क्यों मिज़ोरम के इस्कुट किसान न जैविक खेती कर पा रहे हैं न रासायनिक? 

मिज़ोरम इस्कुट ग्रोअर्स एसोसिएशन की स्थापना 1982 में सिहफिर गांव में हुई थी। बाद में, यह फर्म्स एंड सोसायटीज रजिस्ट्रेशन एक्ट 1986 के तहत एक पंजीकृत संस्था बन गई। आज अलग-अलग गांवों और कस्बों में हमारी नौ शाखाएं हैं, लेकिन हमारा मुख्यालय अब भी सिहफिर में ही है। 

सिहफिर कभी इस्कुट (चायोट) की भरपूर पैदावार के लिए जाना जाता था। हर दिन 20-30 ट्रक असम के सिलचर में इसका निर्यात करते थे। लेकिन बीते एक दशक में इसकी उपज में बहुत गिरावट आई है। इस्कुट की पैदावार बारिश पर बहुत अधिक निर्भर होती है और बसंत के मौसम में पानी की कमी होते ही पौधे सूख जाते हैं। हाल के कुछ सालों में बारिश अनियमित और अप्रत्याशित हो गई है, जिससे दिक्कतें और बढ़ गई हैं। जिन किसानों के बगीचे झरनों के आसपास हैं और जिन्हें पशुपालन के चलते खाद उपलब्ध है, उनकी पैदावार अब भी अच्छी हो रही है। लेकिन हम में से ज्यादातर की किस्मत इतनी अच्छी नहीं है और हमारे बगीचे बंजर पड़े हैं। 

हमारी पहुंच ऐसे उर्वरकों (फर्टिलाइजर) तक भी नहीं है, जिनसे जमीन में जरूरी पोषक तत्वों की भरपाई हो सके। पहले बागवानी और कृषि विभाग इन्हें या तो मुफ्त या रियायती दरों पर उपलब्ध करवाया करते थे। लेकिन अब हम पूरी तरह से प्राइवेट डीलरों और एजेंट्स पर निर्भर हैं, जिनकी भारी-भरकम कीमतें अदा कर पाना हमारे बस की बात नहीं है। इसके अलावा, किसी और तरीके से उर्वरकों की उपलब्धता भी नहीं सुनिश्चित हो पाती है। सरकार से मान्यता प्राप्त एजेंट सिलचर से जो उर्वरक मंगवाते हैं, वे उन्हें मिज़ोरम पहुंचने के साथ ही म्यांमार के लिए रवाना कर देते हैं। 

मुझे मालूम है कि मिज़ोरम की तुलना में म्यांमार में इसकी मांग ज्यादा है। यहां सिहफिर में भी, जहां उर्वरकों का सबसे अधिक उपयोग होता है, कुल मांग म्यांमार की तुलना में बहुत कम है। ऐसे में स्टॉक बचा रह जाने से एजेंटों को नुकसान होता है। इसलिए व्यवसायिक नजरिए से उनका इसे म्यांमार भेजना देना उचित ही है। लेकिन किसानों के लिए उर्वरक उपलब्ध करवाना सरकार की जिम्मेदारी है। 

हमारे सामने खड़ी समस्याओं को सुलझाने के बजाय, सरकार जैविक खेती को बढ़ावा दे रही है। हमें बस इतना पता है कि हमें इसे अपनाना है। लेकिन अब तक जैविक खेती से जुड़े न तो कोई ठोस दिशा-निर्देश दिए गए हैं और न ही यह बताया गया है कि किस तरह की फसलों पर विशेष जोर दिया जा रहा है। हालांकि जैविक खेती करने में कोई बुराई नहीं है, लेकिन फिलहाल हम उसके लिए तैयार नहीं हैं। अगर हम पूरी तरह से केवल जैविक तरीकों पर ही निर्भर हो जाएंगे तो धीरे-धीरे हमारी उपज होना बंद हो जाएगी। 

जोसान्गलिआन तोचांग मिज़ोरम इस्कुट ग्रोअर्स एसोसिएशन के प्रमुख हैं।

जैसे मालसॉमदॉन्गलिआनी तारा, आईडीआर नॉर्थ-ईस्ट फेलो 2025-26 को बताया गया। 

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​​अधिक जानें: जानिए, क्यों एक डॉक्युमेंट्री फिल्म निर्माता ने हिंदी सीखने के लिए मिज़ोरम से असम की यात्रा की। 

अपने संकट, अपनी राह: मेघालय के एक गांव की कहानी

जंगल की झाड़ियों के बीच पानी का एक स्रोत_भू अधिकार
मेघालय के पहाड़ी क्षेत्र में बसे ख्वेंग गांव की पानी की आपूर्ति जलांचलों (कैचमेंट एरिया) से हो जाती थी। | चित्र साभार: ज्यूइंग नोंगपोह​

​​जिला री भोई में स्थित ख्वेंग ग्राम में हमेशा से पानी का संकट नहीं था। मेघालय के पहाड़ी क्षेत्र में बसे हमारे गांव की पानी की आपूर्ति जलांचलों (कैचमेंट एरिया) से हो जाती थी। लेकिन आबादी बढ़ने के साथ ही यहां पानी की मांग और आपूर्ति की समस्या बढ़ने लगी। फिर जलांचलों के क्षेत्र में जमीन के निजीकरण से हालात और भी बदतर होते चले गये। इससे न केवल हमारी पेयजल की मात्रा सीमित हो गयी, बल्कि हमें अपने खेतों और मछली-पालन के लिए भी पानी की कमी से जूझना पड़ा। नतीजतन, हमारे और हमारी भावी पीढ़ियों के सामने अस्तित्व का संकट गहराने लगा था। हमें एहसास हुआ कि हमें जल्द ही कोई ठोस कदम उठाना होगा।

​​इस स्थिति का हल ढूंढने के लिए वर्ष 2014 में हमने ग्राम निवासियों, मेघालय ग्रामीण विकास समिति और स्थानीय गैर-लाभकारी संस्थाओं के साथ बैठक आयोजित की। इस बैठक में स्थानीय निवासियों ने अपनी कई परेशानियां सामने रखी। आखिरकार यह निर्णय लिया गया कि हम अपनी जमीन को वापस खरीदेंगे। हर घर से 100 रुपए के योगदान के साथ पूरी धनराशि जुटाने की योजना बनायी गयी। जल्द ही हमने एक महीने के भीतर 50,000 रुपए का प्रबंध कर लिया। इस राशि के जरिये हम जमीन-मालिकों से 1,000 वर्ग फीट जमीन वापस खरीदने में सक्षम बन पाए।

