बजट के बादल, हम पर जाने कब बरसेंगे?

बजट के बरसने की उम्मीद में विकास सेक्टर के लोग_बजट स्पेशल
चित्र साभार: सृष्टि

महिलाओं के एग्रो-टूरिज्म से सम्पन्न बनता राजस्थान का एक गांव

राजस्थान के चुरु जिले के सुजानगढ़ ब्लॉक में स्थित गोपालपुरा पंचायत अपने गांवों के पर्यावरण को प्रदूषण मुक्त करने के लिए जाना जाने लगा है। दरअसल, आसपास के इलाक़ों में तेज़ी से हो रहे खनन के कारण इस क्षेत्र की जलवायु बुरी तरह से प्रभावित होने लगी थी। अपने इलाक़े को प्रदूषण मुक्त करने और खनन से होने वाले नुक़सान को कम के लिए यहां की पंचायत ने स्थानीय लोगों के साथ मिलकर एक अनूठे प्रयास की शुरुआत की।

इस प्रयास के तहत गोपालपुरा पंचायत के लोगों ने अपने यहां पर्यटन की संभावनाओं को देखते हुए कुछ साल पहले तक डंपिंग ग्राउंड बन कर रह गई 144 बीघा सरकारी ज़मीन पर पेड़ लगाने का काम शुरू किया। इस पहल के तहत उन्होंने कुल तीस हज़ार पौधे लगाए। आज की तारीख़ में उन तीस हज़ार पौधे में से क़रीब बीस हज़ार पौधे जीवित हैं। हरीतिमा ढाणी नामक इस पहल की शुरुआत के बारे में बताते हुए गोपालपुरा पंचायत की सरपंच कहती हैं कि ‘हमारे यहां चार सौ साल पुराना डुंगरबाला जी मंदिर है, जिसके आसपास बहुत सुंदर-सुंदर पहाड़ियां भी हैं। यहां पर्यटन को विकसित करने की पूरी संभावना थी, लेकिन क्षेत्र का प्रदूषण एक बड़ी बाधा था। इसके लिए ज़रूरी था कि हम अपने क्षेत्र में हरियाली को विकसित करें। इसी लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए हमने पेड़ लगाने शुरू किए।’

पेड़ लगाने से शुरू होने वाले इस प्रयास को, यहां की महिलाएं एक कदम आगे लेकर गईं और उन्होंने सब्जियां भी उगानी शुरू कर दी। गोपालपुरा में पानी आसपास की पहाड़ियों से आता है जो कि बहुत मीठा होता है। मीठे पानी के कारण यहां उगाई जाने वाली सब्ज़ियां बहुत स्वादिष्ट होती हैं। अपने अच्छे स्वाद के लिए मशहूर गोपालपुरा की सब्जियां आसपास के गांवों में हरीतिमा ढाणी नाम के ब्रांड के रूप में लोकप्रिय हो गई हैं।

गांव की महिलाओं ने अपने इसी ब्रांड के अंर्तगत एग्रो-टूरिज़्म को विकसित करने के लिए प्रयास शुरू कर दिया है। इसके लिए उन्होंने यहां झोपड़ियां बनाई हैं जहां बाहर से आने वाले लोग आकर रहते हैं और इन सब्ज़ियों का आनंद उठाते हैं। यहां आकर रहने वालों के लिए खाने-पीने की व्यवस्था भी यही महिलाएं करती हैं। इसके अलावा, महिलाओं को बाहर से भी ऑर्डर मिलने लगे हैं। सब्जियां उगाने के साथ-साथ इस हरीतिमा ढाणी की महिलाएं बाजरे के बिस्किट, काचर की कैंडी जैसी चीजें बनाने का प्रशिक्षण भी ले रही हैं। शहर की भाग-दौड़ और प्रदूषित हवा-पानी से कुछ दिनों के लिए बचने के उद्देश्य से शहरी लोग यहां आते हैं। आने के बाद वे यहां की प्राकृतिक रूप से उगाई गई सब्ज़ियों और खाने की अन्य चीजों का भरपूर आनंद उठाते हैं।

इस गांव की पंचायत अब मनरेगा के तहत काम करने वाली महिलाओं को भी इस पहल से जोड़ने का प्रयास कर रही है। ऐसा करने के पीछे का उद्देश्य उन्हें आर्थिक रूप से आत्म-निर्भर, सशक्त और पर्यावरण से जुड़े मुद्दों के प्रति जागरूक बनाना है।

क्षेत्र में हो रहे खनन के कारण यहां के लोगों को कई तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। गोपालपुरा की सरपंच बताती हैं कि, ‘हालांकि, हम मनरेगा के तहत काम कर रहे हैं लेकिन हमारे पास फंड की बहुत कमी है। पहले खनन पर लगने वाले टैक्स का एक फ़ीसद पंचायतों को दिया जाता था। लेकिन अब उस राशि को भी डीएमएफ़टी (डिस्ट्रिक्ट मिनरल फ़ाउंडेशन ट्रस्ट) में बदल दिया गया है। इसके बाद माननीय ज़िला कलेक्टर की अध्यक्षता में उनकी समिति तय करती है कि उस राशि को कहां और कैसे खर्च करना है। हमारी मांग है कि डीएमएफ़टी की राशि को उसी जगह पर खर्च किया जाना चाहिए जहां कि खनन से नुक़सान हो रहा है।’

जैसा कि आईडीआर को बताया गया। 

सविता राठी पेशे से वकील हैं और राजस्थान के चुरू जिले में पड़ने वाली गोपालपुरा पंचायत में तीसरी बार सरपंच के पद पर हैं।

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सरल-कोश: सोशल अकाउंटेबिलिटी या सामाजिक जवाबदेही

विकास सेक्टर में तमाम प्रक्रियाओं और घटनाओं को बताने के लिए एक ख़ास तरह की शब्दावली का इस्तेमाल किया जाता है। आपने ऐसे कुछ शब्दों और उनके इस्तेमाल को लेकर असमंजस का सामना भी किया होगा। इसी असमंजस को दूर करने के लिए हम एक ऑडियो सीरीज़ ‘सरल–कोश’ लेकर आए हैं जिसमें हम आपके इस्तेमाल में आने वाले कुछ महत्वपूर्ण शब्दों पर बात करने वाले हैं।

आज का शब्द है – सोशल अकाउंटेबिलिटी या सामाजिक जवाबदेही। विकास सेक्टर के संदर्भ में बात करें तो सामाजिक जवाबदेही, संस्थागत प्रक्रियाओं में नागरिक भागीदारी पर आधारित होती है। इसका मतलब है कि आम नागरिक और नागरिक संगठन, प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से सरकारी संस्थानों और अधिकारियों से उनके कामकाज से जुड़े सवाल कर सकते हैं।

प्रशासनिक प्रक्रियाओं में सामाजिक जवाबदेही के कुछ प्रमुख उदाहरणों को देखें तो स्कूल प्रबंधन समितियों, मनरेगा योजना में सोशल ऑडिट, स्वास्थ्य एवं पोषण समितियों का ज़िक्र किया जा सकता है। यहां नागरिक संस्था के स्तर पर, सीधे सरकार के साथ जुड़कर अपनी भागीदारी निभाते हैं।

इसलिए सामाजिक जवाबदेही बढ़ाने के लिए ज़रूरी है कि सरकार अपने संस्थानों की कार्य प्रणाली, नागरिकों को शामिल करते हुए डिज़ाइन करे और प्रक्रियाओं को सरल करे। लेकिन इसके लिए यह भी ज़रूरी है कि नागरिक के तौर पर हमें इन बातों की जानकारी हो और हम यह समझें कि जवाबदेही कब और कैसे मांगी जानी चाहिए।

अगर आप इस सीरीज़ में किसी अन्य शब्द को और सरलता से समझना चाहते हैं तो हमें यूट्यूब के कॉमेंट बॉक्स में ज़रूर बताएं।

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युवाओं को संवैधानिक मूल्यों से जोड़ना हमेशा चलने वाली एक यात्रा है

भारत के संविधान का जन्म जन-आंदोलनों, संघर्षों और वैचारिक-राजनीतिक संवाद से हुआ है। इसमें न्याय, स्वतंत्रता, बंधुत्व और समानता के मूल्यों में भरोसा रखने वाले एक राष्ट्र की कल्पना की गई है। इसके साथ ही, हमारा संविधान सरकार की संरचना, शक्तियों, जिम्मेदारियों और नागरिकों के साथ उसके संबंधों को परिभाषित करता है और उन्हें मौलिक अधिकारों की गारंटी देता है।

संविधान सभा के सदस्यों ने इन अधिकारों को गरीबी, अशिक्षा या फिर जाति, वर्ग, लिंग और धार्मिक आधार पर व्यवस्था के स्तर पर होने वाले सामाजिक भेदभाव को ख़त्म करने के लिहाज़ से ज़रूरी माना था। जब ये मूल्य, अधिकार और कर्तव्य देश के नागरिकों और संस्थानों द्वारा व्यवहार में लाए जाते हैं तो इनसे हमारे धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य को बनाए रखने में मददमिलती है। इसलिए सभी नागरिकों और संगठनों, विशेषकर नागरिक अधिकारों के उल्लंघन और भेदभाव के खिलाफ काम करने वालों के लिए संविधान को बारीकी से समझना महत्वपूर्ण है।

यह एक ज़रूरी सवाल है कि हमारे संविधान के प्रगतिशील और दूरदर्शी होने के बावजूद, हमने इसे कितना आत्मसात किया है और किस हद तक उसे जीवन में अपना सके हैं? यहां पर दो समाजसेवी संगठन और एक सरकारी संस्थान इसी पर बात करते हुए बता रहे हैं कि वे लोगों और समुदायों के साथ काम करते हुए संविधान पर कैसे बात करते हैं। ये संस्थान उन विभिन्न तरीकों के बारे में बात कर रहे हैं जिनसे वे सामुदायिक चेतना में संवैधानिक मूल्यों को स्थापित करते हैं और लोगों में वैचारिक बदलाव लाने की कोशिश करते हैं। ऐसा करते हुए वे सुनिश्चित करते हैं कि अधिकारों और कानूनों को जमीनी हकीकत से जोड़ा जाए ताकि समाज के सभी वर्ग अन्याय के खिलाफ खड़े होने के लिए संवैधानिक उपचारों की मदद लेने में सक्षम बन सकें।

संविधान को समझना हमेशा चलने वाली एक यात्रा है

मध्य प्रदेश में जमीनी स्तर पर काम करने वाला संगठन, सिविक-एक्ट फाउंडेशन इस बात पर ज़ोर देता है कि संवैधानिक मूल्यों और अधिकारों को समझना एक लगातार चलने वाली यात्रा है। यह केवल एक बार होने वाली कोई घटना या आयोजन नहीं है। यह एक धीरे-धीरे और लगातार चलने वाली प्रक्रिया है जो महीनों या सालों तक चलती है। भाईचारे, समानता और स्वतंत्रता का अनुभव करने और इस तरह के विचारों और सिद्धांतों पर चर्चा के लिए की जगह बनाना बदलाव को बढ़ावा देने के लिए महत्वपूर्ण है। आमतौर पर लोगों की धारणा होती है कि संविधान से उनका कुछ ख़ास लेना-देना नहीं है या इसका संबंध केवल आरक्षण से है। इस तरह की विचारधारा और विश्वासों को बदलने और उन पर चर्चा करने के लिए एक जगह बनाना ज़रूरी है। सिविक-एक्ट इसके लिए कई महीनों तक चलने वाली कार्यशालाएं आयोजित करता है। इसमें विभिन्न जाति, लिंग और वर्ग से आने वाले लोगों के बीच सामूहिक चर्चा होती है। इसके लिए शुरूआती कार्यशालाओं में हिस्सा लेने वालों को कुछ इस तरह के सवालों का जवाब देना होता है जैसे – ‘क्या कुछ मामलों में हिंसा किया जाना उचित है?’ या फिर, ‘आप समलैंगिक विवाह के बारे में क्या सोचते हैं?’ आगे की कार्यशालाओं में, लोगों को उनके अनुभवों और ज़मीनी हक़ीक़तों के सहारे समानता, न्याय, बंधुत्व, स्वतंत्रता आदि की बारीकियां बताई जाती हैं।

