हम यूथ फॉर यूनिटी एंड वॉलंटरी एक्शन (युवा) संस्था के अंतर्गत महाराष्ट्र के 21 जिलों में अनुभव शिक्षा केंद्र नामक एक युवा-केंद्रित कार्यक्रम चलाते हैं। अनुभव शिक्षा केंद्र, नए-नए तरीकों से शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों के वंचित समुदाय के युवाओं में लीडरशिप का निर्माण करता है।
शहरी क्षेत्रों में रहने वाले युवाओं के साथ बातचीत में हमने पाया कि बहुत से ऐसे हैं जिनमें नौकरी ढूंढने से जुड़े कामों में अधिक संघर्ष और तनाव के कारण आत्मविश्वास की काफी कमी होती है।
चूंकि शहरी युवाओं के लिए रोजगार एक बड़ी चिंता है, इसलिए युवा संस्था उन्हें नौकरी के लिए रेफरल (सिफारिश) देकर मदद करता है। एक इसी से जुड़े मामले में, मुंबई के उपनगर मलाड के मालवणी से लगभग 22-23 साल के तीन लड़कों को एक प्रमुख बीमा कंपनी में बैक-ऑफिस की नौकरी मिल गई। वे उत्तर प्रदेश के लखीमपुर खीरी, बस्ती और गोंडा जिलों से आए थे और तीन साल से मुंबई में रह रहे थे। उनके परिवार जरी का काम करते थे। दो युवाओं ने 12वीं कक्षा पूरी कर ली थी और एक बी.कॉम. की पढ़ाई कर रहा था।
नौकरी मिलने के बाद, लड़कों को ट्रेनिंग के लिए बीमा ऑफिस जाना था। लेकिन बाद में हमें पता चला कि वे ऑफिस के रिसेप्शन से आगे भी नहीं गए। जब हमने पूछा कि क्या हुआ, तो उन्होंने हमें बताया, “ऑफिस एक बहुत बड़ी कांच की इमारत में था और हम ये सब देखकर घबरा गए क्योंकि हम इससे पहले कभी ऐसी जगह पर नहीं गए थे। जब हम रिसेप्शन पर गए और हमने वहां फ्रंट-डेस्क पर बैठी मैडम से बात करनी चाही तो उन्होंने हमसे अंग्रेजी में बात करना शुरू कर दिया। इस सबसे हम डर गए और परेशान हो रहे थे कि हम उनकी बात का जवाब कैसे दें। इसलिए, हमने ट्रेनिंग पूरी न करने का फैसला किया और वापस आ गए।”
हमने ये महसूस किया कि रोजगार के मौकों के अलावा युवाओं में आत्मविश्वास बढ़ाने के लिए उन्हें नए संदर्भों व परिस्थितियों को पहचानने के लिए बाहरी दुनिया से परिचित कराना भी बहुत जरूरी है।
इस घटना को लेकर हमने अपनी सप्ताह में होने वाली बैठक अनुभव कट्टा में चर्चा की, जहां युवाओं ने चकाचौंध (एलीट) वाली जगहों में जाने से अपने डर के बारे में बात साझा की।
इसको लेकर युवाओं ने खुद ही एक समाधान निकाला कि वे मॉल में इस तरह की बड़ी-बड़ी दुकानों पर जाकर उस माहौल के बारे में जानेंगे। उन्होंने यह फैसला इसलिए किया ताकि उन जगहों पर जाने से उनके मन में जो डर रहता है उस पर काबू पाने में काफी मदद मिलेगी।
इसलिए मैं खुद 20-25 युवाओं को अपने साथ मलाड के इन्फिनिटी मॉल में गया। वहां जाकर मैंने उन्हें एस्केलेटर पर चढ़ने, ट्रेंड्स और क्रोमा जैसे स्टोर में जाने, कपड़े परखने और दुकानें चलाने वाले लोगों से बात करने के लिए प्रोत्साहित किया। उनमें से कई युवा कपड़ों की दुकानों पर गए, लेकिन वे सैलून आदि से जुड़ी दुकानों में जाने से हिचकिचा रहे थे क्योंकि उन्हें लगा कि वहां काम करने वाले लोग उनके प्रति तिरस्कारपूर्ण रवैया रखते हैं क्योंकि वे उन्हें अपने नियमित ग्राहकों जैसे दिखाई नहीं पड़ते थे। लेकिन हमने उनसे कहा, “भले ही दूसरे व्यक्ति को लगे कि आप उनकी दुकान में कुछ ना भी खरीदना चाहते हों, फिर भी आपको इस तरह की दुकान में जाना चाहिए।” इस तरह उन्होंने ठीक ऐसे ही किया।
ये सब के बाद जब हमने उनके अनुभवों पर चर्चा की तो उन्हें सच में एहसास हुआ कि इस तरह की बड़ी जगहों पर जाने का डर सिर्फ उनके मन में ही था। क्योंकि जब वे वास्तव में उन जगहों पर गए तो यह उनके लिए कोई बड़ी बात नहीं थी।
युवाओं को अपने स्थानीय इलाकों में ऐसी जगहें तलाश करनी चाहिए, जहां वे खुद को अभिव्यक्त करने के साथ-साथ अपने मन में बैठे डर को दूर करने का समाधान भी खुद ही ढूंढ पायें। हालांकि, खासकर वंचित समुदायों में अक्सर इसकी कमी देखने को मिलती है। अगर इस तरह की असुरक्षाओं के लिए काउंसलर उनके साथ बात भी करते हैं, तब भी वे अपनी चर्चाओं में इन बातों को सामने लाने से हिचकिचाते हैं।