​​चूंकि वे हमारी समस्या से अवगत थे, इसलिए हमें उन्हें मनाने में बहुत देर नहीं लगी। वैसे भी वे उस जमीन पर किसी भी तरह का आजीविका संबंधी काम नहीं कर रहे थे। हमने इस भू-भाग को आरक्षित वन के साथ मिलाने का फैसला किया और यह तय किया कि दो हेक्टेयर के इस क्षेत्र को अब ग्राम सभा के अधीन नियोजित सामुदायिक जमीन माना जाएगा। हमारी कोशिशें रंग लायी और यह जमीन फिर लहलहाने लगी। यहां उगने वाले पेड़ों ने पानी को प्रकृतिक रूप से साफ करने का काम किया। ग्राम सभा ने नियम पारित किए कि जलांचलों के आसपास पेड़ों की कटाई प्रतिबंधित है और पानी में किसी भी तरह के विषैले रसायनों का प्रयोग वर्जित है। इसके अलावा हमने घरों तक साफ पानी पहुंचाने के लिए पाइप जल प्रणाली का निर्माण भी किया। अपनी जमीन को पुनः प्राप्त करने की मुहिम की सफलता से हम इतने प्रेरित हुए कि वर्ष 2023 में हमने फिर से जन सहयोग से राशि जुटाकर एक अन्य जलांचल क्षेत्र के पास 1,000 वर्ग फीट जमीन खरीदी।

​​हर नए दिन के साथ हम अपने जल संकट को खुद ही दूर करने का प्रयास कर रहे हैं। वर्तमान में हम सरकार को यह प्रस्ताव दे रहे हैं कि जलांचल क्षेत्रों के निकट वृक्षारोपण योजनाएं लागू की जानी चाहिए। हालांकि हमारे पास अभी भी वर्षा जल के संचयन के लिए उपयुक्त भंडारण सुविधा मौजूद नहीं है। हम आशा करते हैं कि सरकार हमें एक औपचारिक जल संचयन व्यवस्था का निर्माण करने में मदद करेगी।​

ज्यूइंग नोंगपोह मेघालय के री भोई जिला में स्थित ​​ख्वेंग ग्राम​​ के​​ प्रधान हैं।

जैसा कि साम्मे मस्सार, आईडीआर नॉर्थईस्ट फेलो 2025-26 को बताया गया।

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क्यों महाराष्ट्र के कोरकू गांवों में किताबें घर-घर दस्तक देती हैं

किताबे देखते कुछ बच्चे_आदिवासी लाइब्रेरी
पहले किताबों से दूरी बनाने वाले लोग अब अपने बच्चों के लिए किताबें खरीद रहे हैं और छोटे बच्चे भी रंग-बिरंगी चित्रों वाली किताबों में खो जाते हैं। | चित्र साभार: पूजा कुमारी

मैं अजीम प्रेमजी विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर कर रही हूं और मेरा विषय प्रारंभिक बाल्यावस्था शिक्षा है। अपनी पढ़ाई में ही शामिल एक फील्ड प्रोजेक्ट के दौरान, मैं महाराष्ट्र के अकोला जिले के खिरकुंड खुर्द और उसके आसपास के गांवों में गई। इस इलाके में रहने वाले ज्यादातर लोग कोरकू समुदाय से आते हैं। यहां हो रही किताबों की हलचल ने मुझे सबसे ज्यादा चौंकाया। इस गांव में किताबें किसी लाइब्रेरी की अलमारियों में नहीं रखी जातीं हैं बल्कि वे झोलों में भरकर घर-घर पहुंचती हैं। शाम होते ही दरवाजों पर दस्तक होती है और बच्चे, महिलाएं, बुजुर्ग, सब किताबें लेने निकल आते हैं। 

इस पूरे प्रयोग की शुरुआत उन्नति संस्था के प्रयासों से हुई थी। संस्था का उद्देश्य गांव में पढ़ने का माहौल बनाना था। इसलिए किसी स्थायी लाइब्रेरी की जगह, किताबों को सीधे लोगों तक पहुंचाने की सोच के साथ ‘गांव वाचनालय’ की शुरुआत की गई। 

शुरुआत में गांव वाले किताब लेने से कतराते थे। कई बार लोग बिना देखे मना कर देते थे, या कह देते थे कि दोबारा हमारे घर मत आना। लेकिन बार-बार दरवाजा खटखटाने और किताबें दिखाने का असर हुआ। धीरे-धीरे वही लोग अब पूछने लगे हैं कि और कौन-सी किताबें पढ़ी जा सकती हैं, कहां से मिलेंगी। 

खास बात यह है कि गांव में अब कई किताबें कोरकू भाषा में उपलब्ध हैं। जिन लोगों ने कभी अपनी भाषा में किताब नहीं देखी थी, वे आज इन्हें उत्साह से पढ़ते हैं। महिलाएं बताती हैं कि अपनी मातृभाषा में पढ़ने से वे बच्चों की पढ़ाई को बेहतर समझ पाती हैं। छोटे बच्चे रंग-बिरंगी चित्रों वाली किताबों में खो जाते हैं। खेत और घर का काम निपटाने के बाद महिलाएं देर रात तक पढ़ती हैं। वे लोग जो पढ़ नहीं सकते, उनके लिए महीने में तीन बार चौपाल पर ‘भोंगा वाचनालय’ चलता है जिसमें बड़े स्पीकर पर कहानियां सुनाई जाती हैं। कभी-कभी लोग ‘चावडी वाचन’ भी करते हैं, जहां सब मिलकर जोर से किताबें पढ़ते हैं और इस तरह यह पूरी प्रक्रिया एक साझा अनुभव बन जाती है। 

हर किताब कोरकू में उपलब्ध नहीं है। इसलिए देश और विदेश की कई साहित्यिक और विज्ञान की किताबें पहले मराठी में ट्रांसलेट होती हैं, और फिर मराठी से कोरकू में अनुवादित की जाती हैं। इससे गांव के लोगों के लिए किताबें पढ़ना और भी सुलभ हो जाता है। 

धीरे-धीरे गांव के लोग इस काम का हिस्सा बन गए हैं। वे सिर्फ किताब लेने वाले नहीं रहे बल्कि किताब बांटने और भोंगा वाचनालय चलाने में मदद करते हैं। कोई बच्चा अपने दोस्तों को साथ लाता है तो कोई महिला पड़ोसन को किताब थमा देती है। इस तरह किताबें पढ़ने को लेकर गांव के भीतर नेतृत्व की नई परंपरा उभर रही है। 

दो साल में इस छोटे से प्रयोग ने बड़ा असर डाला है। पहले किताबों से दूरी बनाने वाले लोग अब अपने बच्चों के लिए किताबें खरीद रहे हैं। बच्चे, जो पहले शाम को सिर्फ खेलते थे, आज किताबों के पन्ने पलटते दिखाई देते हैं। यह अनुभव दिखाता है कि पढ़ना सिर्फ स्कूल तक सीमित नहीं है। किताबें अगर मातृभाषा में हों और घर-घर पहुंचे, तो पढ़ना एक साझा आदत बन सकती है। 

पूजा कुमारी अजीम प्रेमजी विश्वविद्यालय में स्नातकोत्तर की पढ़ाई कर रही हैं। वह वॉलंटरी समूह अवसर का भी हिस्सा हैं, जो युवाओं को शिक्षा और विकास सेक्टर के मौकों से जोड़ता है।

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ओडिशा में केंदू पत्तों के व्यापार में सरकारी देरी की कीमत कौन चुका रहा है?

