हमारे कानूनों को हिंदी में पढ़ना और समझ पाना इतना कठिन क्यों है?

शुरुआत सबसे नये और उस कानून से जिस पर कुछ समय से काफी विवाद चल रहा है। तमाम विरोधों के बीच वक्फ (संशोधन) विधेयक 2025, लोकसभा और राज्यसभा में पारित होकर वक्फ (संशोधन) अधिनियम 2025 बन चुका है। यह कानून, वक्फ अधिनियम 1995 में एक और संशोधन करने का काम करता है। वक्फ अधिनियम का बिलकुल शुरुआती हिस्सा कहता है:

“यह किसी राज्य में उस तारीख को प्रवृत्त होगा जो केन्द्रीय सरकार, राजपत्र में अधिसूचना द्वारा, नियत करे तथा किसी राज्य के भीतर भिन्न-भिन्न क्षेत्रों के लिए और इस अधिनियम के भिन्न-भिन्न उपबंधों के लिए भिन्न-भिन्न तारीखें नियत की जा सकेंगी, और किसी उपबंध में इस अधिनियम के प्रारंभ के प्रति निर्देश का किसी राज्य या उसमें के किसी क्षेत्र के संबंध में यह अर्थ लगाया जाएगा कि वह ऐसे राज्य या क्षेत्र में उस उपबंध के प्रारंभ के प्रति निर्देश है।” – [अध्याय 1, खंड 1(3)]

कमाल की हिंदी है! इसे लिखने वाला भी कमाल और पढ़ कर ठीक से समझ सकने वाला भी। लेकिन यह इस लेख में मौजूद कानूनी हिंदी के उदाहरणों की सबसे आसान वाली हिंदी है। मगर हममें से ज़्यादातर को इसी का अर्थ ठीक से समझने के लिए या तो हिंदी के किसी पंडित के पास जाना होगा या फिर वक्फ अधिनियम को अंग्रेजी में पढ़ना होगा:

“It shall come into force in a State on such date as the Central Government may, by notification in the Official Gazette, appoint; and different dates may be appointed for different areas within a State and for different provisions of this Act, and any reference in any provision to the commencement of this Act, shall, in relation to any State or area therein, be construed as reference to the commencement of that provision in such State or area।”

कहना मुश्किल नहीं कि वक्फ अधिनियम के ऊपर दिये हिस्से को अंग्रेजी में समझना हिंदी जितना मुश्किल नहीं है। अगर इसे हिंदी में भी थोड़ी सरल भाषा में ऐसे लिखते तो?:

“यह किसी राज्य में उस तिथि से लागू होगा जिसे केंद्र सरकार राजपत्र में अधिसूचना द्वारा तय करेगी; और इस कानून को राज्य के विभिन्न हिस्सों में या इसकी विभिन्न धाराओं को वहां लागू करने के लिए अलग-अलग तिथियां निर्धारित की जा सकती हैं। इस कानून की किसी धारा में अगर इसके प्रारंभ की तिथि का उल्लेख हो, तो किसी राज्य या उसके किसी क्षेत्र के लिए उसे, वहां उस धारा के लागू होने की तिथि माना जाएगा।”

अगर वक्फ अधिनियम या उसका ताज़ा संशोधन इस तरह की हिंदी में लिखा होता तो एक साधारण व्यक्ति इसे सीधे पढ़कर इस पर अपनी कोई स्वतंत्र राय बना सकता था। जब ऐसा नहीं होता है तो एक आम आदमी सबसे जरूरी मसलों पर जानकारी के लिए मतलबी रायों का मोहताज बन जाता है।

कुछ समय पहले पीएम केयर्स फंड को लेकर उठ रहे तमाम सवालों की पड़ताल करते हुए हमने एक रिपोर्ट की थी। इन सवालों में से एक यह भी था कि पीएम केयर्स फंड लोक प्राधिकार यानी पब्लिक अथॉरिटी है या नहीं। असल में इस फंड से जुड़ी कई जानकारियां पाने के लिए सूचना के अधिकार (आरटीआई) के तहत कई आवेदन दायर किए गए थे जो खारिज हो गए थे। प्रधानमंत्री कार्यालय का तर्क था कि पीएम केयर्स फंड लोक प्राधिकार यानी पब्लिक अथॉरिटी नहीं है, इसलिए इस पर आरटीआई कानून लागू नहीं होता।

पीएमओ के इस तर्क की पड़ताल करने के लिए हमने हिंदी में आरटीआई एक्ट पढ़ना शुरू किया। थोड़ी ही देर में हमें अहसास हो गया कि यह भाषा का एक बीहड़ है जिसमें कहीं पहुंचने से ज्यादा आसार भटकने के हैं। दुरुह हिंदी से किसी तरह गुजरते हुए हम आरटीआई कानून के अध्याय एक के खंड 2 (ज)(घ) पर पहुंचे। इसमें लिखा था:

“लोक प्राधिकारी” से समुचित सरकार द्वारा जारी की गई अधिसूचना या किए गए आदेश द्वारा, स्थापित या गठित कोई प्राधिकारी या निकाय या स्वायत्त सरकारी संस्था अभिप्रेत है और इसके अन्तर्गत-

(i) कोई ऐसा निकाय है जो समुचित सरकार के स्वामित्वाधीन, नियंत्रणाधीन या उसके द्वारा प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से उपलब्ध कराई गई निधियों द्वारा सारभूत रूप से वित्तपोषित है।

(ii) कोई ऐसा गैरसरकारी संगठन है जो समुचित सरकार द्वारा प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से उपलब्ध कराई गई निधियों द्वारा सारभूत रूप से वित्तपोषित है।

हिंदी का बढ़िया ज्ञान रखने वालों को भी यह भाषा अजनबी लग सकती है। अभिप्रेत या सारभूत जैसे शब्द शायद ही कोई आम व्यवहार में इस्तेमाल करता हो। ऐसे में इसे समझना दूर की बात है। यही वजह है कि हमने तय किया कि एक बार इसी हिस्से के अंग्रेजी संस्करण को भी देख लिया जाए। वहां इसे इस तरह लिखा गया है:

“public authority” means any authority or body or institution of self-government established or constituted by notification issued or order made by the appropriate Government, and includes any— (i) body owned, controlled or substantially financed; (ii) non-Government organisation substantially financed directly or indirectly by funds provided by the appropriate Government।”

भारतीय संसद_हिंदी में कानून
अगर कानूनों को सरल भाषा में लिखा जाए तो एक साधारण व्यक्ति इसे सीधे पढ़कर इस पर अपनी कोई स्वतंत्र राय बना सकता है। | चित्र साभार: विकीमीडिया कॉमन्स

साफ है कि साधारण सी अंग्रेजी जानने वाले के लिए भी इसे समझना मुश्किल नहीं है। लेकिन हिंदी में इस बात को जिस तरह से लिखा गया है उसके चलते साधारण तो क्या, असाधारण हिंदी ज्ञान वाला भी चकरा सकता है। इसी बात को थोड़ा समझ में आने वाली हिंदी में कुछ-कुछ इस तरह भी लिखा जा सकता था:

“लोक प्राधिकार यानी पब्लिक अथॉरिटी का अर्थ है कोई भी ऐसी संस्था, संगठन या संस्थान जिसकी स्थापना सरकार के किसी आदेश से हुई हो। इसमें ऐसी संस्थाएं शामिल हैं जिनका मालिकाना हक सरकार के पास हो या सरकार का उन पर नियंत्रण हो या फिर उनके खर्च का एक बड़ा हिस्सा सरकार देती हो। ऐसी गैर-सरकारी संस्थाओं को भी लोक प्राधिकार यानी पब्लिक अथॉरिटी माना जाएगा जिनके खर्च का एक बड़ा हिस्सा सरकार से आता हो, भले ही यह पैसा उन्हें सीधे (प्रत्यक्ष) मिले या फिर किसी दूसरे तरीके (अप्रत्यक्ष) से।”

दिलचस्प बात यह है कि आरटीआई कानून में ही इस कानून को आम लोगों के लिए सरल भाषा में सुलभ बनाने की जरूरत बताई गई है। इसके अध्याय 6 के खंड 26 (2) में कहा गया है कि कानून लागू होने के 18 महीनों के भीतर सरकार एक ऐसी मार्गदर्शिका यानी गाइड लाए। इसमें कानून से जुड़ी सारी जानकारियां राजभाषा में इस तरह लिखी हुई हों कि वे आसानी में समझ में आ जाएं, क्योंकि इस कानून के तहत किसी अधिकार का इस्तेमाल करने वाले को इसकी जरूरत पड़ सकती है। लेकिन यह बात ही ज्यादातर लोगों के सिर के ऊपर से निकल जाने वाली बोझिल हिंदी में इस तरह से लिखी हुई है:

“समुचित सरकार इस अधिनियम के प्रारंभ से अठारह मास के भीतर, अपनी राजभाषा में, सहज व्यापक रूप और रीति से ऐसी सूचना वाली एक मार्गदर्शिका संकलित करेगी, जिसकी ऐसे किसी व्यक्ति द्वारा युक्तियुक्त रूप में अपेक्षा की जाए, जो अधिनियम में विनिर्दिष्ट किसी अधिकार का प्रयोग करना चाहता है।”

कानून के अंग्रेजी संस्करण में यही बात इस तरह कही गई है:

“The appropriate Government shall, within eighteen months from the commencement of this Act, compile in its official language a guide containing such information, in an easily comprehensible form and manner, as may reasonably be required by a person who wishes to exercise any right specified in this Act।”

इस उदाहरण से फिर साबित होता है कि अंग्रेजी के साधारण ज्ञान से भी आरटीआई कानून को समझा जा सकता है, लेकिन हिंदी के मामले में ऐसा नहीं है। और यह मामला सिर्फ आरटीआई तक सीमित नहीं है। बाकी कानूनों का भी कमोबेश यही हाल है।

भारत एक लोकतंत्र है। लोक, तंत्र से जिन तंतुओं के जरिये जुड़ता है उनमें देश के कानून भी शामिल हैं। भारत में सबसे ज्यादा लोग हिंदी बोलते हैं। लेकिन जिस हिंदी में ये कानून लिखे गए हैं वह इन्हें उसी जनता से दूर देती है जिसके लिए ये कानून बने हैं। दिल्ली हाई कोर्ट में वकालत करने वाले गौरव जैन कहते हैं ‘जाहिर सी बात है कि कानून को बरतने की बात तो तब होगी जब कानून समझ में आएगा। चूंकि ऐसा नहीं है तो कानून का मतलब समझने के लिए लोग या तो वकीलों पर निर्भर होते हैं या सामाजिक कार्यकर्ताओं पर या फिर मीडिया पर। लेकिन इसके बाद भी अक्सर कानून लोगों के लिए अबूझ के अबूझ ही रहते हैं।’ वे आगे कहते हैं कि दिलचस्प यह भी है कि इनमें से कुछ कानून तो ऐसे हैं जो इसी यानी 21वीं सदी में वजूद में आए हैं। इसके बावजूद इनकी भाषा न जाने किस बीती सदी की है।