संवैधानिक मूल्यों और अधिकारों को समझना एक लगातार चलने वाली यात्रा है।

कर्नाटक में सक्रिय संगठन, संवाद युवा अधिकारों और सशक्तिकरण के लिए काम करता है। सिविक-एक्ट की तरह, संवाद भी अपने साथ काम करने वाले युवाओं के साथ एक स्थायी जुड़ाव बनाए रखता है। तीन साल की अवधि वाले कार्यक्रमों में शामिल होने वाले कई युवा उसके बाद भी लंबे समय तक बदलाव के लिए सक्रिय रूप से काम करना जारी रखते हैं। उदाहरण के लिए वे अपने कॉलेज में यौन उत्पीड़न रोकथाम अधिनियम, 2013 के तहत आंतरिक शिकायत समितियां बनाने की मांग करते हैं या फिर अपने समुदाय से जुड़े किसी मुद्दे की जांच-पड़ताल करके उसका समाधान करने के प्रयास करते हैं। लेकिन यहां तक पहुंचने में काफी समय और प्रयास लगते हैं।

युवाओं के साथ जुड़ाव के पहले चरण में, संवाद प्रतिभागियों को जाति, लिंग, वर्ग, धर्म और असमानता और, इनके आपसी संबंधों के बारे में जानकारी देता है और इन्हें लेकर संवेदनशीलता विकसित करने पर ध्यान केंद्रित करता है। यह तरीक़ा उन्हें संविधान से जोड़ने से पहले वास्तविक जीवन में हो रहे भेदभाव को पहचानने और समझने का मौक़ा देता है। दूसरे चरण में, वे कार्यशालाएं आयोजित कर संविधान से जुड़े विषयों जैसे प्रस्तावना, मौलिक अधिकार और कर्तव्य पर बात करते हैं और युवाओं के अनुभवों के सहारे उन्हें जीवन में उतारने का तरीक़ा समझते हैं। तीसरे चरण में, पहले दो चरणों में हासिल की हुई सीखों से समुदाय से जुड़े मुद्दों को हल करने के प्रयास करते हैं.

परंपराओं और मान्यताओं के साथ संविधान का संतुलन

भारत में, कई परंपराएं और मान्यताएं अक्सर हमारे संवैधानिक सिद्धांतों और अधिकारों से उलट जाती दिखती हैं। इस तरह के विरोधाभास के उदाहरणों पर गौर करें तो करवा चौथ का ज़िक्र किया जा सकता है, जहां केवल महिलाएं अपने पतियों की लंबी उम्र के लिए व्रत रखती हैं, या उन नियमों का जिनमें महिलाओं को कुछ मस्जिदों में जाने की मनाही है। संवैधानिक मूल्यों पर बात करते हुए इस तरह के सामाजिक मानदंडों और धार्मिक विश्वासों से लोगों के गहरे जुड़ाव को ध्यान में रखना ज़रूरी है।

सिविक-एक्ट के राम नारायण सियाग बताते हैं कि मान्यताओं को लेकर बदलाव की शुरूआत कैसे परिवार के भीतर से शुरू हो सकती है। वे अनुसूचित जाति से आने वाली एक युवती रेखा* के अनुभव पर बात करते हैं जिसने जयपुर ज़िले में पड़ने वाले अपने गांव में पीढ़ियों पुरानी जातिवादी प्रथाओं को चुनौती दी थी। रेखा के गांव में, पहले अगर कोई ‘उच्च जाति’ से आने वाला व्यक्ति किसी दलित के घर जाता था तो दलित व्यक्ति उसके साथ बराबरी से कुर्सी पर न बैठकर, नीचे ज़मीन पर बैठता था। इस परंपरा के भेदभाव भरे स्वरूप को पहचान कर उसने इसे लेकर परिवार से बात की और ऐसा करना बंद कर दिया। लेकिन ऐसा नहीं है कि इस बदलाव की शुरूआत करते हुए उसके सामने किसी तरह की चुनौती नहीं आई। रेखा के परिजन पहले इसे लेकर तैयार नहीं थे और उन्हें इस बात के लिए राज़ी करने में कई महीनों का वक़्त लग गया। रेखा ने इस परंपरा से छुटकारा पाने की ज़रूरत के बारे में समझाने से पहले, अपने दादा और पिता की चिंताओं को सुना और उनके नज़रिए और डर या बहिष्कार की आशंकाओं को समझने की कोशिश की।

अपनी स्थानीय सांस्कृतिक परंपरा का उपयोग करना और इसे प्रस्तावना में मूल्यों से जोड़ना समुदायों में संविधान के प्रति स्वीकृति हासिल करने और जागरूकता फैलाने का एक और तरीका है। संवाद के फैसिलिटेटर्स को एक समय इस दावे से जूझना पड़ा था कि बीआर अंबेडकर और अन्य संविधान निर्माताओं ने पश्चिम की नक़ल कर भारतीय संविधान तैयार किया है। इससे निपटने के लिए उन्होंने संविधान के आदर्शों को स्थानीय समाज सुधारकों की शिक्षाओं से जोड़ने का एक तरीका खोज निकाला। उदाहरण के लिए, वे भक्ति आंदोलन काल के कवियों और समाज सुधारकों, बसावा और कबीर की शिक्षाओं को लाते हैं और बताते हैं कि दोनों ने लिंग और सामाजिक भेदभाव को खारिज किया था, या वे ज्योतिबा और सावित्रीबाई फुले का ज़िक्र करते हैं जिन्होंने उन्नीसवीं सदी में लड़कियों और दलित जातियों को शिक्षा तक पहुंच देने के लिए सामाजिक बुराइयों के खिलाफ लड़ाइयां लड़ी थीं।

संविधान को लेकर जन-जागरुकता बढ़ाने के लिए, केरल इंस्टीट्यूट ऑफ लोकल एडमिनिस्ट्रेशन (क़िला – केआईएलए) ने फरवरी 2022 में ‘द सिटीजन‘ नाम से एक कार्यक्रम शुरू किया था। किला द्वारा संवैधानिक साक्षरता कार्यक्रम शुरू करने की एक वजह केरल में बड़े पैमाने पर हो रहे विरोध प्रदर्शन थे। ये प्रदर्शन सबरीमाला मामले में सुप्रीम कोर्ट के उस फैसले के खिलाफ हो रहे थे, जिसने महिला भक्तों के लिए मंदिर खोल दिए थे। धीरे-धीरे, विरोध प्रदर्शन का हिस्सा रहे कई राजनेताओं और महिलाओं ने इस मुद्दे पर अपना विचार बदल दिया। उनका कहना था कि उन्हें संविधान में अधिकारों और सिद्धांतों के बारे में पता नहीं था, और न ही इस बात की जानकारी थी कि ये उन पर किस तरह लागू होते हैं।

लोगों को संगठित करने के लिए सिस्टम बनाना

भले ही भारत का संविधान विश्व स्तर पर सबसे उदार और प्रगतिशील संविधानों में से एक माना जाता है, लेकिन देश में ज़्यादातर लोग इसके बारे में कम ही जानते हैं। आज़ादी के बाद आने वाली सरकारों ने इसे लेकर जागरुकता बढ़ाने को प्राथमिकता नहीं दी। नतीजतन, इस पर काम करने वाले संगठनों को संवैधानिक सिद्धांतों और अधिकारों पर बात करने के नए और रचनात्मक तरीके अपनाने पड़े हैं।

स्कूल भवन के बाहर शिक्षक और बच्चे_संवैधानिक मूल्य
अपनी स्थानीय सांस्कृतिक परंपरा का उपयोग करना और इसे प्रस्तावना में मूल्यों से जोड़ना समुदायों में संविधान के प्रति स्वीकृति हासिल करने और जागरूकता फैलाने का एक और तरीका है। | चित्र साभार: फ़्लिकर

क़िला ने कोल्लम जिले में नागरिक अभियान शुरू करने से पहले, ग्राम पंचायतों, नौकरशाहों और राजनीतिक दलों के साथ मिलकर इसके लिए ज़मीन और माहौल तैयार किया। इस प्रयास में राज्यभर में इस बात पर जागरुकता लाने की कोशिश की कि क्यों नागरिकों को संविधान के बारे में जानना चाहिए। क़िला के सीनियर फ़ैकल्टी वी सुदेसन के अनुसार, केरल के इतिहास – उच्च साक्षरता और शासन में लोगों की भागीदारी – के कारण कोई भी नागरिकों को संविधान के बारे में बताने के खिलाफ नहीं था। योजना को लेकर कई तरह के लोगों से चर्चा की गई जिसमें मुख्य रूप से छात्र-शिक्षक, युवा संगठन और यहां तक ​​कि धार्मिक संगठन भी शामिल थे। इन्होंने लोगों को संवैधानिक साक्षरता से जुड़ी कक्षाओं और कार्यशालाओं में भाग लेने के लिए प्रेरित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

संवाद ने महसूस किया कि स्थायी परिवर्तन लाने के लिए युवाओं की ज़रूरतों से जुड़े संवाद और संबंधों को लगातार बनाए रखना ज़रूरी है।

साथ ही, इसके लिए ग्राम पंचायतों ने लगभग 4000 वॉलंटीयर्स का चयन किया, जिन्हें ‘सीनेटर’ कहा गया और इन्हें प्रति माह 1000 रुपये का मानदेय दिया जाता था। किला ने इन सीनेटरों को संविधान और दैनिक जीवन में इसकी प्रासंगिकता से जुड़े प्रशिक्षण दिये। ये सीनेटर समुदायों, स्कूलों, परिवारों, स्थानीय सार्वजनिक कार्यालयों और धार्मिक संस्थानों से जुड़े रहे। किला ने जानबूझकर शिक्षकों की बजाय समुदाय से आने वाले युवाओं को प्रशिक्षित किया, जिसमें 80 फ़ीसदी से अधिक लड़कियां थीं, ताकि ये सिखाने के परंपरागत तरीक़ों की तरफ़ न जा सकें। कोल्लम भारत का पहला जिला है जो शत-प्रतिशत संवैधानिक साक्षर है। इस दौरान केरल सरकार के सामने आने वाली चुनौतियों में से एक यह थी कि सामान्य लोग-मनरेगा कार्यकर्ता, महिलाएं, ग्रामीण और हाशिए की पृष्ठभूमि के छात्र और यहां तक ​​कि धार्मिक संस्थानों के कुछ प्रमुख-इस प्रक्रिया को लेकर खुली सोच रखते थे। लेकिन शिक्षित, उच्च वर्ग के लोग विरोध कर रहे थे क्योंकि उन्हें लगता था कि वे संविधान के बारे में जानते हैं और यह उनके समय की बर्बादी होगी।

