युवाओं पर उम्मीदों का इतना-कितना बोझ?

युवाओं से अपेक्षाएं_युवा
चित्र साभार: सुगम ठाकुर

चित्तौड़गढ़: सरकारी लाभों से वंचित आशा सहयोगिनी और गर्भवती महिलाएं

प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र का फोटो_आशा सहयोगिनी
जब किसी बच्चे का जन्म सरकारी स्वास्थ्य केंद्र या निजी चिकित्सा संस्थान में दर्ज किया जाता है तो आशा सहयोगिनी को प्रोत्साहन राशि मिलती है। | चित्र साभार: आईडीआर

आशा सहयोगिनी की मुख्य जिम्मेदारी होती है कि वे महिलाओं को गर्भावस्था से लेकर प्रसव तक, संबंधित सरकारी नीतियों और स्वास्थ्य सेवाओं से जोड़ें। आशा सहयोगिनियों की आय का एक महत्वपूर्ण हिस्सा महिलाओं और नवजात बच्चों से जुड़ा होता है। जब किसी बच्चे का जन्म सरकारी स्वास्थ्य केंद्र या निजी चिकित्सा संस्थान में दर्ज किया जाता है तो आशा सहयोगिनी को प्रोत्साहन राशि मिलती है। लेकिन राजस्थान के चित्तौड़गढ़ जिले के उदपुरा गांव में आशा सहयोगिनी इस प्रोत्साहन राशि से वंचित हो रही हैं।

असल में उदपुरा या आसपास के गांवों में आशा सहयोगिनियों के बुलाने पर सरकारी एंबुलेंस गांव से 40 किलोमीटर दूर सामुदायिक केन्द्र, विजयपुर से आती है। सड़कें खराब होने के कारण उदयपुरा तक ना तो एंबुलेंस समय पर पहुंचती है और ना ही दूसरी जरूरी स्वास्थ्य सेवाएं। इस देरी के कारण अगर प्रसव में मुश्किल आ जाए तो प्रसूताओं को और 2 घंटे का सफर तय करके जिला अस्पताल चित्तौड़गढ़ भेजा जाता है। हालांकि अब 20 किलोमीटर दूर नया सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र, घटियावली बन गया है, जो न केवल सड़कों से ठीक प्रकार से जुड़ा है बल्कि इससे जिला अस्पताल चित्तौड़गढ़ भी काफी नजदीक है। परंतु हमारा प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र, उदपुरा आज भी सरकारी रिकार्ड के अनुसार विजयपुर से जुड़ा है, इसलिए 108 नंबर पर कॉल करने पर एम्बुलेंस वहीं से आती है।

यही वजह है कि गांव में बहुत सारे परिवार घर पर ही प्रसव करवाते हैं। नतीजतन, आशा सहयोगिनियों को जच्चा बच्चा की देखभाल के बदले मिलने वाली प्रोत्साहन राशि नहीं मिलती। 

सरकार ने साल 2016 में राजश्री योजना शुरु की थी। जिसके तहत बालिका के जन्म पर माता-पिता को छ: किस्तों में कुल 50,000 रुपये दिए जाते हैं। लेकिन यह फायदा घर पर प्रसव करवाने वाले परिवारों को नहीं मिलता। 

हालांकि, समय पर सरकारी एंबुलेंस ना पहुंचने की स्थिति में कुछ लोग निजी टैक्सी की व्यवस्था करते हैं जिसमें उनका बहुत पैसा खर्च होता है।

चंदा शर्मा, आंगनवाड़ी केन्द्र एवं प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र उदपुरा में आशा सहयोगिनी के रूप में कार्यरत हैं। 

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क्या जंगलों की वापसी ने बांकुरा में खेती को प्रासंगिक बना दिया है?

गुनियादा की पहाड़ियां_जल संरक्षण
पहाड़ आजीविका में हमारी मदद करते हैं और बदले में हम उनकी देखभाल करते हैं। | चित्र साभार: प्रदान

मेरी शादी साल 2002 में हुई जिसके बाद मैं पश्चिम बंगाल के बांकुरा जिले में पड़ने वाले गांव गुनियादा आ गई, तब से मैं यहीं रह रही हूं। यह इलाका कभी घने जंगलों से घिरा था, लेकिन पिछले कुछ सालों में आसपास की पहाड़ियां बंजर हो गई थीं। जब मैं यहां आई, यहां हरियाली का नामोनिशान नहीं रह गया था। हम धान और कुछ अन्य खाने-पीने की चीजें उगाते थे लेकिन इतना भी करना आसान नहीं था। अगर आप ज़मीन की तरफ़ देखेंगे तो आपको मिट्टी से ज़्यादा चट्टानें दिखाई पड़ेंगी। कुछ लोग जिन्होंने पशुपालन करने की कोशिश की, उन्होंने भी हार मान ली और अपनी गायें बेच दीं क्योंकि जानवरों के चरने के लिए मैदान ही नहीं थे। इसका नतीजा यह हुआ कि कई लोग आजीविका के नए मौक़ों की तलाश में गांव से पलायन कर गए।

बांकुरा में भरपूर बारिश होती है लेकिन नंगी पहाड़ियां पानी को सोख नहीं पाती थीं। इससे इलाक़े में पानी की कमी होने लगी क्योंकि हमारे गांवों के पास बहते पानी को रोकने का कोई साधन नहीं था। पंचायत, अन्य सरकारी विभाग, प्रदान जैसी समाजसेवी संस्थाएं और गांव के लोग अक्सर जल संरक्षण के तरीक़ों पर चर्चा करने के लिए इकट्ठा होते थे। मैंने इन बैठकों में हिस्सा लेना शुरू किया और सीखा कि पानी इकट्ठा करने की व्यवस्था कैसे बनाई जा सकती है। अपने इलाक़े के कुछ लोगों के साथ मिलकर, मैंने संसाधनों का एक मानचित्र (रिसोर्स मैप) तैयार किया जिस पर हमने पानी रुकने वाले क्षेत्रों और उन रास्तों को दिखाया जहां से पानी बहता था। हमने इससे मिले सबक़ को अपने खेतों में आज़माया जिसने हमें इन्हें अपनाने, ग़लतियां करने, सवाल पूछने और आख़िर में सफल होने का मौक़ा दिया। कुछ ही सालों में, मैं चशी बंधु (किसान मित्र) बन गई और अपने समुदाय के लोगों को इन तरीक़ों को अपनाने में मदद करने लगी।

