पार्वती* एकडेढ़ साल के बच्चे की मां हैं। वह कहती हैं कि “मेरा घर किसी ऐसी भट्टी जैसा लगता है जिसे मैं बुझा नहीं सकती।” वह चेन्नई के औद्योगिक इलाके में रहती हैं। टिन की चादर वाली छत के नीचे उनके घर में आधी रात के बाद भी दिन भर की गर्मी बनी रहती है। आमतौर पर जिन घरों में हवा का प्रवाह कम हो, प्रदूषण अधिक हो या ठंडक न हो, वहां रहने वाली माताओं में अवसाद, तनाव और चिंता जैसी समस्याओं के बढ़ने की संभावना अधिक होती है। इसका सीधा असर उनके शिशुओं की देखभाल पर पड़ता है।
अत्यधिक गर्म माहौल में रहने से गर्भवती महिलाओं में जटिलताओं का जोखिम बढ़ जाता है: जैसे बच्चे के मृत पैदा होने का खतरा लगभग 1.13 गुना अधिक, जन्मजात विकृतियां 1.48 गुना अधिक और हीटवेव के दौरान गर्भावस्था से जुड़ी जटिलताएं 1.25 गुना तक बढ़ सकती हैं। वहीं मानसिक स्वास्थ्य पर भी गर्मी का असर साफ दिखता है: देश भर में किए गए कई अध्ययनों में पाया गया है कि तापमान बढ़ने के साथ बुजुर्गों में अवसाद और मानसिक तनाव के मामले बढ़े हैं। ताइवान में, तापमान में सिर्फ 1°C की वृद्धि से अवसाद के गंभीर मामलों में सात फीसदी तक बढ़त देखी गई है।
संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के मुताबिक, निम्न और मध्यम आय वाले देशों में समय से पहले जन्मे शिशुओं की मृत्यु से जुड़े 91 प्रतिशत मामले प्रदूषण से संबंधित होते हैं। वहीं उन परिवारों में, खासकर जो हवादार घरों में नहीं रहते हैं, अक्सर त्वचा संबंधी समस्याओं (हीटरैश) और श्वास संबंधी रोगों की शिकायत आम होती है।
ये रुझान राष्ट्रीय स्तर पर हुए उन अध्ययनों से मेल खाते हैं, जिनमें पाया गया है कि निरंतर वायु प्रदूषण बच्चों के स्वास्थ्य पर दीर्घकालिक कुप्रभाव छोड़ता है। भारत में हर पांच में से एक महिला प्रसव के बाद होने वाले अवसाद यानी पोस्टपार्टम डिप्रेशन (22%) से गुजरती है। तमिलनाडु जैसे दक्षिणी राज्यों में यह आंकड़ा बढ़कर हर चार में से एक (26%) महिला में पाया जाता है। इसके बावजूद, ज्यादातर महिलाओं को जरूरी देखभाल या कोई औपचारिक सहायता नहीं मिल पाती है। जिन माताओं के बच्चे विकलांग होते हैं, उनके लिए स्थिति और मुश्किल होती है। सेवाओं की कमी, सामाजिक रूढ़ियां और भावनात्मक अकेलापन जैसे कई पहलू देखभाल से होने वाली शारीरिक थकान को और बढ़ा देते हैं।
साल 2024-25 में, हार्वर्ड मेडिकल स्कूल में किए गए अपने एक शोध के तहत, मैंने तमिलनाडु के सभी 38 जिलों में 391 माताओं के साथ एक सर्वे किया। इसका उद्देश्य यह समझना था कि जलवायु संकट उनके मानसिक स्वास्थ्य को कैसे प्रभावित करता है। इसके अलावा, मैंने इनमें से छह माताओं के साथ लंबे और गहन साक्षात्कार भी किए। इनका उद्देश्य बढ़ती हीटवेव और वायु प्रदूषण के बीच बच्चों की देखरेख से जुड़ी उनकी जिम्मेदारियों, आर्थिक दबाव और मानसिक बोझ के अनुभवों को बेहतर तरीके से समझना था।
तमिलनाडु देश के सबसे तेजी से गर्म होते राज्यों में शामिल है। भारतीय मौसम विभाग (आईएमडी) के आंकड़ों के मुताबिक, पिछले तीन दशकों में यहां का सालाना अधिकतम तापमान हर साल 0.02-0.04°C तक बढ़ा है। हालिया सालों में, कई जिलों में गर्मियों में तापमान 42°C के पार भी गया है। चेन्नई में, अर्बन हीट आइलैंड प्रभाव के कारण शहर का तापमान हरियाली वाले इलाकों की तुलना में +3-4°C अधिक रहता है। इससे मौजूदा तनाव बढ़ता है, भीतरी इलाकों में सूखा लंबे समय तक बना रहता है और तटीय इलाकों में उमस बढ़ जाती है।

लता* चेन्नई के बाहरी इलाके में एक ईंट भट्ठे के पास रहती हैं और एक साल के बच्चे की मां हैं। वे कहती हैं कि “यह हवा किसी धीमे जहर जैसी है। इसमें बच्चे के लिए सांस लेना तक भारी हो जाता है। जब वह सोता है तो मैं उसकी नाक ढक देती हूं। लेकिन मैं हवा को कब तक ढंक सकती हूं? उसे इस हवा में सांस लेने से कैसे रोकूं?”
प्रदूषण और बढ़ती गर्मी का असर केवल शारीरिक स्वास्थ्य पर ही नहीं, माताओं के मानसिक स्वास्थ्य पर भी पड़ता है। अंतर्राष्ट्रीय और राष्ट्रीय स्तर पर हुए शोध लगातार बताते हैं कि अत्यधिक गर्मी का प्रभाव माताओं के खराब मानसिक स्वास्थ्य के रूप में भी देखने को मिलता है, जिसमें पोस्टपार्टम डिप्रेशन भी शामिल है। हमारे अध्ययन में न्यूरोटिपिकल बच्चों की माताओं के साथ-साथ विकलांग बच्चों की माताओं को भी शामिल किया गया था। इनमें से 65 प्रतिशत माताओं में हल्के से मध्यम स्तर के अवसाद के लक्षण दिखाई दिए। वहीं, विकलांग बच्चों की माताओं में इसकी दर और गंभीरता दोनों अधिक थीं। सामाजिक रूढ़ियां, बढ़ी हुई देखभाल की जरूरतें और सीमित सामाजिक समर्थन उनके मानसिक बोझ को और बढ़ा देते हैं।
इन अधिकांश मामलों में पिता की भूमिका समान जिम्मेदारी संभालने से ज्यादा केवल आर्थिक सहारा देने तक ही सीमित रहती है। लेकिन आमतौर पर उनकी आय के बावजूद, परिवार लगातार आर्थिक दबाव का सामना करते हैं। जैसा कि एक मां ने बताया, “मेरे पति की फैक्ट्री वाली नौकरी से मुश्किल से ही हमारा गुजारा चल पाता है।”
जलवायु संकट और सीमित संसाधनों के चलते माताएं अक्सर घर में ही समाधान खोजने का प्रयास करती हैं। जब अनौपचारिक बस्तियों में बिजली जाती है तो वे व्हाट्सएप के जरिए संपर्क बनाए रखती हैं। इसके माध्यम से वे सरकारी योजनाओं की जानकारी, पानी के टैंकर की उपलब्धता और ठंडक के उपाय जैसी जानकारियां भी आपस में साझा करती हैं। ग्रामीण मदुरै में महिलाएं ठंडक के लिए जड़ी-बूटियों का इस्तेमाल करने के पारंपरिक तरीकों को दोबारा अपना रही हैं। इसका एक उदाहरण सूती कपड़े को नीम और हल्दी के पानी में भिगोकर लगाना है, ताकि गर्मी से होने वाले बुखार जैसी परेशानियों को कम किया जा सके। इस तरह के उपाय किफायती और स्थानीय संस्कृति में स्वाभाविक रूप से रचे-बसे होने के साथ-साथ न्यूनतम संसाधनों के सहारे आसानी से बड़े पैमाने पर लागू किए जा सकते हैं।।
तमिलनाडु के पास नीतिगत ढांचा मौजूद है, लेकिन घरेलू स्तर पर नवजात बच्चों की माताओं की देखभाल से संबंधित प्रयासों की कमी है। ऐसी परिस्थिति से जुड़े कुछ उपाय हैं:
तमिलनाडु तात्कालिक कदम के तौर पर माताओं की देखभाल को केंद्र में रखते हुए कूलिंग सब्सिडी दे सकता है। ठंडक बच्चों को सोने में मदद करती है, स्तनपान को आसान बनाती है और गर्मी से जुड़ी मानसिक तकलीफ को कम करती है।
तमिलनाडु की हीट मिटिगेशन स्ट्रेटेजी (2024) पहले ही वंचित समुदायों के लोगों को रिफ्लेक्टिव छतों और ठंडी सतहों के निर्माण के लिए सहयोग देती है। इस रणनीति में नई माताओं की देखभाल के उद्देश्य को शामिल करना और उनके घरों तक पहुंचाने के लिए इसे बढ़ाना, स्वास्थ्य के लिहाज से तेजी से बेहतर परिणाम दे सकता है।
रिफ्लेक्टिव छतों वाली चादरें (जिन पर सफेद या हल्के रंग की कोटिंग होती है) जैसे उपाय घर के भीतर का तापमान 2–5°C तक कम कर सकते हैं। इनके प्रयोग से गर्मी के कारण बच्चों की नींद में आने वाली बाधा लगभग 30 प्रतिशत तक घट सकती है। इसके अलावा, माताएं मिट्टी के बने कूलर और मिट्टी के ही बर्तनों से बनाए गए ठंडक समाधानों (ज़ीर पॉट फ्रिज) का इस्तेमाल करती हैं जो ग्रामीण बाजारों में आसानी से उपलब्ध हैं। ये बिजली के बगैर, पानी और खाने-पीने की चीजों का तापमान कम रखते हैं और बिजली कटने पर स्टोर किए गए मां के दूध को सुरक्षित भी रखते हैं। लेकिन इन सरल उपायों को राज्य स्तर पर समर्थन देने वाली कोई व्यवस्था मौजूद नहीं हैं। कम संसाधन वाले क्षेत्रों में नई माताओं को इस तरह की चीजें उपलब्ध करवाना उनके लिए गर्मी से निपटने में मददगार हो सकता है।
आशा कार्यकर्ता ग्रामीण इलाकों और शहरी अनौपचारिक बस्तियों में माताओं के लिए स्वास्थ्य सुविधाओं से संपर्क का पहला बिंदु होती हैं। लेकिन उनके प्रशिक्षण माॉड्यूल में जलवायु से जुड़े देखभाल जोखिम की जानकारी शामिल नहीं होती है।
आशा कार्यकर्ताओं को पोस्टपार्टम डिप्रेशन और गर्मी से जुड़े तनाव के लक्षण पहचानने का भी प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए।
जलवायु से होने वाली चुनौतियां रोजमर्रा की हकीकत बनती जा रही हैं चूंकि आशा कार्यकर्ता पहले से कामकाज का भारी बोझ झेल रही हैं, इसलिए इसे उनके लिए अतिरिक्त जिम्मेदारी नहीं बनाना चाहिए। इसके बजाय, जैसे-जैसे जलवायु से होने वाली चुनौतियां रोजमर्रा की हकीकत बनती जा रही हैं, वैसे-वैसे उनके प्रशिक्षण में गर्मी से होने वाली बीमारियों की पहचान, सुरक्षित हाइड्रेशन के तरीके, घरों के भीतर हवा की गुणवत्ता सुधारने के प्रयास (जैसे गीले कपड़े से धूल को रोकना) और गर्मियों में आपातकालीन स्तनपान जैसी जानकारियां शामिल की जानी चाहिए। आशा कार्यकर्ताओं को पोस्टपार्टम डिप्रेशन और गर्मी से जुड़े तनाव के लक्षण पहचानने का भी प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए। इसके लिए एडिनबरा पोस्टनेटल डिप्रेशन स्केल (ईपीडीएस) जैसे छोटे और मान्य उपकरण को तमिल में उपलब्ध करवाया जा सकता हैं।
देश भर में, राज्य सरकारें गर्मियों में बढ़ते तापमान से निपटने के लिए अपने हीट एक्शन प्लान पर काम कर रही हैं। अहमदाबाद में इसकी शुरूआत हुई और अब इसे ओडिशा और तेलंगाना में भी अपनाया जा चुका है। इन योजनाओं में पूर्व चेतावनी सिस्टम, स्वास्थ्य कर्मियों के प्रशिक्षण और हाइड्रेशन व गर्मी से बचाव पर सार्वजनिक सुझाव दिया जाना शामिल है। तमिलनाडु का राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण पहले ही हीट अलर्ट जारी करता है। इस व्यवस्था को आगे बढ़ाकर संदेशों को साधारण और लागू किए जा सकने योग्य निर्देशों में बदलकर उन घरों तक पहुंचाया जा सकता है, जो अधिक जोखिम का सामना कर रहे हैं।
चूंकि माताएं पहले से ही व्हाट्सएप का इस्तेमाल करती हैं, इसलिए जिला स्तर पर आशा कार्यकर्ताओं द्वारा संचालित व्हाट्सएप समूह मददगार हो सकते हैं। इन पर माताओं को समय पर आसानी से समझ आने वाले अपडेट दिए जाने चाहिए। जैसे, “सुबह 11 बजे से दोपहर 3 बजे तक धूप से बचें”, “पानी के बर्तन छाया में रखें” या “छतों को गीले जूट के बोरे से ढकें।” कलंजियम समुगा वनोली जैसे सामुदायिक रेडियो स्टेशनों के जरिए हीटवेव से जुड़ी देखभाल के टिप्स, हाइड्रेशन के संदेश और माताओं के मानसिक स्वास्थ्य के स्व-निरीक्षण जैसी जानकारियों को स्थानीय बोली-भाषा में प्रसारित किया जा सकता है। यह चैनल पहले से ही, खासकर ग्रामीण और तटीय इलाकों में, आपदा तैयारी और जलवायु चुनौतियों से निपटने की क्षमता पर जोर देता है।
जैसे-जैसे तमिलनाडु में राष्ट्रीय औसत से अधिक गर्मी पड़ने लगी है और इसके शहरी व औद्योगिक क्षेत्र, गर्म और प्रदूषित होते जा रहे हैं, वैसे-वैसे महिलाओं (खासकर कम आयवर्ग से आने वाली माताओं) पर देखभाल से जुड़ी जिम्मेदारियों का बोझ बढ़ता जा रहा है।
*गोपनीयता बनाए रखने के लिए नाम बदल दिए गए हैं।
यह अध्ययन हार्वर्ड सेंटर फॉर इंटरनेशनल डेवलपमेंट और मित्तल इंस्टीट्यूट के सहयोग से, हार्वर्ड टीएच चान स्कूल ऑफ पब्लिक हेल्थ और हार्वर्ड मेडिकल स्कूल के स्वास्थ्य विशेषज्ञों के साथ मिलकर किया गया है। इसमें किसी प्रकार का हित का संघर्ष नहीं है।
इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ें।
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विकास सेक्टर में सक्रिय लघु स्तर के बहुत से गैर-लाभकारी संगठन अक्सर सीमित संसाधनों के साथ काम करते हैं। हाल के वर्षों में ऐसी संस्थाओं के लिए कई तकनीक-आधारित समाधान उभरे हैं, जो उनके काम को अधिक कुशल, प्रभावी और डेटा-केंद्रित बनाने में सहायक सिद्ध हुए हैं। फिर भी इनकी संरचना, बुनियादी उद्देश्य और उन्हें अपनाने की प्रक्रिया में अनेक चुनौतियां हैं, जिन्हें गहराई से समझने और दूर करने के लिए रणनीतिक दृष्टिकोण अपनाना आवश्यक है। आसानी से इस्तेमाल किए जा सकने एक डिजिटल टूल के जरिए यह सुनिश्चित किया जा सकता है कि:
इस लेख में हम लघु संस्थाओं के लिए तकनीक-आधारित समाधानों से जुड़ी जरूरतों, चुनौतियों, संभावित उपायों और उनसे मिली सीख पर गौर करेंगे, जो हमारे समन्वय और अवनी के व्यावहारिक अनुभवों पर आधारित हैं।
बहुत सी लघु संस्थाओं का अधिकांश काम आज भी पारंपरिक विधियों पर आधारित हैं, जहां फील्ड वर्कर कागजों में डेटा दर्ज करते हैं, जिन्हें बाद में रिपोर्ट में बदलने में कई हफ्ते लग जाते हैं। इस प्रक्रिया में न केवल समय का नुकसान होता है, बल्कि मानवीय त्रुटियां भी अपरिहार्य हो जाती हैं। जैसे – समुदाय के किसी व्यक्ति का गलत फोन नंबर दर्ज होना या तिथियों में गड़बड़ी हो जाना, जो बाद में उनसे संपर्क स्थापित करने में बाधा बनते हैं। नतीजतन, संस्थाओं को अपने रोजमर्रा के कामों में रुकावट का सामना करना पड़ता है।
उदाहरण के लिए, हमारे साझेदार संगठनों में से एक संस्था प्रोजेक्ट पोटेंशियल बिहार के किशनगंज जिले में पीएमजेएवाई (प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना) के जमीनी कार्यान्वयन पर पूरी तरह कागजी दस्तावेजीकरण के तहत काम कर रही थी। इसके अंतर्गत लगभग 24 फील्ड कॉर्डिनेटरों द्वारा 12 ग्राम पंचायतों से प्राप्त 12,900 आवेदनकर्ताओं की एंट्री को तकरीबन 500-600 पन्नों में दर्ज किया जा रहा था। ऐसे में संस्था के लिए यह जानना आसान नहीं था कि किसका आयुष्मान कार्ड बन चुका है, कितने कार्ड अब भी प्रक्रिया में हैं और कितने लोग वास्तव में इसका उपयोग कर पा रहे हैं।
लेकिन जब डिजिटल दस्तावेजीकरण का इस्तेमाल किया गया, तो संस्था अपने फील्ड वर्करों के साथ यह आंकड़ा साझा करने में सक्षम हुई कि वे दैनिक रूप से कितने कार्ड बना रहे हैं और कितने कार्ड डाउनलोड कर रहे हैं। इससे उनके रोजमर्रा के काम तो आसान हुए ही, वे मापन-योग्य आंकड़ों के अनुसार अपनी प्लानिंग भी करने लगे। जैसे, अगर उनके पास छह महीने में 15,000 कार्ड बनाने का लक्ष्य है, तो वे उससे कितने दूर हैं या उन्हें अपनी योजना में क्या बदलाव करने चाहिए। इसका सीधा असर संस्था की संचालन क्षमता पर दिखा, जो 30% तक बढ़ गयी। साथ ही वास्तविक समय में डेटा ट्रेकिंग की अवधि भी सात से घटकर एक दिन हो गयी।
देश के दूर-दराज के इलाकों में बुनियादी सुविधाओं, जैसे बिजली और इंटरनेट की अनियमित उपलब्धता डिजिटल समाधानों को अपनाने में एक प्रमुख बाधा बनती है। ऐसे में अधिकांश डिजिटल टूल जो केवल ऑनलाइन मोड में काम करते हैं, इन क्षेत्रों के लिए व्यावहारिक नहीं रह जाते।

