“मेरी पत्नी रिंकू सिलिकोसिस रोग से गुजर गई। पिछली सरकार ने भामाशाह कार्ड बनवाए थे मगर सरकार बदली तो उन्होंने जनाधार कार्ड बनवाने को कहा, उसमें पत्नी का नाम अपडेट नहीं हुआ और मुझे सरकारी सहायता नहीं मिल पाई। मिल जाती तो इतना कर्जा न होता।”
पत्थर क्रशर श्रमिक राजेन्द्र, अजमेर
विश्व बैंक के आंकड़ों के अनुसार साल 2023 में भारत में लगभग 59 करोड़ 37 लाख से अधिक श्रमिक थे। श्रम एवं रोजगार मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा जारी आर्थिक सर्वेक्षण 2021-22 बताता है कि केवल असंगठित क्षेत्र में 2019-20 में 43.99 करोड़ श्रमिक काम कर रहे थे। इतनी बड़ी श्रमिक संख्या को सामाजिक कल्याण एवं कौशल उपलब्ध करवाना हमेशा चर्चा और चिंता का विषय रहा है। लेकिन आंकड़ों पर गौर करने से पता चलता है कि श्रमिकों की पहचान कर पाना भी सरकारों के लिए चुनौतीपूर्ण रहा है। भारत सरकार ने 26 अगस्त 2021 को श्रमिकों की पहचान एवं उनका राष्ट्रीय डेटाबेस बनाने के उद्देश्य से श्रमिक स्व-घोषणा के आधार पर ई-श्रम कार्ड बनवाना शुरू किया था। अप्रैल 2024 तक के आंकड़ों के अनुसार श्रम एवं रोजगार मंत्रालय, भारत सरकार के ई-श्रम पोर्टल पर करीबन 29 करोड़ 56 लाख श्रमिक रजिस्टर्ड हुए है।
श्रम एवं रोजगार मंत्रालय के वर्ष 2019-20 तक के आंकड़ों का ई-श्रम कार्ड के अप्रैल 2024 तक के आंकड़ों से तुलना करें तो पता चलता है कि लगभग एक तिहाई श्रमिक अब तक ये सामान्य पहचान दस्तावेज नहीं बनवा पाए हैं।
श्रमिक कल्याण समवर्ती सूची का विषय है, केंद्र और राज्य सरकारें, दोनों ही इस पर कानून बना सकती हैं। राजस्थान में श्रमिकों के कल्याण हेतु ‘भवन एवं संनिर्माण श्रमिक कल्याण मंडल’ श्रमिक कार्ड जारी करता है। मंडल को श्रमिक कार्ड के लिए अब तक केवल 5 लाख 80 हजार के करीब आवेदन प्राप्त हुए हैं, वहीं राजस्थान में दिहाड़ी मजदूर, छोटे कारखानों, हम्माल आदि छोड़ भी दें तो अकेले मनरेगा से 2 करोड़ 24 लाख श्रमिक जुड़े हुए हैं (100 दिन मनरेगा में काम करना श्रमिक कार्ड के लिए एक पात्रता है)।
‘दिल्ली संनिर्माण श्रमिक कल्याण मंडल’ के अनुसार सक्रिय भवन निर्माण श्रमिक कार्डों की संख्या केवल 95 हजार 518 है। वहीं, पंजाब में 2009 से अब तक 2 लाख 23 हजार श्रमिक रजिस्टर्ड हुए हैं। आंकड़े बताते हैं कि सभी राज्यों की स्थितियां कमोबेश एक सी हैं। हालांकि, इस लेख में हम राजस्थान के संदर्भ में अधिक वास्तविकताओं को जानेंगे।
आधार कार्ड, पैन कार्ड, जन्म प्रमाण पत्र, राज्यों के पहचान पत्र (राजस्थान मे जन-आधार, श्रमिक कार्ड), मनरेगा जॉब कार्ड, राशन कार्ड, ई-श्रम कार्ड जैसे कई सरकारी कागज, श्रमिक की आम जिंदगी का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। बच्चे के स्कूल में दाखिले से लेकर राशन तक, बैंक से लोन लेने से कहीं काम मिलने तक ये तमाम दस्तावेज काम आते हैं। यहां तक कि किसी दुर्घटना में श्रमिक की मृत्यु होने पर भी इन दस्तावेज़ों के बग़ैर मुआवज़े का दावा नहीं किया जा सकता है।
इसके अलावा, श्रमिक कार्ड भी काफी अहम है। इसे हासिल करने के बाद ही कामगार समुदाय श्रमिक कल्याण विभाग द्वारा चलाई जा रही सरकारी योजनाओं का लाभ लेने के लिए शुरूआती आवेदन कर सकता है। इन योजनाओं में बच्चों की शिक्षा, परिवार स्वास्थ्य, आवास, प्रसव, कौशल निर्माण, आकस्मिक दुर्घटना बीमा वग़ैरह शामिल हैं।
राजस्थान के चुरू में रहने वाले दिहाड़ी श्रमिक नरेंद्र कहते हैं कि “मेरा श्रमिक कार्ड बनना मुश्किल है। कार्ड बनवाने के लिए मुझे किसी ठेकेदार से सर्टिफिकेट बनवाना होगा जो बताएगा कि मैंने साल में कम से कम 90 दिन मज़दूरी का काम किया है जबकि मेरा काम भवनों में रंगाई-पुताई का है और मेरे ठेकदार खुद पढ़ें-लिखे एवं स्थायी नहीं है।”
श्रमिकों के सामने दस्तावेज बनवाने के दौरान आने वाली बाधाएं कुछ इस तरह हैं –
सरकारें चाहती हैं योजनाओं का लाभ योग्य लाभार्थियों तक ही पहुंचे। इसलिए सरकारें दस्तावेज़ों की अनिवार्यता को एक ऐसे तरीक़े की तरह अपनाती हैं जिससे लाभार्थी की पहचान सुनिश्चित करना और फ़र्ज़ी आवेदनों को रोकना संभव हो सके। लेकिन तमाम तरह के दस्तावेज और उनमें दर्ज जानकारी का सटीक होना, कई बार योग्य श्रमिकों के रास्ते की बाधा बन जाता है। इसके चलते वे ख़ुद योजनाओं में तब तक रुचि नहीं लेते हैं जब तक कि ऐसा करना अनिवार्य ना हो या फिर उनके पास और कोई रास्ता ना रह गया हो।
सरकार और नागरिकों के बीच सामाजिक कल्याण एवं दस्तावेजीकरण की प्रक्रिया में ई-मित्र ने भी अपनी जगह बना ली है। ई-मित्र के आने से, भले ही सरकारी महकमे को आराम मिला हो लेकिन नागरिकों के लिए उनके सामाजिक लाभ हासिल करने और दस्तावेज बनवाने की प्रक्रिया में एक और सीढ़ी जुड़ गई है।
अधिक लाभ कमाने की चाह में मनमर्जी आवेदन राशि की मांग करने और कई बार तो आवेदनकर्ता को गुमराह करने जैसी बातें भी अक्सर देखने को मिलती हैं। अप्रैल में ही जारी किए अपने सर्कुलर में(सर्कुलर दिनांक 22.04.2024 for Scheme Implement) श्रमिक कल्याण बोर्ड, राजस्थान ने श्रमिक संघों सावधान किया है कि कई ई-मित्र आवेदनकर्ताओं को गुमराह कर रहे हैं और उन्हें गलत जानकारियां दे रहे हैं। ऐसे तो आवेदन की प्रक्रिया ऑनलाइन है लेकिन तकनीकी ज्ञान न होने के चलते लोगों को ई-मित्र के पास जाना ही पड़ जाता है।
राजगढ़ के ई-मित्र संचालक नरेंद्र कहते हैं कि “सभी संचालक बेइमान नहीं हैं। अब सरकारी दफ्तरों के चक्कर काटने की बजाय अपने घर के पास ही श्रमिक आवेदन कर पाते हैं, यह तो उनके लिए सहूलियत ही है।” वे आगे जोड़ते हैं कि “ई-मित्रों की भी अपनी समस्याएं हैं, श्रमिक कार्ड का ही उदाहरण ले तो 50kb जैसे थोड़े से स्पेस में चार तरह के दस्तावेज जोड़ने होते हैं। अगर थोड़ा-बहुत भी साइज़ ऊपर हुआ तो आवेदन वापस भेज दिया जाता है। आमतौर पर मजदूर वर्ग के पास इतना समय नहीं होता है कि वे बार-बार चक्कर काट सकें।
निश्चित रूप से, इतने बड़े श्रमिक संसाधन का बेहतर उपयोग न होना राष्ट्र के लिए सही नहीं है। लेकिन संसाधन से इतर, श्रमिको का निजी जीवन भी है। उन्हें भी बेहतर जीवन और सुविधाएं मिलनी चाहिए। बच्चों के लिए बेहतर शिक्षा, अच्छा स्वास्थ्य, आवास देश के प्रत्येक नागरिक का मूलभूत अधिकार है और इन्हें हासिल करने में श्रमिक वर्ग को आज भी मदद की दरकार है।
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हम एक अजीब समय में जी रहे हैं। जीवाश्म ईंधन के उपयोग को सिलसिलेवार तरीक़े से ख़त्म करने की कॉप28 की प्रतिबद्धता के बावजूद तेल और गैस निकालने की प्रक्रिया पर कोई रोक लगती नहीं दिख रही है। दूसरी तरफ़, हम विकास और ऊर्जा के हस्तांतरण (एनर्जी ट्रांज़िशन) के लिए भी भारी मात्रा में खनिजों का खनन किए जा रहे हैं।
इस प्रक्रिया में, हम स्थानीय समुदायों, मूल निवासियों और सबसे अधिक पर्यावरण का दोहन कर रहे हैं। वर्तमान व्यवस्था स्पष्ट रूप से अनुचित है और नैतिकता जैसे गहरे विषय से जुड़ी हुई है: हम अपने बच्चों और भावी पीढ़ियों के लिए कैसा समाज और ग्रह छोड़ने वाले हैं?