शुरूआत में यह काम आसान नहीं था। हमें पता चला कि कैसे ऊपरी इलाक़ों में वनीकरण, निचले इलाक़ों की मिट्टी की गुणवत्ता को बेहतर बनाता है, जिसमें हम खेती करते हैं। लेकिन अब चुनौती यह थी कि हम लोगों को पेड़ लगाने में उनके संसाधन खर्च करने के लिए कैसे मनाएं? इससे पहले भी इसकी कोशिशें हो चुकी थी लेकिन मिट्टी के कटाव और बंजरपन की वजह से पेड़ ज़्यादा समय तक जीवित कभी नहीं रह सके।

हमने गांव के उन बुजुर्गों की उपस्थिति में लोगों के साथ कई बैठकें कीं जिन्होंने हरी-भरी पहाड़ियों से होने वाले फ़ायदों को देखा था। उनकी मदद से और भी लोग साथ आए। हमने सुनिश्चित किया कि हम अपनी पिछली ग़लतियों को ना दोहराएं। हमने ढलानों पर खाइयां बनाईं जो पानी को सोख लेतीं, इससे हमारे लगाए पौधों को बढ़ने के लिए पानी मिलने लगा। ये खाइयां पानी को नीचे बह जाने से भी रोकती हैं और जो ज़मीन में रिसकर निचले इलाक़े में स्थित हमारे कुओं तक पहुंचने लगा। पानी की अतिरिक्त उपलब्धता हो जाने के बाद हमारे किसान अब तरबूज़, सरसों, दाल वग़ैरह उगा पा रहे हैं। इन फसलों को बेचकर उन्हें कुछ अतिरिक्त आय भी हो जाती है।

समय के साथ, महज़ वृक्षारोपण के रूप में शुरू हुई पहल अब वनीकरण में बदल रही है। ढलानों पर घास उगने लगी है और हमारे मवेशियों को अब चरने की जगह मिल गई है। जैसे-जैसे पेड़ बढ़ते हैं, वे अपने मवेशियों के साथ आने वाले गांव वालों को छाया देते हैं। हमारी पहाड़ियां अब हरी-भरी हो गई हैं। यहां तक कि हमारे जंगल में एक आम का बगीचा भी है। हमारे लोग दोबारा मवेशी पालने लगे हैं और कभी पलायन कर गए लोग भी घर लौटने का विकल्प चुन रहे हैं क्योंकि यहां खेती दोबारा कमाई का व्यावहारिक विकल्प बनने लगी है। हमें पता है कि यह एक लंबी यात्रा है, लेकिन अब हमारे पास एक कारगर व्यवस्था है – पहाड़ देवता आजीविका में हमारी मदद करते हैं और बदले में हम उनकी देखभाल करते हैं।

रिंकू गोप प्रदान में चशी बंधु हैं।

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कैसे जलवायु परिवर्तन ने ईंट भट्ठा मज़दूरों को कर्ज़ में डुबो दिया है?

जलवायु परिवर्तन मज़दूरों की ज़िंदगी पर सबसे क्रूर प्रभाव डालता है और 2024 के पूर्वानुमान बता रहे हैं कि हीटवेव, सूखे और अनिश्चित मॉनसून की चरम मौसमी घटनायें इस सेक्टर को बहुत प्रभावित करेंगी। मार्च के पहले हफ्ते में ही देश के कई हिस्सों में तापमान 41 डिग्री के बैरियर को पार कर गया और अब आने वाले दिनों में ईंट भट्टा क्षेत्र में काम करने वालों को इसकी तपिश झेलनी होगी।

उत्तर प्रदेश के जिला प्रयागराज के रहने वाले महेश (मास्टर फायरमैन) ने कहा, भट्ठों में अत्यधिक गर्म तापमान होने के बावजूद दस्ताने, मास्क, जूते और अन्य ज़रूरी प्रावधानों में कमी से उनके स्वास्थ्य पर असर पड़ा है। 

महेश ही नहीं बल्कि भट्ठे पर रहने वाले पथाई मज़दूरों और उनके परिवार की स्थिति भी प्रभावित है क्योंकि इनके रहने के हालात अच्छे नहीं हैं। परिवार की कमाई और स्वास्थ्य के साथ बच्चों की पढ़ाई पर भी इस हालात का असर पड़ता है।

बुनियाद ईंट भट्टा क्षेत्र की समस्याओं पर करीबी नज़र रखे है। ग्लोबल वॉर्मिंग निश्चित ही इस क्षेत्र के वजूद के लिये संकट है। उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ के अनुभवी ईंट भट्ठा मालिक द्वारिका प्रकाश मोर के लिए, अनियमित मौसम पैटर्न (जलवायु परिवर्तन का संकेत) भविष्य में होने वाला ख़तरा नहीं है; वे एक तात्कालिक और गहन चुनौती हैं। पांच दशकों के अनुभव के साथ, उन्होंने उद्योग को कई तूफानों का सामना करते देखा है। लेकिन अब कहते हैं कि बेमौसम बदलावों ने अभूतपूर्व परेशानी ला दी है। 

ईंट निर्माण का काम मौसम पर निर्भर

ईंट निर्माण प्रकृति की लय के साथ गहराई से जुड़ा हुआ है। सर्दियों के गिरते तापमान में ईंट बनाने का काम शुरू होता है, जिसमें मजदूर ईंटों को आकार देने का काम करते हैं, और उन्हें खुली हवा में सूखने के लिए छोड़ देते हैं। गर्मियों में फायरिंग यानी जलाई की प्रक्रिया शुरू हो जाती है, जहां भट्टियों में ईंटों को सख्त किया जाता है। लेकिन, जलवायु परिवर्तन के कारण अब ऐसे बदलाव महसूस हो रहे हैं, जो पहले ना कभी देखे गये हैं, और ना सुने गये हैं। 

दोधारी तलवार है जलवायु परिवर्तन

द्वारका प्रकाश मोर जैसे लोगों के लिये यह हताश करने वाला है। वे कहते हैं, “बारिश से काफी नुकसान होता है। ईंटें जल्दी नहीं सूखतीं, जिससे उनकी गुणवत्ता पर असर पड़ता है। बरसात के दिनों में मजदूर काम नहीं कर पाते, जिससे एक सीजन में 25,000 – 30,000 रुपये का नुकसान होता है। मुझे प्रति सीजन 10-15 लाख ईंटों का नुकसान उठाना पड़ता है, यही आंकड़ा लाख तक पहुंच सकता है अगर बारिश लगातार होती रहे जैसा कि पिछले तीन वर्षों से हो रहा है। हम जिस आर्थिक बोझ का सामना कर रहे हैं, वह बहुत बड़ा है।”