अपने शुरुआती दिनों में हमने महाराष्ट्र के आदिवासी इलाकों में काम करने वाली एक संस्था का दौरा किया था। उन्हें डेटा ट्रैकिंग, फॉलो-अप और निर्णय लेने में सहयोग के लिए ऐसा समाधान चाहिए था, जो इंटरनेट पर निर्भर न हो। जैसे-जैसे हमने अन्य संस्थाओं से बात की, हमें समझ आया कि यह चुनौती लगभग हर उस संस्था के लिए आम है, जो ग्रामीण, दुर्गम क्षेत्रों, कस्बों या महानगरों में भी घर-घर जाकर काम करती है। ग्रामीण क्षेत्रों में पिछले कुछ सालों में बिजली और इंटरनेट की उपलब्धता भले ही बेहतर हुई है, लेकिन यह अभी भी निरंतर रूप से भरोसेमंद नहीं है। ऐसे में ऑफलाइन काम करने वाले डिजिटल टूल जो डेटा संग्रह, विश्लेषण और निर्णय की पूरी प्रक्रिया में साथ न छोड़ें, कहीं अधिक व्यावहारिक और प्रभावी साबित होते हैं।
लघु संस्थाओं के लिए किसी भी डिजिटल टूल को अपनाने से पहले यह बेहद जरूरी है कि वे अपनी वास्तविक जरूरतों को गहराई से समझें। किसी भी टूल का चयन करने से पहले यह जानना जरूरी है कि संस्था किस समस्या का समाधान चाहती है और उस समाधान के लिए कौन-सी डिजिटल सुविधा वास्तव में उपयोगी होगी। इससे संस्था यह पहचान सकती है कि उन्हें डिजिटल टूल में किन विशेषताओं की आवश्यकता है, जैसे:
स्पष्ट जरूरतों की पहचान ही किसी भी सफल तकनीकी हस्तक्षेप की पहली शर्त होती है। इसलिए संस्थाओं को यह ध्यान रखना चाहिए कि वे किसी भी टूल को अपनाते समय उसकी भाषा, डिजाइन और उपयोगिता को अपने स्थानीय संदर्भ में परखें।
अमूमन संस्थाएं किसी सॉफ्टवेयर या एप्लिकेशन (एप) को मुहैया करवाने वाली एजेंसी, व्यक्ति या लाइसेंस से बंध जाती हैं। इसके अलावा, लघु स्तर की संस्थाओं के लिए अपने सीमित बजट के साथ एक सॉफ्टवेयर या एप में अलग से निवेश करना हमेशा संभव नहीं होता है।
ऐसे में संस्थाएं एक अच्छे ओपन-सोर्स टूल का उपयोग कर सकती हैं। ये टूल सीमित संसाधनों वाली संस्थाओं को अधिक पारदर्शी, अनुकूलनीय और सशक्त बनाते हैं। साथ ही संस्थाएं अपनी परियोजनाओं और डेटा प्रबंधन की आवश्यकताओं के अनुसार इन्हें अनुकूलित कर सकती हैं। इनके प्रयोग का एक उद्देश्य यह भी है कि संस्था किसी एक व्यक्ति या एजेंसी पर अति-निर्भर नहीं रहती है। इस पहलू को हम डिजिटल टूल के स्थाई समाधान बन जाने की तरह भी समझ सकते हैं, जिसमें ओपन-सोर्स एक अहम भूमिका निभा सकता है।
मालिकाना अधिकारों की शर्त न होने के कारण ओपन-सोर्स टूल में किसी तरह की भारी-भरकम लाइसेंसिंग कीमत भी शामिल नहीं होती है। संस्थाएं इसे चलाने के लिए किसी समझौते से बंधे रहने के लिए बाध्य नहीं होती हैं। जैसे, वे अपने डेटा के लिए सरलता से क्लाउड-होस्टिंग का विकल्प भी चुन सकती हैं। इसके अलावा, अगर कोई संस्था एक ओपन-सोर्स टूल का सफलतापूर्वक उपयोग करती है, तो अन्य संस्थाएं भी इस टूल को अपनाने के लिए प्रेरित होती हैं।
जब कोई संस्था किसी तकनीकी सहयोगी (वेंडर/प्रोवाइडर) के साथ काम करती है, तो उसके लिए यह जरूरी हो जाता है कि वह केवल उपभोक्ता भर न बनी रहे बल्कि उसके चयन की प्रक्रिया में भी सक्रिय भूमिका निभाए। अक्सर संस्थाएं कोई आकर्षक या जटिल तकनीक अपना लेती हैं, जबकि उनकी जरूरत कहीं अधिक सरल होती है। उदाहरण के लिए, किसी संस्था के लिए एक साधारण व्हाट्सऐप चैटबॉट ही डेटा संग्रह या संवाद के लिए पर्याप्त हो सकता है, लेकिन वे किसी महंगे, अतिरिक्त फीचर्स वाले एप में निवेश कर देती हैं, जिसकी जरूरत उन्हें वास्तव में नहीं होती है।
ऐसे में संस्थाएं शुरुआती चरण में ही अपने तकनीकी साझेदार को यह सुझाव दे सकती हैं कि टूल को बहुत जटिल रूप में न विकसित किया जाए। इसके बजाय, पहले सीमित फीचर्स के साथ एक कार्यशील मॉडल तैयार किया जाए, जिसे फील्डवर्कर आसानी से अपना सकें। जब वे टूल के बुनियादी स्तर पर सहज रूप से काम करने लगें, उसके बाद वे धीरे-धीरे नए फीचर्स की ओर बढ़ सकते हैं।

निरंतर प्रतिक्रिया देने से टूल का उपयोग अधिक व्यावहारिक, प्रासंगिक और दीर्घकालिक बनता है। उदाहरण के लिए, अवनी बनाते समय हमारी टीम ने बहुत सारा समय जमीनी संस्थाओं और फील्डवर्करों के साथ बिताया। उनसे मिले इनपुट के आधार पर हमने तय किया कि हमें अपना यूजर-इंटरफेस एकदम सरल रखना है, जिसमें डेटा एंट्री के लिए कम से कम टाइपिंग की जरूरत हो। इसके अलावा हमने सिंगल और मल्टी फीचर, फॉन्ट, बटन के चयन आदि जैसे पहलुओं को बनाते समय भी उनके इनपुट पर पूरा ध्यान दिया।
जब लघु संस्थाएं डिजिटल टूल या सॉफ्टवेयर अपनाने की सोचती हैं, तो उनके लिए यह समझना उतना ही आवश्यक है कि वे किस प्लेटफॉर्म पर काम कर रही हैं, जितना यह जानना कि वे कौन-सा टूल वे उपयोग कर रही हैं। जिस तरह ओपन-सोर्स संस्थाओं को अपने संसाधनों पर नियंत्रण और स्वायत्तता देता है, उसी तरह एक सही प्लेटफॉर्म का चुनाव उन्हें लचीलापन, किफायत और दीर्घकालिक स्थिरता प्रदान करता है।
अक्सर संस्थाओं के कार्यक्रम अलग-अलग विषयों पर केंद्रित होते हैं। ऐसे में उन्हें अपनी हर परियोजना के लिए यह लगता है कि उन्हें एक नया डिजिटल टूल चाहिए। लेकिन यदि वे अपनी जरूरतों का गहराई से विश्लेषण करें, तो यह साफ होगा कि इन सभी कार्यों की कुछ जरूरतें साझा हैं (जैसे ऑफलाइन मोड, स्थानीय भाषा, सरल इंटरफेस आदि), और कुछ जरूरतें कार्यक्रम-विशिष्ट हैं (जैसे फॉर्म, रिपोर्ट, इंडिकेटर आदि)।
अवनी के माध्यम से हमने जाना कि यदि संस्थाएं यह समझ लें कि उनके काम का कौन-सा हिस्सा साझा है और कौन-सा विशिष्ट, तो वे बार-बार नया एप्लिकेशन बनवाने की बजाय एक साझा, कॉन्फिगरेबल प्लेटफॉर्म इस्तेमाल कर सकती हैं। इससे न केवल लागत घटती है, बल्कि रखरखाव, प्रशिक्षण और अपग्रेड का काम भी सरल हो जाता है। इसलिए डिजिटल तकनीक अपनाते समय संस्थाओं को यह स्पष्ट दृष्टि रखनी चाहिए कि वे एक ऐसे लचीले और साझा प्लेटफॉर्म में निवेश कर रही हैं, जो उनके बदलते कार्यक्रमों के साथ विकसित हो सके और लंबे समय तक टिकाऊ बना रहे।
अक्सर संस्थाओं में वरिष्ठ पदों पर कार्यरत कॉर्डिनेटर या मैनेजर निर्देश जारी करते हैं और बड़े निर्णय लेते हैं। वहीं जमीनी कार्यकर्ता केवल डेटा इकट्ठा करने की भूमिका तक ही सीमित रह जाते हैं। लेकिन अगर हम जमीनी कार्यकर्ता को भी निर्णय लेने की प्रक्रिया में शामिल करें, तो प्रोग्राम के समग्र ढांचे को अधिक समावेशी और प्रभावी बनाया जा सकता है। उदाहरण के लिए, किसी सरकारी योजना के कार्यान्वयन में आमतौर पर फील्ड वर्कर केवल लोगों का डेटा रिकॉर्ड करते हैं। लेकिन अगर उनके पास एक ऐसा सरल डिजिटल टूल हो जिसमें वे स्पष्ट रूप से अपने काम का लेखा-जोखा देख पायें, तो वे खुद अपने काम को ट्रैक करते हुए अपनी जवाबदेही तय कर सकते हैं।
संस्थाओं को हमेशा अपने फील्ड वर्करों से यह जानने की कोशिश करनी चाहिए कि वे एक टूल के जरिये क्या करना चाहते हैं और उनका काम किस तरह सुगम बन सकता है। जब संस्थाएं अपने फील्ड कार्यकर्ताओं की जरूरतें जानने का प्रयास करती हैं, तो उनके लिए डिजिटल टूल अपनाने की प्रक्रिया अपने आप सहज हो जाती है।