खेत के बीच केंदू पत्तों की ढेरियां बनाते महिला और पुरुष_केंदू पत्ता
केंदू पत्तों की बिक्री इस इलाके की आजीविका का अहम हिस्सा है, विशेषकर उन महिलाओं के लिए जो इन पत्तों को इकट्ठा करने का काम करती हैं। | चित्र साभार: बिद्युत मोहंती

ओडिशा के कोरापुट जिले में स्थित बैपारीगुड़ा ब्लॉक की आठ ग्राम सभाएं राज्य सरकार से आने वाली एक आधिकारिक अधिसूचना का इंतजार कर रही हैं। यह अधिसूचना उन्हें स्वतंत्र रूप से केंदू पत्तों का व्यापार करने की अनुमति देगी, जो इलाके की परंपरागत आजीविका का एक मुख्य स्रोत है। केंदू पत्ते, जिन्हें हरा सोना भी कहा जाता है, मुख्य रूप से बीड़ी उद्योग में इस्तेमाल किए जाते हैं। ये इस इलाके की वन-आधारित आजीविका का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं।

केंदू पत्तों को वन अधिकार अधिनियम, 2006 के तहत लघु वनोपज माना गया है जिन पर वन निवासी समुदायों का अधिकार होता है। इसका मतलब है कि समुदायों को केंदू पत्ते जैसी उपज को इकट्ठा करने, उपयोग करने और उनका प्रबंधन करने का अधिकार मिला हुआ है।

वन अधिकार अधिनियम में 2012 में किए गए संशोधन से यह साफ हो गया था कि ग्राम सभा और ग्राम समितियां केंदू पत्तों के लिए परिवहन परमिट जारी कर सकती हैं। इसके साथ ही वे इनके भंडारण, प्रसंस्करण और बिक्री जैसे काम भी कर सकती हैं। इस प्रावधान का उद्देश्य, सरकारी प्रक्रिया से होने वाली देर को कम करना और राज्य स्तर पर अतिरिक्त अनुमतियों की जरूरत खत्म करना था। लेकिन व्यवहारिक स्तर पर अभी भी इन अधिकारों का इस्तेमाल करने के लिए सरकारी मंजूरी पर निर्भरता बनी हुई है। ओडिशा में वन निवासी समुदायों को पारंपरिक नीलामी प्रक्रिया से हटकर सीधे व्यापारियों को केंदू पत्ते बेचने के लिए राज्य सरकार से एक डिरेगुलेशन लेटर चाहिए होता है। इसके बगैर समुदाय सरकारी व्यवस्था पर ही निर्भर रह जाते हैं, जिससे उनकी स्वायत्तता और आमदनी दोनों प्रभावित होते हैं।

एक बार ग्राम सभाओं को यह मंजूरी मिल जाए, तो वे खुली बोली के जरिए सीधे खरीदारों से सौदा कर सकती हैं। इससे पूरी प्रक्रिया से बिचौलिए हट जाते हैं और लोगों को सीधे पूरा भुगतान मिलता है। इस प्रक्रिया में कई बार अर्जित कीमत राज्य सरकार द्वारा तय न्यूनतम समर्थन मूल्य से अधिक भी हो सकती है।

लेकिन इस सीजन में कोई खरीदार गांवों में नहीं आया है, क्योंकि डिरेगुलेशन नोटिस के बगैर खरीदारी करने पर सरकार केंदू पत्ते को जब्त कर लेती है। ऐसे में लोगों के पास बहुत कम दामों पर केंदू पत्ता बेचने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचता है। केंदू पत्तों की बिक्री इस इलाके की आजीविका का अहम हिस्सा है, विशेषकर उन महिलाओं के लिए जो इन पत्तों को इकट्ठा करने का काम करती हैं।

बीते साल, सभी औपचारिकताएं पूरी करने और सरकारी अधिकारियों के साथ बैठक करने के बाद भी, डिरेगुलेशन लेटर जारी नहीं किया गया था। इसके चलते लगभग 36 लाख रुपए के केंदू पत्ते बारिश में खराब हुए, जिससे समुदाय को भारी नुकसान उठाना पड़ा था।

बिद्युत मोहंती ओडिशा में सामुदायिक वन अधिकारों पर काम करते हैं।

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अनानास से बनी साड़ियांः क्या बनारसी बुनकरों के अस्तित्व को बचा पाएंगी?

कपड़े बुनने की मशीन पर काम करता एक श्रमिक_बनारसी साड़ी
बनारसी साड़ी उद्योग पर गहराते संकट और रोजगार की अनिश्चिताओं के चलते अनेक बुनकर सूरत, मुंबई और बेंगलुरु जैसे शहरों की ओर पलायन कर चुके हैं। | चित्र साभारः आराधना पांडेय

वाराणसी की बनारसी साड़ियों की ख्याति उनकी बारीक बुनाई और भव्य डिजाइनों के लिए दुनियाभर में है। इस क्षेत्र में लगभग 12 लाख लोग प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से हथकरघा रेशम उद्योग से जुड़े हुए हैं। बुनकर समुदाय के लिए यह उनकी आय का मुख्य साधन है। समय के साथ बनारसी साड़ी उद्योग और बुनकर समुदाय के लिए कई तरह की चुनौतियां उभरी है।

मिर्जापुर जिले के छोटा मिर्जापुर गांव में रहने वाले 40 वर्षीय बुनकर मनोज बताते हैं, “70 के दशक में रेशम-जरी महंगे हुए, 90 के दशक में पावरलूम मशीनें आईं। साल 2000 तक नकली साड़ियों की बिक्री बढ़ने लगी और 2010 के बाद डिजिटल मार्केट आ गया। हमें इस नए तरह के बाजार का अनुभव नहीं था। इसके अलावा, हमारी जो थाती (पीढ़ियों से चली आ रही परंपरा) थी, उसे भी साल 2020 में कोविड ने लगभग खत्म कर दिया।” मनोज उम्मीद जताते हैं कि “अगर हमारी कला को बचाना है तो हमें सीधे बाजार से जोड़ना होगा। कच्चा माल सस्ता करना होगा। आसान कर्ज देना होगा और जीआई टैग की रक्षा करनी होगी।” मनोज जैसे कई बुनकर मानते हैं कि बदलते समय के साथ तालमेल बैठाना अब मुश्किल होता जा रहा है।

बनारसी साड़ी उद्योग पर गहराते संकट और रोजगार की अनिश्चिताओं के चलते अनेक बुनकर सूरत, मुंबई और बेंगलुरु जैसे शहरों की ओर पलायन कर चुके हैं। लेकिन अब इस उद्योग को फिर से जीवित करने के लिए प्रयास किए जाने लगे हैं। इससे जुड़ी चुनौतियों को खत्म करने के लिए नई तकनीक और तरीकों पर विशेष जोर दिया जा रहा है। ऐसा ही एक प्रयास पाइनएपल यानी अनानास के पत्तों से बना सूत (यार्न) है। यानी, रेशम की बजाय अब अनानास के सूत से बनारसी साड़ियां बुनी जा रही हैं। ये साड़ियां न केवल सस्ती और टिकाऊ होती हैं बल्कि पहनने में भी आरामदायक होती है।