ईंट भट्ठे पर ईंटे बनाते श्रमिक-जलवायु परिवर्तन
एक तरफ़ ईंट उद्योग जलवायु संकट का शिकार है, दूसरी तरफ़ जलवायु संकट में इसका योगदान भी है। | चित्र साभार: सुरेश के नायर

जलवायु संकट ईंट भट्ठा उद्योग के लिए दोधारी तलवार है। एक तरफ़ यह उद्योग जलवायु संकट का शिकार है, दूसरी तरफ़ जलवायु संकट में इसका योगदान भी है। वैश्विक उत्पादन में 13% का योगदान करते हुए, भारत ईंटों के मामले में दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक है, जो सालाना 200 बिलियन इकाइयों का निर्माण करता है। इस व्यापक उत्पादन के परिणामस्वरूप प्रत्येक वर्ष लगभग 35-40 मिलियन टन पारंपरिक ईंधन की खपत होती है।

आजीविकाएं प्रभावित, मजदूर भारी कर्ज में डूबते जा रहे हैं

ईंट भट्ठों पर काम करने वाले मजदूर हर साल छह से आठ महीने की अवधि के लिए पलायन करते हैं। श्रमिकों की आर्थिक स्थिति उन्हें भट्ठा ठेकेदारों के माध्यम से भट्ठा मालिकों से कर्ज लेने के लिए मजबूर करती है। इसके अतिरिक्त, वे किराने के सामान और दवाओं के लिए भट्ठे में और क़र्ज़ लेते हैं। यह सारा क़र्ज़ उनकी कुल कमाई से कट जाता है। शेष उनकी बचत के रूप में कार्य करता है।

“बारिश के बिना, हम एक सीज़न में 70,000 से एक लाख रुपये कमाते हैं। लेकिन इस साल खराब मौसम के कारण मैं दो महीने से बेकार हूं। हमने 2 लाख ईंटें बनाई थीं। वे सभी बारिश में नष्ट हो गईं।” बांदा के एक पथेरा, राम प्रताप के शब्द अनगिनत अन्य लोगों की भावनाओं को जताते हैं जो स्वयं इस समस्या से जूझ रहे हैं।

जब श्रमिक काम फिर से शुरू होने का इंतजार कर रहे थे, उनके ख़ान-पान का कर्ज बढ़ता जा रहा था। वे कहते हैं, “सिर्फ इसलिए कि हमारे पास काम नहीं है, हम खाना बंद नहीं कर सकते, हमें रोजमर्रा की जिंदगी के लिए कर्ज लेना पड़ता है।”

एक मज़दूर संघ कार्यकर्ता, राम प्रकाश पंकज, इस कार्यबल पर जलवायु संकट की सामाजिक लागत पर प्रकाश डालते हैं। “ईंट भट्ठा मजदूर बड़े पैमाने पर प्रवासी हैं, उनके बच्चे अक्सर उनकी खानाबदोश जीवनशैली का खामियाजा भुगतते हैं। निरंतर शिक्षा तक पहुंच इन बच्चों के लिए एक सपना बन जाता है, स्थान में हर बदलाव के साथ उनका भविष्य डगमगा जाता है।” वे जोड़ते हैं कि “केवल 10,000 रुपये बचाए हैं। मैं एक गरीब आदमी हूं और मुझे यह सब सहना होगा।”

यह लेख मूलरूप से बुनियाद के सामुदायिक अख़बार बुनियादी खबर पर प्रकाशित हुआ था। 

फोटो निबंध: कैसे औद्योगीकरण ने एन्नोर को तबाही की तरफ़ धकेल दिया है

चेन्नई के उत्तरी भाग में स्थित एन्नोर एक उपजाऊ, खारे जल वाली आर्द्रभूमि है, जिसके चारों ओर बड़े-बड़े दलदली जंगल (मैंग्रोव) हैं। कोसास्थलैयार नदी, एन्नोर नदी और बंगाल की खाड़ी से घिरा यह इलाका विभिन्न प्रकार की पक्षी प्रजातियों को आश्रय देता है। पहले, एन्नोर की ज़मीन में नमक की खानें हुआ करती थीं और यहां पर खेती भी की जाती थी। लेकिन अब यह हरा-भरा इलाका यहां के लोगों के रहने लायक नहीं रह गया है। 1960 के दशक में तमिलनाडु सरकार ने एन्नोर-मनाली क्षेत्र को पेट्रोकेमिकल और कोयला आधारित उद्योगों वाले क्षेत्र के रूप में वर्गीकृत करने की पहल की थी। अब ​​यह क्षेत्र 30 से अधिक लाल श्रेणी के उद्योगों का घर है।

एन्नोर के ज़्यादातर निवासी, ख़ासतौर पर वे जो कामकाजी तबके से आते हैं या अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति समुदायों से संबंधित हैं, आजीविका के लिए कोसास्थलैयार नदी और बंगाल की खाड़ी में मछली पकड़ने पर निर्भर हैं। इनमें समुदायों में इरुलर जनजाति और सेमदादावर मछुआरा समुदाय भी शामिल हैं। लेकिन उत्तरी चेन्नई थर्मल पावर स्टेशन, एन्नोर थर्मल पावर स्टेशन, चेन्नई पेट्रोलियम कॉर्पोरेशन लिमिटेड और अदानी बंदरगाहों जैसे आस-पास के उद्योगों से होने वाला उत्सर्जन और कचरा, पर्यावरण को ख़राब करता है। ये हवा और पानी को प्रदूषित करते हैं और लोगों के स्वास्थ्य और आजीविका को प्रभावित करते हैं।

किनारे लगे बहुत सारे नाव_समुद्री जीवन
एन्नोर में मछली पकड़ना आय का मुख्य स्रोत है। आस-पास के ज़्यादातर गांव अपनी आजीविका के लिए कोसस्थलैयार नदी और बंगाल की खाड़ी में मछली पकड़ने पर निर्भर हैं।

एन्नोर में तबाही का एक मुख्य कारण उत्तरी चेन्नई थर्मल पावर स्टेशन (एनसीटीपीएस) है। इसे 1994 में तमिलनाडु जनरेशन एंड डिस्ट्रीब्यूशन कॉर्पोरेशन लिमिटेड (टीएएनजीईडीसीओ) द्वारा स्थापित किया गया था। बिजली उत्पादन के लिए बना एनसीटीपीएस, इस प्रक्रिया के दौरान यह कोसास्थलैयार नदी में भारी मात्रा में गर्म पानी छोड़ता है, जिससे समुद्री जीवन नष्ट हो जाता है और मछुआरा समुदायों पर गंभीर प्रभाव पड़ता है। इस प्लांट की पाइपलाइन में फ्लाई ऐश पायी जाती है और नज़दीकी जलस्रोतों में छोड़ी जाती है, जिन्हें ऐश पॉन्ड कहा जाता है। फ़्लाई ऐश, वह राख है जो कोयले के जलने से उत्पन्न होती है और इसमें जहरीले रसायन होते हैं।

