देश में जब विकसित भारत की संकल्पना को मूर्त रूप दिया जा रहा था, उस समय यह महसूस किया गया होगा कि स्वस्थ भारत के बिना विकसित भारत बेमानी है। यही कारण है कि आज विकसित भारत के नारे से पहले स्वस्थ भारत का नारा दिया जाता है। दरअसल यह स्वस्थ भारत का नारा देश के नौनिहालों को केंद्र में रख कर गढ़ा जाता है क्योंकि जब बच्चे स्वस्थ होंगे तो हम समृद्ध देश की संकल्पना को साकार कर पाने में सक्षम होंगे। लेकिन प्रश्न उठता है कि क्या वास्तव में भारत के बच्चे विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों के बच्चे कुपोषण मुक्त और स्वस्थ हैं? हालांकि सरकारों की ओर जारी आंकड़ों में कुपोषण के विरुद्ध जबरदस्त जंग दर्शाई जाती है, लेकिन आंकड़े बताते हैं कि अभी भी हमारे देश के ग्रामीण क्षेत्रों में गर्भवती महिलाएं और पांच साल तक की उम्र के अधिकतर बच्चे कुपोषण मुक्त नहीं हुए हैं।
वर्ष 2022 में राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के पांचवें दौर के दूसरे चरण की जारी रिपोर्ट के अनुसार पहले चरण की तुलना में मामूली सुधार हुआ है लेकिन अभी भी इस विषय पर गंभीरता से काम करने की आवश्यकता है। भारत में अभी भी प्रतिवर्ष केवल कुपोषण से ही लाखों बच्चों की मौत हो जाती है। सर्वेक्षण के अनुसार करीब 32 प्रतिशत से अधिक बच्चे कुपोषण के कारण अल्प वजन के शिकार हैं। जबकि 35.5 प्रतिशत बच्चे कुपोषण की वजह से अपनी आयु से छोटे कद के प्रतीत होते हैं। दरअसल बच्चों में कुपोषण की यह स्थिति मां के गर्भ से ही शुरू हो जाती है। ग्रामीण क्षेत्रों में अधिकतर महिलाएं एनीमिया की शिकार पाई गई है। जिसका असर उनके होने वाले बच्चे की सेहत पर नजर आता है। रिपोर्ट के अनुसार 15 से 49 साल की आयु वर्ग की महिलाओं में कुपोषण का स्तर 18.7 प्रतिशत मापा गया है।
देश के जिन ग्रामीण क्षेत्रों में कुपोषण की स्थिति चिंताजनक देखी गई है उसमें राजस्थान भी आता है। इन ग्रामीण क्षेत्रों में आर्थिक रूप से बेहद कमजोर अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति समुदायों में यह स्थिति और भी अधिक गंभीर है। राज्य के अजमेर जिला स्थित नाचनबाड़ी गांव इसका एक उदाहरण है। जिला के घूघरा पंचायत स्थित इस गांव में अनुसूचित जनजाति कालबेलिया समुदाय की बहुलता हैं। पंचायत में दर्ज आंकड़ों के अनुसार गांव में लगभग 500 घर हैं। गांव के अधिकतर पुरुष और महिलाएं स्थानीय चूना भट्टा पर दैनिक मज़दूर के रूप में काम करते हैं। जहां दिन भर जी तोड़ मेहनत के बाद भी उन्हें इतनी ही मज़दूरी मिलती है जिससे वह अपने परिवार का गुज़ारा कर सकें। यही कारण है कि गांव के कई बुज़ुर्ग पुरुष और महिलाएं आसपास के गांवों से भिक्षा मांगकर अपना गुजारा करते है। समुदाय में किसी के पास भी खेती के लिए अपनी जमीन नहीं है। खानाबदोश जीवन गुजारने के कारण इस समुदाय का पहले कोई स्थाई ठिकाना नहीं हुआ करता था। हालांकि समय बदलने के साथ अब यह समुदाय कुछ जगहों पर पीढ़ी दर पीढ़ी स्थाई रूप से निवास करने लगा है। लेकिन इनमें से किसी के पास ज़मीन का अपना पट्टा नहीं है।
वहीं शिक्षा की बात करें तो इस गांव में इसका प्रतिशत बेहद कम दर्ज किया गया है। यह इस बात से पता चलता है कि गांव में कोई भी पांचवीं से अधिक पढ़ा नहीं है। जागरूकता के अभाव के कारण युवा पीढ़ी भी शिक्षा की महत्ता से अनजान है। गरीबी और जागरूकता की कमी के कारण गांव में कुपोषण ने भी अपने पांव पसार रखे हैं। इस संबंध में गांव की 28 वर्षीय जमुना बावरिया बताती हैं कि गांव के लगभग सभी बच्चे शारीरिक रूप से बेहद कमज़ोर हैं। गरीबी के कारण उन्हें खाने में कभी भी पौष्टिक आहार प्राप्त नहीं हो पाता है। घर में दूध केवल चाय बनाने के लिए आता है। वे बताती हैं कि उनके पति घर में ही कागज़ का पैकेट तैयार करने का काम करते हैं। जिससे बहुत कम आमदनी हो पाती है। ऐसे में वह बच्चों के लिए पौष्टिक आहार का इंतजाम कहां से कर सकती हैं? वे बताती हैं कि गांव के अधिकतर बच्चे जन्म से ही कुपोषण का शिकार होते हैं क्योंकि घर की आमदनी कम होने के कारण महिलाओं को गर्भावस्था में संपूर्ण पोषण उपलब्ध नहीं हो पाता है। जिसका असर जन्म के बाद बच्चों में भी नज़र आता है। वे स्वयं एनीमिया की शिकार हैं।
वहीं 35 वर्षीय अनिल गमेती बताते हैं कि वे गांव के बाहर चूना भट्टा पर दैनिक मज़दूर के रूप में काम करते हैं। जहां उनके साथ उनकी पत्नी भी काम करती है। लेकिन गर्भावस्था के कारण अब वह काम पर नहीं जाती है क्योंकि उसे हर समय चक्कर आते हैं। डॉक्टर ने शरीर में पोषण और खून की कमी बताई है। अनिल कहते हैं कि पहले मैं और मेरी पत्नी मिलकर काम करते थे तो घर की आमदनी अच्छी चलती थी। लेकिन गर्भ और शारीरिक कमज़ोरी के कारण अब वह काम पर नहीं जा पा रही है। ऐसे में घर की आमदनी भी कम हो गई है। अब उन्हें चिंता है कि वह पत्नी को कैसे पौष्टिक भोजन खिला पाएंगे? अनिल कहते हैं कि डॉक्टर ने दवाईयों के साथ साथ विटामिन और आयरन की टैबलेट भी लिख दी थी जो अस्पताल में मुफ्त उपलब्ध भी हो गई, लेकिन साथ ही डॉक्टर ने पत्नी को प्रतिदिन पौष्टिक भोजन भी खिलाने को कहा है जो उन जैसे गरीबों के लिए उपलब्ध करना बहुत मुश्किल है। वे कहते हैं कि इसके अच्छे खाने की व्यवस्था करने के लिए मुझे साहूकारों से कर्ज लेना पड़ सकता है। जिसे चुकाने के लिए पीढ़ियां गुजर जाती हैं।
ग्रामीण क्षेत्रों में आर्थिक रूप से बेहद कमजोर अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति समुदायों में स्थिति और भी गंभीर है।
गांव की 38 वर्षीय कंचन देवी के पति राजमिस्त्री का काम करते हैं। वे बताती हैं कि उनके तीन बच्चे हैं। दो लड़कियां हैं जो प्राथमिक विद्यालय में पढ़ती हैं जबकि बेटा गांव के आंगनबाड़ी में जाता है। देखने में उनका बेटा काफी कमज़ोर लग रहा था। वे बताती हैं कि पति की आमदनी बहुत कम है। ऐसे में बच्चों के लिए पौष्टिक खाने की व्यवस्था करना मुमकिन नहीं है। वह आंगनबाड़ी जाता है जहां खाने के अच्छे और पौष्टिक आहार उपलब्ध होते हैं जिसके कारण उसके अंदर इतनी भी ताकत है। कंचन कहती हैं कि गांव में गरीबी के कारण लगभग सभी बच्चे ऐसे ही कमजोर नजर आते हैं। घर की आमदनी अच्छी नहीं होने के कारण परिवार न तो बच्चों का और न ही गर्भवती महिलाओं को पौष्टिक भोजन उपलब्ध करा पाता है। एक अन्य महिला संगीता देवी कहती हैं कि आंगनबाड़ी केंद्र के कारण गांव के बच्चों और गर्भवती महिलाओं को कुछ हद तक पौष्टिक भोजन उपलब्ध हो जाता है। सरकार ने आंगनबाड़ी केंद्र संचालित कर गांव के बच्चों को कमज़ोर होने से बचा लिया है।
वास्तव में देश के ग्रामीण क्षेत्रों में कुपोषण की यह स्थिति भयावह है। जिसे दूर करने के लिए एक ऐसी योजना चलाने की ज़रूरत है जिससे गर्भवती महिलाएं और बच्चों को सीधा लाभ पहुंचे। इस कड़ी में आंगनबाड़ी केंद्र की कार्यकर्त्ता और सहायिका सराहनीय भूमिका अवश्य निभा रही हैं। लेकिन इस बात पर भी गंभीरता से सोचने की आवश्यकता है कि ग्रामीण क्षेत्रों के बच्चों को भूख और कुपोषण से मुक्त बनाने के लिए 1975 में शुरू किया गया आंगनबाड़ी अपनी स्थापना के लगभग पांच दशक बाद भी अब तक शत-प्रतिशत अपने लक्ष्य को प्राप्त क्यों नहीं कर सका है?
यह लेख मूलरूप से भारत अपडेट पर प्रकाशित हुआ था।
गौतम भान, इंडियन इंस्टीट्यूट फॉर ह्यूमन सेटलमेंट (आईआईएचएस), बेंगलूरू से जुड़े हैं। वर्तमान में वे एसोसिएट डीन एवं एकेडमिक्स एंड रिसर्च सीनियर लीड के बतौर कार्यरत हैं। वे एलजीबीटीक्यू समुदायों के अधिकारों के लिए भी आवाज़ उठाते रहते हैं। गौतम के प्रमुख शोध कार्यों में दिल्ली में शहरी गरीबी, असमानता, सामाजिक सुरक्षा और आवास पर केंद्रित काम बहुत ही सराहनीय रहा है। फिलहाल, उन्होंने किफायती और पर्याप्त आवास तक लोगों की पहुंच के सवालों पर अपना शोध जारी रखा हुआ है।
गौतम की चर्चित प्रकाशित किताबों में प्रमुख हैं – ‘इन द पब्लिक इंटरेस्ट: एविक्शन्स, सिटिज़नशिप एंड इनइक्वलिटी इन कंटेम्पररी दिल्ली’ (ओरिएंट ब्लैकस्वान, 2017) और बतौर सह-संपादक ‘क्योंकि मेरे पास एक आवाज़ है: भारत में क्वीयर पॉलिटिक्स’ (योडा प्रेस, 2006) शामिल हैं।
द थर्ड आई के शहर संस्करण में गौतम भान के साथ हमने सरकारी नीतियों के बरअक्स वास्तविकता के बीच शहरों के बनने की प्रक्रिया, शहरी गरीबों की पहचान के सवाल, शहरी अध्ययन एवं कोविड महामारी की सीखें और भारत में शहरी अध्ययन शिक्षा के स्वरूप पर विस्तार से बातचीत की है। पेश है इस बातचीत का अंश:
इस सवाल का जवाब अगर रूपक में दूं तो भारतीय शहरीकरण को इस एक दृश्य से समझा जा सकता है – एक घर जिसके चारों कोनों के ऊपर सरिया की छड़ें एक ठोस स्तंभ से चिपकी हुई दिखाई देती हैं, और जिसकी बिना पलस्तर की गई लाल ईंट की दीवार भविष्य की ओर देख रही होती है। लगभग आधी दिल्ली ऐसी ही है। क्योंकि घर अभी बना नहीं है, बनता जा रहा है। ज़्यादातर लोग घर में रहते हुए इसे बनाते हैं। और यही हमारा शहरीकरण भी है। आहिस्ता-आहिस्ता बढ़ते जाना। इसलिए हमारे शहरीकरण के उपाय एवं प्रयासों को भी इसी धीमी चाल की वृद्धि से परिवर्तन लाना होगा।
वैसे, हमारे यहां पर शहर की एक विचित्र तकनीकी परिभाषा है। भारत दुनिया का एकमात्र ऐसा देश है जहां रोज़गार से शहर को परिभाषित किया जाता है – 400 वर्ग किलोमीटर के घनत्व में रहने वाली 5000 जनसंख्या जिनमें से 75% पुरुष गैर-कृषि रोज़गार में हों – इस औपचारिक भाषा में भारत में शहर को परिभाषित किया जाता है।
अब, मैं आपको बताता हूं,
यदि आप इस रोज़गार श्रेणी को हटा दें, तो भारत पहले से ही 60% शहरी क्षेत्र है। ये जो हम कहते रहते हैं ना, “भारत गांव प्रधान देश है। हम केवल 35% शहरी हैं।” नहीं, अब ऐसा नहीं है। और ये कैसी ऊटपटांग सी परिभाषा है जो पुरुषों के रोज़गार के आधार पर शहरों की श्रेणी तय करती है। यह बहुत ही उलझाई हुई परिभाषा है।
भारत दुनिया का एकमात्र ऐसा देश है जहां रोज़गार से शहर को परिभाषित किया जाता है।
लेकिन ऐसा क्यों है? क्योंकि, मूलरूप से, हम शहर को लेकर कभी सहज नहीं हो पाए हैं। आप ट्रेन में बैठे हैं। आपसे किसी ने पूछा, “तुम हो कहां से?” आप कहेंगे, “मैं दिल्ली से हूं।” वे फट से दूसरा सवाल करेंगे, “नहीं, नहीं, असल में कहां से हो, घर कहां है तुम्हारा?” क्योंकि हमारे यहां शहरों से कोई होता नहीं है। यहां लोग सिर्फ आते हैं।
हम (70-80 के दौर में पैदा हुई) वह पहली पीढ़ी हैं जिसने शहर में जन्म लिया है और जिसके ज़ेहन में फौरन गांव नहीं आता। लेकिन, अभी भी इसे मानने में वक्त लगेगा कि लोग शहर के भी होते हैं। शायद एक और पीढ़ी बीत जाने के बाद शहर को लेकर यह सोच पुख्ता हो सके।
अपने फील्ड वर्क के दौरान जब मैं दिल्ली के बवाना औऱ पुश्ता में उन लोगों के साथ काम कर रहा था, जो दिल्ली के अलग-अलग इलाकों से बेदखल कर, वहां पुनर्वासित किए जा रहे थे, तो एक बात मुझे बिलकुल समझ नहीं आई। वे सुलभ शौचालय में शौच का इस्तेमाल करने के लिए रोज़ाना तीन रुपए दे रहे थे। उनका इलाका शहर का एकदम बाहरी इलाका था। उनके सामने सरसों के खेत ही खेत थे। और वे रोज़ शौच के लिए पैसे दे रहे थे।
हैरानी के साथ उनसे पूछा, “आप शौच करने के लिए हर बार तीन रुपए क्यों देते हैं? आप तो वैसे ही एकदम खुले में हैं।” जवाब देनेवालों में वे पुरूष भी शामिल थे जो दिल्ली के बड़े-बड़े इलाकों में अपने को हल्का करने के लिए दीवरों की तरफ खड़े होकर बेझिझक खुले में शौच करते हैं। उन्होंने मुझसे कहा, “हम गांववाले नहीं हैं, शहरी हैं।” पेशाब करने के लिए सुलभ शौचालय को तीन रुपए देकर हम शहरी कहलाते हैं। मैंने ऐसा कुछ पहली बार सुना था।
शहर के मुकाबले आपका गांव में होना कोई सवालिया निशान नहीं है। शहर में लाखों सवाल हैं – तुम बस्ती में क्यों रहते हो? तुमने इस ज़मीन पर क्यों कब्ज़ा कर रखा है? तुमने यहां झुग्गी कैसे बना ली? इस सवालों के पीछे सरकार यही कहना चाहती है कि तुम यहां कैसे अधिकार मांग सकते हो, अधिकार चाहिए तो अपने गांव जाकर लो। गांव में भूमि सुधार की कम से कम बात तो हो सकती है लेकिन शहर में कोई भूमि सुधार नहीं होता। अब जाकर कहीं-कहीं इसकी शुरुआत हो रही है जैसे उड़ीसा में किया गया है।
अगर आप शहर में गरीब हैं तो आपकी कोई अलग से शिनाख्त, अहमियत या आर्थिक पहचान नहीं होती है। वहीं, आप गांव में गरीब हो सकते हैं और वहां गरीब के रूप में आपकी पहचान स्वीकार्य भी होती है। वहां आप गरीब के रूप में प्रतिष्ठित होते हैं। हमारे यहां लोगों के कल्याण से जुड़ी सारी योजनाएं गांव के लिए होती हैं, जैसे राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार योजना – नरेगा, राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य योजना, ग्रामीण सोलर योजना इस तरह की सारी योजनाएं ये सब गांव में सुधार के लिए हैं। ये योजनाएं शहरी गरीब के लिए नहीं है। इन योजनाओं को शहरी नहीं बनाया गया। मतलब गांवों को सारा कल्याण स्कीम दे दो और शहरों को उत्पादन करने दो।
दूसरा गांव को लेकर जो आदर्शवादिता है, रूमानियत है जिसकी वजह से लोग कहते हैं कि ‘असल भारत तो गांव में ही बसता है’, दरअसल, ये दोनों ही बातें गावों और गांववालों के प्रति एक शुद्धता, उन्हें एक खास दर्जेबंदी में रखती हैं। उसके विपरीत शहरी गरीब को एक चालाक की नज़र से देखा जाएगा। उसके प्रति हमेशा यही व्यवहार होगा कि ये कुछ हड़पने के लिए यहां है।
शहर का यहां के गरीबों के प्रति कुछ ऐसा ही रवैया है कि जब तक वे काम करते रहें तब तक वे बहुत अच्छे हैं लेकिन, जैसे ही वे यहां अपना अधिकार मांगने लगें तो वे पराए हो जाते हैं। काम करो, अधिकार की बात मत करो। अपनी सुविधानुसार जब उनका इस्तेमाल करना हो तो लो बिजली ले लो, लेकिन सैनिटेशन के लिए ड्रेन हम नहीं लगाएंगे, पहले कहेंगे बस्ती यहां तक बढ़ा लो, ताकि बाद में उसे तोड़ने का हक भी हमारे पास होगा। 20 साल के लिए बस्ती बनाने के लिए बोल दिया लेकिन पट्टा 10 साल का ही देंगे। शहर अपनी शर्तों पर लगातार उनसे मोल-भाव करता रहता है ताकि कभी वे स्थाई-पन महसूस ही न कर सकें।
इसका असल चेहरा महामारी में एकदम खुलकर सामने आ गया। यही है शहरी गरीब होने का मतलब। आपका कोई अस्तित्व ही नहीं होता। इसका लब्बोलुबाब ये है कि आप हर तरह की सोच से बाहर हैं। सरकार और सरकारी योजनाओं की सोच से बाहर हैं। आप उस डेटा से भी बाहर हैं जहां एकाउंट में कैश ट्रांसफर किया जाता है। शहरी गरीब के पास अपना कोई इलाका नहीं, कोई पहचान नहीं, उसे नागरिक होने का भी अधिकार नहीं है। इस सबके लिए हमने इतनी ज़्यादा लड़ाई लड़ी है। सरकार के लिए ज़मीन महत्त्वपूर्ण है, वो बस्ती में रहने वाले बाशिंदे नहीं देखती। कोर्ट अतिक्रमण की बात करती है। उन्हें ज़मीन और ज़मीन पर अधिकार दिखाई देता है, लोग दिखाई नहीं देते।
मेरे ख्याल से परेशानी का शुरुआती सबब यही है – शहर में एक गरीब नागरिक के रूप में रहना – जिसका शहर की संरचना में कोई अस्तित्व ही नहीं है। इक्का-दुक्का फैक्ट्रियों में काम करने वाले मज़दूरों या ऑटो चलाने वालों की आवाज़ सुनने को मिल जाएगी। लेकिन, सच तो ये है कि ये फैक्ट्री मज़दूर या ऑटो चलाने वाले हमारे शहरीकरण की पूरी तस्वीर नहीं हैं। एक तो ये सारी आवाज़ें पुरुषों की हैं, उसके ऊपर ये एक बहुत छोटा सा हिस्सा हैं।
हम जानते हैं, हमने पढ़ा है कि शहरों का निर्माण औद्योगिक क्रांति के सिद्धांतों और उसके साथ हुए औद्योगिक शहरीकरण के सिद्धांत पर आधारित है। लेकिन, हमारे यहां औद्योगिक शहरीकरण नहीं है! हमारे शहरी क्षेत्र किसी भी तरह के उद्योग, उद्योग से जुड़े उत्पादन के बिना ही विस्तार पा रहे हैं। वित्तीयकरण के दौर में जहां पूंजी पर अधिकार ही सबकुछ है वहां शहरीकरण किस तरह हो रहा है? अब जिसके पास पूंजी है वही अपनी मनमानी करेगा ऐसे में अव्यवस्थित अर्थव्यवस्था (इंफॉर्मल इकॉनमी) के ज़रिए ही काम होगा – आप डिलीवरी ब्वॉय ही बनाएंगे, ज़िंदगी भर ज़ोमाटो, स्विगी के लिए खाना और सामान पहुंचाने का काम ही करवाएंगे, कंस्ट्रक्शन की जगहों पर काम करवाएंगें। क्योंकि आपने शहर में उनके लिए कोई और रास्ता ही नहीं बनाया है।
वास्तव में अपनी कक्षा के शुरुआती सेमेस्टर में हम इन्हीं सवालों से क्लासरूम में बात की शुरुआत करते हैं। पहले कुछ हफ्ते स्टूडेंट्स को यही करना होता है कि वे सवाल करें कि कौन शहरी है, शहर क्या है? हम बच्चों को प्रोत्साहित करते हैं कि वे सवाल पर सवाल करते रहें कि शहर की पहचान कैसे होती है- क्या शहर सामाजिक संबंधों की जगह है, क्या ये एक ऐसी जगह है जहां लोकतंत्र, आधुनिकता और महानगरीय जीवन को लेकर एक निश्चित धारणाएं हैं?