अनानास के पत्तों से धागा बनाने की खोज करने वाली डॉ अंगिका कुशवाहा का कहना है, “2019 में रिसर्च के दौरान मुझे पता चला कि उत्तर प्रदेश, असम और पूर्वोत्तर में अनानास खूब उगता है, लेकिन फल के बाद उसकी पत्तियां खेत में सड़ने के लिए छोड़ दी जाती हैं। फिलीपींस और थाईलैंड में इन्हीं पत्तों से फाइबर बनाकर कपड़े और वीगन लेदर तैयार होते हैं। भारत में यह क्षेत्र लगभग खाली था। इसलिए रिसर्च कर हमने अनानास यार्न से धागा बनाने की तकनीक विकसित की।”

अंगिका आगे जोड़ती हैं, “इस प्रक्रिया में कई चुनौतियां थीं- जैसे भारत में फाइबर निकालने के लिए मशीनें नहीं थीं। पत्तों को साफ करना, सुखाना और यार्न में बदलना एक मेहनतभरा और धैर्यपूर्ण काम था। कभी धागा टूट जाता था तो कभी खुरदुरा हो जाता था।” 

इस तरह महीनों की मेहनत के बाद ऐसा धागा तैयार किया जो मजबूत, टिकाऊ और रेशम जैसी प्राकृतिक चमक वाला हो। इस धागे में ऐसे गुण भी हैं जो इसे बैक्टीरिया से बचाते हैं और धूप में टिकाऊ बनाते हैं। यह धागा कॉटन से तीन गुना ज्यादा मजबूत है और पसीना भी जल्दी सोखता है।

अनानास से बने धागे को लेकर रामनगर के बुनकर 55 वर्षीय समीउल्लाह अंसारी का कहना है, “पहले लोग कहते थे-ये तो बनारसी साड़ी के कारीगर हैं। अब कहते हैं कि बस कपड़ा बुनने वाला है। पहले जब पावरलूम नहीं थे तो हैंडलूम पर साड़ियां बुनने वालों की बहुत कद्र हुआ करती थी। कमाई भी अच्छी होती थी। लूम ने बुनकरों की सारी लोकप्रियता खत्म कर दी है। बनारस में सिर्फ सात-आठ हजार ही करघे बचे हैं जिन पर बनारसी साड़ियां बुनी जाती हैं।”

अनुभवी बुनकर समीउल्लाह अंसारी आगे जोड़ते हैं, “अनानास के धागों ने नई उम्मीद जगाई है। अनानास यार्न की कीमत सिर्फ 800 रुपये प्रति किलो है जबकि रेशम का भाव सात से आठ हजार रुपये किलो है। अनानास का धागा हल्का भी है, मजबूत भी और विदेशी खरीदारों को वापस बनारस की ओर खींच सकता है। जब ग्राहकों को पता चलता है कि साड़ी अनानास के पत्तों से बनी है तो उनकी आंखों में हैरानी और चेहरे पर मुस्कान आ जाती है।”

बुनकरों के बीच अनानास के यार्न से तैयार साड़ियों को उम्मीद की नजर से देखा जा रहा है। बनारस में बुनकरी के केंद्र लोहता के अशफ़ाक अहमद और इरफान मियां का कहना है कि अनानास के यार्न से बना धागा बनारसी बुनकरी को वैश्विक फैशन से जोड़ने का काम कर सकता है। लेकिन इसके लिए कई स्तर पर सुधार और बुनकरों के हितों में नीतियां बनाने की जरूरत है। वहीं बुनकर आमल अंसारी का कहना है कि अगर सरकार पाइनएपल फाइबर के धागों की सप्लाई आसान कर दे तो ये फाइबर हमारे काम को नई जान दे सकता है।

अनानास यार्न, रेशम के टिकाऊ और किफायती विकल्प के तौर पर देखा जा रहा है। पहले बुनकर केवल मंहगे रेशम धागे पर निर्भर थे। अब इस फाइबर से कम लागत में नए डिजाइन तैयार हो रहे हैं। बुनकर चाहते हैं कि अनानास यार्न से बनी साड़ियों का प्रचार देश-विदेश में किया जाए, ताकि बाजार बढ़े और बनारस के हथकरघा उद्योग की चमक दोबारा लौट सके।

आराधना पांडेय एक स्वतंत्र पत्रकार हैं और वाराणसी में रहती हैं। वे जेंडर, पर्यावरण और सामाजिक न्याय से जुड़े विषयों पर लिखती हैं। 

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ठहराव की जमीन तलाशता कुकी-ज़ो समुदाय

जंगल में पेड़ों के बीच खेती का काम करती महिलाएं_भू-अधिकार
प्रत्येक एकड़ के मॉडल प्लॉट में ऐसे फलों और सब्जियों का मिश्रण लगाया गया है जिनका पोषण के साथ-साथ औषधीय महत्व भी है। | चित्र साभार: पाओहाओलन हाओकिप

मणिपुर के चुराचांदपुर जिले में जमीन का अधिकांश स्वामित्व और नियंत्रण गांव के मुखियाओं के पास होता है। कुकी-ज़ो समुदाय में यह व्यवस्था और भी गहरी है, जहां पारंपरिक भू-कानूनों के तहत अधिकतर लोग जमीन के व्यक्तिगत अधिकार से वंचित हैं। खेती-बाड़ी और उससे जुड़ी अधिकांश गतिविधियां मुखिया की जमीन पर ही होती हैं और गांवों की बसावटें अमूमन अस्थायी होती हैं।

ऐसे में लोग अक्सर कभी झूम खेती के लिए तो कभी मुखिया की जमीन पर मजदूरी करने के लिए एक गांव से दूसरे गांव की ओर पलायन करते हैं। इस निरंतर बदलाव की वजह से समुदाय के लिए स्थायी आजीविका और आर्थिक स्थिरता हासिल करना बेहद कठिन हो जाता है। इन्हीं चुनौतियों को ध्यान में रखते हुए, हमने रूरल एड सर्विस (आरएएस) के माध्यम से एक आजीविका पहल की शुरूआत की है। इसका उद्देश्य है कि समुदाय के पास स्थाई आय का एक स्रोत हो। इस पहल में जंगली खाद्य फसलों की खेती को बढ़ावा दिया गया है। यह ऐसी फसलें हैं जिनकी शहरी बाजारों में अधिक मांग भी है और बेहतर दाम भी।

हमने ‘मॉडल प्लॉट’ नामक एकीकृत कृषि प्रणाली की शुरुआत की, जिसे गांव के मुखियाओं की जमीन पर विकसित किया गया। लेकिन ऐसे प्रत्येक प्लॉट की स्थापना आसान नहीं थी क्योंकि जमीन स्वयं मुखियाओं के लिए आय का मुख्य स्रोत होती है। इसलिए हमें उनके साथ संवेदनशील तरह से बातचीत करनी पड़ी। समझौते के तहत मुखियाओं को अपनी नियमित आर्थिक गतिविधियां जारी रखने की स्वतंत्रता है, लेकिन उनसे अपेक्षा की जाती है कि वे जमीन का एक छोटा हिस्सा इन मॉडल प्लॉट के लिए उपलब्ध कराएं। अभी तक 12 गांवों ने एक-एक एकड़ जमीन आवंटित करने की सहमति जतायी है। यह समझौता 15 वर्षों तक मान्य है, कानूनी रूप से सुरक्षित है और ग्रामीणों के लिए जमीन की सुगम्य पहुंच सुनिश्चित करता है।

