सुलगते सवाल: कश्मीर में जलाऊ-लकड़ी की बदलती तस्वीर

लड़की का गट्ठा उठाकर ले जाती महिला_जलाऊ लकड़ी
कश्मीर के शीतोष्ण जंगलों में शंकुधारी पेड़ों की संख्या अधिक है जिनकी व्यावसायिक कीमत भी अच्छी होती है। | चित्र साभार: खुर्शीद अहमद शाह

“मैं गैस की जगह ज्यूं (लकड़ी) इस्तेमाल करना पसंद करती हूं।” यह कहना है जम्मू और कश्मीर के कुपवाड़ा जिले के राजवार की रहने वाली सजा बेगम का। वे बताती हैं, “अगर हम खाना बनाने और गर्म करने के लिए एलपीजी सिलेंडर का इस्तेमाल करते हैं तो वो आठ दिन से ज्यादा नहीं चल पाता है।” 

कश्मीर में, दिसंबर के अंतिम दिनों से जनवरी तक चलने वाला जाड़े का सबसे भीषण दौर चिल्लई कलां के नाम से जाना जाता है। इस दौरान स्थानीय निवासी खाना बनाने और आग तापने जैसे कामों के लिए जलाऊ लकड़ी और बुखारी (लकड़ी के पारंपरिक चूल्हे) पर आश्रित रहते हैं। वहीं सर्दियों में शहरी इलाकों से अलग-थलग होने के कारण दूर-दराज के क्षेत्रों में एलपीजी सिलेंडर पहुंच ही नहीं पाते हैं। ऐसे में लकड़ी इकट्ठा करना भले ही मुश्किल हो, लेकिन इसके लिए लोगों को पैसे नहीं खर्च करने पड़ते हैं।

आमतौर पर, नवंबर के अंत तक चिल्लई कलां के लिए जलाऊ लकड़ी इकट्ठा कर ली जाती है। गांव की औरतें जंगल से एक बार में एक गिढ़ (लकड़ी का गट्ठर, जिसमें दर्जन भर पुरानी या टूटी शाखें होती हैं) बांध कर घर ले जाती हैं। इसके लिए उन्हें तकरीबन चार किलोमीटर की चढ़ाई तय करनी पड़ती है।

चिनार, पोपलर और अखरोट जैसे चौड़े पत्ते वाले पतझड़ी पेड़ कश्मीर की स्थानीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ हैं क्योंकि इनसे ईंधन के साथ-साथ मवेशियों के चारे की व्यवस्था भी होती है। लेकिन बीते कुछ समय से इनकी जगह देवदार, सरो और चीड़ जैसे शंकुधारी पेड़ों ने ले ली है। बाजार में बेहतर कीमत और निर्यात की मांग के चलते इनकी संख्या में तेजी से इजाफा हुआ है।

बारामूला में लड़कों के सरकारी डिग्री कॉलेज में एसोसिएट प्रोफेसर के पद पर कार्यरत पर्यावरणविद् डॉ. हुमैरा कादरी कहती हैं, “कश्मीर के शीतोष्ण जंगलों (टेम्परेट फॉरेस्ट) में शंकुधारी पेड़ों की संख्या अधिक है क्योंकि यहां के मौसम और ऊंचाई से मेल खाने के साथ-साथ इनकी लकड़ी की अच्छी व्यावसायिक कीमत भी होती है। सामाजिक वानिकी विभाग के वनरोपण अभियान जैसे कई कार्यक्रमों में शंकुधारी पेड़ों को प्राथमिकता दी जाती है। पुनरुद्धार (रिस्टोरेशन) की अधिकांश योजनाओं में भी शंकुधारी पेड़ों को ही बढ़ावा दिया जाता है क्योंकि ये तेजी से बढ़ते हैं और व्यावसायिक रूप से अधिक मूल्यवान हैं। इस पूरे क्रम में अक्सर चौड़े पत्ते वाले पेड़ों के पर्यावरणीय गुणों की अनदेखी की जाती है।”

सूखे शंकु आग जलाने के लिए तो ठीक होते हैं, लेकिन उनमें पतझड़ी पेड़ों जैसी प्रभावी ऊर्जा की कमी होती है। हुमैरा बताती हैं, “लकड़ी की कम गहराई और राल (रेजिन) की अधिक मात्रा के चलते शंकु तेजी से आग पकड़ते हैं। इसके ठीक उलट पतझड़ी लकड़ी मोटी होती है, धीरे जलती है और देर तक गर्माहट देती है। इसलिए खाना बनाने और लंबे समय तक आग तापने के लिए पतझड़ी पेड़ कहीं अधिक कारगर होते हैं।” 

इस बात को ध्यान में रखते हुए हुमैरा ऊर्जा-प्रभावी चूल्हों की पैरवी करती हैं, जो लकड़ी की समान मात्रा से अधिक ऊर्जा पैदा कर सकते हैं। उनका कहना है, “इससे लकड़ी की कम खपत होगी, हमारे प्राकृतिक संसाधन बचेंगे और वातावरण पर भी दुष्प्रभाव नहीं पड़ेगा।” 

बारामूला जैसे कई क्षेत्रों में अब लोग जलाऊ लकड़ी पर अति-निर्भर नहीं रहना चाहते हैं। शायद यही कारण है कि ऐसी जगहों पर तुर्की बुखारियां तेजी से प्रचलित हो रही हैं। टीन की पारंपरिक बुखारी की तुलना में लोहे से बनने वाली यह बुखारी अधिक प्रभावी रूप से गर्माहट पैदा करती है। इनमें खाना बनाने के लिए भी अलग डिब्बा मौजूद होता है। इसके अलावा यह लकड़ी की जगह बायोमास से चल सकती हैं, जिसमें सूखे पत्तों और पेड़ के बहुत से अन्य हिस्सों का उपयोग किया जा सकता है।

खुर्शीद अहमद शाह जम्मू और कश्मीर स्थित एक पत्रकार हैं।

यह मूल रूप से 101 रिपोर्टर्स में प्रकाशित एक लेख का संपादित अंश है।

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शादी का नया ट्रेंड: सरकारी दूल्हा अनिवार्य!