बात को आगे बढ़ाते हुए कुछ और ऐसे कानूनों और उनकी हिंदी को देखते हैं जो हाल के समय में बने हैं और जिन्हें क्रांतिकारी बताया गया है। ये कानून आम लोगों की जिंदगी की बुनियादी और बेहद अहम जरूरतों से जुड़े हुए हैं।

सबसे पहले नि:शुल्क और अनिवार्य बाल शिक्षा का अधिकार कानून की बात। 2009 में बना यह कानून छह से 14 साल की उम्र वाले हर बच्चे को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार देता है। इसमें प्रावधान है कि सरकारी स्कूलों को इस आयु वर्ग के सभी बच्चों को मुफ्त में शिक्षा देनी होगी और निजी स्कूलों को कम से कम 25 फीसदी बच्चों के मामले में ऐसा करना होगा।

इस कानून के अध्याय एक के खंड 2 (घ) में कहा गया है:

‘अलाभित समूह का बालक से अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, सामाजिक रूप से और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्ग या सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, भौगोलिक, भाषाई, लिंग या ऐसी अन्य बात के कारण, जो समुचित सरकार द्वारा, अधिसूचना द्वारा, विनिर्दिष्ट की जाए, अलाभित ऐसे अन्य समूह का कोई बालक अभिप्रेत है।’

अब देखते हैं कि कानून के अंग्रेजी संस्करण में यह प्रावधान किस तरह लिखा हुआ है:

“child belonging to disadvantaged group” means a child belonging to the Scheduled Caste, the Scheduled Tribe, the socially and educationally backward class or such other group having disadvantage owing to social, cultural, economical, geographical, linguistic, gender or such other factor, as may be specified by the appropriate Government, by notification;

क्या इसे पढ़ने में किसी अंग्रेजी भाषी या साधारण सी अंग्रेजी जानने वाले को भी कोई तकलीफ हो सकती है। लेकिन हिंदी में यह बात जिस तरह से कही गई है उसे समझने के लिए किसी ठेठ हिंदी इलाके का कोई व्यक्ति भी कई बार शब्दकोश देखने के बाद अपना सर पकड़ सकता है। इसे इस तरह की भाषा में भी लिखा जा सकता था:

‘वंचित तबके से ताल्लुक रखने वाले बच्चे’ से मतलब है ऐसा बच्चा जो अनुसूचित जाति, जनजाति, सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग या फिर इसी तरह के किसी अन्य ऐसे समूह से हो जो सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, भौगोलिक, भाषाई, लैंगिक या फिर किसी अन्य कारण (जो सरकार द्वारा तय हों) के चलते वंचित रहा हो।’

इसी तरह अध्याय तीन के खंड 8 (क) में सरकार के कर्तव्यों का जिक्र करते नि:शुल्क और अनिवार्य बाल शिक्षा का अधिकार में कहा गया है:

‘समुचित सरकार प्रत्येक बालक को निशुल्क और अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा उपलब्ध कराएगी। परंतु जहां किसी बालक को, यथास्थिति, उसके माता-पिता या संरक्षक द्वारा, समुचित सरकार या किसी स्थानीय प्राधिकारी द्वारा स्थापित, उसके स्वामित्वाधीन, नियंत्रणाधीन या प्रत्यक्षतः या अप्रत्यक्षतः उपलब्ध कराई गई निधियों द्वारा सारवान् रूप से वित्तपोषित विद्यालय से भिन्न किसी विद्यालय में प्रवेश दिया जाता है, वहां ऐसा बालक या, यथास्थिति, उसके माता-पिता या संरक्षक ऐसे अन्य विद्यालय में बालक की प्राथमिक शिक्षा पर उपगत व्यय की प्रतिपूर्ति के लिए कोई दावा करने का हकदार नहीं होगा।’

अंग्रेजी में इसे ऐसे लिखा गया है:

‘The appropriate government shall provide free and compulsory elementary education to every child:

Provided that where a child is admitted by his or her parents or guardian, as the case may be, in a school other than a school established, owned, controlled or substantially financed by funds provided directly or indirectly by the appropriate Government or a local authority, such child or his or her parents or guardian, as the case may be, shall not be entitled to make a claim for reimbursement of expenditure incurred on elementary education of the child in such other school।’

इसे सरल हिंदी में इस तरह भी लिखा जा सकता था:

‘सरकार हर बच्चे के लिए मुफ्त और अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा की व्यवस्था करेगी। लेकिन यदि किसी बच्चे को उसके माता-पिता या अभिभावक ने किसी ऐसे स्कूल में भर्ती कराया है जो सरकार या किसी स्थानीय प्राधिकरण द्वारा स्थापित, नियंत्रित या वित्तपोषित नहीं है तो ऐसा बच्चा या उसके माता-पिता या संरक्षक सरकार से उस स्कूल में बच्चे पर हुए खर्च के भुगतान का दावा नहीं कर सकते।’

मनरेगा यानी महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना भी हाल के समय का एक ऐसा कानून है जिसे ऐतिहासिक कहा जाता है। इसकी वजह यह है कि यह ग्रामीण इलाकों में हर परिवार के बालिग सदस्यों को साल में कम से कम 100 दिन के रोजगार की गारंटी देता है। लेकिन इसकी भाषा भी जटिलता, अस्पष्टता और बोझिलता से मुक्त नहीं है। उदाहरण के लिए इसके अध्याय दो के खंड 3(1) में कहा गया है:

‘यथा अन्यथा उपबन्धित के सिवाय, राज्य सरकार में ऐसे ग्रामीण क्षेत्र में जो केन्द्रीय सरकार द्वारा अधिसूचित किया जाये, प्रत्येक गृहस्थी को, जिसके वयस्क सदस्य अकुशल शारीरिक कार्य करने के लिये स्वेच्छा से आगे आते हैं, इस अधिनियम के अधीन बनाई गई स्कीम के अनुसार किसी वित्तीय वर्ष में सौ दिनों से अन्यून के लिये ऐसा कार्य उपलब्ध कराएगी।’

कानून के अंग्रेजी संस्करण में इसे इस तरह लिखा गया है:

‘Save as otherwise provided, the State Government shall, in such rural area in the State as may be notified by the Central Government, provide to every household whose adult members volunteer to do unskilled manual work not less than one hundred days of such work in a financial year in accordance with the Scheme made under this Act।’

इसे सरल हिंदी में इस तरह लिखा जा सकता था:

‘इस कानून के तहत राज्य सरकार, केंद्र सरकार द्वारा अधिसूचित ग्रामीण क्षेत्र में हर परिवार के ऐसे बालिग सदस्यों को रोजगार देगी जो इसके लिए तैयार हों। यह रोजगार एक वित्तीय वर्ष में कम से कम 100 दिनों का होगा और इसके लिए किसी विशेष हुनर की आवश्यकता नहीं होगी। रोजगार इस कानून के तहत बनी योजना के मुताबिक दिया जाएगा।’

वैसे दिलचस्प बात यह भी है कि केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्रालय और और मनरेगा कानून की हिंदी वेबसाइटों पर इस कानून की हिंदी की प्रति उपलब्ध नहीं है। ऐसा ही कुछ शिक्षा का अधिकार कानून के बारे में भी कहा जा सकता है।

अब राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून की बात करते हैं। इसे 2013 में बनाया गया था। इसकी शुरुआत में ही इसके उद्देश्य के बारे में कहा गया है:

‘जनसाधारण को गरिमामय जीवन व्यतीत करने के लिए सस्ती कीमतों पर पर्याप्त मात्रा में क्वालिटी खाद्य की सुलभ्यता को सुनिश्चित करके, मानव जीवन चक्र के मार्ग में खाद्य और पोषण संबंधी सुरक्षा और उससे संबंधित या उसके अनुषंगिक विषयों का उपबंध करने के लिए अधिनियम।’

साफ है कि बेवजह की जटिलता की परंपरा यहां भी निभाई गई है। अब कानून में दर्ज इसी बात को अंग्रेजी में देखते हैं:

‘An Act to provide for food and nutritional security in human life cycle approach, by ensuring access to adequate quantity of quality food at affordable prices to people to live a life with dignity and for matters connected therewith or incidental thereto।’

सवाल यह है कि क्या हिंदी में इसे ऐसे किसी आसान तरीके से नहीं लिखा जा सकता था?

‘यह क़ानून लोगों को उनके जीवन के हर पड़ाव पर पर्याप्त मात्रा में अच्छा और सस्ता भोजन देकर उन्हें सम्मान के साथ जीने का हक़ देने और उससे जुड़ी अन्य ज़रूरी बातों का प्रबंध करने के लिए बनाया गया है।’

कानून को बेवजह पेंचीदा बनाने के ऐसे कितने ही उदाहरण दिए जा सकते हैं। लोकतंत्र में कानून का शासन सबसे ऊपर होता है। कहा जाता है कि कानून का पालन सबको करना होगा और इससे कोई यह कहकर नहीं बच सकता कि उसे कानून के बारे में पता नहीं था। इसके अलावा, यह बात भी सच है कि लोगों की कानूनी जागरूकता को बढ़ाकर ही उन्हें और नतीजतन लोकतंत्र को सशक्त बनाया जा सकता है। यानी लोकतंत्र के सशक्तिकरण के लिए सामाजिक और आर्थिक विकास के साथ नागरिकों की कानूनी जागरूकता का विकास भी जरूरी है। लेकिन जागरूकता कैसे बढ़ेगी जब कानून ऐसी अबूझ हिंदी में लिखे गए हों? नागरिकों के लिए बने इन कानूनों की भाषा ही उन्हें नागरिकों से दूर कर रही है।

भारत में हुई 2011 की जनगणना में करीब 53 करोड़ लोगों ने हिंदी को अपनी पहली भाषा बताया था जबकि अंग्रेजी के मामले में यह आंकड़ा ढाई लाख ही था। अंग्रेजी को दूसरी भाषा के रूप में जानने वालों का 8।3 करोड़ लोगों का आंकड़ा भी मिला दें तो भी यह संख्या हिंदी से कहीं पीछे ठहरती है। भारत में अंग्रेजी आपको एक विशेषाधिकार देती है और इसलिए इसे प्रभुत्व की भाषा माना जाता है। ऐसे में कानूनों की हिंदी में लिखाई के मामले में यह भेद कुछ लोगों को इस प्रभुत्व को बनाए रखने की कोशिश जैसा भी लग सकता है।

राजस्थान के समाजसेवी हिमांशु सोलंकी कहते हैं, ‘कानून बनाने वालों को शायद यह लगता है कि अगर आम आदमी की समझ में ये सारे कानून आने लगे तो उनके लिए बड़ी मुसीबत खड़ी हो जाएगी। फिर उन्हें अपने अधिकार पता चल जाएंगे और उनके लिए लड़ना भी आ जाएगा। इसके अलावा अगर यह समस्या देश के अंग्रेजी पढ़ने-बोलने वाले संपन्न लोगों की होती तो इसका उपचार अब तक हो गया होता। फिर देश की सबसे बड़ी अदालतें भी तो अंग्रेजी में ही काम करती हैं। ऐसे में कौन इस बात को उठाएगा और कौन इसे उतनी गंभीरता से लेगा?’