कक्षा में इन सवालों में सबसे खास होता है जाति के सवाल पर बात करना। उनके मन में जो धारणा है कि शहर वो जगह है जहां जाति का कोई महत्त्व नहीं होता, शहर आकर जाति गायब हो जाती है या जहां कोई जाति नहीं पूछता। इसपर बात करना मज़ेदार होता है। खैर, ये सच तो नहीं है लेकिन, उनकी बातें सवाल तो खड़ा करती हैं कि क्या सच में ऐसा है कि शहर में जाति की जकड उतनी गहरी नहीं होती जितनी गांवों में उसकी पकड़ मज़बूत होती है?
भारत में, सरकारी श्रेणियों में गांव और शहर साफतौर पर विभाजित हैं।
अब हम क्लास में जाति के सवाल पर बात कर रहे हैं। सवाल है कि आप गांव और शहर में जाति आधारित अलगाव का आकलन कैसे करते हैं? इसके लिए किस तरह का डेटा आपके पास है? यहां के स्टुडेंट्स को डेटा विश्लेषण के लिए आधुनिक जीआईएस तकनीक के गुर भी सिखाए जाते हैं। मैं उनसे कहता हूं कि अपनी जीआईएस क्लास में जाइए और शहर के भीतर जाति संरचना का एक नक्शा बना लाइए। वो जाते हैं और वापस आकर कहते हैं कि हम नहीं बना सकते। ऐसा क्यों? तो वे कहते हैं कि इसके लिए कोई डेटा ही नहीं है। इसपर मेरा सवाल यही होता है तो बताओ कि शहर की जातिगत संरचना पर कोई डेटा क्यों नहीं है?
दरअसल, उन्हें यही बताना है कि सवाल पूछो।
सामाजिक-आर्थिक जाति जनगणना की थी न, तो उसका डेटा कहां हैं? अगर, सार्वजनिक नहीं है तो, क्यों सार्वजनिक नहीं है? अब यही सवाल गवर्नेंस की कक्षा में जाकर पूछो कि शहर की जाति जनगणना सार्वजनिक क्यों नहीं है? क्यों हमें ये नहीं पता होना चाहिए कि हमारे यहां किस जाति के कितने लोग हैं, वे क्या करते हैं?
अब यही सवाल इकॉनोमिक्स की क्लास में लेकर जाओ। वहां वे सवाल करते हैं कि शहर के भूगोल को आर्थिक आधार पर देखने का क्या मतलब होता है? अर्थशास्त्रियों के लिए शहर वो जगह है जहां पूंजी है। शहरी अर्थशास्त्रियों के लिए शहर ज़मीन और उस पर काम करने वाले मजदूरों के बीच की सांठगांठ है जिसे वे अपनी भाषा में समूह अर्थशास्त्र कहते हैं। कक्षा में स्टूडेंट्स को ये सब बताते हुए हम कहते हैं कि “इस बात को समझने की कोशिश करो कि महानगर से जुड़ा एनसीआर आर्थिक क्षेत्र क्यों है, बावजूद वहां नगरपालिका का कोई हस्तक्षेप नहीं होता?” लेकिन फिर यह भी पूछें कि अनौपचारिक अर्थव्यवस्था के भीतर समूह अर्थशास्त्र क्या है? क्या यह ठीक उसी तरह काम करता है जिस तरह इसमें बड़ी कंपनियां और पूंजी के सिद्धांत काम करते हैं?
गवर्नेंस की क्लास में शहर एक सरकारी श्रेणी हो जाता है। वैधानिक शहर या जनगणना का शहर क्या होता है? नगर पंचायत क्या है? क्या ये गांव के लिए है या ये शहर के लिए ही है सिर्फ? इन श्रेणियों को देखकर क्या समझ आता है? इस पर स्टूडेंट्स कहते हैं, “ये सब अलग-अलग नहीं है, ये तो सब एक विस्तार हैं जो बनते-बदलते रहते है, ये सब एक-दूसरे में मिले हुए हैं।” यहां मेरा जवाब होता है, “नहीं, बिलकुल नहीं। नरेगा सिर्फ गांवों में मिलता है। ये विस्तार वाला नज़रिया सुनने में अच्छा लग सकता है लेकिन सरकारी कागज़ों में नरेगा उन्हीं जगहों पर मिलता है जो सरकारी श्रेणी के अनुसार गांव कहलाते हैं।”
एक शहरी अध्ययन से जुड़े शिक्षक होने के नाते मुझे ये बात सुनने में बहुत सुंदर लग सकती है कि सब एक ही हैं, गांव और शहर अलग-अलग थोड़े हैं वे तो एक ही नदी की धारा हैं। लेकिन, ये सच नहीं है। भारत में, सरकारी श्रेणियों में गांव और शहर साफतौर पर विभाजित हैं। आपको ये मानना ही होगा और इसे इसी तरह देखना है।
शहर और गांव के प्रति हमारी बहुत सारी धारणाओं को कोविड महामारी ने बिलकुल ध्वस्त कर दिया है।
क्योंकि इससे बहुत फर्क पड़ता है कि आपके यहां पंचायत है या नगरपालिका। आप प्रॉपर्टी टैक्स देते हैं कि नहीं। आपको राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन (एनआरएचएम) की सुविधा मिलती है कि राष्ट्रीय शहरी स्वास्थ्य मिशन (एनयूएचएम) की। आपको नरेगा के तहत काम मिलता है कि कुछ भी नहीं मिलता?
अब, यहां से स्टूडेंट्स फिर पर्यावरण विज्ञान की क्लास में जाते हैं। वहां प्रोफेसर कहेंगे कि, “हमें इन श्रेणियों से कोई फर्क नहीं पड़ता। क्या शहर है क्या गांव है। क्योंकि हवा और पानी के लिए कोई कैटगरी नहीं होती। आप इन्हें सिर्फ इन स्रोतों के भूगोल के ज़रिए ही समझ सकते हैं। बैंगलोर का पानी कावेरी से आ रहा है। इस पानी के रूट को समझो ये ही पानी का भूगोल है।” तो, शहर की कोई एक परिभाषा नहीं है। आप कहां खड़े होकर किस नज़रिए से सवाल पूछ रहे हैं उसी के आधार पर इसका जवाब दिया जा सकता है।
शहर और गांव के प्रति हमारी बहुत सारी धारणाओं को कोविड महामारी ने बिलकुल ध्वस्त कर दिया है। तमाम शहरी अध्ययन एवं शोध के बावजूद शहरों में रोज़ी-रोटी और ज़िंदा रहने का संकट गहराता जा रहा है। क्या आपको लगता है कि हम अपने शहरों को सही तरह नहीं जान पाए हैं?
कोविड को हमने एक स्वास्थ्य संकट के रूप में देखकर उसकी बहुत ही सतही, संकीर्ण और गलत पहचान की। अगर हम इसे स्वास्थ्य के साथ-साथ आजीविका के संकट के रूप में देखते तो शायद हमारी स्ट्रैजी कुछ और होती। यहां ‘गलत पहचान’ (मिसरिकग्निशन) शब्द फ्रांसीसी राजनीतिक दार्शनिक एटिन बलिबार की देन हैं। इसका अर्थ ‘ठीक से न समझने या कुछ न समझने से’ कहीं ज़्यादा हमारे समाज की सत्ता की संरचना की सच्चाई से जुड़ा है – आप किसकी नज़र से देख रहे हैं, उसे किस ढंग से बता रहे हैं। इसलिए, हम जिस ‘गलत-पहचान’ की बात यहां कर रहे हैं वो इस संदर्भ में है कि ‘घर से काम करने की, घर पर रहने की’ जिस सुविधा के आधार पर हम ये बात कहते हैं वो एक खास तरह के शहर की कल्पना पर आधारित है। शहर की एक ऐसी कल्पना जो हकीकत में बिल्कुल अलग है।
मैं ऐसा इसलिए कह रहा हूं क्योंकि यही हमारे ‘अर्बन स्टडीज़: शहरी अध्ययन’ की भी समस्या है। आप उस शहर के बारे में बात करते हैं जो आपकी कल्पनाओं में, आपके दिमाग के भीतर है। जहां हर किसी के पास एक औपचारिक नौकरी है, हर कोई दफ्तर जाता है। सभी एक व्यवस्थित अर्थव्यवस्था का हिस्सा हैं। उनके पास लौटने के लिए घर है। असल में आप उस शहर के बारे में बात नहीं करते जो वास्तव में आपके पास है।
सोचिए, भारत में काम करने वाले दस मज़दूरों में से आठ किसी व्यवस्थित अर्थव्यवस्था से नहीं जुड़े हैं। वे अनौपचारिक अर्थव्यवस्था में काम करते हैं। उन आठ में से भी चार सार्वजनिक जगहों पर काम करते हैं जैसे – सड़कों पर, कचरे फेंकने के स्थानों पर, निर्माण स्थलों पर, परिवहन और बस स्टेशनों पर काम करते हैं। यहां ‘घर से काम करने का’ लॉजिक सरासर बेबुनियाद है क्योंकि उनका कोई ऑफिस नहीं है। दूसरा, जिसे बाद में लोगों ने समझा और इसपर चर्चा भी की कि भारत में दो-तिहाई परिवार 1.5 स्क्वायर फीट के घरों में रहते हैं। ऐसे में आपस में दूरी बनाए रखने की बात ही उनके लिए बेईमानी है।
महामारी के इस समय में बड़ा सवाल इस बात को समझना कि शहरीकरण के इतिहास के बारे में हम कहां से खड़े होकर बात कर रहे हैं। हमें सिएरा लियोन, केन्या और उन अंतरराष्ट्रीय शहरों के अनुभवों को जानने और समझने की कोशिश करनी चाहिए जिन्होंने हमारे जैसे संदर्भों में इबोला जैसी महामारी का सामना किया है। लेकिन, हम तो सुपरपावर हैं और हम सिर्फ लंदन या न्यूयॉर्क के शहरों को ही देखेंगे। हम नहीं सीखेंगे सिएरा लियोन से जिसने इबोला के दौरान शानदार सामुदायिक क्वारंटाइन के मॉडल विकसित किए थे।
उदाहरण के लिए, मुम्बई में चॉल या किसी गली में बने घरों को ही ले लीजिए। इसमें एक प्वाइंट से दूसरे प्वाइंट के बीच जो चार-पांच घर होते हैं उनके अलावा इस बीच की जगह का इस्तेमाल कोई नहीं करता है। इन घरों के लोग वहां अपने कपड़े धोते हैं, बर्तन साफ करते हैं, बच्चे वहां खेलते हैं। उन्हें हम एक समूह कह सकते हैं, किसी एक यूनिट की तरह। कोविड के दौरान कई समुदायों ने ऐसी जगहों के दोनों प्वाइंट – ऐसे अहातों या गलियों के शुरुआत में और गली जहां खत्म हो रही है वहां साबुन और पानी रखना शुरू कर दिया। अगर, क्वारंटाइन करना है तो वो समूह अपनी जगहों पर इंसानियत के साथ क्वारंटाइन तो कर सकता है। हमारे शहरों को देखते हुए यही सही लॉजिक है कि क्वारंटाइन ज़ोन घर न होकर गली को बनाया जाए। मुख्य बात यही है कि ग्लोबल साउथ के शहर जिसकी एक भिन्न तरह की संरचना होती है, जिसका अपना एक अलग ही इतिहास है उसे देखते हुए ये नहीं कहा जा सकता कि ‘घर पर रहें, घर पर रहकर काम करें।’
हमारे यहां शहर या शहरीकरण के विचार पर अमेरिकन और यूरोपीय औद्योगिक शहरीकरण की छाप बहुत गहरी है, जो मूलरूप से ग्लोबल साउथ के शहरों की असलियत से बहुत अलग हैं। इस बात के एहसास ने ही आईआईएचएस और ग्लोबल साउथ थियोरी के जन्म की नींव रखी। मैं जब कैलिफोर्निया विश्वविद्य़ालय, बर्कले में पीएचडी कर रहा था, तब हमें यूरोपीय औद्योगिकीकरण के समय हुए शहरीकरण या नगरीकरण के उदाहरण के आधार पर ही शहरी सिद्धांत पढ़ाया जाता था। हालांकि, ‘ब्लैक लाइव्स मैटर मूवमेंट’ को देखकर तो पता चलता है कि शहरीकरण के वे सिद्धांत खुद नॉर्थ अमेरिका के देशों में ही कारगर साबित नहीं हुए। आईआईएचएस, का बहुत सारा काम और मेरा खुद का काम इस बात को स्थापित करने में खर्च होता है कि ग्लोबल साउथ (लातिन अमेरिका, एशिया, अफ्रीका) के शहरों के इतिहास में कई तरह की विशिष्टताएं एवं समानताएं हैं। ग्लोबल साउथ शहरी इतिहास का हमारे वर्तमान शहरों के निर्माण में बहुत बड़ा हाथ है।
उदाहरण के लिए, एक बड़ा सच यह है कि हमारे शहर उत्तर-औपनिवेशिक काल की देन हैं। इसमें हमारी स्थानीयता भी शामिल है। जैसे, नई दिल्ली और पुरानी दिल्ली दोनों एक दूसरे से बिलकुल भिन्न है। दोनों ही इलाकों की अपनी विरासत है, चिन्ह हैं। देखा जाए तो हमारे शहर मुख्य रूप से अनियोजित ही रहे हैं, है ना? वे आर्थिक व्यवस्था एवं स्थानीयता के रूप में बिल्कुल अनियोजित हैं। दिल्ली में हर चार में से तीन व्यक्ति सुनियोजित कॉलोनियों के बाहर रहते हैं। इनके नामकरण को ही देख लीजिए – अनधिकृत कॉलोनी, नियमित कर दी गई अनधिकृत कॉलोनियां, शहरी गांव, ग्रामीण गांव, स्लम एरिया, जेजे क्लस्टर… इसके बावजूद हम योजनाओं के बारे में ऐसे बात करते हैं जैसे कि सबकुछ हमारे नियंत्रण में है।
दिल्ली मास्टर प्लान 2021 में एक ऐसे क्षेत्र को ‘शहरीकरण के योग्य क्षेत्र’ के रूप में रेखांकित किया गया है जहां प्लान तैयार होने की तारीख के दिन भी एक-एक इंच ज़मीन पर पहले से ही निर्माण हो चुका था। ये वो इलाका है जिसपर ब्लू लाइन मेट्रो चलती है और जिसे हम पश्चिमी दिल्ली कहते हैं। तो, जो इलाके पूरी तरह से बन चुके हैं, जहां आपकी मेट्रो चल रही है उसे आप शहरीकरण के नाम पर भविष्य की योजनाओं में शामिल कर रहे हैं।
दूसरा, हमें ग्लोबल साउथ के बाशिंदो की मानसिकता को भी समझने की ज़रूरत है। कई लोगों को उनके रोज़मर्रा के जीवन और महामारी से आए संकट में बहुत ज़्यादा नाटकीय बदलाव दिखाई नहीं दे रहा था। बहुमत शहरी भारतीयों के लिए इस तरह के संकट और रोज़मर्रा से जुड़ी परेशानियों में बहुत ज्यादा अंतर नहीं था। कुछ भारतीयों के लिए ज़रूर ये किसी तिलिस्म के टूटने और वास्तविकता का सामना करने जैसा था लेकिन अधिकांश के लिए महामारी से निकले संकट का अनुभव नया नहीं था। यही वजह है कि 2020 में जब हाइवे पर लोगों की भीड़ उमड़ने लगी और सभी पत्रकार हाइवे पर पैदल अपने घर लौट रहे मज़दूरों से पूछते कि ‘आप क्यों ऐसे जा रहे हैं?’ उनका जवाब होता कि ‘जाना है तो जाना है’। उनकी हिकारत भरी निगाहें उल्टा सवाल कर रही होतीं कि ‘क्या हो गया? यह आपके लिए इतना चौंकाने वाला क्यों है? हम हमेशा से इसी तरह मोल-भाव करते रहे हैं। हमें हमेशा से यही करना पड़ता है।’
इसके पीछे की मंशा यही थी कि कोविड से लोग मर रहे हैं। बिना कोविड के भी लोग मर रहे हैं। फिर भूख और रोज़ी-रोटी की कमी से भी मर रहे हैं। हमारा काम मौत से बचना है। हमारा काम कोविड से मरना नहीं है। मरना नहीं है तो फिर चलना ही हमारे पास एकमात्र उपाय है। यही मेरी सबसे अच्छी संभावना है – वापस गांव लौट जाना। गांव, जहां दो वक्त की रोटी तो इज़्ज़त से मिलेगी।
यह लेख मूलरूप से द थर्ड आई पर प्रकाशित हुआ था।
माली बनते हैं या पैदा होते हैं? इस प्रसिद्ध सवाल का जवाब जानने के लिए महाराष्ट्र के सतारा में जाएं और निकमवाड़ी गांव के गुलदाउदी और गेंदे के फूलों के खेतों पर नज़र डालें। जहां तक नजर डालो, वहां तक फूलों के रंग-बिरंगे खेत फैले हुए हैं, जिन पर पीले और नारंगी रंग के कालीन बिछे हुए हैं। लगभग दो दशक पहले, कृष्णा नदी बेसिन के इस गांव के किसान केवल दो नकदी फसलें, गन्ना और हल्दी उगाते थे, जिससे औसत उत्पादक का बस गुजारा भर हो पाता था।
हालांकि ये दोनों अब भी उगाई जाती हैं, लेकिन फूल निकमवाड़ी में खुशी और समृद्धि ला रहे हैं।
इसकी शुरुआत 2005 में हुई। धर्मराज गणपत देवकर, जिनकी आयु अब 60 वर्ष है, के नेतृत्व में मुट्ठी भर किसानों ने एक कृषि अधिकारी की सलाह पर ध्यान दिया और विश्वास की एक कठिन छलांग लगाते हुए पहली क्यारी में गेंदा के पौधे लगाए। यह 170 से ज्यादा घरों वाला गांव आज ‘फुलांचा गांव’ (फूलों का गांव) के नाम से प्रसिद्ध है, जिसमें 200 एकड़ से ज्यादा भूमि पूरी तरह से फूलों की खेती के लिए समर्पित है। दोपहर की धूप में चमकते फूलों की ओर इशारा करते हुए, 37 वर्षीय किसान विशाल निकम कहते हैं – “यहां किसी भी मौसम में आइये, झेन्दु (गेंदा) और बहुरंगी शेवंती (गुलदाउदी) के फूलों से लदे हरे-भरे खेत देखने को मिलेंगे।”
निकमवाड़ी और उसके आस-पास के गांवों में ‘पूर्णिमा व्हाइट’, ‘ऐश्वर्या येलो’ और ‘पूजा पर्पल’ जैसी आठ किस्म की संकर गुलदाउदी उगाई जाती हैं। गुलदाउदी एक सर्दियों की फसल है, जिसका मौसम दिसंबर से मार्च तक, 120 दिनों का होता है। बारहमासी गेंदा वर्ष भर उगता है। इलाके में फैली सैकड़ों नर्सरियों में से एक, ‘ओम एग्रो टेक्नोलॉजी नर्सरी’ के शालिवान साबले कहते हैं – “’पीताम्बर येलो’, ‘बॉल’ और ‘कलकत्ता येलो’ ग्राहकों की पसंदीदा छह किस्मों में से हैं। हम सालाना करीब 20 लाख पौधे बेचते हैं।”
प्रकृति की सुन्दरता अद्भुत है – यह उपहार सोने के बराबर है। लेकिन इस खजाने को निकालने के लिए, किसी भी कृषि पद्धति की तरह, बहुत ज्यादा मेहनत करनी पड़ती है – पौधे लगाना, निराई करना, सिंचाई करना और सुबह से शाम तक फूल तोड़ना। और फिर शाम को बाज़ार के लिए निकलने से पहले पिक-अप ट्रकों में फूल भरना। हालांकि दिन के आखिर में, पैसा ही सुखदायक मरहम बनता है।
प्रति एकड़ लगभग 10 टन की औसत वार्षिक उपज के साथ, निकमवाड़ी के किसान सालाना लगभग 10 लाख रुपये कमाते हैं, जो गन्ने और हल्दी से होने वाली आय से कहीं ज्यादा है। इसमें कोई संदेह नहीं कि कई किसानों ने पानी की अधिक खपत वाली गन्ने की फसल को छोड़ दिया है। किसानों में चीनी मिलों के प्रति अविश्वास गहरा होने के कारण, हाल के वर्षों में गन्ने का रकबा कम हो गया है। उनका कहना है कि चीनी मिल उनकी उपज का वजन करने में धोखाधड़ी करती हैं तथा समय पर भुगतान नहीं करती हैं।