हमने नगर निगम कार्यालयों में भी यही तरीका अपनाया है। हम युवाओं को बीएमसी कार्यालय ले जाते हैं ताकि उन्हें उनके अधिकारों के बारे में जागरूक किया जा सके। इसके लिए हम उन्हें अधिकारियों के साथ बात करने के लिए प्रोत्साहित करते हैं। हालांकि, उन्हें वहां भी डर लगता है, लेकिन इससे उनका आत्मविश्वास बढ़ता है। इससे उन्हें स्थानीय शासन में शामिल होने में मदद मिलती है और सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि उन्हें एहसास होता है कि वे सक्रिय नागरिक (एक्टिव सिटीजन) के तौर पर शासन व्यवस्था से जुड़ सकते हैं।
जहां तक तीनों लड़कों की बात है, उनमें से दो अब ई-कॉमर्स कंपनियों में काम करते हैं और एक मलाड में थोक की दुकान चलाते हैं।
सचिन नचनेकर, यूथ फॉर यूनिटी एंड वॉलंटरी एक्शन (युवा) में कार्यक्रम प्रमुख हैं।
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मैं पिछले 7 सालों से हिमाचल प्रदेश के सोलन जिले में आंगनवाड़ी कार्यकर्ता के रूप में काम कर रहीं हूं। आंगनवाड़ी केंद्र में एक बार नामांकित होने के बाद प्रत्येक बच्चे की पढ़ाई के साथ-साथ उसकी आयु के अनुरूप विकास जैसे ऊंचाई, वजन व सीखने की क्षमता आदि की नियमित तौर पर जांच की जाती है। जो बच्चे अपनी आयु के हिसाब से विकसित नहीं हो पाते, उनके लिए अतिरिक्त पोषण का ध्यान रखा जाता है। नियमित तौर पर बच्चों को सुबह का नाश्ता व दिन में गरम भोजन दिया जाता है जो मैं आंगनवाड़ी सहायिका की मदद से करती हूं। हम इन सभी पहलुओं पर प्रशिक्षित होते हैं।
लेकिन भारत सरकार की नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 आने के बाद काफी कुछ बदला है।
इस नीति के आने से पहले छ: वर्ष पूरा होने तक बच्चे आंगनवाड़ी केंद्र में ही आते थे और उसके बाद ही वे विद्यालय में नामांकित होते थे। मेरे अपने आंगनवाड़ी केंद्र में पहले लगभग 25 से 30 बच्चे आते थे।
लेकिन अब इसकी वजह से अभिभावकों द्वारा अपने बच्चों को तीन साल पूरे होने के बाद सीधे या तो निजी विद्यालयों में नामांकित कर दिया जाता है या फिर सरकारी विद्यालयों में प्री-प्राइमरी कक्षा में भेज दिया जाता है।
इसका सीधा असर मेरी तरह अन्य सभी आंगनवाड़ी केंद्रों पर पड़ा है। अब मेरे पास महज 7-8 बच्चे ही नामांकित हैं और इनमें से भी कुछ बच्चे अपनी आयु के अनुसार प्री-प्राइमरी कक्षा में जाने के लिए तैयार हैं। अब अगर केंद्र में बच्चे ही नहीं आएंगे तो फिर हम लोग वहां क्या करेंगे?
क्या प्री-प्राइमरी कक्षा में बच्चों के पोषण पर इतना जोर दिया जाएगा?
अगर सरकार हम आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं को शिक्षा विभाग में सम्मिलित करके प्री-प्राईमरी की कक्षाओं के लिए नियुक्त कर दे, तो इससे न केवल सरकार को प्री-प्राइमरी कक्षा के बच्चों के लिए प्रशिक्षित कार्यकर्ता मिल जाएंगी बल्कि हमारे भविष्य के संकट का भी समाधान हो पाएगा।
कविता 7 साल से एक आंगनवाड़ी कार्यकर्ता के तौर पर काम कर रहीं हैं।
आईडीआर पर इस ज़मीनी कहानी को आप हमारी टीम की साथी जूही मिश्रा से सुन रहे थे।
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आरा-तारी एक खास तरह की कढ़ाई का काम है। इसे हमारे कलंदर समुदाय के लोगों ने अपनी जीविका चलाने के लिए सीखा है। कलंदर समुदाय, घुमंतू या विमुक्त जनजातियों के अंतर्गत आता है। पहले हमारे परिवार के पुरुष भालू का तमाशा दिखाकर लोगों का मनोरंजन करते थे और उसी से आजीविका कमाते थे। मगर वन्यजीव संरक्षण अधिनियम 1972 लागू होने के बाद यह काम बंद हो गया। इसके बाद टोंक की कलंदर बस्ती की महिलाओं और लड़कियों ने परिवार की मदद करने के लिए आरा-तारी का काम सीखना शुरू किया।
साल 2006 में मेरे ससुर, जो एक सामाजिक कार्यकर्ता हैं, उन्होंने वाइल्डलाइफ एसओएस की मदद से इस आरा-तारी केंद्र की स्थापना की। इस नए कौशल को सीखने के बाद हमें जीविका का एक नया साधन मिला क्योंकि हमारा पुराना काम छिन चुका था। घर की आर्थिक स्थिति बेहद खराब हो चुकी थी। हम में से अधिकतर ने पांचवीं या आठवीं कक्षा तक पढ़ाई की है, फिर हम काम पर लग गए। ज्यादातर परिवारों में किसी न किसी को अपनी पढ़ाई छोड़नी पड़ी है ताकि छोटे भाई-बहन पढ़ाई जारी रख सकें। मैंने भी अपने छोटे भाई-बहनों की पढ़ाई पूरी करवाई और अन्य कई लोगों ने भी ऐसा ही किया।