हालांकि टीएएनजीईडीसीओ पहले ही एनटीपीसीएस को दूसरे और तीसरे चरण में ले जा रहा है। लेकिन फिर भी यहां 1994 में पहले चरण के दौरान बिछाई गई पाइपलाइनों को भी नहीं बदला गया है। फ्लाई ऐश पानी में घुलकर पुरानी पाइपलाइनों से होकर कोसास्थलैयार नदी में रिसती है और नदी के क्षरण का प्रमुख कारण बनती है। केवल एनसीटीपीएस ही नहीं बल्कि 1970 के दशक की शुरूआत में स्थापित एन्नोर थर्मल पावर स्टेशन (ईटीपीएस) भी प्रतिदिन 2,500 टन फ्लाई ऐश उत्सर्जित करता है। परिणामस्वरूप, इलाक़े में मछलियां और झींगे बेस्वाद हो गए हैं। यहां तक कि उनका रंग भी भूरा हो गया है। एन्नोर में 8,000 से ज़्यादा नियमित मछुआरे और इरुलर जनजाति के 1,000 सदस्य हैं। इनकी आजीविका पूरी तरह से मछली पकड़ने पर निर्भर है और उनके लिए यह एक भयानक स्थिति है।

हाथों मे झींगा_समुद्री जीवन
कोसस्थलैयार नदी में हाथ से एकत्रित झींगे को थामे एक आदिवासी महिला। ईटीपीएस द्वारा छोड़ी गई फ्लाई ऐश के कारण होने वाले प्रदूषण के कारण झींगे भूरे रंग के दिखाई देते हैं।

फ्लाई ऐश न केवल जल प्रदूषण का कारण बनती है, बल्कि वायु प्रदूषण में भी योगदान देती है। राख मिली हवा के कारण क्षेत्र के निवासियों को कई तरह के स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं का सामना करना पड़ता है। इससे कैंसर और तपेदिक जैसी बीमारियां और त्वचा और श्वसन संबंधी कई बीमारियां होने की संभावना बढ़ जाती है।

झींगा पकड़ती महिलाएं__समुद्री जीवन
दो आदिवासी महिलाएं, गोविंथम्मल और उनकी सहेली, कोसस्थलैयार नदी में हाथ से झींगा पकड़ रही हैं।

एन्नोर में मछुआरों द्वारा पकड़ी गई मछलियां उनकी आजीविका के लिए पर्याप्त हुआ करती थीं। अब, ज़्यादातर प्रजातियों के लुप्त हो जाने से जलीय खाद्य श्रृंखला पर गंभीर प्रभाव पड़ रहा है, जिससे इलाक़े में उपज के लिए उपलब्ध संसाधन कम हो रहे हैं। नतीजतन, मछुआरों को ठेके पर मिलने वाले, सीमित दैनिक मजदूरी वाले काम खोजने पड़ रहे हैं। जैसे कारखानों में माली, चौकीदार या सुपरवाइजर की नौकरी वगैरह। मछली पकड़ने के लिए उपयुक्त उपकरणों की कमी के कारण जनजातीय समुदायों को अतिरिक्त समस्याओं का सामना करना पड़ता है। वे आमतौर पर झींगा पकड़ने के लिए अपने हाथों का इस्तेमाल करते हैं और इसके चलते लगातार प्रदूषण के संपर्क में रहते हैं। चूंकि वे पीढ़ियों से यह काम करते आ रहे हैं इसलिए उनके लिए अपने पारंपरिक काम को छोड़ना मुश्किल है।

तरल का रिसाव_समुद्री जीवन
टूटी हुई पाइपलाइनों के कारण तरल राख दिन में कई बार आवासीय क्षेत्र और कोसास्थलैयार नदी में रिसती है।

अपनी आजीविका और स्वास्थ्य पर खतरे के कारण एन्नोर क्षेत्र में रहने वाले कई लोग यहां से चले गए हैं। सेप्पकम और कुरुवीमेदु जैसे कुछ गांव, जिन्हें सरकार द्वारा अभी तक विस्थापित नहीं किया गया है, विनाश के कगार पर हैं। सेप्पकम की निवासी महेश्वरी कहती हैं, “इस इलाके में हर किसी को स्वास्थ्य संबंधी समस्या है लेकिन हमारे यहां कोई अस्पताल नहीं है। ज़्यादातर बच्चों के पैरों में त्वचा का संक्रमण है क्योंकि वे फ्लाई-ऐश की धूल से सनी सड़क पर खेलते हैं। हमारे घर और पर्यावरण राख की धूल से भरे हुए हैं और इसी में हम हर समय सांस लेते हैं। औद्योगिक विकास से पहले हमें अच्छी गुणवत्ता वाला भूजल मिलता था। अब भूजल के खारा और जहरीला हो जाने के बाद हमें पीने का पानी ख़रीदना पड़ता है। हमारे गांव की हालत दिन-ब-दिन खराब होती जा रही है।”

पैर पर एलर्जी के निशान_समुद्री जीवन
ईटीपीएस राख तालाब के निकट होने के कारण, सेप्पकम गांव में बाहर खेलने वाले अधिकतर बच्चे त्वचा संबंधी एलर्जी से पीड़ित होते हैं।

मनाली, उत्तरी चेन्नई का वह भाग जो शहर का अंदरूनी हिस्सा है और यहां से निकलने वाला अपशिष्ट और नालियां भी बकिंघम नहर से एन्नोर तक पहुंचते हैं। सार्वजनिक क्षेत्र की रिफाइनिंग कंपनी चेन्नई पेट्रोलियम कॉर्पोरेशन लिमिटेड (सीपीसीएल) प्रतिदिन मनाली से बकिंघम नहर में तेल छोड़ती है। 4 दिसंबर, 2023 को, सीपीसीएल न मिचाउंग चक्रवात के दौरान बकिंघम नहर में अनुमानित 24,000 लीटर कच्चा तेल पंप किया। नहर से कच्चा तेल बंगाल की खाड़ी, जैव विविधता से भरपूर एन्नोर खाड़ी और कोसस्थलैयार नदी में फैल गया। इससे आसपास के पर्यावरण को नुकसान पहुंचा और इलाक़े का पानी मछली पकड़ने लायक़ नहीं रह गया। बाढ़ के कारण तेल का रिसाव एन्नोर के निवासियों के घरों तक पहुंचा जिससे उनका रहना मुश्किल हो गया। 