संजय भोंसले (55) ‘पूर्णिमा व्हाइट’ गुलदाउदी के अपने खेत की देखभाल से कुछ समय के लिए छुट्टी लेते हुए कहते हैं – “गन्ना मिलें लोगों को उनके पैसे के लिए 18 महीने से ज़्यादा इंतज़ार करवाती हैं। फूल उगाना फ़ायदेमंद है, क्योंकि हमें हर हफ़्ते भुगतान मिलता है।” निकमवाड़ी के किसान ड्रिप सिंचाई पद्धति का उपयोग करते हैं, जिसके अंतर्गत वे बावड़ियों से पानी प्राप्त करते हैं, जिसका पुनर्भरण कृष्णा नदी से आने वाली नहरों द्वारा होता है। इस तरह के बागवानी नवाचार खेतों को अधिक टिकाऊ, पर्यावरण-अनुकूल और स्वस्थ बना सकते हैं, तथा प्रकृति के साथ मानव के जटिल अंतर्संबंधों की रक्षा कर सकते हैं। आठ एकड़ के मालिक संतोष देवकर कहते हैं – “आजकल केवल मुट्ठी भर परिवार ही बड़े खेत के मालिक हैं, जो गन्ना उगाते हैं।” फूलों के बाज़ार में उतार-चढ़ाव के कारण वे एक एकड़ में गन्ना उगाते हैं।
पुष्प अर्थव्यवस्था में पदानुक्रम चलता है। गुलाब, गुलनार और जरबेरा जैसे फूल अपनी आकर्षक कीमतों के मामले में प्रीमियम स्थान पर हैं, इसके बाद रजनीगंधा और ग्लेडियोलस जैसे बल्बनुमा फूल आते हैं।
गेंदा और गुलदाउदी सबसे निचले पायदान पर हैं। लेकिन निकमवाड़ी में फूलों की भारी मात्रा के कारण इसकी भरपाई हो जाती है। रोज सात पिकअप ट्रकों पर करीब 12 टन फूल, 100 किलोमीटर दूर पुणे के गुलटेकड़ी बाजार भेजे जाते हैं। हालांकि यह गांव मंदिर शहर वाई और जिला मुख्यालय सतारा के करीब है, लेकिन किसान पुणे को प्राथमिकता देते हैं, जहां मांग ज्यादा है। गणेश उत्सव से लेकर दिवाली और गुड़ी पड़वा तक त्योहारों के सीजन में मांग चरम पर होती है।
कृषि अधिकारी विजय वारले का कहना था कि निकमवाड़ी के किसान गुलदाउदी से प्रति एकड़ लगभग 2.5 लाख रुपये कमाते हैं, जबकि गेंदा से प्रति एकड़ लगभग 2 लाख रुपये की कमाई होती है। महाराष्ट्र में फूल एक फलता-फूलता व्यवसाय है, जहां 13,440 हेक्टेयर भूमि पर फूलों की खेती होती है। यह 1990 के दशक में फूलों की खेती की नीति बनाने वाला पहला राज्य भी है।
पड़ोसी गांवों ने भी फूलों की खेती शुरू कर दी है, लेकिन जो बात निकमवाड़ी को अलग करती है, वह यह है कि यहां हर घर में फूल उगाए जाते हैं, चाहे किसी के पास दो-चार गुंठा (1000 वर्गफीट) हो, या कई एकड़।
यह उनकी सहभागिता की भावना और सामूहिक दृष्टिकोण ही है, जो निकमवाड़ी को एक आदर्श गांव बनाता है। वे एकल फसल उत्पादन के नुकसान से भी अवगत हैं। छोटे-छोटे क्षेत्रों में गन्ना और हल्दी जैसी नियमित फसलें उगाने के अलावा, बहुत से किसान फूलों के खेतों में अजवायन भी उगाते हैं, एक ऐसी जड़ी-बूटी जिसकी विदेशों और भारतीय महानगरों में बहुत मांग है। संजय भोंसले, जिनका पांच एकड़ का खेत बहु-फसल का एक उदाहरण है, कहते हैं – “हम रसोई के लिए धनिया और बेचने के लिए अजवायन की खेती करते हैं। हम 1.5 लाख रुपये खर्च करते हैं और उपज से आय 3.5 लाख रुपये होती है।”
यह लेख मूलरूप से विलेज स्क्वायर पर प्रकाशित हुआ था।
हीरेन कुमार बोस महाराष्ट्र के ठाणे स्थित पत्रकार हैं। वे सप्ताहांत में किसानी भी करते हैं।
पिछले महीने संपन्न हुए आम चुनावों में मिले झटकों के बाद केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने मंगलवार को अपना सातवां बजट पेश किया। यह मौजूदा सरकार का पहला बजट था। इस दौरान उनके सामने दोहरी चुनौती थी – गठबंधन में शामिल सहयोगी दलों की उम्मीदों को जगह देना और बढ़ती हुई बेरोजगारी का हल खोजना। इन चुनौतियों के बावजूद, उन्होंने बजट में पर्यावरण को ध्यान में रखते हुए कई घोषणाएं की। हालांकि, उनमें से कई ऐसी घोषणाएं हैं जिन पर पहले से काम हो रहा है।
अपने बजट भाषण में सीतारमण ने नौ मुख्य प्राथमिकताओं को रेखांकित किया। इनमें खेती को मौसम के अनुकूल बनाकर उपज बढ़ाना, शहरी विकास को आगे बढ़ाना, ऊर्जा सुरक्षा और मध्यम, लघु व सूक्ष्म उद्यमों (एमएसएमई) पर ध्यान देते हुए विनिर्माण और सेवाओं को बढ़ाना शामिल है।
नई दिल्ली स्थित गैर-लाभकारी संगठन आईफॉरेस्ट के मुख्य कार्यकारी अधिकारी चंद्र भूषण ने कहा कि घोषणाओं की संख्या अंतरिम बजट जैसी ही है। हालांकि, चार प्राथमिकताएं – ऊर्जा सुरक्षा, टिकाऊ खेती, एमएसएमई पर ध्यान और शहरी विकास भविष्य के लिए अहम हैं। ये क्षेत्र पर्यावरण के लिहाज से भी काफी महत्वपूर्ण हैं।
इन उद्देश्यों को ध्यान में रखते हुए वित्त मंत्री ने कई ऐसी घोषणाएं की जो पहले से ही चल रही हैं। उदाहरण के लिए, जलवायु वित्त के लिए वर्गीकरण का काम कम से कम दो सालों से चल रहा है। इसके अलावा प्रधानमंत्री सूर्य घर मुफ्त बिजली योजना की घोषणा फरवरी में ही की जा चुकी है। वहीं, कार्बन मार्केट बनाने की प्रक्रिया 2022 से जारी है। साथ ही, एडवांस्ड अल्ट्रा सुपर क्रिटिकल थर्मल पावर प्लांट के लिए साल 2016 में पायलट अध्ययन शुरू किए गए थे। यही नहीं, एक करोड़ किसानों को प्राकृतिक खेती के तरीकों को अपनाने के लिए प्रोत्साहित करने की योजना की घोषणा भी पिछले आम बजट में की जा चुकी है।
प्राकृतिक आपदाओं को कम करने और उनके हिसाब से ढल जाने की कोशिशों पर बजट में जोर है। साथ ही, बजट में बिहार, असम, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड और सिक्किम जैसे बाढ़ प्रभावित राज्यों में बाढ़ प्रबंधन और पुनर्निर्माण के लिए प्रावधान भी शामिल हैं। इसका उद्देश्य कुदरती आपदाओं के दुष्प्रभाव को कम करना और इन क्षेत्रों के पुनर्निर्माण में मदद करना है।
इससे पहले, 22 जुलाई को संसद में आर्थिक सर्वेक्षण पेश हुआ था। इसमें देश में एनर्जी ट्रांजिशन की चुनौती और इससे जुड़े समझौतों को शामिल किया गया था। सर्वेक्षण में कहा गया था कि यह काफी चुनौती भरा लक्ष्य है। इसमें भारत की खास स्थिति को रेखांकित किया गया, जहां सरकार को सस्ती उर्जा भी उपलब्ध करानी है ताकि देश विकसित देशों की कतार में खड़े होने की अपनी महत्वाकांक्षा को पूरा कर सके। दूसरी तरफ पर्यावरण को देखते हुए कार्बन उत्सर्जन कम करने के तरीकों को भी बढ़ावा देना है। सर्वेक्षण में भंडारण क्षमता, जरूरी खनिजों, परमाणु ऊर्जा, साफ-सुथरे कोयले की तरफ धीरे-धीरे बढ़ना और ज्यादा कुशल तकनीकों के महत्व पर जोर दिया गया है।
इन जटिलताओं को देखते हुए वित्त मंत्री ने उचित एनर्जी ट्रांजिशन के तरीकों पर नीति दस्तावेज पेश करने की घोषणा की जो रोजगार, विकास और टिकाऊ पर्यावरण की जरूरतों के हिसाब से है।
चंद्र भूषण ने बताया, “मुझे उम्मीद है कि देश में व्यापक विचार-विमर्श के बाद ही यह नीति लायी जाएगी। क्योंकि विभिन्न राज्यों में ऊर्जा सुरक्षा और ट्रांजिशन की चुनौतियां अलग-अलग हैं।”
केंद्रीय मंत्री सीतारमण ने छतों के जरिए सौर ऊर्जा, पंप स्टोरेज और परमाणु ऊर्जा को बढ़ावा देने के लिए योजनाओं की घोषणा की। सरकार छोटे व उन्नत रिएक्टर बनाने और परमाणु ऊर्जा से जुड़ी नई तकनीकों के विकास के लिए निजी क्षेत्र से हाथ भी मिलाएगी।
उन्होंने बहुत ज़्यादा जरूरी खनिजों (क्रिटिकल मिनरल) के लिए मिशन शुरू करने की घोषणा की। इसके जरिए घरेलू स्तर पर उत्पादन, इन खनिजों को दोबारा इस्तेमाल करने के लायक बनाने और दूसरे देशों में इन खनिजों के लिए खनन पट्टे लेने पर ध्यान दिया जाएगा। सरकार खनन के लिए अपतटीय ब्लॉक की पहली किश्त की नीलामी शुरू करेगी। परमाणु और नवीन ऊर्जा क्षेत्रों के लिए लिथियम, तांबा, कोबाल्ट और दुर्लभ अर्थ एलिमेंट जैसे अहम खनिजों की अहमियत को पहचानते हुए मंत्री ने ऐसे 25 खनिजों पर सीमा शुल्क से पूरी तरह छूट देने का प्रस्ताव रखा।
मंत्री ने ऐसे उद्योगों के लिए ‘ऊर्जा कुशलता’ से ‘उत्सर्जन लक्ष्यों’ की तरफ बढ़ने के लिए रोडमैप बनाने का ऐलान भी किया जिनमें ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन कम करना बहुत मुश्किल है।
उन्होंने सूक्ष्म और लघु उद्योगों की अहमियत को पहचाना और बताया कि पीतल और सिरेमिक सहित 60 पारंपरिक क्लस्टरों का एनर्जी ऑडिट किया जाएगा। इन उद्योगों में साफ-सुथरी ऊर्जा के इस्तेमाल को बढ़ावा देने और ऊर्जा कुशलता से जुड़े उपायों को लागू करने में मदद के लिए वित्तीय सहायता दी जाएगी। उन्होंने कहा कि अगले चरण में इस योजना का विस्तार 100 और क्लस्टरों तक किया जाएगा।
आर्थिक सर्वेक्षण में जलवायु वित्त (क्लाइमेट फाइनेंस) की अहमियत पर कहा गया है कि जलवायु परिवर्तन की लड़ाई में सबसे कठिन है सस्ते दर पर पूंजी की व्यवस्था।
वित्त मंत्री ने कहा कि सरकार टैक्सनॉमी लेकर आएगी जिससे पता चलेगा कि कौन सा क्षेत्र पर्यावरण के दायरे में आता है। इससे जलवायु परिवर्तन के हिसाब से ढलने और उससे पार पाने के लिए धन की व्यवस्था करने में मदद मिलेगी। हालांकि, वित्त मंत्रालय कम से कम तीन सालों से टैक्सोनॉमी तैयार करने की दिशा में काम कर रहा है। हालांकि, इसका मसौदा आज तक सार्वजनिक नहीं किया गया है।
आने वाले भविष्य में जैव विविधता और पानी जैसे पर्यावरण से जुड़े दूसरे मुद्दों को भी जलवायु परिवर्तन में शामिल करना होगा।
इस पर क्लाइमेट बॉन्ड्स इनिशिएटिव की दक्षिण एशिया प्रमुख नेहा कुमार कहती हैं कि बजट मे इसकी घोषणा करना स्वागत योग्य कदम है। उन्होंने आगे कहा कि सरकार उम्मीद है अब तक किये काम को ही आगे बढ़ाएगी। उन्होंने कहा, “मुझे उम्मीद है कि इस काम को नए सिरे से शुरुआत से करने की बजाए मौजूदा ढांचे पर काम किया जाएगा, जिसमें बेहतरीन तरीकों को शामिल किया गया है और देश की प्राथमिकताओं का भी ध्यान रखा गया है।” कुमार वित्त मंत्रालय के उस टास्क फोर्स का हिस्सा रही हैं जिसने टैक्सनॉमी पर काम किया है।
टैक्सनॉमी को लेकर उन्होंने कहा कि यह स्पष्ट है कि अभी फोकस जलवायु परिवर्तन को रोकने और उस हिसाब से ढलने पर है, लेकिन आने वाले भविष्य में जैव विविधता और पानी जैसे पर्यावरण से जुड़े दूसरे मुद्दों को भी इसमें शामिल करना होगा। टैक्सनॉमी में ट्रांजिशन भी शामिल होना चाहिए। पिछला मसौदा अभी तक सार्वजनिक नहीं किया गया। इस मसौदे में ऊर्जा और परिवहन और खेती-बाड़ी को शामिल किया गया था।
आर्थिक सर्वेक्षण में शहरों को भविष्य के हिसाब से आर्थिक केंद्र के तौर पर विकसित करने की बात की गयी है। इसे वित्त मंत्री ने अपने बजट भाषण में दोहराया है। उन्होंने जोर दिया कि यह बदलाव आर्थिक और ट्रांजिट प्लानिंग और टाउन प्लानिंग योजनाओं के जरिए होना चाहिए। साथ ही, शहरों के आस-पास के क्षेत्रों का व्यवस्थित तरीके से विकास किया जाएगा।
वित्त मंत्री ने स्टांप ड्यूटी में कमी जैसे शहरी सुधारों पर जोर दिया जिसे शहरी विकास योजनाओं का अनिवार्य हिस्सा बनाया जाएगा। केंद्र सरकार भूमि प्रशासन, प्लानिंग, प्रबंधन और भवन उपनियमों में सुधारों की पहल करेगी और उन्हें आगे बढ़ाएगी। इसके लिए सरकार को आर्थिक प्रोत्साहन भी देगी जैसे राज्यों को दिए जाने वाले 50 साल के ब्याज मुक्त कर्ज का बड़ा हिस्सा इन सुधारों के आधार पर आवंटित किया जाएगा।
इसके अलावा, उन्होंने सौ बड़े शहरों में पानी की आपूर्ति, गंदे पानी को साफ करना और ठोस कचरे के व्यवस्थित निपटान से जुड़ी परियोजनाओं को बढ़ावा देने के बारे में बात की। इस साफ किये गए पानी से सिंचाई और स्थानीय जलाशयों को फिर से भरने की भी बात की गयी।
सभी परिवर्तन सिर्फ शहर तक सीमित नहीं रहते जैसे कि जलवायु परिवर्तन। इसलिए एक क्षेत्र के हिसाब से सोचने की जरूरत है।
नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ अर्बन अफेयर्स के पूर्व निदेशक हितेश वैद्य ने बजट की व्यावहारिकता पर खुशी जताई। जहां पिछली पहलों में शहरों को ‘स्मार्ट’ या ‘गैर-स्मार्ट’ के रूप में बांटा गया था, वहीं यह बजट नया नजरिया अपनाता है, जिसमें बड़े, मध्यम और छोटे शहरों पर ध्यान दिया दया है। इसे वे सकारात्मक बदलाव मानते हैं।
वैद्य ने कहा कि सरकार अब इस बात पर जोर दे रही है कि परियोजना बनाने से पहले सुधार किया जाना चाहिए। उन्होंने भवन उपनियमों और प्लानिंग से जुड़े ढांचे को नया बनाने की जरूरत पर प्रकाश डाला। उन्होंने बजट में शहरी क्षेत्रों और उनकी खास तरह की चुनौतियों को मान्यता दिए जाने की ओर भी ध्यान दिलाया। यह बजट शहरी नियोजन के लिए क्षेत्रीय नजरिए को अपनाना है। उन्होंने कहा कि यह जरूरी है क्योंकि सभी परिवर्तन सिर्फ शहर तक सीमित नहीं रहते जैसे कि जलवायु परिवर्तन। इसलिए एक क्षेत्र के हिसाब से सोचने की जरूरत है।
हालांकि वे इन घोषणाओं के जमीनी असर को लेकर सशंकित हैं। उन्होंने कहा कि शहरों के लिए ज्यादा टाउन प्लानर जरूरी हैं। उन्होंने कहा, “हम सही दिशा में आगे बढ़ रहे हैं, कहीं ये योजनाएं जमीन पर कैसे लागू की जाती हैं उसका भी मूल्यांकन जरूरी है। “
हाल के सालों में, किसान अपनी उपज के लिए बेहतर कीमत की मांग को लेकर कई बार सड़कों पर उतरे हैं। चूंकि, देश की 65% आबादी खेती-बाड़ी पर निर्भर है, इसलिए वित्त मंत्री के बजट भाषण में बताए गए नौ उद्देश्यों में खेती-बाड़ी को सबसे पहले रखा गया है।
वित्त मंत्री ने उपज बढ़ाने और जलवायु-अनुकूल फसल की किस्मों के विकास पर ध्यान देने की घोषणा की। उन्होंने कहा, “हमारी सरकार उपज बढ़ाने और जलवायु-अनुकूल किस्मों के विकास के लिए कृषि अनुसंधान व्यवस्था की व्यापक समीक्षा करेगी।”
केंद्रीय मंत्री ने खेती से जुड़ी ऐसे 109 नए किस्म के फसल का जिक्र किया। इसके अलावा, सरकार का लक्ष्य अगले दो सालों में एक करोड़ किसानों को प्राकृतिक खेती के गुर सिखाना है। इसमें प्रमाणन और ब्रांडिंग से भी मदद दी जाएगी। इसके अलावा, दस हजार जैव-इनपुट संसाधन केंद्र स्थापित किए जाएंगे।
वहीं, टिकाऊ खेती पर काम करने वाली बेंगलुरु स्थित सामाजिक कार्यकर्ता कविता कुरुगंती ने कृषि के लिए बजट घोषणाओं की आलोचना की। उन्होंने कहा कि वे मौजूदा परिस्थितियों से मेल नहीं खाती हैं और उनके लिए आवंटन भी कम है। उन्होंने दलील दी कि सरकार बड़े-बड़े वादे करती है, लेकिन उन्हें लागू करने का दस्तावेजीकरण खराब तरीके से किया जाता है।
कुरुगंती ने फसल की नई किस्मों पर जोर दिए जाने पर चिंता जताई। उन्होंने कहा कि जैविक और गैर-जैविक समस्याओं से पार पाने वाली पारंपरिक किस्मों की उपेक्षा की जा रही है। उन्होंने कहा कि सरकार का ध्यान बाढ़ या सूखा रोधी फसल की तरफ है। पर यह सही नहीं है क्योंकि एक ही क्षेत्र में कुछ दिन सूखे की स्थिति रहती है तो कुछ दिन बाढ़ की। ऐसा लगता है कि सरकार ट्रांसजेनिक और जीन में बदलाव करके तैयार फसलों पर ध्यान केंद्रित करेगी, जिसके बारे में उनका मानना है कि अनुसंधान की आड़ में बड़ी कंपनियों को फायदा पहुंचाया जाएगा। कुरुगंती ने प्राकृतिक खेती से जुड़े घोषणा की भी आलोचना की। उन्होंने बताया कि 2023-24 के बजट में भी इसी तरह की घोषणा की गई थी। पर पिछले वादे का क्या हुआ उसका कोई लेखा-जोखा नहीं है।
यह लेख मूलरूप से मोंगाबे हिंदी पर प्रकाशित हुआ था।