अब हम सिर्फ पैसे नहीं कमा रहे, बल्कि अपने परिवार और समुदाय से सम्मान भी पा रहे हैं, क्योंकि हम परिवार की आर्थिक मदद कर रहे हैं। इस काम से हमें प्रति पीस 300 से 400 रुपये तक की कमाई हो जाती है। हमें यह काम बेहद पसंद है, खासकर जब हम इसे एक साथ करते हैं। केंद्र में आमतौर पर दस से बारह लोग साथ काम करते हैं। कोई सेठ कच्चा माल लाता है जिसे फैक्ट्री में तैयार किया जाता है और हमें इसके बदले मजदूरी मिलती है। हम डिजाइन चुनते हैं, उत्पाद बनाते हैं, और फिर उसे वापस कर देते हैं। वे कपड़ा इकट्ठा करते हैं और हमें भुगतान करते हैं, जिससे हमारे परिवारों की जिंदगी थोड़ी आसान हो जाती है।
अब यह काम हमारे समुदाय में फैल चुका है। अगर इसी तरह के केंद्र अन्य बड़े घुमंतू समुदायों में भी स्थापित किए जाएं तो और युवाओं को रोजगार मिलेगा और हमारे समुदाय में बड़ा बदलाव आएगा। युवा खाली नहीं बैठेंगे, इधर-उधर घूमने या झगड़े में अपना समय बर्बाद नहीं करेंगे। वे काम करेंगे, पैसे कमाएंगे और सम्मान के साथ अपने परिवार की आर्थिक मदद करेंगे। पहले जब हम तंबुओं या झुग्गियों में रहते थे, जहां न घर थे न शिक्षा, तब से अब तक काफी बदलाव आया है। हमारे भालू छिन जाने के बाद हमारे पास कोई काम नहीं बचा था, और आज भी कई लोग बिना काम के संघर्ष कर रहे हैं। लेकिन आरा-तारी केंद्र जैसे प्रयासों से हमारी स्थिति में सुधार आ रहा है, और हमें उम्मीद है कि यह बदलाव और भी तेजी से आएगा।
नूरजहां कलंदर आरा-तारी का काम करती हैं और अपना परिवार चलाने में मदद करती हैं।
नूर मुहम्मद कलंदर, अपने समुदाय के हक के लिए आवाज उठाते हैं और घुमंतू साझा मंच के नाम से एक संगठन चलाते हैं।
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मामित जिला, मिज़ोरम के डम्पारेंगपुई में रहने वाले बिआकथंग, बांस से चीजें बनाने वाले एक कलाकार हैं। वे ब्रू समुदाय से आते हैं और पिछले कई दशकों से रोजाना इस्तेमाल होने वाली चीजें जैसे नोहखाई (सब्ज़ी और चावल ले जाने की टोकरी) और तोइलंगा (पानी की बोतलों और बर्तनों की टोकरी), लेखो (छोटी टोकरी) और बाइलेंग (चावल साफ करने का बर्तन) वगैरह बना रहे हैं।
अपनी पिछली पीढ़ियों की तरह बिआकथंग ने भी बचपन में ही बांस हस्तशिल्प (बैम्बू हैंडीक्राफ्ट) की कला सीखी थी। वे बताते हैं कि “हर ब्रू परिवार के कुछ सदस्य नोहखाई बनाना जानते थे। लेकिन इस पीढ़ी के लोग नहीं जानते कि इसे कैसे बनाया जाता है।”
रबर और प्लास्टिक से बनी चीजों ने भी ब्रू-लोगों के घरों में जगह बना ली है। बिआकथंग इसकी वजह विकल्पों की मौजूदगी और आवागमन की सुविधा को बताते हैं। साथ ही, वे यह भी जोड़ते हैं कि संरक्षण के अभाव में जंगल के संसाधनों का नष्ट होना भी एक बड़ी वजह है। वे बताते हैं कि “हमारा समुदाय पहले (हैंडीक्राफ़्ट के लिए) रायसोह, सालांग और राई जैसे वन संसाधनों का उपयोग करता था। लेकिन ये अब आसानी से नहीं मिलती हैं और अब हमारे पास पहले की तरह विशाल वन क्षेत्र भी नहीं है। हमने जंगलों को नष्ट कर दिया है और अब जिन सामग्रियों की हमें जरूरत है वे केवल गहरे जंगल में ही मिलती हैं।”
उनके अनुसार, हस्तशिल्प एक महत्वपूर्ण पारंपरिक प्रथा है, इनका खत्म होना ब्रू परंपराओं के खत्म होने जैसा है। बिआकथंग के दरवाज़े हमेशा उन लोगों के लिए खुले हैं जो यह कला सीखना चाहते हैं। वे कहते हैं, “पिछले साल मैंने अपने से बड़ी उम्र के एक व्यक्ति को (नोहखाई बनाना) सिखाया है। अगर तुम कल से सीखना चाहते हो तो मेरे घर आ जाना।” लेकिन वे समझते हैं कि परंपरा के संरक्षण में उनके व्यक्तिगत प्रयास बहुत सीमित ही हैं, इसके लिए समुदाय और सरकार को साथ आना चाहिए और मिलकर प्रयास करना चाहिए।
रोडिंगलिआन, आईडीआर में नॉर्थ-ईस्ट मीडिया फेलो 2024-25 हैं।
इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें।
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मैं महाराष्ट्र के पुणे जिले में ‘इंडिया लेबर लाइन’ के केंद्र में काम करता हूं। यह देश के नौ राज्यों में सक्रिय, मजदूरों के लिए एक हेल्पलाइन नंबर और मदद केंद्र है। इस पर संपर्क करने वाले लोगों को मुफ्त कानूनी सहायता दी जाती है।
हम पुणे शहर के उन लेबर नाकों पर भी जाते हैं जहां असंगठित मजदूर इकट्ठा होते हैं। यहां से ठेकेदार या मालिक जिन्हें मजदूरों की जरूरत होती है, वे उनसे मजदूरी तय करते हैं और काम की जगह पर ले जाते हैं। इन नाकों पर कई बार बंधुआ मजदूर भी होते हैं जिनसे हम उनकी कहानी सुनते हैं। हम इन लोगों के बीच श्रम कानून के बारे में जागरुकता बढ़ाने का काम करते हैं।
