सरल कोश: स्टेकहोल्डर

विकास सेक्टर में तमाम प्रक्रियाओं और घटनाओं को बताने के लिए एक खास तरह की शब्दावली का इस्तेमाल किया जाता है। आपने भी ऐसे कुछ शब्दों और उनके इस्तेमाल को लेकर असमंजस का सामना भी किया होगा। इसी असमंजस को दूर करने के लिए हम एक ऑडियो सीरीज़ ‘सरल–कोश’ लेकर आए हैं, जिसमें हम आपके इस्तेमाल में आने वाले कुछ महत्वपूर्ण शब्दों पर बात करने वाले हैं।

सरल-कोश में इस बार का शब्द है स्टेकहोल्डर या हितधारक।

स्टेकहोल्डर शब्द से मतलब ऐसे व्यक्ति, समूह या संगठन से है जो किसी संस्था के प्रोजेक्ट, कार्यक्रम या नीति से जुड़े होते हैं। दूसरे शब्दों में, स्टेकहोल्डर वे लोग या संस्थाएं हैं जिनके काम या हित किसी खास प्रोजेक्ट या निर्णय से प्रभावित होते हैं। समाजसेवी संगठनों में कई तरह के स्टेकहोल्डर्स होते हैं जिनका किसी मिशन की सफलता में महत्वपूर्ण योगदान होता है।

कुल मिलाकर, विभिन्न स्टेकहोल्डर्स जैसे कि कर्मचारी, खास सदस्य, बोर्ड सदस्य, वॉलंटियर्स, लाभार्थी, डोनर और दानदाता का योगदान किसी संगठन की सफलता और मिशन की प्रभावशीलता के लिए बेहद जरूरी होता है। जब स्टेकहोल्डर्स मिलकर काम करते हैं तो वे अपनी विशेषज्ञता और संसाधनों को साझा करते हैं। इससे योजनाएं और नीतियां कही अधिक प्रभावी बनती हैं। स्टेकहोल्डर, संगठन को मजबूती से जोड़कर इसके विज़न और मिशन को पूरा करने में अहम भूमिका निभाते हैं।

अगर आप भी इस सीरीज में किसी अन्य शब्द को और सरलता से समझना चाहते हैं तो हमें यूट्यूब के कॉमेंट बॉक्स में जरूर बताएं।

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क्यों मेघालय में तिवा जनजाति को नाम से लेकर भाषा तक बदलनी पड़ रही है?

एक दुकान_आदिवासी
मेघालय में तिवा समुदाय को आधिकारिक मान्यता और पहचान न मिलने के कारण, उसे अपनी स्थिति मज़बूत करने के लिए कुछ अलग रास्ते अपनाने पड़ते हैं। | चित्र सभार: कौमुदी महंता

मैं एक शोधकर्ता हूं और तिवा समाज के साथ काम कर रही हूं। यह उत्तर-पूर्वी राज्यों असम और मेघालय राज्यों में रहने वाला एक आदिवासी समूह है। तिवा लोग असम के मैदानी और पहाड़ी इलाकों में रहते हैं जहां उन्हें अनुसूचित जनजाति (एसटी) माना गया है। लेकिन मेघालय में तिवा समुदाय को अभी तक यह दर्जा नहीं मिला है।

मेघालय के री भोई जिले में तिवा जनसंख्या का एक बड़ा हिस्सा रहता है। लेकिन यहां समुदाय को आधिकारिक मान्यता और पहचान न मिलने के कारण, उसे अपनी स्थिति मज़बूत करने के लिए कुछ अलग रास्ते अपनाने पड़ते हैं। इनमें से एक है – खासी उपनाम अपनाना। वे यह उपनाम इसलिए इस्तेमाल करते हैं ताकि उन्हें अनुसूचित जनजाति (एसटी) के दर्जे से जुड़े सामाजिक और राजनीतिक लाभ मिल सकें।

री भोई के अमजोंग गांव में अपने शोध के दौरान मुझे कई ऐसे परिवार मिले जिन्होंने खासी उपनाम अपनाया था और वे खासी भाषा भी अच्छी तरह जानते थे। यहां के एक निवासी, जोसेफ एम* ने कहा कि “जब आप ऐसे लोगों के बीच होते हैं, जो पांच अलग-अलग भाषाएं बोल सकते हैं तो यह कहना मुश्किल होता है कि वे कैसे बोलते हैं।” जोसेफ यहां पर अमजोंग के लोगों की बात कर रहे थे जो खासी और तिवा दोनों भाषाओं में सहज होते हैं, और इसके अलावा असमिया, अंग्रेजी और हिं दी भी थोड़ा-बहुत जानते हैं। जोसेफ के परिवार में पत्नी और उनकी तीन बेटियां हैं और वे घर पर तिवा भाषा बोलते हैं।

आपस में शादी करना भी, तिवा समुदाय के लिए अपनी स्थिति को बेहतर बनाने का एक तरीका है। जोसेफ ने बताया, “मेरे छोटे भाई, जो अब शिलांग में रहते हैं, उन्होंने खासी जनजाति की एक महिला से शादी की। इससे उनके दोनों बच्चों को अनुसूचित जनजाति का दर्जा मिलना आसान हो गया।” खासी जनजाति में बच्चों की पहचान मां की जाति से होती है, यानी अगर मां खासी है तो बच्चों को खासी जाति माना जाता है।

हालांकि, अमजोंग में तिवा लोगों की कुछ व्यवस्थागत समस्याएं भी हैं। वे अपनी निचली और उच्च प्राथमिक सरकारी स्कूलों की खराब हालत की शिकायत करते हैं। उन्हें कानूनी पहचान न मिलने की वजह से छात्रवृत्तियां, आरक्षित सीटें और अन्य फायदे नहीं मिल पाते जो आदिवासी छात्रों के लिए होते हैं। मैंने कुछ परिवारों को देखा, जो अपने बच्चों को स्कूल में भर्ती करवाने के लिए असम के नजदीकी शहरों जैसे जगीरोड और मोरिगांव में शिफ्ट हो गए हैं।

मैंने कुछ ऐसे प्रयास देखे जो तिवा छात्रों और महिलाओं के समूहों द्वारा किए जा रहे थे और ये उनके समुदाय में शिक्षा की स्थिति को बेहतर बनाने के लिए थे। इसके अलावा, एक सेवानिवृत्त सरकारी स्कूल शिक्षक जो खुद तिवा हैं, उन्होंने जगीरोड में कुछ तिवा बच्चों को अपने घर में रखा और उनकी स्कूल की पढ़ाई पूरी करने में मदद की। हालांकि, ज्यादातर लोग मानते हैं कि अगर उन्हें एसटी का दर्जा मिल जाता तो यह सब कुछ आसान हो जाता।

तिवा समाज द्वारा लंबे समय से मेघालय सरकार से यह मांग की जा रही है कि उन्हें एसटी का दर्जा दिया जाए। लेकिन यह मांग राज्य की जटिल जातीय राजनीति से जुड़ी हुई है। साल 1972 में मेघालय को असम से अलग किया गया था ताकि यहां के आदिवासी समुदायों की समस्याओं का हल निकाला जा सके। लेकिन अभी भी नए समुदायों को इसमें शामिल करने के बारे में बहुत सतर्कता दिखाई जाती है।

*गोपनीयता बनाए रखने के लिए नाम बदल दिए गए हैं।

कौमुदी महंता एक शोधकर्ता हैं और गुवाहाटी में रहती हैं।

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अधिक जानें: गुजरात में राठवा समुदाय और अनुसूचित जनजाति के अधिकारों के बारे में जानें।

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महिला सशक्तिकरण की सबसे बड़ी बाधा बनने वाला पितृसत्तात्मक समझौता क्या है?

हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम 2005 के अनुसार बेटियां अपने पिता की चल-अचल संपत्ति में पूरा अधिकार रखती हैं। लेकिन ज्यादातर इस संपत्ति को लेने के लिए अपने भाइयों से कोई मुकाबला नहीं करती हैं। यहां तक कि पढ़ी-लिखी नौकरीपेशा महिलाएं तक ऐसा नहीं करती हैं। हालांकि कुछ खास मौकों पर तोहफे-रुपए जरूर उनके हिस्से में आते हैं। एक और उदाहरण जो हम अपने घरों में देखते हैं कि पिता से ज्यादा मां बेटियों, बहुओं पर बंदिशें लगाती हैं। दहेज प्रथा के कानूनी रूप से अपराध होने के बावजूद बेटियां इसके विरोध में कम ही नजर आती हैं। यहां तक कि घरेलू हिंसा पर भी महिलाएं बहुत कम ही मुखर होती हैं। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस), 2019-2021 के अनुसार, 18 से 49 वर्ष की आयु वर्ग की 29.3% विवाहित भारतीय महिलाओं ने घरेलू/यौन हिंसा का अनुभव किया है। इसके अलावा, कार्यस्थल पर भी महिलाएं लैंगिक भेदभाव वाला रवैया और मजाक झेलते हुए काम करती हैं।

यह सभी उदाहरण सवाल खड़ा करते हैं कि महिलाएं उनके दमन के कारकों के विरुद्ध खड़े होने की बजाय उन्हें पुख्ता करने में मदद क्यों कर रही हैं। इन सवालों के जवाब कई आयामों पर खोजे जा सकते हैं, मसलन – पालन-पोषण, मानसिकता, शिक्षा की कमी आदि। लेकिन इन सभी आयामों के गर्त में जो चीज काम कर रही है उसे पितृसत्तात्मक समझौते या पैट्रियार्कल बार्गेन कहते हैं।

पितृसत्तात्मक समझौता या पैट्रियार्कल बार्गेन क्या है?

डेनिज कंदीयोती ने 1988 में अपने लेख बार्गेनिंग विद पेट्रियार्की में पहली बार पेट्रियार्कल बार्गेन शब्द का उपयोग किया था। पितृसत्ता के विभिन्न रूप महिलाओं के सामने अलग-अलग ‘खेल के नियम’ (जेंडर रूल्स) लेकर आते हैं। ये उनकी सुरक्षा तय करने और जीवन के विकल्पों को बेहतर बनाने के लिए विभिन्न रणनीतियों की मांग करते हैं। पितृसत्तात्मक समझौते उस स्थिति को दर्शाते हैं, जब कोई महिला पितृसत्तात्मक व्यवस्था में अपनी स्वायत्तता और सुरक्षा बनाने या कुछ लाभ हासिल करने के लिए पितृसत्ता की शर्तों को स्वीकार कर लेती है। यह लाभ वित्तीय, भावनात्मक, मानसिक, या सामाजिक किसी भी प्रकार का हो सकता है, लेकिन इसके बदले में महिला को पितृसत्ता के मानकों के अनुरूप व्यवहार करना पड़ता है। आलेख की शुरूआत में हमने इसके कुछ उदाहरणों पर बात की है।

आपस में बात करती दो महिलाएं—फीचर फोटो—महिला सश्क्तिकरण
सामाजिक व्यवस्था यह तय करती है कि समाज में हर व्यक्ति उसके मानकों के अनुसार चले, ताकि समाज में उथल-पुथल न हो, इन मानकों में कुछ विशेष वर्गों का शोषण तय होता है। | चित्र सभार: विकिपीडिया/क्रिएटिव कॉमन्स द्वारा

पितृसत्तात्मक समझौतों को महिलाएं क्यों अपना रही हैं?