जलवायु परिवर्तन मज़दूरों की ज़िंदगी पर सबसे क्रूर प्रभाव डालता है और 2024 के पूर्वानुमान बता रहे हैं कि हीटवेव, सूखे और अनिश्चित मॉनसून की चरम मौसमी घटनायें इस सेक्टर को बहुत प्रभावित करेंगी। मार्च के पहले हफ्ते में ही देश के कई हिस्सों में तापमान 41 डिग्री के बैरियर को पार कर गया और अब आने वाले दिनों में ईंट भट्टा क्षेत्र में काम करने वालों को इसकी तपिश झेलनी होगी।
उत्तर प्रदेश के जिला प्रयागराज के रहने वाले महेश (मास्टर फायरमैन) ने कहा, भट्ठों में अत्यधिक गर्म तापमान होने के बावजूद दस्ताने, मास्क, जूते और अन्य ज़रूरी प्रावधानों में कमी से उनके स्वास्थ्य पर असर पड़ा है।
महेश ही नहीं बल्कि भट्ठे पर रहने वाले पथाई मज़दूरों और उनके परिवार की स्थिति भी प्रभावित है क्योंकि इनके रहने के हालात अच्छे नहीं हैं। परिवार की कमाई और स्वास्थ्य के साथ बच्चों की पढ़ाई पर भी इस हालात का असर पड़ता है।
बुनियाद ईंट भट्टा क्षेत्र की समस्याओं पर करीबी नज़र रखे है। ग्लोबल वॉर्मिंग निश्चित ही इस क्षेत्र के वजूद के लिये संकट है। उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ के अनुभवी ईंट भट्ठा मालिक द्वारिका प्रकाश मोर के लिए, अनियमित मौसम पैटर्न (जलवायु परिवर्तन का संकेत) भविष्य में होने वाला ख़तरा नहीं है; वे एक तात्कालिक और गहन चुनौती हैं। पांच दशकों के अनुभव के साथ, उन्होंने उद्योग को कई तूफानों का सामना करते देखा है। लेकिन अब कहते हैं कि बेमौसम बदलावों ने अभूतपूर्व परेशानी ला दी है।
ईंट निर्माण प्रकृति की लय के साथ गहराई से जुड़ा हुआ है। सर्दियों के गिरते तापमान में ईंट बनाने का काम शुरू होता है, जिसमें मजदूर ईंटों को आकार देने का काम करते हैं, और उन्हें खुली हवा में सूखने के लिए छोड़ देते हैं। गर्मियों में फायरिंग यानी जलाई की प्रक्रिया शुरू हो जाती है, जहां भट्टियों में ईंटों को सख्त किया जाता है। लेकिन, जलवायु परिवर्तन के कारण अब ऐसे बदलाव महसूस हो रहे हैं, जो पहले ना कभी देखे गये हैं, और ना सुने गये हैं।
द्वारका प्रकाश मोर जैसे लोगों के लिये यह हताश करने वाला है। वे कहते हैं, “बारिश से काफी नुकसान होता है। ईंटें जल्दी नहीं सूखतीं, जिससे उनकी गुणवत्ता पर असर पड़ता है। बरसात के दिनों में मजदूर काम नहीं कर पाते, जिससे एक सीजन में 25,000 – 30,000 रुपये का नुकसान होता है। मुझे प्रति सीजन 10-15 लाख ईंटों का नुकसान उठाना पड़ता है, यही आंकड़ा लाख तक पहुंच सकता है अगर बारिश लगातार होती रहे जैसा कि पिछले तीन वर्षों से हो रहा है। हम जिस आर्थिक बोझ का सामना कर रहे हैं, वह बहुत बड़ा है।”
जलवायु संकट ईंट भट्ठा उद्योग के लिए दोधारी तलवार है। एक तरफ़ यह उद्योग जलवायु संकट का शिकार है, दूसरी तरफ़ जलवायु संकट में इसका योगदान भी है। वैश्विक उत्पादन में 13% का योगदान करते हुए, भारत ईंटों के मामले में दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक है, जो सालाना 200 बिलियन इकाइयों का निर्माण करता है। इस व्यापक उत्पादन के परिणामस्वरूप प्रत्येक वर्ष लगभग 35-40 मिलियन टन पारंपरिक ईंधन की खपत होती है।
ईंट भट्ठों पर काम करने वाले मजदूर हर साल छह से आठ महीने की अवधि के लिए पलायन करते हैं। श्रमिकों की आर्थिक स्थिति उन्हें भट्ठा ठेकेदारों के माध्यम से भट्ठा मालिकों से कर्ज लेने के लिए मजबूर करती है। इसके अतिरिक्त, वे किराने के सामान और दवाओं के लिए भट्ठे में और क़र्ज़ लेते हैं। यह सारा क़र्ज़ उनकी कुल कमाई से कट जाता है। शेष उनकी बचत के रूप में कार्य करता है।
“बारिश के बिना, हम एक सीज़न में 70,000 से एक लाख रुपये कमाते हैं। लेकिन इस साल खराब मौसम के कारण मैं दो महीने से बेकार हूं। हमने 2 लाख ईंटें बनाई थीं। वे सभी बारिश में नष्ट हो गईं।” बांदा के एक पथेरा, राम प्रताप के शब्द अनगिनत अन्य लोगों की भावनाओं को जताते हैं जो स्वयं इस समस्या से जूझ रहे हैं।
जब श्रमिक काम फिर से शुरू होने का इंतजार कर रहे थे, उनके ख़ान-पान का कर्ज बढ़ता जा रहा था। वे कहते हैं, “सिर्फ इसलिए कि हमारे पास काम नहीं है, हम खाना बंद नहीं कर सकते, हमें रोजमर्रा की जिंदगी के लिए कर्ज लेना पड़ता है।”
एक मज़दूर संघ कार्यकर्ता, राम प्रकाश पंकज, इस कार्यबल पर जलवायु संकट की सामाजिक लागत पर प्रकाश डालते हैं। “ईंट भट्ठा मजदूर बड़े पैमाने पर प्रवासी हैं, उनके बच्चे अक्सर उनकी खानाबदोश जीवनशैली का खामियाजा भुगतते हैं। निरंतर शिक्षा तक पहुंच इन बच्चों के लिए एक सपना बन जाता है, स्थान में हर बदलाव के साथ उनका भविष्य डगमगा जाता है।” वे जोड़ते हैं कि “केवल 10,000 रुपये बचाए हैं। मैं एक गरीब आदमी हूं और मुझे यह सब सहना होगा।”
यह लेख मूलरूप से बुनियाद के सामुदायिक अख़बार बुनियादी खबर पर प्रकाशित हुआ था।
प्रदीप साना (45) अपने 20 मछुआरे दोस्तों के साथ, हर साल गर्मियों में उत्तराखंड के नानकसागर बांध के पास सूखी जमीन पर मछली पकड़ने के लिए नानकमत्ता आते हैं। प्रदीप कहते हैं – “मैं अपने घर से 30 किलोमीटर दूर सिर्फ़ मछली पकड़ने आया हूँ। यहां बहुत सारे मच्छरों के बीच और बिना रोशनी या बिजली के रहना बहुत मुश्किल है। हमें रात में रोशनी के लिए अपनी बाइक की बैटरी का इस्तेमाल करना पड़ता है।”
वे अपनी अस्थाई झोंपड़ियां बनाने के लिए, बांध के आस-पास से बांस, लकड़ी और पुआल इकट्ठा करते हैं। इसे बनाने में उन्हें सिर्फ़ एक दिन लगता है, लेकिन ये झोपड़ियां तेज़ हवा और बारिश से सुरक्षित नहीं रहती हैं।
प्रवासी मछुआरे ज्यादा से ज्यादा मछलियां पकड़ने के लिए, विभिन्न तरीकों का उपयोग करते हैं – जलाशयों में बड़े जाल लगाने से लेकर, उन क्षेत्रों में बांध बनाने तक जहां पानी की गति तेज़ होती है, जो छोटी मछलियों को पकड़ने के लिए उपयोगी होती है।
मछली पकड़ने में मदद के लिए यांत्रिक उपकरणों का उपयोग सबसे प्रभावी है। जनरेटर के साथ, एक तरफ पानी छोड़ा जाता है, जिससे मछलियां रह गए कीचड़ में फंस जाती हैं और इसलिए उन्हें पकड़ना ज्यादा आसान होता है। इससे उन्हें ज़्यादा से ज़्यादा मछलियां पकड़ने और ज्यादा कमाई करने में मदद मिलती है।
प्रदीप कहते हैं – “हमारा जीवन संघर्ष से भरा है। यहां आते ही, हमें जनरेटर, ईंधन, जाल और अन्य जरूरी चीजों पर 70-80 हजार रुपये खर्च करने पड़ते हैं। और फिर हमारा ठेकेदार कभी-कभी 10 से 15 दिन बाद तक भुगतान नहीं करता है।”
मौसमी मछली पकड़ने के इस काम में जीवन कठिन है। लेकिन पुरुषों को रोमांच और उपलब्धि का अहसास भी होता है, क्योंकि वे अपने परिवार के लिए आजीविका कमाते हैं। प्रदीप कहते हैं – “मछलियां हर जगह हैं, लेकिन नानकमत्ता में हमें जो मज़ा आता है, वह कुछ और ही है।”
यह लेख मूलरूप से विलेज स्क्वायर पर प्रकाशित हुआ था।
लिंग – लिंग को अक्सर जन्म के समय जननांगों की उपस्थिति के आधार पर निर्धारित किया जाता है। यह लोगों की विभिन्न जैविक और शारीरिक विशेषताओं को संदर्भित करता है, जैसे कि प्रजनन अंग, गुणसूत्र, हार्मोन आदि। लिंग जेंडर के समान नहीं है।
जेंडर – समाज ‘महिला’ एवं ‘पुरुष’ को जैसे देखता है, जैसे उनमें अंतर करता है तथा उन्हें जो भूमिकाएं प्रदान करता है, उन्हें जेंडर कहते हैं। सामान्य तौर पर लोगों से यह उम्मीद की जाती है कि वे उन्हें दिए गए जेंडर को स्वीकार करें और उसी के अनुसार उचित व्यवहार करें। जहां जेंडर से जुड़ी भूमिकाएं सांस्कृतिक एवं सामाजिक अपेक्षाओं के आधार पर होती हैं, वहीं जेंडर पहचान व्यक्ति द्वारा स्वयं तय की जाती है कि वे स्वयं को पुरुष की श्रेणी में रखना चाहते हैं, महिला की श्रेणी में रखना चाहते हैं या किसी भी श्रेणी में नहीं रखना चाहते हैं। संकेतों के एक जटिल समूह के आधार पर किसी व्यक्ति का जेंडर तय किया जाता है जो हर संस्कृति में अलग हो सकता है। यह संकेत अनेक प्रकार के हो सकते हैं, जैसे व्यक्ति कैसे कपड़े पहनते हैं, कैसे व्यवहार करते हैं, उनके रिश्ते किसके साथ हैं और वे सत्ता का प्रयोग कैसे करते हैं।
पुरुषत्व – पुरुषत्व कई प्रकार के हो सकते हैं। ये दैनिक भाषा में उपयोग की जाने वाली गतिशील सामाजिक-सांस्कृतिक श्रेणियां हैं जो संस्कृति के भीतर मान्यता-प्राप्त कुछ व्यवहारों और प्रथाओं को ‘पुरुषों’ की विशेषता के रूप में संदर्भित करती हैं। ये अवधारणाएं सीखी जाती हैं और यौन अभिविन्यास या जैविक सार का वर्णन नहीं करती हैं। ये संस्कृति, धर्म, वर्ग, समय के साथ और व्यक्तियों और अन्य कारकों के साथ बदलते हैं। पुरुषत्व कई हो सकते हैं – कभी-कभी देशों, क्षेत्रों और संस्कृतियों के भीतर भिन्न होते हैं – लेकिन अक्सर कुछ सामान्य या प्रमुख अवधारणाएं हो सकती हैं जो किसी को ‘पुरुष’ बनाती हैं। उदाहरण के लिए, कई संस्कृतियों में, पुरुषों की अपने परिवार को आर्थिक सहयोग देने की क्षमता, शारीरिक और भावनात्मक रूप से ‘ताकतवर ‘ होने, परिवार में सभी वित्तीय निर्णयों के लिए ज़िम्मेदार होने आदि में पुरुषत्व देखा जाता है।
महिला – वो जो एक महिला के रूप में पहचान करते हैं और जिनके पास महिलाओं के जननांग और स्तन, योनि और अंडाशय जैसे प्रजनन अंग हो भी सकते हैं या नहीं भी।
पुरुष – वे जो एक पुरुष के रूप में पहचान करते हैं; उनके पुरुष जननांग, या लिंग, या वृषण जैसे प्रजनन अंग हो भी सकते हैं या नहीं भी।
जेंडर बाइनरी (जेंडर द्विचर) – यह विचार कि केवल दो जेंडर हैं और यह कि हर कोई इन में से एक जेंडर के है। यह शब्द उस प्रणाली का भी वर्णन करता है जिसमें समाज लोगों को पुरुषों और महिलाओं की जेंडर भूमिकाओं, जेंडर पहचान और विशेषताओं में विभाजित करता है।
जेंडर पहचान – लोगों की आंतरिक रूप से महसूस की गई, पुरुषत्व या लड़का/आदमी होने की अंतर्निहित भावना, अथवा स्त्रीत्व या लड़की/महिला होने की अंतर्निहित भावना, या कोई अन्य जेंडर (उदाहरण के लिए – जेंडरक्वीर, जेंडर नॉन-कन्फर्मिंग, जेंडर न्यूट्रल) होने की भावना जो किसी के जन्म के समय दिए गए जेंडर के अनुरूप हो भी सकता है और नहीं भी। चूंकि जेंडर की पहचान आंतरिक होती है, इसलिए ज़रूरी नहीं कि किसी की जेंडर पहचान दूसरों के लिए स्पष्ट हो।
सिस्जेंडर – सिस्जेंडर (अक्सर संक्षिप्त में सिस) लोग वे लोग होते हैं जिनके जन्म के समय उन्हें दिए गए जेंडर, उनके शरीर और उनकी जेंडर पहचान के बीच एक मेल होता है। उदाहरण- कोई व्यक्ति जो एक आदमी के रूप में पहचान करता है और उसे जन्म के समय पुरुष-जेंडर ही दिया गया था। दूसरे शब्दों में, वे जिनकी जेंडर पहचान या जेंडर भूमिका को समाज उनके लिंग के लिए उपयुक्त मानता है।
ट्रांसजेंडर – अपने शारीरिक जेंडर को स्वीकार न करते हुए स्वयं को दूसरे जेंडर का मानने वाले लोगों को ट्रांसजेंडर लोग कहते हैं। ट्रांसजेंडर लोग स्वयं को ‘तीसरे जेंडर’ का मान भी सकते हैं और नहीं भी। ट्रांसजेंडर लोग शारीरिक रूप से पुरुष हो सकते हैं जो स्वयं को महिला मानते हैं और महिलाओं की तरह कपड़े पहनते हैं और बर्ताव या व्यवहार करते हैं। उसी प्रकार, वे शारीरिक रूप से महिलाएं हो सकते हैं जो स्वयं को पुरुष मानते हैं और पुरुषों की तरह कपड़े पहनते हैं और बर्ताव या व्यवहार करते हैं। यह ज़रूरी नहीं है कि सब ट्रांसजेंडर लोग स्वयं को समलैंगिक मानें।
नॉन-बाइनरी – एक जेंडर पहचान जो पुरुष/महिला जेंडर द्विचर से परे है। गैर-द्विचर लोग कई रूपों में पहचान कर सकते हैं – ट्रांसजेंडर, बिना किसी जेंडर वाले या कई जेंडर वाले (उदाहरण के लिए, बाई-जेंडर, जेंडरक्वीर) या फ़िर एक ऐसे जेंडर के जो किसी बाइनरी में बड़े करीने से फिट नहीं होते है (उदाहरण के लिए, डेमीबॉय, डेमीगर्ल)। कुछ लोग “नॉन-बाइनरी” के लेबल का भी अपनी जेंडर पहचान के लिए सक्रिय रूप से प्रयोग करते हैं।
इंटरसेक्स – ज़्यादातर बच्चे जब पैदा होते हैं तो उनके बाहरी यौनांगों को देखकर डॉक्टर द्वारा तय किया जाता है कि वे लड़कें हैं या लड़की। पर कुछ बच्चों के यौनांगों को देखकर यह बता पाना मुश्किल होता है कि वे लड़कें हैं या लड़कियाँ। हो सकता है कि उनके कुछ बाहरी यौनांग लड़के और कुछ लड़की की तरह हों या हो सकता है उनके बाहरी यौनांग लड़के की तरह हों पर भीतरी जननांग लड़की की तरह या इसके विपरीत। अतः यह शब्द उन लोगों के लिए प्रयोग होता है जिनके यौनांगों में ये विविधताएं होती हैं।
विषमलैंगिक – जो लोग मुख्य रूप से भावनात्मक, शारीरिक और/या यौनिक रूप से किसीदूसरे जेंडर के सदस्यों के प्रति आकर्षित होते हैं, जिसे अक्सर गलती से “विपरीत लिंग” कहा जाता है।
समलैंगिक (होमोसेक्शुअल) – होमोसेक्शुअल लोग अपने ही जेंडर के लोगों की ओर आकर्षण महसूस करते हैं (महिलाएं जो दूसरी महिलाओं की ओर आकर्षित होती हैं उन्हें लेस्बियन और पुरुष जो दूसरे पुरुषों की ओर आकर्षित होते हैं उन्हें गे कहते हैं)।
गे – जो लोग अपने जेंडर के सदस्यों के प्रति भावनात्मक, रोमांटिक और/या यौन रूप से आकर्षित होते हैं। पुरुष, महिलाएँ और गैर-बाइनरी लोग इस शब्द का उपयोग स्वयं का वर्णन करने के लिए कर सकते हैं, हालांकि यह शब्द आमतौर पर उन पुरुषों का वर्णन करने के लिए उपयोग किया जाता है जो अन्य पुरुषों के प्रति आकर्षित होते हैं।
लेस्बियन – एक महिला जो अन्य महिलाओं के प्रति यौनिक रूप से आकर्षित होती है और/या एक लेस्बियन के रूप में पहचान करती है। लेस्बियन के रूप में पहचान करने वाले लोगों के बारे में आम गलत धारणाएं हैं कि वे ‘पुरुषों से नफरत’ करते हैं’, या उनके पुरुषों के साथ ‘बुरे यौन अनुभव’ रहे हैं जो उन्हें लेस्बियन महिलाओं में ‘बदल’ देते हैं, या यह कि यह एक पश्चिमी आयात है जिसकी भारत या एशियाई संदर्भ में कोई प्रासंगिकता नहीं है।ये धारणाएं गलत हैं और अक्सर इनका उपयोग लेस्बियन के रूप में पहचान करने वालों के खिलाफ हिंसा को सही ठहराने के लिए किया जाता है। एक लेस्बियन का उनके कपड़ों या तौर-तरीकों के आधार पर ‘पहचान’ करना भी संभव नहीं है (उदाहरण के लिए, “जो महिलाएं मर्दानी हैं वे लेस्बियन हैं” एक गलत और आपत्तिजनक मान्यता है)।
द्विलिंगी ( बाईसेक्शुअल) – जो लोग अपने ही जेंडर के लोगों और अपने स्वयं के अलावा किसी अन्य जेंडर के लोगों के प्रति यौन रूप से आकर्षित होते हैं।
अलैंगिक (एसेक्शुअल) – अलैंगिक लोग किसी के भी प्रति यौनिक आकर्षण या तो बिलकुल नहीं महसूस करते हैं या आंशिक रूप से करते हैं, पर वे और लोगों की तरह रोमांटिक आकर्षण महसूस कर सकते हैं और गहरे भावनात्मक रिश्ते बना सकते हैं। अलैंगिकता एक स्पेक्ट्रम पर मौजूद है, और अलैंगिक लोगों को कम, कम या सशर्त यौन आकर्षण का अनुभव हो सकता है। निसंदेह, उनकी भावनात्मक ज़रूरतें हो सकती हैं और अन्य लोगों की तरह वे इनको कैसे पूरा करते हैं यह उनका व्यक्तिगत मामला है। वे डेट पर जा सकते हैं, लम्बे अरसे तक भावनात्मक रिश्ते/रिश्तों में रह सकते हैं या अकेले रहने का निश्चय भी कर सकते हैं।