इस पहल से लोग खेती में लंबे समय तक निवेश करने के लिए प्रोत्साहित होते हैं और उनमें जमीन के प्रति स्वामित्व की भावना भी विकसित होती है। ऐसे में उन्हें लगातार गांव दर गांव पलायन नहीं करना पड़ता है, जिससे परिवारों को अपना स्थायी ठिकाना बनाने में भी मदद मिलती है।

प्रत्येक एकड़ के मॉडल प्लॉट में ऐसे फलों और सब्जियों का मिश्रण लगाया जाता है, जिनका पोषण और औषधीय दोनों ही दृष्टि से महत्व है। उदाहरण के तौर पर, पैशन फ्रूट का उपयोग आमतौर पर फल या जूस के रूप में किया जाता है। लेकिन इसकी एक कड़वी पत्ती, जिसे स्थानीय भाषा में खल्थेई चे कहा जाता है, सूअर के मांस (पॉर्क) के व्यंजनों में डाली जाती है और रक्त शर्करा स्तर को कम करने में सहायक मानी जाती है। समुदाय के कई बुजुर्ग अपने बेहतर स्वास्थ्य के लिए नियमित रूप से इन पत्तियों का सेवन करते हैं।

चोनबेह नामक एक अन्य पौधे का फल भी शहरी इलाकों में काफी लोकप्रिय है। इसकी बड़ी पत्तियां इसे मॉडल प्लॉट की चारदीवारी के लिए उपयुक्त बनाती हैं। जब इसे चारों ओर लगाया जाता है, तो यह प्लॉट की स्वाभाविक घेराबंदी का काम करता है और बीच की फसलों तक धूप आसानी से पहुंचने देता है।

कई किसान अब इन जंगली फसलों की कटाई कर उन्हें बाजार में बेचने लगे हैं, जिससे उनकी आय बढ़ रही है। सबसे अहम बात यह है कि उन्हें अब रोजगार की तलाश में अपना गांव छोड़कर पलायन नहीं करना पड़ रहा है। वे उसी जमीन पर रहते हुए अपना गुजारा कर सकते हैं, जिसे उनकी पीढ़ियां घर मानती रही हैं।

पाओहाओलन हाओकिप वर्तमान में रूरल एड सर्विस में परियोजना समन्वयक (प्रोजेक्ट कोऑर्डिनेटर) के रूप में कार्यरत हैं।

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अधिक जानें: पढ़ें, ओडिशा के गंजम में मछली पालन से जुड़े पलायन और प्रतिबंध से क्यों जूझ रही हैं महिलाएं​?

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मध्य प्रदेश के बैगा: साझेदारी और सीख के सबक

चार्ट पेपर से कुछ समझती महिलायें_बैगा ​
हर सामुदायिक पहल में स्वयं सहायता समूह (एसएचजी), ग्राम संगठन और ग्राम सभा जैसी संस्थाओं को शामिल किया जाना चाहिए। | चित्र साभार:​ ​सत्त्व वसावदा सेनगुप्ता​

हाल ही में प्रदान ने मध्य प्रदेश के बालाघाट जिले के आदिवासी अंचल में बसी एक बैगा बस्ती में प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन से जुड़ी गतिविधि की। बैगा समुदाय की गिनती विशेष रूप से कमजोर जनजातीय समूहों में होती है। गांवों को बेहतर ढंग से समझने की हमारी रणनीति के तहत, हमने उन क्षेत्रों में सहभागी संपदा श्रेणीकरण (पार्टिसिपेटरी वेल्थ रैंकिंग) को अंजाम दिया जहां नई पहल की जानी थी। इस प्रक्रिया से हमें पता चला कि बस्ती के अधिकांश परिवार अत्यंत गरीब श्रेणी में आते हैं।

इस गतिविधि के नतीजों को देखते हुए यह तय हुआ कि इन परिवारों को स्थायी रोजगार से जोड़ने के लिए उन्हें कुछ संसाधन दिए जाने चाहिए। इसके तहत मधुमक्खी पालन और शहद उत्पादन के लिए जरूरी छत्ते और औजार उपलब्ध कराए गए, ताकि परिवारों को बुनियादी रोजगार मिल सके।

लेकिन जब यह संसाधन सौंपने के लिए परिवारों को बैठक में बुलाया गया तो उन्होंने उसे लेने से साफ इनकार कर दिया। उनका कहना था कि चूंकि गांव के प्रभावशाली (या संपन्न) लोगों से इस बारे में सलाह नहीं ली गई है, इसलिए वे बाद में आपत्ति कर सकते हैं। परिवारों को डर था कि कहीं वे उनके छत्ते ही न नष्ट कर दें। मामले को सुलझाने के लिए हमने कई बार इन प्रभावशाली लोगों को बैठक में बुलाने की कोशिश की, लेकिन वे तैयार नहीं हुए। पहले से ही बेहद असुरक्षित हालात में जी रहे परिवारों को और जोखिम में डालना सही नहीं था। इसलिए आखिरकार हमें वहां मधुमक्खी पालन का कार्यक्रम रोकना पड़ा।

इस प्रयास के असफल होने की एक बड़ी वजह यह भी रही कि गांव में कोई ग्राम संगठन मौजूद नहीं था। आमतौर पर यह संगठन स्वयं सहायता समूहों का एक संघ होता है, जो गांव में सामूहिक फैसले लेने और लोगों को एकजुट करने का मंच बनता है। ऐसे संगठन की गैर-मौजूदगी के चलते इस बस्ती में लोगों को संगठित करना बेहद मुश्किल हो गया था।

यहां तक आते-आते हालात हमारे हाथ से निकल चुके थे। यह क्षेत्र हमारे लिए बिल्कुल नया था और हमारी मुहिम से गांव के लोगों (खासतौर से प्रभावशाली वर्ग) के बीच झिझक और अविश्वास की भावना पैदा हो गयी थी। आमतौर पर हम नए क्षेत्रों में सबसे पहले समुदाय का भरोसा जीतने के लिए कुछ गतिविधियां करते हैं। जैसे, सामाजिक मानचित्रण, सामूहिक भ्रमण और एक्सपोजर दौरा। लेकिन इस क्षेत्र में हमने तब तक ये कदम नहीं उठाए थे।

इस अनुभव से हमने सीखा कि किसी भी योजना या कार्यक्रम को स्थानीय संस्थाओं, जैसे स्वयं सहायता समूह (एसएचजी), ग्राम संगठन और ग्राम सभा, के बगैर आगे बढ़ाना संभव नहीं है। साथ ही, भरोसा बनाने की प्रक्रिया भी केवल कुछ परिवारों तक सीमित नहीं रहनी चाहिए। इसे जाति और वर्ग की सीमाओं से परे पूरे गांव को साथ लेकर चलना चाहिए। यह विशेष रूप से उन समुदायों के लिए अहम है, जो पहले से हाशिए पर होते हैं और अक्सर सबसे पीछे छूट जाते हैं।

