जिनसे हमें प्रेरणा मिलती है, उन किसानों को क्या मिलता है?

किसानों के बारे में न्यूज़ रिपोर्ट- कृषि
चित्र साभार: मीत ककाड़िया

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बिहार में किसानों के लिए पॉपलर की खेती करना आसान क्यों नहीं है?

ट्रैक्टर से खेती करता किसान_नकद खेती
किसान अतिरिक्त आमदनी के लिए पॉपलर खेती के साथ-साथ ईख, गेहूं, पपीता आदि की खेती भी कर सकते हैं। | चित्र साभार: राहुल सिंह

बिहार के बेगूसराय जिले में रहने वाले शैलेंद्र कुमार चौधरी हमेशा से आधुनिक पद्धतियों से खेती करना चाहते थे। साल 2014 में, वे अपने पिता के साथ हरियाणा के यमुनानगर गए जहां उन्होंने चिनार (पॉपलर) के पेड़ों के कई तरह के उपयोग देखे और उनके बारे में जाना। पॉपलर का प्रमुख इस्तेमाल प्लायवुड बनाने में किया जाता है। साथ ही, पेंसिल की लकड़ी, स्लेट का फ्रेम, बंदूक का बट और खिलौने बनाने में भी इसका उपयोग होता है। इसके अलावा, इसका जलावन भी अच्छा होता है। किसान को इस लकड़ी की कीमत पांच से सात रुपये किलो तक मिल जाती है। पेड़ लगाने के पांचवे साल में यह बेचने के लिए तैयार हो जाती है।

यह सब देखकर शैलेंद्र ने अपने गांव अहियापुर में पॉपलर की खेती करने का निर्णय लिया और 25 एकड़ जमीन में इसकी खेती शुरू की। शैलेंद्र बताते हैं कि ‘शुरुआत में हमने अपनी खेतिहर भूमि पर पॉपलर के करीब 10 हजार पेड़ लगाये। इनमें से लगभग आठ से साढ़े आठ हजार पेड़ जीवित बचे। पहली खेप के पेड़ों को मैंने वर्ष 2021 में बेचा और उसको बेचने से मुझे इतना मुनाफा हुआ कि मेरी बेटी की शादी का खर्च उसी पैसे से निकल गया।’

शैलेंद्र अपने खेत में लक्ष्मी वेराइटी के पौधे लगाते हैं जो वे इंस्टीट्यूट ऑफ फॉरेस्ट प्रोडक्टिविटी, (आइएफपी, रांची) से लाते हैं। अपने अनुभवों के आधार पर शैलेन्द्र बताते हैं कि पॉपलर के लिए ऐसी भूमि उपयुक्त होती है जहां पानी का जमाव नहीं होता हो। वे कहते हैं कि ‘किसान अतिरिक्त आमदनी के लिए पॉपलर खेती के साथ-साथ ईख, गेहूं, पपीता आदि की खेती भी कर सकते हैं जो मैं भी अपने खेतों में लगाता हूं।’

शैलेंद्र, पॉपलर की लक्ष्मी वैरायटी के पौधे के सर्टिफाइड ग्रोवर हैं और इसके लिए उन्होंने इंस्टीट्यूट ऑफ फॉरेस्ट प्रोडक्टिविटी, रांची से प्रमाण पत्र हासिल किया है। इसका मतलब है कि वे पॉपलर की नर्सरी तैयार कर पुनर्रोपण के लिए अन्य किसानों बेच सकते हैं और यह अनुमति उन्हें सरकार की तरफ़ से दी गई है।

अहियापुर के ही एक और सर्टिफ़ाइड ग्रोवर, किसान संजय कुमार चौधरी भी चिनार या पॉपलर की खेती करते हैं। संजय कहते हैं कि ‘सागवान-महोगनी के पौधे हम लगायेंगे तो उसकी लकड़ी का आर्थिक उपयोग हमारे बच्चे करेंगे क्योंकि उन्हें तैयार होने में लंबा वक्त लगता है। लेकिन पॉपलर का उपयोग हम खुद ही करेंगे और एक बार कर भी चुके हैं। अगर हर साल हम कुछ-कुछ पौधे लगाते रहेंगे तो साल दर साल हमारे लिए आय का जरिया खुलता जाएगा।’

बिहार सरकार पॉपलर के लिए एक अलग योजना चला रही है जिसके तहत किसानों को 10 रुपये की जमानत राशि पर इसके पौधे दिये जाते हैं। पटेढ़ी बेलसर ब्लॉक, वैशाली में पड़ने वाले पड़वारा गांव के 56 वर्षीय किसान पवन सिंह बताते हैं कि वर्तमान में सरकार द्वारा 10 रुपये मूल्य पर हमें पौधे दिये जाते हैं और फिर तीन साल बाद कुल लगाये गये पौधों में 50 प्रतिशत या उससे अधिक के जीवित रहने पर 60 रुपये बोनस और 10 रुपये लागत मूल्य सहित वापस किये जाने का प्रावधान रखा गया है। लेकिन इसमें दिक्कत यह है कि किसान को पौधों के लिए आवेदन करने से लेकर पौधे लाने तक लगभग 10 दिन का वक्त लग जाता है। इस दौरान पौधों की देखरेख अगर सही से न हो तो उनको जीवित रखना मुश्किल हो जाता है जिससे किसानों को नुकसान होता है। ऐसे में इस पूरी प्रक्रिया को तेज़ी से करने की आवश्यकता है।

कुछ किसानों से बात करते हुए पता चला कि जिन किसानों के पास दो हेक्टेयर या उससे कम ज़मीन है, उनके लिए पॉपलर की खेती करना उतना व्यवहारिक नहीं है। अब इसके पीछे मुख्य कारण यह है कि बिहार में इसे बेचने के लिए कोई उचित मार्केट नहीं है और ज्यादातर बड़े किसान अपनी फसल बेचने के लिए हरियाणा के यमुनानगर जाते हैं। वे बताते हैं कि ऐसे में छोटे किसानों के लिए अपनी फसल दूसरे राज्य में ले जाकर मुनाफा कमाना एक तरह से नामुमकिन है क्योंकि माल भाड़े में ही उनका काफी सारा पैसा चला जाता है।

पॉपलर की खेती, कम समय में किसानों की आजीविका को बढ़ाने का एक अच्छा स्रोत तो है लेकिन अभी इस राह में कई चुनौतियां हैं।

राहुल सिंह एक स्वतंत्र पत्रकार हैं और झारखंड में रहते हैं। वे पूर्वी राज्यों में चल रही गतिविधियों, खासकर पर्यावरण व ग्रामीण विषयों पर लिखते हैं।

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हिमाचल का एक गांव जो अपने पशुओं के स्वागत में उत्सव मनाता है

पहाड़ों से उतरती भेड़-बकरियाँ_पशु पालन
जानवरों की वापसी पर गांव के लोग जश्न मनाते हैं। | चित्र साभार: आस्था चौधरी

हिमाचल प्रदेश के कुल्लू जिले में तीर्थन घाटी के बीचोंबीच 8 हजार फीट की ऊंचाई पर पेखरी नाम का एक गांव स्थित है। क्षेत्र के अन्य गांवों की तरह, पेखरी में रहने वाला समुदाय भी अपने जीवनयापन के लिए पशुपालन और खेती पर ही निर्भर है। हिमाचल की दुरूह जलवायु परिस्थितियों को देखते हुए, इलाक़े में पशुधन का मौसमी प्रवास महत्वपूर्ण हो गया है ताकि सभी जानवरों के अस्तित्व और जीवन को सुनिश्चित किया जा सके।

प्रत्येक वर्ष मई माह में, 700–800 मवेशियों को चरने के लिए ऊपर वाले हिस्से में स्थित सार्वजनिक भूमि में भेज दिया जाता है। इन मवेशियों के साथ गांव के दो पुरुष भी जाते हैं और 15–20 दिनों में उनके वापस लौटने के बाद दो अन्य लोग उनकी जगह पर जाते हैं। नवम्बर तक चलने वाले इस प्रवास के दौरान यह चक्र चलता रहता है। गांव की 22 वर्षीय एक महिला सोनू कहती हैं कि, ‘इन महीनों में, हमारी गैसिनिस (पारंपरिक चरागाह) में पर्याप्त रूप से चारा उपज जाता है, जिन्हें सर्दियों के आने से पहले काटकर रख लेते हैं। मवेशियों के लिए यह बहुत ज़रूरी है क्योंकि बर्फबारी के दौरान पहाड़ों से वापस लौटने के बाद वे इसे ही खाते हैं।’

मवेशियों के गांव से प्रवास के बाद, गांव में लोग पट्टू (शॉल) की बुनाई, फसलों की बोआई, मधुमक्खी पालन और सर्दियों के लिए चारा जमा करने जैसे दूसरे काम जारी रखते हैं।

मवेशियों के वापस लौटने पर गांव वाले जश्न मनाते हैं। सभी लोग गांव के प्रवेश द्वार पर इकट्ठा होते हैं, जयकार कर और तालियां बजाकर उन मवेशियों का स्वागत करते हैं। अपने मवेशियों की गिनती करते हुए वे उनकी आरती और पूजा भी करते हैं। घरों के दरवाज़ों को बुरुश के पत्तों से सजाया जाता है, और पूरे गांव में मुडी के लड्डू (मक्के या ज्वार से बनी) नाम की मिठाई बांटी जाती है।

पेखरी के ही निवासी चन्देराम बताते हैं कि ‘हम इस त्योहार को इसलिए मनाते हैं क्योंकि ऐतिहासिक रूप से ये पशुधन ही हमारी आजीविका का एक मात्र स्रोत रहे हैं। जब हमारे मवेशी पहाड़ों से सुरक्षित वापस लौट आते हैं तब हम उनका स्वागत अपने बच्चों की तरह करते हैं।’ इस त्योहार को कातिक खड्डू पूजा कहते हैं।

हालांकि, लगातार बढ़ते निर्माण कार्य, वनों की कटाई के कारण चरागाह की सार्वजनिक ज़मीन में आई कमी आई है। इन कारणों ने मवेशियों के इस प्रवास की अवधि को लंबा और अपेक्षाकृत कठिन, दोनों बना दिया है। इलाक़े में रहने वाला समुदाय सर्दी के महीनों के लिए पर्याप्त चारा भी नहीं इकट्ठा कर पाता है।

मवेशियों के प्रवास के दौरान उनके साथ जाने वाले गांव के निवासी ताराचंद कहते हैं कि ‘बदलती जलवायु और मवेशियों का आर्थिक मूल्य कम होने के कारण, गांव के कुछ लोग अपने पारंपरिक पेशे को छोड़कर मज़दूरी और खेती के काम की तरफ जा रहे हैं। बढ़ती आबादी के कारण पारंपरिक चरागाह भूमि में कमी आई है। लेकिन अपनी पहचान को बचाए रखने और अपनी जड़ों से वास्तव में जुड़े रहने के लिए हम इस परंपरा को अब भी निभा रहे हैं।’

आस्था चौधरी उत्तर प्रदेश में मानव-वन्यजीव संबंधों का अध्ययन करने वाली एक शोध छात्रा हैं। वे कोएग्जिसटेंस कंसोर्टियम से जुड़ी हुई हैं।

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अच्छे लड़के और बेहतर मर्द बनाने की ज़िम्मेदारी आप कैसे निभा सकते हैं?