भारतीय महिलाओं द्वारा पितृसत्तात्मक समझौते जैसी रणनीति को अपनाने के कई कारण हैं। भारत में महिलाएं लिंग, धर्म, समुदाय, जाति, क्षेत्र, भाषा, आदि जैसे कई स्तरों पर उत्पीड़न का सामना करती हैं। परिवार जैसी मूल व्यवस्था में वे भेदभाव सहती हैं, उनका बचपन संसाधनों की कमी में गुजरता है, इन सभी का दुष्प्रभाव न सिर्फ शारीरिक, बल्कि मानसिक भी होता है। इस प्रक्रिया में महिलाओं के लिए पितृसत्तात्मक व्यवस्था से लड़ना मानसिक थकावट पैदा करता है, जिससे बचने के लिए व्यवस्था को निभाते जाना उनके लिए ज्यादा सहज होता है।

साथ ही, सामाजिक व्यवस्था यह तय करती है कि समाज में हर व्यक्ति उसके मानकों के अनुसार चले, ताकि समाज में उथल-पुथल न हो, इन मानकों में कुछ विशेष वर्गों का शोषण तय होता है। यहां महिलाएं वह एक वर्ग हैं जिनका पालन-पोषण ही यह मानसिकता बनाते हुए किया जाता है कि वे अपने शोषण पर सवाल न उठाएं। ऐसा करने पर उन्हें धर्म, जाति, समुदाय, या परिवार निकाला दिया जा सकता है, यहां तक कि उनकी हत्या भी की जा सकती है। भारत में ऑनर किलिंग इसका उदाहरण है जिसमें अपनी स्वायत्तता हासिल करने की कोशिश तक, उन्हें बुरे अंजाम पर ले जाती है।

इनके चलते, भारतीय महिलाओं के लिए पितृसत्तात्मक समझौते न सिर्फ सांस्कृतिक कंडीशनिंग ( सामाजिक मानकों के मुताबिक सोच-समझ का बनना) है बल्कि अपना अस्तित्व बनाए रखने (सर्वाइवल) का एकमात्र तरीक़ा भी है। यही तरीक़ा परिवार, कार्यस्थल, समुदाय के स्तर पर विभिन्न तरीके से देखने मिलता है।

पितृसत्तात्मक समझौते संरचनात्मक सशक्तिकरण में बाधा है

पितृसत्तात्मक समझौते महिलाओं को अस्थाई लाभ तो दिलाते हैं लेकिन संरचनात्मक सशक्तिकरण को मज़बूत नहीं करते हैं। संरचनात्मक सशक्तिकरण से यहां मतलब एक ऐसी प्रक्रिया से हैं जिसमें संस्थागत ढांचें, नीतियों और संसाधनों को इस तरह व्यवस्थित किया जाता है कि समुदाय के हर व्यक्ति का उससे सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक हित सुनिश्चित हो सके।

समझौते के अस्थायी लाभ, वे छोटे-मोटे फायदे हैं जो महिलाएं पितृसत्तात्मक ढांचे के भीतर रहकर समाज में अपनी स्वीकार्यता के लिए करती हैं। जैसे परिवार की परंपराओं को निभाकर सम्मान पाना चाहे यह बेटों को वरीयता देने से, पति के बाद खाना खाना से या हर त्यौहार में बढ़ चढ़कर भाग लेने से, संपत्ति के अधिकार में चुप्पी साध लेने से हासिल हो। ये लाभ अल्पकालिक होते हैं और पितृसत्ता को चुनौती नहीं देते हैं बल्कि इन्हें बनाए रखते हैं। पितृसत्तात्मक समझौते परिवार, कार्यस्थल और समुदाय के स्तर पर महिलाओं के लिए कितनी दूरदर्शी सफलता या बाधाएं उत्पन्न करती है। इसे बनाए रखने से पीढ़ी दर पीढ़ी शोषण की कड़ी परिवार नामक सामाजिक इकाई में खत्म नहीं होती है।

पितृसत्तात्मक समझौते, पारिवारिक एवं बड़े सामाजिक स्तर पर महिलाओं की यौनिकता को भी नियंत्रित करते हैं, असके अलावा, कई महिलाएं पारिवारिक जिम्मेदारियों को प्राथमिकता देने के लिए उच्च-दबाव वाले करियर विकल्पों को छोड़ देती हैं जो पितृसत्तात्मक अपेक्षाओं में निहित एक समझौता है। इस निर्णय से नेतृत्व भूमिकाओं में महिलाओं की भागीदारी सीमित हो जाती है और कार्यस्थलों में पुरुष प्रभुत्व बना रहता है। कार्यस्थल के संदर्भ में देखें तो पितृसत्तात्मक समझौते महिलाओं को टोकन (या सांकेतिक) प्रतिनिधित्व देते हैं। उदाहरण के तौर पर महिलाएं एक पुरुष बहुल्य कार्यक्षेत्र में अपने फैसले सामाजिक समायोजन (सोशल कंफर्मिटी) के आधार पर करती हैं।

अक्सर यह भी देखा जाता है कि जब कोई पुरुष बहुल संस्था/कंपनी अपने बुरे दौर से गुजरती है तो उसका नेतृत्व किसी महिला को दे दिया जाता हैलेकिन ऐसा कदम महिलाओं को सफलता हासिल नहीं करने देता है, इसे समाजशास्त्र/जेंडर स्टडीज की भाषा में ग्लास क्लिफ कहते हैं। ग्लास क्लिफ जैसा कि शब्द से समझ आता है कि यहां आपको नीचे ही गिरना है। इस स्थिति में महिलाओं को संकट या दबाव के समय या मंदी के दौरान उच्च पदों पर पदोन्नत किया जाता है जब असफलता की संभावना बहुत अधिक होती है। उदाहरण के तौर पर 2023 में, लिंडा याकारिनो को ट्विटर की सीईओ नियुक्त किया गया था। यह वह समय था जब कंपनी अनिश्चित भविष्य, ट्विटर यूज़र्स के असंतोष और विज्ञापनदाताओं के संदेह जैसी चुनौतियों का सामना कर रही थी।

महिलाओं को मिलने वाली यह सफलता एक अल्पकालिक लाभ है। इसका उद्देश्य होता है कि संस्था/कंपनी के गिरने का भार किसी महिला के कंधे पर आए। ऐसा होना कार्यस्थलों को संदेश देता है कि महिलाएं नेतृत्व के योग्य नहीं होती हैं। महिलाओं के बारे में धारणा उन्हें एक ग्लास सीलिंग का सामना करने पर मजबूर करती है। ग्लास सीलिंग यानी एक ऐसा अदृश्य अवरोध जो महिलाओं और अन्य हाशिए के समूहों को योग्यता, कौशल और अनुभव के बावजूद, करियर में उच्च पदों, अधिकार या नेतृत्व की स्थिति तक पहुंचने से रोकता है।

पितृसत्तात्मक समझौते से पनपते अल्पकालिक लाभ

सामुदायिक स्तर पर देखें तो महिलाएं अक्सर सुरक्षा और सामाजिक स्वीकृति के लिए कपड़ों और समय-सीमाओं, और तकनीक के दौर में सोशल मीडिया जैसी जगहों पर ख़ुद को पूरी तरह से अभिव्यक्त न करने (सेल्फ सेंसरिंग) जैसे प्रतिबंधात्मक मानकों का पालन करती हैं। यह उनकी गतिशीलता और सार्वजनिक जीवन में भागीदारी को सीमित करता है। परिवार और समाज में स्वीकृति के लिए महिलाएं जाति आधारित नियमों का पालन पुरुषों से भी अधिक मजबूती से करती हैं और अपने जीवन के फैसले जैसे शादी को वे घर के पुरुषों के मुताबिक करती हैं। इससे वे अच्छी महिला, अच्छी बेटी होने का तमगा तो हासिल कर लेती हैं लेकिन जो महिलाएं ऐसा नहीं करना चाहतीं उनके लिए अनुपयुक्त उदाहरण बन जाती हैं। इससे समाज में ‘महिला ही महिला की दुश्मन है’ जैसी अवधारणा को और मजबूती मिलती है।

जब कोई पुरुष बहुल संस्था/कंपनी अपने बुरे दौर से गुजरती है तो उसका नेतृत्व किसी महिला को दे दिया जाता हैलेकिन ऐसा कदम महिलाओं को सफलता हासिल नहीं करने देता है, इसे समाजशास्त्र/जेंडर स्टडीज की भाषा में ग्लास क्लिफ कहते हैं।

ऐसा होना, महिलाओं को एक समूह के रूप में कभी एकजुट होकर अपने शोषण के खिलाफ लड़ने योग्य नहीं बनने देता है। यहां तक कि पंचायत जैसी स्थानीय शासन व्यवस्था में महिलाओं के लिए आरक्षित सीटों पर महिलाओं का पुरुष रिश्तेदारों की प्रॉक्सी के रूप में काम करना भी इसका एक उदाहरण है, जिससे राजनीति में महिलाओं के वास्तविक सशक्तिकरण में बाधा आती है।

दीर्घकालिक विकास के लिए संरचनात्मक सशक्तिकरण जरूरी है

संरचनात्मक सशक्तिकरण का उद्देश्य महिलाओं को स्थाई रूप से अधिकार और स्वतंत्रता प्रदान करना है। हर क्षेत्र में महिलाओं की बराबर संख्या (भारतीय संदर्भ में हर विविध पहचान से), फैसले लेने का अधिकार, निडरता, सफल होने के लिए संसाधनों तक पहुंच, आदि मुख्य बिंदु यह कहने के लिए ठीक रहेंगे कि महिलाओं का सच्चा सशक्तिकरण हो पाया है। सच्चा सशक्तिकरण पितृसत्तात्मक ढांचे को चुनौती देकर उसे बदलने का प्रयास करता है। जैसे महिला शिक्षा को बढ़ावा देना, उनके लिए कानूनी सुरक्षा (जैसे घरेलू हिंसा अधिनियम, 2005), और स्व-सहायता समूहों के माध्यम से उनमें सामुदायिक नेतृत्व का विकास। उदाहरण के तौर पर भंवरी देवी का केस ब्राह्मणवादी पितृसत्तात्मक एवं जातीय संघर्ष की चेतना दर्शाता है जिससे कानून के प्रावधान में विशाखा गाइडलाइंस लाई गई थीं। इसी तरह मी टू आंदोलन कुछ ही साल पुराना है, हाल ही में कास्टिंग काउच पर उठे सवाल और इतिहास से चुनें तो सावित्रीबाई फुले, रुकैया सख़ावत हुसैन आदि महिलाओं ने पितृसत्तात्मक समझौतों को चुनौती दी और आने वाली पीढ़ियों के लिए रास्ते तैयार किए। पढ़ने का अधिकार काफी संघर्षों के बाद महिलाओं के हक में आया जिसके सकारात्मक परिणाम हम आज देखते हैं, यह मुमकिन नहीं होता अगर संरचनात्मक शोषण के कारकों पर चोट नहीं की जाती।

संरचनात्मक सशक्तिकरण कैसे हासिल किया जा सकता है?