हमारे लिए सबसे बड़ी सीख यह रही कि किसी भी पहल को एक तय क्रम में लागू करना बहुत जरूरी होता है। इसमें सबसे पहले भरोसा बनाने से जुड़ी गतिविधियां शामिल हैं, फिर सहज-सरल बातचीत, पूरे गांव की सक्रिय भागीदारी और उसके बाद सहभागी सदस्यों का चयन। अगर यह क्रम न अपनाया जाए, तो टकराव और अविश्वास की स्थिति पैदा हो सकती है। इस कारण उन लोगों के लिए सतत रोजगार का रास्ता मुश्किल हो सकता है, जिन्हें इसकी सबसे अधिक जरूरत होती है।

सत्त्व वसावदा सेनगुप्ता मध्य प्रदेश के बालाघाट जिले के बिरसा ब्लॉक में संस्थागत सशक्तिकरण और प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन पर काम कर रहे हैं।

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राजस्थान में खेजड़ी की अंधाधुंध कटाई से बिगड़ता मरुस्थलीय जनजीवन

एक जगह पर काटे गए वृक्षों को दर्शाता हुआ एक चित्र_खेजड़ी की कटाई
सौर ऊर्जा प्लांट के लिए होने वाली कटाई से यहां के अन्य पेड़ों, जैसे देशी बबूल, मोरली, रोहिड़ा, जाल, पीपल, नीम, सफेतो, टाल्ली, केर आदि पर भी बड़ा संकट आ गया है। | चित्र साभारः किशनाराम गोदारा

मेरा नाम किशनाराम गोदारा है। मैं बीकानेर, राजस्थान में पड़ने वाले लून क्षेत्र के गांव नौखा दैया में रहने वाला एक किसान हूं। पिछले कुछ सालों से हमारी जमीन और जीवन पर एक नई चुनौती मंडरा रही है और यह है – सौर ऊर्जा परियोजनाएं। हमारे इलाके में सोलर प्लांट्स के लिए बड़े पैमाने पर जमीन अधिग्रहित की जा रही है और पेड़ों को बड़ी संख्या में काटा जा रहा है। इसमें राजस्थान का राज्य वृक्ष, खेजड़ी भी शामिल है। बड़े पैमाने पर इनकी कटाई से मरूस्थल की जैव विविधता, सामाजिक संस्कृति और हमारे आर्थिक जीवन पर गहरा असर पड़ रहा है।  

खेजड़ी कोई साधारण पेड़ नहीं है। यह मरुस्थल की पहचान है और यहां के जीवन और संस्कृति का अहम हिस्सा है। इसकी छांव में पला-बढ़ा मैं, जानता हूं कि यह पेड़ सूखी जलवायु में भी जमीन को उपजाऊ बनाता है, तापमान नियंत्रित करता है और हमारे पशुओं के लिए चारा उपलब्ध कराता है। इसकी पत्तियां ऊंट, बकरियों और भेड़ों के लिए भोजन हैं। इससे ग्रामीण पशुपालन चलता है, जो स्थानीय अर्थव्यवस्था का आधार है।  

हम पिछले चार वर्षों से खेजड़ी के पेड़ों की कटाई पर रोक के लिए लगातार प्रदर्शन कर रहे हैं, लेकिन सरकार के रवैये और कंपनियों के दबाव के कारण कटाई जारी है। कटाई के कारण पश्चिमी राजस्थान के तापमान में वृद्धि हुई है, बारिश कम हुई है और पर्यावरण पर गंभीर असर पड़ा है। खासकर पशु, पक्षी और स्थानीय जीव-जंतु जैसे रेगिस्तानी लोमड़ी, खरगोश, मोर प्रभावित हो रहे हैं। ये जानवर अब इस क्षेत्र में दिखने कम हो गए है।  

सौर ऊर्जा प्लांट के लिए होने वाली कटाई से यहां के अन्य पेड़ देशी बबूल, मोरली, रोहिड़ा, जाल, पीपल, नीम, सफेतो, टाल्ली, केर जैसे पेड़ों पर भी बड़ा संकट आ गया है। प्लांट लगने के कारण यहां की चरागाह जमीन बड़े स्तर पर कम हो रही है। हमारे लिए यह केवल पर्यावरण का विषय नहीं है बल्कि यह हमारी अर्थव्यवस्था और आजीविका से जुड़ा संकट है। इससे हमारी खेती आधारित आमदनी भी घट रही है। मूंगफली, धान जैसी फसलों की पैदावार गर्मी और पानी की कमी के कारण कम हो रही है। किसानों के लिए आर्थिक संकट बढ़ा है, मजदूरी और जमीन की कीमतों को लेकर भी असमंजस बना हुआ है। कई इलाकों में गोचर भूमि और चरागाह की कमी से पशुधन पालन प्रभावित हो रहा है।  

खेजड़ी का फल ‘सांगरी’ सूखी सब्जी बनाने के काम आता है जो यहां के भोजन का अभिन्न हिस्सा है। खेजड़ी के पेड़ों से हमारी सांस्कृतिक और धार्मिक मान्यताएं भी जुड़ी हैं। बिश्नोई समाज के लिए खेजड़ी पूजा-पाठ से संबंधित पेड़ है। लोग इसकी लकड़ी को यज्ञ, विवाह संस्कार, अंतिम संस्कार आदि में भी शामिल करते हैं। हर त्यौहार, खुशी, जन्म उत्सव में इस पेड़ का महत्व है लेकिन अब यही सबसे ज्यादा खतरे में है।  

पेड़ों की कटाई के अलावा इस क्षेत्र में जल संकट भी गहराता जा रहा है। राजस्थान में पहले से ही पानी की कमी है। लेकिन सौर ऊर्जा प्लांट्स में लगी प्लेटों को साफ करने के लिए बड़ी मात्रा में पानी का इस्तेमाल किया जाता है। हमारे तालाब और नहरों का हजारों लीटर पानी धुलाई में बर्बाद किया जा रहा है। जो पानी हमारी खेती और हमारे पीने के लिए उपयोगी है, उसको इस तरह से बहाया जा रहा है। इस तरह से आने वाले समय में इस क्षेत्र में जल संकट भीषण रूप ले सकता है। हमें लगता है कि सौर ऊर्जा जैसे विकास के नाम पर हमारी जड़ें ही काटी जा रही हैं। हमारी जमीन, हमारी संस्कृति और हमारी पीढ़ियों की विरासत को धीरे-धीरे मिटाया जा रहा है। 