खनन कैसा भी क्यों ना हो, हर किसी को उस पर कोई न कोई आपत्ति होती ही है। फिर चाहे वह हमारे गांव की खदान हो या दुनिया की सभी कोयला खदानें; महासागरों में होने वाला खनन हो या संरक्षित क्षेत्रों में किया जाने वाला खनन।
लेकिन फिर भी, कोई दुनिया में अलग-अलग जगहों पर चल रहे इस खनन प्रक्रिया को पूरी तरह से बंद करने की मांग नहीं करता है। ऐसा इसलिए कि इसका सीधा मतलब विकास की किसी गतिविधि का ना होना होगा। यानी कोई फ़ोन नहीं, कार नहीं, ना ही लोहे या सोने जैसी धातुओं का इस्तेमाल और सभी को पेड़ और पौधों से बने घरों में रहना होगा। यह एक ऐसी स्थिति है जिसकी कल्पना करना भी मुश्किल है, और आज भी एक बड़ा तबका ऐसा है जिनका जीवनस्तर सुधारे जाने की ज़रूरत है।
खनिज पदार्थों की बहुलता वाले देशों में एक साथ दो तरह की सोच वाले लोग होते हैं। स्थानीय स्तर पर, एंटी-एक्सट्रैक्टिविस्ट यानी कि खनन-प्रतिरोधी समुदाय के लोग अपने इलाके में खनन का विरोध करते हैं। वहीं राष्ट्रीय स्तर पर, वे लोग जो इस उम्मीद में जीते हैं कि खनिजों की बिक्री से ग़रीबी हटाने और समृद्धि लाने (संसाधनों का राष्ट्रवाद जिसे रिसोर्स नैशनलिज्म भी कहते हैं।) में मदद मिलेगी। इन दोनों तरह की सोच के बीच किस प्रकार सामंजस्य बैठाया जा सकता है?
खनन को अनुमति मिलने की स्थिति में उसके सभी हितधारकों जैसे कि खनन करने वालों, कर्मचारी और ठेकेदार, सरकार, स्थानीय समुदाय और पर्यावरण आदि के साथ न्याय एवं उचित व्यवहार किया जाना चाहिए। लेकिन आमतौर खनन से पहले इन खनिजों के मालिकों को भुला दिया जाता है जो इसका एक मुख्य हितधारक होता है।
देशों का अपने प्राकृतिक संसाधनों पर स्थायी मालिकाना हक होता है। खनिजों का स्वामित्व आमतौर पर किसी सामूहिक (राज्य/प्रांत, जनजाति आदि) का प्रतिनिधित्व करने वाली सरकार के किसी स्तर को सौंपा जाता है। इसकी प्रतिक्रिया में, खनिज उन लोगों की ओर से रखे जाते हैं जिनसे समूह बनता है। और चूंकि, सामूहिकता एक शाश्वत, बहु-पीढ़ी इकाई है, इसलिए प्राकृतिक संसाधनों पर भविष्य की सभी पीढ़ियों का भी अधिकार है।
अगर हम प्राकृतिक संसाधनों को एक साझी विरासत मानते हैं, तो खनिज मालिकों की सोच के अनुसार, खनन वास्तव में एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें खनिज संपदा को संपत्ति के अन्य रूपों में बदला जाता है। पीढ़ीगत समानता और स्थिरता के लिए हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि आने वाली पीढ़ियों को कम से कम उतना ही विरासत में मिले जितना हमें मिला है। ऐसी स्थिति में हमारे पास दो विकल्प होते हैं।
या तो खनन-प्रतिरोधी तरीक़ा: खनिजों को यथास्थिति छोड़ देना जहां वे हैं, हमारे बच्चों को वे उसी अवस्था में मिलेंगे जैसे हमें मिले थे, पीढ़िगत- समानता को हासिल करने का यह एक मात्र तरीक़ा है।
या संसाधन राष्ट्रवादियों का तरीक़ा: यह सुनिश्चित करने के लिए खनन और निवेश करना कि हमारे बच्चों को विरासत में मिलने वाली कुल संपत्ति उतनी ही मूल्यवान हो जितना कि ये खनिज।
अगर खनन का अर्थ संपत्ति का रूपांतरण है तब ऐसी स्थिति में खनन करने वाली इकाई (व्यक्ति/ कंपनी/ संस्था/संगठन) केवल एक आउटसोर्स धन प्रबंधन सेवा प्रदाता है, जिसे प्रबंधित, विनियमित किया जाना चाहिए और उनकी सेवा के अनुपात में उन्हें भुगतान किया जाना चाहिए।
खनिज स्वामित्व वाली प्रतिनिधि सरकार का लक्ष्य यह होना चाहिए कि रूपांतरण की इस प्रक्रिया में मूल्यों के संदर्भ में हानि की दर शून्य हो। दुर्भाग्य से, भारी नुकसान आम बात है, और जो प्राप्त होता है उसे आय मानकर उसका उपभोग किया जाता है।
खनन करने वाले, राजनेताओं और उनके साथियों के बीच, धन और सत्ता बनाए रखने की इच्छा, खनन प्रक्रिया के दौरान होने वाले अधिकांश मानवाधिकारों और पर्यावरण के दुरुपयोग को प्रेरित करती है।
वर्तमान और भावी पीढ़ियों को धोखा दिया जा रहा है, और उनसे चुराई जा रही संपत्ति का उपयोग भ्रष्ट व्यवस्था को बनाए रखने के लिए किया जा रहा है।
निष्पक्ष खनन की स्थिति को हासिल करने के लिए खनिज संपदा बेचते समय ज़ीरो लॉस की स्थिति से परे जाकर संपूर्ण खनिज बिक्री से होने वाली आय का निवेश ऐसी संपत्तियों में किया जाना चाहिए जिनका मूल्य पीढ़ी दर पीढ़ी बना रहता है। ज़मीन, क़ीमती धातु और पत्थर ऐसी संपत्ति के परंपरागत उदाहरण थे। आज के समय में, नॉर्वे के तेल फंड को मुद्रास्फीति-प्रूफ़िंग के साथ एक बंदोबस्ती निधि (इंडॉन्मेंट फंड) के रूप में, भविष्य की पीढ़ियों के लिए बचत करने का सबसे कारगर तरीक़ा माना जाता है।
फंड से होने वाली आय को सामान्य आबादी में एक समान रूप से वितरित की जाना चाहिए। भावी पीढ़ियों को यह निधि विरासत में मिलेगी और वे इसका लाभ उठा सकेंगे।
महत्वपूर्ण बात यह है कि, लाभांश पूरी आबादी और उनके फंड और खनिज विरासत के बीच एक प्रकार का संबंध बनाता है, जिससे जीरो लॉस की स्थिति को व्यावहारिक रूप से हासिल करने की संभावना अधिक हो जाती है। आर्थिक नज़रिए से देखा जाए तो यह दिखाना आसान है कि यह, वर्तमान में अपनाए जा रहे तरीके से बेहतर है। और इससे बढ़कर, यह उचित है। लेकिन इतना पर्याप्त नहीं है। खनन, विरासत के अन्य रूपों को भी प्रभावित करता है और निष्पक्ष खनन के लिए उन पर भी उचित तरीक़े से बात किए जाने की ज़रूरत है:
1. पर्यावरण और स्थानीय समुदायों की सुरक्षा के लिए, एहतियाती सिद्धांत के तहत, हमें निषिद्ध क्षेत्र बनाने चाहिए। हमें स्थानीय समुदायों की निशुल्क, पूर्व और जानकारीपूर्ण सहमति (एफपीआईसी) की गारंटी देनी चाहिए, पर्यावरण से जुड़े मजबूत नियमों को सुनिश्चित करना चाहिए और संभावित उच्च जोखिम वाली प्रथाओं पर रोक लगानी चाहिए। हमें तेज़ी से बढ़ते जा रहे नुक़सान को सीमित करने के लिए कई परियोजनाओं में खनन को सीमित करना चाहिए। पॉल्यूटर पेज प्रिंसिपल (प्रदूषक भुगतान सिद्धांत) के तहत, हमें बचाव, पुनर्भंडारण, क्षतिपूर्ति और प्रतिपूर्ति करने की मिटिगेशन हेरार्की की ज़रूरत है। हमें अपनी भावी पीढ़ियों के लिए अधिक से अधिक जंगल, पानी के साफ़ स्रोत आदि छोड़ने चाहिए। खनन परियोजनाओं से पर्यावरण और समुदायों का जीवन बेहतर होना चाहिए ना कि केवल नुक़सान से बचने के प्रयास करने चाहिए। जीवाश्म ईंधन जैसे कुछ खनिजों का अंतरराष्ट्रीय प्रभाव पड़ता है, और इसके लिए वैश्विक स्तर पर सीमित खनन के साथ-साथ नुकसान और क्षति की भरपाई की भी आवश्यकता होती है।