टूल का जमीनी प्रयोग जितना विविध होगा, उसे बेहतर बनाने के लिए उतनी ही अनुभवात्मक प्रतिक्रियाएं मिलेंगी। इस कड़ी में हमने शुरुआत में अपने टूल के अलग-अलग उपयोगकर्ताओं (यूजर) के साथ प्रशिक्षण सत्र आयोजित किए। हमने बहुत से फील्ड वर्करों को लॉग-इन से लेकर डेटा एंट्री तक हर छोटे-बड़े पहलू को बारीकी से समझाया। उदाहरण के लिए, प्रारंभिक प्रशिक्षण सत्रों के दौरान हमने उपयोगकर्ताओं को प्ले स्टोर से ऐप डाउनलोड करने से लेकर डेटा दर्ज करने तक हर चरण विस्तार से सिखाया। ऐप के यूजर इंटरफेस में किए गए छोटे-छोटे बदलाव, जैसे अंग्रेजी और हिंदी के बीच भाषा बदलने का विकल्प, उपयोगकर्ताओं के अनुभव को कहीं अधिक सहज और सुविधाजनक बनाने में बेहद प्रभावी साबित हुए।
निर्णय लेने के संदर्भ में यह महत्वपूर्ण है कि टूल ऐसा हो जो हर चरण में सभी प्रतिभागियों से संवाद बरकरार रखे। जैसे-जैसे वे फॉर्म में आगे बढ़ते जाते हैं, एप उन्हें लगातार फीडबैक देने का काम कर सकती है। यह दोतरफा संवाद के लिए भी सहायक होता है। साथ ही, इससे एक फील्ड वर्कर को यह भी समझ में आता है कि वे जिस कार्यक्रम के तहत सर्वे या डेटा संग्रहण कर रहे हैं, उसका मूल उद्देश्य क्या है और वह कितने लोगों तक पहुंच पा रहा है। यह संस्थाओं के भीतर पदानुक्रम (हायरार्की) की तय अवधारणाओं को भी संबोधित करता है। जब आप एक फील्ड वर्कर के हाथ में एक ऐसा टूल देते हैं, जिसमें उन्हें भी कॉर्डिनेटर और मैनेजर की तरह समान डैशबोर्ड नजर आता है, तो उनके अंदर स्वामित्व की भावना को बढ़ावा मिलता है।
तकनीक और समाज का रिश्ता परस्पर है। जिन लघु संस्थाओं के लिए डिजिटल समाधान बनाए जा रहे हैं, वही इन समाधानों के शिल्पकार भी हैं। एक लघु संस्था में नेतृत्व पंक्ति के साथ-साथ फील्ड वर्कर के अनुभव, उनकी सीमाएं, सहज भाषा जैसे सभी पहलू प्रभावी तकनीकी समाधान की बुनियाद हैं। अवनी जैसे ओपन-सोर्स टूल इस विचार को आगे बढ़ाने का प्रयास हैं कि हमें संस्थाओं के काम को जटिल नहीं, सरल बनाना है और उनकी निर्णय लेने के तंत्र को केंद्रीकृत से साझी प्रक्रिया में बदलना है।
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साल 2019 में जब हमने लेडबाय की शुरुआत की थी, तब हमारे पास कोई तय मार्गदर्शिका नहीं थी। हम में से कोई शिक्षण में प्रशिक्षित नहीं था और न ही हम शिक्षण विधियों के विशेषज्ञ थे। हमारे पास बस एक गहरी जिज्ञासा थी, आपनी समझ थी और यह दृढ़ विश्वास था कि भारतीय मुस्लिम महिलाओं को ऐसे परिवेश मिलने चाहिए, जहां उनकी मुश्किलों से इतर उनकी महत्वाकांक्षाओं पर ध्यान दिया जा सके।
लेडबाय भारतीय मुस्लिम महिलाओं के लिए विशेष रूप से तैयार किए गए नेतृत्व, करियर और उद्यमिता प्रोग्राम संचालित करता है। ये ऐसे कार्यक्रम हैं, जो वर्षों तक उनकी जरूरतें सुनते और समझते हुए, उनके साथ मिलकर विकसित किए गए हैं।
योजना से नहीं, सुनने से शुरुआत करें। डिजाइन करने से पहले प्रश्न पूछें। एक बार नहीं, लगातार। और सुनने की प्रक्रिया को कभी रुकने न दें। सुनने से प्रासंगिकता बनती है, और प्रासंगिकता से विश्वास।
काम के पहले साल में इस बात का मतलब था लंबी-लंबी टेलीफोन बातचीत, अनगिनत व्हाट्सएप संदेश, ईमेल संवाद और विस्तृत फीडबैक फॉर्म। समय बीतने के साथ यही प्रक्रिया एक संगठित, मुक्त–स्रोत स्वयंसेवी कार्यक्रम में बदल गयी, जिसमें कोई भी व्यक्ति देशभर में कहीं भी मुस्लिम महिलाओं के साथ पांच संरचित साक्षात्कार करने के लिए साइन अप कर सकता था। आज यही स्वयंसेवी-आधारित फीडबैक प्रणाली हमारे सुनने की प्रक्रिया को संस्थागत बनाने के प्रमुख तरीकों में से एक है। यही हमें बताती है कि किस पहलू को बनाए रखना है, किसे संशोधित करना है, और किसे पूरी तरह छोड़ देना है।
लेकिन सुनने का अर्थ केवल बाहरी समुदाय तक सीमित नहीं है। लेडबाय में हम हर कार्यक्रम यह मानकर विकसित करते हैं कि प्रतिभागी हमारे साथ मिलकर उसका सह-निर्माण करेंगे। न केवल अपनी सीख के लिए, बल्कि उन प्रतिभागियों के लिए भी जो आने वाले वर्षों में इन कार्यक्रमों का हिस्सा बनेंगे। हमारे कोहॉर्ट में सिर्फ शिक्षार्थी नहीं, संरक्षक भी हैं। उनसे यह अपेक्षा की जाती है कि वे सफलता से ज्यादा असफलता पर विचार करें, ताकि आने वाले कल को मजबूत किया जा सके।

अक्सर हाशिए पर धकेले गए समुदायों के लिए बनाए गए कार्यक्रम सत्ता के उन्ही ढांचों को दोहराते हैं, जिन्हें वे तोड़ना चाहते हैं। इस कड़ी में वे आकर्षक रिज्यूमे, ‘सही’ डिग्री, ‘सही’ जवाब या संभ्रांत भाषा तलाशते नजर हैं।
हमने सीखा है कि कार्यक्रमों को केवल प्रमाण-पत्रों के आधार पर नहीं, बल्कि भरोसे को केंद्र में रखकर डिजाइन किया जाना चाहिए। समय के साथ हमें एहसास हुआ कि किसी व्यक्ति के भाषा-ज्ञान या प्रेजेंटेशन कौशल की तुलना में उसकी लगन और दृढ़ता को पहचानना कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण है। हमने अब तक हजारों आवेदकों का साक्षात्कार किया है। इस प्रक्रिया में हमने अपने सवालों को इस तरह विकसित किया है कि हम समझ सकें उनका नजरिया क्या है, वे क्या करना चाहते हैं और आगे बढ़ने के प्रति उनकी प्रतिबद्धता कितनी गहरी है।
कई प्रतिभाशाली लोग कौशल की कमी से नहीं, बल्कि आत्म-संदेह, सामाजिक रूढ़ियों या अकेलेपन के कारण पीछे रह जाते हैं। इसी वजह से चयन प्रक्रिया में बाहरी चमक-दमक नहीं, बल्कि इच्छा-शक्ति और उद्देश्य पर ध्यान दिया जाना चाहिए। हमें दृढ़ता और स्पष्ट मंशा की तलाश करनी चाहिए। यह हमेशा आसान नहीं होता, लेकिन जब यह सही तरह किया जाता है, तो उसका असर साफ दिखता है। उदाहरण के लिए, बहुत से ऐसे प्रतिभागी जो शुरुआत में हिचकते हैं, आगे चलकर हमारे सबसे मजबूत साथी बनकर उभरते हैं।
हमारे कई उत्कृष्ट एल्यूमनाई ऐसे हैं, जिनका आत्मविश्वास पहले भले कमजोर था, लेकिन सीखने और आगे बढ़ने की उनकी इच्छा बेहद प्रबल थी। वे भले ही मुखर सार्वजनिक वक्ता न हों, पर अपने परिवारों में आवाज उठाने में पीछे नहीं रहते थे। उदाहरण के तौर पर, भोपाल की 24 वर्षीय आफरीन फेलोशिप के शुरुआती दो सत्रों में लगभग चुप रही। लेकिन अंत तक वह ग्रुप प्रेजेंटेशन लीड करने के साथ-साथ सामुदायिक कार्यक्रमों की मेजबानी भी कर रही थी। आज वह नए प्रतिभागियों के मेंटर की भूमिका निभाती हैं। सना, जिन्होंने लेडबाय से जुड़ने से पहले कभी रिज्यूमे तक नहीं लिखा था, एक वैश्विक टेक कंपनी में नौकरी पाने में सफल हुई और अब स्वयं एक फैसिलिटेटर के रूप में हमारे साथ जुड़ी हुई हैं।
हमारा उद्देश्य इन प्रतिभागियों के जीवन को ‘साकार’ करना नहीं था। हमारा काम था उस बुनियादी ढांचे का निर्माण करना, जिस पर वे मजबूती से चल सकें। उदाहरण के लिए, हर सत्र की शुरुआत में होने वाली 20-मिनट की पल्स चेक। यानी खुले संवाद-स्थल, जहां प्रतिभागी ईमानदारी से साझा कर सकते हैं कि वे कैसा महसूस कर रहे हैं, क्या सोच रहे हैं, और क्या उन्हें परेशान कर रहा है। विश्वास की नींव पड़ने में अमूमन लंबा समय लगता है। लेकिन जब वह भरोसा स्थापित हो जाए, तो यही उनके अनुभव का सबसे खास हिस्सा बन जाता है। तकरीबन हर सर्वे में उन्होंने हमें यह बात बताई है।
सबसे अहम नतीजे अक्सर सामग्री से नहीं, बल्कि साथियों के समूह, एल्यूमनी नेटवर्क और अपनत्व की भावना से उपजते हैं।
हमारे पास लगातार आने वाला एक महत्त्वपूर्ण फीडबैक यह है कि लेडबाय का समुदाय ही इसकी धड़कन है। हम इसे ‘ट्राइब फॉर लाइफ’ कहते हैं, और यह सिर्फ एक कहावत नहीं है। हमारे पुराने साथी अक्सर मेंटर, सलाहकार, वक्ता और फैसिलिटेटर के रूप में लौटकर आते हैं। वे सत्र आयोजित करते हैं, एक-दूसरे के लिए फंडरेज करते हैं, नौकरी के अवसर साझा करते हैं, और एक-दूसरे के लिए रिकमेंडेशन लिखते हैं। कुल मिलाकर, वे हमेशा एक-दूसरे के लिए मौजूद रहते हैं।
उनका यह अपनापन संयोग नहीं, बल्कि सोच-समझकर की जाने वाली एक कोशिश है। हमने सीखा है कि समावेशन का असली अर्थ कार्यक्रमों का विस्तार नहीं, बल्कि रिश्तों को गहराई देना है। यही कारण है कि हम अपने हर प्रोग्राम में छोटे, स्थिर समूह (पॉड्स) बनाते हैं, जो एक-दूसरे की जवाबदेही तय करने के साथ-साथ एक-दूसरे को समर्थन भी देते हैं। हम सुनिश्चित करते हैं कि हर ज़ूम सत्र में कोई न कोई परिचित चेहरा मौजूद हो। और इसी वजह से हम निजी कहानी और व्यक्तिगत अनुभवों को नेतृत्व कौशल का अभिन्न अंग मानते हैं। जब हम अपनी कहानी सुनाते हैं, तो हम खुद को अपनाने की दिशा में पहला कदम भी आगे बढ़ाते हैं।
अक्सर हाशिए पर धकेले गए समुदायों के लिए बनाए गए कार्यक्रम सत्ता के उन्ही ढांचों को दोहराते हैं, जिन्हें वे तोड़ना चाहते हैं।
बीते कुछ वर्षों में हमें भारतीय मुस्लिम महिलाओं की आंतरिक विविधता को भी ध्यान से समझना पड़ा है। तमिलनाडु की एक महिला की चुनौतियां उत्तर प्रदेश की एक महिला की चुनौतियों से बिल्कुल अलग हो सकती हैं। सिर्फ भाषा में नहीं, बल्कि पूर्वाग्रहों, नेटवर्क तक पहुंच और पारिवारिक ढांचों तक में भी। भविष्य के लिए डिजाइन करने का अर्थ है इन विविधताओं को पहचानना और उन्हें एक जैसा मानकर नजरअंदाज न करना।
हमने यह भी देखा है कि सुगमता (एक्सेस) आकांक्षा को कैसे आकार देती है। कुछ महिलाओं के पास अपने लक्ष्यों के बारे में पहले से स्पष्टता होती है। वहीं उनमें से कुछ यह भाषा खोज रही होती हैं कि वे क्या चाहती हैं और क्यों। लेकिन जैसे ही वे एक सहयोगी, खुद से मेल खाते समूह से मिलती हैं, तो उनमें तेजी से बदलाव आता है। जैसे एक प्रतिभागी ने हमे बताया, “जब तक मैं यहां नहीं आई थी, तब तक मुझे नहीं पता था कि मुझे (जीवन में) और अधिक चाहने की भी अनुमति है।”
कार्यक्रमों के लिए परफेक्ट होना नहीं, बल्कि उत्तरदायी होना जरूरी है। फीडबैक लूप, पल्स चेक, और वास्तविक समय में किए गए सुधार किसी भी आकर्षक डेक से कहीं अधिक महत्वपूर्ण हैं। असली प्रभाव तब दिखता है जब प्रतिभागी स्वयं आगे बढ़कर मेंटर, फैसिलिटेटर या एडवोकेट बन पाते हैं।
हम अपने 1200+ पूर्व छात्रों के साथ हर वर्ष पल्स चेक करते हैं, ताकि समझ सकें कि उनकी जरूरतें क्या हैं। हम उन्हें ओरिएंटेशन और ग्रेजुएशन सत्रों में आमंत्रित करते हैं और पैनलिस्ट या फैसिलिटेटर के रूप में वापस जुड़ने के लिए प्रोत्साहित करते हैं। हम उनसे यह भी उम्मीद करते हैं कि वे अपने साथियों का मार्गदर्शन करें, अपने अनुभव साझा करें और उनकी आवाजों को आगे ले जाने के लिए एक मंच तैयार करें।
हम जानते हैं कि सभी लोग हर समय सक्रिय रूप से उपलब्ध नहीं हो सकते हैं। लेकिन जब उनमें से किसी एक को भी मदद की जरूरत होती है (जैसे रिज्यूमे पर सुझाव, कार्यस्थल पर कोई कठिन बातचीत या बस धैर्यपूर्वक किसी की बात सुन लेना), तो हम हमेशा मौजूद होते हैं। और उससे भी बढ़कर, हमारे प्रतिभागी एक-दूसरे के लिए मौजूद होते हैं।
यह एक तरह से समावेशन का अभ्यास है। न कोई औपचारिक चेकलिस्ट, न सप्ताह भर चलने वाला अभियान। सिर्फ रोजाना की वह प्रतिबद्धता, जिसमें उन आवाजों को केंद्र में रखा जाता है जो अक्सर हाशिए पर रह जाती हैं।
निश्चित तौर पर हमसे गलतियां भी हुई हैं। हम अब भी सीख रहे हैं कि बड़े स्तर पर एलुमनाई एंगेजमेंट को कैसे प्रबंधित किया जा सकता है। हमारे पास कोई परफेक्ट मॉडल नहीं है और शायद कभी होगा भी नहीं। लेकिन हमारे पास एक दृढ़ संकल्प है। हमारे पास प्रतिभागियों को सुनने का, यथास्थिति बदलने का और लगातार जमीन पर बने रहने का इरादा है। जिन महिलाओं को जीवन भर सामाजिक प्रणालियों से बाहर रखा गया हो, उनके लिए निरंतरता मायने रखती है। इसलिए उनके पास बार-बार लौटकर आना, चाहे हमारे पास सभी जवाब न हों, एक ऐसे भरोसे की नींव डालता है जिससे बदलाव उत्पन्न हो सकता है।
इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ें।
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हमने लगभग 5-6 साल पहले शिक्षा के क्षेत्र में जमीनी स्तर पर काम करना शुरू किया। तभी हमारे काम में कक्षाओं और समुदायों में काम करते हुए, बच्चों को सुनते हुए, शिक्षकों के साथ मिलकर सीखते हुए, प्रशासनिक कर्मचारियों के साथ समस्याओं के हल ढूंढते हुए, और राज्य व्यवस्था के जरिए बड़े बदलाव (या रुकावटें) समझने की कोशिश करते हुए प्रयास करना शामिल हुआ।
साल 2022 में हम सिंपल एजुकेशन फाउंडेशन (एसईएफ) की शिक्षक व्यावसायिक विकास टीम का हिस्सा बने और राज्य शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद, दिल्ली (एससीईआरटी) के साथ काम करना शुरू किया। हमने इस विश्वास के साथ काम किया कि असली बदलाव भीतर से ही आता है। इस दौरान हमने यह समझा कि शिक्षकों और बच्चों को उनकी जरूरतों और अनुभवों के मुताबिक बनाए गए समाधानों की आवश्यकता होती है। यही वह समय था जब हमारे रास्ते थोड़े अलग हुए। अब हममें से एक शिक्षक प्रशिक्षण के बड़े अनुभवों को डिजाइन करता है ताकि राज्य स्तर पर प्रशिक्षण ज्यादा अर्थपूर्ण और उपयोगी बन सकें। दूसरा लाखों शिक्षकों और छात्रों से मिले डेटा को समझने, उनकी प्रगति पर नजर रखने और जमीनी सच्चाइयों को उजागर करने के लिए सिस्टम बनाता है।
एक साथ मिलकर, हम इस प्रश्न से जूझते रहे हैं कि स्थानीय संदर्भ को खोए बगैर किसी समाधान को बड़े पैमाने पर प्रभावी कैसे बनाया जा सकता है?
सरकारी व्यवस्थाओं के साथ काम करने वाली गैर-लाभकारी संस्थाओं के लिए मानकीकरण और संदर्भीकरण के बीच संतुलन बनाना, हमेशा एक बड़ा सवाल बना रहता है। मानकीकरण से काम का पैमाना, गुणवत्ता और पहुंच बढ़ती है – लेकिन इसका खतरा है कि इसमें अलग-अलग जगहों की विशिष्ट जरूरतें अक्सर नजरअंदाज हो जाती हैं। वहीं, संदर्भीकरण काम को जमीनी स्तर पर उपयोगी और असरदार बनाता है – लेकिन इससे एकरूपता और स्थिरता कम हो सकती है।
राज्य सरकारों के साथ हमारे काम में यह तनाव सैद्धांतिक नहीं, बल्कि व्यावहारिक है – यह हमारे रोज के निर्णयों में दिखाई देता है। 2021 तक हम 7 से 8 स्कूलों में प्राचार्यों, शिक्षकों और माता-पिता के साथ काम कर रहे थे। इसके बाद जब हमारा काम बढ़कर 1000 स्कूलों तक पहुंचा तो हमें यह तय करना था कि हमारे कार्यक्रम का फोकस शिक्षक, प्राचार्य या माता-पिता यानी किस हितधारक पर केंद्रित होगा? राज्य के लिए शिक्षक प्रशिक्षण मॉड्यूल बनाते समय भी हमें यह सोचना पड़ा कि क्या सभी शिक्षकों को समान प्रशिक्षण दिया जाए या विषय, ग्रेड और क्षेत्र के अनुसार इसे प्रासंगिक बनाया जाए। इसी तरह, जब हम किसी शिक्षण रणनीति को एसईएफ के स्कूलों में अच्छा काम करते देखते हैं, तो सवाल उठता है – क्या इसे सभी स्कूलों में अपनाया जाए, या हर जगह के हिसाब से बदला जाए? क्या एक ही तरह का कक्षा अवलोकन उपकरण सभी कक्षाओं में इस्तेमाल हो, या ग्रेड, विषय और स्थान के अनुसार बदले?
समय, संसाधन और पहुंच की सीमाएं हमें समझौते करने पर मजबूर करती हैं – बहुत ज्यादा स्थानीय मॉडल सीमित रह जाते हैं, और बहुत व्यापक मॉडल अपनी प्रासंगिकता खो देते हैं। इसलिए चुनौती यह नहीं है कि किसी एक को चुना जाए, बल्कि यह है कि दोनों को कैसे संतुलित रखा जाए। यही संतुलन हमारी रोज की सोच और काम को दिशा देता है।
बड़े पैमाने पर शिक्षकों के लिए असरदार प्रशिक्षण बनाना जरूरी भी है और मुश्किल भी। शिक्षा का परिदृश्य और बच्चों की जरूरतें पहले से कहीं तेजी से बदल रही हैं। शिक्षकों को अपने तरीकों को उपयोगी तरह से बदलने के लिए निरंतर, उच्च-गुणवत्ता वाले सीखने के अवसरों की आवश्यकता है। लेकिन राज्यभर के लाखों शिक्षकों तक प्रासंगिक और रुचिकर प्रशिक्षण पहुंचाना आसान नहीं है।
इन संदर्भों में हमारी सबसे बड़ी चुनौती थी – बिखराव। हमने पाया कि दर्जनों हितधारक – सरकारी विभाग, एससीईआरटी संकाय, जिला शिक्षा एवं प्रशिक्षण संस्थान या डाइट (डीआईईटी) प्रोफेसर, और एनजीओ – सभी एक ही समूह के शिक्षकों के लिए अलग-अलग प्रशिक्षण तैयार कर रहे थे। हर कोई कुछ अच्छा लाता था, पर दिशा और दृष्टिकोण अलग थे। हालांकि कुछ में तो सामग्री उपयोगी और गहन थी लेकिन कुछ में शिक्षकों की आवाज ही गायब थी। नतीजतन सभी कार्यक्रम एक-दूसरे से अलग लगते थे और उनमें एक साझा दृष्टि का अभाव था।