महिलाओं के लिए सामाजिक न्याय स्थापित हो और वे पितृसत्तात्मक समझौतों के प्रति जागरूक भी हों और उस पर सवाल उठते हुए अपने आत्म को पहचान सकें। संवैधानिक रूप से महिलाओं के लिए बराबरी के अधिकार समेत तमाम कानून मौजूद हैं। यह जमीन पर भी अच्छे से लागू किए जाएं, इसके लिए नौकरशाही तंत्र की संवेदनशील ट्रेनिंग जरूर की जानी चाहिए। साथ ही, न्यूनतम आर्थिक खर्चे में महिलाओं तक उनके क़ानूनी अधिकार की समझ जरूर पहुंचनी चाहिए। इसके लिए स्कूल की शुरुआती पढ़ाई से लेकर लॉ बूथ जैसी सुविधाएं मुहैया कराई जा सकती हैं। आर्थिक स्वतंत्रता भी महत्वपूर्ण है, जिसमें समान काम के लिए समान वेतन, वित्तीय सेवाओं तक पहुंच, और अवैतनिक देखभाल कार्य की पहचान शामिल है। शिक्षा और कौशल विकास, विशेष रूप से स्टेम (विज्ञान, प्रौद्योगिकी, इंजीनियरिंग, गणित) और नेतृत्व जैसे गैर-परंपरागत क्षेत्रों में, महिलाओं को पेशेवर और आर्थिक रूप से फलने-फूलने के लिए जरूरी उपकरण प्रदान किए जाने चाहिए।

सच्चा सशक्तिकरण पितृसत्तात्मक ढांचे को चुनौती देकर उसे बदलने का प्रयास करता है।

राजनीतिक सशक्तिकरण संरचनात्मक बदलाव का केंद्रीय हिस्सा है, जिसके लिए महिलाओं का नेतृत्व पदों पर होना और स्थानीय, राष्ट्रीय और वैश्विक स्तरों पर निर्णय-निर्माण में प्रभाव डालना जरूरी है। उदाहरण के लिए पंचायत चुनावों में सिर्फ महिला आरक्षित सीट दे देना एकमात्र उपाय नहीं है, बल्कि वह पद महिला ही संभाले न कि पुरुष प्रॉक्सी इसकी निगरानी होनी चाहिए। वहीं सांस्कृतिक और सामाजिक बदलाव की भी जरूरत है ताकि पितृसत्तात्मक मानकों को चुनौती दी जा सके, लिंग-संवेदनशील सामाजीकरण को बढ़ावा दिया जा सके, और लिंग समानता का समर्थन करने वाले नारीवादी आंदोलनों को प्रोत्साहित किया जा सके। स्वास्थ्य और प्रजनन अधिकार, जिसमें स्वास्थ्य देखभाल तक पहुंच और लिंग-आधारित हिंसा से सुरक्षा शामिल है, सशक्तिकरण के महत्वपूर्ण तत्व हैं, जो यह तय करते हैं कि महिलाएं अपने शरीर और जीवन के बारे में स्वायत्त फैसले ले सकें।

सामाजिक सुरक्षा जाल, जैसे कि कल्याण प्रणाली और भेदभाव से सुरक्षा, महिलाओं की सुरक्षा तय करते हैं, जबकि सहायक नेटवर्क और सामुदायिक संरचनाएं एकजुटता और मार्गदर्शन को बढ़ावा देती हैं। प्रौद्योगिकी और जानकारी तक पहुंच डिजिटल विभाजन को समाप्त करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है जिससे महिलाओं को शिक्षा, रोजगार और सामाजिक भागीदारी तक पहुंच मिलती है। आखिरकार, पारिवारिक जिम्मेदारियां साझा करना और सामुदायिक भागीदारी यह तय करने के लिए जरूरी है कि देखभाल और घरेलू कार्यों का बोझ केवल महिलाओं पर न डाला जाए, जिससे परिवार और समाज में समानता को बढ़ावा मिल सके। इसके अलावा सामान्य तौर पर सभी नागरिकों और विशेषकर पुरुषों के नैतिक विचार या मोरल थिंकिंग पर काम करना सामाजिक न्याय में कड़े बदलाव लाने में मदद करेगा। इस प्रकार, संरचनात्मक सशक्तिकरण एक बहु-आयामी प्रक्रिया है, जिसमें कानूनी, आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक सभी स्तरों पर बदलाव की जरूरत होती है। और सच्चे सशक्तिकरण की प्राप्ति समाज में समानता, प्रतिनिधित्व और न्याय की दिशा को आकार देती है।

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फोटो निबंध: अपने श्रम अधिकारों के लिए साकी नाका के श्रमिकों का संघर्ष

भारत के विभिन्न शहरों में अधिकांश अनौपचारिक श्रमिक, बिचौलियों और मजदूर नाकों (वे स्थान जहां श्रमिक रोजगार की तलाश में इकट्ठा होते हैं) से काम हासिल करते हैं। मुंबई के कुर्ला में साकी नाका क्षेत्र के पास ऐसा ही एक नाका स्थित है, जो शहर के सबसे बड़े उत्पादन और रीसाइक्लिंग केंद्रों में से एक है। इस इलाक़े में उत्पादन और प्रोसेसिंग करने वाली कई फैक्ट्रियां हैं। ये मुख्य रूप से धातु, केमिकल और कपड़ों के उत्पादन से जुड़ी हैं। इस इलाके में एक और महत्वपूर्ण उद्योग कचरा इकट्ठा करने और उसकी रिसाइक्लिंग से भी जुड़ा है।

हालांकि इन श्रमिक नाकों पर विभिन्न प्रकार के श्रमिक, काम की तलाश में मुंबई आते हैं। कुछ नाकों पर चौबीसों घंटे हमाल या ‘लोडिंग-अनलोडिंग करने वाले श्रमिकों’ को ख़ासतौर पर रखा जाता है। ये श्रमिक मुख्य रूप से लोडिंग, अनलोडिंग, ढुलाई, स्टैकिंग और इसी तरह के कार्यों में लगे रहते हैं। वे छोटे उद्योगों और इमारतें बनाने के काम में मज़दूरी करते हैं। हमाल श्रमिक काम की तलाश में इन नाकों पर इकट्ठा होते हैं और इस क्षेत्र में रहते हैं। इनमें से अधिकांश श्रमिक उत्तर प्रदेश के बलरामपुर, सिद्धार्थनगर, गोंडा और बस्ती, तथा बिहार के दरभंगा, खगड़िया, पूर्णिया और कटिहार जैसे जिलों से प्रवासी होते हैं। इसके अलावा, कुछ श्रमिक नेपाल के दूरदराज इलाकों से भी आते हैं।

हाथगाड़ी धकेलता मजदूर_श्रमिक
मुंबई के साक़ी नाका में हमाल अपनी ठेला-गाड़ियों पर सामान ढोते हैं | चित्र साभार: गुफरान खान

हमाल श्रमिक शहरी असंगठित श्रमिकों का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं और वे आर्थिक और सामाजिक दृष्टि से सबसे अधिक हाशिए पर हैं। साकी नाका में ज्यादातर हमाल श्रमिक मुस्लिम हैं। यह एक ऐसा समूह है जो 2023 में जारी पीरियोडिक लेबर फ़ोर्स सर्वे के आंकड़ों के अनुसार, ‘प्रमुख धार्मिक समूहों में से सबसे कम संपत्ति रखने और सबसे कम संसाधनों की खपत करने वाला’ समूह है। साथ ही, यह ‘देश के सबसे गरीब धार्मिक समूहों’ में से भी एक है। साकी नाका में मुस्लिम हमाल श्रमिकों को कार्यस्थल पर और उसके बाहर, दोनों जगह भेदभाव का सामना करना पड़ता है। उन्हें अक्सर धातु का कचरा ढोने जैसे अति-असुरक्षित और जोखिमपूर्ण कामों में लगाया जाता है। समुदाय से अलगाव और काम न मिलने के डर से मुस्लिम श्रमिकों के लिए साकी नाका के इस पूरी तरह से अनौपचारिक श्रम बाजार में काम करना और काम देने वालों के साथ बातचीत करना कठिन हो जाता है।

लगभग 35 वर्षों का अनुभव रखने वाले हमाल श्रमिक मलिक को एक कठिन परिस्थिति का सामना करना पड़ा, जब उनको काम देने वाले ने लगभग एक वर्ष तक उनकी – लगभग 1.5 लाख रुपये मजदूरी रोक ली। इसके बावजूद, बेरोजगारी और श्रम बाजार से बाहर होने के भय से मलिक को बिना भुगतान के भी नौकरी पर बने रहने के लिए मजबूर होना पड़ा।

हाथगाड़ी के साथ मजदूर_श्रमिक
साकी नाका में अधिकांश हमाल श्रमिक मुस्लिम हैं, जो कम वेतन पर रोजाना 12 घंटे काम करते हैं। | चित्र साभार: गुफरान खान