पर्यावरण के जानकार नित्यानंद जयरामन का कहना है कि “2017 में एन्नोर समुद्र में इसी तरह का तेल रिसाव हुआ था। पहले हम सफाई के लिए बाल्टी का इस्तेमाल करते थे, इस बार हमें बाथरूम मग का इस्तेमाल करना पड़ा। कुछ भी नहीं बदला है – स्थिति पहले जैसी ही निराशाजनक है।” चेन्नई को एक आधुनिक महानगर के रूप में जाना जाता है, इसके बावजूद सरकार ने उत्तरी चेन्नई के लोगों को तेल रिसाव को साफ करने के लिए आधुनिक तकनीक या संसाधन उपलब्ध नहीं कराए हैं।

पानी में तरल रिसाव_समुद्री जीवन
एन्नोर मैंग्रोव में प्रतिदिन होने वाले तेल रिसाव का एक हिस्सा कोसास्थलैयार नदी में फैल जाता है और उसे प्रदूषित करता है।

तेल रिसाव के तुरंत बाद, 2,301 मछुआरा परिवार प्रभावित हुए तथा 787 नावें नष्ट हो गईं। मछुआरों ने नदी और मुहाने पर मछलियों की मौत होने और कई पशु-पक्षियों के प्रभावित होने की बात भी कही है। जब मछली पकड़ने के अवसर नहीं मिलते तो इन समुदायों को अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए संघर्ष करना पड़ता है। वे कहते हैं कि 12,500 रुपये का प्रस्तावित मुआवजा अपर्याप्त है। जहरीले तेल और उसकी गंध के कारण, रिसाव के नज़दीक बसे गांवों के निवासी विभिन्न शारीरिक समस्याओं जैसे चक्कर आना, त्वचा और आंखों में जलन आदि से पीड़ित हो रहे हैं। 

हालांकि अधिकारियों ने बाद में नदी में तैरते तेल को साफ कर दिया लेकिन तब तक नदी का तल पूरी तरह से बर्बाद हो चुका था और पानी में उच्च घनत्व वाले तेल कण अभी भी मौजूद हैं। तेल रिसाव का प्रभाव 20 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैला हुआ था जिसमें तिरुवोटियूर, नेट्टुकुप्पम और एन्नोर कुप्पम जैसे कई आवासीय क्षेत्र भी शामिल थे। अब कोई भी एन्नोर की मछली नहीं खाना चाहता है, यहां तक कि स्थानीय लोग भी नहीं, क्योंकि हर मछली में तैलीय गंध होती है। कुछ लोग 1,000 रुपये की मछली का स्टॉक मात्र 100 रुपये में खरीदना चाहते हैं।

इकट्ठा हुआ रिसाव_समुद्री जीवन
सीपीसीएल से तेल रिसाव के परिणामस्वरूप कोसास्थलैयार नदी के अधिकांश मैंग्रोव नष्ट हो गए।

प्रदूषणकारी उद्योगों के कारण होने वाले तेल रिसाव के अलावा, समुद्री जीवन को नुकसान पहुंचाने का एक और महत्वपूर्ण स्रोत एन्नोर में कामराजर और अदानी बंदरगाहों की मौजूदगी है। ये बंदरगाह नदी तल से कीचड़ हटाते हैं जो जहाजों के प्रवेश को सुविधाजनक बनाने के लिए एक प्राकृतिक अवरोध के रूप में कार्य करता है। इससे समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र बाधित होता है। 

कट्टुपल्ली गांव के निवासी मूर्ति बताते हैं कि समुद्र की सतह पर मौजूद मिट्टी मछलियों के प्रजनन और उपज के लिए कितनी महत्वपूर्ण है। वे कहते हैं कि “30 से 35 साल पहले, हमें समुद्र में कई तरह की मछलियां मिलती थीं जिनमें वंजारम, मावलासी, सेरा, ब्लैक वावल और पारा शामिल थीं।” आजकल कामराजर और अदानी बंदरगाहों द्वारा समुद्र की मिट्टी को खोदने का असर समुद्री मछली पकड़ने पर पड़ता है। इस मिट्टी का उपयोग विभिन्न स्थानों- कट्टुपल्ली, कोडापाटू, कालांजी, लाकपाट और कोइराडी में टीले बनाने के लिए किया जाता है । यह टीले समुद्र में लगभग छह किलोमीटर तक फैले हुए हैं। लेकिन अब इस खुदाई के कारण, न तो मिट्टी बची है और न ही समुद्री संसाधन।

अदानी बंदरगाहों में से एक का विस्तार पर्यावरणीय परिणामों से जुड़े सवालों के कारण रोक दिया गया था। इसका कारण था कि एन्नोर चेन्नई के बाकी हिस्सों के लिए बाढ़ अवरोधक के रूप में कार्य करता है। बंदरगाह का विस्तार करने से प्रकृति, मैंग्रोव, बैकवाटर और तटीय क्षेत्र नष्ट हो सकते हैं जिससे पूरा चेन्नई प्रभावित हो सकता है।

पैरों पर लगा रसायन_समुद्री जीवन
तेल रिसाव के बाद, कोसस्थलैयार नदी को मछुआरों ने बिना किसी सुरक्षा उपाय के साफ किया। तेल में मौजूद ज़हरीले रसायनों ने उनकी त्वचा को बुरी तरह प्रभावित किया।

एन्नोर में एक और प्रदूषण फैलाने वाला कारक कोरोमंडल फैक्ट्री है। इसकी समुद्री पाइपलाइन से 26 दिसंबर, 2023 को अमोनिया गैस का रिसाव हुआ था। 27 दिसंबर, 2023 से लेकर 100 दिनों से ज़्यादा समय तक लोगों ने फैक्ट्री को बंद करने के लिए विरोध प्रदर्शन किया। तमिलनाडु प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (टीएनपीसीबी) ने कोरोमंडल फैक्ट्री पर पर्यावरण क्षतिपूर्ति के लिए 5.92 करोड़ रुपये का जुर्माना लगाया है।

विरोध-प्रदर्शन करती महिलायें _समुद्री जीवन
कोरोमंडल फैक्ट्री के सामने विरोध प्रदर्शन कर इसे बंद करने की मांग करते हुए लगभग 12 गांवों के लोग एकजुट हुए।