इसे हल करने के लिए हमने शिक्षक योग्यता ढांचा (टीसीएफ) बनाया – एक साझा ढांचा जो बताता है कि अच्छे शिक्षण के लिए शिक्षक को कौन-से ज्ञान, कौशल और सोच की जरूरत है। यह ढांचा नौ महीने में विशेषज्ञ शिक्षकों के साथ मिलकर, राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय शोध के आधार पर और हजारों शिक्षकों की राय के साथ बना।
इसके साथ हमने राज्य के साथ एक मानकीकृत प्रशिक्षण प्रक्रिया भी बनाई – जिसमें हर प्रशिक्षण एक जरूरत विश्लेषण से शुरू होता है और शिक्षकों व डाइट प्रोफेसरों के साथ मिलकर बनाया जाता है। मतलब हमने ‘कैसे बनाना है’ को तय किया, ‘क्या बनाना है’ को नहीं।
जब दिल्ली में प्रशिक्षण विकेंद्रीकृत हुआ तो हर जिले ने जरूरत पहचानने, टीसीएफ से जोड़ने, सह-डिजाइन करने और आकर्षक ढंग से प्रस्तुत करने की इसी प्रक्रिया को अपनाया। नतीजा – हर जिले ने अपनी जरूरत के अनुसार मॉड्यूल बनाए, पर साझा शैक्षणिक मानकों के साथ। कहीं शिक्षकों के तनाव प्रबंधन पर ध्यान था, कहीं तकनीक के उपयोग पर।
इस पर शिक्षकों की प्रतिक्रिया बहुत सकारात्मक थी। यह प्रक्रिया एक ऐसी नींव बन गई जिससे स्थानीयता और मजबूत हुई। सार्वजनिक प्रणालियों में मानकीकरण का मतलब सबको एक जैसा बनाना नहीं है – यह एक साझा शुरुआत बनाना है। इससे सब एक ही भाषा बोलते हैं, समान परिणाम मापते हैं और जरूरत के हिसाब से बदलाव कर सकते हैं। हमारे लिए टीसीएफ और प्रशिक्षण की मानक प्रक्रिया एक कम्पास की तरह हैं – जो हमें एक दिशा में रखता है, चाहे इलाका कोई भी हो।
सार्वजनिक प्रणालियों में यह आम है कि एक राज्य में सफल चीज, दूसरे में काम न करे – खासकर तकनीक। हर राज्य की प्रशासनिक व्यवस्था, डेटा प्रणाली और प्रशिक्षण तंत्र अलग होता है। अगर कोई सिस्टम बिल्कुल स्थानीय जरूरतों के मुताबिक बना है तो वह दूसरे राज्य में बेकार हो सकता है।
हमने एक प्रशिक्षण डेटा प्रणाली में अपने पहले प्रयास के साथ इसका अनुभव किया। जब शिक्षक योग्यता ढांचे ने दिल्ली के प्रशिक्षण तंत्र को रूप दिया तो हमें 13 कार्यक्रमों में 70,000 से ज्यादा शिक्षकों के प्रशिक्षण और नतीजों को ट्रैक करने के लिए सिस्टम चाहिए था। इसके लिए हमारा समाधान कम्पास एमआईएस बना। कम्पास एमआईएस एक डिजिटल प्लेटफॉर्म है जो राज्य स्तर पर बड़े पैमाने पर शिक्षक प्रशिक्षण कार्यक्रमों की मॉनिटरिंग और मूल्यांकन (एम एंड ई) को सक्षम बनाता है।
इसने दिल्ली में अच्छा काम किया। हर शिक्षक, मेंटर और प्राचार्य का एक मास्टर डेटाबेस बनाया गया, जिसमें उनका क्षेत्र, जिला और कार्यक्रम जुड़ा था। इससे डेटा अपने आप भर जाता और सब कुछ सुचारू चलता।
लेकिन जब इसे दूसरे राज्यों में ले गए – तो समस्याएं शुरू हुईं।
इस तरह, जो प्रणाली दिल्ली में सफल और कारगर थी, वह अन्य राज्यों में नहीं चल पाई। हमने सीखा कि हमें सिर्फ एक राज्य के लिए नहीं, बल्कि एक ऐसी प्रणाली बनानी होगी जो हर जगह कारगर हो। अब हम इस सवाल – ‘हम एक राज्य के हर विवरण को कैसे पकड़ते हैं?’ के बजाय यह सोचने लगे – ‘इस प्रणाली के किन हिस्सों को सबके लिए उपयुक्त रहना चाहिए, और किन हिस्सों को स्थानीय जरूरतों के मुताबिक बदले जाने के लिए खुला रहना चाहिए?’
अगर कोई सिस्टम बिल्कुल स्थानीय जरूरतों के मुताबिक बना है तो वह दूसरे राज्य में बेकार हो सकता है।
इसका जवाब इंटरवेंशन डिजाइन पर वापस जाने में निहित है। हमने कम्पास को उसके मूल में हस्तक्षेप के डिजाइन के साथ फिर से बनाया। यह तय किया कि प्रशिक्षण प्रणाली के उद्देश्य को परिभाषित करने वाले तत्व – डेटा कैसे एकत्र किया गया था, गुणवत्ता कैसे सुनिश्चित की गई थी, परिणामों पर कैसे नजर रखी गई थी – हर जगह स्थिर रहे। इस मूल के आसपास, हमने लचीले मॉड्यूल बनाए जो राज्यों को अपनी वास्तविकताओं के अनुकूल बना सकते हैं:
इससे हर राज्य को स्थिरता और आजादी दोनों मिली। कोर समान रहा, पर तरीका स्थानीय बना। पंजाब ब्लॉक स्तर तक सुविधा प्रदाता जोड़ सका, जबकि अन्य राज्य धीरे-धीरे डेटा जोड़ रहे हैं।
सबक – बहुत ज्यादा स्थानीयकरण आपको सीमित कर देता है। असली प्रासंगिकता का मतलब है – कोर डिजाइन स्थिर रखना, बाकी में लचीलापन देना।
जैसा कि आलेख की शुरूआत में जिक्र किया गया है कि हमने मानक और स्थानीय संदर्भों में आसानी से फिट होने वाले समाधानों को लेकर प्रयास किए हैं। अपनी इस यात्रा में हमने समझा है कि मानकीकरण और प्रासंगिकता के संतुलन तक एक बार में नहीं पहुंचा जा सकता है – यह निरंतर प्रक्रिया है। सालों तक प्रयास, गलतियां और दोबारा प्रयास करने के कई चक्रों से गुजरकर हमने तीन बातें सीखीं जो इस संतुलन की दिशा में ले जाती हैं:
ये विचार सिर्फ दिल्ली या पंजाब के लिए नहीं हैं – हर संगठन को यह सोचने की जरूरत है कि बिना प्रासंगिकता खोए कैसे बढ़ा जाए, और निरंतरता और संदर्भ दोनों के लिए कैसे डिजाइन किया जाए। इस संदर्भ में इन बिन्दुओं का ध्यान रखा जाना चाहिये:
इन चरणों वाली व्यवस्था को हम रणनीति कह सकते हैं। रणनीति किसी तय योजना का नाम नहीं, बल्कि सहानुभूति और साक्ष्य के साथ अनुकूलन की क्षमता है। डेटा और शिक्षकों की वास्तविक जरूरतों के बीच संतुलन ही असली रणनीति है। इसी तरह, परिवर्तन कोई एक बार की घटना नहीं है – यह लगातार सीखने की प्रक्रिया है। जब हम केवल अपनी धारणाओं पर चलते हैं, तो जिनके लिए काम कर रहे हैं उनकी हकीकत छूट जाती है। इसलिए हम सुनते रहते हैं, सुधारते रहते हैं और आगे बढ़ते रहते हैं।
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देश के 25 लोग हमें बता रहे हैं कि वे कैसा महसूस करते हैं, क्या सोचते हैं, उन्हें क्या ध्यान आता है जब वे इन दो शब्दों को एक साथ सुनते हैं: नारीवादी शिक्षा।
द थर्ड आई में हम इन सवालों से इस विचार पर आपका ध्यान लाना चाहते हैं कि ज्ञान और सीखना सिर्फ एक विशेषाधिकार नहीं है। ये केवल वो जानीमानी प्रक्रिया नहीं है जिसमें ऊपर से नीचे की ओर प्रवाह होता है, जो जानते हैं उनसे, उनकी ओर जो नहीं जानते हैं। हमारा प्रस्ताव है, कि ज्ञान हमारे इतिहास में, हमारी यादों में, हमारे शरीर में वास करता है। अपने जेंडर, कामनाओं/ इच्छाओं और अपनी दुनिया का हम जो मतलब या फिर मूल निकालते हैं या देते हैं उसमें ये बस्ता है। इस तरह, ये फिल्म जो भी हमें बताया और समझाया गया और जो भी निष्कर्ष या समझ हमने अपनी तरफ से बनाई, उन दोनों को साथ बुनकर एक नए तरह के ज्ञान की रचना की तरफ इशारा करती है।
आपके और हमारे बीच ज्ञान की एक नई कल्पना की बातचीत शुरू करने के लिए, हमारी तरफ से ये एक शुरुआत है। इसके निर्माण में आप भी हमारे साथ आएं।
यह लेख मूलरूप से द थर्ड आई पर प्रकाशित हुआ था।
जल, जंगल, जमीन, भाषा, और पारंपरिक रीति-रिवाज यानी सामुदायिक विरासत और संसाधन या ‘कॉमन्स’, भारत में करोड़ों लोगों के जीवन, आजीविका और संस्कृति से जुड़े हैं। ये केवल उपयोग की वस्तुएं नहीं हैं बल्कि सामाजिक रिश्तों और पारंपरिक ज्ञान से भी इनका सीधा संबंध है। वन्य जीवन और जैव विविधता (बायो डायवर्सिटी) भी इनमें शामिल हैं जो समुदायों के जीवन का अटूट हिस्सा हैं। लेकिन जैसे-जैसे कॉमन्स पर नियंत्रण केन्द्रीकृत हो रहा है, वैसे-वैसे समुदायों की भागीदारी सीमित होती जा रही है। आज सवाल सिर्फ ये नहीं हैं कि कॉमन्स का प्रबंधन कौन करे बल्कि यह भी है कि क्या जो समुदाय इन्हें पीढ़ियों से संभालते आए हैं, वे खुद इससे जुड़े निर्णय लेने के हकदार माने जाते हैं?
इस सवाल का सीधा संबंध ग्राम-सभाओं से है। ग्राम-सभाएं संवैधानिक रूप से मान्यता प्राप्त पहली इकाइयां होती हैं जहां समुदाय सीधे निर्णय की प्रक्रिया में हिस्सा ले सकता है। लेकिन अक्सर यह देखा गया है कि अधिकांश ग्राम-सभाओं का आयोजन औपचारिकताएं और कागजी कार्यवाही पूरा करने तक ही सीमित रह जाता है। यहां पर सामुदायिक संसाधनों, पोषण, स्वास्थ्य और पर्यावरण जैसे जरूरी मुद्दों पर ठोस चर्चा कम ही होती है। यही वजह है कि ग्राम-सभाओं को सशक्त बनाना और उनके एजेंडे को कॉमन्स और समुदाय की जरूरतों पर केंद्रित करना आज जरूरी हो गया है।
देश के अलग-अलग हिस्सों से आने वाले उदाहरण बताते हैं कि जब समुदायों को अधिकार, जानकारी और नेतृत्व का अवसर मिलता है तो वे कॉमन्स की रक्षा न केवल बेहतर ढंग से करते हैं, बल्कि भविष्य के लिए स्थाई तरीके भी स्थापित करते हैं। लेकिन जब ये उनकी पहुंच से बाहर होने लगते हैं तो इनका विपरीत प्रभाव भी उतना ही गहरा होता है।
राजस्थान में गांवों की गोचर, ओरण और शामलात जमीनें कभी पूरे समुदाय की सामूहिक जिम्मेदारी थीं। लेकिन हाल के वर्षों में पशुपालन में कमी आने के बाद से इन्हें बंजर मान लिया गया और इन पर अतिक्रमण बढ़ने लगा। कुछ जगहों पर गांव के ही ताकतवर लोग टुकड़ों में इन्हें बांटने लगे तो कहीं पर इन जमीनों का औद्योगिक या संस्थागत उपयोग किया जाने लगा। इसी तरह झारखंड के आदिवासी बहुल क्षेत्रों में जहां जंगल भोजन, दवा, ईंधन और सांस्कृतिक परंपरा के स्रोत हैं; वहां खनन और अन्य परियोजनाओं ने बड़े पैमाने पर विस्थापन और पारिस्थितिक नुकसान किया है। जंगलों का कटना सिर्फ पेड़ों का नुकसान ही नहीं होता बल्कि यह ज्ञान, रिश्तों और संसाधनों की पूरी श्रृंखला को प्रभावित करता है।
कॉमन्स की इस टूटन में बाहरी हस्तक्षेपों की एक बड़ी भूमिका तो है ही, लेकिन समुदायों के भीतर मौजूद जाति और जेंडर आधारित असमानताओं से यह और गहरा जाती है। राजस्थान के कई गांवों में गोचर जमीन पर पहला अधिकार उन्हीं का होता है जिनके पास पहले से निजी जमीनें हैं। घुमंतू समुदायों और दलित परिवारों को या तो इस जमीन से बेदखल कर दिया जाता है या उन्हें गांव की बैठकों में बुलाया ही नहीं जाता है। अगर बुलाया भी जाता है तो उनकी बात को अक्सर गंभीरता से नहीं लिया जाता है। झारखंड सहित कई राज्यों में ऐसी ही तस्वीर ग्राम-सभा की बैठकों में सामने आती है। महिलाएं बैठकों में आती हैं लेकिन बोलती नहीं क्योंकि गांव के फैसले अब भी कुछ गिने-चुने पुरुष ही लेते हैं। खासकर जमीन, खनन और बाहरी हस्तक्षेप जैसे मामलों में महिलाओं की उपस्थिति तो होती है पर उनके फैसले निर्णायक नहीं माने जाते हैं।
कॉमन्स की उपयोगिता से आगे उन्हें जीवन के अभिन्न हिस्से की तरह देखना ग्रामीण समुदायों की विशेषता रही है। उन्हें परंपराओं और पुरखों के इतिहास से जोड़कर देखने वाला नजरिया, समुदायों को भावनात्मक रूप से भी उनसे जोड़ता है। ऐसे में ग्राम सभाएं उस साझा मंच की तरह काम करती हैं जहां लोगों की चिंताएं, संगठित होकर कुछ करने की दिशा में आगे बढ़ पाती हैं। इसे कुछ उदाहरणों से समझने का प्रयास करते हैं।
राजस्थान के भीलवाड़ा जिले के हस्तिनापुर गांव में एक समय चारागाह की जमीन पर जब कब्जे बढ़ने लगे तो गांव के लोगों ने मिलकर तय किया कि इसे बचाएंगे। इसके लिए सबसे पहले राजस्व रिकॉर्ड से जमीन की सीमा तय की गई और उसे गांव की दीवारों पर सार्वजनिक रूप से चस्पा किया गया। गांव की भागीदारी से कांटेदार झाड़ियों की बाड़बंदी की गई, मनरेगा के तहत तालाब खुदवाया गया, और तीन महीने के लिए पशु चराई पर सामूहिक रोक लगाई गई। गांव वालों ने खुद बारी-बारी से निगरानी की और आज यह जमीन न केवल हरी-भरी है, बल्कि पूरे गांव के लिए उपयोगी है।