नाकों पर हम ऐसे कई बंधुआ मजदूरों से मिले है जिनके मामले कभी दर्ज ही नहीं हुए। सुरेश*, एक बंधुआ मजदूर बताते हैं, “हम जिस जगह काम करने गए थे, वहां से वापस जाने की बात करने पर या अपना फोन मांगने पर हमें मारा जाता था। हम वहां से रात में खेतों से होते हुए भागकर आए हैं।”
इस घटना को लेकर वे केस दर्ज नहीं करना चाहते हैं। उन्हें यह मालूम ही नहीं था कि इस पर कानूनी कार्रवाई हो सकती है।
ऐसा ही एक केस लेबर लाइन के ज़रिए अमित पटेल* का आया। गुजरात के बड़ौदा शहर के निवासी अमित पिछले 22 सालों से महाराष्ट्र के पुणे जिले में एक रसोइए के तौर पर अलग-अलग जगहों पर काम कर रहे थे।
लगातार काम ना मिलने के कारण गरीबी से तंग आकर उन्होंने पुणे स्टेशन के पास लेबर नाके पर जाकर एक ठेकेदार से काम के लिए मदद मांगी। ठेकेदार ने उन्हें 1000 रुपये प्रति दिन की नौकरी देने का वादा किया और पुणे से 70 किमी दूर स्थित एक रेस्टोरेंट में नौकरी दिला दी।
लेकिन वहां भी समय पर वेतन नहीं मिला। आवाज़ उठाने पर मालिक ने अमित का मोबाइल जब्त कर लिया गया और उन्हें बहुत अमानवीय परिस्थितियों में रखा गया।
अमित का खाना बंद कर दिया गया और उन पर निगरानी रखे जाने लगी जिसके चलते डर के कारण वे वहां से बाहर निकलने में असहाय महसूस करने लगे। उन्होंने मालिक से साफ कह दिया कि वे वहां काम नहीं करना चाहते हैं और जल्द से जल्द उन्हें मुक्त करने की मांग की। लेकिन मालिक ने उन्हें मुक्त करने से मना कर दिया। वहां दिनभर लोगों से काम करवाने के बाद रात में उन्हें कमरे में बंद कर दिया जाता था।
कुछ समय बाद मोबाइल वापस मिलने पर अमित ने अपने एक दोस्त से बात की जिसने उन्हें आजीविका ब्यूरो की इंडिया लेबर लाइन के बारे में बताया और मदद केंद्र का नंबर दिया।
बंधुआ मजदूरों को मुक्त कराने के लिए हम जिला मजिस्ट्रेट, उप-विभागीय मजिस्ट्रेट, तहसीलदार या पुलिस स्टेशन की भी मदद ले सकते हैं। बचाए गए बंधुआ मज़दूरों को जिला मजिस्ट्रेट या उप-विभागीय मजिस्ट्रेट द्वारा बंधुआ मजदूर मुक्ति प्रमाणपत्र जारी किया जाता है। यह अपेक्षा की जाती है कि इस प्रमाणपत्र से उन्हें अपना जीवन फिर से शुरू करने के लिए आजीविका और नौकरी की सुरक्षा हासिल करने में केंद्र सरकार की योजनाओं से मदद मिलेगी।
यह जानकारी मिलने के बाद हम पुलिस अधिकारी को लेकर अमित के होटल पहुंचे, तब भी मालिक ने अमित को छोड़ने से मना कर दिया। लेकिन कानूनी धाराओं और पुलिस की चेतावनी के बाद, उसने 1000 रुपये दिन की बजाय 400 रुपये दिन की दर से भुगतान किया और उन्हें मुक्त कर दिया।
भारत में बंधुआ मजदूरी उन्मूलन अधिनियम 1976 में लागू हुआ था, तब से बंधुआ मजदूरी अवैध है। फिर भी देश में बहुत सारे मजदूरों के साथ ऐसी घटनाएं होती हैं जिनकी शिकायतें कहीं दर्ज तक नहीं होती हैं।
*गोपनीयता के लिए नाम बदल दिये गए हैं।
आकाश तनपुरे आजीविका ब्यूरो के साथ काम करते हैं।
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कोविड-19 महामारी ने मुंबई की अनौपचारिक बस्तियों में स्वास्थ्य सेवाओं की पहुंच से जुड़ी वास्तविकताओं को उजागर किया था, जो अभी भी उसी हालत में बनी हुई हैं। आज भी लोग महंगी स्वास्थ्य सुविधाओं और लंबी दूरी जैसी बाधाओं से जूझ रहे हैं। और इसीलिए, अब उनका एलोपैथी और सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं से भरोसा कम हो गया है।
महामारी को ध्यान में रखते हुए, हमने अनौपचारिक बस्तियों में स्वास्थ्य सुविधाओं से जुड़ी निर्णय प्रक्रियाओं में आए बदलावों पर एक शोध किया। शोध में हमने पाया कि महामारी के दौरान लोगों को बहुत आर्थिक नुक़सान झेलना पड़ा है जिसके चलते अब वे अपनी स्वास्थ्य जरूरतों को टालते रहते हैं। अब लोग स्थानीय वैद्य-हकीम या घरेलू उपचारों को अपनाने लगे हैं जो उनके लिए ज्यादा सुलभ और किफायती विकल्प हैं। स्वास्थ्य सेवाओं के प्रति इस रवैये ने सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली पर लोगों की निर्भरता को लगभग समाप्त कर दिया है।
