चरवाहों की मदद के लिए सरकार ने प्रत्येक नवजात ऊंट बछड़े के लिए 15,000 रुपये का मानदेय तय किया है। लेकिन इस राशि का दावा करना मुश्किल है क्योंकि इसके लिए पशुचिकित्सक द्वारा जारी किया गया जन्म प्रमाण पत्र आवश्यक है, और राजस्थान के दूरदराज के क्षेत्रों में पशुचिकित्सक दुर्लभ हैं।

सरकार के समर्थन के बिना, राजस्थान में ऊंटों की आबादी तेजी से घट रही है। साल 2012 में ऊंटों की संख्या तीन लाख से अधिक थी जो 2019 में घटकर दो लाख से कम हो गई है। इसलिए पशुओं के संरक्षण के गनाराम के प्रयास भले ही सराहनीय हों, लेकिन इन प्रयासों को संस्थागत समर्थन की जरूरत है।

अंसा ऑगस्टीन एसबीआई यूथ फॉर इंडिया फेलो हैं, जो आईडीआर पर #जमीनी कहानियां के लिए कंटेंट पार्टनर हैं।

इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें

अधिक जानें: इस लेख को पढ़ें एवं समझें कि जैसलमेर में बारिश होना अच्छी ख़बर क्यों नहीं है।

अधिक करें: अंसा के काम के बारे में अधिक जानने और उनका समर्थन करने के लिए उनसे [email protected] पर संपर्क करें।

समाजसेवी संस्थाएं अपनी विफलताओं पर बात क्यों नहीं करती हैं?

व्यावसायिक दुनिया में, तेजी से असफल होने और फिर उससे कहीं अधिक तेजी से तरक्की करने के बारे में बात करने का चलन है। नई कंपनियां लगातार अपने उत्पादों, सेवाओं और बिज़नेस मॉडल्स को सामने ला रही हैं और उन्हें दोहरा भी रही हैं। व्यावसायिक दुनिया ने यह बात समझ ली है कि बिना जोखिम उठाए नई तरह का काम करना संभव नहीं है और साथ ही यह भी कि जोखिम उठाने में असफल होने की भी पूरी संभावना होती है। लेकिन ऐसा क्यों है कि समाजसेवी संगठनों की दुनिया में लोग इस तरह से नहीं सोचते हैं?

कई विकसित देशों में व्यवसाय के दौरान मिली विफलता को सामान्य बताया जाता रहा है। लेकिन समाजसेवी संस्थाओं को लेकर – विशेष रूप से भारत में – चीजें ऐसी नहीं हैं। हालांकि इस सेक्टर के ज्यादातर लीडर विफलता की अनिवार्यता और इससे हमें मिलने वाले मूल्यवान सबक की महत्ता को समझते हैं, लेकिन वे इसे स्वीकार्य करने को तैयार नहीं है। यह समस्या समाजसेवी संगठनों, कॉर्पोरेट फाउंडेशन और कल्याणकारी संस्थाओं सभी में समान रूप से दिखाई देती है।

साल 2020 में, हमारी संस्था इंडिया डेवलपमेंट रिव्यू ने फेल्यर फाइल्स नाम से एक पहल शुरू की। हमारा लक्ष्य एक ऐसी जगह बनाना था जहां सामाजिक उपक्रमों को करते हुए मिली विफलताओं पर अधिक खुलेपन और सहजता से बातचीत की जा सके। इनके जरिए सेक्टर के अन्य लोग अपने साथियों के अनुभवों से सीख सकें और उन्हीं गलतियों को दोहराने से बच सकें। दो वर्षों में हमने समाजसेवी और परोपकारी संस्थाओं के बीच विफलता की धारणा के बारे में बहुत कुछ सीखा। यह भी जाना कि असफलताओं पर खुलकर चर्चा करने में आने वाली बाधाओं और कमजोरियों और चुनौतियों को साझा करने के लिए अनुकूल वातावरण बनाने के लिए क्या करने की आवश्यकता है।

असफलता के बारे में खुलकर बात करने के रास्ते में कौन सी बाधाएं आती हैं?