संवाद ने महसूस किया कि स्थायी परिवर्तन लाने के लिए युवाओं की ज़रूरतों से जुड़े संवाद और संबंधों को लगातार बनाए रखना ज़रूरी है। इसीलिए संस्था ने बदुकु केंद्र की स्थापना की जहां पर युवा नेतृत्व विकास और सामाजिक असमानताओं से जुड़े विषयों के बारे में जानते हैं। इसमें भेदभाव, संवैधानिक मूल्यों और अधिकारों की पृष्ठभूमि समझना भी शामिल है। संवाद के साथ बतौर प्रोग्राम कन्वीनर काम करने वाली पूर्णिमा बताती हैं कि ‘छह से नौ महीने के व्यापक पाठ्यक्रमों के जरिए हम युवाओं में वे व्यावसायिक क्षमताएं विकसित करने पर काम करते हैं जो समाजिक बदलाव में मददगार साबित हो सकें। जैसे कि पत्रकारिता, इस तरह के पेशों में आज हम वंचित समुदायों जैसे दलित, मुस्लिम और महिलाओं के प्रतिनिधित्व का अभाव देखते हैं।’ इस तरह की भूमिकाओं में, ज़्यादातर ऊंची जाति और उच्च-वर्ग से आने वाले लोगों का ही क़ब्ज़ा दिखाई देता है। इस तरह के उद्देश्यों को ध्यान में रखकर युवाओं को सार्थक व्यावसायिक प्रशिक्षण देना महत्वपूर्ण है।

संगठनों से सीखना/संविधान को रोज़मर्रा से जोड़ना

अपने काम के दौरान क़िला, संवाद और सिविक-एक्ट फ़ाउंडेशन द्वारा हासिल किए गए कुछ प्रमुख सबके इस तरह हैं

1. संविधान आपका है, युवाओं में यह भावना पैदा करना

तीनों संगठनों के प्रयासों से पता चलता है कि युवाओं, वंचित वर्गों और महिलाओं को सशक्त बनाना और नेतृत्व भूमिकाओं के लिए प्रोत्साहित करना हमेशा संवैधानिक मूल्यों, अधिकारों और कर्तव्यों के बारे में जागरूकता फैलाने और कार्रवाई करने में मददगार साबित होता है। यह नज़रिया लोगों में संविधान के प्रति स्वामित्व की भावना पैदा करता है। साथ ही, वास्तविक जीवन में होने वाले अन्याय या अधिकारों के उल्लंघन और संबंधित संवैधानिक उपचारों के बीच संबंध स्थापित करना संविधान को अधिक वास्तविक बनाता है।

2. रचनात्मक तरीकों का प्रयोग करें

क़िला ने यूट्यूब और अन्य सोशल मीडिया मंचों के जरिए संवैधानिक साक्षरता का प्रसार किया। स्कूलों, कॉलेजों और सार्वजनिक स्थानों पर संविधान की प्रस्तावना के पोस्टर लगाना भी कहीं अधिक प्रभावी और सरल तरीक़ा है। कर्नाटक सरकार, साथ ही सिविक-एक्ट फाउंडेशन जैसे कई संगठनों ने सामुदायिक मुद्दों और मूल्यों पर नियमित चर्चा के लिए युवा क्लबों के साथ पुस्तकालयों की स्थापना की। अलग-अलग पृष्ठभूमि वाले लोगों के साथ सार्वजनिक रूप से चर्चा करना, एक-दूसरे के जीवन के अनुभवों से सीखने के लिए प्रोत्साहित करता है। ऐसा करना उन्हें किसी और के साथ हो रहे अन्याय के प्रति भी संवेदनशील बनाता है। अक्सर थिएटर, संगीत और खेलों के जरिए स्थानीय संस्कृतियों और परंपराओं के सकारात्मक पहलुओं को शामिल करना भी महत्वपूर्ण है।

3. संविधान को अन्य कार्यक्रमों से जोड़ें

संवाद अपने हर कार्यक्रम में संविधान को शामिल रखता है। यह लिंग और जाति जैसे मुख्य विषयों का संवैधानिक सिद्धांतों के साथ संबंध (इंटरसेक्शनैलिटी) सुनिश्चित करता है। इस तरह, संगठन उन अलग-अलग मुद्दों को भी संविधान के चश्मे से देख सकते हैं जिन पर वे काम करते हैं। सामाजिक मुद्दों, व्यक्तिगत अनुभवों और संवैधानिक सिद्धांतों के बीच अंतर को पाटकर, संगठन सामाजिक चुनौतियों से निपटने में संविधान की प्रासंगिकता की समझ और महत्व में योगदान दे सकते हैं।

इसके अलावा नागरिक आंदोलन, नागरिक संगठन और समाजसेवी संस्थाएं जो समानता, स्वतंत्रता, न्याय और भाईचारे के मूल्यों को बढ़ावा देने, और/या जो अधिकारों के उल्लंघन से जुड़े विषयों पर काम कर रहे हैं, उन्हें एक साथ आना चाहिए। इन सबको आपस में विचारों और तरीकों को साझा करना चाहिए। भारत को संविधान साक्षर बनाने का यही एक तरीक़ा है।

*पहचान छुपाने के लिए परिवर्तित नाम।

इस आलेख को तैयार करने में बिपिन कुमार, राम नारायण सियाग, वी सुदेसन, पूर्णिमा कुमार और रमक्का आर ने विशेष सहयोग दिया।

सिविक-एक्ट फ़ाउंडेशन और क़िला, हर दिल में संविधान अभियान का हिस्सा हैं जो संवैधानिक मूल्यों को लेकर जागरुकता लाने का काम करता है। 

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मेरे पिछले जीवन में याद करने जैसा कुछ नहीं है

मैं तमिलनाडु के एक बेहद पिछड़े और कमजोर जनजातीय समूह के इरूलर समुदाय से आता हूं। मैं अपनी पत्नी और तीन बच्चों के साथ डॉक्टर अब्दुल कलाम पुरम में रहता हूं। यह तमिलनाडु सरकार द्वारा तिरुवन्नामलाई जिले के मीसानल्लूर गांव में बसाई गई एक बड़ी सी कॉलोनी है। डॉक्टर अब्दुल कलाम पुरम में इरूलर समुदाय के कुल 143 परिवार रहते हैं जिनमें मेरे जैसे 100 परिवार भी शामिल हैं जो कभी बंधुआ मज़दूरी का शिकार रहे थे।

एक बंधुआ मज़दूर के रूप में मैं तिरुवन्नामलाई में एक ऐसे आदमी के लिए काम करता था जिसका पेड़ों की कटाई का व्यापार था। वह हमारी मज़दूरी तो समय से नहीं देता था लेकिन हमारी दिनचर्या पर उसका पूरा नियंत्रण रहता था। हम कब सोकर उठेंगे, क्या और कब खायेंगे, यह सब वही तय करता था। अपने जीवन पर हमारा अपना किसी तरह का अधिकार नहीं था। 2013 में, सरकारी अधिकारियों ने हमें और दो अन्य परिवारों को बचाया। हमें रिहाई प्रमाणपत्र जारी किए गए जिसने हमें अपने पूर्व मालिक के प्रति किसी भी प्रकार के कर्ज़ या जिम्मेदारी से मुक्त कर दिया और हमें सरकार से मिलने वाले मुआवजे और पुनर्वास के योग्य बना दिया।

अपनी रिहाई के बाद, हम तिरुवन्नामलाई में वंदावसी के पास पेरानामल्लूर गांव में बस गए। 2019 में, तमिलनाडु सरकार ने हमसे संपर्क किया और हमें उनके द्वारा बनाई जा रही नई आवासीय कॉलोनी में बसने का प्रस्ताव दिया। हमें अच्छा घर, नौकरी और प्रति परिवार एक दुधारू पशु देने का वादा किया गया – दूसरे शब्दों में कहें तो हमें एक बेहतर जीवन देने का वादा किया गया। 2020 में, हम डॉक्टर अब्दुल कलाम पुरम में आकर बस गये और तब से यहीं रह रहे हैं।

आज की तारीख़ में मेरे पास पांच गायें हैं और मैं कॉलोनी के भीतर ही चारकोल बनाने वाली यूनिट में काम करता हूं जिसे सरकार ही चलाती है। मैं एक निर्वाचित सामुदायिक नेता भी हूं, और मेरे ऊपर समस्याओं के समाधान और अपने लोगों की जरूरतों और मांगों को स्थानीय सरकारी अधिकारियों तक पहुंचाने की जिम्मेदारी है। इस कॉलोनी में, इरूलर समुदाय से आने वाले हम लोग बंधुआ मजदूरी के अपने साझा इतिहास से जुड़े हुए हैं जो हमें एक बड़े से परिवार का हिस्सा बनाता है।

जिस दिन मैं चारकोल बनाने वाली यूनिट में काम पर नहीं जाता हूं, उस दिन मैं अपने समुदाय के लिए काम करता हूं और उनकी समस्याओं को सुलझाता हूं। | चित्र साभार: मुनियप्पन

सुबह 5.00 बजे: मैं सोकर जागने के बाद अपने मवेशियों के पास जाता हूं। पेरानामल्लूर में हम दूसरे लोगों की गायों और बकरियों की देखभाल करते थे और सोचते थे कि क्या कभी हमारे पास अपने मवेशी होंगे। लेकिन यहां, प्रत्येक परिवार को एक गाय दी गई है। सरकार ने मिल्क सोसायटी भी स्थापित की है जिसके माध्यम से हम दूध सहकारी संस्था आविन को सीधे दूध बेच सकते हैं। सुबह का दूध दुहने के बाद मैं उस दूध को सोसायटी पहुंचा देता हूं।

लगभग सुबह 7 बजे, मैं लकड़ी इकट्ठा करने जंगल की तरफ़ जाता हूं। हमें वेलिकाथान को काटने की अनुमति दी गई है जो कंटीली झाड़ियों की एक आक्रामक प्रजाति है। इसे हम चारकोल-बनाने वाली यूनिट तक लेकर जाते हैं और वहां इसे जलाकर चारकोल बनाते हैं। हम मानसून के दिनों को छोड़कर पूरे साल यह काम करते हैं। मानसून में जंगल के इलाक़ों में पानी जम जाता है। एक चक्र में, हम लगभग 10 टन चारकोल का उत्पादन करते हैं। प्रत्येक टन को बेचकर 6,000 रुपये तक की कमाई हो जाती है। यह राशि आसपास के गांवों में लोगों को चारकोल से होने वाली कमाई से 1,000 रुपये ज़्यादा है।

चारकोल बनाना कॉलोनी के व्यवसायों में से एक है; हम ईंट भट्टे, सैनिटरी पैड और पेपर बैग बनाने वाली यूनिट इत्यादि में भी काम कर सकते हैं। हम लोगों ने प्रत्येक व्यवसाय के लिए सदस्यों की एक निश्चित संख्या के साथ आम आजीविका समूह (सीएलजी) का गठन किया है। उदाहरण के लिए, चारकोल यूनिट में 16 लोग हैं। सरकार द्वारा हमारे काम की निगरानी की जाती है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि सभी यूनिट सुचारू रूप से काम कर रहे हैं या नहीं।