2. खनन परियोजनाओं के कारण पैदा होने वाली नौकरियां और आय भी विरासत में मिले अवसर हैं जो निष्कर्षण के साथ ख़त्म हो जाते हैं। यह समझ स्थानीय सामग्री, स्थानीय खरीद और स्थानीय रोजगार की व्यापक मांगों को प्रेरित करती है। इसके अलावा, यह सुनिश्चित करने के लिए खनन की सीमा तय की जानी चाहिए कि भावी पीढ़ियां भी खनन से होने वाली आय से लाभान्वित हो सकें।
3. इसी तरह, उपयोगी चीजों (तलवारें या हल के फाल) के लिए खनिज का उपयोग करने का अवसर एक बार मिलने वाली मूल्यवान विरासत है। यह समझ कुछ देशों को इस बात के लिए प्रेरित करती है कि वे अपनी वर्तमान जरूरतों के लिए खनिजों का आयात करते समय भविष्य की पीढ़ियों के उपयोग के लिए अपने कुछ खनिजों का रणनीतिक भंडार करें।
4. एक अन्य विरासत समाज के अन्य पहलुओं को विकसित करने के लिए खनन का उपयोग करने का अवसर है। कुछ देशों ने अपेक्षाकृत कम लागत पर साझा-उपयोग वाले ढांचों के निर्माण के लिए जानबूझकर नई खदानों का उपयोग किया है। अन्य देश मुख्य दक्षताओं का निर्माण करने के अंतिम लक्ष्य के साथ घरेलू मूल्य संवर्धन पर जोर देते हैं। ये सभी दुर्लभ अवसर हैं इसलिए उनका लाभ उठाना ज़रूरी है।
विरासत में मिली मूल्यवान संपत्ति को चोरी, हानि या बर्बादी से बचाने के लिए प्रबंधन की मानसिकता की आवश्यकता होती है। ऐसा इसलिए है ताकि हम अपने कर्तव्य को पूरा करते हुए यह सुनिश्चित कर सकें कि आने वाली पीढ़ियों को कम से कम उतना ही विरासत में मिले जितना हमें मिला। यह नागरिक समाज के लिए संभावित वैश्विक अभियानों का सुझाव देता है:
1. खनन प्रक्रिया के दौरान चोरी को रोकने के लिए, ट्रस्टी/प्रबंधक को प्रथम श्रेणी नियंत्रण प्रणाली लागू करनी होगी। इसमें एक उच्च सुरक्षा खनिज आपूर्ति श्रृंखला प्रणाली, आउटसोर्सिंग अनुबंधों से सर्वोत्तम प्रथाएं, सिस्टम ऑडिटर, एक व्हिसिल-ब्लोअर इनाम और सुरक्षा योजना आदि शामिल हैं।
2. चोरों को मानव जाति की संपत्ति नहीं सौंपी जानी चाहिए। इसके अलावा, खनिज मनी लॉन्डरिंग/टेररिज़्म फायनेंस का एक नियमित हिस्सा हैं। हमारे धन को संभालने में शामिल सभी लोगों के लिए फिट एंड प्रॉपर पर्सन टेस्ट (और आमतौर पर सत्यनिष्ठा उचित परिश्रम) आवश्यक हैं।
3. भावी पीढ़ियों के प्रति हम सभी का यह कर्तव्य है कि हम यह सुनिश्चित करें कि हमारी साझा विरासत बरकरार रहे। इसलिए, वास्तविक मालिकों के रूप में लोगों को यह सत्यापित करने का अधिकार दिया जाना चाहिए कि भावी पीढ़ियों के प्रति उनका कर्तव्य पूरा हो गया है। इसके लिए बिना किसी लागत के वास्तविक समय में सभी डेटा तक जनता की खुली पहुंच सहित मौलिक पारदर्शिता की आवश्यकता है। क़ानून में इसका प्रावधान होना चाहिए कि खनन करने वाली इकाई बिना किसी अपवाद के खनन से जुड़ी सभी जानकारियों को पारदर्शिता के साथ सार्वजनिक करे। इसका दायरा ईआईटीआई के मानकों से परे है।
अगर ये सभी शर्तें पूरी होती हैं तभी हम वास्तविक अर्थों में पीढ़िगत समानता और स्थिरता को प्राप्त कर सकते हैं। इससे थोड़ा भी कम होने पर विरासत को लेकर हम भावी पीढ़ियों के साथ धोखा कर रहे हैं – उनकी इच्छा यही होगी कि हम खनिजों को ज़मीन में ही छोड़ दें। हम इस बात की उम्मीद करते हैं कि खनिज संपदा और खनन के लिए साझा विरासत वाली सोच की वकालत करने के लिए नागरिक समाज के दूसरे लोग हमारे साथ जुड़ेंगे। एकजुट होकर हम बड़े-बड़े बदलाव ला सकते हैं!
लेखकों ने आईडीआर पर इस लेख के प्रकाशन के लिए इसमें थोड़े-बहुत बदलाव किए हैं। यह लेख मूलरूप से पब्लिश व्हाट यू पे पर प्रकाशित हुआ है।
इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें।
इसमें कोई हैरानी की बात नहीं है कि पड़ोसी राज्य असम में ऊंची क़ीमत पर काले धान की बिक्री होते देखकर बिहार के भी कुछ किसानों ने इसकी खेती करने की सोची। लेकिन, ग़रीबी से निकलने के लिए की गई उनकी यह कोशिश और कुछ आज़माने का उनका यह प्रयोग उल्टा पड़ गया है।
गया जिले के गुरारू ब्लॉक में स्थित सोनडीहा गांव के निवासी मनोज कुमार को उनके एक रिश्तेदार ने बताया था कि काले धान से निकलने वाले चावल की क़ीमत दस से पंद्रह हज़ार प्रति क्विंटल तक होती है। अधिक पैसे कमाने की चाह में मनोज और उस गांव के अन्य किसानों ने दस एकड़ से अधिक ज़मीन पर काले धान की खेती करने का फ़ैसला किया। गया जिले के अन्य आठ गांवों के किसान भी ‘सुपर ग्रेन’ नाम से तेज़ी से लोकप्रिय हो रही इस फसल को अपने खेतों में उपजा कर देखना चाहते थे। किसानों को इस खेती से प्रति बीघा बारह क्विंटल उपज की उम्मीद थी। मगर, उनकी योजना धरी की धरी रह गई।
धान की रोपाई के समय मनोज ने लगभग 25 किलो यूरिया का इस्तेमाल किया था। मनोज बताते हैं कि “बहुत बाद में मुझे इस बात का पता चला कि इस फसल के लिए इस रासायनिक खाद का उपयोग नहीं करना था। यूरिया के कारण धान के पौधों की लंबाई बढ़ गई और उसकी फ़लियां खेत में ही गिरनी शुरू हो गई। हमारी सारी मेहनत बेकार हो गई। मुझे मेरी एक बीघा जमीन से केवल 6 क्विंटल धान ही मिला।”
लेकिन काले धान की खेती करने वाले किसानों के सामने सबसे बड़ी मुश्किल थी इस अनाज के ख़रीददारों को खोजना। मनोज का कहना है कि “बिहार में इसके ख़रीददार लगभग ना के बराबर हैं।” स्थानीय बाजार में इस फसल की मांग ना होने के कारण किसानों ने अपनी उपज को छत्तीसगढ़ के एक व्यापारी को प्रति क्विंटल साढ़े चार हज़ार की दर पर बेच दिया। हालांकि यह क़ीमत उनकी उम्मीद से तो आधी ही थी लेकिन बिहार में सामान्य धान के लिए मिलने वाली क़ीमत से फिर भी दोगुनी थी।
काले धान की उपज से नुक़सान उठाने वाले किसान दुखी थे। मनोज ने बताया कि “हमें यह सपना दिखाया गया था कि इस उपज से हमारी आमदनी बढ़ेगी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। आमतौर पर, इस इलाक़े में लोग एक बीघा ज़मीन में 12 से 14 क्विंटल धान उपजा [जिनसे उन्हें अधिकतम 23 हज़ार 8 सौ रुपये तक मिल जाता है] लेते हैं। लेकिन काले धान के मामले में हमारी फसल प्रति बीघा 6 से 7 क्विंटल [जिससे अधिकतम 31 हज़ार 5 सौ रुपये ही मिले] तक ही सीमित रह गई। अब हमें नहीं पता कि इस धान का क्या करना है। कई किसानों के घरों में यह बेकार पड़ा हुआ है। दोबारा इस फसल की खेती करने से पहले हमें कई बार सोचना होगा।”
रामनाथ राजेश बिहार के गया जिले में एक स्वतंत्र पत्रकार हैं। यह लेख मूल रूप से 101 रिपोर्टर्स पर प्रकाशित लेख का एक अंश है।
इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें।
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अधिक जानें: इस लेख को पढ़ें और जानें कि बिहार में किसानों के लिए पॉपलर की खेती करना आसान क्यों नहीं है?