साकी नाका में श्रमिकों द्वारा चुनी गई कार्य व्यवस्था और संबंधित मजदूरी दरें सर्वेक्षण डेटा द्वारा प्रस्तुत निष्कर्षों को दर्शाती हैं। अधिकांश हमाल श्रमिक एकल, पुरुष प्रवासी होते हैं और आमतौर पर दो प्रकार की कार्य व्यवस्थाओं में शामिल होते हैं। पहले प्रकार में, उन्हें पूरे दिन (8 से 12 घंटे) काम करने के लिए लगभग 800 रुपये का भुगतान किया जाता है और भोजन भी उपलब्ध कराया जाता है। दूसरे प्रकार में, उन्हें छोटे समय के लिए 200-500 रुपये का भुगतान मिलता है जो उनके प्रयास और पूरे किए गए विशिष्ट कार्यों, जैसे धातु के हिस्सों, फर्नीचर या निर्माण सामग्री की लोडिंग और अनलोडिंग पर निर्भर करता है।

महाराष्ट्र मथाडी, हमाल और अन्य मैनुअल श्रमिक (रोजगार और कल्याण का विनियमन) अधिनियम, 1969 में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि राज्य सरकार एक योजना के माध्यम से मजदूरी दरों, काम के घंटों और सामाजिक सुरक्षा, आवास आदि की व्यवस्था की निगरानी कर सकती है। हालांकि, इस मेहनत का आकलन करने और श्रमिक को उचित या अनुरूप पारिश्रमिक देने के लिए कोई मानकीकृत तरीका नहीं है। यह श्रमिकों के मालिकों (जो स्थिर नहीं होते और बदलते रहते हैं) पर निर्भर करता है और हमेशा से ऐसा ही रहा है। इससे भी महत्वपूर्ण यह है कि 2023 में मौजूदा अधिनियम में किए गए संशोधन ‘असुरक्षित श्रमिक’ की परिभाषा को सीमित करते हैं, जिससे और भी अधिक भ्रम पैदा होता है। इसके अलावा, मथाडी अधिनियम प्रवासी श्रमिकों के बारे में स्पष्ट जानकारी नहीं प्रदान करता, जिससे उनकी स्थिति और भी असुरक्षित हो जाती है।

पिछले 17 वर्षों से हमाल नाका कार्यकर्ता बृजनाथ* ने बताया कि पिछले कुछ वर्षों में मजदूरी में ज्यादा वृद्धि नहीं हुई है। 2009-10 में, वे प्रतिदिन 300-400 रुपये कमाते थे। एक दशक से भी अधिक समय बाद, उनके वेतन में केवल 100-200 रुपये की मामूली वृद्धि देखी गई है। हालांकि, नाके पर काम दिन-रात लगातार चलता रहता है। बृजनाथ कहते हैं, “अगर कोई ट्रक रात के एक बजे भी आता है तो हमें उसे लोड/अनलोड करने के लिए जाना पड़ता है। कभी-कभी, पुणे, सतारा, बेंगलुरु या अन्य शहरों की यात्रा के लिए श्रमिकों को सुबह पांच बजे अपना दिन शुरू करना पड़ता है और वे रात 8-9 बजे तक ही वापस लौट पाते हैं।”

आराम करते मजदूर_श्रमिक
काम का इंतजार करते हुए आराम करते हमाल श्रमिक। | चित्र साभार: गुफरान खान

पिछले कुछ वर्षों में जहां मजदूरी स्थिर रही है या उसमें गिरावट ही आई है और महंगाई आसमान छू रही है। मुंबई जैसे शहर में रहने की लागत हमाल श्रमिकों के लिए एक बड़ी चुनौती बन चुकी है, जिन्हें कम से कम 8-10 श्रमिकों के साथ एक साझा कमरे में किराए के लिए प्रति व्यक्ति 1,000-1,500 रुपये खर्च करने पड़ते हैं। इसके अलावा, भोजन और अन्य दैनिक खर्चों पर 200-300 रुपये और खर्च होते हैं। जो श्रमिक किराए की गाड़ी करने में असमर्थ होते हैं, उन्हें अक्सर गाला या फैक्ट्री इकाइयों में रहना पड़ता है, जो मालिकों के साथ उनके नेटवर्क के कारण आसान हो जाता है, क्योंकि ये मालिक कुछ मामलों में श्रमिकों के आसपास के गांवों या शहरों से होते हैं। मलिक कहते हैं, “सभी आवश्यक चीजों पर खर्च करने के बाद, हम जो कमाते हैं उसका आधा हिस्सा ही बचता है, जिसे हम घर भेज देते हैं।” *पैंसठ वर्षीय मलिक, जिन्हें इलाके में प्यार से चौरासी कहा जाता है, वह भी उतनी ही मजदूरी कमाते हैं जितनी बृजनाथ कमाते हैं, लेकिन उम्र की वजह से वे महीने में केवल 15 दिन ही काम कर पाते हैं। मलिक बताते हैं कि बाकी दिनों में, वे लोहे की वस्तुओं को लोडिंग और परिवहन करने का सहारा लेते हैं। “छोटे टेम्पो ने हमारे परिवहन कार्य को प्रभावित किया है ।” “आजकल हमें केवल लोडिंग-अनलोडिंग का काम ही मिलता है।”

नाकों पर काम करने वाले श्रमिकों को सार्वजनिक शौचालय और पीने के पानी जैसी बुनियादी सुविधाओं के लिए भी संघर्ष करना पड़ता है। अक्सर, उन्हें पीने का पानी पास के रेस्तरां से प्राप्त करना पड़ता है। साकी नाका के पास कुर्ला (एल-वार्ड) जो सबसे अधिक आबादी वाले नाकों में से एक है, वहां 350 से अधिक श्रमिकों का आना-जाना होता है, लेकिन उनके पास वहां कोई ऐसी जगह नहीं है जहां वे काम की प्रतीक्षा करते समय आराम कर सकें। इसके परिणामस्वरूप, श्रमिकों को आसपास के दुकानदारों के मौखिक दुर्व्यवहार का सामना करना पड़ता है, जो उन्हें दुकानों के पास बैठने या आराम करने से रोकते हैं।

एक साथ बैठे मजदूर_श्रमिक
माल श्रमिक दिनभर काम की तलाश में अपनी गाड़ी पर बैठे रहते हैं। | चित्र साभार: गुफरान खान

हमाल का काम अत्यंत खतरनाक होता है। प्रतिदिन 8 से 12 घंटे तक भारी वस्तुओं को खींचने, धकेलने, उठाने और परिवहन करने से श्रमिकों को विभिन्न प्रकार की हड्डियों और मांसपेशियों से जुड़ी समस्याओं का सामना करना पड़ता है। इस कार्य के दौरान, श्रमिकों को अक्सर मोच आ जाती है और उनके हाथ-पैर कुचल जाते हैं या कट जाते हैं। ऐसी स्थिति में, उन्हें भारी चिकित्सा खर्च का सामना करना पड़ता है, क्योंकि वे इलाज के लिए स्थानीय फार्मेसियों या निजी अस्पतालों में जाते हैं। चूंकि उन्हें चोट लगने पर न तो मुआवजा मिलता है और न ही घायल होने पर दिन की मजदूरी ही मिलती है तो इसलिए वे सरकारी अस्पतालों में जाने से बचते हैं, जहां लंबी कतारें और धीमी सेवाएं होती हैं। ऐसे परिस्थितियां उन्हें अपनी पूरी कमाई गंवाने पर मजबूर कर देती हैं।

ऐसे कठिन काम और रहने की परिस्थितियां हमाल श्रमिकों को गंभीर रूप से हाशिये पर धकेल देती हैं। अनौपचारिक श्रमिकों के सामान्य संघर्षों—जैसे अनियमित नौकरी उपलब्धता, आकस्मिक श्रम के लिए अपरिभाषित मजदूरी, और स्वच्छता, पानी, विश्राम क्षेत्र, आवास, सवैतनिक अवकाश और चिकित्सा सहायता जैसी बुनियादी सुविधाओं की कमी के अलावा, प्रवासी श्रमिकों को अतिरिक्त मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। उन्हें अक्सर उनकी पहचान के आधार पर भेदभाव और विभाजनकारी राजनीति का शिकार होना पड़ता है, जो जमीनी स्तर पर संगठित होना और सामूहिक रूप से काम करना कठिन बना देती है। प्रवासी श्रमिकों के लिए सामूहिक स्थानों पर अपनी आवाज़ उठाना या यूनियनों में नेतृत्व की भूमिका निभाना चुनौतीपूर्ण हो जाता है, जहां अक्सर स्थानीय श्रमिकों का वर्चस्व होता है और भाषाई, क्षेत्रीय या सामाजिक-राजनीतिक जुड़ाव प्रभावित करते हैं। उनके कार्यस्थलों पर सामाजिक सुरक्षा और कल्याण लाभों की कमी उनकी समस्याओं को और बढ़ा देती है। अधिकांश श्रमिक सरकारी पोर्टल जैसे ई-श्रम या आयुष्मान भारत पर अपंजीकृत होते हैं, और उनके पास केवल आधार कार्ड और पैन कार्ड जैसे बुनियादी पहचान दस्तावेज होते हैं।

कई मजदूर _श्रमिक
आजीविका ब्यूरो के मुंबई कार्यालय में कामगार सहायता समिति के सदस्य। | चित्र साभार: गुफरान खान

जमीनी स्तर पर सामूहिकीकरण के अपने प्रयासों से, आजीविका ब्यूरो ने मुंबई में अनौपचारिक श्रमिकों को कामगार सहायता समिति (केएसएस) के तहत एकजुट किया है। यह एक श्रमिक-नेतृत्व वाली संस्था है, जो अनौपचारिक क्षेत्र के श्रमिकों के अधिकारों की रक्षा और वकालत करती है। केएसएस के एक सक्रिय सदस्य बृजनाथ, अन्य हमाल श्रमिकों को अपने अधिकारों के लिए आवाज उठाने और एकजुट होकर काम करने के लिए प्रेरित करते हैं।

कुछ समझाते हुए_श्रमिक
कुर्ला, मुंबई के विनिर्माण क्षेत्र में स्थित एक प्रमुख फ़ैक्टरी इकाई। | चित्र साभार: गुफरान खान

साकी नाका में हमाल का काम पीढ़ियों से चलता आ रहा है। बृजनाथ के पिता, चिमाराम*, ने 42 साल तक उसी नाके पर काम किया, जहां आज उनका बेटा कार्यरत है। एक ऊंचे आवासीय परिसर की ओर इशारा करते हुए, वे बताते हैं, “मैंने इन इमारतों को बनते हुए देखा है और वहां काम भी किया है। इन इमारतों के निर्माण ने हम जैसे कई लोगों को रोजगार दिया। मैंने पास के प्रसिद्ध जैन मंदिर में भी काम किया- मैंने यह सब देखा है।” हालांकि चिमाराम और बृजनाथ जैसे हमाल श्रमिकों ने शहर के निर्माण में अहम भूमिका निभाई है, फिर भी वे हमेशा इसके परिधि पर ही रहकर, बुनियादी जीवन निर्वाह और सम्मान के लिए संघर्ष करते हैं।

*गोपनीयता बनाए रखने के लिए नाम बदले गए हैं।

यह फोटो निबंध मूलरूप से माइग्रेंटस्केप पर प्रकाशित किया गया था।

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क्या अस्थाई आंगनबाड़ी ग्रामीण स्वास्थ्य संकट का कोई हल हो सकती है?