कमला नगर की निवासी 27 वर्षीय सरस्वती कडकाओ कहती हैं, “हमारे लिए क्लिनिक की दूरी और पैसा बड़ी समस्या बन गए थे। इलाज के लिए क्लीनिक पहुंच से बाहर होने और पैसों की तंगी के कारण, मैंने लंबे समय से अपनी खांसी, सांस लेने से जुड़े संक्रमण और बुखार जैसी बीमारियों के लिए आयुर्वेद और घरेलू इलाज का सहारा लिया।” गोलीबार के निवासी, 61 वर्षीय धर्मेंद्र बताते हैं, “मुझे डॉक्टर को दिखाने जाने के लिए बहुत दूर जाना पड़ता था, लेकिन बहुत इंतज़ार करने के बावजूद मेरी बारी नहीं आती थी क्योंकि तब तक डॉक्टर से मिलने का तय समय भी खत्म हो जाता था। उस समय अस्पताल में भी कोई बिस्तर खाली नहीं था। इस वजह से हमें एक स्थानीय डॉक्टर से सलाह लेनी पड़ी।”
पहले हर बस्ती में आमतौर पर कम से कम एक स्थानीय वैद्य-हकीम होता था। हालांकि, इनकी विश्वसनीयता आज भी एक चिंता का विषय बनी हुई है। अपनी विज़िट के दौरान हम कमला नगर के एक ऐसे ही क्लीनिक में गए जिसके बारे में कई स्थानीय लोगों ने बताया था कि वे कम खर्च में अपना इलाज करवाने के लिए वहां जाते हैं। हमने देखा कि वहां किसी भी तरह के प्रमाणपत्र या डिग्री की जानकारी न के बराबर थी। यह नजारा इस तरह के स्वास्थ्य संस्थानों में आम बात है। हमने डॉक्टर की योग्यता के बारे में भी पूछताछ की जिसके बारे में हमें कोई संतोषजनक जवाब नहीं मिला। वहां की रिसेप्शनिस्ट ने हमें डॉक्टर से मिलने की अनुमति नहीं दी और बात करने से भी बच रही थी। ऐसा लग रहा था कि वह हमारे आने से असहज हो गई है। पारदर्शिता की इस कमी ने गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य सेवाओं को लेकर हमारी चिंताओं को और बढ़ा दिया।
महामारी के बाद से सोशल मीडिया और लोगों के बीच फैली बातें भी स्वास्थ्य संबंधी जानकारियों का प्राथमिक स्रोत बन गई हैं। यहां तक कि लोग अब समुदाय के कुछ भरोसेमंद सदस्यों से भी सलाह लेने लगे हैं। नेहरू नगर के रमेश कहते हैं कि “मेरे पड़ोसी एक आयुर्वेदिक डॉक्टर हैं, स्वास्थ्य संबंधी सलाह के लिए हम उनके पास ही जाते हैं। वे हमें काढ़ा (पारंपरिक हर्बल ड्रिंक) बनाने की विधियां बताते थे। हमने लोकल व्हाट्सएप ग्रुप में शेयर किए गए इस तरह काढ़ों को भी आजमाया।”
अदिति देसाई, ओपी जिंदल ग्लोबल यूनिवर्सिटी के सेंटर फॉर न्यू इकोनॉमिक स्टडीज में वरिष्ठ शोध विश्लेषक हैं।
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राजस्थान के भीलवाड़ा जिले के कई गांवों में, बैंकिंग सेवाओं जैसे कि पैसे भेजना और निकालना अक्सर बिज़नेस कॉरेस्पोंडेंट्स (बीसी) के जरिए होता है। ये बीसी गांवों में दूसरे बैंकों की तरह काम करते हैं तथा लोगों को बैंकिंग सेवाएं मुहैया करवाते हैं। ऐसे लोग जिनके पास सीमित संसाधन हैं और स्मार्टफोन नहीं हैं, वही लोग आधार-सक्षम भुगतान प्रणाली (एईपीएस) के माध्यम से पैसे निकालने या भेजने के लिए इन कॉरेस्पोंडेंट्स के पास जाते हैं। बीसी, सत्यापन के लिए बायोमेट्रिक डेटा का उपयोग करते हैं।
हालांकि, आधार-सक्षम भुगतान प्रणाली के बारे में कम जानकारी और लोगों में वित्तीय साक्षरता की कमी होने की वजह से इस तरह की वित्तीय धोखाधड़ी के मामलों में भारी इजाफा हुआ है। लोगों ने बताया कि पैसों को निकालने के लिए बायोमेट्रिक सत्यापन पूरा करने वाली धोखेबाजी की घटनाएं आम हैं। असल में लोगों को यह बताया जाता है कि बैंक सर्वर डाउन है, लेकिन वास्तव में बीसी उनको बिना बताये ही उनके खाते से पैसे निकाल लेता है।
कर्दा गांव की रहने वाली 70 साल की रुक्मणी बाई* 10 हजार रुपये निकालने के लिए एक स्थानीय बीसी के पास गई थीं। निकासी की प्रक्रिया के लिए बायोमेट्रिक सत्यापन किए जाने के बाद, उन्हें बीसी ने बताया कि सर्वर काम नहीं कर रहे हैं, और यह कहकर उन्हें वापिस भेज दिया। रुक्मणी के पास फोन नहीं है, इसलिए उन्हें खाते के लेन—देन की जानकारी तभी मिलती है जब वह पासबुक अपडेट कराने के लिए बैंक जाती हैं। एक महीने बाद, जब रुक्मणी ने अपनी पासबुक अपडेट करवायी तो उन्हें पता चला कि उनके खाते से पैसे कट चुके हैं। बैंक से पूछताछ करने पर, उन्हें बताया गया कि चूंकि उन्होंने बायोमेट्रिक वेरिफिकेशन पूरा किया था, इसलिए अब बैंक कुछ नहीं कर सकता।