अधिक करें: लेखक के काम को विस्तार से जानने और उन्हें अपना सहयोग देने के लिए उनसे [email protected] पर संपर्क करें।
रात के बारह बजने को हैं और मुझे नींद नहीं आ रही है। मैं अब भी अपनी टीम के बारे में सोच रही हूं। सोचो तो कितना सीमित समय होता है हमारे पास दुनिया को थोड़ा बेहतर करने और उसमें कुछ बदल देने के लिए। हफ़्ते के सिर्फ़ पांच ही दिन… तो काम करते हैं हम। फिर भी, मेरी टीम से हर दिन कोई न कोई छुट्टी लेने के लिए तैयार रहता है। इन्हें देने कि लिए कितना कुछ है मेरे पास…मेरे अपने अनुभव, सेक्टर की समझ और सबसे ज़रूरी मेरा मार्गदर्शन लेकिन इन्हें क्या चाहिए? बस… छुट्टी!
अगर मुझसे कोई कहे कि दुनिया से एक चीज ख़त्म करनी है तो मैं चाहूंगी कि यह जब-तब छुट्टियां लेने का चलन ख़त्म हो जाए। लेकिन फिर सोचती हूं कि ग़रीबी, असमानता, शोषण और महामारी वग़ैरह में से किसी एक को चुनना ज़्यादा सही और समझदारी भरा होगा। कल शाम ही अचानक पता चला था कि हेड ऑफिस से कुछ लोग आज विज़िट के लिए आएंगे और आज सुबह ही टीम के आधे लोग छुट्टी पर चले गए हैं। ऐसी-ऐसी इमरजेंसी आती है लोगों को कि क्या कहूं? इन बहानों को ना निगलते बनता है और ना उगलते। कई बार तो एकदम साफ़-साफ़ दिख रहा होता है कि बहाना मारा जा रहा है। लेकिन मना करूं भी तो कैसे? आख़िर, कभी-कभी तो मुझे भी छुट्टी चाहिए होती है। और फिर, समानुभूति… अरे वही एम्पैथी, हमारी संस्था के सबसे ज़रूरी मूल्यों में से एक है। और, फिर मैं भी तो एक अच्छी इंसान हूं। कम से कम अपनी नज़रों में सही।
मुझे लगा था कल आज़ादी का दिन है तो काम से भी थोड़ी आज़ादी मिल जाएगी। लेकिन, टीम में एक साथ कई लोग बीमार हो गये हैं। एक बार को तो मैं डर गई कि कहीं दफ़्तर के वाटर कूलर में तो कोई दिक़्क़त नहीं आ गई है जिससे ख़राब हुआ पानी लोगों को बीमार बना रहा है। फिर मुझे ख़्याल आया कि 12- 13 अगस्त वीकेंड था और कल है 15 अगस्त यानी कि स्वतंत्रता दिवस। ऐसे में बस आज भर की छुट्टी लेने पर लोगों को लगातार चार दिन की छुट्टी मिल जाएगी। एक ही दिन कई लोगों को बुख़ार आने और पेट ख़राब होने की वजह समझते ही मुझे थोड़ी राहत मिली। ईमानदारी से कहूं तो थोड़ा ग़ुस्सा भी आया। ऐसे मौक़ों पर सोचती हूं मैनेजर बनने से पहले की ही ज़िंदगी अच्छी थी, ऐसे बहाने जो बना सकती थी। ख़ैर टीम के बीमार पड़े लोगों के हिस्से काम भी अब मुझे करना पड़ेगा… पड़ेगा क्या, करना ही पड़ रहा है…. अरे, कर ही रही हूं।
कभी-कभी मुझे अपनी समझदारी पर शक होने लगता है। हुआ यह कि कई महीनों से एक प्लान पर काम चल रहा था। एक-एक जन को मैंने अलग-अलग तरह की ज़िम्मेदारियां दे रखीं थीं। अब जब एक-एक करके उन सभी कामों को ख़त्म करने की तारीख़ नज़दीक आई है, तो लोगों ने छुट्टियों की मांग शुरू कर दी है। ये क्या बात हुई भला कि डेडलाइन मिस हो रही है तो छुट्टी पर चले जाओ। किसी ने तो मुझे यह तक कहा कि फ़लां ने छुट्टी ली ही इसलिए है ताकि वो अपना काम खत्म कर सकें। ना.. ना.. ना! मैं नहीं मान सकती। कोई मुझे बताए जो काम वर्किंग डेज़ में ना हुआ छुट्टियों में हो जाएगा? ये मुझे समझते क्या हैं! आख़िर मैं भी एक ही दिन में यहां थोड़े पहुंच गई हूं…ख़ैर छुट्टी तो सबका हक़ होता है और फिर वही बात कि मैं हूं भी तो एक अच्छी इंसान।
छुट्टियों को लेकर मेरी पॉलिसी पक्की है। छुट्टी के दौरान ऑफिस के फोन-मैसेज से किसी को ना तो परेशान करना अच्छा लगता है मुझे और ना ही ख़ुद परेशान होना। आख़िर इंसान छुट्टी लेता क्यों है, इन्हीं सबसे ब्रेक लेने के लिए ना! लेकिन अब मैं ख़ुद अपनी ही बनाई पॉलिसी को निभा नहीं पा रही। अब छुट्टी के दौरान भी लोगों को परेशान करना मेरी मजबूरी हो गई है। दरअसल छुट्टी पर जाने से पहले लोग अपना काम समय पर ख़त्म करके या उसकी सही स्थिति बताकर नहीं जाते हैं और मुझे ना चाहते हुए भी उनसे पूछना पड़ जाता है। आख़िरी काम तो नहीं रुकता ना उसे तो होना ही है भले चाहे मैं ही क्यों ना छुट्टी पर चली जाऊं। लेकिन साथ ही मुझे इस बात का अहसास होने लगा है कि इस कारण से मैं अपनी टीम के सामने विलेन बनती जा रही हूं। मैंने टीम से कहा भी कि ऐसा मत किया करो पर कोई सुनता नहीं। मेरी हालत शोले के ठाकुर जैसी हो गई है और मेरे सामने इनकी हरकतों को देखने और उन्हें झेलने के अलावा और कोई चारा नहीं बच रहा है!
विकास सेक्टर में अक्सर तमाम प्रक्रियाओं और घटनाओं को बताने के लिए एक ख़ास तरह की शब्दावली का इस्तेमाल किया जाता है। आपने ऐसे कुछ शब्दों और उनके इस्तेमाल को लेकर असमंजस का सामना भी किया होगा। इसी असमंजस को दूर करने के लिए हम एक ऑडियो सीरीज़ ‘सरल–कोश’ लेकर आए हैं जिसमें हम आपके इस्तेमाल में आने वाले कुछ महत्वपूर्ण शब्दों पर बात करने वाले हैं।
कम्युनिटी मोबलाइजेशन, सरल मायनों वाला लेकिन बोलने में कठिन लगने वाला एक शब्द है। अर्थ है, सामुदायिक जुड़ाव। समुदाय के सदस्यों का आपस में जुड़ना और किसी उद्देश्य के लिए इकट्ठा होकर काम करना, कम्युनिटी मोबलाइजेशन कहलाता है।
लगभग हर समाजसेवी संस्था किसी न किसी स्तर पर लोगों को जोड़ने यानी कम्युनिटी मोबलाइजेशन का काम करती है। सामाजिक संस्थाएं, इसके लिए अलग से लोगों को नियुक्त भी करती हैं। इसलिए अगर आप एक कम्युनिटी मोबलाइजर हैं तो इसका मतलब है कि घर-घर जाकर लोगों से बात करना, उन्हें अपने कार्यक्रम की जानकारी देना या किसी विषय पर जागरुकता फैलाना वग़ैरह आपके काम में शामिल हो सकता है।
अगर आप इस सीरीज़ में किसी अन्य शब्द को और सरलता से समझना चाहते हैं तो हमें यूट्यूब के कॉमेंट बॉक्स में ज़रूर लिखें।
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सामाजिक सेक्टर में अच्छे और प्रभावी काम का आधार विविधता, समानता और समावेशन (डीईआई) होता है। हालांकि, अलग-अलग संगठन और लोगों में डीईआई को लेकर समझ भी अलग-अलग होती है। उदाहरण के लिए, ऐसे सेक्टर जहां पारंपरिक रूप से पुरुषों का वर्चस्व था उनमें लैंगिक समावेशन को अक्सर महिलाओं की संख्या बढ़ाने के रूप में देखा जाता है जो कि बहुत ही महत्वपूर्ण है। लेकिन, अगर हम लिंग को एक स्पेक्ट्रम की तरह देखें तो इस संवाद का विस्तार कैसे हो सकता है?