अगर काम पसंद नहीं आता है तो लोगों को दूसरी यूनिट में जाकर काम करने की आज़ादी है। प्रत्येक सीएलजी एक व्यक्ति द्वारा किए गये काम के दिनों की संख्या का रिकॉर्ड रखता है और उसी अनुसार उन्हें भुगतान करता है। और काम छोड़कर जाने की स्थिति में भी उन्हें बचत पर ब्याज से मिलने वाला लाभ भी प्राप्त होता है। व्यवसाय की प्रगति और आगे की योजना बनाने के लिए सीएलजी के सदस्य मासिक बैठक करते हैं।

मुझे इस कार्य व्यवस्था की सबसे अच्छी बात यह लगती है कि अपने समय का मालिक मैं खुद हूं। अब मुझे यह बताने वाला कोई नहीं है कि मुझे अपना जीवन कैसे जीना है। इतना ही नहीं, मैंने अपने परिवार, बच्चों और हमारे भविष्य के लिए पैसे बचाने में भी सफल रहा हूं, जो मैं पहले नहीं कर सका था।

सुबह 10.00 बजे: जिस दिन मैं चारकोल बनाने वाली यूनिट में काम पर नहीं जाता हूं, उस दिन मैं अपने समुदाय के लिए काम करता हूं और उनकी समस्याओं को सुलझाता हूं। डॉक्टर अब्दुल कलाम पुरम में रहने वाले परिवार अलग-अलग गांवों से आते हैं, और शुरुआत में हमारे बीच अच्छा खासा लड़ाई-झगड़ा हुआ और कई तरह की असहमतियां भी थीं। लेकिन हम समाधान ढूंढ़ने में हमेशा ही कामयाब रहे।

मुझे एक घटना याद है जिसमें दो परिवार एकदम से मार-काट पर उतर गये थे। उनमें से एक परिवार के पास बकरियां थीं और दूसरे के पास पौधे। बकरियां पौधे चर गई थीं, और इसके कारण दोनों परिवारों के बीच झगड़ा शुरू हो गया, जो बाद में इतना बढ़ गया था कि समुदाय के नेताओं द्वारा बीचबचाव करने की स्थिति आ गई। हमने दोनों परिवारों को अपने-अपने घर के चारों ओर बाड़ बनाने का सुझाव दिया। घर के चारों ओर बाड़ लगाना अब यहां एक आम बात हो गई है। 

जीवन अब पहले से बहुत बेहतर है, लेकिन यह सोचना हमारी ज़िम्मेदारी है कि इसे और बेहतर कैसे बनाया जा सकता है।

कॉलोनी में कुल 13 नेता हैं – सभी को कम्युनिटी हॉल में होने वाले चुनाव में समुदाय ने स्वयं चुना है। ये नेता लगातार उस नागरिक समाज संगठन के संपर्क में हैं जो हमारे सामने आने वाली चुनौतियों का समाधान ढूंढ़ने के लिए यहां कॉलोनी में और स्थानीय सरकार के साथ मिलकर काम करती है।

हमारे सामने वाली कई चुनौतियों में से एक है सबसे नज़दीकी अस्पताल तक पहुंचना जो यहां से पांच किमी दूरी पर है। हमने ज़िला कलेक्टर को चिट्ठी लिखकर सार्वजनिक परिवहन सेवाओं के अनियमित होने से होने वाली असुविधा की जानकारी दी। अब ज़िला प्रशासन कॉलोनी में ही समय-समय पर चिकित्सा कैंप का आयोजन करता है। हमारे यहां राशन की दुकानें भी नहीं थीं लेकिन एक बार हमने कलेक्टर का ध्यान इस ओर दिलवाया और कॉलोनी का एक खाली पड़ा कमरा राशन की दुकान में बदल गया।

हम अब एक ऐसी बस सेवा चाहते हैं जो हमारे बच्चों को हाई स्कूल तक ले जाए। छोटे बच्चे कॉलोनी के भीतर ही आंगनबाड़ी में पढ़ने जाते हैं और पहली से आठवीं क्लास के बच्चों को ऑटो-रिक्शा में पास के गांव वाले स्कूल में जाना पड़ता है। 

हालांकि, दूसरे बड़े बच्चे अगर आठवीं से आगे की पढ़ाई करना चाहते हैं तो उन्हें हाई स्कूल जाने के लिए पांच किमी की यात्रा करनी पड़ती है। सबसे नज़दीकी कॉलेज यहां से लगभग 10 किमी दूर है। मैं सरकार से विनती करता हूं कि वे यहां कॉलोनी में ही एक आवासीय स्कूल और एक कॉलेज बनाने के बारे सोचें।

हमें बेहतर सड़क और परिवहन व्यवस्था से भी लाभ मिलेगा क्योंकि हम शहर से दूर रहते हैं। पहले हम, अपने पैतृक गांवों में गंदी परिस्थितियों में रहते थे। हमारे घर जर्जर थे और हम सभी प्रकार की बीमारियों से ग्रस्त थे। जीवन अब काफी बेहतर है, लेकिन यह सोचना हमारी ज़िम्मेदारी है कि इसे और बेहतर कैसे बनाया जा सकता है।

शाम 6.00 बजे: घर वापस लौटकर रात का खाना खाने से पहले 8 बजे तक मैं अपने बच्चों के साथ समय बिताता हूं। मेरा बेटा अब सातवीं क्लास में है। जब वह छोटा था तो उसे आईपीएस अधिकारी बनने की इच्छा थी। हम जहां रहते थे उसके पास में ही एक पुलिस स्टेशन था और उसने देखा था कि अधिकारियों को कितना मान-सम्मान मिलता है। अब, इस कॉलोनी में आने और कलेक्टर को काम पर देखने के बाद वह एक आईएएस अधिकारी बनना चाहता है और समुदाय की सेवा करना चाहता है। मेरी बड़ी बेटी चौथी क्लास में है और डॉक्टर बनना चाहती है। छोटी बेटी अभी केवल तीन साल की ही है। मैं उनके लिए एक अच्छा और उज्ज्वल भविष्य चाहता हूं। वे एक ऐसी दुनिया में बड़े होंगे जहां वे पूरी आज़ादी के साथ अपने आप को अभिव्यक्त कर सकते हैं। वे यात्रा कर सकते हैं, अपने रिश्तेदारों से मिलने जा सकते हैं और जो चाहें वह सब कर सकते हैं – उन्हें रोकने वाला कोई नहीं होगा।

हम जल्द ही कॉलोनी में अपना त्योहार मासी मागम आयोजित करने की योजना बना रहे हैं। यह इरुलर लोगों के लिए एक महत्वपूर्ण त्योहार है और देवी कन्नियम्मा के सम्मान में मनाया जाता है। हम वर्तमान में यहां अपना मंदिर बनाने के लिए धन जुटा रहे हैं। बंधुआ मजदूर के रूप में, हमें कभी भी एक परिवार के रूप में किसी भी उत्सव में शामिल होने की अनुमति नहीं थी; हममें से कुछ को हमेशा पीछे रहना पड़ता था ताकि दूसरों को जगह मिल सके। मुझे अपने पुराने जीवन की बिलकुल भी याद नहीं आती है और मैं सुनिश्चित करूंगा कि मेरे बच्चों को वैसे जीवन का अनुभव कभी नहीं करना पड़े।

जैसा कि आईडीआर को बताया गया।

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आईडीआर एक्सप्लेन्स: भारत में स्थानीय सरकार

छब्बीस जनवरी यानी हमारा गणतंत्र दिवस। साल 1950 में इसी दिन भारत का संविधान लागू हुआ था। हमारे देश के प्रशासन को सुचारू रूप से चलाने के नियम-कायदे और समूची व्यवस्था संविधान द्वारा ही तय की जाती है। साल 1992 में देश ने 73वें और 74वें संशोधन के रूप में विकेंद्रीकरण की तरफ अपना कदम बढ़ाया। इसका उद्देश्य ज़मीनी स्तर के लोकतंत्र को मज़बूत करके स्थानीय राजनीतिक इकाइयों को मज़बूत बनाना था।

इस वीडियो में आप जानेंगे कि 73वें और 74वें संशोधनों के लागू होने के बाद देश के प्रत्येक राज्य के लिए यह ज़रूरी हो गया कि वे गांव और शहरों में अलग-अलग स्थानीय सरकारों का गठन करें। साथ ही, काम करने के लिए उन्हें फंड देने वाली व्यवस्था बनाएं और हर पांच साल में स्थानीय चुनाव करवाएं। इसके पीछे सोच यह थी कि आम लोगों पर सीधा असर डालने वाले फ़ैसलों में उनकी राय शामिल होनी चाहिए। साथ ही, यह भी माना गया कि स्थानीय समस्याओं का सबसे अच्छा और उचित हल भी स्थानीय लोग और सरकारें ही निकाल सकती हैं।

सभी राज्य सरकारें अपने नीचे आने वाली स्थानीय सरकारों द्वारा किए जाने वाले कामकाज के लिए ज़िम्मेदार होती हैं। इसलिए इन स्थानीय सरकारी संस्थानों को मिलने वाली शक्तियां उनके राज्य के क़ानूनों पर निर्भर करती हैं। स्थानीय सरकारें, जहां ज़मीनी स्तर पर विकास को सुनिश्चित करने के लिए ज़रूरी हैं, वहीं इसकी ज़िम्मेदारी एक समुचित प्रणाली के रूप में केंद्र, राज्य और ज़िला प्रशासन तीनों पर है। इन सबको एक सहजता से चलने वाली मशीन की तरह काम करना होता है, ताकि स्थानीय सरकारें अपने निर्धारित लक्ष्यों को हासिल करने के लिए नियमित और सुचारू रूप से काम कर सकें।

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ई-मित्र अपनी ज़िम्मेदारियां ठीक से निभाकर लोगों को सशक्त बना सकते हैं

मेरा नाम ऐसे तो चतर सिंह है लेकिन सभी मुझे प्यार से चतरु बुलाते हैं। मेरा घर राजस्थान के राजसमंद जिले के देवडुंगरी नामक गांव में है। मैं अपने माता-पिता के साथ रहता हूं। मेरे माता-पिता दोनों ही मनरेगा योजना के अंर्तगत दिहाड़ी मज़दूरी करते हैं। हमारे गांव देवडुंगरी में ज़्यादातर लोग या तो मज़दूरी करते हैं या फिर वे काम की तलाश में दूसरी जगह चले जाते हैं। इसके पीछे का कारण यह है कि हमारे गांव में इतनी बारिश नहीं होती है कि खेती-किसानी हमारे लिए रोजगार का विकल्प बन सके। हमारे परिवार में कुल सात लोग हैं, लेकिन शादी के बाद मेरी बहनें अब अपने ससुराल में रहती हैं और मेरे सभी भाई भी रोज़गार और काम-धंधे के सिलसिले में दूसरी जगहों पर जाकर बस गये हैं।

मैं एक ई-मित्र हूं। यह एक प्लेटफ़ार्म होने के साथ ही एक तरह की नौकरी भी है – एक ई-मित्र वह व्यक्ति होता है जो राजस्थान में लोगों को सरकार द्वारा लागू की गई अनिवार्य सेवाओं और योजनाओं और ऑनलाइन सेवाओं के लिए आवेदन करने में उनकी मदद करता है। अपने काम के लिए मैं जन सूचना पोर्टल का उपयोग करता हूं। यह एक सार्वजनिक सूचना पोर्टल है जिसे राजस्थान की सरकार चलाती है और रीयल टाइम में इस पर सूचनाएं अपडेट होती हैं। इस पोर्टल के माध्यम से हम लोगों की पात्रता डिलीवरी और आवेदन की स्थिति का पता लगाया जा सकता है। मैं मज़दूर किसान शक्ति संगठन (एमकेएसएस) के साथ काम करता हूं। इस संगठन की स्थापना देवडुंगरी में ही हुई थी। हमारा घर मेरे माता-पिता की आय और मेरे द्वारा हर दिन कमाए जाने वाले 289 रुपये के न्यूनतम वेतन से चलता है जो मुझे एमकेएसएस के साथ काम करने की एवज़ में मिलता है।