अगले एक साल के दौरान, रुक्मणी को गोगुंदा स्थित बैंक के मुख्य कार्यालय तक जाने के लिए अक्सर बस किराए पर पैसे खर्च करने पड़े। इन मामलों में कागजी कार्रवाई अक्सर जटिल होती है और लंबे समय तक खिंचती रहती है। क्योंकि बैंक प्रबंधन सभी जिम्मेदारियों से बच गया था, ऐसे में रुक्मणी को अपने मामले की जांच शुरू होने के लिए ही महीनों तक इंतजार करना पड़ा। जब बीसी के खिलाफ पुलिस केस दर्ज होने वाला था, तब रुक्मणी पर उसके गांव की पंचायत ने दबाव बनाया और उसे मामला छोड़ने के लिए कहा गया। चूंकि अधिकांश बीसी संपन्न हैं और उच्च जाति के परिवारों से आते हैं, इसलिए उनका गांव की राजनीति पर काफी प्रभाव है। रुक्मणी के लिए, बीसी के खिलाफ मामला आगे बढ़ाने का मतलब सामाजिक बहिष्कार था, और इसलिए उसने इसे आगे नहीं बढ़ाने का फैसला किया।
पूरे राजस्थान में ऐसी घटनाएं आम हो गई हैं।
वित्तीय साक्षरता की कमी जहां इन घोटालों की मुख्य वजह है, वहीं सबंधित अधिकारी भी इस तरह की स्थिति की जिम्मेदारी लेने से इंकार कर देते हैं। इसके कारण दिक्कतें और भी बढ़ जाती हैं। जब अधिकारी शामिल होते हैं, तब भी रुक्मणी जैसे कई पीड़ित जो वंचित जातियों से आते हैं, उन्हें डर रहता है कि अगर उन्होंने आवाज़ उठाई तो उन्हें गांव से बाहर निकाल दिया जाएगा।
किशन गुर्जर श्रम सारथी के ब्रांच सर्विस मैनेजर हैं।
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अधिक करें: लेखक के काम के बारे में विस्तार से जानने के लिए उनसे [email protected] पर संपर्क करें।
मैं पश्चिम बंगाल के कोलकाता जिले के राजाबाज़ार इलाके में रहती हूं। मुझे बचपन से ही फुटबॉल और क्रिकेट खेलने में बहुत रुचि थी। हालांकि सब इन्हें लड़कों वाले खेल मानते हैं लेकिन मैं 8-10 साल की उम्र से फुटबॉल खेल रही हूं।
हम यहां 5-6 सहेलियां है जिन्हें फुटबॉल खेलना पसंद है। लेकिन हमें बहुत सारी चुनौतियों का सामना लगभग हर रोज ही करना पड़ता है। हममें से कुछ के परिवार वाले हमारे खेलने के ख़िलाफ़ थे। वहीं, जो भी मान गए उनकी शर्तें कुछ ऐसी थीं – अगर लड़कियां खेलेगी तो उन्हें पूरे कपड़े पहनने होंगे, वे बहुत देर तक घर से बाहर नहीं रह सकतीं हैं, वगैरह-वगैरह। ज्यादातर लड़कियों को ट्राउजर-स्लेक्स पहनकर फुटबाल खेलना पड़ता था। इसके अलावा, सबसे बड़ी शर्त घर के कामों की ज़िम्मेदारी निभाना है जो हम सभी करती हैं। और, फुटबॉल खेलने के साथ भी करती आईं हैं।
पहले मोहल्ले में लड़कियों के लिए अलग से ग्राउंड नहीं था। इसलिए हम लड़कों के साथ खेलते थे। लेकिन जल्दी ही इस पर आसपास के लोग बातें बनाने लगे कि “ये लड़कियां इतनी बड़ी हो गईं हैं और अभी भी ग्राउंड में खेलती हैं। फुटबॉल कोई लड़कियों वाला खेल नहीं है।” लोग हमारे घर वालों को भी ताना मारते थे कि वे हमें बाहर खेलने कैसे भेज सकते हैं?
दोस्त होने और एक जैसी समस्याओं का सामना करने से हम लड़कियों के बीच एक गहरी दोस्ती और समझ बन गई है। इसके कारण हम समस्याओं से निपटने में एक-दूसरे की मदद भी करते हैं। इसी वजह से हम लड़कियों ने अपने समुदाय में होने जा रहे एक बाल विवाह के खिलाफ आवाज उठाई, उसके बाद हमें काफी विरोध झेलना पड़ा था। इस मामले को लोकल मीडिया ने भी कवर किया और उसे देखकर ही साल 2019 में आई-पार्टनर इंडिया की टीम आई। हमने उनसे गुजारिश की कि वे हमें प्रोफेशनल तरीके से फुटबॉल खेलना सिखाएं। संस्था ने पहले हमें लैंगिक, सेक्शुअल और प्रजनन स्वास्थ्य, और फुटबॉल के बारे में जानकारी दी। इसके बाद ‘वन टीम वन ड्रीम’ प्रोजेक्ट के तहत हमारी फुटबॉल टीम तैयार हुई।
मैं हमारे टीम की सबसे पुरानी खिलाड़ी हूं लेकिन हमारे कोच को घर पर अब भी बहुत समझना पड़ता है कि “आयशा अच्छा खेलती है, अगर सही कोचिंग मिलेगी तो वो टूर्नामेंट जीत सकती है। वो टाइम से घर आ जाया करेगी।” इसके बाद भी घरवाले तब राजी हुए जब मैंने उनसे कहा कि मैं घर का पूरा काम करके जाउंगी। मैं सुबह उठकर घर के काम में मम्मी की मदद करती हूं, खाना बनाती हूं और उसके बाद ही फुटबॉल खेलने जाती हूं।
शहर से बाहर मैच खेलने के लिए भी हम सहेलियां एक-दूसरे के काम में साथ देती है। वे मेरे कामों की ज़िम्मेदारी अपने सर ले लेती हैं, जैसे – खाना बनाना, सफाई करना वग़ैरह। जब तक मैं टूर्नामेंट से वापस नहीं आती, वे इसे पूरा करती हैं। मैं भी उनके लिए ऐसा करती हूं। लेकिन इन दिक्कतों के कारण कई लड़कियों ने फुटबॉल खेलना ही बंद कर दिया है।