एन्नोर के प्रभावित क्षेत्र की रहने वाली विमला कहती हैं कि “हम इस कंपनी के बंद होने के बाद ही चैन से रह पाएंगे। अब हम हमेशा अमोनिया के डर में रहते हैं। रिसाव छोटा था लेकिन अगर यह 15 मिनट से ज़्यादा समय तक होता तो आज हम ज़िंदा नहीं होते।” लेकिन, नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल की दक्षिणी बेंच के फ़ैसले ने कोरोमंडल इंटरनेशनल लिमिटेड को अमोनिया अपतटीय पाइपलाइन गतिविधि को फिर से शुरू करने की अनुमति दे दी थी। यह फ़ैसला कोरोमंडल इंटरनेशनल लिमिटेड को तमिलनाडु समुद्री बोर्ड और भारतीय शिपिंग रजिस्टर से मंज़ूरी मिलने के बाद, टीएनपीसीबी और औद्योगिक सुरक्षा और स्वास्थ्य निदेशालय से अनापत्ति प्रमाण पत्र प्राप्त कर लेने के बाद दिया गया था।

इस फ़ैसले के बाद, अधिकारियों ने विरोध प्रदर्शनों को पूरी तरह से रोक दिया।

दो धावक_समुद्री जीवन
बर्मा के मैदान में फुटबॉल खिलाड़ी अभ्यास कर रहे हैं। प्रदूषण के कारण खिलाड़ियों को सांस लेने में दिक्कत हो रही है और उनका स्टैमिना भी कम हो रहा है।

एन्नोर में लोगों, भूमि और जल निकायों के प्रति उद्योगों की लापरवाही, मौजूदा समस्याओं और क्षेत्र के क्रमिक विनाश का मूल कारण है। यहां के निवासी एन्नोर को बचाने के लिए जल्द से जल्द उपाय करने की मांग कर रहे हैं। वे लाल श्रेणी के उद्योगों से पर्यावरण कानूनों का पालन करने, विस्तार परियोजनाओं और नए निर्माण को रोकने की मांग करते हैं। इन उद्योगों द्वारा अपशिष्ट निपटान स्थल के रूप में उपयोग की जाने वाली कोसस्थलैयार नदी उनकी चिंताओं का केंद्र बिंदु है। सरकार जहां नदी को पुनर्जीवित करने के प्रयास कर रही है, स्थानीय लोग इस बात पर जोर देते हैं कि उनकी विशेषज्ञता और ज़रूरतों, विशेष रूप से पारंपरिक ज्ञान वाले मछुआरों की ज़रूरतों पर विचार किया जाना चाहिए। इसके अलावा, जो लोग पर्यावरणीय में गिरावट के कारण पारंपरिक आजीविका खो चुके हैं, वे जीवित रहने के लिए सरकार द्वारा प्रदान की जाने वाली नौकरियों की मांग कर रहे हैं।

लेख में इस्तेमाल सभी तस्वीरें लेखकों द्वारा ली गई हैं।

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सड़क कब और क्यों बनती है?

1. एक सवाल
सड़क पे चलती हुईं बच्ची- सड़क

2. जो दोहराया गया

सड़क पे चलती हुई लड़कियाँ-सड़क

3. बार-बार, बार-बार दोहराया गया

सड़क पे चलते हुए दूल्हा दुल्हन- सड़क

4. अनोखा जवाब

सड़क पे चलते हुए माँ बेटी और नाना-सड़क

सरल कोश: एलजीबीटीक्यूआईए+

विकास सेक्टर में तमाम प्रक्रियाओं और घटनाओं को बताने के लिए एक ख़ास तरह की शब्दावली का इस्तेमाल किया जाता है। आपने ऐसे कुछ शब्दों और उनके इस्तेमाल को लेकर असमंजस का सामना भी किया होगा। इसी असमंजस को दूर करने के लिए हम एक ऑडियो सीरीज़ ‘सरल–कोश’ लेकर आए हैं, जिसमें हम आपके इस्तेमाल में आने वाले कुछ महत्वपूर्ण शब्दों पर बात करने वाले हैं।

आज का शब्द है – एलजीबीटीक्यूआईए+ (प्लस)

एलजीबीटीक्यूआईए प्लस एक संक्षिप्त शब्द है जहां हर अक्षर एक अलग पहचान को दिखाता है। इसे समझना सभी के लिए ज़रूरी है क्योंकि ये आपको अधिक प्रभावी और समावेशी तरीक़े से अपनी पहचान ज़ाहिर करने में मदद करता है। विकास सेक्टर के संदर्भ में यह शब्द आपने उन संस्थाओं से सुना होगा जो जेंडर असमानता, यौन एवं प्रजनन स्वास्थ्य और मानव अधिकार जैसे विषयों पर काम कर रही हैं।

यहां पर एलजीबीटीक्यूआईए प्लस में प्रत्येक अक्षर के पीछे का अर्थ समझाया गया है।

अगर आप इस सीरीज़ में किसी अन्य शब्द को और सरलता से समझना चाहते हैं तो हमें यूट्यूब के कॉमेंट बॉक्स में ज़रूर बताएं।

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टिब्बी नगर पालिका: यह राजस्थान का शहर है या गांव?

शहरी निकाय का ऑफिस बैनर_स्थानीय सरकार
स्थानीय निवासियों को लगता है कि टिब्बी की स्थिति नगर पालिका की अपेक्षा ग्राम पंचायत के रूप में बेहतर थी। | चित्र साभार: अमरपाल सिंह वर्मा

राजस्थान के हनुमानगढ़ जिले में पड़ने वाली टिब्बी नगर पालिका के लोगों के लिए हरदम बहते नालों और उनकी बदबू से जूझना कोई नई बात नहीं है। यह समस्या 2022 में भी ऐसी ही थी, जब टिब्बी एक ग्राम पंचायत हुआ करती थी और आज इसके नगर पालिका बनने के दो साल बाद भी यह समस्या बिल्कुल वैसी ही बनी हुई है।

वार्ड नंबर 12 में रहने वाले प्रभुलाल बताते हैं कि यह गंदा पानी बगैर किसी उचित उपचार के तालाबों में पहुंचता है जिसके कारण हमारे जलस्रोतों के पानी से भी दुर्गंध आने लगी है। वे बताते हैं कि “यहां जल निकासी के लिए कोई ठोस व्यवस्था करने की जरूरत है।” वार्ड 12 के एक अन्य निवासी बलवंत राम कहते हैं कि “यहां कोई विकास दिखाई नहीं पड़ता है।”