एक बड़े आकार की गुड़िया_सरकारी दूल्हा
सरकारी नौकरी की चाहत इस हद तक बढ़ गयी है कि अच्छे-खासे होनहार और कमाऊ लड़कों को भी रिश्ते नहीं मिल रहे हैं। | चित्र साभार: सरिता

मेरा नाम सरिता है। मैं राजस्थान के चुरू जिले के एक छोटे से गांव में रहती हूं। मैं जिस इलाके से हूं, वहां तीन जिलों- चुरू, झुंझुनू और सीकर की साझी लोक संस्कृति है। इस इलाके को शेखावाटी के नाम से जाना जाता है। कहा जाता है कि राजस्थान के किसी भी अन्य हिस्से की तुलना में यहां के लोगों की सरकारी नौकरियों में सबसे अधिक संख्या है। यह अपने आप में एक उपलब्धि है, लेकिन यह एक नई समस्या को भी जन्म दे रही है। 

अब हमारे इलाके में हर घर को अपनी लड़की के लिए सरकारी नौकरी वाला दूल्हा चाहिए। जो सरकारी नौकरी में हैं, उनके लिए रिश्तों की लाइन लगी रहती है। वहीं प्राइवेट सेक्टर में अच्छा कमाने वालों तक से कोई विवाह नहीं करना चाहता। ऐसा लगता है कि एक बार सरकारी नौकरी लग गयी, तो इंसान के और कोई गुण मायने ही नहीं रखते।

इससे कई लड़कियों की शादी में माता-पिता को भारी खर्च करना पड़ रहा है। समाज में यह धारणा व्याप्त है कि अगर लड़की के लिए सरकारी नौकरी वाला दूल्हा तलाशना है, तो दहेज में भारी रकम देना जरूरी होता है। लोग मानते हैं कि ऐसा न करने पर समाज उन्हें तिरस्कार की नजर से देखेगा। भले ही लड़के के परिवार वाले खुलकर अपनी मांग न रखें, लेकिन लड़की के माता-पिता खुद इसे अपनी जिम्मेदारी समझते हैं और अधिक से अधिक दहेज देने का प्रयास करते हैं।

मेरी जानकारी में कुछ अविवाहित लड़कियों की उम्र 30 साल से ज्यादा है। हालांकि 4-5 साल से रिश्ते आ रहे हैं, लेकिन उनके माता पिता सरकारी नौकरी वाले लड़के की तलाश कर रहे हैं।

यह सोच सिर्फ लड़कियों की शादियों में ही अड़चन नहीं डाल रही, बल्कि प्राइवेट सेक्टर में काम करने वाले लड़कों के लिए भी मुश्किलें बढ़ा रही है। मेरे अपने परिवार का ही उदाहरण लें तो मेरे छोटे देवर की हाल ही में सरकारी नौकरी लगी है। अभी उनकी शादी लायक उम्र भी नहीं है, लेकिन फिर भी उनके लिए हर दूसरे दिन रिश्ते आ रहे हैं। वहीं मेरे दूसरे देवर, जो एक प्रतिष्ठित प्राइवेट स्कूल में शिक्षक हैं और अच्छी तनख्वाह कमा रहे हैं, उनके लिए रिश्ते ढूंढना मुश्किल हो रहा है।

सरकारी नौकरी की चाहत इस हद तक बढ़ गयी है कि अच्छे-खासे होनहार और कमाऊ लड़कों को भी रिश्ते नहीं मिल रहे हैं। दूसरी ओर सरकारी नौकरी मिलते ही लड़कों की ‘मार्केट वैल्यू’ इतनी बढ़ जाती है, कि लड़की की मंजूरी भी मायने नहीं रखती।

परिजनों का मानना है कि सरकारी नौकरी सुरक्षा देती है और यह कुछ हद तक सच भी है। हालांकि, शादी केवल आर्थिक सुरक्षा के आधार पर तय नहीं की जा सकती। इस प्रक्रिया में इंसान की सोच और समझदारी भी निर्णायक भूमिका निभाते हैं।

सरकारी नौकरी अच्छी होती है, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि अन्य क्षेत्रों में कार्यरत लोग कम योग्य होते हैं। मेरे पति, जो प्राइवेट सेक्टर में हैं, अधिक मेहनतकश और खुले विचारों के हैं। लेकिन अमूमन रिश्ते तय करते समय इन एक व्यक्ति के इन पहलुओं की उपेक्षा की जाती है।

इस क्षेत्र में सरकारी नौकरी को शादी की गारंटी मान लिया गया है। इससे तेजी से यह धारणा प्रबल हो रही है कि एक व्यक्ति की काबिलियत सिर्फ उसकी नौकरी से आंकी जानी चाहिए।

लेखक आईडीआर टीम के एक सदस्य के परिजन हैं।

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संघर्ष के पहियों पर सपनों की राह: पन्ना की आदिवासी स्केटबोर्डर लड़कियां

स्केट बोर्डिंग का खाली मैदान— स्केट बोर्डिंग
स्केट बोर्डिंग खेल सिर्फ एक शौक नहीं, बल्कि कई लड़कियों भविष्य की कुंजी है। | चित्र सभार: आशा गोंड

मेरा नाम आशा गोंड है और मैं पन्ना जिले के जनवार गांव की रहने वाली हूं। स्केट बोर्डिंग मेरा जुनून है, मेरा सपना है ! लेकिन इस सपने को पूरा करने की राह में कई अड़चनें हैं।

जब पहली बार मैंने स्केट बोर्डिंग के बारे में सुना, तो यकीन नहीं हुआ कि मेरे जैसी किसी गांव की लड़की भी इसे खेल सकती है। 2014 में जर्मनी की उलरिके रेनहार्ट यहां आयी और उन्होंने हमें इस खेल से परिचित करवाया। उनके मार्गदर्शन में ही हमने यह खेल सीखा। हम गिरते-पड़ते आगे बढ़ते गए और धीरे-धीरे यह खेल हमारी ज़िंदगी का हिस्सा बन गया।

लेकिन शुरुआती दिनों में मुझे बहुत कुछ सहना पड़ा। गांव के लोग कहते थे, “ऐसे खेल लड़कियों के लिए नहीं होते।” मेरे माता-पिता भी डरते थे कि लोग क्या कहेंगे। लेकिन मैंने हार नहीं मानी। फिर जब मैंने 2018 में विश्व स्केट बोर्डिंग चैम्पियनशिप में भारत का प्रतिनिधित्व किया तो हालात बदले और मेरा परिवार भी मेरा साथ देने लगा।