1. प्रतिष्ठा का जोखिम

भारत में, हमारी परवरिश ‘लोग क्या कहेंगे’ वाली सोच के इर्द-गिर्द की जाती है। दूसरे शब्दों में कहें तो, सांस्कृतिक रूप से, हम अपने पड़ोसियों और सगे-संबंधियों की राय पर बहुत अधिक ध्यान देते हैं। अक्सर ये चीजें हमारे काम को या काम को लेकर होने वाली बातचीत को प्रभावित और निर्धारित करती हैं। और, स्वाभाविक रूप से यही प्रवृति सामाजिक सेक्टर में भी दिखाई पड़ती है।

यह देखते हुए कि समाजसेवी नेता सामाजिक परिवर्तन की जटिल समस्याओं को हल करने का प्रयास कर रहे हैं – जिनमें से अधिकांश के लक्ष्य बदलते रहते हैं – जब चीजें काम नहीं कर रही होती हैं तो वे इसे स्वीकार करने में झिझकते हैं। इस बात को लेकर चिंता जायज है कि उनकी छवि कैसी हो जाएगी और इससे उनकी क्षमता के बारे में क्या पता चल सकता है। एक्यूमेन एकेडमी इंडिया के पूर्व कार्यक्रम प्रमुख अब्बास दादला इसे स्पष्ट शब्दों में समझाते हुए कहते हैं कि ‘मुझे लगता है कि कारण (असफलता को ना स्वीकार करना) बहुत ही सरल है और फिर भी इससे उबरना बहुत कठिन है: एक विशेष छवि में दिखना या देखे जाने की आवश्यकता, और किसी व्यक्ति की आत्म-छवि, जो कि आंशिक रूप से खुद की बनाई होती है और आंशिक रूप से समाज द्वारा तय की जाती है। सामाजिक सेक्टर में, हम लगातार उपलब्धियों, पुरस्कारों और सम्मानों का जश्न मनाने वाले व्यवहार को बढ़ावा देते हैं। यह समझते हुए कि हमारी असफलता की कहानियां दूसरों को कैसे लाभान्वित कर सकती हैं, हम इसके फायदे ना देखकर केवल इससे होने वाले नुकसान पर ही ध्यान देते हैं।’

2. संगठनात्मक संस्कृति

संगठन की संस्कृति भी यह तय करने में बड़ी भूमिका निभाती है कि असफलता के बारे में कितनी और किसकी उपस्थिति में तथा कितनी बार बात की जा सकती है। किसी भी संगठनात्मक ढांचे में, प्रोत्साहन और पुरस्कार का डिज़ाइन लोगों और टीम के कार्य करने के तरीके पर प्रभाव डालता है। यदि नेता सीखने और खुलेपन की संस्कृति को प्रोत्साहित नहीं करता है तो यह प्रवृत्ति पूरे संगठन में देखने को मिलती है।

फाउंडेशन फॉर मदर एंड चाइल्ड हेल्थ की सीईओ श्रुति अय्यर ने एक महिला के रूप में असफलता के बारे में सार्वजनिक रूप से बोलने के चलते आने वाली चुनौतियों के बारे में बताया। ‘लिंग की अपनी भूमिका होती है। एक महिला लीडर के रूप में, आपको अतिरिक्त झिझक होती है क्योंकि लोग पहले से ही यह मान कर बैठे हैं कि आप ‘नम्र’ और ‘कमजोर’ हैं। और इसलिए, जब आप असफलता के बारे में बात करती हैं तो आपको इस बात की चिंता होती है कि यह एक और कारण है कि आपको एक लीडर के रूप में गंभीरता से नहीं लिया जाएगा।’

किसी भी संगठनात्मक ढांचे में, प्रोत्साहन और पुरस्कार का डिज़ाइन लोगों और टीम के कार्य करने के तरीके पर प्रभाव डालता है।

साल 2020 में, श्रुति ने फेल्यर फाइल्स के लिए एक लेख लिखा था, जो उस साल के बारे में बताता है जिसमें सफलता के बाहरी पैमानों पर खरी उतरने के बावजूद, वे एक संस्था प्रमुख, सहकर्मी, बेटी, दोस्त और साथी के रूप में विफल रहीं। वे स्वीकार करती हैं कि संगठन से बाहर निकल जाने और अपने आसपास साथ एवं सहयोग का एक इकोसिस्टम बना लेने के बाद असफलता के बारे में सार्वजनिक रूप से बात करना आसान हो गया था। विशेष रूप से, अन्य विफल महिला नेताओं के बारे में जानकार उन्हें यह स्वीकार करने में मदद मिली कि वे अकेली नहीं थीं। हालांकि वे अब भी इस पर काम कर रही हैं, लेकिन उनका मानना है कि संगठनों के भीतर सीखने की संस्कृति को विकसित करना महत्वपूर्ण है, ताकि टीम अपनी विफलताओं के बारे में खुलकर और सहजता से बात कर सके।

‘अपनी विफलताओं के बारे में सहज होने के बाद भी, मैं अक्सर खुद से यह पूछती हूं कि: असफलता को लेकर मेरा संगठन किस प्रकार की संस्कृति को मानता है? क्या मेरी टीम समझती है कि असफल होना ठीक है? क्या मैं उनके साथ अपनी असफलताओं को लेकर सक्रिय रूप से संवाद करने की क्षमता रखती हूं? और टीम से परे, क्या मैं अपने बोर्ड के सदस्यों, दाताओं और अन्य हितधारकों से इस तरह के संवाद कर पाऊंगी?’