ऐसा ही एक उदाहरण इसी क्षेत्र के चंदगो गांव का भी है, जहां ग्राम-सभा निष्क्रिय थी और लोग पलायन कर चुके थे। तीन सालों तक लगातार कोशिश कर ग्राम-सभा को सक्रिय किया गया, महिलाओं को नेतृत्व दिया गया और पेसा (पंचायतों के प्रावधान (अनुसूचित क्षेत्रों तक विस्तार) अधिनियम) के तहत भूमि व जंगल से जुड़ी कमेटियां बनाई गईं। जब खनन परियोजना की खबर आई तो गांव ने सामूहिक रूप से उसका अध्ययन किया और विरोध दर्ज कराया। महिलाओं ने प्रशासन से संवाद किया और दस्तावेज सौंपे। आखिरकार उन्हें परियोजना को रोकने में सफलता मिली।
ग्राम-सभा की सक्रियता सिर्फ विरोध तक सीमित नहीं रहती, समुदाय और गांव के विकास से जुड़े जरूरी फैसलों पर मुखरता से बात रखना भी ग्राम-सभा का महत्वपूर्ण काम है। यहां पर ग्राम-सभाओं को सक्रिय करने के अर्थ और इसे कैसे किया जाए, यह भी समझना जरूरी है। सबसे जरूरी यह है कि समुदाय यह जाने कि ग्राम-सभा के संसाधन क्या हैं, अर्थात कितनी राजस्व भूमि है, कितनी सामुदायिक भूमि है, कितना वन क्षेत्र उनके अधिकार क्षेत्र में आता है, और पानी, मछली और वनोपज के स्रोत क्या हैं आदि। जब इन सबको मिलाकर देखते हैं तो समुदाय के सामने ग्राम-सभा के संसाधनों और अधिकार क्षेत्र की व्यापकता उजागर हो पाती है। समुदाय के पारंपरिक अगुवाओं जैसे विभिन्न आदिवासी समुदायों में पाहन, जोग मांझी, पुजार, मानकी और देवां आदि का समुदाय में एक प्रभाव होता है। लोग इन्हें सुनते हैं, ऐसे लोगों को ग्राम सभा की आधिकारिक समितियों से जोड़ना भी ग्राम-सभा को सक्रिय और मजबूत करने में कारगर सिद्ध होता है।
झारखंड के गुमला जिले के लुपुंग पाट गांव को इसके उदाहरण के तौर पर देखा जा सकता है। असुर आदिवासी समुदाय के इस गांव में जब ग्राम-सभा को सक्रिय करने की इन प्रक्रियाओं को अपनाया गया तो वह वन अधिकार कानून के तहत सामुदायिक वन अधिकार (सीएफआर) प्राप्त करने में सफल हुए। झारखंड में ऐसी कई सक्रिय ग्राम सभाओं के उदाहरण मौजूद हैं जहां समुदाय ने खुद अनुशासन कायम किया है। कुछ आदिवासी क्षेत्रों में ग्राम-सभा ने यह नियम बनाया कि अगर कोई परिवार लगातार दो-तीन बैठकों में शामिल नहीं होता है तो अगली बैठक उसी परिवार के घर होगी और उसकी व्यवस्था भी वही करेंगे। इस तरह की सामुदायिक निगरानी ने ग्राम-सभा को जीवंत बनाए रखा है।
ग्राम-सभा का मतलब केवल बैठकें करना भर नहीं है। जब हम कहते हैं कि “हम ही सरकार हैं” तो इसमें ग्राम विकास समिति, शिक्षा समिति, स्वास्थ्य समिति, मॉनीटरिंग समिति जैसी लगभग आठ समितियां शामिल होती हैं। इन समितियों को सक्रिय करने से ही ग्राम-सभा समुदाय के साथ मिलकर सशक्त रूप से काम कर सकती है। जब किसी व्यक्ति को यह जिम्मेदारी दी जाती है कि वह स्वास्थ्य समिति का अध्यक्ष या सदस्य है तो उसमें जवाबदेही का भाव आता है। फिर वही लोग ग्राम-सभा में सवाल करते हैं और सवालों के जवाब ही उस क्षेत्र का विकास तय करते हैं। इस तरह जब एक सक्रिय ग्राम सभा से वार्ड मेम्बर या पंचायत प्रधान जैसे चुने हुए लोग आगे जाते हैं तो वो पंचायती व्यवस्था में स्पष्टता के साथ समुदाय की बातें रखने में सक्षम हो पाते हैं।

महाराष्ट्र के गढ़चिरौली जिले के मेंढा-लेखा गांव में सामुदायिक वन अधिकार के तहत गांव के लोग खुद तय करते हैं कि जंगल से कब, कितनी और किस तरह वनोपज ली जाएगी। इससे जो आमदनी होती है; उसका उपयोग गांव के स्कूल, स्वास्थ्य और बुनियादी ढांचे को बनाने या सुधारने में होता है। यहां “हमारा गांव, हमारे जंगल” सिर्फ नारा नहीं, एक कार्य संस्कृति बन चुकी है।
ओडिशा की चिल्का झील में जब मछुआरों की आजीविका पर कॉर्पोरेट हस्तक्षेप बढ़ने लगा तो स्थानीय समुदायों ने संगठित होकर सहकारी समितियों के जरिए झील का प्रबंधन अपने हाथ में लिया। आज वे खुद तय करते हैं कि मछली पकड़ने के नियम क्या होंगे, और कैसे झील की पारिस्थितिकी का संतुलन बना रहेगा।
वर्ष 1992 में हुए संविधान के 73वें संशोधन ने पंचायतों को स्थानीय स्व-शासन की प्राथमिक इकाई और सामुदायिक संपत्तियों के संरक्षक के रूप में स्थापित करके, कॉमन्स के लिए सामुदायिक निर्णय लेने की रूपरेखा को मजबूत किया। वर्ष 1996 का पेसा अधिनियम (अनुसूचित क्षेत्रों में पंचायत व्यवस्था) इस व्यवस्था का विस्तार पांचवीं अनुसूची वाले क्षेत्रों (अनुसूचित जनजाति क्षेत्र) में करता है।
इसके बाद के दशकों में कई कानूनों ने सामुदायिक अधिकारों और सामूहिक संसाधन प्रबंधन को मजबूत किया है, जैसे:
हालांकि, सामुदायिक भूमि का शासन राज्यों के अनुसार अलग-अलग होता है क्योंकि भूमि और पानी राज्य सूची में आते हैं। वहीं, वन समवर्ती सूची में आते हैं और केंद्र व राज्य दोनों द्वारा देखे जाते हैं। इसलिए प्रत्येक राज्य कॉमन्स को अलग तरह से परिभाषित और शासित करता है।
ओडिशा, उदाहरण के लिए, पांचवीं अनुसूची वाला राज्य है और वहां सामुदायिक भूमि की कई श्रेणियां दर्ज हैं — जैसे गोचर (चराई भूमि), रक्षित (सुरक्षित भूमि), और सरब-साधारण (सामान्य भूमि)। लेकिन राज्य ने अभी तक पेसा के नियम नहीं बनाए हैं जिससे समुदायों और पंचायतों की सामूहिक संरक्षकता असुरक्षित रह जाती है।
इसके अलावा, कॉमन्स की सुरक्षा के लिए बने कई कानूनों को कुछ जगहों पर कमजोर समुदायों के खिलाफ इस्तेमाल किया गया है। उदाहरण के लिए, सुप्रीम कोर्ट का जगपाल सिंह बनाम पंजाब राज्य वाला फैसला कॉमन्स के संरक्षण के लिए था, लेकिन कई मामलों में इसका इस्तेमाल दलित और घुमंतू समुदायों को उनकी भूमि से बेदखल करने में किया गया है।

यहां तक कि जहां पेसा और एफआरए लागू हैं, वहीं दूसरे कानून इनके प्रावधानों को कमजोर कर देते हैं। उदाहरण के लिए, राजस्थान के भूमि राजस्व (नवीकरणीय ऊर्जा आधारित विद्युत संयंत्र हेतु भूमि आवंटन) नियम, 2007 के तहत ‘सरकारी भूमि’ को नवीकरणीय ऊर्जा परियोजनाओं के लिए पट्टे पर दिया जा सकता है, जिससे चरागाह भूमि का विचलन हो रहा है।
इसके बावजूद, कई जगहों पर समुदायों ने कानूनों का इस्तेमाल करके अपने सामुदायिक अधिकारों को स्थापित किया है और सामूहिक शासन प्रणालियों को पुनर्जीवित किया है।
कई राज्यों में संसाधनों के सामुदायिक प्रबंधन की नींव रखी तो गई है, लेकिन जमीनी स्तर पर यह काम आसानी से नहीं चलता। उदाहरण के लिए, साल 2006 में एफआरए लागू होने के बाद, ओडिशा के कालाहांडी जिले में प्रशासन ने चार वर्षों में लगभग 120 ग्राम सभाओं को सामुदायिक वनाधिकार के पट्टे जारी किए। लेकिन इनमें से कई पट्टे गांवों तक पहुंचे ही नहीं, और जहां पहुंचे भी, वहां समुदायों को यह समझाने की कोई प्रक्रिया नहीं थी कि इन अधिकारों का उपयोग कैसे होगा। सेवा निकेतन के कार्यक्रम प्रबंधक सीतल कुमार बताते हैं कि इस खालीपन को देखते हुए उन्होंने और ओडिशा जंगल मंच के साथियों ने गांव-गांव जाकर समझाना शुरू किया कि सीएफआर का मतलब क्या है, इससे कौन-कौन सी जिम्मेदारियां आती हैं और इससे गांव क्या बदल सकता है।
यह चुनौती केवल ओडिशा की नहीं है। पीएचआईए फाउंडेशन के निदेशक जॉनसन टोपनो बताते हैं कि झारखंड जैसे राज्यों में पेसा और एफआरए दोनों पर ग्राम सभाओं के साथ पर्याप्त काम नहीं हुआ है, इसलिए अधिकार तो दिए गए लेकिन उन्हें कैसे लागू किया जाए, यह समझ विकसित नहीं हो पाई। कई जगह तो गांवों के पास भूमि के आधिकारिक रिकॉर्ड भी नहीं थे। सीमाएं पेड़ों, पत्थरों, नदी-ढलानों की सामुदायिक स्मृति में थीं, लेकिन राजस्व नक्शों में नहीं। साल 2006 के एफआरए में हाथ से बने साधारण नक्शे मान्य थे, लेकिन साल 2012 में अनिवार्य जीआईएस मैपिंग लागू होने के बाद, कई जगह अधिकारियों ने तकनीकी प्रक्रिया का इस्तेमाल कर जंगल की सीमा कम कर दी। कालाहांडी में इससे निपटने के लिए ग्राम सभाओं ने अपने स्तर पर जीपीएस लेकर जंगल की परिधि नापी—13-15 किलोमीटर तक पैदल चलकर सीमा-बिंदु दर्ज किए। भले इसमें त्रुटियां हों, लेकिन इससे समुदायों के पास अपना ठोस प्रमाण तैयार हुआ।