जब मैं सात या आठ साल का था तब एक बिना लाइसेंस के डॉक्टरी करने वाले व्यक्ति ने मेरी एक टांग में इंजेक्शन लगा दिया, जो किसी एक ऐसी नस पर असर कर गई जहां उसे नहीं करना चाहिए था। इसके कारण मैं स्थायी रूप से विकलांग हो गया। समाज में व्याप्त अंधविश्वासों के कारण, किसी ने भी मेरी विकलांगता को चिकित्सीय गलती से जोड़ कर नहीं देखा। बल्कि इसके उलट, लोगों का मानना था कि मुझ पर किसी तरह का अभिशाप है। मुझे समय पर हॉस्पिटल भी नहीं ले ज़ाया गया ताकि सही इलाज मिल सके। इसके बदले, मुझे सब लोग मिलकर मंदिर ले गये जहां एक पुजारी लगातार मेरे परिवार के लोगों को झूठी और ग़लत सलाह देता रहा। हर बार वह कभी दो महीने तो कभी चार महीने बाद बुलाता। उसका कहना था कि मैं एक दिन ठीक हो जाऊंगा। इसी तरह दो-तीन साल निकाल गये। समय इतना बीत चुका था कि इसके बाद मेरी उस नस को ठीक करना किसी भी डॉक्टर के वश में नहीं था। इस विकलांगता ने मेरे जीवन पर बहुत बुरा प्रभाव डाला। मेरे बड़े भाई ने कुछ समय तक मुझे घर पर ही पढ़ाया। लेकिन इस विकलांगता के कारण मुझे 10-11 साल तक की उम्र तक औपचारिक शिक्षा से वंचित रहना पड़ा।

मेरी बारहवीं तक की पढ़ाई देवडुंगरी के ही स्कूल से हुई और उसके बाद मैं डिस्टेंस लर्निंग से अपनी ग्रेजुएशन पूरी की। लेकिन जब मैंने दूसरी बार बीए करने का फ़ैसला लिया तो उसके लिए मेरे सामने कक्षा में जाकर पढ़ाई करने की शर्त थी। मेरी मां मुझे घर से बाहर नहीं जाने देना चाहती थीं। उन्हें हमेशा इस बात की चिंता लगी रहती थी कि बाहर मेरी देखभाल करने वाला कोई नहीं होगा और मैं ख़ुद से अपना ख्याल नहीं रख पाऊंगा। इस बात को लेकर मेरे और उनके बीच बहस भी गई थी। मैं उनकी चिंता समझ रहा था लेकिन मैं घर के बाहर की दुनिया को भी देखना और समझना चाहता था। मैंने अक्सर ही देखा है कि विकलांग लोग अपनी ज़िंदगी को घर की चारदीवारी में क़ैद कर लेते हैं। मुझे अपने लिए ऐसा जीवन नहीं चाहिए था।

समय के साथ मैंने चलना और यहां तक कि यात्राएं करना भी सीख गया। और इस तरह से मैंने अपनी उच्च शिक्षा पूरी की। ई-मित्र के मेरे काम से मेरे जीवन को नया अर्थ मिला और मैं इस काबिल बन पाया कि लोगों की मदद कर सकूं। ई-मित्र के जरिए मुझसे मदद पाने वाले लोगों में ज़्यादातर कम आय वर्ग वाले लोग होते हैं और अक्सर सरकारी सामाजिक अधिकारों और उनसे मिलने वाले लाभों तक स्वयं नहीं पहुंच पाते हैं।

एक दुकान के सामने खड़े चतर सिंह_ई-मित्र
लोगों की सहायता करना और उनके अधिकारों के बारे में उन्हें बताना इसलिए भी ज़रूरी है ताकि वे अपने अधिकारों के बारे में समझ विकसित कर सकें। | चित्र साभार: चतर सिंह

सुबह 3.30 बजे: मैं सुबह जल्दी जाग जाता हूं और दो घंटे तक विभिन्न प्रतियोगिता परीक्षाओं की तैयारी करता हूं। मैं राजस्थान एलिजेबिलिटी एग्जामिनेशन फॉर टीचर्स  (आरईईटी) से लेकर राजस्थान प्रशासनिक सेवाओं (आरएस) के लिए होने वाली सभी परीक्षाओं की तैयारी कर रहा हूं। मेरा सपना है कि या तो मैं एक अच्छा शिक्षक बन जाऊं या फिर मेरा चयन आरएस अधिकारी के रूप में हो जाये। मेरी नौकरी लगने के बाद मेरा परिवार आर्थिक रूप से स्थिर हो जाएगा। मुझे नई-नई चीजें सीखने में बहुत मजा आता है और तीन विषयों में एमए के करने के साथ ही मेरे पास बीएड की डिग्री भी है। चूंकि घर से निकलना मेरे लिए संभव नहीं था और मैंने केवल पांचवी कक्षा तक की ही पढ़ाई स्कूल से की है, इसलिए मुझे शिक्षा का महत्व अच्छे से मालूम है।

स्कूल ना जाना पाना मेरी एकमात्र चुनौती नहीं थी – कलंक और अंधविश्वास ने जीवन भर मेरा पीछा नहीं छोड़ा। गांव वालों का मानना था कि सुबह-सुबह मेरा चेहरा देखने से उनका दिन ख़राब हो सकता है। मेरा परिवार, विशेष रूप से मेरी मां को कई तरह के ताने सुनते पड़ते थे जैसे कि, ‘इसे सुबह दस या ग्यारह बजे के बाद ही बाहर भेजो। सुबह-सुबह इसका चेहरा देखना हमारे लिए अशुभ होता है।’

लेकिन जब से मैंने ई-मित्र के रूप में काम करना शुरू किया है तब से मेरे आसपास और समुदाय के लिए लोगों का व्यवहार मेरे प्रति बदल गया है। एक समय मेरी विकलांगता के कारण मुझे नीचा दिखाने वाले लोग ही मुझसे अपने पेंशन, राशन और अन्य सामाजिक अधिकारों के लिए किए गए अपने आवेदनों की स्थिति के बारे में पूछने के लिए सुबह से ही मेरे घर के बाहर क़तार में खड़े हो जाते हैं।

चूंकि मैं अपने इस कम को समाज सेवा से जोड़कर देखता हूं इसलिए मुझे उनकी मदद करने से ख़ुशी मिलती है। लोगों की सहायता करना और उन्हें उनके अधिकारों के बारे में बताना ज़रूरी है ताकि उन्हें अपने अधिकारों की समझ हो सके। उदाहरण के लिए, ग़रीबी में अपना जीवन गुजर-बसर कर रही एक विधवा बुजुर्ग मेरे पास इसलिए आई थी क्योंकि उसे अपना पेंशन नहीं मिल रहा था। हालांकि उन्हें विधवा पेंशन के साथ-साथ वृद्धा-पेंशन भी मिल सकता था लेकिन उन्हें पढ़ना-लिखना नहीं आता था इसलिए वह आवेदन से जुड़ी कागजी प्रक्रिया करने में सक्षम नहीं थीं। मैंने उनका पेंशन फॉर्म भरा, जॉब कार्ड बनाने के लिए भी आवेदन फॉर्म भरा, और कोशिश की कि उनका नाम राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम की सूची में भी उनका नाम दर्ज हो जाए। अगर सब कुछ सही रहा तो उन्हें जीवन भर इन सभी योजनाओं से मिलने वाले लाभ प्राप्त होंगे। अपने ई-मित्र सेंटर पर मैं हर दिन कम से कम ऐसे 50 से 60 लोगों से मिलता हूं और उनकी मदद करता हूं।

मेरा ऑफिस सुबह साढ़े नौ बजे शुरू होता है, इसलिए मैं सुबह का नाश्ता करने के बाद नौ बजे काम के लिए निकल जाता हूं।

सुबह 9.30 बजे: ई-मित्र का काम करने वाला कमरा, राजसमंद के भीम तहसील में स्थित एमकेएसएस के दफ़्तर में ही है। हमारे ऑफिस को ‘गोदाम’ कहा जाता है और यह चार जिलों – राजसमंद, पाली, अजमेर और भीलवाड़ा- के बीच में स्थित है। इन चारों जिलों के लोग अपना काम करवाने के लिए मेरे ऑफिस में आते हैं। मेरा काम मुख्य रूप से ऑनलाइन ही होता है, जहां मैं लोगों को सरकारी योजनाओं के तहत मिलने वाले लाभों के लिए आवेदन करवाने और समय-समय पर उनके आवेदनों की स्थिति का पता लगाने में उनकी मदद करता हूं। इसके अलावा मैं उन्हें राजस्थान राज्य सरकार की उन विभिन्न योजनाओं के बारे में भी बताता हूं जिनका उन्हें लाभ मिल सकता है।

राजस्थान की सरकार ने हमारे क्षेत्र में सेवा के लिए न्यूनतम पचास रुपये की दर तय की हुई है। हालांकि, मैंने देखा है कि कई ई-मित्र पचास रुपये की रसीद बनाते हैं लेकिन वास्तव में अपनी सेवाओं के लिए सौ से डेढ़ सौ रुपये तक भी लेते हैं।

कप्यूटर पर काम करते हुए चतर सिंह_ई-मित्र
विकलांग बच्चों के माता-पिता को मैं अक्सर यह सलाह देता हूं कि वे अपने बच्चों को घर की चारदीवारी में बंद करके ना रखें। | चित्र: चतर सिंह

मेरी सबसे बड़ी चिंता व्यवस्था में व्याप्त भ्रष्टाचार है। मैंने देखा है कि ई-मित्र उन लोगों का लाभ भी उठाते हैं जिन्हें सरकारी योजनाओं का लाभ मिल सकता है। उदाहरण के लिए, भवन और अन्य निर्माण श्रमिक अधिनियम, 1996 के तहत श्रम कार्ड रखने वाले आदमी को शुभ शक्ति योजना का लाभ मिल सकता है। इस योजना के अंतर्गत ऐसे श्रमिकों की बेटी को सरकार की तरफ से पचपन हज़ार रुपये की सहायता राशि मिलती है यदि वह अठारह साल तक अविवाहित है और उसने कम से कम कक्षा आठ तक की पढ़ाई पूरी कर ली है। ऐसे कई लोगों को ई-मित्रों द्वारा ठगा जाता है और वे उनसे कहते हैं कि अगर वे उन्हें दस से बीस हज़ार रुपये तक दें तो वे उनके पचपन हज़ार रुपये जल्द से जल्द दिलवाने में उनकी मदद कर सकते हैं। ऐसा नहीं करने पर आवेदन से लेकर अधिकार के पैसे मिलने की प्रक्रिया पूरी होने में बहुत लंबा समय लग सकता है।

हालांकि हमारे सेंटर को व्यवस्था में व्याप्त भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए ही शुरू किया गया था। जब 2014 में मैंने एमकेएसएस के ऑफिस में काम करना शुरू किया था, तब हमने पाया कि एक ई-मित्र ने एक महिला से बीस रुपये की जगह दो सौ रुपये का भुगतान करवाया था। चूंकि मैं ऑफिस से बाहर निकल बहुत अधिक मदद नहीं कर सकता हूं, इसलिए मुझे एक मॉडल ई-मित्र चलाने की जिम्मेदारी दी गई जहां लोगों से उचित राशि ही ली जाएगी।