आज मैं अपने गांव के 20-25 लड़के और लड़कियों को स्केट बोर्डिंग सिखाती हूं। हम में से कई लड़कियों ने राष्ट्रीय स्तर पर गोल्ड मेडल जीते हैं। लेकिन अब हमारी सबसे बड़ी चुनौती है फंड और खेल की अपनी जगह। पिछले तीन-चार सालों से हम पैसों की तंगी के चलते राष्ट्रीय स्तर की प्रतियोगिताओं में भाग नहीं ले पा रहे हैं। हम यात्रा, रहने-खाने और रजिस्ट्रेशन फीस का सारा खर्च खुद उठाने में सक्षम नहीं हैं।

हमारी दूसरी बड़ी चुनौती है खेल की जगह की कमी। हमारे पास अपना स्केट पार्क नहीं है। अभी जो पार्क और कम्युनिटी सेंटर है, वह लीज़ पर है, जिसके लिए हमें हर साल 60-65 हजार रुपये भरने पड़ते हैं। जब तक हमारे पास अपनी जगह नहीं होगी, तब तक हम इस खेल को सही तरीके से आगे नहीं बढ़ा पाएंगे।

मेरे साथ खेलने वाली कल्पना गोंड भी यही कहती हैं कि “हमारे गांव में लड़कियों के लिए पहले से ही कई रुकावटें हैं। जब हम स्केट बोर्डिंग करते हैं, तो लोग तरह-तरह की बातें करते हैं। कहते हैं कि ये लड़कियां तो लड़कों के साथ घूमती हैं, इनकी शादी करवा देनी चाहिए। हमने इन बातों को नज़रअंदाज़ कर सिर्फ अपने खेल पर ध्यान दिया। लेकिन अब फंड और जगह की समस्या हमारी राह में सबसे बड़ी बाधा बन रही है।”

मेरी साथी प्रियंका गोंड, जो हाई स्कूल में पढ़ती हैं, कहती हैं, “शुरुआत में मुझे डर लगता था। लेकिन जब मैं इस खेल में माहिर हो गयी, तो लगा कि यह मेरा भविष्य हो सकता है। अब मैं चाहती हूं कि छोटी लड़कियों को भी यह खेल सिखाऊं। लेकिन इसके लिए हमें संसाधन चाहिए।”

हम सरकार और समाज से अपील करते हैं कि हमारी मदद करें। यह खेल सिर्फ एक शौक नहीं, बल्कि हमारे भविष्य की कुंजी है। यदि हमें पर्याप्त फंड और अपनी जगह मिल जाए, तो हम देश के लिए और भी बड़े मुकाम हासिल कर सकते हैं।



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सिक्किम का लेप्चा समुदाय अपनी नदियों को लेकर चिंता में क्यों है?

जोंगू क्षेत्र सिक्किम के उत्तरी जिले में कंचनजंगा राष्ट्रीय उद्यान के बाहरी इलाके में स्थित है। यह लेप्चा आदिवासी समुदाय का पारंपरिक रहवास है। तीस्ता और उसकी कई सहायक नदियां जोंगू से होकर बहती हैं। लेकिन पिछले दो दशकों में जलवायु परिवर्तन और जलविद्युत संयंत्र (हाइड्रोपॉवर प्लांट) के चलते यहां की नाजुक पारिस्थितिकी और बिगड़ गयी है।

इलाके में भूस्खलन और अचानक बाढ़ के मामले तेजी से बढ़े हैं। 2016 में, एक बड़े भूस्खलन ने लेप्चा समुदाय के जीवन को अस्त-व्यस्त कर दिया था। उस समय ऊपरी जोंगू क्षेत्र के 16 गांव सिक्किम के बाकी हिस्सों से पूरी तरह से कट गए थे। आज नौ साल बाद भी ये गांव महज एक अस्थाई पुल के जरिए आसपास के इलाकों से जुड़े हुए हैं, जो मानसून के दौरान बाढ़ में बह जाता है। स्थानीय लोगों द्वारा बनाए गए इस पुल को कई बार भारतीय सेना भी इस्तेमाल करती है। इसके बाद भी, सरकार ने इस मसले का कोई स्थाई समाधान नहीं निकाला है। 2024 में भी इलाके में बादल फटने से भारी बाढ़ आयी थी, जिससे कई गांव डूबने के साथ-साथ संपत्ति और पशुधन का नुकसान भी हुआ था।

ऐसी आपदाएं जलविद्युत परियोजनाओं के कारण अक्सर और भी बढ़ जाती हैं। 2009 में तीस्ता-3 जलविद्युत परियोजना के विरोध में समुदाय के लोगों ने भूख हड़ताल की थी, लेकिन फिर भी परियोजना को रोका नहीं गया। यहां तक कि अदालती मामले भी दायर किए गए, पर उनका कोई फायदा नहीं हुआ। 2023 में, इस परियोजना के तहत बनाया गया बांध हिमनदी में आयी एक भयंकर बाढ़ में बह गया था। इस हादसे में 55 लोगों की मौत भी हुई। इसके बावजूद अब बांध का पुनर्निर्माण हो रहा है और स्थानीय लोगों की कोई राय नहीं ली जा रही है।

इलाके के पर्यावरण में इस तबाही के कारण लेप्चा समुदाय की संस्कृति भी खतरे में आ गयी है। लेप्चा सिक्किम के मूल निवासी हैं और उनके लगभग सभी रीति-रिवाज नदी और जंगलों से जुड़े हुए हैं। लेप्चा परंपरा के अनुसार, मृत्यु के बाद व्यक्ति की आत्मा को कंचनजंगा पर्वत की तलहटी में लौटना पड़ता है। समुदाय के पुरोहित आत्मा को नदी किनारे तक ले जाते हैं। वहां से आत्माएं रोंगयोंग नंदी के जरिए अपना सफर तय करती हैं, जो तीस्ता की एक सहायक नदी है। इस तरह लेप्चा अपने नदी, जंगल और समूचे पर्यावरण को समुदाय का एक अभिन्न अंग मानते हैं। एक अन्य मान्यता के अनुसार, हर परिवार से एक पुरुष सदस्य साल में एक बार जंगल में चढ़ावा देते हैं। इसमें वे चावल, फल, जिंदा मुर्ग़े और खमीर (फरमेंट किया हुआ) मिलेट का चढ़ावा देते हैं। परंपरागत रूप से एक शिकारी समुदाय होने के नाते लेप्चा लोगों का मानना है कि जंगल उन्हें जो कुछ भी देता है, उसके लिए उन्हें जंगल का आभार जताना चाहिए। 