हिमांशु की बात सही है। संविधान के मुताबिक भारत का सुप्रीम कोर्ट केवल अंग्रेजी में ही काम करता है। हालांकि संविधान और राजभाषा अधिनियम 1963 के मुताबिक राज्यपाल अपने राज्य के हाई कोर्टों में अंग्रेजी के साथ-साथ दूसरी भाषाओं का इस्तेमाल भी सुनिश्चित कर सकते हैं। उदाहरण के तौर पर उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश और राजस्थान के उच्च न्यायालयों में हिंदी का उपयोग जा सकता है। लेकिन धरातल पर ऐसा होता बहुत कम ही है।

इलाहाबाद हाई कोर्ट के एक अधिवक्ता इस संबंध में बताते हैं कि ऐसा पूरी तरह कानूनी होने के बाद भी इसलिए नहीं किया जाता क्योंकि मान्यता यह है कि उन वकीलों के बारे में न्यायाधीशों की धारणा कुछ ज्यादा अच्छी नहीं होती जो उतनी अच्छी अंग्रेजी नहीं बोल पाते हैं।

अंत में एक बार फिर से आरटीआई एक्ट पर आते हैं। इस कानून के तहत बने केंद्रीय सूचना आयोग ने मई, 2015 में एक आदेश में कहा था कि अगर कानून लोगों के लिए सहज और समझ में आने वाली भाषा में उपलब्ध नहीं हों तो किसी भी सरकार को उनसे इनके पालन की अपेक्षा नहीं करनी चाहिए। इस टिप्पणी को 10 साल हो चुके हैं। 11 साल पुरानी आज की सरकार अंग्रेज़ी से ज्यादा हिंदी बोलती और समझती है, फिर भी मामला जस का तस ही है।

चलते-चलते, एक और कमाल की बात – अल्पसंख्यक मामलों की वेबसाइट पर वक्फ अधिनियम और वक्फ संशोधन अधिनियम दोनों मौजूद हैं। लेकिन मनरेगा और शिक्षा का अधिकार कानून की तरह यहां भी वेबसाइट के हिंदी संस्करण पर ये दोनों कानून अंग्रेजी में ही मिलते हैं। और यहां पर Acts की हिंदी क्या लिखी हुई है? – ‘क्रियाएं’। अब आप चाहें तो हिंदी के प्रसार में अपना योगदान न देने के लिए तमिलनाडु को जी भरकर कोस सकते हैं।

यह लेख मूलरूप से सत्याग्रह.कॉम पर प्रकाशित हुआ था।

बुंदेलखंड की चप्पल प्रथा: स्वाभिमान की कीमत पर सम्मान

ललितपुर जिले में सदियों से पुरुषों के सामने चप्पल पहनकर निकलना महिलाओं के लिए बड़ी समस्या रही है। जब खेत जाती हैं तो चप्पल पहन लेती हैं लेकिन गांव के अंदर आते ही चप्पल उतार लेती हैं, ताकि मर्यादा भंग न हो। गांव में कोई महिला चप्पल नहीं पहनती। जहां एक तरफ महिलाएं पुरुषों से कंधे से कंधा मिलाकर काम कर रही हैं, वहीं इस गांव में आज भी महिलाएं इस प्रथा के बोझ तले खुद को दबी महसूस कर रही हैं।

उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड इलाके के ललितपुर जिले के ज्यादातर गांव में चप्पल प्रथा चलती चली आ रही है। इस तरह की कुप्रथा को खत्म करने के लिए ना तो किसी राजनेता ने अपने एजेंडे में शामिल किया, न ही यह मुद्दा प्रशासन के लिए मायने रखता है जो बाद में हिंसा का रूप ले लेता है। इससे जुड़ी हुई परेशानियों को प्रशासन देखते हुए भी आंख बंद करे बैठा रहता है। 20 साल से ललितपुर जिले के महरौनी में स्थापित है सहजनी सिक्षा क्रेंद्र, जन शिक्षा केंद्र की कार्यकर्ताओं ने इस कुप्रथा को खत्म करने के लिए बड़े-बड़े आंदोलन और रैलियां निकाली। दलित महिलाओं को जागरूक किया। इसके बाद भी अभी बहुत से ऐसे गांव हैं जहां अभी-भी यह चप्पल प्रथा चल रही है। रोड से सटे हुए गांवो से चप्पल प्रथा खत्म हो गई है लेकिन जो अभी भी अंदर दूर-दराज के गांव हैं, वहां पर अभी भी ये प्रथा चल रही है।

क्या है यह चप्पल प्रथा?

चप्पल प्रथा – जिन गांवों में उच्च जाति के माने जाने वाले लोग होते हैं और दलित लोग भी वहां हैं तो दलित समुदाय की महिलाएं चप्पल पहन के उच्च जाति के दरवाजे से नहीं निकल सकती हैं। अगर वे बाहर कहीं बैठे हैं तो भी उन्हें चप्पल हाथ में लेकर चलना होता है। अगर दलित महिलाएं चप्पल पहन के उच्च जाति के दरवाजे से या उनके सामने से निकलती हैं तो समाज में ऊंची जाति के माने जाने वाले लोग महिलाओं से तो कुछ नहीं करते लेकिन उनके पुरुषों से शिकायत करते हैं कि तुम्हारी बीवी की इतनी हिम्मत, तुम्हारी बहन की इतनी हिम्मत, चप्पल पहन के यहां से निकल गई। तुम्हारी बहू ने हमारा सम्मान नहीं किया और उसकी इतनी हिम्मत हो गई हमारे दरवाजे से चप्पल पहन कर जाएगी, हमारा सम्मान नहीं करेगी, हमारी इज्जत नहीं की, हमें अपमानित कर दिया। इसके बाद में आकर पुरुष अपने घर की महिलाओं को डांटते हैं और चप्पल उतार के चलने को कहते हैं।

ललितपुर जिले के मडावरा ब्लॉक के ग्राम पंचायत नीमखेड़ा की रहने वाले भगवती ने जब 2016 में चप्पल प्रथा के खिलाफ आवाज उठाई तो उन्हें भी बहुत-सी चुनौतियों का सामना करना पड़ा, बहुत संघर्ष करना पड़ा तब जाकर के भगवती चप्पल प्रथा को अपने गांव में पूरी तरह से खत्म कर पाईं। भगवती ने बताया, उस आंदोलन के बाद मुझे गांव के उच्च जाति के लोग काफी धमकियां देते थे। सीधे से उन्होंने यह नहीं कहा कि यह चप्पल की वजह से वह हमारे साथ ऐसा कर रहे हैं लेकिन वही वजह थी जो उन्होंने हमारे पति को और मुझे मारा, हिंसा की हमारे साथ, प्रताड़ित किया और आज भी उस केस को हम लड़ रहे हैं। एससी-एसटी का मुकदमा कायम हुआ। हमने लड़ाई लड़ी और आज भी हम लड़ाई लड़ने से पीछे नहीं है। साल 2016 से मैं अब तक लड़ाई लड़ती चली आ रही हूं।

भगवती ने बताया यह लड़ाई लड़ने की हिम्मत मुझे सहजनी से मिली। सहजनी शिक्षा केंद्र की मीना दीदी ने हमें जागरूक किया। हमें बताया चप्पल हाथ में लेकर चलने की चीज नहीं है, पैर में पहनी जाती है फिर हमने उनकी बात मानी और उच्च जाति के दरवाजे से चप्पल पहन कर चलने लगे।

अगर इस इलाके में भगवती जैसी महिला हर एक गांव में हो जाए तो हर गांव से यह चप्पल प्रथा खत्म हो सकती है। अभी भी इस हिंसा को सहने का कारण यह है कि बहुत से गांवों में दलित समुदाय, आज भी बंधुआ मजदूर की तरह काम कर रहा है। आज भी वह चमार जाति पर आश्रित हैं। उनके यहां काम मिलेगा तो उन्हें काम (रोजगार) है, उनका घर चल रहा है, उनका चूल्हा जल रहा है वरना उनके पास काम नहीं है। इसी वजह से वे इस दबाव के कारण चप्पल प्रथा को मान रहे हैं और उच्च जाति के माने जाने वाले लोगों के दरवाजे से चप्पल उतारकर चलते हैं।

यह लेख मूलरूप से खबर लहरिया पर प्रकाशित हुआ था।

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अंबेडकर की विचार यात्रा कहां से कहां तक जाती है

हमने सोचा कि क्यों न हमारे संविधान के प्रमुख रचयिता डॉक्टर बीआर अंबेडकर के विचारों को और गहराई से समझा जाये। इस विषय पर पुलियाबाज़ी के लिए हमारे मेहमान हैं, अशोक गोपाल जी जिन्होंने 20 वर्षों की रिसर्च के बाद डॉ अंबेडकर की जीवनी लिखी है। चर्चा के दौरान हम उनके जीवन से जुड़े अनुभव, उनके विचार और समय के साथ उनमें आये बदलाव पर बात करते हैं। चर्चा लंबी है, पर बाबा साहेब जैसे दिग्गज व्यक्ति के जीवन और विचारों को समझने के लिए शायद ये भी काफी नहीं है।

यह पॉडकास्ट मूलरूप से पुलियाबाज़ी.इन पर प्रकाशित हुआ था जिसे आप यहां सुन सकते हैं।

सरकारी आंकड़े जंगलों के क्षेत्रफल के साथ गुणवत्ता की भी बात क्यों नहीं करते?