कांटेदार तार_समाजसेवी संगठन
सामाजिक सेक्टर में हम उपलब्धियों का जश्न मनाने वाले व्यवहार को लगातार बढ़ावा देते हैं और उसे मजबूत बनाते हैं। | चित्र साभार: फ्लिकर / सीसी बीवाय

3. फंडरसमाजसेवी संगठनों के बीच का शक्ति असंतुलन

भारत में लगभग 35 लाख समाजसेवी संस्थाएं सक्रिय बताई जाती हैं जो 30 राज्यों और 600 से अधिक जिलों में फैली हुई हैं और लाखों लोगों को अपनी सेवाएं दे रही हैं। इन सभी संस्थाओं को व्यक्तिगत परोपकारियों, कॉर्पोरेट सोशल रिस्पॉन्सिबिलिटी (सीएसआर) के लिए आवंटित बजटों, द्विपक्षीय एवं बहुपक्षीय एजेंसियों तथा फाउंडेशनों से मिलने वाले अपर्याप्त फंड के लिए प्रतिस्पर्धा करनी पड़ती है। एक बहुत सीमित संसाधनों वाले क्षेत्र में मांग एवं आपूर्ति के बीच का परिणामी अंतर, फंडरों और अनुदान प्राप्तकर्ताओं के बीच पहले से ही मौजूद असमान शक्ति संतुलन को बढ़ाता है।

अक्सर यह मामला तब और जटिल हो जाता है जब फंड देने वाले यह चाहते हैं कि उनके द्वारा आवंटित धन का एक बड़ा हिस्सा (अगर पूरा नहीं भी तो) कार्यक्रम और सेवा प्राप्त करने वाले समुदाय पर खर्च किया जाए। इसके कारण प्रयोग तथा नए तरह के कामों की तो बात ही छोड़ दें, संगठन के संचालन में आने वाले खर्च के लिए भी बहुत कम धन बच पाता है। दूसरे शब्दों में कहें तो, असफलता के लिए किसी तरह की जगह ही नहीं है। और इसलिए, समाजसेवी संगठनों के नेता इसके प्रति सावधान होते हैं क्योंकि उन्हें इस बात का डर होता है कि असफलता स्वीकार करने से उन्हें आगे मिलने वाला अनुदान खतरे में ना पड़ जाए।

फंड देने वाले के प्रकार और उनके निर्देशों पर भी यह निर्भर करता है कि फंड देने वाले विफलता से सीखने के लिए तैयार हैं या नहीं।

सेल्को फाउंडेशन के निदेशक हुडा जाफ़र यह कहते हुए दूसरा पक्ष रखते हैं कि यह कोई पत्थर पर लिखी इबारत नहीं है और समाजसेवी संस्थाओं का रुख इस बात पर भी निर्भर करता है कि उनके फंडर किस तरह के हैं। ‘फंड देने वाले के प्रकार और उनके निर्देशों पर भी यह निर्भर करता है कि फंड देने वाले विफलता से सीखने के लिए तैयार हैं या नहीं। हमारा अनुभव कहता है कि द्विपक्षीय और बहुपक्षीय फंडिंग एजेंसियों के लिए अपने भागीदारों के साथ, प्रतिक्रिया देने और सीखने की लगातार चलने वाली कारगर व्यवस्था बनाना बहुत कठिन है क्योंकि ऐसा संभव है कि उनकी संरचना में एक निश्चित समयावधि के बाद ही बदलाव किया जा सकता हो। इसके विपरीत, हमने पाया कि परोपकारी संस्थाओं और पारिवारिक फाउंडेशन की मानसिकता लगातार सीखने वाली हो सकती है और वे विफलता के लिए धन देने वाले बेहतर उम्मीदवार साबित हो सकते हैं। पूंजी के स्त्रोत का प्रकार, यानी, चाहे वह कोई करदाता हो या फिर सार्वजनिक धन बनाम निजी धन, इस बात की भी गुंजाइश पैदा करता है कि नेतृत्व करने वाले लोगों को प्राथमिकताओं में संशोधन करना होगा और उन्हें लगातार ज़मीनी अनुभवों से सीखना होगा।’