सागर जिले की आंगनबाड़ी_अस्थाई आंगनबाड़ी
सागर से लगभग 30 किलोमीटर दूर बरखुआ तिवारी नाम का एक गांव है जो ऐसी ही विकास से जुड़ी कई चुनौतियों का सामना करता है। | चित्र साभार: सतीश भारतीय

मैं मध्य प्रदेश के सागर जिले का निवासी हूं और सामाजिक न्याय तथा मानवाधिकार के मुद्दों पर स्वतंत्र पत्रकारिता करता हूं। सागर जिला, जो मेरे कार्यक्षेत्र का हिस्सा है, आज भी पिछड़ेपन का सामना कर रहा है। यहां के ग्रामीण क्षेत्रों में संसाधनों की कमी, सूखा, पलायन और स्वास्थ्य संबंधित कई समस्याएं गहराई तक फैली हुई हैं।

सागर से लगभग 30 किलोमीटर दूर बरखुआ तिवारी नाम का एक गांव है जो ऐसी ही विकास से जुड़ी कई चुनौतियों का सामना करता है। यहां ज्यादातर घर कच्चे मिट्टी के बने हैं, गांव में पक्की सड़कें नहीं हैं और इलाका अभी भी खुले में शौच से मुक्त नहीं है। लगभग 400 की आबादी वाले इस गांव में सबसे बड़ी समस्या कच्ची और अस्थाई आंगनबाड़ी की है। आंगनबाड़ी बच्चों के पोषण और महिलाओं की स्वास्थ्य सेवाओं का एक महत्वपूर्ण केंद्र होती है, लेकिन यहां अस्थाई आंगनबाड़ी के कारण गर्भवती महिलाएं, छोटे बच्चे और यहां तक कि कार्यकर्ता भी लगातार कई समस्याओं का सामना कर रहे हैं।

लीलावती आदिवासी यहां की आंगनबाड़ी कार्यकर्ता हैं जो साल 2009 से इस केंद्र का संचालन कर रही हैं। वे बताती हैं कि बरसात के मौसम में छप्पर से पानी टपकने लगता है जिससे आंगनबाड़ी का सामान गीला हो जाता है। जगह की कमी के कारण बच्चों को केंद्र में बैठाने में दिक्कत होती है और कई बच्चे बीच में ही घर वापस चले जाते हैं। लीलावती कहती हैं कि ऐसे में उन्हें बच्चों के भोजन की व्यवस्था अपने घर पर करनी पड़ती है जिससे उनके स्वास्थ्य और पोषण पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।

गांव की आशा कार्यकर्ता नीलम पटेल का अनुभव भी ऐसा ही है। वे बताती हैं कि आंगनबाड़ी केंद्र गांव के एक से दूसरे घर में स्थानांतरित होता रहता है। गांव में ज्यादातर लोगों के पास छोटे और कच्चे घर हैं, इसलिए कोई भी लंबे समय तक आंगनबाड़ी के लिए जगह देने को तैयार नहीं होता है। इस कारण महिलाओं के टीकाकरण और अन्य स्वास्थ्य सेवाओं के लिए नीलम को अपने घर पर व्यवस्था करनी पड़ती है। गर्भवती महिलाओं की जांच के लिए सुरखी या सागर के जिला अस्पताल जाना पड़ता है और वहां तक पहुंचने के लिए कोई परिवहन सुविधा उपलब्ध नहीं है। आंगनबाड़ी की इस स्थिति को लेकर कई बार पंचायत, प्रशासन और नेताओं तक बात पहुंचाई गई है। डॉक्टरों और कार्यकर्ताओं ने भी पक्की आंगनबाड़ी की मांग करते हुए कई पत्र लिखे हैं, लेकिन अब तक कोई समाधान नहीं निकला है।

इस गांव की स्थिति यह न केवल प्रशासन की उपेक्षा को दिखाती है बल्कि यह भी बताती है कि बच्चों और महिलाओं के स्वास्थ्य के अधिकारों के साथ, किस तरह उनके जीवन जीने के मौलिक अधिकार का भी हनन हो रहा है। ग्रामीण क्षेत्रों में बुनियादी सुविधाओं की कमी, विकास के दावों पर गंभीर सवाल उठाती है। यह एक बड़ा सवाल है कि कब तक ऐसे गांव विकास की मुख्यधारा से वंचित रहेंगे?

सतीश भारतीय एक स्वतंत्र पत्रकार है और वे सामाजिक न्याय और मानवाधिकार के मुद्दों पर लिखते हैं।

अधिक जानें: आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं पर पोषण की एक और जिम्मेदारी कैसे है?

अधिक करें: लेखक के काम के बारे में अधिक जानने और उसका समर्थन करने के लिए [email protected] पर उनसे जुड़ें।

कक्षाओं से निकलकर पर्यावरण शिक्षा हासिल करते तमिलनाडु के बच्चे

दूरबीन से देखते बच्चे_पर्यावरण शिक्षा
हमारे सत्र में बच्चों को एक्टिविटी शीट्स दी गईं जिन पर वे पत्तियों के आकार और प्रकार पहचानने के लिए बिंगो खेल सकते थे। | चित्र साभार: अरि प्रसाथ, केयर अर्थ ट्रस्ट

मैं चेन्नई में जैव विविधता संरक्षण पर काम करने वाले केयर अर्थ ट्रस्ट के साथ वरिष्ठ शोधकर्ता के तौर पर काम करती हूं। मेरे काम का एक हिस्सा तमिलनाडु के अलग-अलग जिलों के बच्चों और युवाओं को पारिस्थितिकी और पर्यावरण शिक्षा में शामिल करना है। मैंने अपनी टीम के साथ शहरी, कस्बाई और ग्रामीण क्षेत्रों के अलग-अलग आयु-वर्ग और पृष्ठभूमि के बच्चों के साथ प्रकृति भ्रमण और पर्यारवरण शिक्षा के कई सत्र आयोजित किए हैं। इसमें मुझे सबसे अलग बात यह देखने को मिली कि अलग-अलग समूह पर्यावरण को कैसे अलग-अलग नज़रिए से देखता और समझता है।

पर्यावरण के बारे में यह अंतर तब महसूस हुआ जब हम एक निजी स्कूल के बच्चों के साथ पल्लिकरनई आर्द्रभूमि (वेटलैंड) में प्रकृति भ्रमण पर गए। हालांकि ये बच्चे रोजाना इस क्षेत्र से गुजरते थे लेकिन जब हमने उनसे इसके बारे में पूछा तो ज्यादातर बच्चों का कहना था कि वे पहली बार इसके बारे में सुन रहे हैं। रोचक बात यह थी कि ये छात्र दुनिया भर के पर्यावरणीय मुद्दों पर अच्छे से बात कर सकते थे और सवाना और प्रेरी जैसे पारिस्थितिकी क्षेत्रों के नाम भी जानते थे। लेकिन स्थानीय पर्यावरण के बारे में उनका ज्ञान कम था। पेड़ पहचानने की एक गतिविधि के दौरान एक छात्र नारियल के पेड़ तक को पहचान नहीं सका था।

तिरुनेलवेली जिले के एक छोटे सरकारी स्कूल के बच्चों के साथ हमारा अनुभव पूरी तरह से अलग था। थामिराबरानी नदी के पास सुत्थमल्लि चेक डेम पर ‘वर्ल्ड रिवर्स डे’ कार्यक्रम के दौरान, 9-10 साल के बच्चों ने अपने आसपास के पर्यावरण के बारे में बहुत अच्छा ज्ञान दिखाया। हमारे सत्र में बच्चों को एक्टिविटी शीट्स दी गईं जिन पर वे पत्तियों के आकार और प्रकार पहचानने के लिए बिंगो खेल सकते थे। हमने उन्हें चेक डेम्स के पानी के बारे में भी समझाया।

जब हम वहां पहुंचे तो बच्चों ने खुद ही बिंगो शीट पर दिए गए सभी पेड़ों की पहचान कर ली थी। उन्होंने आत्मविश्वास से कहा, “हम रोज नदी में नहाते हैं, इसलिए हमें पता है कि यहां कौन से पेड़ उगते हैं।” इन बच्चों का अपने आसपास के पेड़ों, नदी और गांवों के बारे में ज्ञान, उन शहरी बच्चों के मुकाबले बहुत अलग था जो अपने प्राकृतिक वातावरण से काफी हद तक अनजान होते हैं।

यह फर्क तब भी दिखा जब हमने चेन्नई के एक निजी स्कूल में कक्षा 6-8 के छात्रों के साथ शहरी जैव विविधता पर एक सत्र किया। सत्र से पहले, हमने छात्रों से पूछा कि जब वे ‘जंगल’ और ‘शहर’ के बारे में सोचते हैं तो उनका पहला शब्द क्या होता है। जंगल के लिए सभी ने ‘हरा’, ‘पेड़’, और ‘जानवर’ लिखा। वहीं, शहर के लिए 30 में से 22 छात्रों ने ‘इमारतें’ लिखा जबकि बाकियों ने शहरों को ‘सड़कें’, ‘प्रदूषित’, ‘भूरा’ और ‘भीड़भाड़ वाला’ बताया।

यह इस बात को दिखाता है कि बच्चे शहरी जैव विविधता को कैसे देखते हैं और समझते हैं। कई बार ट्रैकिंग और बर्डवॉचिंग जैसी गतिविधियों को सिर्फ दूर-दराज के जंगलों से जोड़ा जाता है। इससे यह लगता है कि प्रकृति से जुड़ने के लिए यात्रा करना जरूरी है। स्कूलों में जहां नवीकरणीय ऊर्जा जैसे बड़े विषयों पर जोर दिया जाता है, बच्चों को अपने आस-पास के पर्यावरण से भी जोड़ने के लिए मौके मिलने चाहिए। आर्द्रभूमि, पार्क और अन्य शहरी पारिस्थितिकी तंत्र बच्चों को अपने आसपास के नीले-हरे स्थानों से परिचित करवाने के अच्छे तरीके हो सकते हैं। शहरी इलाकों में बड़े हो रहे बच्चों को अपनी स्थानीय पारिस्थितिकी के बारे में जानने के लिए ज्यादा मौके मिलने चाहिए।

अंजना वेंकटेशन केयर अर्थ ट्रस्ट में नीति अनुसंधान की कार्यक्रम प्रमुख हैं।

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अधिक जानें: यहां पर्यावरण प्रदूषण के सबक बच्चों से सीखिए।

नया साल, नया संकल्प! लेकिन दफ्तर वही पुराना?