सामाजिक विकास के क्षेत्र में लैंगिक बराबरी से जुड़े मुद्दों पर होने वाले काम में पारम्परिक रूप से महिलाओं और लड़कियों को ही शामिल किया जाता रहा है। नब्बे के दशक के मध्य तक आने के बाद ही कुछ चुनिंदा गैर-सरकारी संगठनों ने लैंगिक मुद्दों को लेकर लड़कों और पुरुषों के साथ काम करना शुरू किया। इसके शुरूआती बिंदुओं में से एक था जनसंख्या नियंत्रण और प्रजनन स्वास्थ्य, जिसके अंतर्गत लड़कों और पुरुषों को कॉन्डोम का इस्तेमाल करने और अपनी गर्भवती पत्नियों के साथ स्वास्थ्य केंद्रों तक जाने के लिए प्रोत्साहित किया गया।

इसका उद्देश्य पुरुषों को लैंगिक संवेदीकरण कार्यशालाओं के माध्यम से महिलाओं के प्रजनन स्वास्थ्य में शामिल करना था। जल्दी ही इसका उद्देश्य महिलाओं के खिलाफ होने वाली हिंसा, खासकर पत्नियों के साथ मारपीट के रूप में होने वाली हिंसा को रोकने का भी हो गया। साल 2000 के अंत तक आते-आते ‘मेन एंगेज’ जैसे कई वैश्विक मंच दक्षिण एशिया में सक्रिय हो गए और इसके साथ ही राष्ट्रीय स्तर पर ‘फोरम टु एंगेज मेन (एफईएम)’ का भी उदय हुआ। यह बहुत हाल की ही बात है जब लड़कों और पुरुषों के साथ जेंडर पर होने वाले काम में ‘मर्दानगी’ की ओर गौर करना शुरू किया गया है। हिंसा को लिंग आधारित हिंसा से परे हटकर एक अधिक व्यापक नज़रिए से देखने की कोशिश हुई है।

नारीवादी प्रयासों में मर्दों की क्या भूमिका है? यह वह प्रश्न है जिसे विकास के क्षेत्र में काम कर रहे कुछ शिक्षक स्वयं से पूछते आ रहे हैं और इसका जवाब तलाशने की कोशिश में हैं। बहुत लम्बे समय तक पुरुषों को एक विशुद्ध चुनौती की श्रेणी में रखा गया जिन्हें शराब पीने, जुआ खेलने, पत्नी को पीटने, और बच्चों पर चिल्लाने से रोका जाना चाहिए।

नब्बे के दशक के मध्य में एक नया नज़रिया उभरा जिसमें विकास क्षेत्र ने महिलाओं के साथ काम को आसान और अधिक स्थाई बनाने के लक्ष्य को पाने के लिए पुरुषों को भी हितधारक मानना शुरू किया। हमने उन प्रशिक्षकों से कुछ सवाल पूछे जो कि लड़कों के साथ और/अथवा मर्दानगी पर काम कर रहे थे: उन्हें किस तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ता है? वे अपने ज़मीनी अनुभवों से मर्दानगी के बारे में क्या सीख रहे हैं? पुरुषों और मर्दानगी पर काम करने के लिए नारीवादी शिक्षण पद्धती (पेडागॉजी) कैसे खुद में फेर-बदल करती है? जैसे कि जब आप लड़कों से भरे हुए किसी कमरे में घुसते हैं तो लिंग या यौनिकता या मर्दानगी के बारे में उन्हें सिखाने का जो लक्ष्य आप सोचकर जाते हैं उसकी जगह आप खुद और उन्हें क्या सिखाने में सफल हो पाते हैं?

हमने 11 लोगों से बात की, जिनमें फैसिलिटेटर, प्रशिक्षक, फिल्म निर्माता, अकादमिक आदि शामिल थे, ताकि हम उन विभिन्न तरीकों की शिनाख्त कर पाएं जिनके द्वारा पुरुष एक नई दुनिया में; जहां महिलाएं बदल चुकी हैं, खुद को देखते और महसूस करते हैं। इससे एक बात उजागर हुई कि लैंगिक विषयों पर काम करना कितना गड़बड़ या ऐसा जिसमें सारे पहलू मिल-जुले हों, से भरा हो सकता है, और तब जब जिस लिंग को लेकर आप काम कर रहे हैं वो स्वयं ताकतवर हो।

सत्ता को क्यों छोड़ा जाए?

वाईपी फाउंडेशन के पूर्व डायरेक्टर मानक मटियानी ने इस सवाल के साथ वाईपी के समक्ष मर्दानगी के एजेंडे को रखा कि, ‘मर्दों को बिना अलगाव में डाले जेंडर के कार्यक्रम कैसे उनसे जुड़ी बात करें…’ अपनी आंखों में एक चौंध लिए वे जोड़ते हैं, ‘और इस बात के प्रति भी सचेत रहते हुए कि उनके विशेषाधिकार और मज़बूत न हो जाएं?’

यही तो पहला संकट है, क्योंकि युवा महिलाओं के साथ की जानेवाली कार्यशालाएं, सकारात्मक रूप से अपने बारे में बात करने और सशक्तीकरण जैसे पहलुओं पर केंद्रित हैं, उससे ठीक इतर युवा लड़कों के साथ किए जाने वाले सत्र उन्हें सज़ा देने जैसे लगते हैं। जैसा कि मानक कहते हैं, ‘ये सकारात्मक अनुभवों के ठीक उलट हैं’ जिनमें काफी हद तक लगता है कि लड़कों को कैद में रखा गया है और अब उन्हें बताया जाएगा कि उन्होंने क्या गलत किया है। ऐसे में लड़के इस तरह के सत्रों/ मंचों का हिस्सा बनेगें ही क्यों?

‘लाख टके का सवाल यह है कि इससे (जेंडर के बारे में सीखने से) मुझे बदले में क्या मिलेगा, क्योंकि एक चीज़ जिससे हम सभी जूझते हैं कि पुरुषों को अपने विशेषाधिकार छोड़ने होंगे। अगर मैं अपने सभी विशेषाधिकार छोड़ दूं, जिनका फायदा मैं वर्षों से उठाता आ रहा हूं, तो मुझे बदले में क्या मिलेगा? वे कौन से व्यक्तिगत लाभ होंगे जो मुझे मिलेंगे?’ मुम्बई स्थित मेन अगेंस्ट वायलेंस एंड एब्यूज़ (मावा) के सचिव और मुख्य कर्ताधर्ता हरीश सदानी कहते हैं।

सेंटर फॉर हेल्थ एंड सोशल जस्टिस (सीएचएसजे) के प्रबंध संरक्षक अभिजीत दास, जिन्हें मर्दानगी के क्षेत्र में बीते तीन दशकों में सार्वजनिक स्वास्थ्य के ज़रिए हुए हस्तक्षेपों का अनुभव है, तर्क देते हैं कि मर्दानगी की पैरवी करने वालों के लिए  ‘लैंगिक समानता’ इकलौता लक्ष्य नहीं हो सकता। पहला, वे इस ओर ध्यान दिलाते हैं कि अधिकांश बार महिलाओं के साथ किये जाने वाले कार्यक्रमों में अक्सर सिर्फ उनके हाशियाकरण या उनकी उपेक्षा पर ध्यान दिया जाता है, इसके मुकाबले पुरुषों के साथ काम करने के दौरान हमेशा यह समझा जाता है कि वे अपने विशेषाधिकारों के साथ आएंगे। मर्दानगी पर विकास क्षेत्र के द्वारा किए जाने वाले काम विशुद्ध रूप से गरीबी-आधारित कार्यक्रम मालूम पड़ते हैं जो कि ग्रामीण इलाके और/अथवा वंचित जाति/वर्ग से आने वाले पुरुषों से जुड़ा है। ऐसे में इन पुरुषों के पास जेंडर संबंधी विशेषाधिकार तो हैं लेकिन दूसरी ओर ये रोज़ाना जाति और/अथवा वर्ग के कारण दमन का शिकार होते हैं (वैसे, यह स्थिति तब अलग होती जब विकास क्षेत्र के यह कार्यक्रम सवर्ण, उच्च-वर्गीय सिस-विषमलैंगिक पुरुषों के साथ चल रहे होते हैं, हालांकि तब इसकी अपनी चुनौतियां होती हैं)। इस तरह से विशेषाधिकार के साथ हमेशा अधीनता की भावना मौजूद रहती है। वे कहते हैं कि, ‘महज़ मर्दानगी ही नहीं बल्कि किसी भी तरह की समानता पर किए जा रहे काम के दौरान आपको विशेषाधिकार को समझना ज़रूरी है क्योंकि समानता किसी भी अधीन समूह का इकलौता हित नहीं हो सकती। ऐतिहासिक रूप से भी अधीन सामाजिक समूहों ने ही समानता की मांग की है। लेकिन जब समानता महज़ अधीन समूह की ही सामाजिक आकांक्षा होगी तो फिर असल में समानता कहां है?’