टिब्बी में पीने के पानी के रूप में फ्लोराइड की उच्च मात्रा वाला भूजल उपलब्ध कराया जाता है। लोग सार्वजनिक स्वास्थ्य अभियांत्रिकी विभाग से नहर का पानी उपलब्ध कराने की मांग कर रहे हैं, लेकिन उनकी मांग पर कोई ध्यान नहीं दिया जा रहा है।

टिब्बी अब एक चौराहे पर खड़ा है, नगर पालिका के रूप में अपग्रेड के बाद न तो यह गांव रह गया है और न ही शहर हो पाया है। आज भी, नगर पालिका कार्यालय में स्वीकृत अधिकांश पद खाली हैं जिससे यहां का काम प्रभावित होता है।

टिब्बी नगर पालिका की अध्यक्ष संतोष सुथार कहती हैं, “अगर [राज्य] सरकार स्वीकृत पदों पर अधिकारियों और कर्मचारियों की नियुक्ति कर लेती तो नगर पालिका सुचारू रूप से काम कर सकती थी। ऐसे में जब अधिकारी और कर्मचारी मौजूद ही नहीं होंगे तो काम कौन करेगा?” जब राज्य सरकार ने 20 मई, 2022 को इसे नगर पालिका में अपग्रेड करने की अधिसूचना जारी की थी, तब वे टिब्बी की सरपंच थीं।

जब पंचायत कार्यालय में नगर पालिका कार्यालय स्थापित किया गया तो सरपंच को नगर पालिका अध्यक्ष, उप सरपंच को नगर पालिका उपाध्यक्ष, और 23 पंचायत सदस्यों को पार्षद बना दिया गया।

कई अन्य सरकारी पद बनाए गए लेकिन शायद ही कभी भरे गए। सहायक राजस्व निरीक्षक की अनुपस्थिति में, नगर पालिका के लिए राजस्व उत्पन्न करना भी एक समस्या है। इसी तरह, जूनियर अकाउंटेंट की अनुपस्थिति में उचित हिसाब-किताब रखना मुश्किल हो गया है जबकि स्वास्थ्य निरीक्षक का पद खाली होने के कारण सफाई व्यवस्था भी प्रभावित हुई है। नगर पालिका के पास कोई स्थायी सफाई कर्मचारी नहीं है; सफाई का सारा काम आउटसोर्स किया जाता है।

राजस्थान के स्थानीय स्वशासन विभाग ने हाल ही में सफाई कर्मचारियों के 24,797 पदों पर भर्ती के लिए अधिसूचना जारी की है, लेकिन इस प्रक्रिया में नौकरशाही की लेट लतीफी की वजह से टिब्बी जैसी नई नगर पालिकाएं इसमें शामिल नहीं होंगी।

टिब्बी नगर पालिका के पार्षद राममूर्ति खन्ना कहते हैं, “नगर निगम कार्यालय में कर्मचारियों के लिए आवश्यक संसाधनों के उपयोग के लिए उचित व्यवस्था होना ज़रूरी है, लेकिन टिब्बी में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं बनाई गई है। राज्य सरकार ने वाहवाही बटोरने के लिए कई नगर पालिकाएं बनाईं, लेकिन उसके बाद उनकी तरफ़ मुड़कर नहीं देखा।”

प्रशासनिक गतिरोध के कारण, स्थानीय निवासियों को लगता है कि टिब्बी की स्थिति नगर पालिका की अपेक्षा ग्राम पंचायत के रूप में बेहतर थी।

अमरपाल सिंह वर्मा राजस्थान स्थित स्वतंत्र पत्रकार हैं। यह लेख 101 रिपोर्टर्स पर मूल रूप से प्रकाशित लेख का संपादित अंश है।

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क्या भोपाल गैस त्रासदी के पीड़ितों को घर मिलेंगे?

रेलवे ट्रैक के साथ कुछ झोंपड़ियां_भोपाल गैस त्रासदी
जिले के अन्नूनगर और श्रीराम नगर के लोग ठंड, बारिश और गर्मी में अपने मकानों के मलबे पर तिरपाल बांध कर रहने को मजबूर हैं। | चित्र साभार: अंकित पचौरी

मध्य प्रदेश के भोपाल जिले में रेलवे और जिला प्रशासन ने 22 दिसंबर 2022 को संयुक्त कार्रवाई करते हुए यूनियन कार्बाइड फैक्ट्री के समीप रेलवे की भूमि पर बने 250 अवैध मकानों पर बुलडोजर चला कर तोड़ दिया था। लेकिन इतना समय बीत जाने के बाद आज भी यहां रह रहे 153 परिवारों को विस्थापित नहीं किया गया है। इस कारण जिले के अन्नूनगर और श्रीराम नगर के लोग ठंड, बारिश और गर्मी में अपने मकानों के मलबे पर तिरपाल बांध कर रहने को मजबूर हैं। शेष परिवार यहां से पलायन कर शहर के दूसरे हिस्सों में चले गए हैं।

गैस पीड़ितों की समस्याओं पर काम कर रहीं भोपाल ग्रुप फॉर इनफार्मेशन एंड एक्शन की संचालक रचना ढिंगरा ने बताया की अन्नूनगर और श्रीराम नगर गैस और पानी पीड़ित रहवासियों की बस्ती है। गैस पीड़ित उन्हें माना जाता है जो साल 1984 में यूनियन कार्बाइड फैक्ट्री से निकली जहरीली हवा में सांस लेने के कारण पीड़ित हुए थे। पानी पीड़ित उन्हें माना जाता है जो भोपाल गैस त्रासदी के कई सालों बाद तक यूनियन कार्बाइड फैक्ट्री परिसर की जमीन में दफन, जहरीले कचरे और फैक्ट्री के समीप बने तालाब के दूषित पानी का इस्तेमाल करने के कारण पीड़ित हुए हैं।

अन्नूनगर में रहने वाले रफीक कहते हैं, “14 महीने बीत चुके हैं, लेकिन हमें जमीन नहीं मिली। जब हमारा मकान तोड़ा जा रहा था, तब प्रशासन ने कहा था कि हमें मकान बनाने के लिए दूसरी जगह दी जाएगी। नगर निगम के कर्मचारियों ने हमें ये भी बताया की अगर हम पीएम आवास योजना के तहत किश्तों में दो लाख रुपये देंगे तो हमें योजना के अंतर्गत पक्का मकान मिल जाएगा। उस वक्त तहसीलदार ने हमें टोकन नंबर दिया था और कहां था कि दो-चार दिन में जगह बता देंगे, लेकिन इतने दिन बीत जाने के बाद भी आज तक हमारे नंबर का कोई अता-पता नहीं है। परिवार में मेरी पत्नी तीन बच्चे और मां हैं। एक साल से हम यहीं तिरपाल बांध कर रह रहे हैं। टोकन लेकर कई बार तहसील गए, मगर अब कोई कुछ नहीं बता रहा।”