बीते कुछ सालों में कई दवा कंपनियों ने तीस्ता किनारे अपनी फैक्ट्रियां खड़ी की हैं जिससे नदी में प्रदूषण बढ़ गया है। स्थानीय लोग अब रोजी-रोटी के लिए पर्यटन क्षेत्र का रुख कर रहे हैं, ताकि उन्हें बिजली संयंत्र या दवा फैक्टरियों को अपनी जमीन बेचने के लिए विवश न होना पड़े । वहीं युवा अब बेहतर अवसरों की तलाश में शहरी क्षेत्रों की ओर पलायन कर रहे हैं।

लेप्चा समुदाय जोंगू इलाके को नदी अभयारण्य (रिवराइन सैंक्चुरी) का दर्जा देने की मांग कर रहा है, ताकि इन निरंकुश विकास गतिविधियों पर कुछ हद तक लगाम लगायी जा सके। लेकिन सरकार के हस्तक्षेप और समर्थन के बिना यह संभव नहीं है। अगर ऐसा ही चलता रहा, तो इस क्षेत्र की पारिस्थितिकी लगातार बिगड़ती चली जाएगी।

मयल्मित लेप्चा एक सामाजिक कार्यकर्ता और ‘सिक्किम लेप्चा इंडिजीनियस ट्राइबल एसोसिएशन’ की प्रमुख हैं।

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एप्प से आंदोलन तक: क्या है तेलंगाना के राइड चालकों की मांग?

कोविड-19 महामारी के दौरान राइड सेवा मुहैया कराने वाली एग्रीगेटर एप्प की कुल संख्या में तेजी से इज़ाफा हुआ, जिससे गिग संबंधी कामों में भी वृद्धि आयी। 2019 से पहले जहां केवल दो या तीन राइड एप्प मौजूद थी, वहीं आज इनकी संख्या बढ़कर दर्जनों तक पहुंच गयी है। ऐसे में बढ़ती प्रतिस्पर्धा के कारण कंपनियां ग्राहकों को लुभाने के लिए बुकिंग का किराया घटाती रहती हैं, जिससे मेरी तरह बहुत से गिग और प्लेटफॉर्म वर्करों की कमाई में लगातार गिरावट आ रही है।

बीते कुछ वर्षों में तेलंगाना गिग और प्लेटफॉर्म वर्कर्स यूनियन ने इस मुद्दे पर बहुत से अभियानों और हड़तालों का संचालन किया है। 2023 में हमने हैदराबाद में ‘नो एसी कैंपेन’ की शुरुआत की। एक तो हमें वैसे ही राइडिंग एप्प से कोई खास कमाई नहीं होती और उस पर अगर हम गर्मी में एसी भी चलाएंगे, तो हमारी कोई बचत नहीं हो पाएगी। इसलिए जब कोई विकल्प नहीं बचा, तो हमने गर्मियों में बिना एसी के गाड़ियां चलानी शुरू कर दी। हमारी मुहिम एक हद तक सफल भी हुई। इसने ग्राहकों के साथ-साथ एप्प कंपनियों का भी ध्यान खींचा। नतीजन कुछ एप्प कंपनियों ने हमारे किराए में मामूली बढ़ोतरी की। लेकिन कंपनियों को यह समझना चाहिए कि जब भीषण गर्मी पड़ती है, तब बदले हुए मौसम के अनुसार हम भी उचित किराया पाने के हकदार हैं।

गिग और प्लेटफॉर्म वर्करों के हितों की रक्षा के लिए यूनियन लगातार कानूनों की मांग कर रही है। हमने तेलंगाना गिग और प्लेटफॉर्म वर्कर्स (अधिकार और कल्याण) विधेयक का प्रस्ताव दिया है, जिसमें गिग और प्लेटफॉर्म वर्करों के लिए एक विशिष्ट पहचान प्रणाली, न्यूनतम मजदूरी, समान किराया और शिकायत निवारण तंत्र जैसे जरूरी प्रावधान शामिल हैं।

हमारी मांगों की सुनवाई और कार्रवाई सुनिश्चित करने के लिए यूनियन लगातार सरकार और अन्य हितधारकों के साथ बातचीत कर रही है। उदाहरण के लिए, हम चार वर्षों के लंबे संघर्ष के बाद हैदराबाद के राजीव गांधी अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे पर कैब ड्राइवरों को निःशुल्क पार्किंग, शौचालय और विश्राम स्थलों की सुविधा मुहैया कराने में सफल हुए हैं। आज जब गिग और प्लेटफॉर्म से जुड़ी अर्थव्यवस्था तेजी से बढ़ रही है, हम यह सुनिश्चित करना चाहते हैं कि सरकार और निजी कंपनियां हमारे हितों की अनदेखी न करते हुए हमें बुनियादी सुविधाएं प्रदान करें।

इन तमाम प्रयासों के बावजूद हम अभी भी बेहद कम किराए पर काम करने के लिए विवश हैं। महामारी से पहले हम 6 घंटे में जितना कमा लेते थे, उतना अब 15 घंटे काम करने के बाद भी संभव नहीं हो पाता है। इस समस्या के चलते हमने हाल ही में एक नयी मुहिम शुरू की है। हम ग्राहकों को मैसेज करते हैं कि कम किराए के कारण हम उनकी राइड स्वीकार नहीं कर सकते। साथ ही हम उन्हें किसी अन्य राइड एप्प को आज़माने की सलाह देते हैं। अक्सर ग्राहक हमसे कहते हैं कि वे अतिरिक्त भुगतान करने को तैयार हैं। लेकिन हमें ग्राहकों की जेब से पैसे नहीं चाहिए। हमारी मांग बस इतनी है कि सभी कंपनियां और एग्रीगेटर एप्प समान और उचित किराया निर्धारित करें। इससे हमारी आय स्थिर रहेगी और पीक-आवर (जब मांग ज़्यादा होती है) के अलावा अन्य समय पर किराए में आने वाली गिरावट को रोका जा सकेगा।

मौजूदा समय में हर एग्रीगेटर एप्प केवल अपने प्रतिस्पर्धियों को पीछे छोड़ने की होड़ में अधिक से अधिक ग्राहकों को रिझाना चाहती है। उन्हें इस बात की कोई परवाह नहीं है कि इसका खामियाजा गिग और प्लेटफॉर्म वर्करों को भुगतना पड़ रहा है। इसलिए हमारी यूनियन बदलाव चाहती है। हमारा लक्ष्य है कि कंपनियां न केवल ग्राहकों की जरूरतों को ध्यान में रखें, बल्कि गिग वर्करों के लिए भी उचित वेतन और सम्मानजनक कार्य परिस्थितियां सुनिश्चित करें।

मोहम्मद अब्दुल मज़हर अफ़सर तेलंगाना गिग और प्लेटफॉर्म वर्कर्स यूनियन के सदस्य हैं।

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विकलांगता मेरी कहानी का एक हिस्सा है, पूरी कहानी नहीं!