हालांकि अब धीरे-धीरे कुछ बदलाव आ रहा है। फुटबॉल की प्रैक्टिस करने के लिए 60 से ज्यादा लड़कियां आती हैं। अब हमारी नई टीम, साउथ 24 परगाना जिले के मल्लिकपुर इलाके में है और हम सब भी सप्ताह में तीन बार वहीं खेलने जाते हैं। इसके अलावा हम रेसिडेंशियल फुटबॉल कैंप में भी प्रशिक्षण लेते हैं। घर के कामों के साथ हम 4-5 घंटे ही प्रैक्टिस कर पाते हैं। कोच कहते हैं कि अगर हमें नेशनल लेवल का खिलाड़ी बनना है तो रोजाना आठ घंटे की प्रैक्टिस जरूरी है। लेकिन परिवार वाले अभी भी इसके लिए राजी नहीं हैं।
आएशा परवीन कोलकाता में फुटबॉल खेलती हैं।
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मैं मध्य प्रदेश के सिवनी जिले के पेंच बाघ अभयारण्य (टाइगर रिजर्व) में सात साल से जंगल गाइड के रूप में काम कर रही हूं। मेरे पति भी अभयारण्य में सफ़ारी जीप ड्राइवर का काम करते हैं। जंगल गाइड की नौकरी में मुझे दिन में दो बार, सुबह 6 बजे और दोपहर 2.30 बजे की सफ़ारी के लिए तुरिया गेट पर रिपोर्ट करना होता है। तुरिया गेट, अभयारण्य के उन तीन गेटों में से एक है जो मध्य प्रदेश राज्य की सीमा में पड़ते हैं जबकि अभयारण्य का बाक़ी हिस्सा महाराष्ट्र राज्य में आता है।
हर सफ़ारी के लिए हमेशा जरूरत से ज्यादा गाइड और जीप उपलब्ध रहती हैं। इसके लिए वन विभाग एक रात पहले ही सभी जीप के लिए रोस्टर बना देता है। इसमें स्पष्ट होता है कि किस दिन कौन से ड्राइवर का नंबर आएगा। एक बार जब सभी ड्राइवरों को उनका समय (स्लॉट) मिल जाता है तो उनकी जीप के लिए गाइड भी दे दिए जाते हैं। यह क्रमानुसार चलने वाला तरीका है। मान लीजिए कि अगर 1-10 नंबर की बारी सुबह आती है तो दोपहर में 11 नंबर से शुरुआत होगी। इसी तरह, अगली सुबह जिसका नंबर होगा उससे शुरुआत होगी।
एक पूरे सफारी चक्र में लगभग 30-35 जीप होती हैं। हालांकि सभी जीपों की सूची पहले से तैयार कर ली जाती है, लेकिन जब तक सफारी शुरू होने का सही समय नहीं आ जाता, तब तक यह सटीक रूप से अनुमान लगाना मुश्किल होता है कि वास्तव में उसमें कितनी जीपों और गाइडों की आवश्यकता होगी। उदाहरण के लिए, दोपहर की सफारी का समय तीन बजे है लेकिन मांग के अनुसार जीप शाम चार बजे तक चलती रहती हैं। इसलिए गाइड को शाम 4-4:15 बजे तक इंतजार करना पड़ता है। कई बार ऐसा भी होता कि कभी कोई ड्राइवर और गाइड किसी काम से कहीं बाहर या फिर बीमार होते हैं। ऐसे में, अगले वाले व्यक्ति का नंबर आगे बढ़ जाता है। यही वजह है कि ड्राइवर और गाइड को हमेशा स्टैंडबाय रखा जाता है।
गाइड प्रति सफारी 500 रुपए कमाते हैं। जब उन्हें टिप मिलती है तो यह उनकी अतिरिक्त आय होती है, इसलिए हम इस तरह का कोई मौक़ा नहीं खोना चाहते हैं। लेकिन अगर गाइड की ज़रुरत न हो तो उन्हें घर वापिस जाना पड़ता है। ऐसा अक्सर होता है। हम एक घंटे तक गेट पर खड़े रहकर देखते रहते हैं कि शायद लास्ट-मिनट बुकिंग के चलते किसी को गाइड या जीप की ज़रुरत पड़े।
सभी ड्राइवरों के लिए एक व्हाट्सएप ग्रुप है जो उन्हें रोस्टर की जानकारी देता है और बताता है किसी शिफ़्ट में कितने ड्राइवरों की जरूरत है। ज़्यादातर ड्राइवर तुरिया के पास ही रहते हैं, इसलिए उन्हें गेट तक पहुंचने में बहुत समय नहीं लगता है। लेकिन गाइड के लिए ऐसा कोई व्हाट्सएप ग्रुप नहीं है जिससे यह पता चल सके कि उन्हें जाना चाहिए या नहीं। वन विभाग भी उनके लिए कोई रोस्टर नहीं बनाता है। अगर वे ना जाएं और किसी गाइड की ज़रुरत पड़ जाए तो वे अपनी बारी और कमाई, दोनों खो देते हैं। वहीं, गेट तक जाकर ज़रूरत न होने की स्थिति में घर लौटने में समय और मेहनत दोनों बरबाद होते हैं, ख़ासतौर पर महिलाओं के लिए जिन्हें घर के काम भी करने होते हैं।
अगर हमें इस बात का मोटा-मोटा अंदाजा मिल जाए कि किस शिफ्ट में कितने गाइड चाहिए, तो हमारा काम आसान हो सकता है। वन विभाग, कुछ समय का बुकिंग पैटर्न देखकर हमें एक संख्या बता सकता है। इस तरह गेट तक सिर्फ यह जानने के लिए आने-जाने में हमारा समय बरबाद नहीं होगा कि हमारे लिए कोई काम है या नहीं।
इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें।
