June 27, 2024

ग्रामीण राजस्थान को मनरेगा की ज़रूरत क्यों है?

श्रमिक, यूनियन और नागरिक संगठन बता रहे हैं कि सीमित बजट, कम मज़दूरी और भ्रष्टाचार के बाद भी मनरेगा स्थानीय विकास और महिला सशक्तिकरण में महत्वपूर्ण भूमिका कैसे निभाता है। 
13 मिनट लंबा लेख

साल 2006 में शुरू की गई, महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) कानूनी रूप से लोगों को काम करने का अधिकार देती है। यह योजना हर परिवार को जॉब कार्ड के साथ 100 दिनों के काम की गारंटी देकर, गांवों में बेरोज़गारी, गरीबी और अचानक प्रवास जैसी समस्याओं को हल करने के उद्देश्य के साथ लाई गई थी। मनरेगा एक अधिकार-आधारित कानून है जो ग्रामीण भारत के किसी भी कामकाजी उम्र के व्यक्ति को बुनियादी आय प्रदान करता है, ख़ासकर जहां लोगों के पास काम के स्थाई अवसर नहीं होते हैं

पिछले कुछ वर्षों में, मांग बढ़ने के बावजूद मनरेगा का बजट या तो घटा है या उतना ही रहा है। बजट में कटौती के अलावा नीति निर्माताओं, शिक्षाविदों और नागरिक संगठनों ने मनरेगा से जुड़े अन्य मुद्दों की ओर भी इशारा किया है, जैसे- कम मजदूरी जिसे बढ़ाया जाना चाहिए, तकनीक के अधिक इस्तेमाल पर जोर, डेटाबेस से श्रमिकों के नाम हटना, और केंद्र सरकार का खराब प्रबंधन। इसके अलावा, योजना में सामग्री की लागत का ज़िम्मा उठाने वाली केंद्र सरकार से अभी राज्यों को 6,366 करोड़ रुपये मिलना बाक़ी है। इन तमाम चुनौतियों को देखते हुए, सवाल उठने लगे हैं कि क्या नकद हस्तांतरण योजना भी यह काम कर सकती है।

लेकिन ज़मीनी स्तर पर लोगों की राय क्या है? मनरेगा से जुड़े लोग जैसे श्रमिक, यूनियंस और उनके साथ काम करने वाले सामाजिक संगठन आदि, इसके बारे में क्या सोचते हैं? मनरेगा का लाभ उठाने वालों के लिए इस योजना के चलते किस तरह के बदलाव हुए हैं? और, ज़मीनी स्तर पर लोग इसके बारे में क्या महसूस करते हैं?

विभिन्न ग्रामीण संदर्भों में, मनरेगा श्रमिकों की परिस्थितयां और अनुभव अलग-अलग हैं। आईडीआर ने राजस्थान के विभिन्न हिस्सों में क़ानून के कार्यान्वयन पर काम करने वाले संगठनों और लोगों से बात की।इनमें आजीविका ब्यूरो, राजस्थान असंगठित मजदूर यूनियन (आरएएमयू) और ग्रामीण एवं सामाजिक विकास संस्थान (जीएसवीएस) के सदस्य शामिल हैं। लगभग हर जगह यह महसूस किया गया कि ग्रामीण राजस्थान में मनरेगा अभी भी एक आवश्यकता है।  राजस्थान एक सूखाग्रस्त क्षेत्र है और यहां आजीविका के अवसरों का अभाव है। राज्य में मनरेगा के तहत लागू की गई परियोजनाओं में जल संरक्षण, सूखे से बचाव और ग्रामीण  सड़क परियोजनाएं शामिल हैं। यह पर्यावरण सहज स्थायी खेती और विकास की बढ़त में मददगार है।

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हमने राजसमंद, ब्यावर और अजमेर जिलों में संगठन प्रमुखों, मनरेगा मेट्स (कार्यस्थल पर्यवेक्षकों) और श्रमिकों सहित कई लोगों से बात की। ये सभी ग्रामीण और समाज के हाशिए पर रहने वाले वर्गों के लिए योजना की ज़रूरत आगे भी बने रहने की बात कहते हैं। 

श्रमिकों के बीच इसकी प्रासंगिकता और लोकप्रियता के कुछ कारण:

1. आजीविका का विकल्प

राजस्थान के राजसमंद जिले के कुम्भलगढ़ जैसी जगहों में उद्योग-धंधों की कमी और इलाक़े की भौगोलिक स्थिति के चलते यहां दैनिक वेतन श्रम के मौक़े बहुत कम होते हैं। इस पहाड़ी और चट्टानी भूमि वाले इलाक़े में खेती के लिए उपयुक्त ज़मीन बहुत कम है। राजसमंद जिले का केवल लगभग 28 प्रतिशत हिस्सा ही खेती योग्य है और कुंभलगढ़ क्षेत्र में तो यह आंकड़ा और भी कम हो जाता है। हालांकि कुम्भलगढ़ किले और हल्दीघाटी से शहर की निकटता के कारण कुम्भलगढ़ में पर्यटन में तेजी देखी जा रही है, लेकिन इससे जुड़ी नौकरियां (हॉस्पिटैलिटी जॉब्स) केवल औपचारिक रूप से शिक्षित लोगों के लिए ही खुली हैं।

दक्षिणी राजस्थान में लगभग 78 प्रतिशत श्रमिक काम की तलाश में दूसरे राज्यों में चले जाते हैं।

आजीविका ब्यूरो के साथ काम करने वाले धर्मराज गुर्जर के अनुसार, “मजदूरी का मुख्य स्रोत निर्माण कार्य है, जहां अधिक कौशल वाले लोगों (जैसे बढ़ई या पेंटर) को प्रति दिन 500-550 रुपये मिलते हैं, जबकि बाकी लोग 250-300 रुपये कमाते हैं।” इन विकल्पों के अलावा, मनरेगा ही है। 

“एक समय, जब जनसंख्या कम थी, शायद यहां आजीविका कमाने के पर्याप्त अवसर थे। लेकिन राजसमंद में अब पर्याप्त नौकरियां नहीं हैं,” वे आगे जोड़ते हैं। इस वजह से पलायन एक लोकप्रिय विकल्प बन जाता है। राजसमंद और उदयपुर क्षेत्र में आजीविका ब्यूरो के किशोर और महिला कार्यक्रम में काम करने वाली मंजू राजपूत कहती हैं, “हमारे यहां एक कहावत है – पास हुआ तो जिंदाबाद, फेल हुआ तो अहमदाबाद।” आजीविका ब्यूरो द्वारा साल 2014 में किए गए एक अध्ययन के अनुसार, दक्षिणी राजस्थान में लगभग 78 प्रतिशत श्रमिक काम की तलाश में दूसरे राज्यों में चले जाते हैं। “महामारी के बाद से वित्तीय स्थिति और खराब हो गई है, इसलिए अब लोगों ने अपने पूरे परिवार को साथ ले जाना शुरू कर दिया है।”

उम्र के लिहाज़ से भी अब पलायन जल्दी शुरू होने लगा है और इसका एक चक्र बन गया है। अक्सर परिवार की एक पीढ़ी के पुरुषों के वापस आने के बाद, अगली पीढ़ी के पुरुष काम पर चले जाते हैं। मंजू कहती हैं, “महज़ 13-15 साल के लड़के काम की तलाश में पलायन करते हैं। वे लगभग दो दशकों तक काम करेंगे। आमतौर पर यह काम होटलों की रसोई में, हम्माल (भार वाहक) के रूप में, निर्माण कार्य में, और अन्य व्यवसायों में होता है – और फिर वे लौट आएंगे। वैसे तो लोग उम्र के तीसवें दशक में अच्छे से काम करने योग्य होते हैं लेकिन ये प्रवासी जो वापस आते हैं – काम के भारी शारीरिक दबाव और लंबे घंटों के कारण तब तक पूरी तरह से थक चुके होते हैं। उनकी वापसी के बाद, थकान और स्थानीय नौकरियों में आवश्यक कौशल की कमी के कारण अगली पीढ़ी के पास पलायन करने और घरेलू आय में योगदान करने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचता है।

एक मनरेगा कार्यकर्ता, कमला देवी जो आजीविका के उजाला समूह की सदस्य भी हैं, ने जोर देकर कहा कि पूरा परिवार कमाने के लिए काम करता है – कृषि (जो आमतौर पर बिल्कुल भी मशीनीकृत नहीं होती है और इसलिए सभी को काम पर लगना पड़ता है), मनरेगा कार्य और परिवार के युवा पुरुष सदस्यों के प्रवासी कार्य से मिलकर होने वाली आय से लोगों का घरेलू खर्च पूरा होता है। इसलिए, मनरेगा द्वारा प्रदान किया जाने वाला गारंटी काम घरेलू आय के लिए आवश्यक हो जाता है।