पर, जब लड़कों से विशुद्ध रूप से यह उम्मीद की जाएगी कि वे सत्ता छोड़ दें, तो…

लड़के इस प्रक्रिया में शामिल ही क्यों होंगें?

जैसा कि मानक कहते हैं कि, ‘पितृसत्तात्मक मर्दानगी के हिसाब से काम करने के एवज़ में एक तरह से असली फायदे मिलते हैं… मैं कैसे जाकर लड़कों से यह कहूं कि भाई अपने को इस तरह के दबाव में मत रखो (और जो फायदे मिल रहे हैं उसे लेने से बचो)?’ जेंडर लैब के सह-संस्थापक अक्षत सिंघल कहते हैं कि, ‘बतौर मर्द हमारे लिए यह बहुत आसान और आरामदेह है कि वर्तमान में मौजूद ढांचों के साथ जुड़े रहें। यह हमारे लिए बेहद आसान है कि बगैर सवाल पूछे चुपचाप सब करते रहें क्योंकि इससे कोई समस्या नहीं आएगी। क्योंकि ज्यों ही मैं लड़कों के सामने उनकी ताकत और विशेषाधिकार पर सवाल उठाउंगा तब उन्हें खुद पर काम करना पड़ेगा और उसकी अलग कीमत होगी। खुद पर काम करना इतना आसान नहीं होता। उन्हें एक स्तर पर आने के बाद वह सब कुछ छोड़ना पड़ेगा जो उन्हें विरासत में मिल रहा था।’

लेकिन क्या वर्तमान में मौजूद ढांचा लड़कों और मर्दों के लिए सुचारु रूप से काम कर रहा है? हरीश अपने स्कूल के दिनों को याद करते हुए बताते हैं कि, ‘मैं उस वक्त अकेला और तनावग्रस्त रहा करता था’ क्योंकि मुझे ‘नाज़ुक और लड़कियों के जैसा’ होने की वजह से छेड़ा जाता और ताने मारे जाते थे। नियम कायदों से हटकर जीने वाले मर्दों (सिस-विषम हों या नहीं) का अपना अकेलापन है और अति-मर्दवादी पुरुषों का अपना अकेलापन है जिसकी वजह से वे कभी सार्थक रिश्ते नहीं बना पाते हैं। जहां एक ओर नारीवादी पैरवी महिलाओं को सामूहिकता, दोस्ती, और एकजुटता का भाव मुहैया कराती है वहीं, दूसरी ओर इस देश के युवा मर्दों को यह सिर्फ़ और सिर्फ़ अकेलापन ही दे पाती है। यह बात न सिर्फ़ हमें साक्षात्कार देने वाले प्रशिक्षकों के अनुसार सही है, बल्कि युवा संस्था द्वारा 50 भारतीय शहरों के लगभग 100 कॉलेजों में किए गए सर्वेक्षण से भी यही बात सामने निकलकर आती है। (यह अध्ययन 2022 में मुम्बई स्थित रोहिणी निलेकनी, लोकोपकार – फिलैन्थ्रपिस की संस्था द्वारा आयोजित ‘बिल्ड टुगेदर: जेंडर एंड मैस्क्युलिनिटीज़ सम्मेलन’ में युवा द्वारा प्रस्तुत किया गया था।)

युवा संस्था के मुख्य कार्यकारी अधिकारी और संस्थापक निखिल तनेजा कहते हैं कि, ‘ऐसा क्यों है कि अधिकतर लड़कों द्वारा लड़कियों के प्रति दर्शाया जाने वाला इकलौता भाव प्रेम ही है? क्योंकि यही वह भाव है जिसे दर्शाने की उन्हें अनुमति है। वे हमेशा प्रेम और दिल टूटने की ही बात करते हैं क्योंकि उदासी जताने का यही एकमात्र रास्ता उन्हें दिखाई पड़ता है।’ दिल टूटना एक आम बहाना है जिसके ज़रिये मर्द संगठित हो सकते हैं।

ऑस्ट्रेलियाई समाजशास्त्री आरडब्ल्यू कॉनेल के मर्दवाद के सिद्धांत से प्रभावित होकर मानक, इस काम के सैद्धांतिक आधार की व्याख्या करते हैं और कहते हैं कि, ‘मर्दानगी को आमतौर पर सत्ता तक पहुंच या सत्ता की धुरी समझा जाता है जबकि असल में वह सत्ता की अपेक्षा है। आपसे यह अपेक्षा की जाती है कि आप हमेशा ताकतवर रहें जबकि मर्दानगी का अनुभव बताता है कि असल में ऐसा है नहीं!’

मर्दों के सत्ता के उनके अनुभव और सत्ता की अपेक्षाओं में ज़मीन-आसमान का फ़र्क है। मर्दों के विभिन्न समूह इस फ़र्क को अलग-अलग तरीके से अनुभव करते हैं जो कि इस बात से तय होता है कि ब्राह्मणवादी पितृसत्ता की सीढ़ी में उनका स्थान कहां है और यही वह वजह है जिससे भिन्न-भिन्न किस्म की मर्दानगियों का उदय होता है। यानी मर्दानगी का संकट शायद तब सामने आता है जब पितृसत्ता सता के अपने वादे से मुकर जाती है।

प्रशिक्षक, जेंडर और मर्दानगी पर बातचीत की कई भिन्न-भिन्न तरीकों से शुरुआत करते हैं, जैसे- यौनिक एवं प्रजनन स्वास्थ्य, यौनिकता, रोमांस, और कई मामलों में मर्दानगी के प्रचलित विचार से ही। मानक, के एक सत्र में बातचीत इस सवाल से शुरू होती है कि ‘आप कूल होने से क्या समझते हैं और क्या आप खुद को एक कूल इंसान मानते हैं?’ बिना जेंडर और मर्दानगी का ज़िक्र किए यह सवाल मर्दानगी के प्रति असुरक्षाओं की ओर स्वतः ही ध्यान ले जाता है। मानक इसे ‘आत्म-छवि की खोज’ का नाम देते हैं- जिसमें बाहर की ओर देखने से पहले खुद के अंदर झांकने से शुरुआत होती है।

‘मर्दों वाली बात’ नामक अपने कार्यक्रम पर आई प्रतिक्रिया के बारे में वे बताते हैं कि, ‘जो पहला पोस्टर हमने एक कॉलेज में लगाया उसपर सुपरमैन की फोटो के साथ ‘मर्दानगी क्या होती है’ लिखकर एक प्रश्नवाचक चिन्ह लगा दिया और उस कार्यक्रम में ऐसे बहुत सारे लड़के आए क्योंकि उन्हें इस सवाल का जवाब चाहिए था! उनका मानना था कि  हां, हम जानना चाहते हैं कि मर्दानगी क्या होती है ताकि हम इसे ढंग से निभा पाएं।’

शिक्षा और मनोरंजन दोनों ही क्षेत्रों में काम करने का अनुभव लिए हुए निखिल यह बात जानते हैं कि हास्य एक ऐसा माध्यम है जिससे लोगों को निहत्था करने में आसानी होती है। ‘मैं एक कहानी से बात शुरू करता हूं और उन्हें बातचीत में शामिल करता हूं ताकि वे यह न समझें कि, यह इंसान सिर्फ़ हमें उपदेश देने, पकाने और यहां तक कि चुनौती देने के लिए आया है।’ जितनी जल्दी वे बातचीत में शामिल हो जाते हैं तब वह अपनी एक सधी हुई असुरक्षा उनके सामने रखते हैं, जैसे कि पैनिक अटैक की कोई घटना। निखिल के अनुसार, अगर आप चाहते हैं कि लड़के आपसे खुलें तो आपको उन्हें इतना सम्मान देना होगा ताकि वो आपके सामने अपनी असुरक्षा को ज़ाहिर कर सकें। ‘मेरा विश्वास है कि कहानियां हमें सिर्फ़ कहानियों की ओर ले जाती हैं और असुरक्षा हमें असुरक्षा की ओर।’

साल 2021 में डॉ केतकी चौखानी ने मुम्बई में मध्य-वर्गीय और उच्च-वर्गीय विषमलैंगिक लड़कों के साथ एक शोध अध्ययन किया जिसमें उनसे उनकी किशोरावस्था के रोमांस के अनुभवों के बारे में पूछा गया और यह भी पूछा गया कि इसके बारे में उनकी जानकारी के स्रोत क्या हैं। उनके अध्ययन में एक बात उभर कर आई कि अनिश्चितता, यानी परिभाषा की अनुपलब्धता, और रोमांस में ‘विफलता’ किशोरों के लिए बेहद आम अनुभव हैं और यह घटनाएं बहुत कम ही हिंसा का रूप ले पाती हैं, चाहे रिश्ता कितना ही संजीदा क्यों न रहा हो।

‘इससे हिंसक मर्द का समूचा विचार ही पूरी तरह से बदल गया। मैंने यह महसूस किया कि उनके भीतर ढेर सारा डर और ढेर सारा ख्याल रखने का भाव मौजूद था। हमारा शुरुआती बिंदु आमतौर पर हिंसा होता है लेकिन क्या हो अगर हम यह बिंदु असुरक्षा रखें? अगर हम अनिश्चितता, विफलता, असुरक्षा, और झिझक को हिंसा से बदल दें तो लैंगिक संबंधों का क्या होगा?’ इस शोध के दौरान डॉ केतकी ने यह भी अनुभव किया कि शोध की जगह, धीरे-धीरे ‘थेरेपी’ का रूप ले रही थी। ‘उन्हें लगता था कि मैं एक मनोवैज्ञानिक हूं और वे इस पूरी प्रक्रिया को ‘थेरेपी की प्रक्रिया’ की ही तरह देखते थे।’ इस प्रक्रिया ने उन्हें अपनी किशोरावस्था के दौरान मिली रोमांटिक विफलताओं और अस्वीकार होने के बारे में बोलने में मदद की, जिन्हें अक्सर मर्दानगी की प्रचलित छवियों और समझदारी के अंतर्गत नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है।

और इस तरह प्रशिक्षकों ने पहले आए संकट का जवाब दिया। इस तरह से उन्हें लड़कों को बातचीत के स्तर पर लाने में मदद मिली। उन्होंने लड़कों को इस बात के प्रति आश्वस्त भी किया कि लड़कों की कहानियां उसी तरह सुनी जाएंगी जैसे एक पैडगॉजी वाली जगहों पर सुनी जानी चाहिए और किसी भी तरह से उन्हें पूर्वाग्रह से नहीं देखा जाएगा। लेकिन इससे एक अन्य गहरा संकट उभर कर सामने आया।