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साल 2021 में, पूर्वी महाराष्ट्र में पड़ने वाले गांव बोरतोला और सांवरतोला की महिलाओं ने, मछली पालन के लिए ग्राम पंचायत से एक तालाब पट्टे (लीज़) पर लिया। हममें से ज्यादातर महिलाएं धीवर समाज से आती हैं जहां पारंपरिक रूप से मछली पकड़ने का काम पुरुष ही करते आए हैं। लेकिन कोरोना महामारी के दौरान, जब हमें ईंट-भट्ठे पर काम करने के लिए गांव छोड़ना पड़ा तो हमने भी आजीविका के लिए मछली पालन करने के बारे में सोचा।
बोरतोला का तालाब 4-5 सालों से सूखा पड़ा था। बीच में समुदाय के पुरुषों ने वहां मछली पालन की कोशिश की थी पर सफल नहीं हुए। लेकिन जब हमने यह काम हाथ में लिया तो तालाब में बेहतरी दिखने लगी। हर किसी को आश्चर्य हो रहा था कि हमने यह कैसे किया। तालाब पुनर्जीवन इसका जवाब है।
जब हमने अपना काम शुरू किया तो फाउंडेशन फॉर इकनॉमिक एंड इकलॉजिकल डेवलपमेंट (फ़ीड) संगठन ने हमें तालाब की जैव विविधता को बनाए रखने का महत्व समझाया और हमें बताया कि इसे कैसे दोबारा जीवित किया जा सकता है। उस समय तालाब में कंटीली झाड़ियों और खरपतवार का क़ब्ज़ा था और हमें तालाब में पानी भरने से पहले इन्हें साफ़ करना था। इसके लिए हमने तालाब की तलहटी को ट्रैक्टर से जुतवाया और जलीय पौधे लगाए जिससे मछलियों को भोजन मिल सके और एक स्वस्थ तालाब तंत्र (इकोसिस्टम) तैयार हो सके। हमने खाद के लिए ज़मीन में गाय का गोबर, सुपरफास्फेट्स और यूरिया वग़ैरह भी मिलाया। इस तरह हमने मछली पालन के लिए तालाब तैयार किया।
जब बारिश हुई तो तालाब के पानी का रंग मटमैले भूरे से हरा (पानी पर तैरने वाले जलीय सूक्ष्मजीव, प्लैंकटन के कारण) हो गया। इससे हमें पता चला कि अब मछली के बीज डालने का समय आ गया है। हमने प्रमुख भारतीय क़िस्में रोहू, काला और मृगल जैसी मछलियों का पालन शुरू किया।
मछलियों को खाना खिलाने की ज़िम्मेदारी महिलाओं ने आपस में बांटी। हम उन्हें धान की भूसी के गोले और सरसों की खली खिलाते थे। हमारे दिए भोजन के अलावा, तालाब में मौजूद वनस्पतियों से मछलियों ने पोषण हासिल किया और बढ़ने लगीं। इतना ही नहीं बारिश के पानी के साथ देसी प्रजाति की कुछ ऐसी वनस्पतियां भी तालाब में पहुंची जो मछलियों के लिए फ़ायदेमंद थीं। इसी के साथ हमने तालाब में मछलियों की नई प्रजातियां भी देखीं।
तालाब की सेहत बनाए रखने के लिए यह सुनिश्चित करना ज़रूरी है कि एक मानक जल स्तर बना रहे। शुरूआत में, किसान अपने खेतों की सिंचाई के लिए तालाब से पानी लेते थे जिसके कारण जल स्तर गिरने लगा। इसके लिए, हमने पंचायत से बातचीत की और कुछ नियम तय किए जो बताते हैं कि किसान कितना पानी ले सकते हैं।
इस बीच, मछलियां बड़ी होने लगीं। यह परखने के लिए कि क्या मछलियां ठीक से बढ़ रही हैं या नहीं, या कहीं उन्हें और पोषक तत्वों की ज़रूरत तो नहीं हैं, हम हर हफ़्ते कुछ मछलियां पकड़ते हैं और उनका वजन करते हैं। अगर उनका वजन कम होता है तो हम पानी में और पोषक तत्व मिलाते हैं। पहले साल एक वयस्क मछली का वजन 500 ग्राम अधिक था। तालाब की अच्छी देखभाल के चलते दूसरे साल यह 2 किलोग्राम और तीसरे साल 3 किलोग्राम तक हो गया। फ़ीड संस्था के लोगों और समुदाय के पुरुषों ने हमें मछली पकड़ना सिखाया। पहले हम डर रहे थे क्योंकि मछली पकड़ने का मतलब था, सीने तक भरे पानी में उतरना और हमने पहले कभी ऐसा किया नहीं था। लेकिन हम जल्दी ही सीख गए।
हम बारी-बारी से अपने तालाब की रखवाली भी करते थे क्योंकि लोग बढ़ती हुई मछलियों को चुरा लेते हैं या जानवर भी उन्हें खा जाते हैं। इसलिए, क़रीब तीन महीने तक रात 9 बजे से रात 1 बजे तक टॉर्च और डंडा लेकर जाते थे और तालाब के किनारे बैठते थे। ऐसा तब तक चला जब तक मछलियां बेचने लायक़ नहीं हो गईं।
हम अपने समूह को सरस महिला मत्स्य उत्पादन टीम कहते हैं। जब हमने पहली बार तालाब के पट्टे के लिए ग्राम पंचायत से संपर्क किया तो उन्होंने कहा, ‘महिलाएं मछली कैसे पकड़ सकती हैं?’ उन्होंने यहां तक कहा कि अगर हम तालाबों में उतरे तो पानी खराब हो जाएगा। लेकिन हम अपनी बात पर अड़े रहे और तीन साल की लीज़ हासिल की। अब हम इसे पांच साल तक बढ़ाना चाहते हैं। हमने तालाब को फिर से जीवित करने के लिए कड़ी मेहनत की है और चिंता है कि अगर इसे दूसरों को सौंपा गया तो वे इसे खराब कर सकते हैं। तब हमारी सारी मेहनत बेकार हो जाएगी।
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