इसके अलावा, ऐतिहासिक रूप से हाशिए पर रहने वाले समुदायों की आर्थिक स्थिति को ऊपर उठाने के प्रयास में, 2011 में, राजस्थान सरकार ने अधिसूचित किया था कि विशेष रूप से कमजोर समूहों को ग्रामीण गारंटी योजना के तहत 200 दिनों का काम मिलेगा, और इसका अतिरिक्त व्यय राज्य सरकार द्वारा वहन किया जाएगा। बारां जिले के खेरुआ और सहरिया आदिवासी और उदयपुर के कथौड़ी आदिवासी उन लोगों में से हैं जिन्हें इस प्रयास का लाभ मिलता है। हालांकि मनरेगा उन समुदायों के लिए एक जीवनरेखा है जो परंपरागत रूप से बंधुआ मजदूरी के अधीन रहे हैं लेकिन उनके लिए भी पूरे 200 दिनों का काम प्राप्त करना दुर्लभ है।

बारां के एक मनरेगा मेट सुरेश सहरिया कहते हैं कि “मनरेगा ने सहरियाओं को प्रवास की कठिनाइयों और दूसरे लोगों की ज़मीनों पर बेहद कम मज़दूरी पर काम करने से बचाया है। हालांकि ज़्यादातर लोगों के लिए अतिरिक्त 100 दिनों का काम प्राप्त करना लगभग असंभव है, और इस अधिकार के लिए हम लगातार लड़ भी रहे हैं। मनरेगा नहीं होगा तो सामाजिक और आर्थिक भेदभाव के कारण हमारे लिए सम्मानजनक काम पाना मुश्किल हो जाएगा।

खेत पर काम करती महिलाएं-मनरेगा
मनरेगा के तहत किया गया श्रम गांव की संपत्ति निर्माण में जाता है। | चित्र साभार: ईश्वर सिंह

2. महिलाओं का सशक्तिकरण 

मनरेगा महिलाओं और लैंगिक मुद्दों से संबंधित विषयों को सामने लाता है – लैंगिक समानता, सामाजिक ताक़त के समीकरण, आय पर नियंत्रण, कठिन परिश्रम, आने-जाने की आजादी के साथ ग्रामीण और घरेलू दोनों स्थितियों में निर्णय लेने की क्षमता और सार्वजनिक नेतृत्व। पूरे भारत में, महिलाएं मनरेगा श्रमबल का 57.43 प्रतिशत हिस्सा हैं, और 2020-21 को छोड़कर, यह संख्या लगातार बढ़ी है। ऐसा तब भी है जब भारत में महिलाओं की श्रम बल में भागीदारी दर कुल मिलाकर स्थिर हो गई है।

हमने जाना की दो बातें हैं जो महिलाओं को सशक्त महसूस करवाती हैं। 

आर्थिक निर्णय लेने की ताकत

जब पुरुष प्रवास करते हैं तो वे आमतौर पर महिलाओं और अपने परिवारों को पीछे छोड़ देते हैं। मनरेगा महिलाओं के लिए कार्यबल में भाग लेने और आय अर्जित करने का एक तरीका रहा है- ख़ासतौर से वह तरीक़ा जिस पर उनका नियंत्रण है। मनरेगा में महिला श्रमबल की भागीदारी लगातार बढ़ी भी है, खासकर राजस्थान में जहां यह आंकड़ा 68.17 प्रतिशत बैठता है।

कमला देवी हमें बताती हैं कि मनरेगा से महिलाएं अपने घरेलू कामकाज के साथ-साथ कृषि कार्य भी करने में भी सक्षम हैं, वे कहती हैं कि “मनरेगा के तहत, हमें निश्चित घंटों तक रुकने की ज़रूरत नहीं है और काम का कोटा पूरा होते ही हम छोड़ सकते हैं।” हालांकि यह पूरे भारत के लिए  सच नहीं है, कई नागरिक समाज संगठनों और श्रम अधिकार समूहों ने राज्य और स्थानीय सरकारी निकायों पर दबाव डाला है कि श्रमिकों को आठ घंटे रुकने के बजाय आवंटित कार्य का कोटा पूरा करने के बाद जाने दिया जाए।