(लेख में दी गई महत्त्वपूर्ण जानकारी के लिए निरंतर ट्रस्ट के लर्निंग रिसोर्स सेंटर का आभार)

इस लेख का हिंदी अनुवाद अभिषेक श्रीवास्‍तव ने किया है।

यह आलेख मूलरूप से दथर्डआई पर प्रकाशित हुआ है जिसे आप यहां पढ़ सकते हैं।

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आकांक्षी जिलों को सीएसआर फंड का एक सीमित हिस्सा ही मिलता है

जनवरी 2018 में, भारत सरकार ने ‘आकांक्षी जिला परिवर्तन’ नाम से एक पहल की शुरुआत की। न्यू इंडिया बाय 2022 के दृष्टिकोण के साथ, इसके केंद्र में मानव विकास सूचकांक (एचडीआई) के तहत भारत की रैंकिंग में सुधार करना, अपने नागरिकों के जीवन स्तर को ऊपर उठाना और सभी के लिए समावेशी विकास सुनिश्चित करना था। आकांक्षी जिला कार्यक्रम के तहत हमारे देश के सात सौ से अधिक जिलों में सबसे कम विकसित जिलों की पहचान की गई।
यह कार्यक्रम हमारे विकास पिरामिड के निचले स्तर पर स्थित इन 115 जिलों की प्रगति में तेजी लाने के लिए विशेष ध्यान देने के साथ आवश्यक सहायता भी प्रदान करता है।

नोट: पश्चिम बंगाल के जिलों ने इस कार्यक्रम में भाग ना लेने का फैसला किया है। वर्तमान में, केवल 112 जिले ही एडीपी के हिस्सा हैं। हालांकि, हमारे विश्लेषण में हम उन सभी 115 जिलों में होने वाले सीएसआर फंड के खर्च को शामिल करते हैं जिनकी पहचान साल 2018 में एडीपी के लॉन्च के समय की गई थी।

आकांक्षी जिलों का परिवर्तन_सीएसआर

नीति आयोग ने स्वास्थ्य और पोषण, शिक्षा, कृषि और जल संसाधन, वित्तीय समावेशन और कौशल विकास और बुनियादी ढांचे के समग्र संकेतकों के आधार पर 28 राज्यों में 115 जिलों की पहचान की, जिनका एचडीआई पर प्रभाव पड़ता है। एडीपी के लागू होने के पांच सालों में, समग्र कंपोज़िट स्कोर में 72 फीसद से अधिक का सुधार देखा गया है। सबसे अधिक बदलाव शिक्षा, कृषि एवं जल संसाधन तथा स्वास्थ्य सेवा के क्षेत्र में हुआ है।

5 वर्षों में औसत स्कोर परिवर्तन_सीएसआर

एडीपी की व्यापक रूपरेखा झुकाव (केंद्रीय एवं राज्य योजनाओं का), सहयोग (केंद्र, राज्य स्तर के अधिकारियों एवं जिला कलेक्टरों का) और जन आंदोलन की भावना से प्रेरित जिलों के बीच प्रतिस्पर्धा है। एडीपी में जिलों को पहले अपने राज्य (सीमांत जिलों) के भीतर सर्वश्रेष्ठ जिलों में से एक बनने के लिए प्रेरित और प्रोत्साहित किया जाता है। इसके बाद, उनमें प्रतिस्पर्धी और सहकारी संघवाद की भावना में दूसरों के साथ प्रतिस्पर्धा करके और उनसे सीखकर देश में सर्वश्रेष्ठ में से एक बनने की इच्छा पैदा की जाती है। अगस्त 2023 तक, उत्तर-पूर्वी राज्यों में आकांक्षी जिलों (एडी) और बिहार, झारखंड और छत्तीसगढ़ राज्यों में बड़ी संख्या में एडी का समग्र समग्र स्कोर 50 या इससे कम था। वे अब सीमांत जिलों के साथ दूरी कम करने की दिशा में काम कर रहे हैं। इन राज्यों में एडी की हिस्सेदारी भी अधिक है।

सीमा से राज्यवार दूरी_सीएसआर

सरकार द्वारा एडी में सीएसआर निवेश की हिमायत करने के बावजूद, 2014-22 के दौरान कुल सीएसआर का केवल 2.15%* इन जिलों में निवेश किया गया है, जहां भारत की 15 फ़ीसद से अधिक आबादी रहती है। वित्तीय वर्ष 2021-22 में, एडी ज़िलों में किए गये सीएसआर खर्च में पिछले वर्ष कि तुलना में 50 फीसद से अधिक की वृद्धि देखी गई।

आकांक्षी जिलों में सीएसआर खर्च_सीएसआर

कुल सीएसआर फंड का आधे से अधिक हिस्सा (53%) इन पांच राज्यों – मध्य प्रदेश (448 करोड़), आंध्र प्रदेश (387 करोड़), झारखंड (328 करोड़), छत्तीसगढ़ (301 करोड़) और गुजरात (291 करोड़) में एडी पर खर्च किया जाता है।

आकांक्षी जिलों में सीएसआर खर्च_सीएसआर

साथ ही, एडी में खर्च हुए कुल सीएसआर फंड का तीन चौथाई हिस्सा (78%) इन चार टॉप सेक्टर्स (शिक्षा, स्वास्थ्य, ग्रामीण विकास, और पर्यावरण स्थिरता) में किया गया है। कोविड-19 वाले वर्षों के दौरान, शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में होने वाला सीएसआर खर्च 70 फ़ीसद से अधिक था। 2020-21 और 2021-22 के बीच पर्यावरण स्थिरता परियोजनाओं में सीएसआर खर्च में पांच गुना वृद्धि देखी गई।

शीर्ष प्राप्तियां क्षेत्र_सीएसआर

जनवरी 2023 में, एडीपी के शुरुआत के पांच साल बाद, भारत सरकार ने ‘आकांक्षी प्रखंड कार्यक्रम (एबीपी)’ की शुरुआत की। यह कार्यक्रम, भारत के सबसे कठिन और अविकसित प्रखण्डों (ब्लॉक) में नागरिकों के जीवन की गुणवत्ता में सुधार लाने पर केंद्रित है। भारत के 27 राज्यों और 4 केंद्र शासित प्रदेशों के 500 ब्लॉक की पहचान स्वास्थ्य और पोषण, शिक्षा, कृषि और संबद्ध सेवाओं, पेयजल और स्वच्छता, वित्तीय समावेशन, मूलभूत सुविधाओं, और समग्र सामाजिक विकास जैसे प्रमुख क्षेत्रों के तहत वर्गीकृत प्रमुख सामाजिक-आर्थिक संकेतकों की निगरानी करके आकांक्षी ब्लॉकों में बदलाव लाने के लिए की गई थी। एबीपी की शुरुआत के साथ, भारत में 45 फ़ीसद से अधिक जिले (~350 जिले) अब या तो एडीपी और/या एबीपी के जिले का हिस्सा हैं।

एडीपी और एबीपी के तहत कवर किया गया जिला_सीएसआर

पिछले पांच वर्षों में 115 एडी जिलों में विभिन्न विषयगत क्षेत्रों में किस प्रकार के परिवर्तन हुए हैं? किन जिलों में सभी विषयगत क्षेत्रों में लगातार सुधार देखे जा रहे हैं? उन्हें कितनी मात्रा में सीएसआर फंडिग प्राप्त हुई? इन एडी ज़िलों में किन कंपनियों का निवेश है? हम अपने पिरामिड के निचले स्तर पर निवेश को कैसे मजबूत करें और इन जिलों को उनके परिवर्तन लक्ष्यों तक पहुंचने में कैसे मदद करें? क्या कुल सीएसआर निवेश का 2 फ़ीसद आवंटन आकांक्षी जिलों के परिवर्तन को सुविधाजनक बनाने के लिए पर्याप्त है?

एडीपी और एबीपी तथा एडी एवं एबीपी के जिलों में खर्च होने वाले सीएसआर के बारे में विस्तार से जानने के लिए एस्पिरेशनल डिस्ट्रिक्ट्स पर हमारे डाटा संपत्ति पर एक नज़र डालें।

*एमसीए सीएसआर पोर्टल पर उपलब्ध जिलों के प्रत्यक्ष श्रेय के अनुसार – सीएसआर का एक बड़ा हिस्सा किसी विशेष जिले को आवंटित नहीं किया जाता है।

यह लेख मूल रूप से इंडिया डेटा इनसाइट्स पर प्रकाशित हुआ था।

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चित्र साभार: मीत ककाड़िया

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क्या आप भी बजट समझने से पहले ही उसकी शब्दावली में उलझ जाते हैं?