दोपहर 1.30 बजे: मैं और मेरे सहकर्मी मिलकर दोपहर के खाने की तैयारी करते हैं। हम लोग गोदाम में ही खाना पकाते हैं और खाते हैं। खाना पकाने के दौरान हम अपनी निजी ज़िंदगियों से लेकर राजनीति जैसे विषयों पर चर्चाएं भी करते हैं। अक्सर ही हमारी बातचीत का विषय जवाबदेही व्यस्वथा में मौजूद धोखाधड़ी होती है क्योंकि ये विभिन्न सरकारी विभागों में स्थानीय अधिकारियों और ई-मित्रों के बीच के संबंध इस समस्या को और बढ़ा देते हैं।

राजस्थान सरकार के अंर्तगत छह सौ अधिक सेवाएं और योजनाएं हैं और ईमित्र के माध्यम से इन सभी तक पहुंचा जा सकता है। हम अब तक कुल तीन बार जन सुनवाई का आयोजन कर चुके हैं ताकि इस बात का अंदाज़ा लगाया जा सके कि इन योजनाओं का लाभ सही लोगों तक पहुंच रहा है या नहीं। यह जानने के लिए कि प्रत्येक ग्रामीण को मिलने वाला अधिकार किस चरण में मिलता है, हम गांव में सामाजिक ऑडिट भी आयोजित करते हैं। उसके बाद हम पूरे गांव और विभाग के अधिकारियों को जन सुनवाई के लिए एक जगह पर बुलाते हैं। इस सुनवाई में हम प्रत्येक व्यक्ति के सामने योजनाओं से जुड़ी ग़लतियों का पता लगाते हैं और उसे दूर करते हैं। उदाहरण के लिए, अगर हम प्रधान मंत्री आवास योजना के लिए जन सुनवाई का आयोजन करेंगे तो हम उसमें लोगों के सामने आने वाली समस्याओं की पहचान करेंगे ताकि उससे संबंधित विभाग अपनी ग़लतियों को ठीक करने की दिशा में काम कर सके। इससे हमें यह जानने में भी मदद मिलती है कि कहीं किसी ने ग़लत तरीक़े से पैसे तो नहीं लिये हैं और इसके बाद हम उसी समय पूरे गांव के सामने अधिकारियों को इसके लिए जवाबदेह बना सकते हैं।

शाम 5.00 बजे: मैं आमतौर पर शाम पांच से छह बजे तक काम करता हूं। एक आवेदन प्रक्रिया से जुड़ा काम करने में मुझे आधे घंटे से लेकर एक घंटे तक का समय लग जाता है क्योंकि सभी जानकारियों को सही-सही भरना बहुत महत्वपूर्ण है। इस सेवा के लिए मैंने किसी भी प्रकार की विशेष प्रशिक्षण नहीं ली है इसलिए बिना गलती के काम करने के लिए या तो मैं यूट्यूब पर निर्भर रहता हूं या फिर गलती करके सीखता हूं।

जनसूचना पोर्टल के माध्यम से हमें सभी प्रकार की प्रासंगिक जानकारी मिल जाती है और हम एक व्यक्ति के लिए कई आवेदन फॉर्म भर सकते हैं। ऐसे में गलती पकड़ना आसान होता है। मुझे आज भी याद है। ई-मित्र के रूप में काम करते हुए मुझे कुछ ही साल हुए थे, एक महिला अपनी पेंशन के बारे में जानने के लिए हमारे पास आई थी। कई महीनों से उसे उसकी पेंशन की किस्त नहीं मिली थी। मैंने रिकॉर्ड चेक किया और पाया कि दस्तावेज के सत्यापित नहीं हो पाने के कारण उसे मृत घोषित किया जा चुका है। इस मामले की गहराई से जांच करने के बाद हमने जाना कि राजस्थान में लगभग छह से आठ लाख लोगों को मृत घोषित किया जा चुका था जबकि वे जीवित थे। इन परिस्थितियों में, सरकार के लिए तकनीक से जुड़े काम करने वाले लोगों के साथ ही विभिन्न स्तरों के अधिकारियों से संपर्क रखना मददगार साबित होता है ताकि हम हम सीधे उनसे संपर्क कर सकें। हमने उप-विभागीय मजिस्ट्रेट (एसडीएम) और खंड-विकास अधिकारी (बीडीओ) से संपर्क किया और उनसे इस मामले को उजागर करने और समाधान खोजने के लिए कहा। मैंने हमेशा ही हमारे काम को सरकार से जोड़ कर देखा है – वे हमारे बिना काम नहीं कर सकते और ना ही हम उनके बिना।

काम के बाद कभी-कभी मुझे ट्रेनिंग या मीटिंग के लिए भी बुलाया जाता है। जैसे कि, मैं स्कूल फॉर डेमोक्रेसी से बहुत नज़दीक से जुड़ा हुआ हूं। यह एक संगठन है जो लोकतांत्रिक और संवैधानिक अधिकारों और मूल्यों के लिए काम करता है। वे मुझे वर्कशॉप के लिए बुलाते हैं ताकि मैं वहां के लोगों को राजस्थान की महत्वपूर्ण योजनाओं की जानकारी दे सकूं और उन्हें जन सूचना पोर्टल के इस्तेमाल के तरीक़ों के बारे में बता सकूं। मैं विकलांगों द्वारा झेले जाने वाले भेदभाव के प्रति संवेदनशील बनाने के लिए युवाओं के साथ भी काम करता हूं।

मैं विकलांग बच्चों के माता-पिता को यह सलाह देता हूं कि उन्हें अपने बच्चों को घर की चारदीवारी में बंद करके नहीं रखना चाहिए। इसके बदले, उन बच्चों को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए और जीवन में कुछ करने के अवसर प्रधान करने चाहिए। शिक्षा के बिना मेरा जीवन अभी के जीवन से बहुत अलग होता, और बचपन में मुझसे जुड़ा कलंक का भाव पूरी ज़िंदगी मेरा पीछा नहीं छोड़ता।

शाम 7.00 बजेकाम से घर लौटकर मैं लगभग एक घंटे तक टीवी देखता हूं। मुझे क्रिकेट देखने में बहुत मज़ा आता है और जब 2023 के वर्ल्ड कप में भारत के हारने पर मैं बहुत दुखी भी हो गया था। इसके अलावा, मैं सीआई डी धारावाहिक भी देखता हूं। यहां गांव में अंधेरा जल्दी हो जाता है इसलिए मैं आमतौर पर रात के नौ बजे से पहले खाना खा लेता हूं। दिन भर मुझे अपना फोन देखने का समय नहीं मिलता है, इसलिए खाने के बाद मैं अपने मैसेज पढ़ता हूं उनके जवाब देता हूं। यह सब करते करते मेरी आंख लग जाती है और मैं सो जाता हूं क्योंकि अगले दिन सुबह उठकर मुझे पढ़ाई भी करनी होती है। 

जैसा कि आईडीआर को बताया गया है।

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सुनने में अच्छा लगा लेकिन समझ कुछ नहीं आया!

भाषण देता एक व्यक्ति_ज़मीनी कार्यकर्ता
चित्र साभार: सृष्टि

जलवायु परिवर्तन के चलते ख़त्म होती भीलों की कथा परंपरा

महाराष्ट्र के नंदुरबार जिले में स्थित सतपुड़ा की पहाड़ियों में ‘कथा’ गाई जाती हैं जिनमें मुख्य रूप से पौराणिक कथाएं और गीत होते हैं। यहां रहने वाले भील समुदाय के जीवन में इन कथाओं और गीतों की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है। इस समुदाय के पास जीवन, मृत्यु और इन दोनों के बीच में मौजूद तमाम बातों से जुड़ी पौराणिक कथाएं हैं। किसी की मृत्यु हो जाने पर, पूरी रात चलने वाले ऐसे समारोह आयोजित किये जाते हैं जिनमें लोग इकट्ठा होते हैं और कथावाचकों के साथ मिलकर गाते हैं। इन कथावाचकों को स्थानीय लोग गान्यू वालो (क्योंकि ये कहानियों को गाते हैं) के नाम से पुकारते हैं। खेती के कामों में भी इस प्रथा की छाप देखने को मिलती है जहां पूरी की पूरी ऐसी मिथक कहानियां हैं जिनमें न केवल सतपुड़ा में भीलों के बीच खेती का लोक इतिहास दर्ज है बल्कि इन कहानियों में ये भी बताया गया है कि कौन सी फसल – धान और सब्जियां सहित – किस मौसम में उगाई जानी चाहिए। इन लोक गीतों में बीज के अंकुरण और बोआई तथा सिंचाई के तरीक़ों का भी ज़िक्र किया गया है।

भील परंपरा का दस्तावेज़ीकरण करने के मेरे काम के दौरान, मुझे ऐसी कथाएं मिलीं, जिनमें इस समुदाय के चारागाहों से लेकर कृषिविदों तक की यात्रा के बारे में बताया गया है। एक आम मिथक है जो इस बारे में बताता है कि जब इस समुदाय ने पहली बार खेती का काम शुरू किया था तो उनके कुल देवताओं ने बीज की खोज के लिए लोगों को सात समुंदर पार भेजा था, जिससे अंत में इस क्षेत्र में रहने वाले लोगों के जीवन में समृद्धि आई। ये कहानियां मानवीय लालच और संसाधनों के अत्यधिक दोहन के प्रति भी सचेत करती हैं जो सूखा, कमी और अकाल का कारण बन सकता है।

मिथकों के अनुसार, देवियों और देवताओं ने इन गीतों के माध्यम से भीलों को खेती से जुड़ी शिक्षा दी थी। इस प्रकार गान्यू वालो को इन कहानियों को पीढ़ी दर पीढ़ी पहुंचाने वाली एक महत्वपूर्ण कड़ी माना जाता है। गीतों के माध्यम से ही समुदाय के लोगों ने मोर और कोदारो जैसी चावल की क़िस्मों के बारे में जाना। इन क़िस्मों की खेती में बहुत ही कम पानी लगता है और इनकी खेती पहाड़ी के निचले हिस्सों में की जाती है जहां पानी के स्रोतों से उनकी सिंचाई होती है। उन्हें यह भी मालूम है कि उड़द और मूंग जैसी दालों की खेती मानसून के दिनों में की जानी चाहिए क्योंकि इन फसलों को एक निश्चित समय अवधि के लिए नियमित बारिश की ज़रूरत होती है। हालांकि, ये सभी ज्ञान अब अप्रासंगिक हो गए हैं क्योंकि पानी के झरने सूख चुके हैं और बारिश भी अनियमित हो गई है। बहुत अधिक बारिश होने से मोर और कोदारो के बीज बह जाते हैं और उड़द और मूंग की खेती के समय पर्याप्त रूप से नियमित बारिश नहीं होती है। 

इसके अलावा, खेतों में मज़दूरों की जगह मशीनों ने ले ली है और बाज़ार से लाये गये बीज और खाद ने प्राकृतिक परंपराओं को ख़त्म कर दिया है। अब जब, पारंपरिक अनाजों के बदले इन पहाड़ियों में स्ट्रॉबेरी जैसे फल उगाए जाने लगे हैं, ऐसे में समुदाय के लोग ‘पौराणिक प्रथाओं’ को इससे कैसे जोड़ पाएंगे? आपको यह बदलाव विशेष रूप से नंदुरबार बाजार के आसपास की जगहों पर देखने को मिलेगा