क्या डीईआई से जुड़े संवाद में, हमारी विविध पहचानों के कारण हमें मिलने वाली सुविधाएं और कमियों का ज़िक्र भी शामिल होता है? उदाहरण के लिए, एक सीईओ जो समलैंगिक है उसे सीईओ होने के कारण कुछ विशेष ताक़तें मिल सकती हैं लेकिन दूसरी तरफ़ समलैंगिक होने के कारण उसे हाशिये का जीवन बिताने जैसे अनुभव भी झेलने पड़ सकते हैं। क्या हम इस बारे में खुलकर बात करते हैं कि विभिन्न प्रकार की ये पहचान और इनका परस्पर हस्तक्षेप कार्यस्थल पर कैसे काम करते हैं और साथ ही हमारे कामों और प्रतिक्रियाओं को किस तरह प्रभावित करते हैं?
ये कुछ ऐसे सवाल हैं जो हमारी डीईआई की अपनी यात्रा के दौरान उम्मीद चाइल्ड डेवलपमेंट सेंटर के साथ काम करते समय हमारे सामने खड़े थे। उम्मीद की स्थापना 2001 में विकास संबंधी विकलांगता वाले और उनके ख़तरे उठा रहे बच्चों की मदद करने की सोच को केंद्र में रखकर किया गया था। इतने वर्षों में हम लोगों ने बच्चों और परिवारों को सीधे क्लिनिकल सेवाएं दी हैं। इसके अलावा हमने डॉक्टर, थेरापिस्ट, शिक्षकों और समुदाय के कार्यकर्ताओं जैसे पेशेवरों के लिए प्रशिक्षण कार्यक्रम भी आयोजित किया है।
विकलांगता से जुड़े मुद्दों पर काम करने वाली एक संस्था होने के नाते हमने हमेशा ही कार्यस्थल समेत सभी जगहों पर डीईआई के प्रति अपनी गहन प्रतिबद्धता को बनाए रखा है। जब हम एक छोटी सी टीम के रूप में काम कर रहे थे तब हमने आपसी बातचीत से संगठन की संस्कृति के कई पहलुओं के बारे में अनौपचारिक रूप से जाना। हालांकि, हमारी टीम – जिसमें बाल रोग विशेषज्ञ, चिकित्सक, स्कूल विशेषज्ञ, परियोजना प्रबंधक, माता-पिता, सामुदायिक कार्यकर्ता और सहायक कर्मचारी शामिल हैं – 2016 से 2021 के बीच 55 सदस्यों से दोगुना बढ़कर लगभग 110 तक पहुंच गई। अगले कुछ सालों में हमारा उद्देश्य इस संख्या को भी बढ़ाकर दोगुने तक पहुंचाने का है।
तेज़ी से बढ़ रही टीम और कोविड-19 महामारी के कारण वर्चुअल रूप से काम करने की बढ़ती संभावनाओं को देखते हुए हमें उन मूल्यों को औपचारिक रूप देने और आंतरिक प्रसार की आवश्यकता महसूस हुई, जिन्हें संगठन और उसके सदस्यों को अपनाना चाहिए। संगठन के युवा सदस्य इस बात को लेकर विशेष रूप से ऐसा चाहते थे कि संगठन को उनके लिए महत्वपूर्ण मूल्यों को सक्रियता से अपनाना चाहिए। इसके कारण ही, हमने ऐसे सुरक्षित कार्य स्थलों के निर्माण को लेकर अपने प्रयासों को तेज कर दिया जहां वे अपनी विविधता को दिखा सकें और अपनी क्षमता के अनुसार परिणाम हासिल कर सकें।
उम्मीद की डीईआई यात्रा की शुरूआत 2021 में हुई थी। सबसे पहले, नेतृत्व टीम ने संगठन के कामकाज से परिचित मानव संसाधन सलाहकार और कोच की सहायता से विविधता और समावेशन पर बातचीत में शामिल होना शुरू किया। इससे हमें समावेशी नेतृत्व की एक आम समझ विकसित करने में मदद मिली और डीईआई को और अधिक मजबूती से प्रतिबद्ध करने की दिशा में हम पहले से भी अधिक प्रेरित हुए। इस बातचीत से यह स्पष्ट हुआ कि ऐसे कई मामले थे जिनपर हमारी नज़र ही नहीं थी और इसका कारण डीईआई को लेकर हमारे मौजूदा ज्ञान में कमी थी। इसके अलावा, हमें इस बात का भी एहसास हुआ कि डीईआई के प्रति एक अपेक्षाकृत अधिक विचारशील सोच से उन बच्चों, परिवारों और प्रशिक्षण लेने वालों को भी लाभ होगा जिनके साथ हम काम करते हैं।
हमारे डीईआई प्रयासों के मुख्य केंद्र में भाषाई विविधता, न्यूरोडायवर्सिटी और विकलांगता के साथ लिंग और यौन विविधता जैसे विषय थे।
हमारा पहला कदम सभी कर्मचारियों के साथ एक सर्वेक्षण करना था, जिसमें संगठन में डीईआई के बारे में कर्मचारी सदस्यों की धारणाओं का पता लगाने की कोशिश की गई थी। समाना सेंटर फॉर जेंडर, पॉलिसी, एंड लॉ द्वारा आयोजित, सर्वेक्षण अंग्रेजी और हिंदी दोनों ही भाषाओं में किया गाया था और उस समय कुल 110 कर्मचारी सदस्यों में से 88 ने इस सर्वेक्षण को पूरा किया था। इसके परिणामों में कर्मचारियों की सोच स्पष्ट हुई: जहां टीम के वरिष्ठ सदस्य सही राह पर थे, वहीं हमें इस बात को लेकर किसी भी तरह का अंदाज़ा नहीं था कि वास्तविक रूप से समावेशन का काम किस प्रकार किया जाए। सर्वेक्षण के आधार पर, हमें अपने डीईआई प्रयासों के मुख्य क्षेत्रों के बारे में पता लगाने में आसानी हुई: भाषाई विविधता, न्यूरोडायवर्सिटी और विकलांगता, और लैंगिक एवं यौनिक विविधता।
और इसलिए, साल 2022 में डीईआई की अपनी इस यात्रा को सहयोग देने के लिए हमने अपने साथ सामाजिक-आर्थिक सीख से जुड़े कार्यक्रमों के प्रदान करने वाली समाजसेवी संगठन अपनी शाला फाउंडेशन को जोड़ा। अपनी शाला की भागीदारी ने हमें अपने संगठन के भीतर पहले से मौजूद इरादों का सम्मान करने और उन्हें सिस्टम और ढांचे में शामिल करने में सक्षम बनाया जो इसकी भविष्य की यात्रा में अपना सहयोग देने वाले थे।
हमारी बातचीत ने प्रणालीगत परिवर्तन को काम करने के लक्ष्य के रूप में निर्धारित करने में मदद की, साथ ही व्यक्तिगत परिवर्तन को इसके मार्ग के रूप में तैयार किया। यह इस समझ पर आधारित था कि लोग ही प्रणालियों यानी कि सिस्टम को बनाते हैं और इस प्रकार प्रणाली-व्यापी परिवर्तन को प्रभावित करने में प्रत्येक व्यक्ति की भूमिका होती है। शुरुआत से ही, यह स्पष्ट कर दिया गया था कि उम्मीद की पूरी नेतृत्व टीम को अपनी शाला द्वारा आयोजित सत्रों में सक्रिय रूप से भाग लेना होगा। ऐसा करने के पीछे की सोच यह थी कि नेतृत्व टीम इस सीखने की यात्रा में सक्रिय भूमिका निभाए और सभी के लिए समानता, न्याय, समावेश और अपनापन लाने में अपनी उन शक्तियों का प्रयोग करे जो उन्हें अपने-अपने पद के कारण मिली हैं।
अपनी शाला के हस्तक्षेप कार्यक्रम में दो चरण शामिल थे। सबसे पहले, सभी कर्मचारी सदस्यों के साथ ओरिएंटेशन सत्र आयोजित किए गए। इन सत्रों में, प्रत्येक सदस्य को भाषा, न्यूरोडायवर्सिटी और विकलांगता, लैंगिक एवं यौनिक पसंद, और विविधता के अन्य प्रकारों से पहचान, ताकत और हाशिए पर होने के अपने व्यक्तिगत अनुभवों का पता लगाने का अवसर मिला। इन सत्रों का आयोजन 25-30 प्रतिभागियों के समूह के लिए उनकी भाषा में ही किया गया।
ओरिएंटेशन के बाद, संगठन से सभी स्तरों पर जुड़े कुल 30 वॉलंटियर ने हस्तक्षेप के अगले चरण में भाग लिया: पहचाने गए सात मुख्य क्षेत्रों पर सात गहन सत्रों का आयोजन। ये सत्र सात महीने के लिए महीने में एक बार किसी नई जगह पर आयोजित किए गए थे।