सरकार हर साल बजट पेश करती है। बजट से हमें मालूम चलता है कि सरकार की आमदनी कहां से होती है और वह उसे कहां और कैसे खर्च करती है। अगर आप विकास सेक्टर से जुड़े हैं तो आपको बजट से सरकार की प्राथमिकताओं का पता चलता है। आप यह जान पाते हैं कि आपके काम से जुड़े क्षेत्र जैसे कृषि, शिक्षा, स्वास्थ्य और पोषण, ग्रामीण विकास और पंचायती राज, आजीविका वग़ैरह को लेकर सरकार कहां और किस तरह से खर्च करने जा रही है।

बजट के दौरान आपको कुछ ऐसे शब्द अक्सर सुनने को मिलते हैं जिन्हें आम बोलचाल की भाषा में कम ही इस्तेमाल किया जाता है लेकिन वे बहुत महत्वपूर्ण होते हैं। यहां पर हम आपके साथ बजट से जुड़ी ऐसी ही कठिन शब्दावली पर बात करने जा रहे हैं और आसान भाषा में उसे समझने की कोशिश कर रहे हैं। यह शब्दावली आपको न केवल केंद्रीय बजट में देखने को मिलती है बल्कि आपके राज्य बजट में भी इनमें से ज़्यादातर का उपयोग किया जाता है।

वार्षिक वित्तीय विवरण (एनुअल फाइनेंशियल स्टेटमेंट)

संविधान में ‘बजट’ शब्द का जिक्र नहीं किया गया है। इसे आम बोलचाल की भाषा में ही बजट कहा जाता है और संविधान के आर्टिकल-112 में इसे वार्षिक वित्तीय विवरण (एनुअल फाइनेंशियल स्टेटमेंट) कहा गया है। इस विवरण में भारत सरकार के वित्त मंत्री, वित्तीय वर्ष यानी 1 अप्रैल से 31 मार्च के दौरान अनुमानित प्राप्तियों और व्यय की जानकारी संसद में प्रस्तुत करते हैं। इतने समय में, कौन सी योजनाएं काम करेंगी? किस क्षेत्र के लिए कितने बजट का प्रावधान रखा गया है, इस सब का लेखा-जोखा बजट में देखने को मिलता है।

आम बजट और अंतरिम बजट (इंटिरिम बजट)

वास्तविक खर्च (एक्चुअल एक्सपेंडिचर) 

जब एक पूरा वित्तीय वर्ष गुज़र जाता है तो सरकार को यह पता चलता है कि अभी तक उसका वास्तविक खर्च कितना हुआ है। इसका ऑडिट भारत के नियंत्रक महालेखाकार (कंट्रोलर एंड ऑडिटर जनरल ऑफ इंडिया – सीएजी) द्वारा किया जाता है। इस तरह, आगामी बजट में आपको पिछले वित्तीय वर्ष का वास्तविक व्यय मिल जाता है।

बजट खाते का फ़्लोचार्ट_बजट शब्दावली
बजट खाते का फ़्लोचार्ट। | चित्र साभार: सीपीआर 

संशोधित अनुमान (रिवाइज्ड एस्टीमेट)

सरकार द्वारा चालू वित्तीय वर्ष के मध्य में समीक्षा की जाती है। इससे सरकार को यह मालूम चलता है कि चल रहे वित्त वर्ष में, आधा समय बीत जाने (सितम्बर/अक्टूबर) तक कितना बजट खर्च हो चुका है और बाकी वित्तीय वर्ष में कितना खर्च होने का अनुमान है। इसे ही संशोधित अनुमान कहते हैं। संशोधित अनुमानों में संसद की मंजूरी तभी ली जाती है जब सरकार को अतिरिक्त पैसों की जरूरत होती है। इसके लिए सरकार संसद में ‘पूरक बजट’ प्रस्तुत करती है। आगामी बजट में आप चालू वित्त वर्ष यानी 2023-24 का संशोधित अनुमान देख पायेंगे।

अनुमानित बजट (बजट एस्टीमेट) 

सरकार द्वारा हर साल अगले वित्त वर्ष में होने वाले खर्च और राजस्व का अनुमानित ब्यौरा पेश किया जाता है। साधारण शब्दों में, यह अगले वित्त वर्ष के लिए सरकार की वित्तीय योजना की जानकारी होती है। 

राजस्व प्राप्तियां (रेवेन्यू रिसिप्ट्स) 

यह सरकार की सबसे बड़ी आय होती है। सरकार के इस खाते में, विभिन्न प्रकार के करों से प्राप्त आय को शामिल किया जाता है। जैसे – आयकर, निर्यात शुल्क, वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) और सीमा शुल्क इत्यादि। इसके साथ-साथ गैर-कर राजस्व भी सरकार के पास होते हैं। इसमें मुख्य रूप से लाभांश, बाहरी अनुदान, ब्याज प्राप्ति इत्यादि। इनसे न तो सरकार की देनदारी उत्पन्न होती है और न ही उसकी परिसंपत्तियों में कमी आती है। 

पूंजीगत प्राप्तियां (कैपिटल रिसिप्टस)

पूंजीगत प्राप्तियां वे प्राप्तियां हैं जो या तो देनदारियां बनाती हैं या सरकार की संपत्ति के मूल्य को कम करती हैं। इसमें सरकार द्वारा बाजार से लिए गए ऋण, भारतीय रिजर्व बैंक से ली गई उधारी और विनिवेश के जरिए प्राप्त आमदनी को शामिल किया जाता है।

राजस्व व्यय (रेवेन्यू एक्सपेंडिचर)

सरकार के वह व्यय जिससे अचल सम्पति का निर्माण नहीं होता हो, वह राजस्व व्यय कहलाते हैं। सरकार विभिन्न लेखांकन मदों के तहत पैसा खर्च करती है। उदाहरण के तौर पर ऋण पर ब्याज का भुगतान, वेतन, पेंशन, विभिन्न मंत्रालयों/विभागों/योजनाओं पर व्यय एवं सब्सिडी इत्यादि।

पूंजीगत खर्च (कैपिटल एक्सपेंडिचर)

पूंजीगत खर्च, वह खर्च होता है जिसमें सरकार आने वाले लंबे समय के लिए आधारभूत संरचनाओं (इंफ़्रास्ट्रक्चर) के निर्माण या अधिग्रहण पर खर्च करती है। इनमें मुख्यरूप से एयरपोर्ट, हाई-वे, फ्लाईओवर, जमीन, मशीनें, इमारतें वग़ैरह आते हैं। इसके अलावा, यदि सरकार ऋण वापस चुकाती है तो वह भी पूंजीगत खर्च में ही आता है क्यूंकि इससे सरकार की भविष्य की देनदारियां कम हो जाती है।

सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी)

जीडीपी, किसी भी देश की आर्थिक सेहत को मापने का सबसे ज़रूरी पैमाना है। इससे पता चलता है कि देश की अर्थव्यवस्था का प्रदर्शन कैसा रहा है। जीडीपी किसी ख़ास अवधि के दौरान वस्तु और सेवाओं के उत्पादन की कुल क़ीमत है। भारत में जीडीपी की गणना हर तीसरे महीने यानी तिमाही आधार पर होती है। भारत में कृषि, उद्योग और सेवा, तीन प्रमुख घटक हैं जिनमें उत्पादन बढ़ने या घटने के औसत के आधार पर जीडीपी दर तय होती है। आसान शब्दों में समझें तो अगर जीडीपी का आंकड़ा बढ़ा है तो आर्थिक विकास दर बढ़ी है। अगर किसी तिमाही में यह पिछले तिमाही के मुक़ाबले कम है तो देश की आर्थिक स्थिति में गिरावट का रुख है।

बजटीय घाटे (बजट डेफिसिट)

बजटीय घाटा सरकार के राजस्व और पूंजी खाते दोनों में सभी प्राप्तियों और खर्चों के बीच का अंतर है। बजटीय घाटा आमतौर पर जीडीपी के प्रतिशत के रूप में व्यक्त किया जाता है। इसमें ज्यादातर 2 तरह के घाटे होते हैं –

1) राजकोषीय घाटा (फिस्कल डेफिसिट)

यह देश के कुल व्यय और कुल आय के बीच का अंतर है, जब व्यय आय से अधिक होता है तो इसे राजकोषीय घाटा कहा जाता है। ऐसे में सरकार को शेष राशि को उधार से पूरा करना पड़ता है। इसे आमतौर पर सकल घरेलू उत्पाद के अनुपात के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। साल 2003 में, सरकार ने राजकोषीय उत्तरदायित्व और बजट प्रबंधन अधिनियम को अपनाया था जिसके तहत अन्य बातों के अलावा सरकार को अपने राजकोषीय घाटे को सकल घरेलू उत्पाद के 3% तक कम करना लक्षित है। हालांकि इस लक्ष्य को प्राप्त करने की प्रारंभिक समय सीमा 2007-08 थी लेकिन पिछले कुछ वर्षों में कई बार बढ़ाया गया है।

2) राजस्व घाटा (रेवेन्यू डेफिसिट)

अगर सरकार की राजस्व आय (नियमित कर, शुल्क एवं ब्याज) राजस्व व्यय (वेतन, पेंशन, कार्यालय प्रबंधन एवं सब्सिडी) की तुलना में ज्यादा हो तो इसे राजस्व बढ़त कहा जाता है। इसी तरह राजस्व व्यय, राजस्व आय की तुलना में अधिक होने पर राजस्व घाटा कहलाता है।

सरकार की समेकित निधि (कंसोलिडेटेड फंड्स)

भारत में सरकार के सभी खातों के लिए समेकित निधि बहुत महत्वपूर्ण होती है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 266 के तहत स्थापित यह ऐसी निधि है, जिसमें समस्त एकत्रित कर/राजस्व जमा, लिये गये ऋण जमा किये जाते हैं। यह भारत की सर्वाधिक बड़ी निधि है जो कि संसद के अधीन रखी गयी है। इस निधि में से कोई भी राशि बिना संसद की पूर्व स्वीकृति के बग़ैर निकाली/जमा नहीं की जा सकती है।

लोक लेखा (पब्लिक अकाउंट)

इस खाते का गठन संविधान के अनुच्छेद 266 (2) के तहत किया गया है। इसका संबंध उस ख़ास तरह के लेनदेन के प्रवाह से है, जहां सरकार केवल एक बैंकर के रूप में कार्य करती है क्योंकि इसमें जमा धनराशि सरकार की नहीं बल्कि नागरिकों की होती है। सरकार को निर्धारित समय के बाद यह पैसा अपने मूल मालिकों को वापस भुगतान करना होता है। उदाहरण के तौर पर इसमें प्रोविडेंट फंड्स, स्मॉल सेविंग्स, फंड डिपॉजिट इत्यादि होते हैं।

आकस्मिकता निधि (कॉन्टिजेंसी फंड)

इस कोष का निर्माण इसलिए किया जाता है, ताकि जरूरत पड़ने पर आकस्मिक खर्चों के लिए संसद की स्वीकृति के बिना भी राशि निकाली जा सके और खर्चा किया जा सके। ऐसी स्थितियों में बाढ़, भूकंप, राष्ट्रीय सुरक्षा जैसे विषय आते हैं। राष्ट्रपति की अनुमति से आकस्मिक कोष से धन प्राप्त किया जा सकता है।

इस आलेख को तैयार करने में ताजुद्दीन खान ने सहयोग किया है जो कि सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च संस्था के साथ जुड़े हैं।

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समुदाय अपने प्राकृतिक संसाधनों की रक्षा के लिए सत्याग्रह कैसे करें?