क्वीर – वे लोग जो विषमलैंगिकता की प्रबलता पर सवाल उठाते हैं। क्वीर लोग समलैंगिक, लेस्बियन, गे, इंटरसेक्स या ट्रांसजेंडर हो सकते हैं। हालांकि इस शब्द को आक्रमक माना गया था, कई समूहों और समुदायों ने इस शब्द को सशक्तिकरण हेतु स्वीकारा है और इसका इस्तेमाल यह दावा करने के लिए किया है कि वे विषमलैंगिक नहीं हैं, गैर-अनुरूपतावादी हैं, एक प्रमुख विषमलैंगिक ढांचे के खिलाफ हैं।इसके अंतर्गत वो लोग भी आते हैं जो स्वयं पर इस्तेमाल किए गए ‘लेबल’ से असंतुष्ट हैं और जो विषमलैंगिक मानदंडों के अनुरूप जीवन नहीं जीते हैं।
एलजीबीटीक्यूआईए+ – लेस्बियन, गे, बाइसेक्शुअल (द्विलैंगिक), ट्रांसजेंडर, क्वीर, इंटरसेक्स, एसेक्शुअल (अलैंगिक) के लिए संक्षिप्तीकरण। जोड़ का चिह्न (प्लस) अन्य पहचानों और अभिव्यक्तियों को संदर्भित करता है जो “एलजीबीटीक्यू” परिवर्णी शब्द में शामिल नहीं हैं और जिनका अभी तक पूरी तरह से वर्णन नहीं हो सका है। यह एक छत्र-शब्द जिसे अक्सर समग्र रूप से इस पूरे समुदाय को संदर्भित करने के लिए उपयोग किया जाता है।
हिजरा – भारतीय उपमहाद्वीप में इस्तेमाल किया जाने वाला यह शब्द उन लोगों के समुदाय को संदर्भित करता है जिन्हें जन्म के समय “पुरुष” का जेंडर दिया गया था, लेकिन जो पुरुषों के रूप में पहचान नहीं करते, या जो लोग इंटरसेक्स हैं, और इसमें वे लोग भी शामिल हो सकते हैं जो बधिया करना चाहते हैं और/या करवाते हैं। हालांकि कुछ हिजरे स्त्रीलिंग सर्वनामों का प्रयोग करते हुए खुद को संदर्भित करते हैं, कुछ कहते हैं कि वे तीसरे जेंडर के हैं और न तो पुरुष हैं और न ही महिलाएं। ‘हिजरा’ एक जेंडर पहचान नहीं बल्कि एक सांस्कृतिक पहचान है। भारत में हिजरों के अपने दीक्षा अनुष्ठान और पेशे हैं, जिनमें भीख मांगना, यौन कार्य और शादियों में नृत्य करना या बच्चों को आशीर्वाद देना शामिल हैं। भारत में उन्हें कानूनी रूप से ट्रांसजेंडर लोग माना जाता है (भले ही समुदाय के कुछ सदस्य इस तरह से पहचान न करते हो), और वे कुछ सरकारों या राज्य विभागों द्वारा नौकरियों, शिक्षा आदि के लिए आवंटित आरक्षण तक पहुंचने में सक्षम हैं। दक्षिण एशिया के अन्य हिस्सों जैसे कि बांग्लादेश, नेपाल और पाकिस्तान में भी हिजरा समुदाय हैं। भारत के अन्य हिस्सों में समान (लेकिन समरूप नहीं) सांस्कृतिक समुदाय हैं, जैसे कि अरवनी (तमिलनाडु में), जोगप्पा (कर्नाटक में), और कोती (उत्तर भारत और महाराष्ट्र सहित देश के विभिन्न हिस्सों में)।
होमोनेगटिविटी – ‘होमोफोबिया’ शब्द से व्युत्पन्न, जो उन लोगों के भय, घृणा या असहिष्णुता का वर्णन करता है जो अपनी यौन और जेंडर पहचान और यौन अभिविन्यास या पारंपरिक जेंडर भूमिकाओं से बाहर होने वाले किसी भी व्यवहार में आदर्श से भिन्न होते हैं।‘होमोनेगटिविटी’ शब्द के प्रयोग को प्राथमिकता दी जाती है क्योंकि ‘होमोफोबिया’ का अर्थ है कि गैर-विषमलैंगिक लोगों के प्रति पक्षपाती और भेदभावपूर्ण व्यवहार एक ‘फोबिया’ (यानी डर) है – ऐसा कुछ जिसके लिए ‘होमोफोबिक’ व्यक्ति को सहानुभूति मिलनी चाहिए।यह शब्द होमोनेगटिव लोगों को कसूरदार नहीं ठहराता है।
यौन स्वास्थ्य – यह यौनिकता के संबंध में शारीरिक, भावनात्मक और मानसिक खुशहाली की स्थिति है; यह केवल रोग, शिथिलता या दुर्बलता की अनुपस्थिति नहीं है। यौन स्वास्थ्य के लिए यौनिकता और यौन संबंधों के प्रति सकारात्मक और सम्मानजनक दृष्टिकोण की आवश्यकता होने के साथ-साथ आनंददायक और सुरक्षित यौन अनुभव होने की संभावना तथा ज़बरदस्ती, किसी भी प्रकार के सामाजिक भेदभाव और हिंसा से मुक्ति भी आवश्यक है। यौन स्वास्थ्य प्राप्त करने और बनाए रखने के लिए सभी व्यक्तियों के यौन अधिकारों का सम्मान, संरक्षण और पूर्ती होनी ज़रूरी है।
प्रजनन स्वास्थ्य – प्रजनन प्रणाली और इसके कार्यों और प्रक्रियाओं से संबंधित सभी मामलों में न केवल बीमारी या दुर्बलता की अनुपस्थिति, परन्तु पूर्ण शारीरिक, मानसिक और सामाजिक भलाई की स्थिति। प्रजनन स्वास्थ्य का तात्पर्य है कि सभी लोग एक संतोषजनक और सुरक्षित यौन जीवन जीने में सक्षम हैं और उनके पास प्रजनन करने की क्षमता है और के साथ-साथ यह तय करने की स्वतंत्रता भी है कि उन्हें यह करना है की नहीं, और यदि करना है तो कब और कितनी बार।
यौनिक अधिकार – इनमें सभी के, बिना किसी ज़बरदस्ती, भेदभाव तथा हिंसा के निम्नलिखित अधिकार शामिल हैं – यौनिक तथा प्रजनन स्वास्थ्य देखभाल तक आसानी से पहुँच, यौनिकता से संबंधित जानकारी, यौनिकता संबंधी शिक्षा, शारीरिक निष्ठा के लिए आदर, अपनी पसंद का साथी चुनना, यौनिक रूप से सक्रिय होने या न होने का निर्णय, आपसी सहमति से यौनिक संबंध, आपसी सहमति से विवाह, निर्णय लेना कि बच्चें चाहते हैं या नहीं और यदि चाहते हैं तो कब, और संतोषजनक, सुरक्षित तथा आनंदमय यौनिक जीवन व्यतीत करना।
प्रजनन अधिकार – वे अधिकार जो सभी लोगों को सुरक्षित, प्रभावशाली, सामथ्र्य के अनुकूल तथा अपनी पसंद के, स्वीकृत परिवार नियोजन उपायों के साथ-साथ परिवार नियोजन के लिए अपनी पसंद के अन्य तरीकों(जो कानून के विरूद्ध नहीं हैं) के विषय में सूचना एवं उन तक पहुंच प्रदान करते हैं। ये अधिकार उचित स्वास्थ्य देखभाल सेवाओं पर पहुँच के अधिकार भी हैं जो गर्भधारण तथा प्रसूति की अवस्था को सुरक्षित रूप से पार करने में लोगों को सशक्त बनाते हैं और दम्पतियों को स्वस्थ शिशु पैदा करने की बेहतरीन संभावना प्रदान करते हैं।
एसटीआई – ‘सेक्शुअली ट्रांसमिटेड इंफेक्शन’ को संक्षेप में एसटीआई कहते हैं जो उन संक्रमणों की ओर संकेत करता है जिनका संचार यौन संपर्क के द्वारा होता है। यह “गुप्त रोग” के नाम से ज़्यादा जाना जाता है।
आरटीआई – ‘रिप्रोडक्टिव ट्रैक्ट इंफेक्शन’ (प्रजनन पथ में होने वाले संक्रमण) को संक्षेप में आरटीआई कहते हैं। ये वे संक्रमण हैं जो प्रजनन प्रणाली को प्रभावित करते हैं, जो सामान्य रूप से योनि में मौजूद जीवों के अतिवृद्धि के कारण होता है या जब बैक्टीरिया या सूक्ष्म जीवों को यौन संपर्क के दौरान या चिकित्सा प्रक्रियाओं के माध्यम से प्रजनन पथ में प्रवेश कर जाते हैं। वे अनुचित तरीके से निष्पादित चिकित्सा प्रक्रियाओं जैसे असुरक्षित गर्भ समापन या खराब प्रसव प्रथाओं के कारण भी हो सकते हैं। आरटीआई के उदाहरणों में बैक्टीरियल वेजिनोसिस, यीस्ट इन्फेक्शन, सिफलिस और गोनोरिया शामिल हैं। इनमें से कुछ योग्य उपचारों द्वारा रोके जा सकते हैं।। जरूरी नहीं कि किसी में आरटीआई की उपस्थिति यौन गतिविधि को दर्शाए।
एचआईवी – ‘ह्यूमन इम्यूनो डेफिशियेंसी वायरस’, इस नाम की रचना इस प्रकार हुई – एच से ह्यूमन, यानि मनुष्य, आई से इम्यूनो डेफिशियेंसी, यानि रोग से लड़ने की क्षमता में कमी, और वी से वायरस या विषाणु। एचआईवी वायरस संक्रमित लोगों के शरीर में सीडी4 कोशिकाओं पर नियंत्रण कर लेता है और संक्रमित कोशिकाओं के माध्यम से अपने आप प्रजनन करने लगता है। हर संक्रमित सीडी4 कोशिका मरने से पहले वायरस की हज़ारों प्रतियां बना सकती है। एचआईवी से संक्रमित लोगों के शरीर में रोज़ लाखों एचआईवी विषाणु कण बन सकते हैं। एचआईवी अपने आप में कोई बिमारी नहीं है और हालांकि इससे आगे जाकर एड्स की स्थिति उत्पन्न हो सकती है, इस प्रक्रिया में कई साल लग सकते हैं। एचआईवी द्वारा संक्रमित लोग कई सालों तक एक स्वस्थ जीवन जी सकते हैं।
एड्स – ‘अक्वायर्ड इम्यून डेफिशियेंसी सिंड्रोम’, इसको यह नाम इन कारणों से दिया गया है – ए से अक्वायर्ड, क्योंकि यह एक अनुवांशिक स्थिति नहीं है, बल्कि एक बीमारी है, जो चार संचरण के माध्यम से होती है – 1) संक्रमित लोगों के साथ असुरक्षित यौन सम्बन्ध; 2) संक्रमित माता-पिता से शिशु को गर्भावस्था में; 3) बिना जांच का रक्त चढ़वाना, जो संक्रमित हो सकता है; 4) संक्रमित सुई या अन्य चिकित्सक उपकरणों के माध्यम से। आई से इम्यून, क्योंकि यह शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली को प्रभावित करता है; डी से डेफिशियेंसी, क्योंकि यह इस प्रणाली को कमज़ोर करता है; और एस से सिंड्रोम, क्योंकि जो लोग एड्स के साथ जी रहे होते हैं, उन्हें विभिन्न बीमारियाँ और संक्रमण हो सकते हैं।
विंडो पीरियड – एचआईवी परीक्षण में शरीर में एचआईवी की उपस्थिति के लिए आम तौर पर जाँच नहीं की जाती है; वे प्रतिरक्षा प्रणाली द्वारा उत्पादित उन एंटीबॉडी की उपस्थिति के लिए जाँच करते हैं जो प्रतिरक्षा प्रणाली एचआईवी का सामना होने पर उत्पन्न करती है। एक ‘पाज़िटिव’ जांच परिणाम के लिए पर्याप्त एचआईवी एंटीबॉडी का उत्पादन करने में शरीर को 3 महीने तक लग सकते हैं। संक्रमण और सही परीक्षण परिणामों के बीच के इस तीन महीने की अवधि को विंडो पीरियड कहा जाता है। इस दौरान व्यक्ति पहले से ही संक्रमित हो सकते हैं और ऐसे में वे एचआईवी का प्रसार भी कर सकते हैं।
गर्भ समापन – गर्भावस्था के प्रेरित या सहज समाप्ति को गर्भ समापन कहते हैं।एक सहज गर्भ समापन तब होता है जब एक गर्भावस्था किसी भी चिकित्सा या शल्य चिकित्सा हस्तक्षेप के बिना समाप्त हो जाती है, जैसा ‘मिसकैरेज’ के मामले में होता है।प्रेरित गर्भ समापन में गर्भावस्था की समाप्ति के लिए शल्य चिकित्सा या चिकित्सा प्रक्रियाओं की मदद ली जाती है। “गर्भ समापन” का प्रयोग “गर्भपात” से अधिक उपयुक्त है।
गर्भनिरोधक – इनका उद्देश्य गर्भावस्था को रोकना है। गर्भनिरोधक विकल्प होने से लोगों, विशेष रूप से महिलाओं, के लिए यह चुनने का अवसर बढ़ जाता है कि वे कितने बच्चे, कब पैदा करना चाहते हैं और बच्चे पैदा करना चाहते हैं या नहीं। गर्भनिरोधन के कुछ अस्थायी तरीके होते हैं (जैसे गर्भ निरोधक गोली और कंडोम) और कुछ स्थायी होते हैं (जैसे नसबंदी और नलबंदी), और कुछ लोग यौन संबंध को ‘सुरक्षित’ रखने के लिए महीने के कुछ दिन चुनते हैं – इस कम प्रभावी विधि को किसी की मासिक धर्म चक्र के “सुरक्षित दिन (सेफ डेज़)” कहा जाता है।
अनुर्वरता – इसे 12 महीने के असुरक्षित यौन संबंध के बाद गर्भधारण करने में असमर्थता के रूप में परिभाषित किया जा सकता है। इसका कारण दोनों सहभागियों में से किसी एक में या दोनों में भी हो सकता है। प्राथमिक अनुर्वरता तब होती है जब कोई व्यक्ति 12 महीने के असुरक्षित संभोग के बाद भी गर्भधारण नहीं कर पाता है। माध्यमिक अनुर्वरता एक ऐसी स्थिति को संदर्भित करती है जिसमें जिन लोगों का पहले शिशु हो चुका होता है, वे 12 महीने के असुरक्षित संभोग के बाद भी दोबारा गर्भधारण करने में असमर्थ होते हैं। ये चर्चाएँ महत्वपूर्ण हैं और इन पर नियमित रूप से ध्यान देने की आवश्यकता है, विशेष रूप से अधिकार-आधारित दृष्टिकोण से काम करते समय। “नपुंसकता” और “बांझपन” शब्दों का प्रयोग अनुपयुक्त और रूढ़िवादी है।
जेंडर-पक्षपाती लिंग चयन – गर्भावस्था की स्थापना से पहले जेंडर-आधारित लिंग चयन हो सकता है (उदाहरण के लिए, प्रीइम्प्लांटेशन लिंग निर्धारण और चयन, या इन-विट्रो निषेचन के लिए “शुक्राणु छँटाई”) या गर्भावस्था के दौरान (लिंग-चयनात्मक गर्भ समापन)। यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि जहां प्रौद्योगिकी ने लिंग चयन के लिए एक अतिरिक्त विधि को सक्षम किया है, वहीं प्रौद्योगिकी समस्या का मूल कारण नहीं है। उन जगहों पर जहां बेटे की वरीयता नहीं देखी जाती है, इन तकनीकों की उपलब्धता से जेंडर-पक्षपातपूर्ण लिंग चयन में रुझान नहीं देखा गया है।
मातृ मृत्युदर – गर्भावस्था की अवधि और स्थान के निरपेक्ष, गर्भावस्था या उसके प्रबंधन से संबंधित किसी भी कारण (आकस्मिक कारणों को छोड़कर) से गर्भावस्था और प्रसव के दौरान या गर्भावस्था की समाप्ति के 42 दिनों के भीतर महिलाओं की मृत्यु की वार्षिक संख्या।
लिंगानुपात – लिंगानुपात 100 पुरुषों के मुकाबले महिलाओं की संख्या है। इसका प्रयोग जेंडर पक्षपाती लिंग चयन, जन्म या बचपन में शिशु उपेक्षा या लड़कियों पर लड़कों के मुकाबले सांस्कृतिक वरीयता को इंगित करने के लिए संदर्भ के रूप में किया जा सकता है।
जेंडर परीक्षण – एक एथलीट, ज़्यादातर महिला एथलीटों, के जेंडर को “निर्धारित” करने के लिए परीक्षणों की एक श्रृंखला। ये परीक्षण अक्सर एथलीट के टेस्टोस्टेरोन हार्मोनस्तर को मापते हैं और यदि टेस्टोस्टेरोन का स्तर निर्धारित स्तर से अधिक है, तो एथलीट को इस आधार पर प्रतिस्पर्धा करने से प्रतिबंधित कर दिया जाता है कि उनके पास इंटरसेक्स भिन्नताएं हो सकती हैं और इसलिए वे एक महिला के रूप में प्रतिस्पर्धा नहीं कर सकती हैं। इन परीक्षणों पर प्रतिबंध लगा दिया गया है और ये अब सिर्फ तब किये जाते हैं जबतब किसी एथलीट के प्रदर्शन के आधार पर “संदेह” की गुंजाइश होती है। कैस्टर सेमेया, दुती चंद और पिंकी प्रमाणिक जैसे एथलीट इन परीक्षणों के अधीन रहे हैं और उनकी भागीदारी, प्रदर्शन या जीत पर सवाल उठाया गया था या उसे निरस्त कर लिया गया था। इन परीक्षणों के खिलाफ काफी आलोचना हो रही है और इन्हें कानूनी रूप से कई संस्थानों में चुनौती दी गई है, जिसमें कोर्ट ऑफ आर्बिट्रेशन फॉर स्पोर्ट भी शामिल है।
विकलांगता – विकलांगता की कानूनी परिभाषा प्रत्येक देश के अनुसार अलग-अलग होती है, लेकिन विकलांगता मोटे तौर पर उस सामाजिक प्रभाव को संदर्भित करती है जिसका किसी व्यक्ति को किसी भी शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक या संवेदी क्षति के कारण सामना करना पड़ता है, जो विभिन्न बाधाओं के साथ जुड़कर समाज में उनकी पूर्ण और प्रभावी भागीदारी को समान रूप से बाधित कर सकता है। इसमें दूसरों के लिए उपलब्ध स्थानों और सेवाओं तक पहुँचने में बाधाएँ, कलंक और भेदभाव, दया या गैर-समावेशी होना शामिल हैं। विकलांगता का निर्माण सामाजिक रूप से भी किया जाता है, जिसमें सामाजिक और सांस्कृतिक वातावरण लोगों को उनकी दुर्बलता से अधिक अक्षम बनाता है। उदाहरण के लिए, श्रवण-बाधित लोग ‘विकलांग’ हैं क्योंकि ‘मुख्यधारा’ के समाज के अन्य लोग सांकेतिक भाषा (साइन लैंग्वेज) नहीं जानते हैं और उनके साथ संवाद नहीं कर सकते हैं। अधिकांश समाज सांकेतिक भाषा सीखने की आवश्यकता पर विचार नहीं करता है, जो एक श्रवण बाधित व्यक्ति और सामान्य रूप से विकलांग लोगों द्वारा सामना किये जाने वाले अनधिमान की बाधा को दर्शाता है। यह रवैया उन्हें अपने अधिकारों का दावा करने से रोकता है। भारत में, विकलांगता को विकलांग व्यक्तियों के अधिकार – राइट्स ऑफ़ पर्सन्स विथ डिसेबिलिटीज़ (RPD) – अधिनियम 2016 के तहत कवर किया गया है, जो 21 प्रकार की विकलांगताओं को मान्यता देता है, और मानसिक स्वास्थ्य देखभाल अधिनियम – मेन्टल हेल्थ केयर एक्ट – 2017 के तहत, जो मनोसामाजिक और बौद्धिक अक्षमताओं का वर्णन करता है।
जातिवाद – प्रथाओं और विश्वासों का समूह जो लोगों को जाति पदानुक्रम में उनकी स्थिति के अनुसार असमान अभिकर्तृत्व, सामाजिक प्रतिष्ठा, संसाधनों पर नियंत्रण और ज्ञान तक पहुँच प्रदान करता है। जातिवाद अक्सर जाति पदानुक्रम में “उच्च” लोगों द्वारा जाति पदानुक्रम में पिछड़ी जातियों के लोगों के खिलाफ भेदभाव या हिंसा के रूप में दिखता है। भारत में जातिवाद के सामान्य उदाहरणों में अंतर्जातीय विवाह के खिलाफ होना, कार्यस्थल में किसी के साथ उनकी जाति के कारण भेदभाव करना, कुछ जातियों के लोगों के लिए कुछ पूजा स्थलों में प्रवेश की अनुमति नहीं देना आदि शामिल हैं।