यह भी देखा गया कि कुछ जगह अधिकारियों ने खाली कागज पर हस्ताक्षर करवाकर रिकॉर्ड बाद में बदल दिए। लेकिन वन विभाग की भूमिका यहीं खत्म नहीं होती। गैर-काष्ठ वन-उत्पाद बेचने के लिए ट्रांजिट परमिट भी वही जारी करता है। कालाहांडी में एक ग्राम सभा को यह परमिट पाने में दो साल लगे। इसी वजह से ग्राम सभाओं का संगठित होना और भी जरूरी हो जाता है। कालाहांडी की महासमिति तकनीकी सहायता देती है, लेकिन निर्णय गांवों में खुली बैठकों में लिए जाते हैं, जैसे बांस या तेंदू पत्ता काटने की मजदूरी कितनी होगी, कितना पैसा संरक्षण में लगेगा और ग्राम सभा के पास कितना रहेगा। पहले तेंदू पत्ता, विभाग 50 पत्तों के 3.40 रुपये में लेता था और 7 रुपये में बेच देता था। अब ग्राम सभाएं सामूहिक रूप से मोलभाव कर बेहतर कीमत पर खुद बेच रही हैं। महाराष्ट्र के गढ़चिरौली में भी महा-ग्राम सभा यही प्रक्रिया अपनाती है, ताकि लाभ सीधे परिवारों तक पहुंचे।
भारत के कई हिस्सों में समुदाय अपने साझा संसाधनों- जंगल, चराई भूमि, पानी, खेती की जमीन को मिलकर बचा रहे हैं। यह काम केवल कानूनों या योजनाओं से नहीं होता बल्कि उस साझेदारी से होता है। इसमें गांव वाले खुद नियम बनाते हैं, पालन करते हैं, और जरूरत पड़ने पर उन्हें बदलते भी हैं। उदाहरण के लिए, विकास नगर (राजस्थान) जैसे गांवों में परिवार बारी-बारी से चरागाह की देखरेख करते हैं, ताकि हर घर को बराबर चराई का मौका मिले और भूमि का दोहन न हो। सिक्किम के लाचेन और लाचुंग में ‘जुम्सा’ नाम की स्थानीय संस्था जंगल और पवित्र उपवनों की रक्षा करती है जहां कोई बाहरी दखल नहीं, निर्णय पिपोन और गांववासियों की सहमति से होते हैं। वहीं महाराष्ट्र और ओडिशा में कई ग्राम सभाएं मिलकर महा-सभा बनाती हैं, ताकि तेंदू पत्ता जैसे जंगल उत्पादों की बिक्री सामूहिक रूप से तय हो सके और लाभ गांव में ही रहे। इन उदाहरणों से साफ है कि रास्ता कहीं बाहर से नहीं आता बल्कि वही समाधान टिकाऊ होता है जिसे लोग स्वयं मिलकर बनाते और निभाते हैं। इसलिए कानून, योजनाएं और नीतियां जितनी जरूरी हैं, उतनी ही जरूरी है लोगों की आवाज, उनका अधिकार, और उनकी साझेदारी।
सृष्टि गुप्ता और तनुप्रिया सिंह ने इस लेख में योगदान दिया है।
इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ें।
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विकास सेक्टर में गेम्स को अब तक एक सशक्त विधि के रूप में गंभीरता से नहीं अपनाया गया है, जबकि उनमें अलग-अलग खांचों को जोड़ने, विश्वास की नींव रखने और विभिन्न दृष्टिकोणों को समझने की क्षमता निहित है। फिल्म, रेडियो और अन्य पारंपरिक एक-तरफा माध्यमों में, सामुदायिक भागीदारी की गुंजाइश नहीं होती है। वे केवल जानकारी प्रस्तुत करते हैं और दर्शक की समझने व व्याख्या करने की क्षमता पर निर्भर होते हैं। इसके विपरीत, गेम हमें सीधे एक परिस्थिति के भीतर ले आते हैं। इस परिस्थिति में हम केवल दर्शक न होकर क्रिया और निर्णय में भी सहभागी बनते हैं। यह भागीदारी का सबसे गहन और प्रभावशाली रूप है।
गेम्स की यही खासियत उन्हें जमीनी संगठनों और फेसिलिटेटर्स के लिए उपयोगी बनाती है। ये गतिविधियां लोगों के लिए सोचने, सीखने और सामूहिक कार्रवाई की ओर बढ़ने का माध्यम बन सकती हैं। उदाहरण के लिए, इस बात के कई प्रमाण मौजूद हैं कि शहरों की रूपरेखा और शहरी नियोजन की बेहतरी के लिहाज से गेम कितने उपयोगी हैं।
जब 1990 के दशक की शुरूआत में डिजिटल गेम ‘सिमसिटी’ लॉन्च हुआ था, तो किसी ने नहीं सोचा था कि यह खेल हजारों युवाओं को आर्किटेक्ट या अर्बन प्लानर बनने के लिए प्रेरित करेगा। आज सिमसिटी और सिटीज: स्काइलाइन्स जैसे गेम्स या फिर गेम बिल्डिंग इंजन अनरियल का इस्तेमाल काल्पनिक शहरों को रचने के लिए किया जा रहा है। इन गेम्स में हीट आइलैंड इफेक्ट, परिवहन, आवास और भविष्य में आने वाली अन्य शहरी समस्याओं के समाधान वर्चुअल स्तर पर खोजे जा रहे हैं।
गेम कई तरह के होते हैं: शारीरिक गतिविधियों वाले खेल जिन्हें लाइव-एक्शन-रोल-प्लेइंग (एलएआरपी) भी कहा जाता है, बोर्ड गेम्स और डिजिटल गेम्स जो मोबाइल, कंसोल या कम्प्यूटर पर खेले जा सकते हैं। हर तरह के गेम के अपने यूजर, उपयोगिता और संभावनाएं हैं।
वर्तमान में भाषा सिखाने वाले एप, फिटनेस ट्रैकर्स से लेकर डेटिंग प्लेटफॉर्म्स और फायनेंशियल प्लानिंग टूल्स तक, गेम्स और गेमीफिकेशन अब हमारी रोजमर्रा की जिंदगी का हिस्सा बन चुके हैं। गेमिफिकेशन का मतलब है किसी भी साधारण गतिविधि को रोचक और प्रेरक बनाने के लिए उसमें खेलों के तत्व जोड़ना, जैसे अंक देना, बैज देना या लीडरबोर्ड पर रैंक दिखाना आदि। गेमीफिकेशन को विकास सेक्टर में भी अब एक ऐसे समाधान की तरह देखा जा रहा है जो कई तरह से मददगार हो सकता है। एक ऐसा समाधान, जो हमारी बहुत सी व्यवहार संबंधी आदतों, जैसे टालबराई करना, गलत खान-पान और सामाजिक अलगाव वगैरह को भी चुनौतियों, पुरस्कारों और उपलब्धि की भावनाओं के जरिए संबोधित कर सकता है।
उदाहरण के लिए, वर्तमान में स्कैंडिनेविया में जलवायु लचीलेपन (क्लाइमेट रेजिलिएंस) से जुड़े कुछ सबसे दिलचस्प प्रयोग किए जा रहे हैं। वहां लोग भविष्य की जलवायु आपदाओं और उनसे बचने के तरीकों से जुड़े काल्पनिक परिदृश्यों का अभिनय कर रहे हैं। यह एलएआरपी (लाइव एक्शन रोल प्ले) का एक उदाहरण है। सहभागी तरीके से कहानी कहने की यह पुरानी विधा है। इसमें प्रतिभागी किसी अनुभवात्मक गतिविधि के माध्यम से एक कहानी से जुड़े मुख्य पहलुओं को उभारते हैं। लेकिन फिर भी, सामाजिक सेक्टर में गेम अभी भी एक बेहद कम इस्तेमाल किया जाने वाला माध्यम है।

सिविक गेम्स लैब में हमारा उद्देश्य ऐसे गेम विकसित करना है जो सार्वजनिक स्वास्थ्य, लोकतंत्र, मीडिया, जेंडर और पर्यावरण जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों को समझने और उन पर संवाद बनाने में मदद करें। हमारे हर गेम की आधारशिला तीन प्रमुख सिद्धांतों पर टिकी है: वैज्ञानिक गहनता, सांस्कृतिक प्रासंगिकता और सामुदायिक स्वामित्व।
ऐसे गेम तैयार करते समय निम्नलिखित बातों का ध्यान रखना आवश्यक है:
एक गेम की संरचना, उसके विजुअल तत्व और उसकी कहानी (जिसे प्रतिभागी अनुभव करते हैं) को गढ़ने में भाषा, रूपक, इतिहास और साहित्य जैसे पहलुओं की भूमिका अहम होती है। उदाहरण के लिए, तमिलनाडु के कोटागिरी में हम एक ऐसा गेम बना रहे हैं जो जलवायु परिवर्तन से होने वाली तबाही और उसके कृषि व उससे जुड़ी आजीविकाओं पर पड़ रहे प्रभावों को समझने में मदद करेगा। इस गेम की कहानी और खेलने की प्रक्रिया फलदार पेड़ों के नुकसान के इर्द-गिर्द बुनी जा रही है। हर गेम में स्थानीयता का तत्व होना जरूरी है। यानी वह उस समुदाय की संस्कृति, भाषा और अनुभवों के अनुरूप ढला हो, जहां उसे खेला जाएगा। जब गेम्स को बिना इस संदर्भ के किसी और जगह ले जाया जाता है, तो यह स्थानीय जुड़ाव खो जाता है। उदाहरण के तौर पर, पश्चिम में ‘मार्केट’ की अवधारणा के उलट हमारे देश में ‘मंडी’ एक बिल्कुल अलग सामाजिक और सांस्कृतिक अनुभव का हिस्सा है।
गेम लोगों को जटिल मुद्दों को समझने, सामूहिक रूप से खेलने के अनुभव तैयार करने और अपनी कहानियों में सक्रिय भूमिका निभाने के लिए प्रेरित करने का माध्यम बन सकते हैं। हमारा मूल विश्वास है कि गेम्स को इस तरह से डिजाइन किया जाना चाहिए कि वे लोग जो ऐतिहासिक रूप से हाशिए पर हैं या जो अपनी पहचान को व्यक्त नहीं कर पाते हैं, उन्हें एक ऐसा साधन मिले जो उन्हें सामाजिक भागीदारी और अधिकार दे सके। इसके जरिए ऐसे समुदाय अपने स्तर पर बदलाव लाने के नए तरीके निकाल सकें।
साल 2020 से 2022 के बीच, हमने ‘पोषण की पोटली’ नाम का एक कार्ड गेम बनाया था जो आहार विविधता, मातृ एवं शिशु पोषण और संतुलित भोजन बनाने व खाने की आदतों से जुड़ी सीखों पर आधारित है। यह गेम कोविड-19 महामारी के दौरान और उसके बाद बढ़ते कुपोषण को देखते हुए बनाया गया था। इस गेम को केंद्र और राज्य सरकारों के पोषण से जुड़े उद्देश्यों और संदेशों को ध्यान में रखते हुए बनाया गया था।
हमने ‘पोषण की पोटली’ को चार राज्यों में खेला और इसका एक पायलट प्रोजेक्ट जीविका (बिहार ग्रामीण आजीविका मिशन) के साथ गया जिले में संचालित किया।
इस गेम को बनाते हुए एक वैज्ञानिक और अकादमिक प्रक्रिया का सख्ती से पालन किया गया था। इसे बनाते हुए हमने सार्वजनिक शोध, वैश्विक मानकों, महत्वपूर्ण शैक्षणिक अध्ययनों, कई प्रमुख एनजीओ कार्यक्रमों और राष्ट्रीय पोषण संस्थान की जानकारियों को ध्यान में रखा था। इसके लिए हमने स्थानीय भोजन की जानकारी इकट्ठी की, फिर उन्हें सरकारी दिशानिर्देशों के साथ जोड़ा, उनकी कैलोरी की गणना की और आखिर में इन्हें ऐसे बिंदुओं में बदला जिन्हें आसानी से समझा और खेला जा सके।
लगातार सुधार और प्रयोग की प्रक्रिया के जरिए (जैसे, खेल के कई संस्करण बनाना, उन्हें अमली जामा पहनाना, संरचना व विजुअल रूप को बेहतर करना) हमने इस गेम में समुदाय की आवाजों, उनके जीवन के अनुभव और घर-परिवार की रोजमर्रा की तू-तू-मैं-मैं को भी शामिल किया। इन सब पहलुओं से गेम का स्वरूप तय हुआ: पहले आहार समूहों को समझना; फिर लोकप्रिय गेम ‘हेड्स अप!’ की तर्ज पर खिलाड़ी एक कार्ड अपने माथे पर लगाते हैं और बाकी खिलाड़ियों से सवाल पूछकर यह अनुमान लगाते हैं कि उस कार्ड पर क्या लिखा है; अंत में, खिलाड़ियों को दो कार्ड सेट बनाने होते हैं। एक सेट में पूछा जाता है कि ‘आपने कल क्या खाया’ और दूसरे सेट में पूछा जाता है कि ‘आप कल क्या खाएंगे।’
जब हम यह गेम पहली बार गांवों में लेकर गए, तो हमें एक दिलचस्प बदलाव देखने को मिला। अमूमन पुरुषों की दुनिया तक सीमित माने जाने वाला ताश का खेल महिलाओं के पास पहुंच रहा था और वे उसे पूरे उत्साह से खेल रही थीं। शुरुआत में हमने खेल का सामान्य तरीका अपनाया और महिलाओं से कहा कि वे गड्डी से ऊपर वाला कार्ड उठाएं। लेकिन एक महिला ने कार्डों पर बने फलों और सब्जियों को ध्यान से देखते हुए पूछा, “क्या इसमें और भी (कार्ड) हैं?”
गेम हमें सीधे एक परिस्थिति के भीतर ले आते हैं, इसमें हम क्रिया और निर्णय में भी सहभागी बनते हैं। यह भागीदारी का सबसे गहन और प्रभावशाली रूप है।
हमने सारे कार्ड जमीन पर फैला दिए। ठीक वैसे ही, जैसे मंडी में सब्जियां सजाई जाती हैं। इसके बाद वहां मौजूद महिलायें सहज प्रवृत्ति से जमीन पर बैठकर कार्डों को वैसे ही देखने लगीं, जैसे वे मंडी में ताजा सामान चुन रही हों। इस तरह मंडी खेल का केंद्रीय प्रतीक बन गई, जिसने खेल को महिलाओं के जीवन और अनुभवों से गहराई से जोड़ने का काम किया। दो साल बाद, एक स्वतंत्र आईपीएसओएस मूल्यांकन से पता चला कि गया की महिलाओं ने इस खेल के अपने संस्करण बना लिए हैं। एक संस्करण ‘हेड्स अप’ से मिलता-जुलता था, जिसमें आम और उड़द दाल जैसे शब्द कार्ड पर लिखे होते थे। महिलाओं ने इसे ‘बिंदी गेम’ नाम दिया था, क्योंकि वे माथे पर बिंदी की जगह कार्ड रखकर खेलती थीं।
हमारे अनुभव में एक अहम सीख यह रही कि लोगों में अक्सर जटिल नियमों के लिए धैर्य कम होता है। अगर गेम के नियम सहज न हों, यानी वे स्वाभाविक रूप से समझ में न आयें, तुरंत सीखे न जा सकें या उन्हें समझाने में बहुत समय लगे, तो पूरा गेम ही अपना आकर्षण खो देता है।
‘पोषण की पोटली’ के एक संस्करण में इसे साधारण पत्तों के खेल की तरह खेला जाता है: आप कार्ड चुनते हैं और कोई भोजन या व्यंजन बनाते हैं। यह करने के पीछे हमारा उद्देश्य था कि हम रसोई का माहौल बना सकें। लेकिन इसमें नियम थे कि कार्ड एक क्रम से ही चुने जाएंगे और यह खेल भागीदारी या समुदाय केंद्रित भी नहीं था। नतीजतन, यह संस्करण ज्यादा नहीं खेला जा सका।
बीते कुछ सालों में हमने कई गेम ऐसे बनाए हैं जो जागरुकता बढ़ाने, बदलाव और सुरक्षा के रास्ते बनाने और और नागरिक सहभागिता को प्रोत्साहित करने का काम करते हैं। ये खेल लोकतंत्र की समझ, लैंगिक हिंसा, डिजिटल अधिकार, आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस और जलवायु परिवर्तन जैसे विषयों पर केंद्रित रहे हैं।
जैसे-जैसे हम गेम्स को डिजाइन करने लगे और अलग-अलग उद्देश्यों के लिए उनका इस्तेमाल करने लगे, हमें इस पूरी प्रक्रिया में एक बड़ी कमी नजर आयी। विकास से जुड़ा संवाद आज भी अधिकतर एकतरफा है, जिसमें समुदाय या व्यक्ति की सक्रिय भागीदारी की जगह सीमित है। यह संवाद अक्सर लोगों की स्वाभाविक इच्छा को नहीं पहचानता, जिसके तहत वे खुद बदलाव लाना चाहते हैं। गेम इस यथास्थिति को चुनौती दे सकते हैं।
इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ें।
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फ्लाइट की खिड़की से बादल देखने का प्लान था पर बस की छत पर हवा खा रहे हैं, शायद यही जमीन से असली जुड़ाव है।