सरकार द्वारा जारी नए आंकड़ों के मुताबिक भारत में कुल फॉरेस्ट और ट्री कवर 8,27,357 वर्ग किलोमीटर है और देश के भौगोलिक क्षेत्रफल का 25.17 प्रतिशत है। यह बात नई फॉरेस्ट रिपोर्ट (स्टेट ऑफ़ फॉरेस्ट रिपोर्ट – 2023) में कही गई है। फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया द्वारा यह रिपोर्ट हर दो वर्ष में जारी की जाती है लेकिन इस बार इस रिपोर्ट में एक साल की देरी हुई है। पिछली रिपोर्ट 2021 में जारी हुई थी। 

रिपोर्ट की महत्वपूर्ण बातें:

कार्बनकॉपी ने इस रिपोर्ट के बारे में इकोलॉजिस्ट और विधि सेंटर फॉर लीगल पॉलिसी के देबादित्यो सिन्हा से बात की। 

मध्यप्रदेश के जंगल_जंगल
बायोडायवर्सिटी स्वस्थ जंगल का सूचक है क्योंकि वह कई लाखों वर्ष में बन पाई है। | चित्र साभार: विकीमीडिया कॉमन्स
नई रिपोर्ट पर आपकी पहली प्रतिक्रिया क्या है?

जो आंकड़े दिखाते हैं उनसे हमें यह जरूर पता चलता है कि फॉरेस्ट और ट्री कवर बढ़ रहा है। लेकिन जहां एक ओर रिपोर्ट तैयार करने के तरीकों पर बहस होती रहती है वहीं हमें यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि जंगल का क्षेत्रफल कितना है और उस जंगल की गुणवत्ता कैसी है। यह दो अलग-अलग बातें हैं। सरकार ने जंगल और ट्री कवर दोनों के आंकड़े दिये हैं। इसके अलग जंगल कैसा है इसका भी वर्गीकरण होता है और एक श्रेणी नॉन फॉरेस्ट की भी है। अब 2011-2021 के बीच, भारत ने ‘गैर-वन’ यानी नॉन फॉरेस्ट उपयोगों के कारण 30,808 वर्ग किलोमीटर खुले वन और झाड़ियों वाले वनों के साथ-साथ 14,073 वर्ग किलोमीटर मध्यम घने जंगलों और 1,816 वर्ग किलोमीटर घने जंगलों को खो दिया। सरकार ने इन क्षेत्रों से कार्बन पृथक्करण क्षमता (कार्बन सीक्वेस्ट्रेशन पोटेन्शियल) का तो ज़िक्र किया है लेकिन नॉन फॉरेस्ट लैंड में के उपयोगों के बारे में कुछ नहीं बताया है।

जिन राज्यों में जंगलों में सबसे अधिक कमी हुई है उनमें मध्यप्रदेश है जो सर्वाधिक फॉरेस्ट और ट्री कवर वाला राज्य है और जलवायु परिवर्तन के लिहाज़ से बहुत संवेदनशील लद्दाख भी है। इसे कैसे देखते हैं? 

देखिये यह इलाके जल संरक्षण या जल धारण के लिहाज से महत्वपूर्ण हैं क्योंकि ग्लेशियरों से ही नहीं पानी जंगलों से भी आता है और जंगल पानी को सोखते हैं और धीरे-धीरे छोड़ते हैं। जैसे जैसे जंगल खत्म होंगे हमारी बाढ़ की संभावना बढ़ेगी। इसी कारण हम देख रहे हैं कि अब भूस्खलन की घटनायें भी बढ़ रही हैं क्योंकि हमने प्राकृतिक वेजिटेशन को बहुत खराब कर दिया है। अब उत्तर-पूर्व के राज्यों में जंगलों का बड़ा हिस्सा समुदायों के पास भी है। वहां नॉन फॉरेस्ट एक्टिविटी भी होती है। सरकार ने यह नहीं बताया है कि इन क्षेत्रों में जंगल किस कारण कम हुए हैं। मेरा मानना है कि विकास परियोजनाओं के लिए भूमि दिये जाने से यह वनक्षेत्र घटा है। इस रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि हिमालयी राज्यों में आग की घटनायें 10 से 15 गुना बढ़ गई हैं जो एक अतिरिक्त चिन्ता का विषय है। 

मैंग्रोव जंगल भी घट रहे हैं। क्या जलवायु परिवर्तन के कारण चक्रवाती तूफ़ानों की बढ़ती संख्या और तीव्रता को देखते हुए यह खतरनाक नहीं है?

मैंग्रोव दो ही जगह घटे हैं। एक गुजरात में और दूसरा उत्तरी अंडमान में। गुजरात के कच्छ में मैंग्रोव सबसे अधिक घटा है। मैंग्रोव साइक्लोन से तो बचाव करते ही हैं लेकिन जैवविविधता संरक्षण के लिए भी ज़रूरी हैं लेकिन अच्छी बात है कि बाकी सारे राज्यों ने मैंग्रोव को बढ़ाया है। आंध्र प्रदेश और महाराष्ट्र में अच्छी वृद्धि देखी गई है। 

आपने जैव विविधता की बात की। क्या फॉरेस्ट रिपोर्ट में बायोडायवर्सिटी को विशेष रूप से जगह नहीं मिलनी चाहिए ताकि जंगलों की सेहत का पता चल सके? 

वनों के बहुत सारे फायदे हैं और कार्बन सीक्वेशट्रेशन (कार्बन को सोखने की क्षमता) उसमें से केवल एक लाभ है। यह बात रिसर्च बताती है कि प्राकृतिक और जैव विविधता से भरे केवल वृक्षारोपण कर उगाये गये हरित कवर के मुकाबले कई गुना कार्बन सोखते हैं। वनों के लाभ को इकोसिस्टम सर्विसेज़ के तौर पर देखा जाना चाहिए। हमारे क्लाइमेट रेग्युलेशन और जल सुरक्षा के लिए और समुदायों की जीविका के लिए विशेषरूप से ग्रामीण इलाकों में जहां उद्योग या नौकरियां नहीं हैं लेकिन जंगलों से उन्हें राहत मिल जाती है क्योंकि इससे वह पशुपालन या कृषि जैसी गतिविधियां कर सकते हैं। 

बायोडायवर्सिटी स्वस्थ जंगल का सूचक है क्योंकि वह कई लाखों वर्ष में बन पाई है। कई प्रजातियों को चाहे वह वनस्पति हों या जन्तु, जीवित रहने के लिए एक विशेष पारिस्थितिकी चाहिए। कई एंडेमिक प्रजातियां होती है जो एक खास जगह ही होती हैं और कहीं नहीं। अगर वह स्थिति क्लाइमेट चेंज या किसी अन्य कारण से खत्म हो जायेगी तो वह प्रजातियां भी नष्ट हो जायेंगी। जैसे इसका एक उदाहरण ग्रेट इंडियन बस्टर्ड है। उसका जो मुख्य हैबिटाट दक्षिण के ग्रासलैंड थे जो खत्म हो गये हैं और अब वह कुछ ही जगह में बचा है। इस तरह से बहुत सारी प्रजातियों के साथ संकट है। तो जैव विविधता इस बात का बहुत बड़ा सूचक है कि आपका इकोसिस्टम काम कर रहा है या नहीं।

यह लेख मूलरूप से कार्बनकॉपी.इंफो पर प्रकाशित हुआ था।

घुमंतू और विमुक्त जनजाति के युवाओं के लिए सामाजिक न्याय


विधि – सेंटर फॉर लीगल पॉलिसी के पॉडकास्ट द फेमिनिस्ट सिटी के इस एपिसोड में (एंकर) स्नेहा विशाखा अनुभूति ट्रस्ट की संस्थापक-निदेशक दीपा पवार के साथ बातचीत कर रही हैं। यहां वे अलग-अलग तबके से आने वाले शहरी युवा और शहर में लड़कियों और महिलाओं के सामने आने वाली चुनौतियों पर बात कर रही हैं। इस बातचीत में उन्होंने घुमंतू और विमुक्त जनजाति जैसे वंचित समुदायों की चुनौतियों पर भी बात की है। यहां पर दीपा राइट टू पी कैंपेन का भी ज़िक्र करती हैं और यह भी बताती हैं कि वर्तमान शहरी ढांचा और उसकी कमियां किस तरह से हिंसा, अलगाव और अन्याय को बढ़ाती हैं। इस पॉडकास्ट में उन्होंने शहरी विकास की राजनीति पर भी विचार व्यक्त किए हैं और बताया है कि शहर को बसाने वाले और इसकी हालिया व्यवस्था से फायदा उठाने वाले लोग कौन हैं। यहां पर संवैधानिक ढांचे में मौजूद सामाजिक न्याय के ज़रूरी पहलू के तौर पर मानसिक न्याय पर भी बात की गई है।

यह आलेख मूलरूप से विधि लीगल पॉलिसी पर प्रकाशित हुआ था।

बजट 2025: सामाजिक क्षेत्र के लिए सरकार की 4 नई प्राथमिकताएं

वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण द्वारा पेश किया गया केंद्रीय बजट ऐसे समय में आया है, जब भारत आर्थिक विकास को समावेशी सामाजिक विकास के साथ संतुलित करने की चुनौती का सामना कर रहा है। हालांकि बहस अक्सर राजकोषीय घाटे के लक्ष्य, पूंजी निवेश और कर सुधारों पर केंद्रित होती है, लेकिन सामाजिक क्षेत्र भी समान प्रगति सुनिश्चित करने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। शिक्षा, स्वास्थ्य, पोषण और सामाजिक सुरक्षा में निवेश न केवल कल्याण के लिए, बल्कि मानव पूंजी के निर्माण, असमानता को कम करने और दीर्घकालिक आर्थिक लचीलापन सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक है।

आर्थिक सर्वेक्षण 2024 के अनुसार, वित्तीय वर्ष 2023-24 में कुल सामान्य सरकारी व्यय का 26% सामाजिक क्षेत्र पर खर्च किया गया। हालांकि ज्यादातर सामाजिक कार्यक्रम राज्य सरकारें चलाती हैं, लेकिन केंद्र सरकार महत्वपूर्ण सामाजिक व सार्वजनिक सेवाएं मुहैया कराने और देश के सभी राज्यों में न्यूनतम निवेश सुनिश्चित करने के लिए जिम्मेदार है।

पिछले कुछ सालों में केंद्र सरकार ने सामाजिक क्षेत्र पर खर्च को किस तरह से प्राथमिकता दी है? इसका जवाब पाने के लिए हमने सामाजिक क्षेत्र में केंद्र सरकार के वित्तपोषण के चार प्रमुख रुझानों का विश्लेषण किया।