1

संकल्प: मैं इस साल अतिरिक्त काम को ‘ना’ कहना सीखूंगा और अपने कामकाजी जीवन में संतुलन बनाए रखूंगा।

वास्तविकता: अगले ही दिन जब कोई मदद के नाम पर आखिरी मिनट नया काम ले आए:

2

संकल्प: इस साल हर दिन ‘टू-डू’ लिस्ट बनाऊंगी और दिन को बेहतर तरीक़े से मैनेज करुंगी।

वास्तविकता: टू-डू लिस्ट तो बना ली लेकिन आख़िर में उसे देखना ही भूल गई:

3

संकल्प: इस साल सभी रिपोर्ट्स और प्रोजेक्ट समय पर भेजेंगे।

वास्तविकता: डेडलाइन की चिंता छोड़ लंच टाइम में अपने पसंदीदा शो का एक और एपिसोड देखते हुए:

4

संकल्प: मीटिंग के दौरान अपने आइडियाज़ शेयर करने से बिलकुल नहीं हिचकिचाएंगे।

वास्तविकता: खुद को अनम्यूट करने से पहले सौ बार सोचने के बाद टीम के सामने आइडिया रखते हुए:


5

संकल्प: इस साल, मैं हर ट्रेनिंग सत्र और वर्कशॉप में हिस्सा लूंगा और नेटवर्किंग करूंगा।

वास्तविकता: दो वर्कशॉप लगातार अटेंड करने और लोगों से बात करने के बाद:

6

संकल्प:  इस साल अपनी सभी रिपोर्ट्स समय पर सबमिट करनी हैं।

वास्तविकता: हर आधे घंटे में एक चाय मिल जाए तो मजा आता है, बाकी रिपोर्ट का काम तो चलता रहता है।

7

संकल्प: इस साल हर ग्रांट और डोनेशन को उसी समय (रियल-टाइम) में ट्रैक करेंगे!

वास्तविकता: महीने के अंत में इधर-उधर पड़ी रसीदों को एक फोल्डर में जमा करते और अपने नए साल के संकल्पों को निभाते हुए:

मध्य प्रदेश के आदिवासी, जंगलों की आग रोकने के लिए परंपराएं तक छोड़ रहे हैं

मध्य प्रदेश में, क्षेत्रफल के लिहाज से भारत का सबसे बड़ा जंगल फैला हुआ है। इसी राज्य में सबसे अधिक अनुसूचित जनजाति आबादी निवास करती हैं। यहां के वन क्षेत्रों में विविध आदिवासी समुदाय रहते हैं, जिनमें गोंड, बैगा और कोरकू प्रमुख हैं। आदिवासी सहकारी विपणन विकास फेडरेशन ऑफ इंडिया (ट्राइफेड) के अनुसार मप्र, ओडिशा और आंध्र प्रदेश में करीब 75 प्रतिशत से ज्यादा आदिवासी आबादी आजीविका के लिए वनोपज पर निर्भर है।

परासी गांव की सुंदी बैगा (45) कहती हैं कि “केवल साल 2021 ही ऐसा हुआ था कि मैं अपने परिवार के साथ जंगल से महुआ के फूलों का संग्रहण नहीं कर पाई थी, बाकी ऐसा कोई साल याद नहीं है, जब मैंने लघु वन उपज का संग्रहण नहीं किया होगा।” सुंदी, साल 2021 के मार्च माह में बांधवगढ़ के जंगल में लगी आग की घटना को याद करते हुए सिहर जाती हैं। उनके मुताबिक मार्च के अंतिम सप्ताह में लगी यह आग पांच दिन तक जंगल में सुलगती रही थी। इस आग की वजह से उस साल काफी नुकसान उठाना पड़ा था।

सुंदी जैसे हजारों वनवासी जो मध्य प्रदेश के जंगलों के समीप निवास करते हैं। उनके लिए साल के शुरूआती छह माह किसी त्यौहार से कम नहीं होते हैं क्योंकि इस समय वे जंगलों से महुआ, तेंदूपत्ता के साथ अन्य गैर-लकड़ी वन उत्पादों (एनटीएफपी) जैसे आंवला, साज, करवा चिराग, बीज, सफेद मूसली, अशोक छाल, सेमल, कपास और शहद आदि का संग्रहण करते हैं। ये वनोपज ही उनकी आमदनी का साधन हैं। सुंदी का परासी गांव, राज्य के उमरिया जिले के मानपुर ब्लॉक में आता है, जो बांधवगढ़ टाइगर रिजर्व के बेहद करीब है। उनके गांव से करीब 30 किलोमीटर दूर उमरिया बाजार में एक किलो सूखा महुआ बेचने पर 40 से 45 रूपये की कमाई सुंदी को होती है। लेकिन पिछले कुछ सालों से जंगलों में बढ़ती आग के कारण सुंदी जैसे आदिवासियों की आजीविका प्रभावित हो रही है और वे चिंतित नजर आ रहे हैं।

भारतीय वन स्थिति रिपोर्ट 2021 के मुताबिक देश के जंगलों में आग लगने की सबसे अधिक घटनाएं ओडिशा में 51,968 दर्ज की गई हैं। उसके बाद दूसरे नंबर पर मध्य प्रदेश में 47,795 और तीसरे पर छत्तीसगढ़ में 38,106 घटनाएं दर्ज की गई हैं। एक अन्य रिपोर्ट के अनुसार जंगलों में बढ़ती आग की घटनाओं से वनवासियों को आजीविका, भोजन, दवा के साथ आर्थिक गतिविधियों के लिए कच्चे माल की सुरक्षा की चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। इसके अलावा रोजगार के अवसरों के खत्म होने से वे जीविका के लिए बाहरी स्रोतों पर निर्भर होने के लिए मजबूर हो जाते हैं। 

मध्य प्रदेश के आदिवासी_जंगल की आग
आग लगने के कारणों में आदिवासी परंपराएं एक बड़ी वजह बनती दिखी हैं। | चित्र साभार: सनव्वर शफी

जंगलों में आग लगने के कारण क्या हैं?

भारत सरकार द्वारा साल 2018 में शुरू की गई वन अग्नि निवारण एवं प्रबंधन योजना के तहत आग के कारणों का पता लगने और रोकथाम के उपायों के लिए एक अध्ययन किया गया था। अध्ययन की रिपोर्ट में आग लगने कारण प्राकृतिक और मानव-जनित दोनों बताए गए हैं। इस रिपोर्ट के आधार पर ही भारत सरकार ने साल 2019 में आग को आपदा माना और मध्य प्रदेश के 22 जिलों सहित पूरे देश के वन क्षेत्रों में आग की संवेदनशीलता के आधार पर 150 जिले चिन्हित किए। 

कई इलाकों में आग लगने के कारणों में आदिवासी परंपराएं एक बड़ी वजह बनती दिखी हैं। आदिवासी कई बार सहजता से वनोपज इकट्ठा करने के लिए तो कई बार पारंपरिक कारणों जैसे इच्छा पूरी करने या संतान प्राप्ति की मनौती मांगने के लिए जंगल में छोटी-छोटी आग लगा देते थे।

कूनो नेशनल पार्क, डीएफओ थिराकुल आर बताते हैं कि “नेशनल पार्क के आसपास बसे आदिवासियों की मान्यता है कि जंगल में आग लगाने से बिगड़े हुए काम हो जाते हैं।” यही बात बांधवगढ़ टाइगर रिजर्व के फील्ड डायरेक्ट पीके वर्मा  भी दोहराते हैं और कहते हैं कि “यह आग कई बार विकराल रूप ले लेती है और कई दिनों तक चलती है।” सरकारी अधिकारी कहते हैं कि इसे लेकर ग्राम पंचायत से लेकर वन विभाग तक के स्तर पर प्रयास किए जा रहे हैं ताकि कम से कम मानव जनित आग दुर्घटनाओं को रोका जा सके। समुदायों के बीच जन-जागरुकता अभियान, विभिन्न प्रतियोगिताओं और खेल-कूद जैसे तरीक़ों का सहारा लेकर जागरुकता पहुंचाई  जा रही है।

आदिवासी जंगल को बचाने के लिए अपनी परंपरा छोड़ रहे हैं

बांधवगढ़ नेशनल पार्क के समीप बसे कराहल ब्लॉक के सेसईपुरा, टिकटौली गांव के रामेश्वर गुर्जर बताते हैं कि “वन विभाग के अधिकारियों ने ग्राम सभा में बताया था कि इस मान्यता से वन और वन्यजीवों के साथ ही हमें कितना नुकसान हो रहा है, तब से हमने इस मान्यता पर रोक लगा दी और हमारे गांव के साथ आसपास के गांववासियों ने भी इस मान्यता का पालन करना छोड़ दिया है।” गुर्जर, आगे कहते हैं कि जिन मान्यताओं की वजह से हम जंगलों को जाने-अनजाने में नुकसान पहुंचा रहे थे, उन परंपराओं और प्रथाओं पर रोक लगाने के साथ ही युवा पीढ़ी को इन प्रथाओं से दूर रख रहे हैं।

मानपुर ब्लॉक में पड़ने वाले चिल्हरी गांव के राममिलन बैगा कहते हैं कि मैं हर साल करीब 4.5 से 5 क्विंटल तक महुआ इकट्ठा करता हूं, लेकिन साल 2021 मैं बमुश्किल से 1.5 से 2 क्विंटल ही इकट्ठा कर पाया था। 2021 में लगी आग से करीब पांच सौ हेक्टेयर जंगल तबाह हो गया था। राममिलन के घर के बाहर बने ओटले पर बैठे, तुक्काराम बैगा बताते हैं कि “हम भोर से पहले ही जंगल में महुआ के फूल बीनने के लिए घर से निकल जाते हैं और ज्यादा महुआ के फूल बीन पाने की लालच में पेड़ों के नीचे सफाई करने के उद्देश्य से आग लगा देते थे, लेकिन अब ऐसा करना छोड़ दिया है।” 