जनचेतना, एक समुदाय आधारित संगठन है जो बीते 12 वर्षों से छत्तीसगढ़ के रायगढ़ ज़िले में, कई गांवों के लोगों को साथ लाकर कोयला सत्याग्रह कर रहा है। इस सत्याग्रह का बीज 5 जनवरी, 2008 को पड़ा जब खमरिया और आसपास के कई अन्य गांवों के लोग रायगढ़ ज़िले में एक सार्वजनिक सुनवाई के लिए इकट्ठा हुए थे। यह सुनवाई जिंदल स्टील के गारे IV/6 माइनिंग प्रोजेक्ट से संबंधित थी जिसे कई पर्यावरण नियमों को अनदेखा करते हुए मंज़ूरी दी गई थी। इसके अलावा, पंचायतों को समय पर सूचित किए बग़ैर ही आनन-फ़ानन में इस सुनवाई का आयोजन कर दिया गया था। ऐसा करना इसलिए अनुचित था क्योंकि तमनार ब्लॉक में आने वाले ये गांव पांचवीं अनुसूची में आते हैं और पंचायत एक्सटेंशन टू द शेड्यूल एरिया एक्ट (पेसा) 1996 के तहत संरक्षित हैं। पेसा क़ानून इस तरह की सुनवाइयों से पहले ग्राम पंचायत को सूचित करना अनिवार्य बनाता है।

स्वाभाविक था कि लोगों ने इस मंज़ूरी का विरोध किया। यह विरोध प्रदर्शन पुलिस के साथ हिंसक झड़प में बदल गया जिसमें कम से कम 50 गांववाले घायल हो गए और कइयों को गिरफ्तार कर लिया गया। आसपास के गांवों तक जब प्रशासन के इस दमन की ख़बर पहुंची तो प्रोजेक्ट के ख़िलाफ़ लोगों की भावनाएं पहले से अधिक मज़बूत हो गईं। अगले दो सालों तक हमने कई सरकारी विभागों, अधिकारियों और मंत्रालयों को शिकायतें लिखकर भेजीं जिसका कोई ख़ास नतीजा नहीं निकल सका।

साल 2008 में हुई हिंसक घटना के बाद, गांववालों ने फ़ैसला किया कि हमारे आंदोलन को अहिंसक रखने की ज़रूरत है। अगर हम शांतिपूर्ण प्रदर्शन के अलावा किसी दूसरे रास्ते को चुनते हैं तो प्रशासन को हमारी नकारात्मक छवि बनाने और आंदोलन को कुचलने का मौक़ा मिल जाएगा। इसलिए हमने महात्मा गांधी के नमक सत्याग्रह वाले रास्ते को चुनकर कोयला सत्याग्रह करने का फ़ैसला किया। इसके लिए 2011 में हमने 2 अक्टूबर यानी गांधी की जन्म-तारीख़ चुनी। उस दिन हम लोगो ने गारे गांव से केलो नदी तक, 1.5 किलोमीटर लंबा प्रदर्शन किया और लगभग तीन टन कोयला खनन किया। इतना ही नहीं, इस कोयले को हमने बोली लगाकर स्थानीय ईंट-भट्ठे और ढाबे वालों को बेचने का काम भी किया। लेकिन, कोयला व्यवसाय स्थापित करना, हमारे कोयला सत्याग्रह का एक पहलू भर है। एक सामुदायिक संगठन के तौर पर हम शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा और भूमि अधिकार से जुड़े मुद्दों पर भी संवाद करते हैं। लोगों तक अपनी बात पहुंचाने के लिए हम मीडिया और सोशल मीडिया माध्यमों की अपनी एक व्यवस्था बना चुके हैं। साल 2023 में हमारे कोयला सत्याग्रह को 12 साल पूरे हो गए हैं। इतने समय में, हमने कई ऐसे सबक़ सीखे हैं जो कॉर्पोरेट हितों का साधने वाली नीतियों का विरोध करने में ग्रामीण भारत के काम आ सकते हैं। हमें यक़ीन है कि ये देश के हर कोने में, उन समुदायों के लिए उपयोगी हैं जो अपने प्राकृतिक संसाधनों को कॉर्पोरेट के शिकंजों से बचाना चाहते हैं। चलिए, जानते हैं कि एक सफल सत्याग्रह के लिए हम लोगों को कैसे तैयार करते हैं। इसके लिए हम उन्हें –

शिक्षित करते हैं

1. लोगों से सीखें और उनकी ज़रूरतों को समझें

किसी आंदोलन का उद्देश्य कितना भी बड़ा हो, लोग तब तक आपके साथ नहीं आएंगे जब तक कि उनके दैनिक जीवन की समस्याओं का हल उन्हें नहीं मिलता है। शुरुआत में हम अपना ध्यान भोजन और पेंशन के अधिकार पर केंद्रित रख रहे थे। एक बैठक के दौरान हमारे एक सदस्य ने पूछा कि ‘हमारे पास ज़मीन नहीं है, हमें खाने और पेंशन से क्या लेना-देना है।’ इसके बाद, हमने भूमि अधिकारों पर गौर करना शुरू किया। हमारे ज़्यादातर सदस्य भूमिहीन आदिवासी थे तो हमने उनके साथ काम करना और उन्हें सामुदायिक वन अधिकार के दावे करने में मदद करना शुरू किया। कोयला खदान के संदर्भ में बात करें तो, ज़मीन गंवाने वाले किसानों को कोल इंडिया, पांच लाख रुपए प्रति एकड़ का मुआवज़ा और एक छोटा प्लॉट देती है लेकिन ऐसा हो नहीं पा रहा था। समुदाय के नेताओं की मदद से हमने ऐसे लोगों की शिकायतें इकट्ठा करनी शुरू की और ज़रूरत पड़ने पर अदालत का दरवाज़ा भी खटखटाया।

सत्याग्रह के दौरान कोयला खनन के लिए जाते लोग_कोयला सत्याग्रह
सत्याग्रह के दौरान कोयला खनन के लिए जाते लोग। | चित्र साभार: राजेश कुमार त्रिपाठी

ऐसा करते हुए हमें समझ आया कि प्रत्येक परिवार की समस्याओं का हल मुआवज़ा नहीं हो सकता है। हमारे गांव में कई विधवा महिलाएं और युवा थे जिन्होंने अपने परिवार के कमाने वाले सदस्यों को खो दिया था। ऐसे में मुआवज़ा उन्हें केवल थोड़े समय के लिए राहत दे सकता था। हालांकि कोल इंडिया ने मुआवज़े की बजाय नौकरी का विकल्प भी रखा था लेकिन आदिवासी जन नौकरी को बहुत महत्व नहीं देते हैं। हमें उन्हें समझाना पड़ा कि पांच लाख नक़द की बजाय 45-50 हज़ार की नौकरी उनके लिए कहीं बेहतर विकल्प है। हम उन्हें नौकरी के लिए आवेदन करने में मदद करते थे। ज़रूरत पड़ने पर निजी ठेकेदारों की मदद से भी उन्हें नौकरी दिलवाते थे। वहीं, भूमिहीन लोगों को लेकर हमने कोल इंडिया से बात की और उन्हें छोटे व्यवसाय या दुकानें शुरू करने में मदद करवाई। लोगों से स्थाई जुड़ाव बनाने के लिए उनकी ज़रूरतों को समझना बहुत महत्वपूर्ण होता है और इसके लिए नई तरह के समाधानों को खोजने की ज़रूरत पड़ सकती है।

2. लोगों तक जानकारी पहुंचाएं

पढ़ाई-लिखाई से इतर, आज का युवा तकनीक, जैसे स्मार्टफ़ोन का इस्तेमाल करने में सक्षम है। हमने इसे एक मौक़े की तरह देखा और अपना एक मीडिया इकोसिस्टम तैयार किया। शुरूआत में हमारे साथ यह हो चुका था कि हम मुख्यधारा के मीडिया को कोई ख़बर देते थे लेकिन वे कुछ और ही छाप देते थे। अगर हमने बताया है कि ‘दो सौ लोग खनन के विरोध में प्रदर्शन करने पहुंचे’ तो ख़बर आई कि ‘दो सौ लोग खनन के समर्थन में प्रदर्शन करने पहुंचे’। इससे निपटने के लिए हमने अपने लोगों को बतौर पत्रकार तैयार करने का सोचा और इसके लिए वीडियो वॉलंटीयर संगठन की मदद ली। शुरुआत में हमने चार लोगों – दो लड़के और दो लड़कियों – को प्रशिक्षण हासिल करने के लिए भेजा जहां उन्होंने कहानियां पहचानना, वीडियो शूट करना और प्रभावी तरीक़े से बात रखने के तरीक़े सीखे।

प्रशिक्षण के बाद, दो-तीन महीने का समय लगाकर उन्होंने खनन क्षेत्र की चुनौतियों जैसे सड़क और स्वास्थ्य सेवाओं वग़ैरह पर काम किया और दो-तीन मिनट लंबी कई डॉक्युमेंट्री फिल्में बनाईं। इन फ़िल्मों को हम सभी सोशल मीडिया चैनल्स जैसे इंस्टाग्राम, फ़ेसबुक, व्हाट्सएप और ट्विटर पर लगाते हैं ताकि लोगों तक जानकारी पहुंच सके और वे इनसे प्रेरणा ले सकें। हम लोकल अख़बारों और डिजिटल मीडिया मंचों को भी ये वीडियो भेजते हैं। अगर वे इनसे जुड़ा कुछ प्रकाशित करते हैं तो हमें न्यूज़पेपर की कटिंग या तस्वीरें भेजते हैं जिससे समुदाय के सदस्यों का हौसला बढ़ता है।

संगठित करते हैं

1. ग्राम सभा का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करें

अगर आप एक आदिवासी इलाके में काम कर रहे हैं तो आपको सबसे पहले यह जानना चाहिए कि पेसा एक्ट ग्राम सभा को अनुसूचित क्षेत्रों में स्व-शासन की ताक़त देता है। यह प्राकृतिक संसाधनों पर आदिवासियों के अधिकार को मान्यता देने के साथ उन्हें किसी विकास परियोजना को अस्वीकृत करने का अधिकार देता है। इस तरह, ग्राम सभा वह मंच बन जाती है जहां पर समुदाय अपने विचार रख सकते हैं और बदलाव ला सकते हैं।