इन बस्तियों में ज़्यादातर मुस्लिम और दलित समुदाय के लोग रहते हैं। पिछले एक साल से यहां लोग बिना बिजली, शौचालय और अन्य संसाधनों के अपने परिवार का पालन कर रहे हैं।

अन्नूनगर की एक और निवासी नजमा कहती हैं, “जब हमारे घर तोड़े जा रहे थे, तब हम चिल्लाते रह गए लेकिन किसी ने नहीं सुना। हमने तिरपाल और कपड़े बांधकर छत बना लिए है, लेकिन जब थोड़ी सी तेज हवा चलती है तो डर लगता है। तेज आंधी में कई घरों के टीन और तिरपाल उड़ जाते हैं। लेकिन हमारी परेशानी को ये अफसर क्या समझेंगे।” 

अन्नू नगर में रहने वाले नजब खां ने बताया, “हम सभी परिवार यहां पिछले 30 सालों से रह रहे हैं लेकिन बावजूद इसके अब सभी के नाम वोटर लिस्ट से काट दिए गए हैं। पिछले विधानसभा चुनाव में हम लोग वोट नहीं डाल सके। पहले तो प्रशासन ने हमें बेघर कर दिया और बाद में हमारा वोट डालने का अधिकार भी हमसे छीन लिया।” 

गैस पीड़ित संगठनों ने जनवरी में जिला कलेक्टरेट पहुंचकर 153 परिवारों को विस्थापित किए जाने की मांग को लेकर धरना प्रदर्शन किया था। उस समय वहां पीड़ित परिवारों की सूची भी सौंपी गई थी। भोपाल जिला कलेक्टर ने पीड़ितों को आश्वासन दिया था कि इन्हें पीएम आवास एवं अन्य जगह पर विस्थापित कर दिया जाएगा, लेकिन उसके बावजूद भी अब तक एक भी परिवार को जगह नहीं मिल पाई है। 

अंकित पचौरी, द मूकनायक की संपादकीय टीम का हिस्सा हैं।

यह एक लेख का संपादित अंश है जो मूलरूप से द मूकनायक पर प्रकाशित हुआ था।

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फोटो निबंध: नानकमत्ता के मौसमी मछुआरे

प्रदीप साना (45) अपने 20 मछुआरे दोस्तों के साथ, हर साल गर्मियों में उत्तराखंड के नानकसागर बांध के पास सूखी जमीन पर मछली पकड़ने के लिए नानकमत्ता आते हैं। प्रदीप कहते हैं – “मैं अपने घर से 30 किलोमीटर दूर सिर्फ़ मछली पकड़ने आया हूँ। यहां बहुत सारे मच्छरों के बीच और बिना रोशनी या बिजली के रहना बहुत मुश्किल है। हमें रात में रोशनी के लिए अपनी बाइक की बैटरी का इस्तेमाल करना पड़ता है।”

तालाब किनारे कुछ लोग_प्रवासी मछुआरे
ये झोपड़ियां तेज़ हवा और बारिश से सुरक्षित नहीं रहती हैं। | चित्र साभार: विलेज स्क्वायर

वे अपनी अस्थाई झोंपड़ियां बनाने के लिए, बांध के आस-पास से बांस, लकड़ी और पुआल इकट्ठा करते हैं। इसे बनाने में उन्हें सिर्फ़ एक दिन लगता है, लेकिन ये झोपड़ियां तेज़ हवा और बारिश से सुरक्षित नहीं रहती हैं।

मछली पकड़ते कुछ लोग_प्रवासी मछुआरे
पानी में मिट्टी बांध बनाकर मछली पकड़ने एक तरीका है जो छोटी मछलियों को पकड़ने मे उपयोगी है। | चित्र साभार: विलेज स्क्वायर

प्रवासी मछुआरे ज्यादा से ज्यादा मछलियां पकड़ने के लिए, विभिन्न तरीकों का उपयोग करते हैं – जलाशयों में बड़े जाल लगाने से लेकर, उन क्षेत्रों में बांध बनाने तक जहां पानी की गति तेज़ होती है, जो छोटी मछलियों को पकड़ने के लिए उपयोगी होती है।

मछली पकड़ते लोग_प्रवासी मछुआरे
एक तरफ पानी छोड़ा जाता है, जिससे मछलियां रह गए कीचड़ में फंस जाती हैं और इसलिए उन्हें पकड़ना ज्यादा आसान होता है। | चित्र साभार: विलेज स्क्वायर

मछली पकड़ने में मदद के लिए यांत्रिक उपकरणों का उपयोग सबसे प्रभावी है। जनरेटर के साथ, एक तरफ पानी छोड़ा जाता है, जिससे मछलियां रह गए कीचड़ में फंस जाती हैं और इसलिए उन्हें पकड़ना ज्यादा आसान होता है। इससे उन्हें ज़्यादा से ज़्यादा मछलियां पकड़ने और ज्यादा कमाई करने में मदद मिलती है।

पकड़ी हुई मछलियां_प्रवासी मछुआरे
हमारा जीवन संघर्ष से भरा है। यहां आते ही, हमें जनरेटर, ईंधन, जाल और अन्य जरूरी चीजों पर 70-80 हजार रुपये खर्च करने पड़ते हैं। | चित्र साभार: विलेज स्क्वायर

प्रदीप कहते हैं – “हमारा जीवन संघर्ष से भरा है। यहां आते ही, हमें जनरेटर, ईंधन, जाल और अन्य जरूरी चीजों पर 70-80 हजार रुपये खर्च करने पड़ते हैं। और फिर हमारा ठेकेदार कभी-कभी 10 से 15 दिन बाद तक भुगतान नहीं करता है।”

जाल से मछली बीनते लोग_प्रवासी मछुआरे
मौसमी मछली पकड़ने के इस काम में जीवन कठिन है। | चित्र साभार: विलेज स्क्वायर

मौसमी मछली पकड़ने के इस काम में जीवन कठिन है। लेकिन पुरुषों को रोमांच और उपलब्धि का अहसास भी होता है, क्योंकि वे अपने परिवार के लिए आजीविका कमाते हैं। प्रदीप कहते हैं – “मछलियां हर जगह हैं, लेकिन नानकमत्ता में हमें जो मज़ा आता है, वह कुछ और ही है।”

यह लेख मूलरूप से विलेज स्क्वायर पर प्रकाशित हुआ था।