गोलू बैगा अपने परिवार के साथ—विकलांगता
जब मैं आठ साल का था, तब मेरे पैरों ने अचानक काम करना बंद कर दिया था। | चित्र साभार : सतीश भारतीय

मैं गोलू बैगा, जमुआ गांव का रहने वाला हूं। मेरे छोटे से गांव में तकरीबन दो हज़ार लोग रहते हैं। इनमें से ज़्यादातर लोग मेरी तरह बैगा आदिवासी समुदाय से हैं। मेरी उम्र उन्नीस साल है और पिछले ग्यारह वर्षों से मेरे पैर मेरा साथ नहीं दे रहे हैं।

जब मैं आठ साल का था, तब मेरे पैरों ने अचानक काम करना बंद कर दिया था। शुरुआत में लगा कि कुछ दिनों में ठीक हो जाऊंगा। लेकिन फिर धीरे-धीरे यह अहसास हुआ कि अब शायद ज़िंदगी भर ऐसे ही रहना होगा। मेरा स्कूल जाना, दोस्तों के साथ खेलना, दौड़ना, सब एक झटके में बदल गया।

मेरे पिता बचपन में ही गुजर गए थे। उसके बाद मां भी छोड़कर चली गयी और दोनों बड़े भाई भी साथ नहीं रहे। अब घर में बस एक छोटा भाई और दादी हैं, जो मेरी पूरी दुनिया है। बुजुर्ग होने के नाते दादी काम नहीं कर सकती। लेकिन वो फिर भी हमारे लिए दिन-रात मेहनत करती हैं और बकरियां चराती हैं। इसके अलावा हमारी आमदनी का कोई ठोस जरिया नहीं है।

कुछ समय पहले मैंने दीवारें रंगने का काम शुरू किया था। लेकिन उठने-बैठने की बढ़ती दिक्कतों के चलते वह भी हाथ से छूट गया। मैं चाहता हूं कि लोग मुझे ‘बेचारा’ न समझें। विकलांग होना मेरी पहचान नहीं है। यह तो बस मेरे जीवन का एक हिस्सा है। लेकिन समाज मुझे एक काबिल इंसान के रूप में नहीं, बल्कि बोझ की तरह देखता है। जब भी मैं गांव के किसी आयोजन में जाता हूं, तो लोग मुझे अजीब नजरों से देखते हैं।

हाल ही में मुझे शुभम भैया (स्थानीय पत्रकार) ने विकलांग पहचान दस्तावेज और आयुष्मान कार्ड बनवाने में काफी मदद की। उनके सहयोग के बाद ही सरकार से व्हीलचेयर भी मिली। हालांकि इसे गांव के पथरीले एवं कच्चे रास्तों पर चलाना बेहद मुश्किल है। इसे चलाने के लिए पीछे एक धकेलने वाला भी चाहिए।

मैंने विकलांग पेंशन के लिए सरपंच और पंचायत सचिव से कई बार गुहार लगायी है। कभी वेबसाईट के ठप होने तो कभी ओटीपी नहीं आने पर हमें दुबारा आने के लिए कहा जाता है। लेकिन एक विकलांग व्यक्ति के लिए बार-बार कहीं आना-जाना आसान नहीं होता है। उसे हर बार किसी को साथ चलने के लिए ढूंढना पड़ता है। हमें आश्वासन और हमदर्दी तो हर जगह खूब मिलती है, लेकिन समाधान नहीं।

मुझे किसी की दया नहीं, इज़्ज़त चाहिए। अगर कोई मेरी मदद भी करना चाहे, तो यह सोचकर करे कि मैं भी इसी समाज का हिस्सा हूं, कोई बोझ नहीं।

मेरा सपना था कि मैं पढ़ाई करूं, दुनिया घूमूं और लोगों की मदद करूं। लेकिन फिलहाल मेरी सबसे बड़ी इच्छा बस इतनी है कि मैं खड़ा हो सकूं, चल सकूं, ताकि मैं अपनी दादी का सहारा बन पाऊं। मैं चाहता हूं कि मेरे जैसे लोग इलाज के लिए किसी के मोहताज न रहें।

कानून कहता है कि विकलांग लोगों के लिए विशेष अधिकार हैं, इलाज की सुविधाएं मुफ्त होनी चाहिए, स्वरोजगार के लिए ऋण मिलना चाहिए। लेकिन हकीकत यह है कि मैं और मेरे जैसे कई लोग इन योजनाओं से कोसों दूर हैं। मेरी कहानी बस मेरी नहीं है। यह उन लाखों विकलांग लोगों की कहानी है, जो सिर्फ सम्मान से जीना चाहते हैं। सवाल यह है कि कब तक हमें समाज की उदासीनता झेलनी होगी और सरकारी योजनाओं के ज़मीन पर लागू होने का इंतज़ार करना पड़ेगा?