इस गहन सत्रों के दौरान अपनी शाला ने कुछ मुख्य रणनीतियों को अपनाया था। उदाहरण के लिए, कार्यस्थल पर शक्ति का वितरण अलग-अलग जगहों पर था, और बिना इन शक्तियों की स्थिति और इनके द्वारा निभाई जाने वाली भूमिकाओं का पता लगाये, डीईआई से जुड़ी किसी भी तरह की स्पष्ट बातचीत संभव नहीं है। अपनी शाला के सत्रों में सत्ता के इस अंतर पर प्रमुखता से बात करके, शक्ति के वितरण के लिए ज़िम्मेदार सत्र के इन और आउट-ऑफ़- व्यस्तताओं के लिए मानदंड तैयार करके, बातचीत और समूह गतिविधियों के लिए जानबूझकर समूह बनाने और एक अंतरविरोधी नज़रिए से चर्चा की सुविधा प्रदान करके संबोधित किया गया।
अपनी शाला ने जो एक दूसरी रणनीति अपनाई उसमें उसने सीरियल टेस्टीमनी प्रोटोकॉल का इस्तेमाल किया था। इसमें समूहों के सदस्यों को बोलने के लिए समान समय दिया जाता था, चाहे वे संगठन के किसी भी पद पर क्यों ना हों। इससे संगठन के उन सदस्यों को भी बोलने का अवसर मिला जो विशेष अधिकार की कमी के कारण चुप रह जाते थे। यह अभ्यास किसी की भी चिंताओं को सुनने में इतना प्रभावी था कि इसे उम्मीद में वर्तमान कर्मचारी बैठकों में भी अपनाया गया है।
अपनी शाला का यह हस्तक्षेप मई 2023 में समाप्त हो गया। इसके बाद इन गहन सत्रों में भाग लेने वाले कुल 30 में से 22 सदस्यों ने उन समूहों में शामिल होने की इच्छा जताई जो अगले एक से दो वर्षों में उम्मीद की नीतियों, प्रक्रियाओं, कार्यक्रमों और प्रणालियों को डीईआई के सिद्धांतों के साथ संरेखित करने को सुनिश्चित करने के लिए काम करने वाला था।
हालांकि अपनी शाला टीम को यकीन था कि व्यक्तिगत यात्राओं को बढ़ावा देने से संगठनात्मक बदलाव आएगा, लेकिन कुछ लोग इसमें लगने वाले समय को लेकर निश्चित नहीं थे। अपनी शाला की टीम ने उनकी चिंताओं को पहचाना, उन्हें दोबारा आश्वासन दिया और प्रत्येक सत्र में इस बारे में बात करने के लिए पर्याप्त अवसर दिये कि एक संगठन के रूप में उम्मीद के लिए उस दिन होने वाली चर्चा का क्या विशेष मतलब हो सकता है। इससे व्यक्तिगत रूप से बदलाव लाने वाले काम और संगठन की जरूरतों के बीच एक स्पष्ट संबंध प्रस्तुत करने में मदद मिली।
जहां एक तरफ उम्मीद टीम के अधिकांश लोग – विशेष रूप से समूह में शामिल लोग – इस नई पहल से सहमत थे, वहीं कुछ ऐसे लोग भी थे जिन्होंने इन सत्रों में लगाये जाने वाले समय पर आश्चर्य जताया और यह सवाल भी उठाया कि अख़िरकार इन सबका क्या मतलब निकल कर आयेगा। इस बात को समझा जा सकता था क्योंकि काम का कोई ठोस परिणाम देखने को नहीं मिल रहा था: कोई व्यक्तिगत परिवर्तन की माप कैसे कर सकता है?
इस प्रकार, उम्मीद की नेतृत्व टीम ने डीईआई के प्रति संगठन की प्रतिबद्धता पर फिर से जोर देने और इससे जुड़ाव के कारण पहले से ही हो रही ‘छोटी जीत’ को साझा करने की जिम्मेदारी ली। सभी सत्रों के समाप्त होने तक, किसी ने भी समय की बर्बादी वाली बात दर्ज नहीं करवाई और लगभग 75 फ़ीसद प्रतिभागियों ने इसके लिए अपने नाम दर्ज करवाए कि वे संगठनात्मक परिवर्तन की प्रक्रिया में मदद के लिए अपने व्यक्तिगत परिवर्तन का इस्तेमाल करेंगे।
संगठन के भीतर मजबूत डीईआई प्रथाओं को विकसित करने के लिए सजग प्रयास करने की प्रक्रिया मुफ्त नहीं होती है। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए कि आमतौर पर दानकर्ताओं का ध्यान बाहरी काम पर होता है और वे शायद ही कभी आंतरिक क्षमता निर्माण में निवेश की इच्छा जताते हैं, इस पहल को अपना सहयोग और समर्थन देने वाले केवल कुछ ही दानकर्ता थे; बाक़ी का खर्च उम्मीद की बचत के पैसे से पूरी की गई। हम यह आशा करते हैं कि दानकर्ता लोचदार संगठनों के निर्माण के लिए डीईआई को एक महत्वपूर्ण कदम के रूप में देखते हैं और साथ ही इसे या तो एक स्वतंत्र समर्थन या किसी प्रोग्रामेटिक फंडिंग के हिस्से के रूप में देखा जाता है।
इस गहन सत्रों ने पहचान और पिछड़ेपन के संबंध में प्रतिभागियों को उनके व्यक्तिगत अनुभवों को लेकर पहले से अधिक जागरूक बनाया और आंतरिक मानसिक स्वास्थ्य समर्थन के लिए बढ़ती ज़रूरत में अपना योगदान दिया। इसलिए, हमें भी इस पर सोचना पड़ा कि इन परिवर्तनकारी व्यक्तिगत यात्राओं को आगे बढ़ा रहे व्यक्तियों का प्रभावी ढंग से समर्थन कैसे किया जाए। इसके अलावा, ऐसे भी मामले थे जहां टीम के सदस्य का मैनेजर गहन सत्रों में भाग लेने वाले इन प्रतिभागियों में शामिल नहीं था। इसलिए, जब टीम के सदस्य इन सत्रों में हासिल अनुभव और सबक़ को लेकर वापस जाते हैं तो ज़रूरी नहीं है कि उनका मैनेजर हमेशा ही उनकी बात मान लेगा या उन्हें उत्साहित करेगा। इस पर बातचीत अभी भी जारी है कि ऐसी चुनौतीपूर्ण स्थितियों को ठीक से कैसे संभाला जाए।
हालांकि हमारा मानना है कि अभी भी और काम किया जाना बाकी है, हम हमारे डीईआई प्रयासों के कुछ परिणामों के बारे में यहां बता रहे हैं:
निकट भविष्य में, हमें उम्मीद है कि हम डीईआई के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को स्पष्ट रूप से बताने के लिए अपनी वेबसाइट को अपडेट करेंगे। हमने अब तक इस काम को रोका हुआ था क्योंकि हम पहले यह सुनिश्चित करना चाहते थे कि हमारी आंतरिक संस्कृति और प्रथाएं पूरी टीम के लिए एक समावेशी और न्यायसंगत वातावरण प्रदान करने में सक्षम हैं।
हम चाहते हैं कि उम्मीद काम करने वाली एक ऐसी जगह के रूप में विकसित हो सके जहां प्रत्येक व्यक्ति के लिए उसके अपने वास्तविक रूप में रहना संभव हो। हालांकि, इसे आंतरिक रूप से समर्थित किया जा सकता है, लेकिन संगठन को इसे बनाने वाले कर्मचारियों के दृष्टिकोण से कहीं अधिक संघर्ष करने की ज़रूरत है। उदाहरण के लिए, ऐसा भी समय था जब हमारे पास आने वाले बच्चे और उनके माता-पिता ने किसी ख़ास थैरेपिस्ट से इलाज करवाने के लिए मना कर दिया क्योंकि वे अलग दिखाई पड़ते थे। यह एक सामाजिक पूर्वाग्रह है जिससे एक संगठन के रूप में हमें निपटना है, और हमारे पास हर सवाल का जवाब नहीं है। लेकिन हम सीमित भी नहीं रहना चाहते हैं और हमारी इच्छा यह है कि हमारी सीख और सबक़ (और क्या नहीं सीखना चाहिए जैसी बातों) का प्रसार-प्रचार हो। इस प्रकार, हमारे पास ऐसी और भी जगहें होंगी जहां काम करने वाले प्रत्येक व्यक्ति के पास हमेशा ही अपने वास्तविक रूप में रहने की सुविधा होगी।
