पिछले कई वर्षों से जलवायु में लगातार असामान्य और चरम बदलाव देखे जा रहे हैं— जैसे तीव्र गर्मी, अचानक बाढ़ और गंभीर सूखा। ये स्पष्ट संकेत हैं कि धरती पर संकट गहरा रहा है। भारत जैसे देश में, जहां अर्थव्यवस्था बहुत हद तक खेती पर निर्भर करती है, उसके लिए जलवायु परिवर्तन अब एक दूर […]
भारत में विकलांगता से जुड़े मुद्दों को मीडिया में अक्सर नजरअंदाज किया जाता है। सीमित संसाधन, समाचार संस्थाओं की कमी और पर्याप्त संपादकीय सलाह की कमी के चलते यह विषय मुख्यधारा की खबरों में शायद ही कभी जगह बना पाता है। लेकिन भारत में करोड़ों विकलांग व्यक्तियों के लिए निष्पक्ष और सटीक रिपोर्टिंग, सामाजिक बहिष्कार […]
नेशनल मेंटल हेल्थ सर्वे 2015-16 के मुताबिक, भारत में हर छठे व्यक्ति को किसी न किसी तरह की मानसिक स्वास्थ्य सहायता की जरूरत है। लेकिन देश में मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच अभी भी सहज नहीं है। अलग-अलग मानसिक स्थितियों के लिए यह कमी 70 से 92 प्रतिशत के बीच देखी गई है। मानसिक स्वास्थ्य […]
कॉमन्स की अवधारणा इस विचार पर आधारित है कि कुछ संसाधन निजी स्वामित्व में नहीं हो सकते हैं। ये संसाधन मानव जीवन, संस्कृति और पारिस्थितिकी तंत्र का आधार होते हैं और इन पर पूरे समुदाय का अधिकार होना चाहिए। जैसे, हवा या समुद्र पर किसी एक व्यक्ति का स्वामित्व नहीं हो सकता है क्योंकि ये […]
यूनीसेफ बच्चों पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को आंकने के लिए क्लाइमेट रिस्क इंडेक्स जारी करता है। कुल 163 देशों की इस सूची में भारत 26वें स्थान पर है। एक अनुमान के मुताबिक, हर साल देश के 2.4 करोड़ बच्चे चक्रवात, बाढ़, लू और जलवायु से जुड़ी अन्य आपदाओं से प्रभावित होते हैं। मानव गतिविधियों […]
हालिया वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम इंडेक्स में भारत ने 180 देशों में 159वां स्थान पाया है। इस रैंकिंग के चलते, एक बार फिर यह बात चर्चाओं में है कि भारत में पत्रकारिता करना पहले से कहीं ज्यादा मुश्किल हो गया है। तो, कई बार इस पर भी बहस होती है, “भारत जैसे बड़े लोकतंत्र को भला […]
विकास सेक्टर में तमाम प्रक्रियाओं और घटनाओं को बताने के लिए एक खास तरह की शब्दावली का इस्तेमाल किया जाता है। आपने भी ऐसे कुछ शब्दों और उनके इस्तेमाल को लेकर असमंजस का सामना भी किया होगा। इसी असमंजस को दूर करने के लिए हम एक ऑडियो सीरीज ‘सरल-कोश’ लेकर आए हैं, जिसमें हम आपके […]
साहित्य केवल मनोरंजन का साधन नहीं है, बल्कि यह समाज का दर्पण भी है। भारतीय समाज में जातिवाद और सामाजिक भेदभाव को समझने के लिए साहित्य एक संवेदनशील और प्रभावशाली माध्यम बन सकता है, विशेषकर उन लोगों के लिए जो सामाजिक और विकास क्षेत्र में कार्यरत हैं। अगर आप विकास क्षेत्र में प्रत्यक्ष रूप से […]