हालांकि ज़िम्मेदारी केवल फंडर या अकेले समाजसेवी संस्थाओं की नहीं है। किसी तरह पूरी की पूरी व्यवस्था, सफलता और प्रभाव के इस मुखौटे को बरकरार रखते हुए अनजाने में विफलता के इर्द-गिर्द पसरी हुई चुप्पी को जस का तस बनाए हुए है। 

ट्रांसफॉर्म रूरल इंडिया फाउंडेशन के सह-प्रमुख अनीष कुमार का मानना ​​है कि अपनी विफलताओं के बारे में बात किए बिना प्रभावी ढंग से विकास कार्य करना संभव नहीं है, क्योंकि जोखिम उठाने और नवाचार के बिना सामाजिक प्रभाव को आगे बढ़ाने का कोई दूसरा रास्ता नहीं है।

‘विकास सेक्टर के संघर्ष को देखते हुए, हमारी विफलता की दर लाभ-कमाने वाले उद्यमों या स्टार्ट-अप की तुलना में अधिक होनी चाहिए। और फिर भी, हर कोई एक तरह से इस दिखावे को बनाए रखने और हमारे काम की इस वास्तविकता के बारे में बात नहीं करने में अपनी भूमिका निभा रहा है। फंडिंग संगठनों के कार्यक्रम अधिकारियों से लेकर अनुदान प्राप्त करने वाले साझेदारों तक – हर किसी पर कार्यक्रम से आए बदलावों के बारे में बताने का दबाव होता है, यह बताता है कि हम कितने ईमानदार हैं, और हम उन चीजों से क्या सीख सकते हैं जो काम नहीं करती हैं। और इसलिए हमारे सेक्टर में किसी परियोजना के वास्तविक जोखिमों को कम दिखाने और इसे इस तरह से तैयार करने की प्रवृत्ति दिखाई पड़ती है जिससे प्रस्ताव और अनुदान को मंजूरी मिल सके।’

क्या बदले जाने की जरूरत है

1. हमें असफलता से जुड़ी एक नई तरह की कहानी की जरूरत है

जब बात असफलता की आती है तो हमें अपनी मानसिकता और इससे जुड़ी कथा और कहन को बदलने की जरूरत है। इसे अधिक तटस्थ बनाने और भाषा को ‘असफलता’ के बजाय ‘सबक’ के इर्द-गिर्द रखने से लोगों को यह स्पष्ट करने में मदद मिल सकती है कि क्या नहीं करना है और अगली बार बेहतर कैसे करना है। जब हमने फेल्यर फाइल्स शुरू की तो हमने इस दृष्टिकोण को अपनाया और पाया कि इससे लोगों द्वारा अपनी कहानियों को बताने के तरीके और व्यवस्था द्वारा उन कहानियों को स्वीकार किए जाने के तरीके में अंतर आया है।

उदाहरण के लिए मनजोत कौर ने यह बताया कि कैसे उनकी आधिकारिक नेतृत्व शैली के कारण उनका संगठन अपने लक्ष्यों को पूरा करने में असफल रहा और जिसके बाद उन्होंने स्वयं को एक साहसी और अधिक नम्र नेता के रूप में बदला। उसी प्रकार, एक फ़ंडर के साथ शक्ति असंतुलन में फंसने के बाद दिलीप पत्तुबाला ने लिखा कि कैसे उन्होंने मुश्किल फैसले लेने और अपने संगठन के दृष्टिकोण के प्रति सच्चे रहने के महत्व को सीखा- जिन सबकों ने उनके संगठन को कोविड-19 महामारी से सफलतापूर्वक निपटने में मदद की।

हमें इस बात को पहचानने की भी जरूरत है कि विफलता बहुत अधिक प्रासंगिक है; यह समय-आधारित (एक समय में जो कार्यक्रम असफल लग रहा हो, संभव है कि बाद में उसे अपार सफलता मिले) होती है; और सफलता के उन मानदंडों से जुड़ी होती है जिन्हें हम स्वयं मानते हैं। केवल इसलिए कि हम उन मानदंडों को पाने में विफल रहे हैं, इसका यह मतलब नहीं है कि किसी अन्य दिशा में प्रगति नहीं हुई है।