दो लोग, एक बेड, एक तौलिया, और ब्रेकफास्ट इन्क्लूडेड के चक्कर में आधी रात को साथी की लात और खर्राटों ने नींद उड़ा रखी है!

ये जय-वीरू की नहीं जरूरत की दोस्ती है। बजट नहीं है इसलिए चाय भी बांट रहे हैं और गम भी!

भइया किराया कम नहीं कर रहे हो तो एक आइडिया है… अगर ऑटो मैं चलाऊं तो?

फील्ड में संस्थाओं के साथ लंच करना वो हुनर है जहां ‘नेटवर्किंग’ और ‘बचत’ हाथ में हाथ डालकर चलते हैं।

वापसी के सफर के लिए घर से पूड़ी-भाजी लेकर आए थे, लेकिन भाजी पहले ही खत्म है, अब पूड़ी कैसे खाऊं?
“हम अपनी यात्राओं की योजना उस समय के लिए बनाते हैं जब बारिशें जलाशयों को भर चुकी हों ताकि हमें और हमारे पशुओं के लिए पर्याप्त पानी उपलब्ध हो। लेकिन बीते कुछ सालों से बढ़ती गर्मी और बेमौसम बारिश के कारण सूखा बढ़ने लगा है। इसलिए अब हमारे लिए साझा संसाधनों (कॉमन्स) पर पहले की तरह निर्भर रहकर जीना मुश्किल हो गया है।”
राजस्थान के घुमंतू रैका और रैम्बारी पशुपालक समुदायों के नेता महेंद्र रैका की यह बात जलवायु परिवर्तन के उस असर की तरफ इशारा करती है, जिसका सामना आज भारत के कई घुमंतू, पशुपालक, आदिवासी और वनों में रहने वाले समुदाय कर रहे हैं। जलवायु संकट ने समुदायों के लिए साझा संसाधनों तक पहुंच और उनके साथ संबंध बनाए रखने के तरीके को पूरी तरह बदल दिया है और इन संसाधनों पर भी इसके कई तरह के प्रभाव पड़े हैं।
वर्ष 2024 को अब तक का सबसे गर्म वर्ष दर्ज किया गया है। 2025 में समय से पहले और अनियमित बारिश हुई जिसमें मानसून की आधिकारिक शुरुआत से पहले ही तेज और भारी बारिश देखने को मिली। जलवायु पैटर्न में इस तरह के बदलाव की वजह से लंबे समय तक चलने वाला सूखा, अनिश्चित वर्षा और ऐसी अन्य चरम मौसमी घटनाएं बढ़ गई हैं। ऐसे में, वे समुदाय जो सदियों से जंगलों, तालाबों, चारागाहों और अन्य साझा संसाधनों को समझते, संजोते और जीवित रखते आए हैं; अब इन पारिस्थितिक तंत्रों को पहले से अधिक दबाव में पा रहे हैं।
यह स्थिति अनेक चुनौतियां पैदा करती है। साझा संसाधन (कॉमन्स) केवल स्थानीय समुदायों की जीवनरेखा ही नहीं हैं बल्कि जलवायु परिवर्तन के खिलाफ सुरक्षा कवच भी हैं। ये स्थानीय जलवायु को संतुलित रखते हैं, जैव विविधता को सहारा देते हैं, भूजल का पुनर्भरण (रिचार्ज) करते हैं और कार्बन को अवशोषित करते हैं। जब समुदाय किसी आर्थिक, राजनीतिक या पर्यावरणीय संकट में होते हैं तो यही संसाधन भोजन, पानी, चारा और आजीविका प्रदान करते हैं। इससे समुदाय जलवायु आघातों का सामना कर पाते हैं और दोबारा संभल पाते हैं।
फिर भी, जलवायु नीति और योजनाओं में इन साझा संसाधनों और उन्हें जीवित रखने वाले समुदायों की भूमिका अक्सर अनदेखी रह जाती है। यह अदृश्यता केवल पारंपरिक ज्ञान को ही हाशिये पर नहीं डालती है, बल्कि उन पारिस्थितिक तंत्रों को भी नजरअंदाज करती है जो समुदायों के लिए जीवटता बनाए रखने में सहायक हैं।
अनदेखी वाला यह रवैया जलवायु योजनाओं तक फैला हुआ है। राष्ट्रीय नीतियों से लेकर वैश्विक वित्तीय ढांचों तक, साझा संसाधनों को अक्सर सिर्फ कार्बन भंडारण या उत्सर्जन घटाने के साधन के रूप में देखा जाता है। यह सीमित दृष्टिकोण दिखाता है कि जलवायु कार्रवाई कैसे जरूरत से ज्यादा शमन केंद्रित (मिटीगेशन फोकस्ड) है। इसलिए क्योंकि साझा संसाधनों यानी जंगल, जमीन या पानी को केवल आंकड़ों या रिपोर्टों में गिने जा सकते वाले पर्यावरणीय संसाधान माना जाता है, जबकि इनका सामाजिक और सांस्कृतिक महत्व भी बहुत बड़ा है। कॉमन्स को केवल मापने योग्य पारिस्थितिक संसाधन मान लेने वाली सोच न केवल कॉमन्स को नुकसान पहुंचाती है, बल्कि उन्हें संरक्षित करने वाले समुदायों को भी प्रभावित करती है।
वर्ष 2014 से 2024 के बीच 1.73 लाख हेक्टेयर से अधिक वन भूमि को गैर-वन उपयोगों – जैसे इंफ्रास्ट्रक्चर, औद्योगिक परियोजनाओं और बढ़ती संख्या में जलवायु शमन और अनुकूलन परियोजनाओं के लिए स्वीकृत किया गया है। लैंड कॉन्फ्लिक्ट वॉच की एक हालिया रिपोर्ट में 10 राज्यों के 31 मामलों का अध्ययन किया गया था। रिपोर्ट बताती है कि बड़े पैमाने पर अक्षय ऊर्जा परियोजनाओं से जुड़े लगभग 48 प्रतिशत भूमि विवाद साझा भूमि पर हुए हैं। वहीं, 32 प्रतिशत मामलों में साझा और निजी दोनों तरह की भूमि शामिल थी।
इनमें से कई परियोजनाएं तथाकथित ‘बंजर’ या ‘वेस्टलैंड’ भूमि को निशाना बनाती हैं जो वास्तव में समुदाय-प्रबंधित चारागाह या वन भूमि होती हैं। कानूनी अस्पष्टता इस समस्या को और बढ़ा देती है। कानूनी पहचान या औपचारिक मान्यता के अभाव में ऐसी भूमि को खाली या इस्तेमाल करने के लिए उपलब्ध मान लिया जाता है, न कि उनके पारिस्थितिक और सामाजिक महत्व के लिए संरक्षित किया जाता है। उदाहरण के लिए भारत के कई हिस्सों में सौर ऊर्जा पार्क इन्हीं चारागाह भूमि पर बनाए गए हैं जिन पर पशुपालक समुदाय सदियों से निर्भर रहे हैं। गुजरात के कच्छ में मालधारी समुदायों ने अपने पारंपरिक चारागाह तक पहुंच खो दी है क्योंकि वहां अब सौर पार्क और पवन ऊर्जा संयंत्र लगाए जा चुके हैं।
ये परिवर्तन भारत के स्वच्छ ऊर्जा लक्ष्यों को तो पूरा करते हैं, लेकिन अक्सर इनकी कीमत स्थानीय आजीविकाओं और पारंपरिक जमीन इस्तेमाल करने की प्रथाओं के भारी नुकसान के रूप में चुकानी पड़ती है।