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कश्मीर विलो: स्थानीय बैट उद्योग पर गहराते संकट के बादल 

बैट निर्माण करता एक कारीगर-कश्मीर विलो बैट
प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से करीब 1.5 लाख कश्मीरियों की रोज़ी-रोटी से जुड़ा विलो उद्योग आपूर्ति की चुनौतियों से जूझ रहा है, जिससे कश्मीरी विलो बैट का भविष्य अधर में है। | चित्र साभार: कैसर अली  

कश्मीर घाटी के अनंतनाग जिले में एक सदी से भी अधिक समय से कश्मीर विलो से क्रिकेट बैट बनते आए हैं। हालांकि, पेशेवर मानकों पर खरा न उतर पाने के चलते यह बैट लंबे समय तक अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर दिखायी नहीं दिए। लेकिन साल 2021 और 2022 के टी-20 विश्वकप में कई अंतर्राष्ट्रीय खिलाड़ियों ने इन्हें अपनाया और कहानी बदल गयी। नतीजन, दुनिया भर में इनकी मांग तेज़ी से बढ़ी। आज इस बैट उद्योग से लगभग डेढ़ लाख कश्मीरी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से जुड़े हुए हैं। लेकिन हालिया समय में कश्मीर विलो की कमी के चलते इसकी बढ़ी हुई वैश्विक मांग की आपूर्ति एक बड़ी चुनौती बनकर उभरी है। 

यह कैसे हुआ? इस सवाल का जवाब देते हुए जीआर8 स्पोर्ट्स के फवाज़ उल कबीर बताते हैं कि, “मैं 2008 में क्रिकेट खेलने वाले कई देशों में इन बैटों के सैंपल लेकर गया। वहां जाकर मुझे समझ आया कि हमारे बैट में वह बैलेंस, स्ट्रोक और स्वीट स्पॉट नहीं है, जो पेशेवर खिलाड़ियों को चाहिए होता है। एक अच्छा पेशेवर क्रिकेट बैट बनाने की सही प्रक्रिया क्या है, यह समझने में मुझे पूरे 11 साल का समय लगा।”

दुनिया में केवल दो प्रकार के विलो होते हैं, जिनसे क्रिकेट बैट बनाए जा सकते हैं: इंग्लिश विलो और कश्मीर विलो। फवाज़ स्वीकार करते हैं कि कश्मीर विलो से पेशेवर क्रिकेट बैट बनाना बेहद मुश्किल काम था। वे कहते हैं, “उस समय यह लगभग असंभव था। फिर भी लगातार कोशिशों और मेहनत के साथ हम ऐसे क्रिकेट बैट बनाने में सफल हुए, जो अंतर्राष्ट्रीय मानकों पर खरे उतरते थे। लेकिन इस सफलता के साथ एक जोखिम ने भी दस्तक दी। वर्तमान में यह उद्योग धीरे-धीरे खत्म होने की कगार पर है।”

कई दशकों तक बैट उद्योग के लिए विलो के पेड़ों को काटा गया और उन्हें दोबारा लगाए जाने की कोई रणनीति बनाने पर ध्यान नहीं दिया गया। आज कश्मीर विलो की मांग उसकी आपूर्ति से कहीं अधिक है। फवाज़ चेतावनी देते हुए कहते हैं कि, “हमें अपनी ज़रूरत के लिए जितने पेड़ लगाने चाहिए थे, हम उन्हें लगाने में असफल रहे। हमारी हालिया मांग को पूरा करने के लिए हमें हर साल 70,000 पेड़ों की ज़रूरत है, जो आने वाले सालों में एक लाख पेड़ों तक पहुंच सकती है। लेकिन अगर ऐसा ही चलता रहा, तो अगले पांच सालों में यह उद्योग ठप हो जाएगा।” वह यह भी बताते हैं कि एक दशक पहले तक कश्मीर में 2,50,000 क्रिकेट बैट बनाए जा रहे थे। लेकिन अब यहां हर साल 30 लाख बैट बनाए जाते हैं। इसका मतलब है कि महज दस सालों में इनके उत्पादन में 15 गुना इज़ाफा हुआ है।

मोहम्मद रिज़वान बीते आठ सालों से बैट बनाने वाली एक फ़ैक्ट्री में काम कर रहे हैं। उन्होंने एक सहायक के तौर पर काम शुरू किया था और समय के साथ अपनी लगन से क्रिकेट बैट बनाने का कौशल सीखा। उनका मानना है कि नई पीढ़ी भले ही बैट उद्योग को फलते-फूलते देख रही है, लेकिन इसका कोई सुरक्षित भविष्य नहीं है। वह कहते हैं, “हम लगातार विलो के पेड़ों को काट रहे हैं, लेकिन बदले में एक भी पेड़ नहीं लगा रहे हैं। विलो के पेड़ को ठीक तरह से फलने-फूलने में लगभग 20 सालों का समय लग जाता है। इसका मतलब है कि अगर हमने अभी सही कदम न उठाए, तो आने वाली पीढ़ियों को इसका खामियाजा भुगतना पड़ेगा।”

हालिया स्थिति के मद्देनज़र फवाज़ युवा उद्यमियों को क्रिकेट बैट के पेशे से दूर रहने की सलाह देते हैं। वह कहते हैं, “जब तक सरकार विलो की खेती और निरंतर आपूर्ति के लिए कोई गंभीर कदम नहीं उठाती है, इस उद्योग का भविष्य संकट में ही रहेगा। विलो तेज़ी से ख़त्म होता जा रहा है और यह कारीगरी भी उसके साथ विदा हो जाएगी।”

कैसर अली जम्मू और कश्मीर में स्थित एक पत्रकार हैं। वह आज़ादी लीडरशिप प्रोग्राम का हिस्सा हैं।

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दिन में वन रक्षक और रात में ब्रू संस्कृति का संरक्षक

ब्रू समुदाय से आने वाले, वनलालदिका अपेटो, मिजोरम के मामित जिले के डम्परेंगपुई गांव के निवासी हैं। दिन में, वे डम्पा टाइगर रिजर्व में वन-रक्षक (फॉरेस्ट गार्ड) के रूप में काम करते हैं और अपने समुदाय के कई अन्य लोगों की तरह झूम खेती करते हैं। रात में वे ब्रू संस्कृति के दस्तावेज़ीकरण का काम करते हैं क्योंकि इसका अधिकांश हिस्सा धीरे-धीरे लुप्त हो रहा है।

वनलालदिका चीनी यापाई (हमारे पदचिह्न) नाम की किताब के लेखक हैं, जो पारंपरिक ब्रू परिधानों, खेलों और रीति-रिवाजों को सामने लाने वाली एक पुस्तक है। इस पुस्तक को पूरा करने में उन्हें छह साल लगे हैं। इस दौरान उन्होंने मिज़ोरम और त्रिपुरा के गांव-गांव की यात्रा कर समुदाय के उन बुजुर्गों से बात की, जो अभी भी अपनी सांस्कृतिक अतीत की यादों को संजोए हुए हैं। उनसे बातचीत के आधार पर ही उन्होंने ब्रू समुदाय के पारंपरिक इतिहास का यह दस्तावेज तैयार किया है।