पेड़ों की कटाई से हमारी ग्रामीण जीवनशैली पूरी तरह तहस-नहस हो सकती है। हमारे पुरखों से हमें जो मिला है, उसे बहुत सुनियोजित तरीके से खत्म किया जा रहा है। राजस्थान के इस क्षेत्र में प्राकृतिक और सांस्कृतिक ताने-बाने को कमजोर कर हमारा रोजगार हमसे छीना जा रहा है, हमारी जमीन को नष्ट किया जा रहा है। हम मानते हैं कि सौर ऊर्जा जरूरी है, लेकिन सवाल यह है कि किस कीमत पर? हमारी जड़ों को काटकर, हमारी जमीन छीनकर और हमारी संस्कृति को मिटाकर तो बिल्कुल नहीं।  

किशनाराम गोदारा राजस्थान के बीकानेर जिले के रहने वाले एक किसान हैं। 

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पलायन और प्रतिबंध से जूझती तटीय ओडिशा की महिलाएं​

एक साथ खड़ी कुछ महिला श्रमिक_रोजगार
​​पुरुष​ ​तो रोजगार के लिए पलायन कर लेते हैं, लेकिन महिलाओं के सामने कई तरह की परेशानियां खड़ी हो जाती हैं। | चित्र साभार: सी. एच. पद्मिनी

तटीय ओडिशा में स्थित मछुआरों का गांव पोडमपेटा, जहां मेरा घर है, वर्ष 2007 से समुद्र के बढ़ते स्तर के संकट से जूझ रहा है। वर्ष 2011 तक ज्वार-भाटे और लगातार कटाव ने इस गांव को चार हिस्सों में बांट दिया था, जिससे लगभग 475 परिवारों को अपना घर छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा था।​ 

​​अधिकतर परिवारों को सरकार की एक योजना के तहत पुनर्वासित किया गया, जिसमें हर परिवार को 3.5 लाख रुपये का मुआवजा दिया गया था। लेकिन इस विस्थापन ने उन्हें तट से हमेशा के लिए दूर कर दिया। इसके साथ ही उनकी आजीविका के पारंपरिक काम, जैसे लघु स्तर पर मछली पकड़ना और मछली सुखाना भी उनसे छिन गए। ऐसे में लोगों की मुश्किलें तब और बढ़ जाती हैं जब राज्य में सात महीने तक मछली पकड़ने पर प्रतिबंध लगा दिया जाता है, ताकि ऑलिव रिडली प्रजाति के कछुओं के अंडों का संरक्षण किया जा सके। इस दौरान हर परिवार को मिलने वाला 15,000 रुपये का कुल मुआवजा उनके गुजारे के लिए काफी नहीं है, खासकर तब जब उनके लिए वैकल्पिक रोजगार और मछली सुखाने की बुनियादी सुविधाएं मौजूद ही नहीं हैं।​ 

​​अब कई परिवार अपने गुजारे के लिए समूह बनाकर दिहाड़ी मजदूरी की तलाश में बेंगलुरु या विशाखापट्टनम जैसे शहरों की ओर मौसमी तौर पर पलायन करने लगे हैं। ऐसे में उनके बच्चों की पढ़ाई बीच में ही छूट जाती है और वे कम उम्र में ही घर पर हाथ बंटाने के लिए काम करने लगते हैं। वहीं माता-पिता भी साहूकारों के कर्ज के बोझ तले दब जाते हैं। मेरे अपने परिवार की कहानी भी इससे अलग नहीं है। मेरे पिता, जो मछुआरे हैं, अब मछली पकड़ने पर लगे प्रतिबंध के दौरान रोजगार के लिए तटीय केरल की ओर पलायन कर लेते हैं।​ 

​​प्रतिबंध के दौरान बंदरगाह के अभाव और मछली सुखाने की सुविधा न होने के कारण, कई परिवार खुले में ही मछली सुखाने के लिए मजबूर होते हैं। मुश्किल यह है कि इस दौरान ही सबसे अधिक संख्या में मछलियां उपलब्ध होती हैं, जिससे यह प्रतिबंध और कठोर हो जाता है।​ 

​​पुरुष​ ​तो रोजगार के लिए पलायन कर लेते हैं, लेकिन महिलाओं के सामने कई तरह की परेशानियां खड़ी हो जाती हैं। सूखी मछली तैयार करना, जो बरसों से उनका पारंपरिक काम रहा है, अब ढांचे और साधनों की कमी के कारण पहले से कहीं ज्यादा मुश्किल हो गया है। पर्याप्त शेड, मछलियों में नमक मिलाने की मेज या उन्हें सुखाने की जालियों की कमी के चलते महिलाओं की त्वचा पर संक्रमण और चकत्ते होना आम है। उनके पास न तो कोल्ड स्टोरेज की सुविधा है और न ही बाजार तक पहुंचने के साधन। पोडमपेटा की रहने वाली बी एलीबुधि बताती हैं, “हमारे पास कोल्ड स्टोरेज नहीं है। जब तक हम बाजार पहुंचते हैं, हमारी मछली सड़ने लगती है। इसलिए बिचौलिए भी उसे बहुत कम दाम में खरीदते हैं।”​ 

​​समस्या केवल यहीं तक सीमित नहीं है। समुदाय को सुरक्षित जेट्टी (नाव), विश्राम स्थल और पीने के पानी जैसी बुनियादी सुविधाएं भी मुहैया नहीं हैं। कई महिलाओं को मत्स्यपालन से जुड़ी योजनाओं की जानकारी ही नहीं है। जिन्हें जानकारी है, वे विस्थापन के बाद कागजी कार्यवाही में देरी के चलते उनका लाभ नहीं ले पाती। ग्राम पंचायत विकास योजना जैसी प्रक्रियाओं में भी महिलाओं की भागीदारी बहुत कम रहती है। मछुआरा समुदाय की महिलाएं, खासतौर से वे जो समुद्री कटाव की वजह से विस्थापित हुई हैं, अक्सर स्थानीय विकास पर होने वाली ग्राम सभाओं से दूर कर दी जाती हैं। नतीजतन, मछली पकड़ने पर मौसमी प्रतिबंध या मुआवजे जैसे जरूरी फैसलों में उन्हें शामिल नहीं किया जाता, जबकि इन नीतियों का सीधा असर उनकी आजीविका पर पड़ता है।​ 

​​इन चुनौतियों को कम करने की दिशा में कुछ प्रयास किए गए हैं। उदाहरण के लिए, सौर ड्रायरों का पुनःप्रयोग शुरू किया गया है। इनके जरिए महिलाएं स्वच्छ और सुरक्षित तरीके से मछली सुखा सकती हैं, जिससे अनियमित मौसम या जगह की कमी के बावजूद मछली खराब होने से बच जाती है। लंबे समय तक चलने वाली मछली-बंदी के दौरान यह तकनीक बेहद फायदेमंद साबित होती है।​ 

​​समुदाय की पहल से एक अग्रिम चेतावनी प्रणाली भी तैयार की गयी है। इसमें स्थानीय वॉलंटियर, मोबाइल अलर्ट और सार्वजनिक सायरन के उपयोग से तटीय इलाकों में रहने वालों को चक्रवातों या तूफानों की पहले से सूचना दी जाती है। ​​मैं वॉलंटरी इंटीग्रेशन फॉर एजुकेशन एंड वेलफेयर ऑफ सोसाइटी (व्यूज) नामक एक गैर-लाभकारी संस्था के साथ काम करती हूं,​ ​जो​​ आस-पास के गांवों की किशोरियों को डिजिटल उपकरणों की ट्रेनिंग भी दे रहा है, ताकि वे वैकल्पिक रोजगार के रास्ते तलाश सकें।​ 