बर्नआउट – बर्नआउट एक सिंड्रोम है जिसकी अवधारणा लंबे समय तक कार्य-सम्बन्धी तनाव के परिणामस्वरूप होती है जिसे सफलतापूर्वक प्रबंधित नहीं किया गया है। यह तीन आयामों की विशेषता है – ऊर्जा की कमी या थकावट की भावना; किसी के काम से मानसिक दूरी में वृद्धि, या किसी के काम से संबंधित नकारात्मकता या निंदा की भावनाएं; और यह उन क्षेत्रों में हमारी रुचि या उत्साहित होने की क्षमता को कम कर सकता है जिनसे हमारा गहराई से लगाव होता है या जो हमें प्रेरित करने वाले होते हैं।बर्नआउट के बारे में अक्सर भुगतान या औपचारिक काम के संदर्भ में बात की जाती है, लेकिन यह किसी भी तरह के काम पर लागू हो सकता है, भुगतान या अवैतनिक, औपचारिक या अन्यथा। उदाहरण के लिए, कोई परिवार के किसी बीमार सदस्य की देखभाल करते हैं या किसी आपदा के बाद राहत कार्य के लिए स्वेच्छा से काम करते हैं, उन्हे भी बर्नआउट हो सकता है।
व्यापक यौनिकता शिक्षा – (कॉम्प्रिहेंसिव सेक्शुएलिटी एजुकेशन/ सीएसई) यौनिकता के संज्ञानात्मक, भावनात्मक, शारीरिक और सामाजिक पहलुओं के बारे में सीखने और सिखाने की एक पाठ्यक्रम-आधारित प्रक्रिया है। इसका उद्देश्य बच्चों और युवाओं को ज्ञान, कौशल, व्यवहार और मूल्यों से लैस करना है जो उन्हें सशक्त बनाएगा – उनके स्वास्थ्य, खुशहाली और गरिमा के एहसास के लिए; सम्मानजनक सामाजिक और यौनिक संबंधों के विकास के लिए; उनके चुनाव उनकी अपनी खुशहाली और अन्य लोगों को कैसे प्रभावित करते हैं, इस विचारशीलता के लिए; और अपने जीवन भर में अपने अधिकारों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए। (रिवाइज़्ड एडिशन ऑफ़ द इंटरनेशनल टेक्निकल गाइडेंस ऑन सेक्शुअलिटी एजुकेशन, यूनेस्को, २०१८)
यौनिकता – यौनिकता के सिद्धांत को कई सालों से परखा जा रहा है। यौनिकता की कई परिभाषाएँ हैं जो इसके कई अवयवों को सम्मिलित करती हैं। हालांकि, कोई भी एक परिभाषा सर्वमान्य नहीं है, फिर भी नीचे दी गई परिभाषा यौनिकता की एक मूलभूत एंव काफ़ी हद तक व्यापक समझ देती है।
यौनिकता मनुष्य के सम्पूर्ण जीवन का मुख्य पहलु है जिसमें लिंग, जेंडर पहचान व भूमिका, यौन प्रवृत्ति, सुख, घनिष्ठता व प्रजनन सम्मिलित है। यौनिकता विचार, परिकल्पना, इच्छा, विश्वास, अभिवृत्ति, मूल्य, व्यवहार, अनुभव, सम्बन्ध में अनुभव व अभिव्यक्ति की जाती है। यद्यपि यौनिकता के अंतर्गत उपरोक्त सभी पहलु आते हैं परन्तु सभी एक साथ अनुभव व व्यक्त नहीं किए जाते। यौनिकता पर जैविक, मनोवैज्ञानिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक, नैतिक, कानूनी, ऐतिहासिक, धार्मिक व आध्यात्मिक कारक का प्रभाव होता है। (वर्ल्ड हेल्थ आर्गेनाईज़ेशन ड्राफ्ट परिभाषा 2002)
सहमति – यौन संबंधों के संदर्भ में सहमति तब होती है जब सभी पक्ष एक-दूसरे के साथ शारीरिक और यौन रूप से शामिल होने के लिए सहमत होते हैं। इसमें शामिल सभी लोगों को चुनाव करने की स्वतंत्रता और क्षमता होती है। सहमति एक बार का समझौता नहीं है और इसे किसी भी समय निरस्त किया जा सकता है। अतः सच्ची सहमति के लिए ज़रूरी है कि सहमति स्पष्ट, सुसंगत, इच्छुक और निरंतर हो। सहमति के बिना, यौन गतिविधि यौन हमला या यौन हिंसा है।
बाल यौनशोषण – अगर कोई उम्र में बड़ा या ज़्यादा ताकतवर व्यक्ति नाबालिक लोगों के यौनांगों, स्तनों या शरीर के किसी और हिस्से को उनकी मर्ज़ी के बिना छुए या उनको अपने यौनांग दिखाए, उनके शरीर के साथ अपना शरीर रगड़े (कपड़े पहने हुए या बिना पहने हुए), फोन पर या आमने-सामने उनसे सेक्स-संबंधी बातें करें, उनको कपड़े बदलते हुए या नहाते हुए देखें, उनसे अपने यौनांग छुआए या उनके यौनांग छुए तो यह बाल यौन शोषण है – चाहे छूने वाला व्यक्ति अपने परिवार का हो या बाहर का।
भारत में बाल यौन शोषण यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण अधिनियम (2012) – प्रोटेक्शन ऑफ़ चिल्ड्रन फ्रॉम सेकशुअल ओफ्फेंसेस एक्ट (2012) – के तहत दंडनीय है, जिसमें उन गतिविधियों का वर्णन भी है जो दुर्व्यवहार करने वाले और बच्चे के बीच ‘त्वचा से त्वचा’ के संपर्क से परे हैं। कानून के मुताबिक 18 साल से कम उम्र वाले लोगों को बच्चा माना जाता है।
पीडोफ़ीलिया – ऐसा यौन व्यवहार जिसमें कामोत्तेजना प्राप्त करने का पसंदीदा/एकमात्र तरीका बच्चों के साथ सेक्स या अन्य यौनिक क्रियाएं करना, या इसकी कल्पना करना है। सभी बाल यौन अपराधी पीडोफाइल नहीं होते हैं। बच्चों पर ऐसी क्रियाओं के दीर्घकालीन प्रभाव उनके मानसिक, भावनात्मक और शारीरिक स्वास्थ्य के लिए अत्यंत हानिकारक हो सकते हैं।
समता – यह मापने योग्य, समान राजनीतिक प्रतिनिधित्व, स्थिति, अधिकार और अवसरों को संदर्भित करता है। जेंडर समता का अर्थ समानता नहीं है, लेकिन समाज में सभी जेंडरों के लोगों की समान अहमियत और उन्हें समान अधिकार और उपचार दिया जाना है।
विविधता – एक पारिस्थितिकी तंत्र में जीवित जीवों की विविधता की विस्तृत श्रृंखला। लोगों और जनसंख्या समूहों का वर्णन करते समय, विविधता में आयु, जेंडर, यौनिकता, विकलांगता की स्थिति, जाति, नस्ल, जातीयता, राष्ट्रीयता और धर्म के साथ-साथ शिक्षा, आजीविका और वैवाहिक स्थिति जैसे कारक शामिल हो सकते हैं।
सुरक्षित स्थान (सेफ स्पेस) – यौनिकता के दृष्टिकोण से, एक सुरक्षित स्थान किसी लोगों के समूह के लिए उनकी यौनिकता और यौन व जेंडर अभिव्यक्ति के बिनह पर पक्षपात, निगरानी व नियंत्रण, पूर्वाग्रह, उत्पीड़न और हिंसा से मुक्त है। यह सम्मान, खुलेपन, ईमानदारी और विविधता को प्राथमिकता देता है, और उस तरह के भेदभाव को कायम नहीं रखता है जिसका लोगों को बड़े पैमाने पर समाज से और समाज में सामना करना पड़ सकता है।
समावेशी स्थान – एक स्थान (एक कार्यस्थल, एक शैक्षणिक संस्थान, एक समुदाय, एक बैठक) को ‘समावेशी’ माना जा सकता है, अगर यह विविध जेंडर और यौन पहचान; मानसिक स्वास्थ्य संबंधी चिंताओं के साथ जी रहे; शारीरिक, मनोसामाजिक या बौद्धिक अक्षमताओं के साथ जी रहे; विविध धर्मों, वर्गों और जातियों के; और कोई अन्य पहचान/जनसांख्यिकीय के लोगों को स्वीकार कर रहा हो। यह वह जगह है जहां लोग सुरक्षित, समर्थित और शामिल महसूस करते हैं, और जहां उनकी पहचान या अभिव्यक्ति (जैसे जेंडर और यौनिकता) अनुचित या अपमानजनक व्यवहार को जन्म नहीं देती है। यौन और प्रजनन अधिकारों के संदर्भ में, एक समावेशी स्थान यौनिकता और संबंधित मुद्दों पर विविध दृष्टिकोणों को भी समायोजित करता है, जैसे कि विवाह, यौन साझेदारों की संख्या, बाल-मुक्त रहने के निर्णय आदि, और इनके लिए लोगों को नकारात्मक रूप से नहीं देखता है।
विशेषाधिकार (प्रिविलेज) – एक अनर्जित संसाधन, सामाजिक अवस्था या जीवन की स्थिति जो केवल कुछ लोगों को उनके सामाजिक निर्धारकों के कारण आसानी से उपलब्ध होती है, जैसे कि एक विशेष जेंडर (पुरुष), या जाति, या राष्ट्रीयता, का होना; या विषमलैंगिक, या धनी होना आदि। यह अनेक संसाधनों तक पहुंच, सामाजिक लाभ और समाज के मानदंडों और मूल्यों को आकार देने के अभिकर्तृत्व के संबंध में लाभ प्रदान करता है। विशेषाधिकार वाले लोग एक आदर्श बन जाते हैं जिसके विरुद्ध दूसरों को परिभाषित किया जाता है।
यह आलेख मूलरूप से तार्शी डॉट नेट पर प्रकाशित हुआ था। इस शब्दावली को 2021 में इंटरन्यूज़ के सहयोग से विकसित किया गया था।
भारतीय संविधान एक मजबूत लोकतंत्र की नींव है, जो आज भारत है। समान, न्यायसंगत, निष्पक्ष और सभी भारतीयों के लिए एक जैसा, संविधान हमारे जीवन को चुपचाप हमारी संभावनाओं को साकार करने की दिशा में मार्गदर्शन करता है। हम आशा करते हैं कि ये विचार मिलकर भारत के लगातार बढ़ते लोकतंत्र को मजबूत करने की बड़ी तस्वीर में योगदान देंगे।
भारतीय संविधान के 75वें वर्ष में कदम रखते हुए, नेशनल फाउंडेशन फॉर इंडिया ने ‘संविधान की बात’ नामक पॉडकास्ट श्रृंखला शुरू की है। यह पॉडकास्ट श्रृंखला एनएफआई के चल रहे अभियान ‘संविधान से हम’ का हिस्सा है।
यह वीडियो मूलरूप से नेशनल फाउंडेशन फॉर इंडिया पर प्रकाशित हुआ था।
लगभग 55 वर्ष के वीर सिंह हरियाणा के गुरुग्राम जिले के एक खेतिहर गांव नुनेरा में पैदा हुए जहां वे जीवनभर एक दिहाड़ी मजदूर के रूप में रहे और काम किया। वर्ष 1991 में आर्थिक उदारीकरण, 2000 के दशक में आर्थिक उछाल, गुरुग्राम का प्रौद्योगिकी और वित्तीय केंद्र बनना, सिंह ने तीन दशकों से अधिक समय तक भारत के आर्थिक परिवर्तन को देखा है। लेकिन बेहतर आर्थिक अवसरों की तलाश में ग्रामीण भारत को छोड़कर शहरों में पलायन करने वाले लाखों श्रमिकों के विपरीत सिंह ने कभी नुनेरा नहीं छोड़ा।
इसकी बजाय उन्होंने ‘कुजनेट्स इनवर्टेड यू-कर्व’ के प्रभावी होने का वर्षों तक इंतजार किया। 1950 के दशक में अमेरिकी अर्थशास्त्री साइमन कुजनेट्स ने एक प्रसिद्ध परिकल्पना प्रस्तावित की जिसके अनुसार जैसे-जैसे अर्थव्यवस्था का आकार बढ़ता है और यह कृषि से औद्योगिक अर्थव्यवस्था में परिवर्तित होती है, आय असमानता पहले बढ़ती है और फिर घटती है।
अप्रैल 2024 में भारतीय रिजर्व बैंक की मौद्रिक नीति समिति की सदस्य आशिमा गोयल ने प्रेस ट्रस्ट ऑफ इंडिया (पीटीआई) को बताया कि भारत में असमानता बढ़ी है। लेकिन “प्रसिद्ध ‘कुजनेट्स इनवर्टेड यू-कर्व’ हमें बताता है कि उच्च विकास की अवधि में यह सामान्य है और समय के साथ इसमें कमी आनी चाहिए”।
नुनेरा गुरुग्राम से केवल 45 किमी दूर है। लेकिन यहां पिछले कुछ वर्षों में आर्थिक परिवर्तन बहुत कम हुआ है, सिवाय एक अच्छी तरह से पक्की दो-लेन वाली सड़क के जो गांव से होकर गुजरती है और दर्जनों फार्महाउस जिन्हें रियल एस्टेट बिल्डरों ने शहर के अमीर लोगों के लिए सप्ताह के अंत में घूमने के लिए बनाया है।
एक दोपहर जब गर्म हवाएं चल रही थीं, रेत उड़ रही थी, सिंह एक निर्माण स्थल पर दर्जनों पांच फुट के खंभे बनाने के लिए कंक्रीट के मिश्रण का एक पूल बना रहे थे। 500 रुपए के लिए वे सुबह 6 बजे से लगे थे और देर रात तक काम करते थे। सिंह ने बताया, “अच्छे महीनों में उन्हें 12-15 दिन काम मिल जाता है।”
अधिकांश दिनों में वे मजदूरी दर के बारे में सोचते हैं। ठीक वैसे ही जैसे लोग घर से निकलने से पहले मौसम के बारे में सोचते हैं। सिंह कहते हैं, “खेतों में या छोटे निर्माण स्थलों पर ही काम है।” “खेतों में हमें प्रतिदिन 300-350 रुपए मिलते हैं। निर्माण स्थलों पर काम के बदले 500 रुपए मिलते हैं। पिछले चार सालों में मजदूरी में बमुश्किल 30-40 रुपए की वृद्धि हुई है। मैंने ज्यादा मजदूरी मांगना बंद कर दिया है। यहाँ कोई भी ज्यादा पैसे नहीं देगा। अगर मैं काम नहीं करूंगा तो कोई और करेगा।”
सिंह को उम्मीद थी कि उनके चार सदस्यों वाले परिवार के लिए हालात बेहतर हो जाएंगे। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। गुरुग्राम में चलती महंगी गाड़ियों को देखकर और प्रवासी मजदूरों से सुनी गई समृद्धि की कहानियों से उम्मीद को और बल मिला था। उन्होंने कहा कि वे सिर्फ ज्यादा मजदूरी चाहते थे। लेकिन अब यह उम्मीद मोहभंग में बदल गई है। उनकी पत्नी के स्वास्थ्य पर हुए खर्च की वजह से उनकी वित्तीय स्थिति बिगड़ गई है और वे अब 25,000 रुपए के कर्ज में हैं। उन्होंने कहा, “मैं गुस्से से उबल रहा हूं।” लंबी चुप्पी के बाद सिंह ने अचानक दिन का समय पूछा। सुबह के 11.15 बजे थे। उन्होंने पेट पर हाथ हुए कहा, “मुझे सुबह 11 बजे तक भूख लग जाती है। लेकिन मैं फिर भी काम कर रहा हूँ।”
वर्ष 2023 के आखिरी तीन महीनों में सकल घरेलू उत्पाद में 8.4% की वृद्धि हुई, जिसके साथ भारत ने सबसे तेजी से बढ़ने वाली प्रमुख अर्थव्यवस्था का ताज बरकरार रखा। इसके शेयर बाजार ने ज्यादातर एशियाई देशें की तुलना में बेहतर प्रदर्शन किया है। इसके कुछ नकारात्मक प्रभाव भी हैं। पिछले साल ब्लूमबर्ग ने रिपोर्ट किया था कि भारत ‘विलासिता व्यय का नया केंद्र’ बन गया है।
हालांकि इसके वित्तीय बाजार और औपचारिक अर्थव्यवस्था के प्रदर्शन और देश के ग्रामीण क्षेत्रों में 17 करोड़ से ज्यादा परिवारों के बीच एक बड़ा अंतर उभर कर आया है, जहां लगभग 65% आबादी रहती है।
पिछले 10 वर्षों से वास्तविक ग्रामीण वेतन वृद्धि – जिसे अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज ने आज भारत में सबसे महत्वपूर्ण और उपेक्षित मैक्रोइकनॉमिक संकेतकों में से एक कहा है – स्थिर बनी हुई है। वास्तविक वेतन मुद्रास्फीति के प्रभाव को समायोजित करने के बाद की आय है और अगर वास्तविक आय नहीं बढ़ती है तो लोगों के पास अधिक सामान और सुविधाओं पर क्रय की शक्ति नहीं होती है। इससे अर्थव्यवस्था में लोगों की मांग और समाज की भलाई, दोनों प्रभावित होते हैं।
इकोनॉमिक थिंक टैंक, इंडियन काउंसिल फॉर रिसर्च ऑन इंटरनेशनल इकनॉमिक रिलेशंस (आईसीआरआईईआर) के सरकारी आंकड़ों के विश्लेषण के अनुसार नरेंद्र मोदी सरकार के पहले कार्यकाल के दौरान कृषि और गैर-कृषि क्षेत्रों के लिए वास्तविक ग्रामीण मजदूरी में वृद्धि 2009-10 और 2013-14 के बीच लगभग 8.6% और 6% से घटकर लगातार 3% और 3.3% रह गई। मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल के दौरान स्थिति और खराब हो गई क्योंकि विकास नकारात्मक हो गया। यह दर कृषि मजदूरी के लिए -0.6% और गैर-कृषि मजदूरी के लिए -1.4% पर आ गया।
रांची विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र विभाग के विजिटिंग प्रोफेसर द्रेज ने इंडियास्पेंड को बताया, “मजदूरी के हालिया ठहराव पर बहुत कम शोध हुआ है, क्योंकि पिछले साल तक बहुत कम लोगों ने इस पर ध्यान दिया था।” “भारत में लंबे समय से ग्रामीण मजदूरी की सुस्त वृद्धि की समस्या रही है, खासकर पिछले 35 वर्षों के दौरान। लेकिन आज, यह ठहराव काफी तेज आर्थिक विकास के बावजूद हो रहा है। “इस लंबे समय से चली आ रही प्रवृत्ति का एक कारण यह है कि भारत में कामगारों की एक बड़ी संख्या है जिनकी शैक्षणिक योग्यता कम है और उनके पास बाजार में बिकने लायक कौशल नहीं है, भले ही उनके पास अन्य कौशल बहुत ज्यादा हों। इससे मजदूरी कम रहती है।”
रॉयटर्स ने 8 मई को बताया कि प्रधानमंत्री मोदी ने 2030 तक ग्रामीण प्रति व्यक्ति आय में 50% की वृद्धि करने की योजना बनाई है, जबकि वे भारत के चल रहे आम चुनावों में तीसरे कार्यकाल के लिए चुनाव लड़ रहे हैं।
रॉयटर्स के अनुसार ग्रामीण भारत में गैर-कृषि नौकरियों को बढ़ाने के लिए मोदी लघु उद्योगों में निवेश को बढ़ावा देने की योजना बना रहे हैं। इससे पहले 28 फरवरी 2016 को उत्तर प्रदेश के बरेली में किसानों की एक बड़ी सभा को संबोधित करते हुए मोदी ने घोषणा की कि वे 2022 तक किसानों की आय दोगुनी कर देंगे, तब जब देश अपनी स्वतंत्रता की 75वीं वर्षगांठ मनाएगा। भीड़ ने जयकारे लगाए।