अपनी शाला के सीईओ रोहित कुमार, ने भी इस लेख में अपना योगदान दिया है।
इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें।
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पश्चिम बंगाल के पूर्व मेदिनीपुर जिले का बगुरान जलपाई अपने खूबसूरत समुद्र तट और लाल केकड़ों के लिए जाना जाता है। यह पूर्व मेदिनीपुर में पड़ने वाले कांथी शहर से करीब 15 किमी दूर बंगाल की खाड़ी का तटीय इलाक़ा है। कुछ समय पहले तक यहां केवल स्थानीय लोग ही ज़्यादा दिखाई पड़ते थे लेकिन हाल के सालों में इसने पर्यटन के लिए कुछ नया तलाशने वाले लोगों का ध्यान आकर्षित किया है। लेकिन अब यही बढ़ता पर्यटन यहां के लिए संकट की एक वजह बनता नज़र आ रहा है।
आमतौर पर, यहां तटीय इलाके में मछली के अलावा केकड़े की कुछ प्रजातियां एक प्रमुख जलीय आहार होती हैं। इन सब में लाल केकड़ा इसलिए अनोखा है और इसे खाया नहीं जाता है। लाल केकड़े मनुष्य या किसी अन्य जीव की उपस्थिति को लेकर काफी संवेदनशील होते हैं और आहट पाते ही छिपने के लिए जमीन में बनाए अपने छिद्रों में चले जाते हैं। इसीलिए उनके आस-पास ज़्यादा हलचल होना उनके जीवन के लिए हानिकारक है।
बगुरान जलपाई गांव की निवासी और गांव के आखिरी छोर पर, समुद्र के पास रहने वाली 34 वर्षीया ज्योत्सना बोर लाल केकड़ों को मनुष्य का दोस्त बताती हैं। वे जिस जमीन पर रहते हैं, उसमें छेद करके अपना आवास बनाकर रहते हैं और वहां की मिट्टी व रेत को भुरभुरा कर देते हैं। वे बताती हैं कि इस तरह से रेत को भुरभुरा करने से समुद्र तट पर रेत की परत ऊंची बन जाती है और ऐसे में यह समुद्री हलचल व लहरों के प्रभाव को रोकने के लिए अपेक्षाकृत अधिक बेहतर प्रतिरोधक का काम करती है। स्थानीय वन कर्मी बप्पादित्या नास्कर भी इसमें जोड़ते हैं कि लाल केकड़े द्वारा बालू या रेत को भुरभुरा कर देने से रेत हल्की हो जाती है और उसकी सतह ऊपर हो जाती है तथा इससे हमें पौधे रोपने में भी आसानी होती है।
बगुरान गांव के निवासी देवाशीष श्यामल कहते हैं कि “लाल केकड़े की मौजूदगी से यह पता चलता है कि हमारे गांव के समुद्र तट का स्वास्थ्य ठीक है।” ऐसे फ़ायदों के चलते स्थानीय समुदाय लाल केकड़ों के संरक्षण के लिए काफी संवेदनशील है।
ज्योत्सना बताती हैं कि “पर्यटक लाल केकड़ों को नुकसान पहुंचाते हैं। वे समुद्र के तट पर बाइक व अन्य दूसरी गाड़ियां लेकर पहुंच जाते हैं। इनसे कुचल जाने पर केकड़ों की मौत हो जाती है”। वे बताती हैं कि समुदाय यह ध्यान रखता है कि लोग बाइक व चार पहिया गाड़ी लेकर समुद्र के तट पर न जायें। ज्योत्सना स्वयं मछ्ली पकड़ने का काम करती हैं लेकिन वे या इलाके का कोई भी मछुआरा लाल केकड़े को नहीं पकड़ता।
गांव के 37 वर्षीय किसान शक्ति खुठिया कहते हैं कि “पहले लाल केकड़े को लेकर कोई सख्त नियम नहीं था, कोई भी समुद्र के किनारे गाड़ी लेकर चला जाता था। लेकिन हाल ही में सरकार ने सख्ती की है, जिससे लाल केकड़े को बचाने की कोशिश हो रही है। लोगों की बढ़ती संख्या के कारण लाल केकड़े इस इलाके को छोड़ने पर मजबूर हो सकते हैं और ऐसा नहीं होने देना है।”
साल 2023 में, पश्चिम बंगाल सरकार ने एक अधिसूचना जारी कर, बिरामपुर से बगुरान जलपाई तक के 7.3 किलोमीटर लंबे समुद्र तट को बायोडायवर्सिटी हेरिटेज साइट घोषित कर दिया है। इस अधिसूचना के बाद यहां पर भारत सरकार का जैव विविधता अधिनियम 2002 और पश्चिम बंगाल जैव विविधता नियम, 2005 प्रभावी हो जाता है। अधिसूचना के अनुसार, जिलाधिकारी द्वारा और ब्लॉक स्तर पर अलग-अलग जैव विविधता प्रबंधन समितियां बनाकर यहां की जैव विविधता का संरक्षण करने का प्रावधान है।
इलाके में वन विभाग का एक स्थाई कैंप भी लगाया गया है ताकि स्थानीय समुदाय के सहयोग से यह सुनिश्चित किया जाए कि लाल केकड़ों को कोई नुकसान तो नहीं पहुंच रहा है।
राहुल सिंह एक स्वतंत्र पत्रकार हैं और झारखंड में रहते हैं। वे पूर्वी राज्यों में चल रही गतिविधियों, खासकर पर्यावरण व ग्रामीण विषयों पर लिखते हैं।
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साल 1992 में मैंने अनंतशक्ति के साथ काम करना शुरू किया था। यह एक सहकारी समिति है जो आंध्र प्रदेश के श्री सत्य साईं ज़िले में काम कर रही टिम्बकटू कलेक्टिव्स के सहयोग से काम करती है। शुरुआत में, मैंने एक ग्रामीण-स्तर पर काम करने वाले संघ के सदस्य के रूप में काम शुरू किया था और अब मैं इस समिति की बोर्ड की सदस्य हूं। मैं महाशक्ति फेडरेशन की उपाध्यक्ष भी हूं, जो चार किफायती सहकारी समितियों का एक समूह है, जिसकी कुल संपत्ति 55.17 करोड़ रुपये (वित्त वर्ष 2023-24) है और इसकी महिला सदस्यों की संख्या बत्तीस हज़ार है। मेरी औपचारिक पढ़ाई-लिखाई नहीं हुई है लेकिन इससे मुझे पैसों से जुड़े मामलों को और बदलाव लाने की इसकी क्षमता को समझने में किसी तरह की बाधा नहीं आई।
पहले लोग शादियों, बीज और रासायनिक खाद ख़रीदने या अपने बेटे के लिए मोटरसाइकिल का इंतज़ाम करने के लिए ऋण लेते थे। लेकिन आज की तारीख़ में, लिए गए आधे ऋण हमारे सदस्यों द्वारा चलाये जाने वाले छोटे-स्तर के व्यवसायों के लिए होते हैं। लोग ज़मीन ख़रीदने, घर बनाने या उसकी मरम्मत करने या फिर बच्चों की पढ़ाई के लिए भी ऋण लेते हैं। ऋण लेने वाली अधिकांश महिलाओं में अब जोखिम उठाने को लेकर एक तरह का आत्मविश्वास दिखाई पड़ता है जो पहले पैसों के मामलों में घबराती थीं। इस बदलाव में इन महिलाओं को मिलने वाली ऋण से जुड़ी उन सलाहों की मुख्य भूमिका है जो उन्हें समितियों से मिलती हैं।
समिति के काम करने का एक तरीक़ा है। जब किसी सदस्य को ऋण की ज़रूरत होती है तब वह सबसे पहले इसके बारे में अपने संघ से बात करती है। इस संघ के सदस्य ही ऋण लेते समय एक दूसरे के लिए गारंटर की भूमिका निभाते हैं। इस प्रक्रिया में उनके ऋण की गारंटी के बदले किसी तरह की संपत्ति नहीं रखवाई जाती है। बल्कि उस ऋण के भुगतान की क्षमता का आकलन उसके साथी सदस्य ही करते हैं। इसमें उनसे कुछ सवाल किए जाते हैं। जैसे कि क्या इन्होंने इससे पहले किसी तरह का ऋण लिया और उसे चुकाया है? उनके द्वारा भुगतान ना कर पाने की स्थिति में क्या उनके परिवार के सदस्य भुगतान कर सकते हैं? क्या उन्हें किसी तरह की पेंशन वगैरह मिलती है?