चूंकि खेती के पुराने तरीक़ों ने अपना महत्व खो दिया है, उनसे जुड़े मिथक भी अब महत्वपूर्ण नहीं रह गए हैं। अब खेती से जुड़ी पौराणिक गीतों और कहानियों को सुनने के लिए कोई भी गान्यू वालो को नहीं बुलाता है, जिसके कारण उनकी आजीविका बहुत अधिक प्रभावित हो रही है और भीली परंपरा के एक महत्वपूर्ण हिस्से के मिट जाने का ख़तरा भी पैदा हो रहा है।

जीतेन्द्र वसावा देहवाली भीली कवि हैं और भील लोक-इतिहास के दस्तावेज़ीकरण का काम करते हैं।

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अधिक जानें: जानें कि जलवायु परिवर्तन, कैसे ओडिशा में मनाए जाने वाले पर्व-त्योहारों की देरी का कारण बन रहा है।

अधिक करें: लेखक के काम को विस्तार से जानने और उन्हें अपना सहयोग देने के लिए उनसे [email protected] पर संपर्क करें।

सार्वजनिक वितरण प्रणाली के ज़रिए ज्वार-बाजरा को आम लोगों तक पहुंचाना

सितंबर 2022 में, भारत के खाद्य मंत्रालय ने अपनी कैंटीनों में मोटे अनाजों (मिलेट्स) से बने उत्पाद उपलब्ध कराए जाने अपने निर्णय की घोषणा की। इंटरनेशनल इयर ऑफ द मिलेट्स 2023 के मौक़े पर मंत्रालय अब बैठकों में स्वास्थ्य के लिहाज़ से फायदेमंद स्नैक्स जैसे रागी बिस्कुट, लड्डू और बाजरे के चिप्स वग़ैरह परोसने की तैयारी कर रहा है। अब कैंटीन में बनने वाले डोसा, इडली और वड़ा के लिए भी मुख्य अनाज के रूप में बाजरे का उपयोग होने लगा है।

पिछले कुछ वर्षों से, इस उद्देश्य के साथ कई पहलें काम कर रही हैं कि मोटे अनाज को हमारे खानपान में वापस लाना है, और इसलिए, इसकी खेती पूरे जोरों पर है। मिलेट्स को अब निम्न स्तर के मोटे अनाज के रूप में ना देख कर हमारी धरती के लिए अनुकूल और पौष्टिक अनाज माना जाने लगा है। हाल में सरकार का पूरा ध्यान शहरी ग्राहकों के व्यवहार में बदलाव पर रहा है जो इन उत्पादों को खरीदने की क्षमता रखते हैं। लेकिन बाकी का देश मिलेट्स का उपभोग कैसे करेगा, विशेष रूप से इसकी वर्तमान कीमत और उपलब्धता को देखते हुए?

यहीं पर, भारत की सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस), अपने विस्तार और खाद्यान्न वितरकों के विशाल नेटवर्क के साथ, मोटे अनाजों को जन-जन तक पहुंचाने में भूमिका निभा सकती है। अनाज और दालों जैसे आवश्यक उत्पादों की खरीद-क्षमता को नियंत्रित करके, पीडीएस लोगों के खाने के तरीकों और खाने के उनके चुनाव को प्रभावित करता है। मोटे अनाजों की पोषकता और इसके उत्पादकों को समर्थन देने के महत्व को पहचानते हुए, भारत सरकार ने सार्वजनिक प्रणालियों के माध्यम से बाजरा के उत्पादन और वितरण को बढ़ावा देना शुरू कर दिया है।

ओडिशा में, वाससन (वाटरशेड सपोर्ट सर्विसेज एंड एक्टिविटीज नेटवर्क), राज्य सरकार के साथ साझेदारी में, पीडीएस और मिड-डे मील योजना जैसी पहले से उपलब्ध सार्वजनिक संरचनाओं के माध्यम से लोगों के आहार में मोटे अनाजों को दोबारा शामिल करने पर काम कर रहा है।

वाससन की पूर्व प्रोग्राम मैनेजर अशिमा चौधरी का कहना है कि, ‘केवल शहरी उपभोक्ताओं के लिए वैल्यऐडेड उत्पादों से मिलेट्स की मांग को पैदा नहीं किया जा सकता है। यह बड़ी आबादी द्वारा किए जाने वाले भारी मात्रा के उपभोग से संभव हो सकता है।’

अशिमा का मानना है कि बाजरा अनाज की थोक खपत को और अधिक सक्रिय रूप से बिलकुल उसी प्रकार प्रोत्साहित करना होगा जैसा कि अतीत में चावल और गेहूं के लिए किया गया था।

फिलहाल सरकार केवल रागी, ज्वार और बाजरा ही ख़रीदती है और उसे पीडीएस के माध्यम से उपलब्ध करवाती है। छोटे अनाजों जैसी बाजरा की किस्मों को ओडिशा और मध्य प्रदेश के साथ-साथ तेलंगाना और आंध्र प्रदेश में पीडीएस में शामिल करने पर विचार किया जा रहा है। हालांकि, छोटी किस्मों को शामिल करने की पहल स्थानीय समाजसेवी संगठनों द्वारा प्रयोग के तौर पर की जा रही है, और अभी तक इसे राज्य की नीति में शामिल नहीं किया गया है।

सार्वजनिक वितरण में, छोटे मोटे अनाजों को शामिल करने की बातचीत सामने आने से पहले, कर्नाटक, ओडिशा, तेलंगाना और मेघालय जैसे राज्यों ने प्रायोगिक तौर पर पीडीएस दुकानों पर सिंगल-कोटेड मोटे अनाजों -ज्यादातर रागी- का वितरण शुरू कर दिया था। तमिलनाडु ने हाल ही में राज्य मिलेट मिशन में रुचि दिखाना शुरू कर दिया है; धर्मपुरी और नीलगिरी के चुनिंदा जिलों में रागी पायलट प्रोजेक्ट के रूप में उचित मूल्य की दुकानों में उपलब्ध करवाया गया है।

आमतौर पर राज्य के विभिन्न क्षेत्रों में रागी और ज्वार की खपत को देखते हुए कर्नाटक सरकार ने पीडीएस के माध्यम से मोटे अनाज की विभिन्न किस्मों को सुलभ बनाने का प्रयास कर रही है। हालांकि, विधायक कृष्णा बायरेगौड़ा के नेतृत्व में राज्य के मिलेट मिशन से इसे क्रियान्वित करने की वास्तविकताएं कहीं अधिक जटिल रही हैं।

सार्वजनिक वितरण प्रणाली के लिए सरकारी राशन की दुकान (पीडीएस)_मोटे अनाज
भारत का पीडीएस, अपने विस्तार और खाद्य वितरकों के विशाल नेटवर्क के साथ, मोटे अनाजों को जन-जन तक पहुंचाने में भूमिका निभा सकता है। | चित्र साभार: नंदिनी भगत

सब्सिडी के बावजूद मोटा अनाज अभी भी बहुत महंगा है

राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम, 2013 (एनएफएसए) इस बात पर जोर देता है कि इस योजना के दायरे में आने वाले परिवारों को प्रति व्यक्ति प्रति माह पांच किलोग्राम अनाज मिलना चाहिए जिसमें चावल तीन रुपये प्रति किलोग्राम, गेहूं दो रुपये प्रति किलोग्राम, और मोटा अनाज एक रुपया प्रति किलोग्राम के दर से मिलना चाहिए; बाजरे को मोटे अनाज की श्रेणी में रखा गया है। बाज़ार – मुख्य रूप से रागी – अचानक मुख्य धारा का अनाज बन गया और एनएफएसए के जरिए उसे चावल से सस्ता किया जा रहा था।

साल 2019 में, ओडिशा सरकार ने अपने सात जिलों (गजपति, कालाहांडी, कंधमाल, कोरापुट, नुआपाड़ा, मल्कानगिरी और रायगड़ा) में रियायती दर पर रागी उपलब्ध कराना शुरू किया। इनमें से छह जिलों में, कार्डधारक प्रति माह एक रुपये प्रति किलो की दर से रागी खरीद सकते हैं। केवल मल्कानगिरी जिले में अधिक खपत के कारण सरकार ने दो किलोग्राम रागी एक रुपये में देने का फैसला किया। चौधरी बताते हैं कि आज भी ओडिशा में इन्हीं दरों पर ये अनाज उपलब्ध हैं। उचित मूल्य वाली दुकानों के जरिए रागी को व्यापक स्तर पर उपलब्ध बनाकर और सबकी पहुंच में लाकर ओडिशा सरकार ने प्रभावी तरीके से पीडीएस के लाभार्थियों को चावल और गेहूं से परे अन्य अनाजों से जोड़ना शुरू कर दिया है।

हालांकि, नीति में रागी जैसे मोटे अनाजों पर जोर दिया गया है, लेकिन इसका कार्यान्वयन एक अलग वास्तविकता दिखाता है। जहां बाजरे की क़ीमत को कम करके उसे पीडीएस के माध्यम से उपलब्ध बनाया गया वहीं आज भी ज़्यादातर राज्यों में चावल अधिक सस्ता है।

नीलगिरी जीवमंडल में स्वदेशी समुदायों के साथ काम करने वाली कीस्टोन फाउंडेशन के लक्ष्मी नारायण ने तमिलनाडु में नीलगिरी जिले के पिल्लूर क्षेत्र में अपने फील्डवर्क के दौरान एक समान पैटर्न देखा। वे कहते हैं कि, ‘हालांकि उचित मूल्य की दुकानों पर रागी उपलब्ध है, लेकिन इसकी कीमत 3-5 रुपये प्रति किलोग्राम मिलने चावल से अधिक है और जो जनजातीय समुदायों के मुफ़्त है।’

नारायण यह भी बताते हैं कि, कोविड-19 महामारी से पहले, नीलगिरी के ग़ैर-शहरी क्षेत्रों के परिवार चावल के साथ खाने के लिए खुद रागी की खेती करते थे। हालांकि, महामारी के दिनों में रागी के बीज ना ख़रीद पाने के कारण लाभार्थियों का परिवार पूरी तरह से पीडीएस में मिलने वाले चावल पर निर्भर हो गया।

पिछले पांच सालों में नीलगिरी के क्षेत्रों में जनजातीय समुदायों का सामान्य स्वास्थ्य स्तर ख़राब हुआ है और वे इसका कारण चावल की अत्यधिक खपत को बताते हैं।

प्रदान करती हैं। क्षेत्र के अन्य मूल अनाज जैसे कंबू (पर्ल मिलेट), सोलम (ज्वार), और थिनाई (फॉक्सटेल) की किस्में, जो परंपरागत रूप से नीलगिरी में रहने वाली इरुला नाम की जनजातीय समुदाय के खानपान में व्यापक रूप से शामिल थे, अब उनकी थाली से पूरी तरह ग़ायब हो चुके हैं। त्योहारों और विशेष अवसरों पर वे केवल रागी ही खाते हैं।

नारायणन आगे कहते हैं कि, ‘पिछले पांच सालों में नीलगिरी के क्षेत्रों में जनजातीय समुदायों का सामान्य स्वास्थ्य स्तर ख़राब हुआ है और वे इसका कारण चावल की अत्यधिक खपत को बताते हैं।’