2. हमें ईमानदार संवाद के लिए एक सुरक्षित जगह बनाने की जरूरत है

सेल्को फाउंडेशन विकास कार्यों में विफलताओं से उभरे सबक का जश्न मनाने पर केंद्रित एक सम्मेलन का आयोजन करता है। सेल्को फाउंडेशन में नॉलेज एंड एडवोकेसी की एसोसिएट डायरेक्टर रचिता मिश्रा के अनुसार, ‘हालांकि बंद कमरे में बातचीत आपको अपनी विफलता स्वीकार करने में मदद करती है, लेकिन वे पूरे तंत्र के भीतर बड़े बदलाव नहीं लाती हैं। सीखने के लिए, क्या कारगर रहा और क्या नहीं, इसका विश्लेषण प्रभावी ढंग से किया जाना चाहिए और इसे सार्वजनिक रूप से साझा भी किया जाना चाहिए।’ श्रुति उनकी बात को आगे बढ़ाते हुए कहती हैं कि ‘यह महत्वपूर्ण है कि इन जगहों पर ग़ैर-निर्णयात्मक दृष्टिकोण के आधार पर बातों को सुना जाए और आपको अपनी गलती बताने वाले लोगों की संख्या कम से कम हो। इसके बदले, मैं इसे सुनने और दूसरे लोगों, खासकर स्थापित लीडर्स की विफलताओं से सीखने के अवसर के रूप में देखती हूं।’

एक्यूमेन अकादमी फ़ेलोशिप भी पिछले कुछ वर्षों से अपने लीडर्स के समूह के साथ ऐसा कर रही है। हर साल, वे विश्वास और समुदायिकता का माहौल बनाने के लिए एक नए समूह के साथ काम करते हैं, ताकि उनके साथी खुलकर अपनी चुनौतियों या असफल नीतियों और नज़रियों को साझा कर सकें। अब्बास कहते हैं कि ‘हम इस कार्यक्रम में भाग लेने वाले लोगों की मदद करते हैं ताकि वे उन मान्यताओं को समझ सकें जो अब उनके काम नहीं आ रही हैं, [वे] धारणाएं और व्यवहार जो उन्हें पीछे खींच रहे हैं। इसके अलावा हम असफलताओं के बाद उन्हें फिर से नई शुरुआत करने में उनकी मदद करते हैं।’

अंत में, संगठन के भीतर भी, यह नेतृत्व की ही जिम्मेदारी होती है कि वह सीखने और चिंतन की संस्कृति को बढ़ावा दे ताकि गलतियों की पहचान की जा सके और उन्हें तुरंत ठीक किया जा सके।

3. इसे एक सामूहिक प्रयास के रूप में किए जाने की जरूरत है, और इसमें फंडर की भूमिका बहुत बड़ी होती है

हुडा का मानना है कि ‘जब एक फंडर खुलेपन, लचक और पारदर्शिता की संस्कृति लेकर आता है, तो इससे समाजसेवी संस्थाओं को न केवल अपनी सीख साझा करने में सुविधा होती है बल्कि उन प्रतिक्रियाओं को समझने और उसके आधार पर प्रक्रिया निर्माण के बाद उसे काम में लेने में भी मदद मिलती है।’

रचिता इसमें अपनी बात जोड़ते हुए कहती हैं कि विफलता पर बातचीत शुरू करने की ज़िम्मेदारी फंडर और समाजसेवी संस्था दोनों की है। ‘संस्था प्रमुखों को यह भी सुनिश्चित करने की ज़रूरत है कि उनके पास विभिन्न प्रकार के फंडर हों, और साथ ही उन्हें यह सुनिश्चित करने की दिशा में भी कदम उठाना होगा कि संगठन की संस्कृति किसी एक प्रकार के फंडर द्वारा परिभाषित न हो। विफलता पर बातचीत की शुरुआत दोनों पक्षों द्वारा समान रूप से की जानी चाहिए; एकतरफा बातचीत टिकाऊ नहीं होती है।’

अंत में, विफलताओं को स्वीकार करना और खुले तौर पर चर्चा करना किसी एक इकाई का एकमात्र काम नहीं हो सकता है। इसे एक सामूहिक प्रयास का रूप देने की जरूरत है, ताकि इससे मिलने वाले ज्ञान का लाभ इस तंत्र के विभिन्न सहभागियों तक पहुंच सके, और सबसे महत्वपूर्ण रूप से उन समुदायों को जिनकी सेवा के लिए ये मौजूद हैं।

यह लेख मूल रूप से अलायंस मैगजीन में प्रकाशित हुआ है।

इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ें