उनकी बात का समर्थन करते हुए उनकी पत्नी मूंगी बाई कहती हैं कि “हमारे लिए जंगल ही सब कुछ हैं, जंगल खत्म तो हमारा अस्तित्व भी खत्म हो जाएगा। इस वजह से ही हमने कई परंपराओं और प्रथाओं को पीछे छोड़ दिया है। जैसे महुआ के फूल बीनने के लिए, शहद एकत्र करने के लिए और संतान प्राप्ति आदि के लिए जंगलों में आग लगाने की प्रथाएं थी, जिनकी वजह से हम जाने-अनजाने में जंगल को नुकसान पहुंचा रहे थे, क्योंकि यह वनों में लगाई जाने वाली छोटी-छोटी आग अधिकतर बड़ी आग में तब्दील हो जाती थी, जब से यह बात पता चली है, पूरे गांववासियों ने इन प्रथाओं का पालन करना पूरी से तरह बंद कर दिया है।”

बैतूल जिले के दक्षिण वन क्षेत्र में बसे परसापानी गांव के किशोर मोरे कहते हैं कि “गांववासी शिकारी जानवरों को भगाने, शहद के लिए मधुमक्खियों को भगाने, खेतों की नरवाई जलाने, तेंदुपत्ता और नई घास की आवक के लिए आग लगाते थे, जो हवा के जरिए जंगलों तक पहुंच कर विकराल हो जाती थी”। वे आगे कहते हैं कि “हम जून माह में शहद निकालने और मधुमक्खियों से बचने के लिए आग लगाते थे, लेकिन अब ऐसा नहीं करते हैं। वन विभाग से मिली हनी किट (इस किट में सीढ़ी, हेलमेट, दस्‍ताने, कपड़े, चाकू, बाल्‍टी और रस्सी शामिल हैं) की मदद से शहद निकालते हैं।” कुल मिलाकर, आदिवासियों और वन विभाग के साझा प्रयास स्थिति को बदल रहे हैं।

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साल 2024 में हमने जो किताबें पढ़ीं, वे आपको भी क्यों पढ़नी चाहिए?

किसी भी काम को करने की आधारभूत जरूरतों में यह बात शामिल है कि समय के साथ अपने काम को लगातार बेहतर बनाते रहा जाए। दूसरे शब्दों में कहें तो लगातार कुछ सीखते रहा जाए। और, सीखने के लिए किताबों से बेहतर और सहज, कोई और जरिया शायद ही कोई हो सकता है। इसीलिए साल के इस आखिरी आलेख में आईडीआर आपसे कुछ उन चुनिंदा किताबों पर बात करने जा रहा है जिन्हें हमारी टीम के सदस्यों ने पढ़ा और उनसे कुछ सीखा है। अब चूंकि आईडीआर पर हमारी हर बातचीत विकास सेक्टर के इर्द-गिर्द ही घूमती है इसलिए हमने यह कोशिश की है कि हम आपको वही किताबें सुझाएं जो इस सेक्टर में काम करते हुए आपके लिए उपयोगी साबित हो सकें। लेकिन, इसके साथ हम यह भी जोड़ना चाहेंगे कि इन किताबों को कोई भी पढ़ सकता है क्योंकि ये सेक्टर के साथ-साथ जीवन के बारे में भी बताती हैं।

आईडीआर द्वारा सुझाई जा रही ये किताबें विकास सेक्टर के अलग-अलग हिस्सों को ध्यान में रखकर चुनी गई हैं। इसमें एक जापानी संस्मरण है जो शिक्षा पर बात करता है तो एक आत्मकथा है जो जातिप्रथा का सच दिखाती है। साथ ही, एक यात्रा वृतांत रखा गया है जो गर्मजोशी से आपको उत्तर-पूर्व के भारत से मिलवाता है। इसके अलावा, दो कथेतर किताबें हैं जो दो पानी और प्रवास जैसे दो गंभीर विषयों पर बात करती हैं। इन्हें पढ़ते हुए हमारा उद्देश्य यह था कि हम इनसे कुछ सीख सकें। और, इनके बारे में लिखते हुए, हमने यह लक्ष्य रखा कि आपको बता सकें कि वह क्या है जो हम या आप इन किताबों से सीख-समझ सकते हैं। 

किताबों की यह सूची और उनसे जुड़ी टिप्पणियां, कुछ इस तरह हैं:

जूठन (खंडएक), लेखक: ओम प्रकाश वाल्मीकि

जूठन— किताब

आज जातिवाद मुख्यधारा से बाहर का विषय बन चुका है। देश का विशेषाधिकार प्राप्त तबका शायद यह मान चुका है कि जातिवाद अब ख़त्म हो चुका है। हालांकि इससे जूझ रहे लोगों के लिए यह आज भी दुर्दांत सच्चाई है लेकिन उन्हें इससे निकलने का रास्ता शायद ही दिख रहा है। ऐसे में, दोनों ही तरह के लोगों के लिए, ओमप्रकाश वाल्मीकि की आत्मकथा ‘जूठन’ को पढ़ना ज़रूरी हो जाता है। 

ओम प्रकाश वाल्मीकि ने किताब के इस खंड में अपने बचपन (जन्म 1950) से लेकर 35 वर्ष (सन 1985) तक की घटनाएं दर्ज की हैं। दुखद ये है कि ये आज भी उतनी ही प्रासंगिक हैं। ‘चूहड़ा’ जाति से आने वाले वाल्मीकि ने ‘जूठन’ शब्द के अलग अर्थ को सामने रखा है। भारत में दलितों को सदियों तक जूठन यानी थाली में छोड़ दिए गए भोजन को स्वीकार करने और खाने के लिए मजबूर किया गया। इस शब्द के बहाने, भारत की सामाजिक व्यवस्था में हाशिये पर रह गए समुदाय की पीड़ा, अपमान और संघर्ष को व्यक्त किया गया है। किताब सभी बारीकियों के साथ बताती कि दलितों को किस तरह के भेदभाव या शारीरिक और मानसिक उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है। और, कैसे प्रतिरोध करने पर यह हिंसा और बढ़ जाती है। किताब इस बात का भी जिक्र करती है कि एक समय आज़ाद भारत में दलितों को शिक्षा के अधिकार से भी वंचित रखने के प्रयास भी किए जा रहे थे। 

जूठन को हिंदी साहित्य में पहली दलित आत्मकथा माना जाता है। ओमप्रकाश वाल्मीकि अपने काम के माध्यम से दलित जीवन, अनुभवों, संघर्षों पहचानने में मदद करते हैं। किताब को पढ़ते हुए यह आप तक पहुंचता भी है। उनका काम जातिगत उत्पीड़न के यथार्थवादी चित्रण के कारण विशिष्ट है। लेकिन इंटरनेट पर थोड़ा घूमेंगे तो आप पाएंगे कि वे देश के मुख्यधारा के साहित्य में जगह बनाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। 

विकास सेक्टर में काम कर रहे लोगों के लिए जाति और उससे जुड़े संघर्षों पर अपनी समझ विकसित करने और उसे बेहतर रूप से समझने के लिहाज से यह एक जरूरी किताब है। इसे पढ़ने के बाद, जब जमीन पर आप ऐसे किसी समुदाय या व्यक्ति से मिलेंगे तो अधिक संवेदनशील और समावेशी समझ के साथ मिलेंगे।

वह भी कोई देस है महराज, लेखक: अनिल यादव 

वह भी कोई देश है महाराज— किताब

‘वह भी कोई देस है महराज’ एक यात्रा वृतांत है जो पूर्वोत्तर राज्यों से आपका परिचय करवाता है। इसके लेखक अनिल यादव, पेशे से पत्रकार हैं जिन्होंने उग्रवाद और आदिवासी जीवन के अध्ययन के लिए उत्तर-पूर्व समेत देश के अनेक हिस्सों की यात्रायें की हैं। लेखक ने वर्ष 2000 में छह महीनों तक पूर्वोत्तर राज्यों में भ्रमण किया और वहां उन्होंने जो देखा-समझा , वह किताब की शक्ल में साल 2012 में सामने आया।

यह किताब पूर्वोत्तर राज्यों के इतिहास, ख़ासतौर पर उन पर हुए हमलों और वर्तमान में उसके अलग-थलग पड़ जाने की वजहों पर बात करती है। किताब को पढ़ते हुए आपको समझ आता है कि पूर्वोत्तर राज्यों की दिल्ली से नाराजगी क्यों है और क्यों इस राजनीतिक असंतोष से निपट पाना बहुत जटिल है।  

किताब में पूर्वोत्तर राज्यों के आम लोगों, राजनीतिज्ञों और यहां तक कि अधिकारियों की सादगी, उनके आतिथ्य सत्कार के बारे में तो बात की गई है। वहीं, दूसरी तरफ युवाओं में बेरोजगारी, नशाखोरी, भुखमरी के कारण वैश्यावृति में उतरी महिलाओं की स्थिति का भी जिक्र है। यहां तक कि लेखक ने इलाके में होने वाली फर्जी मुठभेड़ों, आत्मसमर्पण, वसूली और तमाम तरह के गैर कानूनी धंधों पर बात करने से भी परहेज नहीं किया है। यह सब इन राज्यों की प्राकृतिक सुंदरता तक सीमित रहने वाली रूमानी चर्चाओं में इंसानी वास्तविकता को सामने लाने वाले तथ्य भी जोड़ देता है।

किताब को पढ़कर आप पूर्वोत्तर राज्यों के राजनीतिक संकट, विकास में आने वाली बाधाओं और सामाजिक ताने-बाने को समझ पाते हैं। विकास सेक्टर के लिहाज से देखें तो यह किताब आपको साफ शब्दों में बताती है कि यहां जाकर काम करने के लिए आपको इलाके के भूगोल को समझने से भी सबसे पहले समुदाय को समझना होगा, उनका भरोसा जीतना होगा।

काश मुझे किसी ने बताया होता, लेखक: कमला भसीन 

काश किसी ने बताया होता— किताब

महज 30 पन्नों की यह किताब, छोटी सी लड़की के अनुभवों के चलते बनी एक औरत की समझ और संवेदनाओं पर बात करती है। यह एक सरल, गहरी और व्यवहारिक किताब होने के साथ-साथ सामाजिक संदर्भों से जुड़ाव (रिलेटेबल होने) के चलते भी पाठक को प्रभावित करती है। किताब बहुत सहजता और स्पष्टता से बात करती है कि यौन शिक्षा कैसी होनी चाहिए। इसे पढ़ते हुए हम समझ पाते हैं कि यौन शिक्षा और लैंगिक पहचान के बारे में बच्चों और उनके माता-पिता (या देखभाल करने वालों) के बीच एक खुले संवाद की जरूरत क्यों और कितनी है। 