मोटे अनाजों का प्रसंस्करण, एक बड़ी चुनौती

पीडीएस के माध्यम से रागी, बाज़ार और ज्वार का वितरण अपेक्षाकृत आसान है क्योंकि ये साबुत अनाज होते हैं इसलिए इन्हें प्रसंस्करण की जरूरत नहीं होती है। उदाहरण के लिए, रागी को बहुत आसानी से पीसा जा सकता है, और घर-परिवार के लोग अक्सर रागी का आटा बनाने के लिए पारंपरिक पिसाई विधियों का उपयोग करते हैं, जिसे पकाना और खाना आसान होता है। हालांकि रागी का प्रसंस्करण अपेक्षाकृत आसान होता है, लेकिन प्रसंस्करण की ज़रूरत ही इसके उपभोग में बाधा पैदा करती है। उदाहरण के लिए, तमिलनाडु में, जहां रागी को पारंपरिक रूप से हाथ से पीस कर आटा बनाया जाता था। हालांकि, अब यह परंपरा बची नहीं रह गई है और लोग पुल्वराइज़र से लेकर ग्राइंडर जैसी मशीनों पर निर्भर होने लगे हैं।

एमएस स्वामीनाथन रिसर्च फाउंडेशन (एमएसएसआरएफ) के निदेशक डॉ इज़राइल ओलिवर किंग, मिलेट प्रसंस्करण की चर्चा को आगे बढ़ाते हैं। कई लोगों ने सिंगल-कोट रागी को साफ करने और पीसकर आटा बनाने के लिए अनौपचारिक तरीक़ों का सहारा लिया है, छोटे अनाजों (मिलेट्स की छोटी क़िस्मों) को संसाधित करना और भी कठिन होता है। डॉ किंग बताते हैं कि छोटे अनाजों- जिनके बीज पर कई परतें होती हैं- को पकाने योग्य बनाने के लिए डीहुलर जैसी विशिष्ट मशीनरी की आवश्यकता होती है। डीहुलर जैसी मशीनें बहुत महंगी होने के साथ ही आसानी से उपलब्ध नहीं होती हैं, इसलिए राज्य मुख्य रूप से आसानी से संसाधित होने वाले अनाजों पर ध्यान केंद्रित करता है।

हालांकि नीलगिरी में सुदूर इलाक़ों में, नारायणन ने देखा कि लोगों के आसपास साधारण मशीनें भी नहीं थीं और रागी को संसाधित करने के लिए उन्हें लंबी दूरी की यात्रा कर मैदानी इलाक़ों में जाना पड़ता है।

यह समझा जा सकता है कि इस यात्रा में होने वाले धन और समय के खर्च को देखते हुए लोग मोटे अनाजों ख़रीदने से बचते हैं। उनके लिए चावल एक आसान विकल्प है।

पीडीएस और उचित मूल्य की दुकानों के ज़रिए मिलेट्स की शुरूआत को निकटवर्ती मिलिंग प्रणालियों द्वारा समर्थित करने की आवश्यकता है।

चौधरी बताते हैं कि, ओडिशा में, मिलेट्स खाने से जुड़ी सामूहिक यादें अभी भी अपेक्षाकृत ताजा हैं। इसलिए, 2019 में, जब पीडीएस के जरिए रागी को लोगों तक पहुंचाया गया तब वे इसे अपने खानपान में शामिल करने की संभावना को लेकर ग्रहणशील थे। लेकिन, नई पीढ़ी के पास बाजरे के अनाज के उपयोग को लेकर जानकारी की कमी है।

पीडीएस और उचित मूल्य की दुकानों के जरिए मिलेट्स की शुरूआत को निकटवर्ती मिलिंग प्रणालियों द्वारा समर्थित करने की आवश्यकता है – स्थानीय चावल मिलों और आटा चक्कियों के समान – जहां मिलेट्स आसानी से, कम लागत पर और घर के नजदीक संसाधित किया जा सकता है।

इसके अलावा, चावल और गेहूं के विपरीत प्रसंस्कृत मोटे अनाजों की शेल्फ लाइफ कम होती है और इसे केवल प्रसंस्करण और वितरण की एक कुशल स्थानीय प्रणाली से ही संभव बनाए रखा जा सकता है। इस संबंध में, ओडिशा सरकार ने ओडिशा मिलेट मिशन के माध्यम से स्थानीय उत्पादन, प्रसंस्करण और वितरण को सफलतापूर्वक बढ़ावा दिया है, जिससे इस कीमती अनाज का केवल थोड़ा सा हिस्सा ही खराब होता है।

मोटे अनाज की मांग की पुनर्कल्पना

ओडिशा में, वाससन ने देखा है कि लोग अनाज ग्रेड के साथ-साथ सूक्ष्म पोषक तत्वों की समृद्धि के मामले में उच्च गुणवत्ता वाले अनाज का उपभोग करना चाहते हैं, और अपने आहार में विविधता की इच्छा भी रखते हैं। यह पुरानी पीढ़ियों के लिए विशेष रूप से सच है, जिन्हें मोटे अनाज की विभिन्न क़िस्मों का स्वाद स्पष्ट रूप से याद है।

हालांकि, जैसे-जैसे स्वाद बदलता है, इन अनाजों का प्रचार भी बदलना होगा। चौधरी को लगता है कि युवा पीढ़ी को जौर -चावल और रागी के आटे से बना किण्वित दलिया- जैसे पारंपरिक व्यंजनों में कोई दिलचस्पी नहीं है। स्कूलों और आंगनबाड़ियों में अभियानों के माध्यम से शीघ्र जागरूकता पैदा करने से बाजरा को एक पसंदीदा और स्वादिष्ट अनाज के रूप में चित्रित करने में मदद मिल सकती है।

ओडिशा मिलेट मिशन के सहारे, राज्य बच्चों को बाज़ार उपलब्ध करवाने और उनके बीच इसे प्रोत्साहित करने की दिशा में काम कर रहा है। इसमें एकीकृत बाल विकास सेवाओं के तहत आंगनबाड़ियों में बच्चों के लिए सुबह के नाश्ते के रूप में रागी के लड्डू और बच्चों के स्वाद के लिए बाजरे के व्यंजनों के प्रचार कार्यक्रम शामिल हैं।

लेकिन रोवन विश्वविद्यालय में मानव विज्ञान के सहायक प्रोफेसर लक्ष्मण कलासापुडी को लगता है कि स्वाद एक पेचीदा विषय हो सकता है। 2010 में दक्षिण एशिया में छोटे अनाजों को पुनर्जीवित करने की परियोजना के तहत उत्तरी आंध्र प्रदेश के श्रीकाकुलम जिले में अपने शोध में, कलापसुदी ने देखा कि कई लोग मोटे अनाजों को सकारात्मक रूप से देखते हैं।

गांव के निवासियों का मानना ​​था कि मोटे अनाज -मुख्य रूप से रागी- स्वस्थ, मजबूत, उगाने में आसान और ‘कोटा चावल’ या पीडीएस के माध्यम से उपलब्ध कराए जाने वाले चावल की तुलना में अधिक स्वादिष्ट है। कलापसुदी की परिकल्पना है कि बाजरा के लिए स्थानीय सरकार के दबाव, जिसे वाससन जैसे समाजसेवी समूहों ने समर्थन दिया, ने बाजरा को लोगों के आहार में शामिल करने के लिए एक योग्य अन्न के रूप में बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

साथ ही, बाजरा भी गरीबों द्वारा खाए जाने वाले भोजन के रूप में कमी, अकाल और भुखमरी के क्षणों से जुड़ा था। कलापसुदी कहते हैं, “[उत्तरदाताओं] ने बाजरा को खाने की इच्छा के बजाय विकल्प की कमी के कारण खाए जाने वाले भोजन के रूप में बताया। मोटे अनाजों को स्वादिष्ट और पोषक तत्वों का एक स्रोत होने के साथ ही मजबूरी के भोजन के रूप देखे जाने के कारण कई विरोधी विचार भी जुड़ जाते हैं – वहीं मोटे अनाज को ग़रीबों के अनाज के रूप में देखे जाने की धारणा का पता 1980 के दशक में चावल को इच्छित अनाज के रूप लागू किए जाने की प्रक्रिया से लगाया जा सकता है। बाजरे की पुनर्कल्पना एक इच्छित अनाज के रूप में करना 2010 के दशक की एक हालिया घटना है। 

अपने फील्डवर्क के बारे में सोचते हुए, कलापसुदी ने बताया कि गांव के लोग मोटे अनाजों को एक गीत की लय की तरह याद करते थे। ‘फिंगर बाजरा, फॉक्सटेल, बार्नयार्ड, मोती बाजरा, ज्वार, और छोटे बाजरा के बारे में एक ही सांस में एक साथ बताते थे।’ हालांकि, वर्तमान में, श्रीकाकुलम जिले में अधिकांश मोटे अनाज की किस्मों को शायद ही कभी खाया जाता है, लेकिन रागी का अभी भी रागी अम्बाली – छाछ के साथ रागी माल्ट के रूप में बड़े पैमाने पर सेवन किया जाता है।

पीडीएस में बाजरा लाने में अग्रणी कर्नाटक भी इस जटिलता को दर्शाता है। डॉ किंग बताते हैं, ‘परंपरागत रूप से एक बाजरा खाने वाला राज्य, जहां उत्तरी जिले को ज्वार बेल्ट और दक्षिणी जिले को रागी बेल्ट के रूप में जाना जाता है, पीडीएस के माध्यम से आने वाली बाजरा की व्यापकता आश्चर्यजनक रूप से कम थी।’ इस पर किए गए एक अध्ययन से पता चलता है कि कम स्वीकार्यता को कुछ हद तक लोगों के खेतों और थालियों में बाजरा की मौजूदा प्रचुरता के लिए जिम्मेदार ठहराया जा सकता है।

वे आगे कहते हैं, ‘चूंकि राज्य के किसान पहले से ही बाजरे की खेती कर रहे हैं, उनके पास अपने खाने और बेचने के लिए पर्याप्त मात्रा उपलब्ध है।’ पीडीएस में बाजरा की स्वीकार्यता को समझने की कोशिश करते समय, ये जटिलताएं और विरोधाभासी धारणाएं ही हैं जो सबसे अधिक, इकलौती, स्पष्ट रही हैं। चूंकि मोटे अनाज मुख्यधारा में है, इसलिए इस बात को नजरअंदाज करना मुश्किल है कि मोटे अनाज के साथ मौजूदा रिश्ते कितने कमजोर हैं। या, अतीत में इसका क्या मतलब था। हमारे खान-पान और खरीददारी के व्यवहार को देख कर लगता है कि यह यात्रा उथल-पुथल से भरी रही है, जिसमें अनाज को चावल से कमतर मानने की सांस्कृतिक कल्पना और सुपर-अनाज के रूप में उनके हालिया पुनरुत्थान के बीच गहरी असंगति है।

क्या पीडीएस में बाजरा को शामिल करना सफल रहा है? ऐसी व्यवस्था, जिसमें ऐतिहासिक रूप से दरकिनार किए गए अनाज को चावल और गेहूं के मुकाबले खड़ा किया जाता है, हम ऐसा सवाल पूछने के लिए भी तैयार नहीं हैं।

इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें

यह लेख मूल रूप से रेनमैटर फाउंडेशन के साथ साझेदारी में दलोकावोर वेबसाइट पर प्रकाशित किया गया था।