यहां ‘सामाजिक क्षेत्र’ शब्द का अर्थ शिक्षा, स्वास्थ्य, जल और स्वच्छता, पोषण, सामाजिक सुरक्षा, खाद्य सुरक्षा और ग्रामीण विकास जैसे क्षेत्रों से है। इसमें कौशल विकास, खेल और संस्कृति, आदिवासी और अल्पसंख्यक मामले और शहरी गरीबी उन्मूलन भी शामिल हैं।

केंद्र सरकार के सामाजिक क्षेत्र पर व्यय की गणना ऊपर बताए गए क्षेत्रों से जुड़े 16 मंत्रालयों के व्यय को जोड़कर की गई है। इन मंत्रालयों में शिक्षा, युवा मामले और खेल, संस्कृति, स्वास्थ्य, आयुष, आवास और शहरी कार्य, जल शक्ति, सूचना और प्रसारण, ग्रामीण विकास, सामाजिक न्याय और अधिकारिता, आदिवासी मामले, अल्पसंख्यक मामले, श्रम और रोजगार, कौशल विकास और उद्यमिता, महिला और बाल विकास, उपभोक्ता मामले, खाद्य और सार्वजनिक वितरण शामिल हैं।

विश्लेषण के लिए हमने पिछले 12 वर्षों को देखा है और उन्हें मोटे तौर पर तीन चरणों में विभाजित किया है:

कुल व्यय में घटती हिस्सेदारी

बजट 2025 में केंद्र सरकार का कुल व्यय 7% बढ़ा है। 2024-25 में 47.16 लाख करोड़ रुपये से बढ़कर 2025-26 में यह 50.65 लाख करोड़ रुपये हो गया है। लेकिन, इस बढ़ोतरी का सामाजिक क्षेत्र के आवंटन में समान अनुपात में इजाफा नहीं हुआ। (2024-25 के आंकड़े संशोधित अनुमानों पर आधारित हैं)।

पिछले दस सालों में, केंद्र सरकार के कुल खर्च में सामाजिक क्षेत्र के व्यय का हिस्सा स्थिर बना हुआ है। 2014-15 से 2019-20 के बीच यह हिस्सा औसतन कुल खर्च का 21% और सकल घरेलू उत्पाद (GDP) का 2.8% रहा। 2019-20 से 2024-25 तक भी यही ट्रेंड रहा, हालांकि महामारी से जुड़े खर्चों की वजह से थोड़ा उतार-चढ़ाव आता रहा।

2020-21 में, प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना और महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) के विस्तार से सामाजिक क्षेत्र का खर्च, कुल व्यय का 30% और GDP के 5.3% के सर्वकालिक उच्च स्तर पर पहुंचा गया था। लेकिन उसके बाद से यह हिस्सा लगातार कम होता गया और 2023-24 में 19% (GDP का 2.8%) तक पहुंच गया, जो 2014-15 के स्तर से थोड़ा कम था।

2024-25 में सामाजिक क्षेत्र का हिस्सा 17% तक पहुंच गया, जो पिछले दशक में सबसे कम है और 2025-26 में यह 19% रहने का अनुमान है।

बाजार में व्यवसाय करने बैठी एक महिला—बजट 2025
बजट 2025 को देखकर यह माना जा रहा है कि सामाजिक क्षेत्र पर होने वाला खर्च अब घट गया है। | चित्र सभार: पिक्सल

चिकित्सा और स्वास्थ्य खर्च स्थिर रहा, बुनियादी ढांचा निर्माण को प्राथमिकता दी गई

विभिन्न मंत्रालयों और क्षेत्रों में फंडिंग में बदलाव को समझने के लिए खर्च के रुझानों का दो तरीकों से विश्लेषण किया गया: विभिन्न मंत्रालयों का सापेक्ष हिस्सा और समय के साथ विकास दर।

पहले चरण में, खाद्य सब्सिडी और नागरिक आपूर्ति ने सामाजिक क्षेत्र के खर्च में औसतन 27% हिस्सा लिया, इसके बाद ग्रामीण विकास (22%) और शिक्षा (18%) का स्थान था। दूसरे चरण में, कोविड-19 और उसके बाद की रिकवरी यानी 2019-20 से 2024-25 के बीच, कुछ खर्चों में बदलाव देखा गया।

खाद्य सब्सिडी और नागरिक आपूर्ति ने फिर से सामाजिक क्षेत्र के कुल व्यय में सबसे बड़ा हिस्सा (35%) रखा। लेकिन महामारी के चरम पर होने के बावजूद, चिकित्सा और स्वास्थ्य पर खर्च का हिस्सा घटकर औसतन सिर्फ 10% रह गया। इसी तरह, शिक्षा और ग्रामीण विकास के हिस्से भी घटकर क्रमशः 12% और 20% रह गए।

जल जीवन मिशन और प्रधानमंत्री आवास योजना के माध्यम से सरकार के बुनियादी ढांचे पर ध्यान देने के साथ, सामाजिक क्षेत्र के कुल व्यय में आवास, शहरी विकास, जल और स्वच्छता का हिस्सा बढ़ गया है। 2014-15 से 2019-20 तक यह औसतन 12% था, लेकिन 2019-20 से 2024-25 के बीच बढ़कर 15% हो गया।

2025-26 के लिए, खाद्य सब्सिडी और नागरिक आपूर्ति का अनुमानित हिस्सा 23% है, जो पिछले साल की तुलना में 4 प्रतिशत कम है, फिर भी यह सबसे बड़ा हिस्सा बना हुआ है। ग्रामीण विकास की अनुमानित हिस्सेदारी 20% है, जो पिछले साल से 2 प्रतिशत कम है। दूसरी ओर, आवास, शहरी विकास, जल और स्वच्छता पर अनुमानित व्यय 21% है, जो पिछले साल की तुलना में 6 प्रतिशत अधिक है।

कुछ अहम क्षेत्रों में व्यय की वृद्धि दर धीमी

अगर हम सिर्फ किसी खास क्षेत्र पर व्यय के शेयर (जैसे सामाजिक क्षेत्र का कुल सरकारी व्यय में हिस्सा) को देखें, तो यह समझ पाना मुश्किल हो सकता है कि वास्तव में उस पर खर्च बढ़ रहा है या घट रहा है। वास्तविक प्राथमिकता को समझने का दूसरा तरीका औसत वार्षिक वृद्धि दरों को देखना है।

पिछले दस वर्षों में, सामाजिक क्षेत्र पर व्यय की वृद्धि दर धीमी रही है, जो नीतिगत प्राथमिकताओं में बदलाव को दर्शाती है। जहां 2014-15 से 2019-20 के बीच सामाजिक क्षेत्र के कुल व्यय में औसत वार्षिक वृद्धि दर 8% थी, वहीं 2019-20 से 2024-25 के बीच यह घटकर 4% हो गई। यह धीमी गति बताती है कि सरकार विभिन्न क्षेत्रों पर अपने खर्च की प्राथमिकताओं को बदल रही है – जहां कुछ क्षेत्रों में व्यय में वृद्धि देखी जा रही है, जबकि अन्य कुछ क्षेत्रों में खर्च में कमी देखी जा रही है।

2025-26 के लिए बजट अनुमान में और अधिक बदलाव की संभावना जताई गई है, जिसमें 2024-25 की तुलना में 20% की वृद्धि अपेक्षित है, हालांकि सामाजिक क्षेत्र के आवंटन में वृद्धि के बजाय चालू वित्त वर्ष में व्यय में कमी आएगी।

सामाजिक क्षेत्र के अलग-अलग हिस्सों (जैसे शिक्षा, स्वास्थ्य, आदि) पर होने वाले खर्च की वृद्धि दर समय के साथ बदलती रही है। 2014-15 से 2019-20 के बीच, सामाजिक क्षेत्र के अधिकांश क्षेत्रों में खर्च की वृद्धि दर, पूरे सामाजिक क्षेत्र के खर्च की औसत वृद्धि दर से अधिक थी। लेकिन शिक्षा, कला और संस्कृति (6%) और खाद्य सब्सिडी और नागरिक आपूर्ति (-3%) जैसे कुछ क्षेत्रों में खर्च कम हुआ।

इसके विपरीत, श्रम, रोजगार, और कौशल विकास (26%) और अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, अन्य पिछड़ी जातियां और अल्पसंख्यकों के कल्याण (11%) जैसे क्षेत्रों में खर्च की वृद्धि दरें सबसे ज्यादा थीं। यह दर्शाता है कि उस समय सरकार की नीतियां लक्षित कल्याण और रोजगार से जुड़े हस्तक्षेपों पर जोर दे रही थीं।

2014-15 से 2019-20 के बीच, सामाजिक क्षेत्र के खर्च के पैटर्न में बदलाव आया। शिक्षा, कला, और संस्कृति को छोड़कर, जहां 8% तक मामूली तेजी देखी गई, सामाजिक क्षेत्र के अधिकांश घटकों में खर्च की वृद्धि दर स्पष्ट रूप से धीमी हो गई। विशेष रूप से, चिकित्सा, सार्वजनिक स्वास्थ्य और परिवार कल्याण जैसे क्षेत्रों में व्यय की वृद्धि दर जबरदस्त रूप से घट गई। कोविड-19 काल में, इन क्षेत्रों में व्यय की वृद्धि दर 16% से घटकर 5% हो गई, जो उस समय की मुद्रास्फीति दरों से भी कम थी।

इसी प्रकार, ‘अन्य’ श्रेणी (जिसमें अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, अन्य पिछड़ा वर्ग और अल्पसंख्यकों का कल्याण, श्रम, रोजगार और कौशल विकास, सूचना और प्रसारण, तथा सामाजिक सुरक्षा और कल्याण, और पोषण शामिल हैं) में दोनों चरणों के बीच 11% से 3% तक की महत्वपूर्ण गिरावट देखी गई।

वर्तमान बजट में एक बार फिर आवास, शहरी विकास तथा जल एवं स्वच्छता पर ध्यान केन्द्रित किया गया है, जिसकी वृद्धि दर 70% अनुमानित है। दरअसल इस वित्तीय वर्ष में इन क्षेत्रों में बजट का उपयोग धीमी गति से हुआ है, इसलिए इस साल सरकार इन्हें प्राथमिकता दे रही है।

मुख्य योजना आवंटन वास्तविक रूप से कम रहे

केंद्र सरकार सामाजिक क्षेत्र के वित्तपोषण का एक बड़ा हिस्सा केंद्र प्रायोजित योजनाओं (सीएसएस) के जरिए करती है। पिछले कुछ सालों में, CSS खर्च का 90% से ज्यादा हिस्सा सामाजिक क्षेत्र की ओर था। 2015-16 से ही सीएसएस का डेटा उपलब्ध है।पिछले कुछ सालों में, शिक्षा, स्वास्थ्य, जल और स्वच्छता, महिला और बाल, और ग्रामीण विकास जैसे मंत्रालयों ने सीएसएस व्यय का 80% से अधिक हिस्सा लिया है।