इस काम को करने में कई वास्तविक चुनौतियां भी थीं। जैसा कि वनलालडिका बताते हैं, “मैंने छात्रों की नोटबुक में लिखना शुरू किया जिसके लिए मैंने 30 नोटबुक का इस्तेमाल किया। मैं दिन में अपने काम पर जाता था और रात में लोगों के घर जाकर किताब के लिए जुड़े नोट्स लेता था। उसके बाद, मैं इन नोट्स को कंप्यूटर पर टाइप करने के लिए [एक व्यक्ति को] भेजता था।” यह पूरी प्रक्रिया छह साल तक चली। वनलालदिका ने इसकी शुरुआत 2017 में की थी और 2023 में जाकर किताब पूरी की। अपनी बचत और छात्र संगठनों के सहयोग से, वे किताब की 100 प्रतियां छापने में कामयाब रहे, लेकिन उनमें से केवल 20 ही बेच पाए।

इस साक्षात्कार में वनलालदिका, ब्रू समुदाय के जीवन के अनूठे तरीकों पर चर्चा करते हैं, जो भारत में असम, मिजोरम और त्रिपुरा के साथ-साथ बांग्लादेश के कुछ हिस्सों में फैले हुए हैं। वे इस किताब में बताते हैं कि यह भौगोलिक विभाजन परंपराओं के संरक्षण को कैसे प्रभावित करता है। वे किताब से जुड़ी कुछ बारीकियों पर भी बात करते हैं जिसमें कौ ब्रू (ब्रू भाषा) बाइबिल से लिपि का उपयोग करने का उनका फैसला भी शामिल है।

वनलालदिका के पास भविष्य के लिए कई सारी महत्वाकांक्षी योजनाएं हैं। वे अपनी अगली किताब में ब्रू लोगों के दैनिक जीवन और उनके प्रथागत कानूनों पर ध्यान केंद्रित करना चाहते हैं। इसके अलावा वे कौ ब्रू में डम्परेंगपुई गांव का इतिहास भी लिखना चाहते हैं। लेकिन, इन परियोजनाओं के लिए उन्हें धन की आवश्यकता होगी जो एक मुश्किल काम लग रहा है।

आप यहां चीनी यापाई खरीद सकते हैं।

रोडिंगलिआन, आईडीआर नॉर्थ-ईस्ट मीडिया फेलो हैं।

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बोकारो स्टील सिटी: ऑटोमेशन में खोता भविष्य

बोकारो इंडस्ट्रियल एरिया — बोकारो स्टील प्लांट
ऑटोमेशन के कारण बोकारो के स्टील प्लांट में नौकरियों की संख्या तेजी से घट रही है। | चित्र सभार: शिवम कुमार

1950 के दशक में जब सेल (स्टील अथॉरिटी ऑफ इंडिया लिमिटेड) और कोल इंडिया जैसे बड़े औद्योगिक समूहों ने झारखंड (तब बिहार) के बोकारो जिले को स्टील सिटी में बदला, तो 19 गांवों के स्थानीय परिवारों ने फैक्ट्रियों में नौकरी के बदले अपनी जमीन इन समूहों को सौंप दी। जिन लोगों को इन फैक्ट्रियों में काम मिला, वे फैक्ट्री परिसर में ही रहने लगे। उद्योग की शुरुआत से ही बहुत से कर्मियों की अगली पीढ़ी को भी यहां काम मिलने का चलन स्थापित होता गया। बहुत से कर्मी अधिकारियों से सिफारिश कर अपने बच्चों को कारखाने में नौकरी दिलवा देते थे। इससे परिवारों की आर्थिक स्थिरता बनी रहती थी।

चूंकि उस समय निकटवर्ती क्षेत्रों में कोई बड़े उद्योग नहीं थे, इसलिए वहां के बहुत से पुरुष यहां के इलाकों में विवाह करते थे। ऐसे कई पुरुषों के परिवार तब उन्हें ससुराल में ही रहने के लिए प्रोत्साहित करते। ऐसा इसलिए, क्योंकि बूढ़े कर्मचारियों के परिवार के युवाओं को उनकी नौकरी मिलने की प्रबल संभावना होती थी। इस व्यवस्था के चलते क्षेत्र में निरंतर रोजगार बना रहता था। यही कारण था कि अधिकांश पुरुष विवाह के बाद यहीं परिवार बसाते थे और बच्चों का लालन-पालन ननिहाल में ही होता था। 

गौरतलब है कि वर्तमान में ऑटोमेशन(स्वचालन) के कारण स्टील प्लांट में नौकरियों की संख्या तेजी से घट रही है। इसके साथ ही फैक्ट्री कर्मियों के संबंधियों को नौकरी मिलने का सिलसिला भी थम गया है। अब पुरुषों को काम के लिए पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश और ओडिशा जैसे पड़ोसी राज्यों के साथ दिल्ली जैसे दूर-दराज के इलाकों में भी जाना पड़ता है। बोकारो के निवासी रवि तिग्गा, जो अब ओडिशा में काम कर रहे हैं, कहते हैं, “मैं यहीं रहना चाहता था, लेकिन यहां काम नहीं है। इसलिए हमें बार-बार घर छोड़ना पड़ता है। अब तो अपना शहर भी पराया सा लगता है।”

अधिकांश कर्मचारी नगरपालिका या पंचायत चुनाव में वोट भी नहीं डाल पाते हैं। चूंकि वे पहले फैक्ट्री परिसर में रहते थे, इसलिए उनके सभी दस्तावेजों में भी फैक्ट्री का ही पता दर्ज था। फैक्ट्री की नौकरी जाने के बाद भी उनके दस्तावेजों में बदलाव नहीं किया गया। उनसे वादा किया गया था कि उन्हें पुनर्वास के लिए जमीन दी जाएगी, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। वे अभी भी फैक्ट्री के आसपास बने बफर जोन में ही रहते हैं।

इसका सीधा असर उनके बच्चों पर भी पड़ता है। वे अपने हक की सरकारी योजनाओं और छात्रवृत्तियों से अक्सर वंचित रह जाते हैं हैं। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि सरकार फैक्ट्री के पते को वैध ही नहीं मानती। इलाके के बुजुर्गों का कहना है, “फैक्ट्री की नौकरी सिर्फ एक नौकरी भर नहीं होती थी। वह पूरे परिवार का सहारा थी। अब सब कुछ ऑटोमेटेड हो गया है। इसलिए हमारी नयी पीढ़ी को पर्याप्त अवसर नहीं मिल पा रहे हैं।”