भारत के नेट जीरो लक्ष्यों को हासिल करने की कोशिशों में अक्सर वन क्षेत्र को बढ़ाने के नाम पर एक प्रजाति वाले पेड़ों को लगाने यानी वृक्षारोपण को बढ़ावा दिया जाता है। लेकिन गैर-स्थानीय प्रजातियों के वृक्षारोपण और कृत्रिम बागानों से पारिस्थितिक संतुलन बिगड़ता है और मौजूदा जैव विविधता को नुकसान भी पहुंच सकता है। इस तरह की कुछ वृक्षारोपण नीतियां वास्तव में कार्बन अवशोषक बनने के बजाय साझा संसाधनों, जलवायु और समुदायों पर नकारात्मक असर डाल सकती हैं।
उदाहरण के तौर पर, ग्रीन इंडिया मिशन उन तथाकथित बंजर या अनुपयोगी भूमि पर वनीकरण को बढ़ावा देता है जो वास्तव में समुदायों द्वारा प्रबंधित चारागाह या वन भूमि होती हैं। इसी तरह, प्रतिपूरक वनीकरण निधि अधिनियम, 2016 (कैम्पा) के तहत केंद्र सरकार राज्य सरकारों को वनीकरण गतिविधियों के लिए धन मुहैया कराती है। हालांकि यह अधिनियम विशेष रूप से जलवायु से संबंधित कानून न हो, लेकिन इसे अक्सर कार्बन अवशोषण से जुड़ी जलवायु संबंधी दलीलों के माध्यम से उचित ठहराया जाता है। इससे बड़े पैमाने पर वनीकरण की परियोजनाएं उन भूमियों पर लागू की जाती हैं जो वास्तव में साझा संसाधन, विशेष रूप से वन-साझा संसाधन होती हैं। अक्सर यह सब ग्राम सभाओं की सहमति के बिना किया जाता है।
कार्बन क्रेडिट ट्रेडिंग स्कीम (सीसीटीएस) का उद्देश्य भी कार्बन उत्सर्जन को कम करने के लिए देश के वन क्षेत्र को 21 प्रतिशत से बढ़ाकर 33 प्रतिशत करना है। हालांकि एकता परिषद के रमेश शर्मा बताते हैं कि इस योजना के कार्यान्वयन में सागौन, सेमल और बांस जैसे वाणिज्यिक प्रजातियों के बागान बड़े क्षेत्रों में लगाए जा रहे हैं। इनसे वन-निर्भर समुदायों को आजीविका का कोई लाभ नहीं मिलता है। इन परियोजनाओं के लिए भूमि का स्रोत अक्सर सरकार के ‘लैंड बैंक’ होते हैं, जिनमें कई गांवों की साझा भूमि और वे वन क्षेत्र शामिल होते हैं जिन्हें आदिवासी और ग्रामीण समुदाय पीढ़ी दर पीढ़ी इस्तेमाल और संरक्षित करते आए हैं।
ऊपर जिक्र की गई सभी प्रक्रियाओं को सोचते या जमीन पर उतारते समय अक्सर समुदायों की भूमिका और सहमति को हाशिये पर रखा जाता है। नीतिगत ढांचे भले ही भागीदारी की बात करें, लेकिन यह भागीदारी केवल परियोजनाओं के क्रियान्वयन तक सीमित रहती है, न कि उन नियमों के निर्धारण तक जो पहुंच और अधिकार तय करते हैं।
नीति निर्माताओं और डेवलपर्स के लिए जो आमतौर पर व्यक्तिगत स्वामित्व से निपटने के आदी हैं, यह प्रक्रिया प्रशासनिक रूप से जटिल हो जाती है।
रमेश शर्मा बताते हैं, “ज्यादातर लोग यह सोचते हैं कि आदिवासी और गांव के लोग जंगल की रक्षा करने और स्थानीय पौधों-जानवरों को पहचानने में माहिर होते हैं, इसलिए सरकार की ऐसी योजनाओं (जैसे सीसीटीएस) का जिम्मा पर्यावरण, ग्रामीण विकास या आदिवासी मंत्रालय को होना चाहिए। लेकिन असल में इसे ऊर्जा मंत्रालय संभालता है और इसकी देखरेख ऊर्जा दक्षता विभाग करता है, जिसमें समुदायों से राय लेने की बहुत जरूरत नहीं होती है।”
वे आगे कहते हैं, “यह दिखाता है कि जलवायु शासन समुदाय-केंद्रित दृष्टिकोण से हटकर तकनीकी और बाजार-प्रेरित दृष्टिकोण की ओर बढ़ रहा है – जहां पारिस्थितिक और सामाजिक पहलुओं की बहुत कम गुंजाइश रह जाती है।”
राजस्थान, ओडिशा और मध्य प्रदेश जैसे राज्यों के स्टेट एक्शन प्लान ऑन क्लाइमेट चेंज (एसएपीसीसी) में चारागाह भूमि और वनों के क्षरण तथा समुदायों की भागीदारी की आवश्यकता का उल्लेख किया गया है। हालांकि, यह भागीदारी आमतौर पर जागरूकता बढ़ाने या परियोजनाओं के कार्यान्वयन तक सीमित रहती है। इसे निर्णय लेने या शासन प्रक्रियाओं में समुदायों की वास्तविक भागीदारी में इसका रूपांतरण नहीं होता है।
पर्यावरणविद और शोधकर्ता कांची कोहली कहती हैं कि जलवायु या पर्यावरण नीतियों में ऐसी अनदेखी अक्सर रणनीतिक होती है। जैसे ही किसी भूमि को ‘साझा संपत्ति संसाधन‘ के रूप में मान्यता दी जाती है तो इससे सामूहिक उपयोग, अधिकार और साझा शासन को मान्यता देनी पड़ती है। यदि यह प्रभावित होता है तो मुआवजे की मांग उठती है। नीति निर्माताओं और डेवलपर्स के लिए जो आमतौर पर व्यक्तिगत स्वामित्व से निपटने के आदी हैं, यह प्रक्रिया प्रशासनिक रूप से जटिल हो जाती है। आप किससे परामर्श करेंगे? साझा संसाधन का मूल्यांकन कैसे करेंगे? और मुआवजा किस बात का देंगे?- ऐसे सवाल सामने आते हैं।
फलस्वरूप, नीतियां अक्सर कॉमन्स को परे रखकर बनाई जाती हैं— इसलिए नहीं कि साझा संसाधन मौजूद नहीं हैं, बल्कि इसलिए कि उन्हें स्वीकार करना शासन, विकास और पर्यावरण संरक्षण की मौजूदा व्यवस्था को फिर शुरूआत से गढ़ने की मांग करता है।
आदिवासी, पशुपालक, वन-आश्रित और ग्रामीण समुदायों के लिए कॉमन्स कोई अमूर्त नीतिगत चुनौती या सिर्फ कार्बन अवशोषक नहीं हैं – बल्कि ये ऐसे जीवंत तंत्र हैं जो उनके रोजमर्रा के जीवन और लचीलेपन को बनाए रखते हैं। लेकिन जलवायु परिवर्तन पर केंद्रित शमन और कार्बन-केन्द्रित दृष्टिकोण अक्सर इस सच्चाई को स्वीकार नहीं करते कि ये समुदाय संकटों से निपटने के लिए पहले से ही साझा अधिकारों, नियमों, परंपराओं और जिम्मेदारियों पर आधारित सामूहिक शासन प्रणाली के जरिए लगातार अनुकूलन करते आ रहे हैं।
शोधकर्ता अरुण अग्रवाल ने अपने बहुराष्ट्रीय शोध में बताया है कि जलवायु परिवर्तन के अनुकूलन के लिए समुदाय पांच प्रमुख रणनीतियां अपनाते हैं —
इन रणनीतियों की सफलता के प्रमाण भारत के कई हिस्सों में देखे जा सकते हैं जहां समुदाय बदलते जलवायु पैटर्न के बीच इन्हें अपना रहे हैं। उदाहरण के लिए, ओडिशा के कोरापुट जिले में गदबा समुदाय की आदिवासी महिलाएं पारंपरिक ज्ञान और सांझा संसाधन शासन प्रणालियों को पुनर्जीवित करके पारिस्थितिक संतुलन बहाल करने के प्रयासों में आगे रही हैं। पिछले 10–15 वर्षों में वन क्षरण के कारण उन्हें फलों, औषधीय पौधों, पानी और वन्यजीवों तक पहुंच में भारी कमी का सामना करना पड़ा है। इसके जवाब में, स्प्रेड संगठन की मदद से महिलाओं ने ग्राम पंचायत विकास योजना (जीपीडीपी) में ही वन और जल संरक्षण को शामिल कर, समुदाय स्तर पर दोबारा से स्थापना की दिशा में कदम बढ़ाए हैं।
इसलिए जरूरत एक ऐसे दृष्टिकोण की है जो समुदायों को सिर्फ हितधारक न समझे, बल्कि जलवायु लचीलेपन के संरक्षक के रूप में माने।
समुदाय ने अपने गांवों के संसाधनों का नक्शा तैयार किया है ताकि पता लगाया जा सके कि वन और चारागाह समय के साथ कैसे सिकुड़ गए या बदल गए। उन्होंने सामुदायिक वन नियम भी बनाए जैसे केवल मृत या सूखी लकड़ी का उपयोग, चराई और कटाई क्षेत्रों का घुमाव में रखना और प्राकृतिक पुनर्जनन के लिए बीज छोड़ना। इसके अलावा, उन्होंने 50 वर्षों का वन आकलन किया, 22 दुर्लभ प्रजातियों की पहचान की है और सामुदायिक नेतृत्व वाली पुनर्जीवनी योजना शुरू की।
हालांकि, कांची कोहली कहती हैं, “नीतियां, शायद ही कभी इन पहलों को ‘जलवायु रणनीति’ के रूप में देखती हैं। इन्हें आसानी से मापा नहीं जा सकता है, ये बड़े पूंजी निवेश को आकर्षित नहीं करतीं, और न ही ऊपर से नीचे तक की परियोजना मॉडल में फिट बैठती हैं। सबसे अहम बात यह है कि स्थानीय समुदायों की ये विधियां उस सोच को चुनौती देती हैं कि जलवायु संकट का सामना करने में केवल राज्य या बाजार ही मुख्य भूमिका निभाते हैं।”
इसलिए जरूरत एक ऐसे दृष्टिकोण की जो है जो समुदायों को सिर्फ हितधारक न समझे, बल्कि जलवायु लचीलेपन के संरक्षक के रूप में माने। इसका मतलब है कि उनके ज्ञान, शासन प्रणाली और समाधान को केवल सहायक न मानकर अनुकूलन और निवारण की मुख्य रणनीति के रूप में स्वीकार किया जाए।
सबसे पहले समुदाय की पारंपरिक व्यवस्था का समर्थन और सशक्तिकरण करना होगा। हस्तक्षेपों में एक पैमाने पर आधारित मॉडल, जिसमें ऊपर से आने वाले निर्देशों को नीचे लागू करने का नजरिया अपनाया जाता है, की बजाय पारंपरिक तरीकों को अपनाना होगा। यही जलवायु समाधानों की सोच का केंद्र होना चाहिए। इसके लिए तीन बदलाव विशेष रूप से महत्वपूर्ण हैं:
समुदायों ने बहुत पहले ही समझ लिया था कि अनुकूलन और शमन (मिटीगेशन) एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जंगलों की रक्षा, चारागाहों का पुनर्जनन, जल संरक्षण, और संसाधनों की रोजमर्रा की देखभाल जैसी गतिविधियां उन्हें जलवायु झटकों से उबरने, उत्सर्जन को नियंत्रित करने, भूजल को पुनर्भरण करने, और स्थानीय जलवायु को ठंडा रखने में मदद करती है।
उदाहरण के तौर पर, ओडिशा के पुनासिया गांव को देखा जा सकता है। 1980 के दशक में जब यहां जंगलों की कटाई से वनों का क्षरण हुआ तो बहुत से लोगों को रोजगार के लिए पलायन करना पड़ा। लेकिन बीते दो दशकों में गांव की महिलाओं ने साल, महुआ और बांस जैसे स्थानीय पेड़ों को लगाकर 50 एकड़ बंजर जमीन को फिर से हरा-भरा कर दिया है। इससे न केवल क्षेत्र में आजीविका के अवसर लौटे हैं बल्कि स्थानीय जलवायु भी संतुलित हुई है। यह पुनर्जीवित वन क्षेत्र एक कार्बन सिंक की तरह काम करता है जो तापमान को कम करता है, वर्षा लाता है, भूमिगत जल को रिचार्ज करता है और जैव-विविधता व प्राकृतिक आवासों की रक्षा करता है।
लेकिन वर्तमान कार्बन ट्रेडिंग फ्रेमवर्क—जैसे भारत का ग्रीन क्रेडिट प्रोग्राम और सीसीटीएस—बहुत सीमित, खरीदार-केंद्रित दृष्टिकोण से बनाए गए हैं। इनमें जंगलों, आर्द्रभूमियों और साझा संसाधनों को मुख्य रूप से कार्बन भंडार के रूप में देखा जाता है। वहीं, उनके खाद्य सुरक्षा, जल प्रबंधन, जैवविविधता और सांस्कृतिक जीवन में योगदान को नजरअंदाज कर दिया जाता है। इन योजनाओं की लागत तय करना, सत्यापन और क्रेडिट का प्रवाह आदि सब कुछ कॉर्पोरेट कंपनियों और बाजार के बिचौलियों के नियंत्रण में होता है जिससे आमतौर पर समुदाय हाशिए पर रह जाते हैं।
जून 2024 तक, भारत के सीसीटीएस में समुदायों को निर्णय-प्रक्रिया या निगरानी में शामिल करने के लिए किसी औपचारिक तंत्र का प्रावधान नहीं था। इससे यह बड़ा सवाल सामने आता है कि कार्बन ऑफसेट का संचालन वास्तव में कौन करता है। इसलिए जलवायु नीतियों को केवल बातों से हटाकर सशक्त तंत्र, पारदर्शी निगरानी और समुदायों के अधिकारों एवं आजीविका की सुरक्षा सुनिश्चित करने वाले उपायों की दिशा में बढ़ना होगा।
इस तरह के प्रयासों के बिना, अनुकूलन और शमन (मिटीगेशन) प्रयास एक-दूसरे के विपरीत काम करने का खतरा पैदा करते हैं। इनसे उत्सर्जन घटाने के नाम पर समुदायों की आजीविका छिन जाती है और उनके द्वारा लंबे समय में विकसित किया गया लचीलापन कमजोर पड़ सकता है।
इसके विपरीत, यूरोपीय संघ जैसे परिपक्व बाजारों में ऐसे सुरक्षा प्रावधान हैं, जो यह सुनिश्चित करते हैं कि कंपनियां उत्सर्जन-प्रधान गतिविधियों को उन देशों में न ले जाएं जहां नियम ढीले हैं। साथ ही, सिविल सोसाइटी संगठन भी इन प्रणालियों की निगरानी और सुधार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

भारत में पहले से ही ऐसे संवैधानिक और कानूनी ढांचे मौजूद हैं जो समुदायों की भूमिका को मान्यता देते हैं और उन्हें मजबूती प्रदान करते हैं। अनुसूची V, पेसा कानून (1996) और वनाधिकार अधिनियम (2006) ‘मुक्त, पूर्व और सूचित सहमति (फ्री, पीरियर एंड इन्फॉर्म्ड कंसेंट- एफपीआईसी)’ के सिद्धांत को मान्यता देते हैं और ग्राम सभाओं को आदिवासी भूमि की रक्षा और संसाधनों के स्व-शासन का अधिकार देते हैं। इन कानूनों का सही कार्यान्वयन सामुदायिक शासन की नींव को मजबूत करता है।
भारत के अलग-अलग हिस्सों में सामुदायिक प्रबंधन के अनेक उदाहरण हैं। राजस्थान के कल्याणपुरा वॉटरशेड में समुदायों, ग्राम पंचायतों और गैर-सरकारी संगठनों ने मिलकर बंजर भूमि को पुनर्जीवित किया जिससे खेती और चारागाह दोनों को बहाल किया जा सका। केरल और तमिलनाडु में मछुआरा समुदाय ‘पडु’ जैसी पारंपरिक प्रणालियों के जरिए मछली पकड़ने के क्षेत्र बराबरी से साझा करते हैं। वहीं, ऊरु पंचायतें, करायोगम्स और पेरिश समितियां जैसे सामाजिक-धार्मिक संस्थान तटीय साझा संसाधनों का पर्यावरण के लिए उपयुक्त तरीकों से प्रबंधन करते हैं।
संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यूएनडीपी) की हालिया रिपोर्ट ‘इनेबलिंग राइट्स, सेक्योरिंग फ्यूचर्स’ ने कुछ अहम सिफारिशें दी हैं। इसमें जिक्र किया गया है कि कैसे सरकार की योजनाएं जैसे एससीए टू टीएसपी, आईटीडीपी, मनरेगा और एनआरएलएम आदि के जरिए भूमि विकास और वनीकरण से संबंधित कार्यों में समन्वय स्थापित कर समुदायों के अधिकारों को मजबूत कर सकती हैं। इसके अलावा, राज्य एजेंसियां मानचित्रण और भूमि सत्यापन जैसी प्रक्रियाओं के लिए वित्तीय सहायता देकर वन अधिकार अधिनियम के क्रियान्वयन में सहयोग कर सकती हैं। साथ ही, कल्याण और रोजगार योजनाओं को समुदाय द्वारा संचालित साझा संसाधनों के शासन के अनुरूप बना सकती हैं।
भूमि और कॉमन्स के नुकसान की भरपाई केवल मुआवजे तक सीमित नहीं होनी चाहिए। कॉमन्स केवल आर्थिक संपत्ति नहीं हैं। वे खाद्य, जल, संस्कृति और सामुदायिक लचीलापन के स्रोत हैं। इसलिए सामाजिक न्याय को जलवायु और ऊर्जा योजनाओं के केंद्र में रखना आवश्यक है, ताकि जिन समुदायों के संसाधनों से ये परियोजनाएं संभव हो रही हैं, उन्हें पीछे न छोड़ दिया जाए।
इसके लिए ऐसे ढांचे यानी फ्रेमवर्क की आवश्यकता है जो:
उदाहरण के तौर पर, भूमि उपयोग के नए डिजा़इन समानता को बढ़ावा दे सकते हैं। ऐसे डिजा़इनों में ऊंचे सोलर पैनलों के नीचे फसलें, पशुधन या मछली उत्पादन किया जा सकता है। इससे समुदाय खाद्य उत्पादन बनाए रखते हुए ऊर्जा भी उत्पन्न कर सकते हैं। तमिलनाडु में पवन चक्कियों के नीचे की जमीन को लीज पर देने से किसानों को बिजली राजस्व का हिस्सा मिला है। यह दिखाता है कि किस तरह न्यायपूर्ण डिजाइन जलवायु समाधान को स्थानीय आजीविका से जोड़ सकता है।
जैसे-जैसे भारत जलवायु परिवर्तन से पैदा हुए बड़े बदलावों का सामना कर रहा है उससे आगे का रास्ता ऐसा होना चाहिए जो समुदायों और उनके संरक्षण को जलवायु कार्रवाई के केंद्र में रखे; न कि उन्हें हाशिए पर धकेले।
नोटः गोपनीयता बनाए रखने के लिए लेख में कुछ नाम बदल दिए गये हैं।
राकेश स्वामी और पूजा राठी ने भी इस लेख में योगदान दिया है।
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