हमने इन मंत्रालयों के अंतर्गत आने वाली 9 योजनाओं के आवंटन का समय के साथ विश्लेषण किया है। हमने यह दो तरीकों से किया: (क) सामान्य संदर्भ में यानी उस समय कुल रुपये के संदर्भ में मापा गया; और (ख) वास्तविक संदर्भ में (जहां राशि/मुद्रास्फीति में हुए बदलाव को ध्यान में रखा गया)।

पहले चरण में, सामान्य संदर्भ में, पीएम पोषण को छोड़कर हर योजना के लिए बजट बढ़ा है। दरअसल, स्वच्छ भारत मिशन-ग्रामीण के लिए सामान्य वृद्धि 25%, मनरेगा के लिए 17% और पीएम आवास योजना-ग्रामीण के लिए 14% थी। इन योजनाओं में, भारत मिशन-ग्रामीण आवंटन लगभग तीन गुना बढ़ गया, जबकि पीएम ग्राम सड़क योजना आवंटन दोगुने से अधिक हो गया।

हालांकि, नौ योजनाओं में से चार के लिए वास्तविक आवंटन कम हुआ, जिसमें समग्र शिक्षा, जल जीवन मिशन (जेजेएम), पीएम पोषण और राष्ट्रीय सामाजिक सहायता कार्यक्रम शामिल थे। 2019-20 और 2024-25 के बीच की अवधि को देखते हुए, JJM को छोड़कर अन्य सभी योजनाओं में आवंटन में कमी देखी गई।

मोटे तौर पर, जिन योजनाओं में वास्तविक रूप से बड़ी कमी देखी गई, वे शिक्षा (समग्र शिक्षा और पीएम पोषण), स्वास्थ्य (एनएचएम), रोजगार (मनरेगा), सामाजिक सुरक्षा (एनएसएपी), ग्रामीण विकास (पीएमजीएसवाय) और प्रत्यक्ष पात्रता (एसबीजीएम) से संबंधित हैं। 2025-26 में, मनरेगा, SBG-Mऔर NSAP के लिए आवंटन स्थिर रहा।

यह लेख मूलरूप से इंडियास्पेंड पर प्रकाशित हुआ था जिसे आप यहां पढ़ सकते हैं।

साल 2024 में विकास के लिहाज से हमने क्या सीखा?

मुद्दों पर बात करते-करते साल कहां निकल गया, पता ही नहीं चला। इसलिए हमने सोचा थोड़ा ठहरकर यह सोचा जाए कि इस साल में किन नए विचारों ने हमें उत्साहित किया। हमने क्या सोचा, क्या सीखा और क्या जाना? बस फिर क्या। हो गयी और एक पुलियाबाज़ी। आप भी सुनिए और हमें बताइये कि आप के लिए इस साल के बड़े टेक-अवे क्या थे? हमने यहां बात की है सामाजिक समस्याओं के समाधान में आने वाली बॉटलनेक, सिस्टम थिंकिंग और इससे जुड़े कई और विषयों पर।

यह पॉडकास्ट मूलरूप से पुलियाबाज़ी.इन पर प्रकाशित हुआ था जिसे आप यहां सुन सकते हैं।

मराठवाड़ा का अपनी तरह का एक अनोखा एकल महिला संगठन

जब शब्द नहीं होते हैं तो बनाने पड़ते हैं! निरंतर पॉडकास्ट के सीरीज ‘एकल इन द सिटी’ में हम शहरों और गांवों की कई एकल आवाज़ों से आपकी मुलाकात करवाते रहे हैं। इस बार एपिसोड 4 में एक आवाज नहीं बल्कि मिलिए मराठवाड़ा, महाराष्ट्र के एकल महिला संगठन से। मतलब, एकल महिलाओं का समूह!

इसका क्या मतलब है? क्या होता है जब एकल, समूह में बदलता है?

एकजुटता, बहनापा और बदलाव की धरातल तैयार होती है, जिसकी जमीन पर खड़े काम, आराम, दोस्ती, ज्ञान, समाधान, अस्तित्व, बंधुता, और अधिकार को समझने और सामूहिक रूप से देखने का नजरिया मिलता है, उसकी पहचान और ताकत विकसित होती है।

‘एकल इन द सिटी’ के एपिसोड 4 में हम आपकी मुलाकात करवा रहे हैं, महाराष्ट्र के मराठवाड़ा इलाके के बीड, नांदेड, तुलजापुर, ओसमानाबाद, शिरगापुर, काईजी और अंबाजोगाई की एकल महिलाओं से जिन्होंने हमें संगठित रूप से जीने एवं खुद के लिए खड़े होने की कहानियों से मोह लिया।

इस एपिसोड को संभव बनाने के लिए हम एकल महिला संगठन की महिलाओं का शुक्रिया अदा करना चाहते हैं जिन्होंने खुलकर हमसे बात की। साथ ही मुम्बई स्थित कोरो संस्था का आभार जिन्होंने संगठन की महिलाओं से हमारी पहचान करवाई। भाषा कोई बाधा न बन सके इसलिए सरल एवं सटीक अनुवाद के लिए अनुवादक विद्या का शुक्रिया। इसके साथ ही सम्पदा का बहुत आभार जिन्होंने अपनी आवाज में मराठी फिल्म ‘केशव’ के गानों को हिन्दी में गाकर पूरे एपिसोड को बांध लिया है। यह सच में एक सामूहिक प्रस्तुति है।

यह लेख मूलरूप से द थर्ड आई पर प्रकाशित हुआ था।

हमारे संविधान में क्या-क्या लिखा है?

क्या आप जानते हैं कि हमारे संविधान में 1.4 लाख से अधिक शब्द हैं और यह दुनिया का सबसे बड़ा लिखित संविधान है। क्या आपने कभी इसे पढ़ने और समझने पर विचार किया है? अगर आपका उत्तर हां है तो यह वीडियो आपको भारतीय संविधान की संरचना और सूची को समझने में मदद करेगा।

यह वीडियो मूल रूप से वी, द पीपल अभियान में प्रकाशित हुआ है।

पैरामीट्रिक बीमा क्या है और क्या यह जलवायु संकट से निपटने में मददगार है?

पिछले दो दशकों यानी साल 2000 से 2019 के बीच भारत कुदरती आपदाओं का सामना करने के मामले में तीसरे नंबर पर है। आने वाले समय और ज्यादा भयावह होने का अनुमान है। कई प्राकृतिक आपदाओं की आवृत्ति और तीव्रता में बढ़ोतरी होने का पूर्वानुमान है। इससे नुकसान और क्षति अरबों अमेरिकी डॉलर तक पहुंच जाएगी। तब राज्य के खजाने में भुगतान करने के लिए शायद पर्याप्त रकम ना हो।

भारत इस वित्तीय खाई को पाटने के लिए नए तरह के बीमा को सावधानी से आजमा रहा है। इसका नाम है पैरामीट्रिक बीमा। जहां नियमित बीमा योजनाएं क्षतिपूर्ति पर आधारित होती हैं या आपदा होने के बाद नुकसान का मूल्यांकन करती हैं, वहीं पैरामीट्रिक बीमा पहले से तय मापदंडों के सेट पर निर्भर करता है, जो पूरा होने पर तुरंत भुगतान शुरू कर देता है। एएक्सए क्लाइमेट के भारत प्रमुख पंकज तोमर ने कहा, “कोई सर्वेक्षण या मूल्यांकन की लंबी अवधि नहीं है, जो कि फर्क का मुख्य बिंदु है।” यह एएक्सए ग्रुप का उपक्रम है जो बदलते मौसम के हिसाब से समाधान बनाने पर काम करता है।

अहमदाबाद के अंबावाड़ी नगरपालिका में 60 साल की निर्माण मजदूर जशीबेन परमार ने कहा कि अब वह लू के चलते अपनी मजदूरी में होने वाले नुकसान की भरपाई उस दिन कर पाई, जब उन्हें स्वरोजगार महिला संघ (एसईडब्ल्यूए-सेवा) के सदस्यों के लिए चल रही पैरामीट्रिक हीट बीमा योजना के तहत 400 रुपये का भुगतान मिला। इस साल गर्मियों में उत्तर और उत्तर-पश्चिम भारत के ज्यादातर हिस्से भीषण गर्मी और रिकॉर्ड तोड़ तापमान की चपेट में थे। उन्होंने मोंगाबे इंडिया को बताया, “मैंने इस पैसे का इस्तेमाल खाने-पीने और घर चलाने में किया।”

सेवा की ओर से चलाया जा रहा यह कार्यक्रम, हाल के सालों में देश में तेजी से फैल रहे अन्य कार्यक्रमों में से एक है। इसमें बाढ़, गर्मी के बढ़ते प्रकोप और नवीन ऊर्जा संयंत्रों में उत्पादकता में कमी जैसी चीजें शामिल की गई हैं।

लेकिन पैरामीट्रिक बीमा के लाभ इस बात पर निर्भर करते हैं कि जोखिम और नुकसान का हिसाब किस तरह लगाया जाता है। पैरामीट्रिक बीमा के साथ भारत का अनुभव अभी शुरुआती स्टेज में है। जानकारों का भी कहना है कि इसे बदलते मौसम के हिसाब से मौजूदा रणनीतियों को बेहतर करना चाहिए, ना कि उनकी जगह लेनी चाहिए।

भारत में पैरामीट्रिक स्कीम

भारत के हर हिस्से में अब प्राकृतिक आपदाओं का आना आम बात हो गया है। सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट की रिपोर्ट के अनुसार, भारत ने 2022 के पहले नौ महीनों में लगभग हर दिन प्राकृतिक आपदाएं देखीं। 2019 और 2023 के बीच, देश को मौसम संबंधी आपदाओं के कारण 56 बिलियन डॉलर का नुकसान हुआ।

भारत में आपदा प्रबंधन के लिए पैसों का इंतजाम आमतौर पर राष्ट्रीय या राज्य आपदा प्रतिक्रिया कोष (एसडीआरएफ) और अंतरराष्ट्रीय सहायता से आता है। राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (एनडीएमए) को केंद्र सरकार से 75 से 90% तक मदद मिलती है, जबकि बाकी बची राशि राज्य सरकार द्वारा दी जाती है। हालांकि, ये फंड हमेशा तुरंत उपलब्ध नहीं हो पाते हैं। कई राज्य सरकारों ने संकट के समय केंद्र सरकार की ओर से फंड जारी करने में देरी को लेकर अदालत का रुख किया है। कोपेनहेगन विश्वविद्यालय में कानून के प्रोफेसर मोर्टन ब्रोबर्ग ने पैरामीट्रिक बीमा पर 2019 के एक पेपर में लिखा कि अंतरराष्ट्रीय मानवीय सहायता एक और उपयोगी तरीका है, लेकिन यह अप्रत्याशित हो सकता है और “देशों के लिए जोखिम में कमी के मूल्य को या खतरों के प्रबंधन में आने वाली लागत को पूरी तरह से समझना मुश्किल हो जाता है।” 