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ईंट भट्ठों में काम करने वाली महिलाओं के लिए मासिक धर्म स्वच्छता अब भी एक चुनौती

घर के बाहर रस्सी पर सूखते हुए कपड़े_मासिक धर्म
ईंट भट्ठों में काम करने वाली महिलाओं को मात्र 250 रूपए दिहाड़ी मिलती है, जिसके चलते उनके लिए सेनेटरी पैड जरूरत नहीं, बल्कि लग्जरी बन जाती है। | चित्र साभार: चंबल एकेडमी

कानपुर जिले के घाटमपुर में ईंट भट्ठों में काम करने वाली महिलाओं के लिए आज भी मासिक धर्म के दौरान स्वच्छ रह पाना एक बड़ी चुनौती है। यहां की ज्यादातर महिलाओं के लिए सेनेटरी पैड जैसी जरूरी चीजें उपलब्ध नहीं हैं। ऐसे में वे मजबूरन पुराने कपड़ों के टुकड़ों का इस्तेमाल करती हैं, जिससे उन्हें संक्रमण और अन्य स्वास्थ्य समस्याओं का खतरा बना रहता है।

इन महिलाओं के लिए मासिक धर्म के दौरान स्वच्छता बनाये रखने में सबसे बड़ी रुकावट है—पैसों की तंगी। नेहा*, जो यहां एक ईंट भट्ठे में काम करती हैं, बताती हैं, “हम कपड़ा लगाते हैं, लेकिन उससे जलन और खुजली होती है। पैड हमारी पहुंच से बाहर हैं, क्योंकि वो इतने महंगे होते हैं! इसलिए हम वही पुराना कपड़ा बार-बार धुलकर इस्तेमाल करते हैं।”

शमा* कहती हैं, “जो भी कपड़ा मिल जाए, हम वही इस्तेमाल कर लेते हैं। सूती हो या जॉर्जेट, इससे फर्क नहीं पड़ता। जब बच्चों के कपड़े कट-फट जाते हैं, तो हम उनसे ही काम चला लेते हैं। जैसे मेरे घर में पांच लड़कियां हैं, जिनमें से तीन कपड़े का ही इस्तेमाल करती हैं।”

ईंट भट्ठों में काम करने वाली महिलाओं को मात्र 250 रूपए दिहाड़ी मिलती है, जबकि पुरुषों को 300 रूपए। इतनी कम कमाई के चलते सेनेटरी पैड जैसी चीजें उनके लिए जरूरत नहीं, बल्कि लग्जरी बन जाती हैं। साथ ही उन्हें सबसे नजदीकी दुकान के लिए भी 2-3 किलोमीटर की दूरी तय करनी पड़ती है । ऐसे में वहां से पैड खरीदने में उनका काम का समय निकल जाता है, जिसका सीधा असर उनकी कमाई पर पड़ता है। इसलिए उनके लिए पैड खरीदना सिर्फ महंगा ही नहीं, बल्कि मुश्किल भी है।

ईंट भट्ठों की महिला कर्मियों की दिनचर्या बेहद कठिन होती है। ऐसे में अगर उन्हें कोई संक्रमण हो जाए, तो हालात और भी खराब हो जाते हैं। वे रोज 12-14 घंटे लगातार मेहनत करती हैं, जिसमें मिट्टी गूंथना, भारी बोझ उठाना और ईंट बनाने जैसे काम शामिल होते हैं। मासिक धर्म के दौरान भी उन्हें इससे कोई राहत नहीं मिलती। काम के दौरान उन्हें ठीक से बाथरूम जाने तक का समय नहीं मिल पाता। साफ-सफाई की कमी और इतनी कड़ी मेहनत का उनके शरीर पर बुरा असर पड़ता है, जिससे उन्हें पेशाब और प्रजनन संबंधी बीमारियों का खतरा भी बढ़ जाता है।

रेखा* कहती हैं, “मासिक धर्म में हमें बार-बार कपड़ा बदलने का समय नहीं मिलता।इससे खुजली होने लगती है। कभी-कभी कपड़ा खिसक कर गिर भी जाता है, जिससे और परेशानी होती है।” इस स्थिति के चलते ही एक बार रेखा को संक्रमण हो गया था, जिसके इलाज में उन्हें 5000 रूपए खर्च करने पड़े। स्थानीय डॉक्टर इलाज नहीं कर पाए, इसलिए उन्हें शहर के अस्पताल भेजा गया, जहां इलाज और भी महंगा था। ऐसे हालात में महिलाओं के लिए मासिक धर्म सिर्फ एक शारीरिक प्रक्रिया नहीं, बल्कि एक विषम चुनौती बन जाता है।

स्वास्थ्य सेवाएं भी अक्सर इन महिलाओं की जरूरतों को नजरअंदाज कर देती हैं। शमा* कहती हैं, “आशा, एएनएम और आंगनवाड़ी कार्यकर्ता कभी हमारा हाल तक पूछने नहीं आते।” वहीं स्वास्थ्य कर्मियों का कहना है कि उन्हें कभी यह जिम्मेदारी सौंपी ही नहीं गयी। घाटमपुर की आशा कार्यकर्ता रत्नांजली बताती हैं कि उन्हें इन महिलाओं को सेनेटरी पैड देने की कोई जानकारी ही नहीं दी गयी। 

चूंकि इन समस्याओं के समाधान के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाये गए हैं , इसलिए घाटमपुर की ईंट भट्ठों में काम करने वाली महिलाएं आज भी मासिक धर्म के दौरान शारीरिक और आर्थिक परेशानियां झेलने के लिए विवश हैं। उनके लिए यह एक स्वाभाविक प्रक्रिया नहीं, बल्कि रोजमर्रा की एक कठिन चुनौती है।

*पहचान गोपनीय रखने के लिए नाम बदले गए हैं।

सोनी और उर्मिला देवी उड़ान फैलोशिप की फैलो हैं। यह फैलोशिप बुनियाद और चंबल एकेडमी द्वारा समर्थित है। उड़ान फैलो काजल, केतकी, अंजू और रचना ने इस लेख में योगदान दिया है। इस लेख के शोध और लेखन में सेजल पटेल ने भी सहयोग किया है।

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