हालांकि, सरकारी आंकड़ों से पता चला है कि पांच लोगों के परिवार की औसत मासिक आय 2012-13 में 6,426 रुपए से बढ़कर 2018-19 में लगभग 10,200 रुपए हो गई, फिर भी कृषि परिवार काफी वित्तीय संकट में हैं और लगभग 50% कर्ज में हैं और औसत बकाया ऋण 59% बढ़ गया है। इंडियास्पेंड ने सितंबर 2021 में अपनी रिपोर्ट में भी इसका जिक्र किया था।
सरकारी आंकड़ों के अनुसार लगभग 8.2 करोड़ परिवार जिनमें 41 करोड़ लोग शामिल हैं – दो हेक्टेयर से कम या उसके बराबर आकार की भूमि पर फसल उगाते हैं। इस समूह में जो देश के सभी कृषि परिवारों का 88% है। लगभग 38.7 मिलियन परिवार कर्ज में हैं, जिनमें 0.01-0.40 हेक्टेयर, 0.41-1.00 हेक्टेयर और 1.01-2.00 हेक्टेयर के बीच भूमि वाले किसानों के लिए औसत बकाया ऋण राशि क्रम से 33,220 रुपए, 51,933 रुपए और 94,498 रुपए है।
अर्थशास्त्रियों का कहना है कि भारत की ग्रामीण अर्थव्यवस्था इस बात पर निर्भर करती है कि कृषि क्षेत्र कितना अच्छा प्रदर्शन करता है। बढ़ती कृषि आय ग्रामीण खपत, कृषि और गैर-कृषि मजदूरी और यहां तक कि विनिर्माण और निर्माण जैसे क्षेत्रों में मजदूरी पर भी प्रभाव डालती है।
ड्रेज 2007 और 2013 के बीच के वर्षों को ग्रामीण मजदूरी की लंबी प्रवृत्ति में एक विसंगति के रूप में संदर्भित करते हैं। “[ग्रामीण मजदूरी] वास्तविक रूप में प्रति वर्ष लगभग 5-6% बढ़ रही थी। काफी संभावना है कि इस उछाल का संबंध राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम लागू होने के बाद श्रम बाजारों में आई सख्ती से है। अब हम वास्तविक मजदूरी के लगभग स्थिर होने के पुराने पैटर्न पर वापस आ गए हैं और अब यह अधिक गंभीर है, क्योंकि इस 10 साल के दौरान अर्थव्यवस्था तेज दर से बढ़ी,” ड्रेज़ ने कहा।
नई दिल्ली में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र के एसोसिएट प्रोफेसर हिमांशु ने इंडियास्पेंड को बताया कि 2007 और 2013 के बीच ग्रामीण मजदूरी को बढ़ाने वाले कई कारक थे, तब संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सत्ता में था। महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) के कार्यान्वयन के अलावा, कृषि उत्पादकता, फसलों के लिए उच्च न्यूनतम समर्थन मूल्य (एसएसपी), निर्माण क्षेत्र की वृद्धि और शहरीकरण ने ग्रामीण मजदूरी को बढ़ाया।
हालांकि हिमांशु के अनुसार आज इनमें से कोई भी कारक काम नहीं कर रहा है। कंपनियों ने पाया है कि उनके उत्पादों की बिक्री में शायद ही कोई वृद्धि हुई है। सबसे बड़ी बात यह है कि पिछले 10 वर्षों में पिछली अवधि की तुलना में मांग में कमी आई है।
“विनिर्माण और निर्माण जैसे गैर-कृषि क्षेत्रों से भी मांग में कमी आई है और लोग वापस कृषि की ओर लौट रहे हैं। कृषि की कीमतें – एमएसपी के संदर्भ में, गैर-कृषि कीमतों की तुलना में उतनी तेजी से नहीं बढ़ी हैं। व्यापार की शर्तें कृषि के खिलाफ हो गई हैं। और इससे मजदूरी कम हो गई है,” हिमांशु ने आगे कहा कि यह देखते हुए कि निर्माण क्षेत्र में निवेश की भरमार है, ग्रामीण मजदूरी में शायद ही कोई सकारात्मक बदलाव हो।
वर्ष 2021 में मोदी ने कहा कि भारत बंदरगाहों, सड़कों, जलमार्गों और आर्थिक क्षेत्रों के निर्माण के लिए लगभग 1.4 ट्रिलियन डॉलर या लगभग 100 ट्रिलियन रुपए का निवेश करेगा, जिससे लाखों नौकरियां भी पैदा होंगी। रियल एस्टेट कंसल्टेंसी नाइट फ्रैंक ने 2023 में एक रिपोर्ट में कहा कि भारत के शीर्ष आठ शहरों में तेजी से बढ़ते आवास बाजार निर्माण क्षेत्र को 2030 तक अर्थव्यवस्था में लगभग पांचवां योगदान देने के लिए प्रेरित करेगा जिससे 10 करोड़ श्रमिकों को रोजगार मिलेगा, जिनमें से लगभग 80% अर्ध-कुशल होंगे।
जब किसी ग्रामीण व्यक्ति की आय बढ़ती है तो सबसे पहला काम वह करता है अपने कच्चे मकानों को पक्के मकानों में बदलना, जो 2007 से 2012 के बीच हुआ था।
मई 2019 और मई 2024 के बीच, निफ्टी रियल्टी इंडेक्स – रियल एस्टेट सेक्टर के लिए एक बेंचमार्क इंडेक्स, जिसमें नेशनल स्टॉक एक्सचेंज के 10 स्टॉक शामिल हैं – 280% से अधिक बढ़ गया। इसके विपरीत 2018 और 2023 के बीच निर्माण क्षेत्र के श्रमिकों की औसत दैनिक वास्तविक ग्रामीण मजदूरी पुरुष श्रमिकों के लिए 182.44 रुपए से बढ़कर 205.80 रुपए और महिला श्रमिकों के लिए 136.95 रुपए से बढ़कर 157.95 रुपए हो गई। अरिंदम दास और योशिफुमी उसामी द्वारा श्रम ब्यूरो द्वारा प्रकाशित आंकड़ों के विश्लेषण के अनुसार, 2021-22 और 2022-23 के बीच समान समूह के लिए वास्तविक मजदूरी की वृद्धि में क्रमशः -0.1% और -3% की नकारात्मक वृद्धि दर्ज की गई।
“जब किसी ग्रामीण व्यक्ति की आय बढ़ती है तो सबसे पहला काम वह करता है अपने कच्चे मकानों को पक्के मकानों में बदलना, जो 2007 से 2012 के बीच हुआ था” हिमांशु कहते हैं। वे यह भी कहते हैं कि जहां निर्माण में श्रमिक कार्यरत हैं, वह प्रमुख बुनियादी ढांचा परियोजनाओं में नहीं है, क्योंकि इन परियोजनाओं में काम तीव्रता कम है। हम [वर्तमान में] देख रहे हैं कि बुनियादी ढांचे में निवेश से जीडीपी वृद्धि में योगदान श्रम-प्रधान होने के बजाय बहुत अधिक पूंजी-प्रधान है।”
भारत के अर्थशास्त्री और पूर्व मुख्य सांख्यिकीविद प्रणब सेन ने इंडियास्पेंड को बताया कि ग्रामीण आवास और सड़क निर्माण जैसी श्रम-प्रधान परियोजनाएं उच्च श्रम तीव्रता के कारण ग्रामीण मजदूरी को सकारात्मक रूप से प्रभावित करती हैं। “ग्रामीण भारत में, कृषि अब आर्थिक गतिविधियों का चालक नहीं है। वैकल्पिक व्यवसाय उतनी तेज़ी से नहीं बढ़ रहे हैं, इसलिए आपके पास ज्यादा श्रमिक हैं।
अर्थशास्त्री ग्रामीण अर्थव्यवस्था के प्रदर्शन को मापने के लिए दोपहिया वाहनों की बिक्री जैसी कई तरह की वजहों को देखते हैं। वित्तीय वर्ष 2018 में, लगभग 2.2 करोड़ दोपहिया वाहन बेचे गए जो वित्तीय वर्ष 2023 में घटकर 1.58 करोड़ रह गये। वहीं रॉयटर्स की रिपोर्ट के अनुसार वित्तीय वर्ष 2023 में भारत की रिकॉर्ड 40 लाख कार बिक्री में आधे से अधिक स्पोर्ट-यूटिलिटी वाहनों (एसयूवी) की हिस्सेदारी रही।
मैसाचुसेट्स विश्वविद्यालय एमहर्स्ट में अर्थशास्त्र की प्रोफेसर जयति घोष ने कहा कि विमुद्रीकरण और कोविड-19 महामारी जैसे आर्थिक झटकों ने भारत के विशाल अनौपचारिक क्षेत्र और इसमें काम करने वाले लाखों श्रमिकों को बुरी तरह प्रभावित किया है।
घोष ने इंडियास्पेंड से कहा, “इस सबका वास्तविक मजदूरी पर असर पड़ा है।” “जब वास्तविक मजदूरी कम होती है, तो वास्तविक खपत कम होती है और हमने इसे 2017-18 के [अब] रद्दी हो चुके घरेलू उपभोग सर्वे में देखा जो ग्रामीण उपभोग 2011-12 की तुलना में कम था – जो अविश्वसनीय है। अगर आप इसके बारे में सोचें तो यह उस दुष्चक्र को दर्शाता है जिसमें अर्थव्यवस्था अब फंस गई है। स्थिर मजदूरी का मतलब है कम मांग, जिसका अर्थ है कि छोटे उद्यम जो कार्यबल के बड़े हिस्से को रोजगार देते हैं, उनके उत्पादों की मांग नहीं हो रही है और इसका मतलब है कम मजदूरी।”
“यहां तक कि शहरी वास्तविक मजदूरी के लिए भी औसत बढ़ रहा है, लेकिन औसतन मजदूरी दर नहीं बढ़ रही है। इसका मतलब है कि शहरी क्षेत्रों में भी आधे श्रमिकों को बेहतर मजदूरी नहीं मिल रही है” घोष ने आगे कहा।
हिमांशु और घोष दोनों का तर्क है कि भारत की उच्च जीडीपी वृद्धि ग्रामीण अर्थव्यवस्था की स्थिति में परिलक्षित नहीं होती है और इसका प्रभाव समय बीतने के साथ घरेलू मांग पर पड़ेगा। हिमांशु कहते हैं, “भारत एक ऐसी अर्थव्यवस्था है जो मांग से प्रेरित है।” हम चीन या वियतनाम की तरह निर्यात-संचालित अर्थव्यवस्था नहीं हैं। इसलिए यदि घरेलू मांग नहीं बढ़ रही है तो आपको समस्याएं होने की संभावना है। उदाहरण के लिए, ऑटोमोबाइल क्षेत्र में इन्वेंट्री बिल्ड-अप के मुद्दों को लें। निजी निवेश में सुस्ती का एक कारण घरेलू मांग में कमी है: अगर कंपनियां बिक्री नहीं कर पा रही हैं, तो वे निवेश करने को तैयार नहीं हैं।”
द्रेज के अनुसार, यह दिखने लगा है। “पिछले 10 सालों में औसत उपभोक्ता व्यय की वृद्धि काफी कम रही है।” “राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय द्वारा जारी नवीनतम डेटा के अनुसार, 2011-12 और 2022-23 के बीच उपभोक्ता व्यय वास्तविक रूप से केवल 2-3% बढ़ा है, जबकि 2004-05 और 2011-12 के बीच यह 5-6% बढ़ा था। इससे यह भी पता चलता है कि हाल के वर्षों में जीडीपी वृद्धि के आधिकारिक अनुमान अतिशयोक्तिपूर्ण हो सकते हैं।”
वर्ष 2014 में सत्ता में आने के बाद मोदी सरकार ने कल्याणकारी खर्च बढ़ाने को प्राथमिकता दी और सरकार के अनुसार इसने शौचालय, रसोई गैस, मुफ्त खाद्यान्न, पाइप से पानी, बिजली और कई तरह की नकद हस्तांतरण योजनाओं जैसे कल्याणकारी प्रावधानों पर 10 वर्षों में लगभग 400 बिलियन डॉलर खर्च किए हैं, इस प्रवृत्ति को पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रमण्यन ने ‘न्यू वेलफेयरिज्म’ कहा है – कल्याण के प्रति एक अनूठा दृष्टिकोण जहां आवश्यक वस्तुओं के प्रावधान को स्वास्थ्य और शिक्षा जैसी सार्वजनिक सेवाओं के प्रावधान पर प्राथमिकता दी जाती है। सर्वे में कल्याणकारी खर्च और मतदान वरीयता के बीच संबंध पाया गया है।
पहले गरीबों को यह दो रुपए प्रति किलोग्राम मिल रहा था। अब सरकार 5 किलो अनाज मुफ्त दे रही है। लेकिन बाकी [खाद्य पदार्थों] की कीमत बढ़ गई है।
द्रेज इस दावे का खंडन करते हैं। “[मनरेगा और वृद्धावस्था पेंशन योजना जैसी योजनाओं] को अन्य योजनाओं में बदल दिया गया, उदाहरण के लिए घर की सुविधाओं पर ध्यान केंद्रित किया गया। कोविड-19 संकट के दौरान, कुछ सामाजिक सुरक्षा योजनाओं को फिर से बड़े पैमाने पर नया रूप देना पड़ा। लेकिन यह लंबे समय तक नहीं चला। कुल मिलाकर कल्याणकारी योजनाओं पर जीडीपी के अनुपात के तौर पर केंद्रीय व्यय आज भी उतना ही है जितना 10 साल पहले था। उन्होंने आगे बताया कि मनरेगा मजदूरी 15 साल से वास्तविक रूप में स्थिर रही है, 2009 के बाद से मजदूरी हर साल केवल मूल्य स्तर के अनुरूप ही बढ़ाई गई थी। यह बहुत लंबा समय है।”
घोष ने कहा, “मुझे नहीं लगता कि कोई नया कल्याणवाद है।” “उदाहरण के लिए, मुफ्त खाद्यान्न पर विचार करें। पहले गरीबों को यह दो रुपए प्रति किलोग्राम मिल रहा था। अब सरकार 5 किलो अनाज मुफ्त दे रही है। लेकिन बाकी [खाद्य पदार्थों] की कीमत बढ़ गई है। उनकी शुद्ध खरीद में ज्यादा बदलाव नहीं हुआ है। सच कहूं तो शून्य और दो रुपए के बीच का अंतर ज्यादा नहीं है।”
घोष सरकार द्वारा जारी नवीनतम घरेलू उपभोग सर्वे के एक आंकड़े का हवाला देते हैं: ग्रामीण भारत के लिए सरकारी कल्याण हस्तांतरण से पहले और बाद में औसत मासिक प्रति व्यक्ति व्यय के बीच का अंतर केवल 87 रुपए है। घोष बताते हैं, “अंतर मामूली है।” “मैं इस बात से सहमत नहीं हूं कि कल्याणकारी खर्च में बहुत ज्यादा वृद्धि हुई है। यह इस बात का संकेत है कि कल्याणकारी योजनाओं पर खर्च उतना ज़्यादा नहीं है।”
फाइनेंशियल टाइम्स के विश्लेषण के अनुसार 2014 से 2022 के बीच भारत की जीडीपी चक्रवृद्धि वार्षिक वृद्धि दर के लिहाज से औसतन 5.6% बढ़ी है, जबकि इसी अवधि में 14 अन्य बड़ी विकासशील अर्थव्यवस्थाओं की औसत वृद्धि दर 3.8% रही है। वैश्विक आर्थिक ऐतिहासिक रुझानों को ध्यान में रखते हुए द्रेज और घोष को वैश्विक स्तर पर ऐसा ही रुझान ढूंढ़ना मुश्किल लगा जहां एक रेखा ग्राफ पर आर्थिक विकास और ग्रामीण मजदूरी विपरीत दिशाओं में चली गई हो।
द्रेज ने कहा कि अगर कोई ऐसा दूसरा उदाहरण हो जहां 10 साल तक इतनी तेजी से विकास हुआ हो और वास्तविक ग्रामीण मजदूरी में शायद ही कोई वृद्धि हुई हो, तो यह आश्चर्य की बात होगी। घोष कहते हैं, “यह बहुत, बहुत दुर्लभ है।”
हरियाणा के चुहारपुर में एक खेतिहर मजदूर सुषमा इस रुझान पर सवाल उठाती रही हैं। लौकी के पौधों के एक बड़े खेत में तेजी से चलते हुए, फसल को तोड़ते हुए और सिर पर रखी टोकरी में इकट्ठा करते हुए वह पिछले चार वर्षों से लगभग आठ घंटे काम कर रही हैं जिसके बदले उन्हें 250 रुपए मिलते हैं। “दूध, सब्जियां, खाना पकाने का तेल, आटा, बिजली। सभी की कीमतें बढ़ गई हैं,” उन्होंने इंडियास्पेंड को बताया।
मार्च 2024 में, भारत में सब्जी मुद्रास्फीति 28.3% पर थी; फरवरी में यह 30.2% थी। नवंबर 2023 से खाद्य मुद्रास्फीति – जिसमें अनाज, सब्जियां, मसाले, खाना पकाने का तेल, दूध, अंडे, मांस शामिल हैं – 8% से अधिक बढ़ रही है।
“हम केवल अपने परिवारों को खिलाने के लिए इतनी मेहनत नहीं करना चाहते हैं,” सुषमा ने कहा, क्योंकि उसने टोकरी से लौकी को खेत के किनारे एक अस्थायी भंडारण कक्ष के फर्श पर फेंक दिया।
“मैं बस यही प्रार्थना कर सकता हूं कि हमारी स्थिति बेहतर हो जाए। मैं अपने बच्चों को बड़े शहर में काम करने के लिए नहीं छोड़ सकती।”
यह लेख मूलरूप से इंडिया स्पेंड पर प्रकाशित हुआ था।
अंतरराष्ट्रीय वैज्ञानिकों की एक टीम की एक रिपोर्ट में सामने आया है कि दक्षिण और दक्षिण पूर्व एशिया में अप्रैल में आई हीटवेव कई संवेदनशील और पिछले समुदायों के लिए काफी हानिकारक थी। इस रिपोर्ट में हीटवेव की वजह से आई समस्याओं का भी जिक्र किया गया है। इनमें हीट स्ट्रोक की वजह से अस्पताल में भर्ती होने की घटनाएं, जंगलों में आग लगने की घटनाएं और स्कूलों का बंद होना प्रमुख है।
इस साल की शुरुआत में ही भारत के मौसम विभाग ने फरवरी 2023 को 1901 से लेकर अभी तक सबसे गर्म फरवरी घोषित किया था। 2022 में साउथ एशिया में आई भयंकर हीटवेव के बाद की गई वर्ल्ड वेदर एट्रीब्यूशन की ओर से की गई एक स्टडी में जलवायु परिवर्तन के भारतीय हीटवेव पर प्रभावों का आकलन किया और पाया कि इस क्षेत्र में इंसानी गतिविधियों की वजह से भीषण हीटवेव की घटनाएं 30 गुना बढ़ गईं।
काउंसिल ऑफ एनर्जी, एन्वारनमेंट एंड वाटर (CEEW) में सीनियर प्रोग्राम लीड विश्वास चिताले बढ़ती हीटवेव के प्रभावों के प्रति चिंता जताते हुए कहते हैं, ‘जैसे-जैसे जलवायु संकट बढ़ रहा है हीट एक्शन प्लान को धारण करने और उन्हें लागू करने संबंधी जरूरतें भारत में काफी बढ़ रही हैं ताकि हीटवेव के प्रभावों को अच्छी तरह से कम किया जा सके।’
हीववेव को भौगोलिक क्षेत्र के आधार पर अलग-अलग परिभाषित किया जाता है। मौसम विभाग के मुताबिक, मैदानी इलाकों में अधिकतम तापमान 40 डिग्री सेल्सियस या उससे ज्यादा होने पर उसे हीटवेव कहा जाता है। वहीं, तटीय इलाकों में अधिकतम तापमान 37 डिग्री सेल्सियस या ज्यादा होने पर उसे हीटवेव कहा जाता है। पहाड़ी इलाकों में यही आंकड़ा 30 डिग्री सेल्सियस या ज्यादा होने पर हीटवेव कहा जाता है। भारत में हीटवेव की परिस्थितियां आमतौर पर मार्च और जुलाई के बीच महसूस की जाती हैं। वहीं, भीषण हीटवेव अप्रैल से जून के बीच होती है।