उत्तराखंड में बाढ़ का एक दृश्य_पैरामीट्रिक बीमा
पैरामीट्रिक बीमा पहले से तय मापदंडों के सेट पर निर्भर करता है। | चित्र साभार: विकिमीडिया कॉमन्स/सीसी बीवाय

इसके विपरीत, पैरामीट्रिक बीमा को मौसम में हो रहे बदलाव से निपटने के लिए मददगार टूल के रूप के रूप में देखा जाता है, क्योंकि यह सरकारों को किसी विनाशकारी घटना के बाद संभावित नुकसान का पहले से आकलन करने में मदद करता है। यह पैरामीटर पूरे होने पर बिना किसी रोक के भुगतान करके नकदी का प्रवाह बनाए रखने में भी मदद कर सकता है, जिससे पुनर्वास और बहाली तेजी से हो सकती है।

नागालैंड भारत का पहला ऐसा राज्य है जिसने पैरामीट्रिक बीमा के जरिए भारी बारिश को लेकर अपने पूरे भौगोलिक क्षेत्र का बीमा कराया है। नागालैंड में मानसून के दौरान भारी बारिश होती है और खास तौर पर राज्य के निचले इलाके बाढ़ की चपेट में आ जाते हैं। साल 2017 में, राज्य बाढ़ से तबाह हो गया था जिसमें 22 लोगों की मौत हो गई थी, 7,700 घर पूरी तरह या आंशिक रूप से नष्ट हो गए थे। तब राज्य की एक-तिहाई आबादी बाढ़ से प्रभावित हुई थी। राज्य सरकार की अपनी आपदा सांख्यिकी रिपोर्ट के अनुसार, 2018 और 2021 के बीच पानी और जलवायु संबंधी खतरों की घटनाएं 337 से बढ़कर 814 हो गईं। नागालैंड राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (एनएसडीएमए) के संयुक्त मुख्य कार्यकारी अधिकारी जॉनी रुआंगमेई ने कहा, “नागालैंड छोटा राज्य है और इस तरह की घटनाओं से होने वाला नुकसान सैकड़ों करोड़ में होता है, जिसकी भरपाई अकेले एसडीआरएफ की ओर से नहीं की जा सकती है।”

जहां नियमित बीमा योजनाएं क्षतिपूर्ति पर आधारित होती हैं या आपदा होने के बाद नुकसान का मूल्यांकन करती हैं, वहीं पैरामीट्रिक बीमा पहले से तय मापदंडों के सेट पर निर्भर करता है

आर्थिक रूप से कुछ सबसे कमजोर आबादी वाले मजदूर संघ भी जलवायु परिवर्तन से होने वाले नुकसान से उबरने के लिए पैरामीट्रिक बीमा की तरफ जा रहे हैं। पिछले साल स्व-नियोजित महिला संघ ने एड्रिएन आर्शट-रॉकफेलर फाउंडेशन रेजिलिएंस सेंटर और बीमाकर्ता ब्लू मार्बल के साथ समझौते में गुजरात के चार जिलों में अपने 21,000 सदस्यों के लिए हीट इंश्योरेंस योजना शुरू की थी। इस योजना में तापमान की एक सीमा तय की गई थी। इससे ज्यादा तापमान बढ़ने पर हर सदस्य को भुगतान किया जाएगा। बीमा के साथ-साथ, सेवा ने जलवायु अनुकूलन वाली दूसरी तकनीकों को भी लागू किया, जैसे कि सौर ऊर्जा से चलने वाले वाटर कूलर और लचीलापन बढ़ाने के लिए तिरपाल शीट उपलब्ध कराना। सेवा में वेलनेस प्रोग्राम समन्वयक साहिल हेब्बार ने कहा, “2022 में लू के दौरान हमारे कितने सदस्यों को अपना वेतन खोना पड़ा, यह देखने के बाद समाधान खोजना जरूरी था।” केरल में राज्य का सहकारी दुग्ध विपणन संघ केसीएमएमएफ, अपने डेयरी किसानों को गर्मी के कारण कम दूध उत्पादन से होने वाले नुकसान से बचाव के लिए पैरामीट्रिक बीमा का भी इस्तेमाल कर रहा है।

जोखिम का आधार तैयार करने में समस्या

पैरामीट्रिक बीमा योजनाएं समय के साथ किसी दिए गए खतरे की भयावहता और आवृत्ति का अनुमान लगाने के लिए जटिल गणनाओं का इस्तेमाल करती हैं। साथ ही, इसे नुकसान के वाजिब कीमत से जोड़ती हैं, ताकि यह तय किया जा सके कि किस सीमा पर भुगतान शुरू किया जाना चाहिए। ये कारक बीमा कवर की कुल बीमा राशि और लागत (प्रीमियम) भी तय करते हैं। इन सभी गणनाओं के मूल में योजना के तहत आने वाले डेटा का चुनाव करना है।

वारविक विश्वविद्यालय में वैश्विक सतत विकास के एसोसिएट प्रोफेसर निकोलस बर्नार्ड्स ने कहा, “बहुत से विकासशील देशों की सरकारों में अक्सर ऐसे लोगों की संख्या बहुत कम होती है जिनके पास संबंधित गणना करने के लिए खास कौशल हो। असल में जब मॉडल बहुत जटिल होते हैं तो अक्सर इस बात में बहुत पारदर्शिता नहीं होती है कि मॉडल कुछ मामलों में भुगतान क्यों करता है और बाकी मामलों में नहीं।” 

भारी बारिश और बाढ़ का सामना करने के बावजूद, बीमाकर्ता द्वारा नागालैंड में उन सालों के दौरान कभी भी भुगतान नहीं किया गया, जब उसने राज्य में पैरामीट्रिक बीमा को लागू किया गया था। रुआंगमेई ने कहा, “हमें अहसास हुआ कि पैरामीटर बनाने के लिए इस्तेमाल किया गया डेटा जमीन पर देखी गई असलियत से बहुत अलग था, और सीमा बहुत ज्यादा तय की गई थी। इतनी ज्यादा सीमा पर बहुत बड़ा हिस्सा बह जाता और हम जितना कवर किया गया था, उससे ज्यादा खो देते।” 

नागालैंड ने 2021 से 2023 तक बीमाकर्ता के रूप में टाटा एआईजी और फिर से बीमा करने वाले के तौर पर स्विस रे (जिस पर बीमाकर्ता अपने खुद के जोखिम स्थानांतरित कर सकता है) के साथ पायलट पैरामीट्रिक बीमा समझौता किया। राज्य सरकार ने लगभग पांच करोड़ रुपये के कवरेज के लिए लगभग 70 लाख रुपये के सालाना प्रीमियम का भुगतान किया जिसमें ट्रिगर सीमा शुरू में 290 और 350 मिमी बारिश के बीच तय की गई थी। समझौते में इस्तेमाल किया गया डेटासेट नासा समर्थित सीएचआईआरपीएस उपग्रह का था। लेकिन बाद में सरकार को अहसास हुआ कि ये अनुमान भारतीय मौसम विभाग के ग्रिड किए गए डेटासेट के साथ-साथ उसके अपने मौसम स्टेशनों द्वारा कैप्चर किए गए डेटासेट से अलग थे।

पैरामीट्रिक बीमा को मौसम में हो रहे बदलाव से निपटने के लिए मददगार टूल के रूप के रूप में देखा जाता है।

जब नुकसान होता है, लेकिन योजना की सीमा पूरी नहीं होती है तो इस समस्या को आधार जोखिम कहा जाता है। अगर नुकसान को महंगे प्रीमियम के ऊपर वहन करना पड़ता है तो यह संसाधनों पर और ज्यादा दबाव डाल सकता है। बर्नार्ड्स ने कहा, “खासतौर पर जब वाणिज्यिक बीमाकर्ता शामिल होते हैं तो परस्पर विरोधी हितों की समस्या भी होती है। बीमाकर्ता बहुत सटीक रूप से परिभाषित और आदर्श रूप से ज्यादा कठोर शर्तों से लाभान्वित होते हैं। उपयोगकर्ताओं का हित इसके विपरीत होता है। व्यवहार में इन्हें अक्सर बहुत ज्यादा तकनीकी सवालों के रूप में माना जाता है जिसमें बीमा के संभावित खरीदार सीधे तौर पर शामिल नहीं होते हैं।” 

पिछले साल अपने पायलट को खत्म करने के बाद से, एनएसडीएमए ने अपने खुद के मौसम और आपदा के बाद के डेटा की जांच करने और अलग-अलग बीमा मॉडलों का अध्ययन करने में एक साल बिताया, ताकि यह तय किया जा सके कि कौन-से पैरामीटर उसकी जरूरतों के लिए सबसे सही होंगे। इस साल फरवरी में, राज्य सरकार ने एक्सप्रेशन ऑफ इंटरेस्ट जारी किया जिसमें इच्छुक बीमाकर्ताओं से भारी बारिश के खिलाफ राज्य का बीमा करने के लिए आगे आने का आह्वान किया गया। इसमें जोर दिया गया कि वह ऐसा समाधान चाहती है जो “ग्राउंड वेदर स्टेशन डेटा की प्रासंगिकता को ज्यादा से ज्यादा महत्व करेगा।”

रुआंगमेई ने कहा, “हमें प्रमुख बीमा कंपनियों और पुनर्बीमा कंपनियों से कई बोलियां मिलीं, जो दिखाती हैं कि इस तरह के कार्यक्रम को वित्तपोषित करने के लिए बीमा बाजार में दिलचस्पी बढ़ रही है।” नागालैंड द्वारा जून तक लगभग 50 करोड़ रुपये के कवरेज के लिए नए बीमाकर्ता और पुनर्बीमाकर्ता के साथ समझौता करने की संभावना थी। 