​​लेकिन केवल इतनी कोशिशें काफी नहीं हैं। हमें बड़े स्तर पर सहयोग की जरूरत है। चाहे वह बुनियादी ढांचे का विकास हो या बाजार की सुविधा। साथ ही, यह भी सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि स्थानीय योजनाओं, जलवायु नीतियों और मत्स्य प्रबंधन से जुड़े फैसलों में विस्थापित परिवारों और मछली पालन पर आश्रित महिलाओं की राय भी ली जाए।

पद्मिनी व्यूज संस्था में डिजिटल लिटरेसी ट्रेनर हैं। 

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तमिलनाडु के मंदिरों में चमगादड़: आस्था से सुरक्षित और आस्था से ही संकटग्रस्त

कैलासनाथर मंदिर परिसर में चमगादड़ों का झुंड- तमिलनाडु के मंदिरों में चमगादड़
चमगादड़, तमिलनाडु की संस्कृति का अभिन्न हिस्सा रहे हैं और किसानों को मौसमी पूर्वानुमान लगाने में मदद करते हैं। | चित्र साभार: थानीगइवेल ए

तिरुनेलवेली जिले के मुरप्पनाडु गांव में स्थित, सदियों पुराना कैलासनाथर मंदिर बड़ी संख्या में चमगादड़ों का घर है। देशभर के अन्य प्राचीन स्मारकों की तरह, तमिलनाडु के मंदिर भी चमगादड़ों का बसेरा होने के लिए जाने जाते हैं। उदाहरण के लिए, कृष्णापुरम के एक मंदिर का एक भीतरी अंधेरा कमरा, हमेशा चमगादड़ों की आवाज से गूंजता रहता है जबकि इसके बाकी हिस्से में श्रद्धालु भोजन बनाने और पूजा-पाठ में लगे रहते हैं।

यहां मंदिरों से जुड़ी स्थानीय लोककथाओं में भी चमगादड़ गहराई से शामिल दिखते हैं। मुरप्पनाडु के पवित्र वनक्षेत्र में स्थित मरथु सुदलाई मंदिर को लेकर मान्यता है कि इसकी रक्षा एक उग्र देवता करते हैं। गांव के लोग एक शिकारी की कहानी सुनाते हैं जिसने चमगादड़ों पर जब गोली चलाने की कोशिश की तो गोली पलटकर उसे ही लग गई और उसकी मौत हो गई। वे इस घटना को देवता की तरफ से दिया गया दंड मानते हैं। समुदाय की आस्था है कि यही देवता जंगलों और चमगादड़ों की रक्षा कर रहे हैं।

मंदिर, चमगादड़ों के कई तरह के आवासों से केवल एक भर हैं, वे तिरुनेलवेली में फैले केला बागानों में भी रहते हैं। ये निशाचर जीव लंबे समय से तमिलनाडु की संस्कृति का हिस्सा रहे हैं और किसान इनकी मदद से मौसमी बदलावों का आकलन कर पाते हैं। जैसे कि जब चमगादड़ मंदिर से उड़कर, फलदार पेड़ों की ओर जाने लगते हैं तो यह संकेत होता है कि फलों के पकने का मौसम पास आ चुका है।

केले के घने बागानों में रहने वाले चमगादड़ों को किसान ‘बरसाती चमगादड़’ कहते हैं। इन चमगादड़ों के झुंड मानसून आने से पहले पेड़ों से उड़ जाते हैं और बारिश का मौसम खत्म होने के बाद ही लौटते हैं। गोपालसमुद्रम में केले की खेती करने वाले एक किसान बताते हैं कि इससे उन्हें बारिश का अनुमान लगाने में मदद मिलती है। इसी तरह कुंडापुरा के कमलाशिले की आदिस्थल गुहालय गुफा में कोलार लीफ-नोज्ड चमगादड़ रहते हैं जो इनकी एक विलुप्तप्राय प्रजाति है। इन्हें भी बारिश से ठीक पहले उड़ते हुए देखा जाता है और ऐसा होना संभावित बाढ़ का संकेत होता है।

चमगादड़ इस क्षेत्र की पारिस्थितिकी के लिहाज से भी बहुत महत्वपूर्ण हैं। वे आम, केला, अमरूद, कोको, एवोकाडो, लौंग, अंजीर, काजू, नारियल और अगावे जैसे कई पौधों के प्राकृतिक परागण में एक अहम भूमिका निभाते हैं। वे उन कीटों को भी खाते हैं जो आमतौर पर फसलों को नुकसान पहुंचाते हैं। इस तरह वे सहज और प्राकृतिक कीट नियंत्रक व्यवस्था की तरह भी काम करते हैं। लेकिन अपने इस पारिस्थितिक महत्व के बावजूद चमगादड़ों की संख्या लगातार घटती हुई प्रतीत होती है।

इस गिरावट का एक प्रमुख कारण मंदिरों में चल रहा नवीनीकरण कार्य है। कल्लिदैकुरिची में थिरुवदुरै मंदिर के एक गार्ड बताते हैं कि तीर्थयात्रा के लिए पर्यटकों के समूह यहां आते रहते हैं, इसलिए मंदिर परिसर को साफ रखने के लिए प्रबंधन को मजबूरन चमगादड़ों को हटाना पड़ता है। पहले, इस मंदिर में भारतीय उड़न लोमड़ी (इंडियन फ्लाइंग फॉक्स) प्रजाति के चमगादड़ों की एक बड़ी संख्या पाई जाती थी लेकिन लगातार हो रहे पुनर्निर्माण कार्य के चलते, इनकी संख्या भी लगातार कम हो रही है।

अशोका ट्रस्ट फॉर रिसर्च इन इकॉलजी एंड एन्वायरमेंट (एट्री) के एक शोधकर्ता बताते हैं कि बड़े त्यौहारों के दौरान धुएं या पानी की मदद से चमगादड़ों को मंदिरों से भगाया जाता है। अम्बासमुद्रम के काशीविश्वनाथर मंदिर में जहां कभी श्नाइडर लीफ नोज्ड चमगादड़ रहा करते थे, वहां उन्हें घुसने से रोकने के लिए अब जाल लगा दिए गए हैं। हालांकि मंदिर की दीवारों से परे चमगादड़ों को लेकर लोगों के विचार अलग हैं। कल्लिदैकुरिची के एक किसान कहते हैं कि “मैंने शाम छह बजे के बाद छोटे-छोटे चमगादड़ उड़ते देखे हैं। मुझे मालूम है कि वे खेतों को नुकसान पहुंचाने वाले कीटों को खाते हैं और खेती के लिए फायदेमंद होते हैं।”

कंगकना पाल वन्यजीव संरक्षण पर काम कर रही हैं और डब्ल्यूसीएस इंडिया की नेचर-कल्चर फेलोशिप का हिस्सा रही हैं।

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