अपने क्षेत्रीय नेतृत्व को मज़बूत कर आप समुदाय की आवाज़ को अधिक बुलंद बना सकते हैं।

यह जान-समझकर हमने गांव-गांव जाकर महिला नेताओं को प्रशिक्षित किया और उन्हें पंचायत चुनावों में हिस्सा लेने के लिए प्रोत्साहित किया। इस समय, हमारे साथ काम करने वाली 15-16 महिलाएं और आदिवासी जनपद पंचायत का हिस्सा हैं जो ग्राम और जिला पंचायत के बीच कड़ी का काम करते हैं। वे डिस्ट्रिक्ट मिनरल फ़ाउंडेशन और कॉर्पोरेट सोशल रिस्पॉन्सिबिलिटी के धन का उचित उपयोग करने से जुड़ी मांग करने में मदद करते हैं। उन्होंने सार्वजनिक वितरण प्रणाली में होने वाले गड़बड़ियों को 77 से 2 प्रतिशत तक पहुंचाने में भी मदद की है। इस तरह, क्षेत्रीय नेतृत्व को मज़बूत कर आप उनकी आवाज़ को अधिक बुलंद बना सकते हैं।

2. विकास के विकल्प सुझाएं

साल 2011 में, जब हमने प्रशासन को यह दिखा दिया कि हम ख़ुद कोयला खनन और बिक्री कर सकते हैं तो उनका कहना था कि हमारा ऐसा करना एक ग़ैरक़ानूनी गतिविधि है और केवल रजिस्टर्ड कंपनियां ही खनन कर सकती है। हमने इससे जुड़े कई सवाल-जवाब उनसे किए। इससे हमें पता चला कि जब सरकार हमारी ज़मीन लेकर प्राइवेट कंपनियों को दे देती है तो वे उसे गिरवी रखकर बैंक से क़र्ज़ लेते हैं और कोयला खदान शुरू करते हैं। हमने उनसे कहा अगर आप उन्हें 40 लाख दे सकते हैं तो हमें केवल 10 लाख रुपए दीजिए, हम आपको दिखाएंगे कि इसे कैसे किया जाता है।

इस तरह, साल 2013 में गारे ताप उपक्रम प्रोड्यूसर कंपनी लिमिटेड एक फॉर्मर प्रोड्यूसर कंपनी के तौर पर रजिस्टर हुई। हमने लोगों से पैसा इकट्ठा किया और एक एकड़ ज़मीन पर एक साल तक कोयला खनन किया ताकि हम यह दिखा सकें कि किसी बाहरी मदद के बग़ैर भी हम ऐसा कर सकते हैं। समय के साथ, लोग अपनी कंपनी के लिए ज़मीन देने की इच्छा जताने लगे। उन्होंने खनन के लिए हमें अपनी ज़मीन के काग़ज़ात और अनापत्ति प्रमाण पत्र भी दिए। अब हमारे पास लोगों द्वारा दी गई 700 एकड़ ज़मीन है। इसके बाद, हम सुनिश्चित करते हैं कि इस कंपनी से मिलने वाली धनराशि का इस्तेमाल सामुदायिक विकास में हो सके और लोगों की छोटी-बड़ी समस्याएं हल हो सकें। ऐसा करना आंदोलन को लंबे समय तक चलाए रखने में भी मददगार होता है।

आंदोलित करते हैं

1. अदालत का दरवाज़ा खटखटाएं

लोगों को उनके संवैधानिक अधिकारों के बारे में बताएं ताकि ज़रूरत पड़ने पर वे क़ानूनी लड़ाई के लिए तैयार रहें। हमें बार-बार यह करते रहना पड़ा है। उदाहरण के लिए, माइन एक्ट, 1952 महिलाओं को कोयला खदान में नौकरी पाने से रोकता है। हमारी समुदाय की सदस्य रत्थो बाई जिन्होंने अपने पिता और भाई को माइनिंग एक्सीडेंट में खोया था और दसवीं कक्षा तक की पढ़ाई की थी। अगर वे महिला नहीं होतीं तो कोल इंडिया उन्हें नौकरी दे देता। हम इसके लिए कोल इंडिया को छत्तीसगढ़ हाई कोर्ट तक लेकर गए और कहा कि अगर संविधान लैंगिक भेदभाव नहीं करता है तो माइन एक्ट कैसे कर सकता है? और, अदालत के फ़ैसले के बाद उन्हें नौकरी मिली।

मूल अधिकारों को जानना और सूचना के अधिकार के ज़रिए सवाल पूछना, आंदोलन को बनाए रखने के मज़बूत साधन बन सकते हैं।

ऐसा ही मामला रथकुमार का भी था जिनके पति को कोयला खदान में काम करते हुए हार्ट अटैक आया और उनकी मौत हो गई। हमने जब उन्हें नौकरी दिलवाने का प्रयास किया तो कंपनी का कहना था कि उनके पति के नाम वाला कोई भी शख़्स वहां नौकरी नहीं करता था। हमने राइट टू इंफ़ॉरमेशन के तहत जानकारी मांगी और अदालत में यह साबित किया कि वे झूठ बोल रहे थे। इस तरह हमने कई महिलाओं को खदान में नौकरी दिलवाने का काम किया। हम लोगों को क़ानून की जानकारी देने का महत्व समझते हैं। इसलिए हमने अपने संगठन के प्रशिक्षण कार्यक्रम में क़ानूनी शिक्षा को भी अनिवार्यता से शामिल किया। अपने मूल अधिकारों को जानना और सूचना के अधिकार के ज़रिए सवाल पूछना, आंदोलन को बनाए रखने के बहुत मज़बूत साधन बन सकते हैं।

2. अपने आसपास से सीखें और मदद लें

हमारा सत्याग्रह, विरोध प्रदर्शन करने से शुरू हुआ था और यह आज भी आंदोलन को मज़बूती देता है। यह लगातार बढ़ता ही जा रहा है। साल 2012 में हमने आसपास के गांवों के सदस्यों और प्रतिनिधियों से मिलना शुरू किया। फिर हमने राष्ट्रीय स्तर पर काम करने वाली संस्थाओं को भी आमंत्रित किया, 16 राज्यों से लोगों ने इसमें भाग लिया। इसमें से कोई बाक्साइट खनन से परेशान था तो कहीं लौह अयस्क का खनन किया जा रहा था। हमने उन्हें बताया कि हम कोयला सत्याग्रह कर रहे हैं क्योंकि हमारे पास कोयला है लेकिन आप हमारा यह अहिंसक तरीक़ा अपना सकते हैं. हम लोगों को दूसरे गांवों और राज्यों में भी लेकर जाते थे ताकि वे उनसे कुछ सीख सकें।

हमारे संसाधन सीमित हैं लेकिन लोग लगातार सहयोग करते हैं। हम गांव के हर घर से एक मुट्ठी चावल इकट्ठा करते हैं। जो ज़्यादा दे सकते हैं, वे ज़्यादा भी देते हैं और कुछ लोग आंदोलन को चलाए रखने के लिए धन भी देते हैं। 2024 के लिए, हमने सामुदायिक दान का एक नियम बनाया है कि जो एक एकड़ ज़मीन के मालिक हैं, वे 100 रुपए देंगे और जो दस एकड़ ज़मीन के मालिक हैं, वे 1000 रुपए दान करेंगे। इस तरह, हम 8.5 लाख रुपए और 40 क्विंटल चावल इकट्ठा करने में सफल हो पाए हैं। जब भी रैली, ट्रैफ़िक जाम, धरना जैसे प्रदर्शन होते हैं, यह पैसा और चावल हमारे काम आता है। इसके साथ ही, हमने प्रोजेक्टर, म्यूज़िक सिस्टम, लैपटॉप और प्रिंटर भी ख़रीदा है। हमारे कुछ सदस्य सरकारी संस्थाओं में भी पढ़ाते हैं, समाजसेवी संस्थाओं से सलाह लेते हैं और अपनी कमाई का एक हिस्सा आंदोलन के लिए देते हैं। हम आर्थिक रूप से पूरी पारदर्शिता रखते हैं, हर किसी को पता होता है कि कितना धन इकट्ठा हुआ और उसकी जवाबदेही किस पर है।

आंदोलन के दौरान हम यह भी सुनिश्चित करते हैं कि लोगों का कामकाज, उनकी आजीविका इससे प्रभावित ना हो। हर गांव को एक दिन धरना करने की ज़िम्मेदारी मिलती है। उदाहरण के लिए, अगर आज मेरे गांव से 500 लोग जा रहे हैं तो कल आपके गांव से जाएंगे। इस तरह ज़िम्मेदारी बांटने से बहुत मदद मिलती है। साल 2023 में 15-20,000 लोग हमसे जुड़े हैं। कंपनियों द्वारा खदान शुरू करने की कई हालिया कोशिशों के बाद भी रायगढ़ और उसके आसपास के गांवों ने इसे संभव नहीं होने दिया है। वे हमारे संसाधनों के लिए आएंगे तो हम हमेशा अपनी रक्षा में खड़े मिलेंगे। हमें कोयला खदानें नहीं चाहिए लेकिन अगर सरकार केवल इसे ही विकास समझती है तो हमें भी इसमें हमारा हिस्सा चाहिए।

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स्पीति घाटी में सिंचाई, महिलाओं के जिम्मे होने के क्या मायने हैं

हिमाचल प्रदेश की स्पीति घाटी के दायरे में आने वाले किब्बर गांव में खेती के दौरान सिंचाई का ज़िम्मा महिलाओं पर होता है।

फसलों की सिंचाई एक तय चक्र के अनुसार की जाती है। मिट्टी की जुताई के कुछ सप्ताह बाद, महिलाएं खेतों से खरपतवार चुनकर हटा देती हैं और उसमें सूखी यालो (स्थानीय जंगली घास) फैला देती हैं। ऐसा करने से मिट्टी का बहाव रुकता है और उसकी जल-धारण क्षमता बढ़ जाती है। इसके बाद युरमा आता है जो सिंचाई का पहला चक्र होता है। युरमा के पहले दिन, केवल अमचिसों (डॉक्टरों) और देवता (गांव के देवता) के खेतों की ही सिंचाई की जाती है। इस दिन गांव के प्रत्येक घर की महिलाएं सिंचाई में भाग लेती हैं।