सेवा को भी 2023 की गर्मियों में अपने पायलट के दौरान आधार जोखिम की समस्या का सामना करना पड़ा, जब कोई भुगतान शुरू नहीं हुआ। तब से इसने नए साझेदारों क्लाइमेट रेजिलिएंस फॉर ऑल और स्विस रे के साथ मिलकर तापमान की सीमा को ज्यादा उपयुक्त सीमा में समायोजित करने, मापदंडों को ढीला करने और तीन राज्यों – महाराष्ट्र, राजस्थान और गुजरात के पचास हजार सदस्यों तक योजना को बढ़ाने का काम किया है। नए डिजाइन के अनुसार, भुगतान शुरू करने के लिए दिन के तापमान को लगातार दो दिनों तक तापमान सीमा से ऊपर रहना चाहिए, जबकि पायलट में यह तीन दिन था। सबसे कम ट्रिगर सीमा तापमान उदयपुर में 41.5 डिग्री सेल्सियस और सबसे ज्यादा बाड़मेर में 45 डिग्री सेल्सियस था।

हेब्बर ने कहा, “हमें पता चल रहा है कि जिस तापमान पर मजदूर काम करते हैं, वह आमतौर पर उपग्रह या मौसम संबंधी डेटा की ओर से दर्ज तापमान से कहीं ज्यादा होता है। अभी के लिए, हमारा डिजाइन और ट्रिगर सिर्फ दिन के तापमान पर निर्भर करता है, लेकिन भविष्य में हम निश्चित रूप से आर्द्रता और रात के तापमान सहित ज्यादा मापदंडों को एकीकृत करना चाहते हैं।”

आलोचक, जलवायु बीमा की बढ़ती लोकप्रियता को ज्यादा आय वाले देशों द्वारा अपने वित्तीय दायित्वों को निजी क्षेत्र पर डाल देने के तरीके के रूप में देखते हैं। 

लेकिन, इसका दायरा बढ़ाकर भी अकेले पैरामीट्रिक बीमा के लाभ जलवायु परिवर्तन से सबसे ज्यादा पीड़ित लोगों के लिए पर्याप्त नहीं होने की संभावना है। जशीबेन ने इस सीमा को संक्षेप में समझाया। उन्होंने कहा, “हां, मुझे इस योजना से लाभ हुआ है।” “लेकिन मैं गर्मी के कारण 15 दिनों से काम पर नहीं जा पाई और मुझे सिर्फ एक दिन का भुगतान मिला। 400 रुपये ठीक हैं, लेकिन असल में मुझे 4,000 रुपये की जरूरत थी, ताकि मैं जो खो चुकी हूं उसकी भरपाई कर सकूं।” जशीबेन ने कहा कि स्थिर आय नहीं होने से और बहुत ज्याद गर्मी से बढ़ते चिकित्सा बिलों के साथ, वह अपने दोनों बच्चों को स्कूल भेजने के लिए संघर्ष कर रही थी। उन्होंने कहा, “मुझे इस साल अपने खर्चों को पूरा करने के लिए स्थानीय साहूकार से कर्ज लेना पड़ सकता है।”

पैरामीट्रिक बीमा और वैश्विक असमानता

कोपेनहेगन विश्वविद्यालय के ब्रोबर्ग कहते हैं कि 1991 में जब जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन शुरू हुआ था, तभी से जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों से निपटने के लिए बीमा को समाधान माना जाता रहा है। लेकिन हाल के सालों में पैरामीट्रिक बीमा की लोकप्रियता ज्यादा आय वाले देशों की इस इच्छा से बढ़ी है कि वे सबसे बुरे असर का सामना कर रहे निम्न और मध्यम आय वाले देशों में इसे अपनाने में मदद करें।

आलोचक जलवायु बीमा की बढ़ती लोकप्रियता को ज्यादा आय वाले देशों द्वारा अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों के तहत अपने वित्तीय दायित्वों को निजी क्षेत्र पर डाल देने करने के तरीके के रूप में देखते हैं। यूएनएफसीसीसी के तहत 27वें कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टीज (कॉप-27) में वैश्विक नुकसान और क्षति कोष की घोषणा से पहले, ज्यादा आय वाले देशों ने बिगड़ती आपदाओं से निपटने के लिए समाधान के रूप में बीमा की वकालत की थी। पैरामीट्रिक बीमा को डिजाइन करने में कई चरण शामिल होते हैं। साथ ही, बीमाकर्ता ज्यादा जोखिम वहन करते हैं। इस वजह से पैरामीट्रिक बीमा के लिए प्रीमियम अन्य बीमा के पारंपरिक रूपों की तुलना में काफी ज्यादा होता है। नागालैंड और सेवा दोनों ही प्रीमियम की लागत को वित्तपोषित करने में मदद के लिए परोपकार के उद्देश्य से दी जाने वाली आर्थिक मदद पर निर्भर हैं। इन लागतों और सीमाओं ने बराबरी की चिंताओं को भी जन्म दिया है कि किस हद तक निम्न और मध्यम आय वाले देशों के लिए जलवायु परिवर्तन के सबसे बुरे प्रभावों के लिए खुद का बीमा कराना उचित है, भले ही इस समस्या को बढ़ाने में उनकी भागीदारी सबसे कम है।

बर्नार्ड्स ने कहा, “जलवायु नुकसान में सिर्फ विनाशकारी घटनाएं ही शामिल नहीं होती हैं। धीमी गति से होने वाली आपदाएं भी होती हैं, जिनमें काम के दौरान लोगों का गर्मी से जूझना या गर्मी, कीटों या अनियमित बारिश जैसी चीजों के कारण खेती की पैदावार कम होना शामिल है। इससे अक्सर बहुत ज्यादा कर्ज की समस्या और विकट हो जाती हैं। इनमें शायद ही कभी बीमा योग्य एकल घटनाएं शामिल होती हैं। लॉस एंड डैमेज फंड को बाद की घटनाओं की भरपाई करने भी करना चाहिए। या तो जलवायु-लचीले बुनियादी ढांचों और आवासों को वित्तपोषित करके या उदार सामाजिक सुरक्षा जैसी चीजों को लागू करने ऐसा करन चाहिए।” 

पैरामीट्रिक बीमा का भविष्य

भारत में बीमा की पहुंच बहुत कम है तथा प्राकृतिक आपदाओं से होने वाली 90% से ज्यादा दुर्घटनाओं का बीमा नहीं होता है। प्रमुख वैश्विक पुनर्बीमाकर्ता के पूर्व कार्यकारी ने मोंगाबे इंडिया को बताया कि कंपनी ने अलग-अलग आपदाओं के लिए पैरामीट्रिक बीमा लागू करने के प्रस्ताव के साथ कम से कम पांच राज्यों – आंध्र प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, सिक्किम और केरल – से संपर्क किया था, लेकिन उन्हें झिझक का सामना करना पड़ा। पूर्व कार्यकारी ने कहा, “जहां तक बीमा शब्द का सवाल है, तो लोगों में भरोसे की कमी है। राज्य हमेशा बीमा द्वारा भुगतान नहीं किए जाने के किस्से सुनाते हैं, इसलिए सरकारों को यह बताने की जरूरत है कि पैरामीट्रिक बीमा वास्तव में किस तरह काम करता है।”

फिर भी, स्विस रे को उम्मीद है कि भारत में अगले पांच सालों में प्रीमियम में 7.1 प्रतिशत की बढ़ोतरी होगी। नागालैंड के रुआंगमेई को भी उम्मीद है कि जब राज्य अपना नया पैरामीट्रिक बीमा मॉडल लॉन्च करेगा तो बड़े राज्य भी कुछ ऐसा ही करने को तैयार होंगे। “ऐसी योजनाओं को ग्राहक और बीमाकर्ता दोनों के लिए बेहतरीन बनाने की जरूरत है। यह सिर्फ बीमाकर्ता के लाभ के लिए नहीं हो सकता है और यही हम करने की कोशिश कर रहे हैं।”

पैरामीट्रिक बीमा का बाजार भारत में ऐसे समय बन रहा है जब वैश्विक बीमा बाजार जलवायु परिवर्तन के कारण कई बदलावों से गुजर रहा है। अमेरिका में, ऐसी खबरें हैं कि बीमा कंपनियां ज्यादा और अप्रत्याशित जोखिमों के कारण बाजार से निकल रही हैं या अपनी क्षमता कम कर रही हैं।

एकएक्सए क्लाइमेट के तोमर के अनुसार, बीमा कंपनियों के लिए सबसे बड़ी चुनौती यह है कि वे अपने जोखिम मॉडलिंग में जलवायु परिवर्तन के भविष्य के असर को ध्यान में रखें। आमतौर पर, जोखिम मॉडलिंग किसी खास विनाशकारी घटना की वापसी अवधि तय करने के लिए पिछले डेटा का इस्तेमाल करती है। उन्होंने कहा, “पिछले एक दशक में, वापसी अवधि की गणना गड़बड़ा रही है क्योंकि ये घटनाएं ज्यादा बार हो रही हैं।” उन्होंने आगे कहा, “बीमाकर्ताओं और पुनर्बीमाकर्ताओं को अपने मॉडल में जलवायु परिवर्तन के लिए स्पष्ट इनपुट शामिल करने के लिए मजबूर किया जा रहा है, जिसका अनिवार्य रूप से मतलब होगा कि वापसी अवधि की गणना अब सिर्फ पिछले डेटा पर आधारित नहीं है। इसका ना सिर्फ कीमत पर बल्कि जोखिम और बीमाकर्ता इसे वहन करने के लिए तैयार हैं या नहीं, इस पर भी बहुत बड़ा असर पड़ सकता है।”

अर्ष्ट-रॉक फाउंडेशन की वैश्विक नीति और वित्त की उप निदेशक निधि उपाध्याय ने कहा कि भारत में बढ़ते जलवायु प्रभावों के मद्देनजर पैरामीट्रिक बीमा की पहुंच बढ़ रही है, लेकिन यह एकमात्र समाधान नहीं हो सकता है। उन्होंने सेवा की पायलट योजना को डिजाइन करने में मदद की थी।

उन्होंने कहा, “हमारा तरीका इस बात पर विचार करता है कि जोखिम हस्तांतरण – बीमा भाग – को जोखिम में कमी के साथ किस तरह जोड़ा जाए, ताकि गर्मी से निपटने को सुलभ और न्यायसंगत बनाया जा सके। खास तौर पर भारत में, अनौपचारिक क्षेत्र बहुत बड़ा है और औपचारिक रोजगार के बुनियादी ढांचे के बाहर बीमा कवरेज को बढ़ाना चुनौतीपूर्ण हो सकता है। इसे और अधिक किफायती बनाने के लिए इसका दायरा बढ़ाना अहम है। लंबी अवधि में, इस तरह की पहल को सरकारी सामाजिक सुरक्षा कार्यक्रम या इसी तरह के तहत शुरू करने की जरूरत है, जो भारत के अनौपचारिक क्षेत्र को कवर करता है।”

यह लेख मूलरूप से मोंगाबे डॉट कॉम पर प्रकाशित हुआ था।