हीटवेव प्राथमिक तौर पर उत्तर पश्चिमी भारत के मैदानों, मध्य और पूर्वी क्षेत्र और भारत के पठारी क्षेत्र के उत्तर हिस्से को प्रभावित करती है। पिछले कुछ सालों में भारत में ज्यादा तापमान की घटनाएं काफी ज्यादा हो गई हैं। यहां तक ऐतिहासिक रूप से कम तापमान वाले इलाकों जैसे कि हिमाचल प्रदेश और केरल में भी हीटवेव की घटनाएं ज्यादा हो रही हैं। साल 2019 में हीटवेव का असर 23 राज्यों में हुआ जबकि 2018 में 18 राज्य प्रभावित हुए थे। भारत और दुनिया के अन्य हिस्सों में रिकॉर्ड तोड़ हीटवेव की घटनाएं संवेदनशील समुदाय के लिए सेहत से जुड़ी गंभीर समस्याएं पैदा कर रहे हैं।
चिताले कहते हैं, ‘हीटवेव की समस्या का समाधान करने के लिए काफी बेहतर और प्रभावी हीट एक्शन प्लान की जरूरत है ताकि लोगों की जान बचाई जा सके और इसका असर कम किया जा सके। ये उपाय साथ-साथ काम करते हैं ताकि हीटवेव के समय लोग सुरक्षित और सेहतमंद रहें और उनकी सेहत बची रहे।’
हीट एक्शन प्लान (HAP) भीषण हीटवेव की घटनाओं के समय लोगों को सुरक्षित रखने और उनकी जान बचाने में अहम भूमिका निभाते हैं। अहमदाबाद के 2013 के हीट एक्शन प्लान से प्रेरणा लेते हुए भारत के शहरों, राज्यों और राष्ट्रीय स्तर पर हीट वार्निंग सिस्टम लागू करने और तैयारियों की योजना बनाने की दिशा में काम किया जा रहा है।
भारत भीषण गर्मी के प्रति जितना संवेदनशील है उससे देश की अर्थव्यवस्था और लोगों की सेहत पर बुरा असर पड़ने की आशंका ज्यादा है। इसका असर गरीबों पर ज्यादा पड़ेगा और वही इसका अधिकतम नुकसान भी झेलेंगे। 2021 की एक रिसर्च बताती है कि गर्मी और उमस की परिस्थितियों की वजह से दुनियाभर में मजदूरों की कमी होगी और भारत इस मामले में शीर्ष 10 देशों में शामिल होगा जिसके चलते उत्पादकता पर असर भी पड़ेगा।
गर्मी और उमस की परिस्थितियों की वजह से दुनियाभर में मजदूरों की कमी होगी
भारत में काम करने वाले कामगारों का तीन चौथाई हिस्सा भीषण गर्मी वाले सेक्टर में काम करते हैं जिनका कि देश की कुल जीडीपी में आधे का योगदान होता है। अंतरराष्ट्रीय मजदूर संगठन का अनुमान है कि साल 2030 तक भीषण गर्मी के चलते काम के घंटे कम होने में 5.8 प्रतिशत की बढ़ोतरी होगी जो कि 3.4 करोड़ नौकरियों के बराबर है। इनमें बाहर के काम वाले सेक्टर जैसे कि कृषि, खनन और उत्खनन शामिल हैं। इसके अलावा, अंदर वाले काम जैसे कि मैन्युफैक्चरिंग, हॉस्पिटैलिटी और ट्रांसपोर्टेशन जैसे काम भी शामिल हैं।
स्वास्थ्य के मामले में देखें तो जून 2023 में AP News ने रिपोर्ट छापी थी कि उत्तर भारत के राज्य उत्तर प्रदेश में हीटवेव के चलते 119 लोगों की जान चली गई। ये लोग भीषण गर्मी के चलते बीमार पड़े थे। वहीं, पड़ोसी राज्य बिहार में भी 45 लोगों की मौत हुई है। इसी समय में उत्तर प्रदेश के बलिया जिले में तापमान 45 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच गया और आर्द्रता 30 से 50 प्रतिशत के बीच रही।
भारत का उत्तरी हिस्सा गर्मी के मौसम दौरान तपती और भीषण गर्मी के लिए जाना जाता है। वहीं, भारत के मौसम विभाग ने बताया है कि सामान्य तापमान लगातार बढ़ा हुआ था और अधिकतम तापमान भी 43.5 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच गया था। नेशनल ओसेनिक एंड एटमॉस्फेरिक एडमिनिस्ट्रेशन के हीट इंडेक्स कैलकुलेटर के मुताबिक, ये परिस्थितियां इंसान के शरीर के लिए 60 डिग्री सेल्सियस जैसी हो सकती हैं और ये गंभीर खतरे को दर्शाती हैं।
कैंब्रिज यूनिवर्सिटी के रमित देबनाथ की अगुवाई में शोधार्थियों ने एक अप्रैल 2023 में एक स्टडी की। इस स्टडी में सामने आया कि भारत में 2022 में आई हीटवेव ने लगभग 90 प्रतिशत लोगों की स्वास्थ्य समस्याओं, खाने की कमी और मौत की आशंकाओं को बढ़ा दिया। PLOS क्लाइमेट जर्नल में प्रकाशित इस स्टडी में बताया गया कि हो सकता है कि भारत सरकार का ‘क्लाइमेट वलनेरेबिलिटी इंडेक्स’ देश के विकास के प्रयासों पर हीटवेव के असर को सही से न पकड़ सके।
इन शोधार्थियों ने हीट इंडेक्स और वलनेरेबिलिटी इंडेक्स को मिलाया तो पाया कि देश के 90 प्रतिशत लोग आजीविका की क्षमता, खाद्य उत्पादन, बीमारियों के संक्रमण और शहरी सतत जीवन के प्रति काफी चुनौतियों का सामना कर रहे हैं।
यह स्टडी भारत की अर्थव्यवस्था पर हीट वेव के दुष्प्रभावों के बारे में भी आगाह करती है। यह बताती है कि भारत जलवायु संबंधी कई आपदाओं के मेल का सामना कर रहा है। इसके चलते साल भर मौसम की खराब परिस्थितियों का सामना करना पड़ रहा है। भीषण हीटवेव के चलते यह स्थिति देश की 140 करोड़ जनता में से 80 प्रतिशत जनता के सामने बड़ा खतरा पैदा कर रही है।
स्टडी में यह भी बताया गया है कि जैसे-जैसे एयर कंडीशनर और जमीन से पानी निकालने की जरूरत बढ़ रही है, वैसे-वैसे भारत की पावर ग्रिड पर ऊर्जा की मांग का दबाव भी बढ़ता जा रहा है।
बढ़ते तापमान की वजह से एयर कंडीशनर, पानी के पंप जैसे उपकरणों का इस्तेमाल बढ़ा है। इसके चलते बिजली की जरूरत बढ़ी है और इसका असर उन उद्योगों पर पड़ता है जो बिजली पर निर्भर होते हैं।
हाल ही में आई CRISIL की एक रिपोर्ट के मुताबिक, पिछले वित्त वर्ष की तुलना में इस साल भारत की ऊर्जा जरूरतों में 9.5 से 10 प्रतिशत की बढ़ोतरी होने वाली है जो कि एक दशक में सबसे ज्यादा और पिछले 20 सालों के औसत से भी ज्यादा है।
चिताले ने मोंगाबे-इंडिया को बताया, ‘अगले वित्त वर्ष में हम बिजली की मांग में काफी बढ़ोतरी देख सकते हैं क्योंकि गर्मियां सामान्य से ज्यादा होंगी और हीटवेव की संख्या भी बढ़ेगी। पिछले दो सालों में मजबूत बढ़ोतरी के बावजूद बिजली की डिमांड में 5.5 से 6 प्रतिशत की बढ़ोतरी होने वाली है और साल के पहले आधे हिस्से में तो यह बढ़ोतरी और भी ज्यादा होने वाली है।
हीट एक्शन प्लान एक नीतिगत दस्तावेज है जिसे हीटवेव के दुष्प्रभावों को समझने और उससे प्रभावी तरीके से निपटने की तैयारी की जा सके।
हीट एक्शन प्लान को सरकारी संस्थाओं की ओर से अलग-अलग स्तर पर तैयार किया जाता है और वे विस्तृत गाइड की तरह काम करती हैं। इनमें हीटवेव की घटनाओं के बारे में समझने, उनसे उबरने और उनसे निपटने संबंधी तैयारियां करने में मदद मिलती है।
सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च (CPR) में असोसिएट फेलो और हीट एक्शन प्लान के बारे में सीपीआर की रिपोर्ट के सहलेखक आदित्य वलीनाथन पिल्लई ने मोंगाबे इंडिया को बताया, ‘हीट एक्शन प्लान सलाह देने वाले एक ऐसा दस्तावेज है जिसे राज्य या स्थानीय सरकारों द्वारा तैयार किया जाता है। इनमें यह बताया जाता है कि हीटवेव के लिए कैसी तैयारियां की जानी चाहिए, हीटवेव की घोषणा किए जाने के बाद क्या किया जाना चाहिए। साथ ही, इनमें आपात स्थिति से निपटने के उपाय बताए जाते हैं और हीटवेव के अनुभवों से सीखने की सलाह दी जाती है ताकि हीटवेव एक्शन प्लान को बेहतर बनाया जा सके।’
हाल ही में और भी हीटवेव एक्शन प्लान में यह कोशिश की गई है कि हीटवेव की वजह से होने वाले आर्थिक नुकसान को कम किया जा सके।
इन प्लान का प्राथमिक उद्देश्य संवेदनशील जनसंख्या को सुरक्षित रखना और स्वास्थ्य सेवाओं, आर्थिक मदद सूचनाओं और मूलभूत सुविधाओं जैसे संसाधनों को निर्देशित करना होता है, ताकि भीषण गर्मी की स्थितियों में सबसे ज्यादा खतरा झेलने वालों को बचाया जा सके।
पिल्लई आगे कहते हैं, ‘ये प्लान अलग-अलग सेक्टर से जुड़े होते हैं। उन्हें लागू करने के लिए जरूरी होता है कि कई अलग-अलग सरकारी विभाग हीटवेव शुरू होने से पहले से ही काम करें। इनका मुख्य मकसद होता है कि भीषण गर्मी की परिस्थितियों में किसी की भी जान न जाए। हाल ही में और भी हीटवेव एक्शन प्लान में यह कोशिश की गई है कि हीटवेव की वजह से होने वाले आर्थिक नुकसान को कम किया जा सके।’
भारत की केंद्र सरकार हीटवेव से प्रभावित 23 राज्यों के और 130 शहरों और जिलों के साथ मिलकर देशभर में हीट एक्शन प्लान लागू करने का काम कर रही है। पहला हीट एक्शन प्लान साल 2013 में अहमदाबाद म्युनिसिपल कॉर्पोरेशन ने लॉन्च किया था और आगे चलकर इस क्षेत्र में यही टेम्पलेट बन गया।
हीट एक्शन प्लान अहम भूमिका निभाते हैं ताकि व्यक्तिगत और समुदाय के स्तर पर जागरूकता फैलाई जा सके और हीटवेव की स्थिति में लोगों को सुरक्षित रखने के लिए सही सलाह दी सके। इसमें, कम समय और ज्यादा समय के एक्शन का संतुलन रखा जाता है।
कम समय वाले हीट एक्शन प्लान प्राथमिक तौर पर हीटवेव के प्रति तात्कालिक उपाय देते हैं और भीषण गर्मी की स्थिति में त्वरित राहत दिलाते हैं। इनमें आमतौर पर स्वास्थ सहायता, जन जागरूकता अभियान, कूल शेल्टर और दफ्तर या स्कूल के समय में बदलाव जैसे उपाय शामिल होते हैं ताकि लोग कम गर्मी के संपर्क में आएं। वहीं, दूसरी तरफ लंबे समय वाले हीट एक्शन प्लान सतत रणनीतियों पर जोर देते हैं जिनका असर एक हीटवेव सीजन से आगे भी होता है। ये प्लान गर्मी के खतरों की अहम वजहों का खात्मा करने और भविष्य में आने वाले हीट वेव के प्रति तैयारियों पर जोर देते हैं।
इन हीट एक्शन प्लान में हीटवेव चेतावनी सिस्टम को भी शामिल किया जाता है ताकि संवेदनशील जनता तक समय से अलर्ट पहुंच सके। वे अलग-अलग सरकारी विभागों के बीच समन्वय करते हैं, सेहत से जुड़ी जरूरतों को पूरा करने के प्रयास करते हैं, काम के घंटों में बदलाव करते हैं और व्यावहारिक बदलाव के लिए रणनीतियां लागू करते हैं। हीट एक्शन प्लान में आधारभूत ढांचों में निवेश, जलवायु के प्रति लचीली खेती और सतत शहरी योजनाएं लागू करने, ग्रीन कॉरिडोर बनाने और ठंडी छतें बनाने जैसे उपायों पर भी जोर देते हैं।
हीट एक्शन प्लान के तहत कम और ज्यादा समय के उपाय लागू करने के साथ ही सरकारें इंसानों के जीवन और अर्थव्यवस्था पर हीटवेव के असर को कम कर सकती हैं। हालांकि, अभी यह स्पष्ट नहीं है कि इन एक्शन प्लान को कहां तक लागू किया जा रहा है।
सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च ने एक विस्तृत मूल्यांकन किया है जिसमें 18 राज्यों को 37 हीट एक्शन प्लान का विश्लेषण किया गया है। इसमें स्वास्थ्य से जुड़े खतरों और संवेदनशील जनसंख्या के साथ-साथ कृषि पर इसके असर के बारे में पता चला है। सीपीआर की रिपोर्ट में कहा गया है कि हीटवेव की समस्याओं से निपटने और इसके दुष्प्रभाव से बचने के लिए हीट एक्शन प्लान को प्रभावी बनाने की जरूरत है।
इस रिपोर्ट में सामने आया है कि इनमें से कुछ प्लान में कई खामियां हैं जो दिखाती हैं स्थानीय स्तर पर इनका ख्याल नहीं रखा जाता है, फंडिंग कम मिलती है और संवेदनशील समूहों की टारगेटिंग खराब होती है। साल 2023 के शुरुआती महीनों में आई हीटेवव ने इसकी खराब परिस्थितियों के प्रति भारत की तैयारियों की ओर ध्यान खींचा था।
पिल्लई के मुताबिक, ‘हमने कुल 37 हीट एक्शन प्लान का विश्लेषण किया है इन सभी में ऐसी कमियां मिली हैं जिनकी वजह से इनका असर कम होता है। उदाहरण के लिए, सिर्फ दो प्लान ऐसे थे जिनमें संवेनदशीलता का आकलन किया जाता है जबकि हीटवेव को सहने में अक्षम लोगों की मदद करने और उनकी पहचान करने के लिए यह सबसे जरूरी चीज है।’
वह आगे कहते हैं, ‘यह भी चिंताजनक बात है कि 37 प्लान में से सिर्फ 3 ही ऐसे थे जिनके तहत सुझाए गए उपायों के लिए फंडिंग मिल पाई। यह चिंताजनक इसलिए क्योंकि ज्यादातर हीट एक्शन प्लान में मूलभूत ढांचों में बदलाव, सिटी प्लानिंग और इमारतों को लेकर महंगे सुझाव दिए गए थे।’
हाल में आई हीटवेव के प्रति भारत के हीट एक्शन प्लान की अनुकूलता कितनी प्रभावी है इसका आकलन अभी तक किया जा रहा है। साथ ही, कड़ी से कड़ी जोड़ने वाले सबूत जुटाए जा रहे हैं जो इन्हें लागू करने और इनके प्रभावों से जुड़े अलग-अलग स्तर के सुझाव देते हैं।
पिल्लई के मुताबिक, ‘इन प्लान का असर करने के लिए इनका विस्तृत अध्ययन और मूल्यांकन किए जाने की जरूरत है। फिलहाल, बहुत कम डेटा उपलब्ध है जिससे यह समझा जा सके कि ऐसे कौन से हीट एक्शन प्लान हैं जो प्रभावी ढंग से काम कर रहे हैं और हीटवेव की वजह से आने वाली चुनौतियों का सही समाधान दे पा रहे हैं.’
हीट एक्शन प्लान को लागू करने से संबंधी और इसके लागू करने से पहले और बाद के किसी भी कारण से होने वाली मृत्यु की दर के बारे में अध्ययन करने की जरूरत है।
वह इस बात पर भी जो देते हैं कि हीट एक्शन प्लान को लागू करने से संबंधी और इसके लागू करने से पहले और बाद के किसी भी कारण से होने वाली मृत्यु की दर के बारे में अध्ययन करने की जरूरत है। ऐसी स्टडी से पता चल सकता है कि ये प्लान कितने प्रभावी हैं और गर्मी की वजह से होने वाली मौतों को ये कितना कम कर पा रही हैं। पिल्लई आगे कहते हैं, ‘कई क्षेत्रों, राज्यों और स्थानीय सरकारों में हीट एक्शन प्लान के काफी नया होने की वजह से इनके बारे में विस्तार से से नहीं समझा जा सका है कि ये प्लान कैसे काम करते हैं और वे कुल मिलाकर कितने प्रभावी होते हैं।’
हीट एक्शन प्लान के मौजूदा प्रभावों को सुनिश्चित करने के लिए उनके विस्तार और शहरों और राज्यों में उन्हें लागू किए जाने की मॉनीटरिंग जरूरी है। इन हीट एक्शन प्लान का असर और प्रभाव समझने के लिए कठोर मूल्यांकन वाली स्टडी की जरूरत है ताकि यह समझा जा सके कि भीषण गर्मी की स्थितियों के समय आने वाली चुनौतियों के प्रति ये कितनी असरदार हैं। इससे नीति निर्माताओं और अन्य हिस्सेदारों को अहम जानकारी मिलेगी जिससे वे हीट एक्शन प्लान को सुधारकर उसे और बेहतर बना सकेंगे, ताकि भारत में हीटवेव के असर को कम से कम किया जा सके।
इस सवाल का जवाब देते हुए पिल्लई कई प्रयासों को सूचीबद्ध करते हैं ताकि अलग-अलग चुनौतियों को हल करने के लिए कई रास्ते अपनाए जाएं और हीटवेव के खिलाफ इन्हें प्रभावी बनाया जा सके। वह कहते हैं कि पर्याप्त फंडिंग, एक कानूनी आधार बनाने और जिम्मेदारी तय करने, भागीदीरी को बढ़ावा देने और हीट एक्शन प्लान के बारे में दूरगामी सोच लेकर चलने से इन्हें मजबूत किया जा सकता है।
वह आगे कहते हैं कि हीट एक्शन प्लान को सफलतापूर्वक लागू करने और उनके तहत सुझाए गए सुझावों को अपनाने के लिए पर्याप्त फंड जारी किए जाने की जरूरत है। इसके बाद हीट एक्शन प्लान को लेकर कानूनी अनिवार्यता करने से इनके कार्यन्यवन, प्रभाव और असर की मॉनिटरिंग की जा सकेगी। साथ ही, संवेदनशील समूहों और हिस्सेदारों को शामिल करने जैसे समीक्षा के तरीकों से पारदर्शिता और जिम्मेदारी को सुनिश्चित किया जा सकता है।
हीट एक्शन प्लान के विकास और उनको फिर से जांचने में प्रभावित होने वाले लोगों के समूहों और हिस्सेदार समुदायों के इनपुट और उनका निर्देशन लेने से ज्यादा भागीदारी वाला और समावेशी दृष्टिकोण सुनिश्चित होता है।
हीट एक्शन प्लान में लंबे समय की जलवायु के अनुमानों को और हीटवेव की चुनौतियों का हल निकालने वाले मॉडल को शामिल किया जाना चाहिए। पिल्लई आगे कहते हैं कि मौजूदा समय के साथ-साथ भविष्य की योजनाएं तय करना जरूरी है ताकि बढ़ते तापमान के साथ बढ़ती चुनौतियों को कम किया जा सके।
यह आलेख मूलरूप से मोंगाबे पर प्रकाशित हुआ था जिसे आप यहां पढ़ सकते हैं।