दूसरा दिन ऐसे परिवारों के लिए रखा जाता है जिसमें पिछले साल कोई गंभीर रूप से बीमार था या किसी की मृत्यु हुई थी, या फिर उस घर में गर्भवती महिलाएं हैं जो खेतों में काम नहीं कर सकती हैं। तीसरा दिन टिपिंग लैंगज़ेट, यानी कि उन परिवारों के लिए होता है जिन्होंने जल चैनलों के रखरखाव में भाग लिया है। बाक़ी के बचे खेतों की सिंचाई तीसरे दिन के बाद की जाती है।

महिलाएं ही सिंचाई-चक्र के दूसरे और तीसरे दिन को तय करती हैं। वे ही स्पीति की एक पवित्र चोटी कनामो की पिघली हुई बर्फ से आने वाले पानी के दैनिक वितरण का भी प्रबंधन करती हैं। खुल्स का उपयोग करके पानी को खेतों तक पहुंचाया जाता है। खुल्स लंबे प्राकृतिक चैनल होते हैं जो चट्टानों से बने होते हैं और सदियों से स्पीति की घाटियों में पाये जाते हैं। शुरुआत में इसे जौ और काली मटर की सिंचाई के लिए बनाया गया था, लेकिन समय के साथ इस क्षेत्र में हरी मटर उगाने के लिए यहां की महिलाओं ने इस सिंचाई व्यवस्था में फेरबदल करके इसे बेहतर बनाया है।

प्रत्येक वर्ष, दो महिलाओं को खुल के प्रबंधक के रूप में चुना जाता है। वे खुल की प्रभारी होती हैं और यह सुनिश्चित करती हैं कि सभी खेतों को उनके हिस्से का पानी मिले और पानी वितरण से जुड़े किसी भी विवाद का समाधान किया जाए। महिलाओं पर खेतों में क्यारियां बनाने की ज़िम्मेदारी भी होती है। क्यारियां, मिट्टी के ऐसे बंधान हैं जो पानी के प्रवाह को दिशा देने में मदद करते हैं और भूमि की प्राकृतिक ढलान के आधार पर सावधानीपूर्वक बनाए जाते हैं। 

किब्बर की एक महिला किसान लोबजांग कहती हैं कि ‘यदि आप उन्हें बहुत जल्दी पानी देते हैं तो पौधे प्यासे हो जाते हैं और उन्हें अधिक पानी की ज़रूरत पड़ने लगती है। आपको उन्हें सही समय पर और सही मात्रा में पानी देने की ज़रूरत होती है।’  लोबजांग यह भी बताती हैं कि कई पीढ़ियों से इस सिंचाई व्यवस्था में बदलाव नहीं किया गया है। छोटी लड़कियों द्वारा खेत के कामों में मदद करना शुरू करते ही माताएं अपनी बेटियों को सिंचाई का ज्ञान देने लगती हैं।

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रंजिनी मुरली हम्बोल्ट-यूनिवर्सिटी एट ज़ू बर्लिन में पोस्ट-डॉक्टरल वैज्ञानिक हैं। यह मूलरूप से हिमकथा पर प्रकाशित आलेख का संपादित अंश है।

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महाराष्ट्र के गांवों में त्यौहारों का हिस्सा बना रक्त परीक्षण

एक समूह में बैठी कुछ महिलाएं_स्वास्थ्य जागरुकता
महिलाओं में बुनियादी रोगनिरोधी चिकित्सा जांच की आवश्यकता से जुड़ी जानकारी का भी अभाव है। | चित्र साभार: ज्ञान प्रबोधिनी

स्वास्थ्य सेक्टर में काम करने के दौरान हमने पाया कि भारत के कई हिस्सों में महिलाएं अपने स्वास्थ्य को प्राथमिकता सूची में सबसे नीचे रखने की आदी हैं। महाराष्ट्र के पुणे ज़िले में स्थित वेल्हे गांव भी इसका कोई अपवाद नहीं है। अक्सर, महिलाओं के स्वास्थ्य पर दिया जाने वाला ध्यान उनके परिवार के रवैये और उनकी अपनी धारणाओं पर निर्भर करता है। आमतौर पर महिलाओं में रोगों से बचाव के लिहाज़ से स्वास्थ्य जांच करवाने की जागरुकता का अभाव भी देखने को मिलता है। वे डॉक्टर से चर्चा के लिए भी स्वास्थ्य को एक निजी मामला मानती हैं। इसके अलावा, उन्हें यह भी लगता है कि जांच और इलाज के बारे में डाक्टर से ज़्यादा सवाल करना ठीक नहीं हैं। उन्हें तो केवल विशेषज्ञों से मिलने वाले सलाह का पालन करना चाहिए।

इसी संदर्भ में, 2018 में, जब हमने महिलाओं के लिए हीमोग्लोबिन (एचबी) स्तर की जांच का अभियान शुरू करने के बारे में सोचा, तब हमारे लिए यह सोच पाना भी असंभव था कि वे अपनी इच्छा से जांच के लिए आगे आएंगी। हमने दिवाली के आसपास अपने इस अभियान को शुरू करने का फ़ैसला किया। महाराष्ट्र के ग्रामीण इलाक़ों में यह एक महत्वपूर्ण त्योहार है और मानसून की फसल (अक्तूबर महीने के शुरुआत में) की कटाई के साथ आता है। गांवों में, ऐसे त्यौहार आपस में मिलने-जुलने और सामूहिक गतिविधियों के साथ प्रसिद्ध स्थानीय मंदिरों के आसपास सामुदायिक समारोहों या जत्राओं (मेलों) के आयोजन का अवसर बनते हैं। नवरात्रि के दौरान सामाजिक उत्सवों में महिलाओं ने बड़ी संख्या में हिस्सा लिया था इसलिए हम त्यौहारों के दौरान ही महिलाओं के स्वास्थ्य से जुड़ी जागरूकता के विचार को स्थापित करना चाहते थे। अंत में, इस अभियान की दो उपलब्धियां रहीं – रक्त जांच से जुड़ी सामाजिक रूढ़िवादी सोच को समाप्त करना और वह भी सार्वजनिक स्थलों पर, और नियमित खून की जांच का महत्व बताना।

पहले साल में, ज़्यादातर महिलाएं अपने खून की जांच करवाने की इच्छुक नहीं थीं। इसके कई कारण थे। कुछ महिलाओं को सुई से डर लगता था जबकि कुछ महिलाओं के पास समय नहीं था। उनका हमसे एक ही सवाल होता था कि, ‘त्योहार के शुभ अवसर पर ही क्यों? क्या हम खून की जांच कभी और नहीं करवा सकते हैं?’

चूंकि हम वहां ज्ञान प्रबोधिनी नामक एक ऐसे संगठन के साथ काम कर रहे थे जिसने पहले ही उस क्षेत्र में कुछ अभियान करवाए थे, इसलिए हम स्थानीय स्वयं-सहायता समूह की मदद से एक छोटी सी बैठक आयोजित करवाने में सफल हो पाए। इस बैठक में महिलाओं की कई धारणाओं पर खुलकर चर्चा की गई। स्थानीय आशा कर्मचारी की उपस्थिति, जो कि एक जाना-पहचाना चेहरा था, से भी हमें विश्वास बनाने और संवाद करने में मदद मिली।

रक्त जांच अभियान उस समय चल रही उन कई गतिविधियों – खेल आयोजनों, गीतों और नृत्य प्रतियोगिताओं – के साथ सहजता से मिश्रित हो गया, जिन्हें प्रबोधिनी स्वयंसेवकों द्वारा नवरात्रि मनाने के लिए भी आयोजित किया गया था। इस प्रकार, इस अभियान का स्वरूप केवल स्वास्थ्य से जुड़ा नहीं रह गया और इसमें एक उत्सव की भावना आ गई। इससे महिलाओं में रक्त जांच को लेकर झिझक भी कम हो गई।

आशा कार्यकर्ताओं ने रक्त की जांच की और प्रतिभागियों के सामने ही परिणाम सुनाए। उच्च और ‘अच्छी’ एचबी स्तर (13 से अधिक) वाले लोगों को सम्मानित करने के साथ-साथ एक उपहार भी दिया गया। आठ से कम एचबी स्तर वाले लोगों को सांत्वना दी गई और उनसे कहा गया कि वे उचित दवा के लिए आशा कर्मचारियों से संपर्क करें। इसके अलावा, किसी व्यक्ति के स्वास्थ्य पर कम एचबी के प्रभाव के बारे में चर्चा की गई जिनमें कृषि कार्य के दौरान कार्यक्षमता में कमी आदि जैसे विषय शामिल थे। साथ ही, उन्हें ऐसे खाद्य पदार्थों के बारे में भी बताया गया जो एचबी स्तर में सुधार कर सकते हैं।

पहले साल में लगभग सौ महिलाएं अपने रक्त परीक्षण के लिए सामने आईं थीं। 2023 में, यह संख्या बढ़कर लगभग तेरह सौ तक पहुंच गई, जो पुणे के दो ब्लॉक- भोर और वेल्हे के 48 गांवों में रहती हैं। कभी वर्जित रहा विषय, स्वास्थ्य अब बातचीत का मुद्दा बन चुका है। कुछ अनजान करने के डर और उससे जुड़ी चिंता ने ‘मुझे पता लगाना चाहिए कि मेरी स्थिति क्या है और मैं इसे ठीक करने के लिए क्या कर सकती हूं।’ जैसी प्रतिक्रियाओं को जन्म दिया। अब यह इतना लोकप्रिय हो चुका है कि इन गांवों के पुरुषों ने भी अपने रक्त परीक्षण के लिए कहना शुरू कर दिया है।

डॉ अजीत कानिटकर पुणे स्थित एक शोधकर्ता और नीति विश्लेषक हैं। सुवर्णा गोखले ज्ञान प्रबोधिनी के स्त्री शक्ति ग्रामीण विभाग की प्रमुख हैं।

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