ऋण का आवेदन करने वाले सदस्य से पूछा जाता है कि वे इस पैसे का क्या करेंगी और इसके भुगतान को लेकर उन्होंने क्या सोचा है। इस पूरी योजना में संघ उस आवेदक की मदद करता है। उदाहरण के लिए, वे उस आवेदक को सलाह दे सकते हैं कि अपनी बेटी की शादी के लिए डेढ़ लाख का ऋण लेने के बदले वे उस पैसों का एक हिस्सा सोने के गहने जैसी संपत्ति बनाने में कर सकती हैं। अगर वह साड़ी की दुकान खोलने के लिए ऋण लेना चाहती हैं तो ऐसे संघ उनका ध्यान इस ओर दिला सकता है कि गांव में पहले से ही साड़ी की कई दुकानें हैं; और ऐसे में उसे किसी दूसरे व्यवसाय के बारे में सोचना चाहिए।
संघ लीडर्स द्वारा शुरू की गई यह जांच जोखिम के मूल्यांकन का पहला स्तर होते है। वे उस आवेदक की मदद करते हैं ताकि वह व्यक्ति ऋण के रूप में मिलने वाले पैसों को खर्च करने के अपने अधिकार और आज़ादी के बारे में भी सोच सके। जैसे कि अगर वह घर बनाने या ज़मीन ख़रीदने के लिए ऋण ले रही है तो क्या संपत्ति में उसका मालिकाना हक़ होगा? क्या फ़ैसले लेते समय उसकी राय ली जाएगी? इस तरह के सवालों को सुनकर महिलाएं अपने ही परिवार में अपनी स्थिति के बारे में सोचने पर मजबूर होती हैं और बदले में अपनी आर्थिक भलाई में उनका अपना योगदान भी होता है।
सलाह और जोखिम मूल्यांकन के अगले स्तर पर समितियों के बोर्ड के सदस्य शामिल होते हैं। ये सदस्य भी उनसे वही पहले वाले सवाल पूछते हैं लेकिन साथ ही ऋण की ज़रूरत के बारे सोचने में उनकी मदद करते हैं। इसके अलावा ये लोग आवेदक को ब्याज दर और भुगतान की शर्तों के बारे में भी बताते हैं।
जहां सलाह देने वाली औपचारिक प्रक्रिया में बोर्ड के सदस्य की भागीदारी होती हैं वहीं पैसों के समुचित उपयोग जैसे विषय पर आवेदक आपस में भी चर्चा करते हैं। इस बातचीत में आवेदक एक दूसरे से ऋण लेने के कारणों और उसके इस्तेमाल आदि पर बातचीत करके अपनी समझ स्पष्ट करते हैं।
जब किसी महिला को उसका ऋण मिल जाता है तब उसका संघ उसके काम की प्रगति की नियमित जांच करता है। इस जांच के दौरान कुछ बातें देखी जाती हैं जैसे कि क्या उस महिला ने ऋण के पैसों का इस्तेमाल उसी काम के लिए किया है जिसके लिए उसे ऋण दिया गया है? क्या किस्तों के भुगतान में उसे किसी तरह की समस्या आ रही है? आगे उसे किस तरह की मदद की ज़रूरत है?
समुदाय के स्तर पर मिलने वाले सहयोग और सलाह की संस्कृति ने वित्तीय योजनाओं को लेकर महिलाओं को मज़बूत बनाया है। सदस्यों के बीच आपसी भरोसे और कार्यक्रम के प्रति स्वामित्व के भाव ने भी भुगतान की उच्च दर को बनाए रखने, महिलाओं की विश्वसनीयता को बढ़ाने में मदद पहुंचाई है। साथ ही, इससे अपने व्यवसायों को खड़ा करने के लिए महिलाओं को ऋण आवेदन के लिए प्रोत्साहन भी मिला है। इससे मिलने वाली वित्तीय सुरक्षा के कारण इन महिलाओं की अपने परिवार और समाज दोनों में स्थिति बेहतर है। ये महिलाएं इसे बाक़ी किसी भी दूसरी चीज से अधिक मूल्यवान समझती हैं।
के रामलक्ष्म्मा महाशक्ति फ़ेडरेशन की उपाध्यक्ष हैं। महाशक्ति फ़ेडरेशन महिलाओं के साथ काम करने वाली चार विभिन्न समितियों का एक समूह है।
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अधिक जानें: इस लेख को पढ़ें और जानें कि कैसे राजस्थान के एक गांव की महिलाएं एग्रोटूरिज़्म के माध्यम से आर्थिक रूप से संपन्न हो रही हैं।
अधिक करें: लेखक के काम को विस्तार से जानने और उन्हें अपना सहयोग देने के लिए उनसे [email protected] पर संपर्क करें।
यह पोस्ट @nonprofitssay से प्रेरित है।
मैं छत्तीसगढ़ के रायगढ़ जिले में पड़ने वाले पेल्मा गांव का निवासी हूं। मैं एक किसान हूं और पशुपालन भी करता हूं। पिछले कुछ दशकों में हमारे आसपास के कई गांवों में कोयला खनन का काम बहुत ही तेज़ी से हो रहा है। कोयला खनन करने के लिए कंपनियों ने ज़मीनों का अधिग्रहण कर लिया। नतीजतन, लोगों के पास खेती के लिए पर्याप्त ज़मीन नहीं रह गई है। इसके अलावा बड़े पैमाने पर खनन होने के कारण आसपास का पर्यावरण भी बहुत अधिक प्रदूषित हो गया है। इस प्रदूषण का हानिकारक प्रभाव ना केवल यहां रहने वाले इंसानों पर पड़ रहा है बल्कि इलाक़े के पेड़-पौधे और पशु-पक्षी भी इसके प्रभाव से बच नहीं पा रहे हैं।
हमारा गांव उन कुछ गांवों में से एक है जहां के लोगों ने जन आंदोलन, अदालती सुनवाइयों और धरना-प्रदर्शन आदि के ज़रिए कोयला खनन पर रोक लगाने में सफलता हासिल की है। कंपनियों का दावा है कि वे हमें रोज़गार मुहैया करवाएंगी, लेकिन हमें इसमें किसी तरह का फ़ायदा नहीं दिखता है। वे एक परिवार से केवल एक व्यक्ति को रोज़गार देने की बात करते हैं, लेकिन हमारे गांव में खेती के काम में परिवार के प्रत्येक सदस्य की भागीदारी होती है।
हालांकि, यह सच है कि हमें खदानों के आसपास रहने का भारी ख़ामियाजा भुगतना पड़ता है। हमारे आसपास की हरियाली खत्म हो चुकी है। जब हमारे मवेशी घास और वनोपज चरते हैं तो उनके शरीर में कोयला खनन से निकलने वाले हानिकारक और ज़हरीले पदार्थ भी प्रवेश कर जाते हैं।
मवेशियों के स्वास्थ्य पर इन हानिकारक पदार्थों के सेवन का बहुत ही बुरा प्रभाव पड़ता है और वे कई प्रकार की बीमारियों की चपेट में आ जाते हैं। इन बीमारियों के कारण गायों और बकरियों से होने वाले दूध के उत्पादन में भारी कमी आने लगी है। नतीजतन, मुझ जैसे पशुपालक के भरोसे अपनी आजीविका चलाने वाले लोगों की आमदनी में भारी कमी आई है।
इस के कारण हमारे सामने आजीविका का एक बड़ा संकट खड़ा हो गया है। ऐसा इसलिए भी है क्योंकि अब खेती में आई कमी के कारण खेतिहर मज़दूरों के पास काम की कमी हो गई है और उनके पास कुछ नया काम सीखने का ना तो विकल्प है और ना ही पर्याप्त साधन हैं। इसके अलावा, आसपास के गांवों में खनन के लिए किए जाने वाले भारी विस्फोटों के कारण हमारे घरों की दीवारों पर भी दरारें पड़ने लगी हैं।
महाशय राठिया जन चेतना, रायगढ़ नाम की एक समाजसेवी संस्था के सदस्य हैं। यह संगठन छत्तीसगढ़ के पेल्मा गांव में स्थित एक सामुदायिक संगठन है। महाशय पेशे से एक पशुपालक हैं।
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अधिक जानें: इस लेख को पढ़ें और जानें कि छत्तीसगढ़ में अब महुआ बुजुर्गों की आय का साधन क्यों नहीं रह गया है।