किताब की एक खासियत यह भी है कि यह रिश्तों की बारीकियों को समझते हुए, एक व्यक्तित्व के बारे में बताती है और उसके बहाने मुद्दे की बात करती है। व्यक्तिगत अनुभव साझा करने से अपने पाठक के साथ अलग रिश्ता बना पाती है। इसे पढ़ते हुए यह बात सबसे ज्यादा दिमाग बैठती है कि बच्चों के नजरिए को अहमियत देना कितना जरूरी है। बच्चे कैसे अच्छे और बुरे लोगों का आकलन करते हैं। अगर अच्छे लोग (जो परिवार के भी करीबी हैं) बुरे बनते जाते हैं तो बच्चों पर इस विश्वासघात का क्या असर पड़ता है। किताब सुझाती है कि बड़ों को ऐसा वातावरण बनाने की ज़रूरत होती है जिसमें बच्चे अपनी बात बेझिझक रख पाएं।

विकास सेक्टर के लिहाज से देखें तो लैंगिक विषयों पर काम करने वाले लोग या वे लोग जो बच्चों, शिक्षकों या माता-पिता के साथ काम करते हैं, इस किताब को पढ़ सकते हैं। इन विकास कार्यकर्ताओं का उद्देश्य आमतौर पर यह होता है कि पहले वे खुद समझें कि यौन शिक्षा क्यों जरूरी, यौन शिक्षा पर बात करते हुए क्या बताना चाहिए और इससे कैसे बच्चों को यौन अपराधों से बचाया जा सकता है, यह किताब इन तमाम बातों के जवाब देती है। ऑनलाइन उपलब्ध इस किताब को यहां पढ़ा जा सकता है।

कुली लाइन्स, लेखक: प्रवीण कुमार झा

कुली लाइंस— किताब

लेखक और व्यंग्यकार प्रवीण कुमार झा की साल 2017 में आई किताब ‘कुली लाइन्स’ प्रवासी भारतीय मजदूरों के जीवन पर केंद्रित है। यह उन लोगों की कहानी है जिन्हें 19वीं और 20वीं सदी में ब्रिटिश उपनिवेशों में ले जाया गया था। इन्हें गिरमिटिया मजदूर कहा जाता है जो एग्रीमेंट शब्द के अपभ्रंश से बना है। किताब बात करती है कि कैसे भारतीय प्रवासी श्रमिकों ने अस्तित्व को बनाए रखने के लिए संघर्ष किया और ऐसा करते हुए किस तरह उन्होंने अपनी सांस्कृतिक पहचान को भी बचाए रखा। किताब इस बात का भी जिक्र करती है कि शिक्षा, कौशल विकास और सही अवसर समाज के सबसे कमजोर तबके को सशक्त बनाने में कितने मददगार साबित हो सकते हैं। यह किताब मानवाधिकार, शोषण, शिक्षा, और सामाजिक समावेशन जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों को उजागर करती है, जो विकास कार्यों के लिए जरूरी हैं।

विकास क्षेत्र में काम करने वाले पेशेवरों को अक्सर सामाजिक न्याय, मानवाधिकार और श्रमिक अधिकारों से संबंधित विषयों पर काम करना होता है। ‘कुली लाइन्स’ में जिस तरह के ऐतिहासिक शोषण की बात की गई है, वह आज भी कई विकासशील देशों में श्रमिकों के साथ होने वाले मामलों से मेल खाता है। उदाहरण के लिए, गिरमिटिया मजदूरों के साथ जो अन्याय हुआ, वह आज भी कम वेतन, शारीरिक शोषण और मुश्किल हालात में काम करने वालों के लिए प्रासंगिक हो सकता है। ऐसे ऐतिहासिक अनुभवों को समझना समुदाय के प्रति संवेदनशीलता को बढ़ा सकता है और उन्हें बेहतर सहायता देने में मदद कर सकता है। किताब दोबारा यह याद दिलाती है कि आर्थिक शोषण ने समाज को विभाजित किया और आज भी वही असमानताएं विभिन्न हिस्सों में मौजूद हैं। विकास क्षेत्र में काम करने वाले लोग इससे महत्वपूर्ण सबक ले सकते हैं कि किस प्रकार नीति निर्माण और कार्यक्रमों के माध्यम से असमानताओं को कम किया जा सकता है।

आज भी खरे हैं तालाब, लेखक: अनुपम मिश्र

आज भी कितने खरे हैं तालाब— किताब

‘आज भी खरे हैं तालाब’ प्रसिद्ध पर्यावरणविद अनुपम मिश्र की लिखी किताब है जो साल 1993 में प्रकाशित हुई थी। जीवन की बुनियादी जरूरतों में से एक ‘पानी’ का सदियों से संचय करते आए तालाबों का इतिहास, पारंपरिक ज्ञान और उनका सांस्कृतिक-सामाजिक जुड़ाव किताब के केंद्रीय विषय हैं। सरकारी पानी पर निर्भर होने से पहले तालाबों के इंसानी जीवन में महत्व पर यह किताब मुख्य रूप से बात करती है। यह आज भी इसलिए प्रासंगिक है क्योंकि देश के कई हिस्से सरकारी पाइप-लाइनों के बावजूद पानी की गंभीर कमी का सामना कर रहे हैं। तालाब के बारे में जो भी सवाल दिमाग में आते हैं, भारतीय संदर्भ में यह किताब उन सभी के जवाब बखूबी देती है।    

किताब के नौ अध्याय, तालाबों के तकनीकी पहलुओं – इनकी संरचना, इनमें पानी कैसे आता है, इनके विभिन्न हिस्सों को क्या कहा जाता है – से शुरू कर इंसानी जीवन पर इनके असर तक की कहानी बताते हैं। ये बताते हैं कि तालाबों के नाम कैसे रखे गए और कैसे उनके नाम पर जगहों के नाम रख दिए गए। कैसे उनसे कहावतें-मुहावरे बने, कैसे उनके घटने-बढ़ने के इर्द-गिर्द त्यौहार बने, और कैसे सामाजिक न्याय व्यवस्था में भी उनकी अहम भूमिका रही है। किताब की आसान भाषा पाठकों के लिए विषय को समझना आसान बनाती है। कहानी कहने वाला अंदाज इसकी एक खासियत है, लेकिन यह विषय की गंभीरता को हल्का नहीं बनाता है। 

भारत के विस्तृत भूभाग में पारंपरिक रूप से पानी का प्राथमिक स्रोत रहे तालाबों के इन तमाम पहलुओं को एक किताब में समेट पाना, एक विस्तृत और नियोजित रिसर्च से ही संभव हुआ होगा। जलवायु परिवर्तन के नजरिए से भी देखें तो जिन पारंपरिक तरीकों की अनदेखी और तेजी से बढ़ते मशीनीकरण और औद्योगीकरण को इसके लिए जिम्मेदार माना जाता है, उन पर भी यह किताब बात करती है। एक सामाजिक कार्यकर्ता के साथ-साथ यह किताब किसी के भी लिए पानी के मुद्दे को समझने के लिए एक अच्छा स्रोत है। तकनीक और मशीनों पर निर्भर आज के समाज से पहले भारत में पानी के प्रबंधन की व्यवस्था कैसी थी यह इस किताब के जरिये समझा जा सकता है। किताब से मिलने वाली जानकारी, पानी के मुद्दे से जुड़ी चर्चाओं को समझने और उनमें हिस्सा लेने में लिए जरूरी प्रसंग जोड़ने में भी सहायक है। यह किताब कॉपीराइट फ्री है और इसे यहां पढ़ा जा सकता है।   

तोत्तो चान: द लिटिल गर्ल एट द विंडो, लेखक: तेत्सुको कुरोयानागी

तोतो चान— किताब

किताब ‘तोत्तो-चान: द लिटिल गर्ल एट द विंडो’, सात साल की एक छोटी सी बच्ची तोतो चान की कहानी कहती है। तोत्तो चान को उसके शरारती स्वभाव के कारण उसके पहले स्कूल से निकाल दिया जाता है। फिर वह एक ऐसे असाधारण स्कूल में पहुंचती है जहां कक्षाएं ट्रेन के डब्बों में लगती हैं, जब जिस विषय का मन करे पढ़ाई की जा सकती है और बड़े व्यावहारिक तरीकों से जंगल और प्रकृति के बीच रहकर सीखने-सिखाने का काम किया जाता है। यह किताब जापान की मशहूर अभिनेत्री और लेखिका, तेत्सुको कुरोयानागी का आत्मकथात्मक संस्मरण है। इसमें उन्होंने अपने असाधारण स्कूल तोमोए गाकुएन में हुए अनुभवों के बारे में बताया है। किताब की पृष्ठभूमि भी दिलचस्प है क्योंकि इसका समय दूसरे विश्व युद्ध का है जो जापान को एक नई नजर से देखने का मौका देता है।

किताब पढ़ते हुए आपके मन में सबसे ज्यादा यही बात घर करती है कि हर बच्चा अनोखा होता है और अलग तरीके से सीखता है। बच्चों के खास होने को अगर स्वीकार किया जाए और उन्हें अपनी तरह से अभिव्यक्त करने का मौका दिया जाए तो वे अधिक रचनात्मक और आत्मविश्वास से भरे बनते हैं। यह किताब एक संवेदनशील शिक्षक की खासियतों और संभावनाओं पर भी बात करती है। एक शिक्षक के तौर पर रचनात्मक, समावेशी और बेहद नरम-प्रेमपूर्ण व्यवहार की जरूरत और उससे हासिल होने वाले सकारात्मक नतीजों को किताब अपने आप में शामिल करती है।

विकास सेक्टर के लिहाज से देखें तो किताब साफतौर पर यह सुझाती है कि शिक्षा का नजरिया हमेशा बच्चों पर केंद्रित होना चाहिए। यह बताती है कि छोटे-छोटे प्रयास कैसे पढ़ाई में बच्चों का उत्साह बनाए रख सकते हैं, कैसे हाशिए पर मौजूद लोगों को इसमें शामिल किया जा सकता है और कैसे किताबी ज्ञान की बजाय व्यावहारिक रूप से सीखना बच्चों के लिए अधिक उपयोगी होता है। अगर आप एक नीति निर्माता हैं, शिक्षक हैं, अभिभावक हैं या किसी और तरह से शिक्षा से जुड़े हुए हैं तो इस किताब को पढ़ना आपको कई तरह के नए विचारों और समाधानों की ओर बढ़ने में मदद करेगा।

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