ब्यावर कई खनिज क्रशिंग कारखानों का घर है। यहां मनरेगा ने महिलाओं के जीवन को एक अलग और शायद अधिक स्पष्ट तरीके से प्रभावित किया है। ब्यावर में जीएसवीएस के एक कार्यक्रम अधिकारी, राजेश ढोडावत कहते हैं, “ब्यावर में दिहाड़ी मजदूरों में स्थानीय निवासी और बिहार जैसे राज्यों के प्रवासी श्रमिक दोनों शामिल हैं। यह देखते हुए कि यहां आय का मुख्य स्रोत पत्थर तोड़ने वाली फैक्ट्रियां थीं, स्थानीय और प्रवासी श्रमिक दोनों समान नौकरियों के लिए प्रतिस्पर्धा कर रहे थे। स्थानीय श्रमिकों में ज्यादातर महिलाएं शामिल थी क्योंकि राजस्थानी पुरुष स्वयं दूसरे राज्यों में चले जाते हैं।” इससे श्रमिकों की संख्या अधिक हो गई जिसके कारण ​​मजदूरी दरों और कामकाजी परिस्थितियों को लेकर श्रमिकों के पास मोलभाव की बहुत कम गुंजायश रह गई। 

महिलाएं महसूस करती हैं कि घरेलू फ़ैसलों में उनकी भी भागीदारी है क्योंकि वे भी परिवार की आय में सहयोग कर रही हैं।

लेकिन, मनरेगा की शुरुआत के बाद, स्थानीय महिलाओं ने कई कारणों से कारखाने के काम के बजाय इस काम को चुना। काम का उनके घरों से अपेक्षाकृत पास होना, कामकाजी परिस्थितियां कम ख़तरनाक होने के साथ बेहतर मज़दूरी दर मिलना और घरेलू तथा कृषि कार्यों के साथ मनरेगा का काम किए जाने की सक्षमता, इसके प्रमुख कारण थे। 

इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि महिलाओं को लगता है कि निर्णय लेने में उनकी हिस्सेदारी है क्योंकि वे घरेलू आय में योगदान दे रही हैं। कुछ महिलाओं ने हमसे कहा, “अपने बच्चों की देखभाल करना आसान है। और जब हमारी आय हमारे पतियों के साथ जुड़ जाती है तो घर चलाना आसान हो जाता है।” वे महिलाएं जिनके पति विकलांग हैं या सिलिकोसिस जैसी स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं से पीड़ित हैं (जो कि क्षेत्र में आम है लेकिन कम दर्ज़ होती है),  बताती हैं कि मनरेगा उन्हें मिलने वाली पेंशन से जुड़ जाता है। जब महिलाएं काम करती हैं तो उनके बच्चों के स्वास्थ्य और शिक्षा पर खर्च करने की अधिक संभावना होती है। ऐसे अध्ययन हैं जो बताते हैं कि मनरेगा के मामले में भी यही स्थिति रही है।

सामुदायिक स्थान होना

राजस्थान के ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाएं अपना घर संभालती हैं; खाना बनाने, सफाई करने, पानी लाने और भोजन तैयार करने जैसे घरेलू काम करने के साथ चराई और कृषि कार्य भी करती हैं – ये सभी अकेले करने वाले कार्य हैं। मनरेगा स्थल पर, श्रमिक मुख्य रूप से महिलाएं हैं, इसलिए उन्हें लगता है कि वे अधिक स्वतंत्र रूप से बातचीत कर सकती हैं। उजाला समूह, रामू और जीएसवीएस जैसी संस्थाएं वरीयता देकर महिला मनरेगा मजदूरों, मेट, मोबिलाइज़र और यूनियनों/समूहों के ब्लॉक समन्वयकों के साथ मिलकर काम करती हैं। यह न केवल महिलाओं के स्थानीय नेतृत्व का निर्माण करने के लिए है बल्कि उस स्थान का फ़ायदा उठाने के लिए भी है जहां महिलाओं और लड़कियों की संख्या अधिक है।

राजसमंद जिले की मनरेगा कार्यकर्ता, कम्मा देवी ने हमें बताया कि “पुरुषों की निगरानी के बिना महिलाओं को मिलने की जगह नहीं मिलती थी। मनरेगा स्थल पर, हमें अपने घरों से बाहर जाने का अवसर मिलता है, और हम एक-दूसरे से खुलकर बात कर पाते हैं। जब हम एक साथ आते हैं तो हम हंसी-मजाक करते हैं, एक दूसरे के साथ खाना साझा करते हैं, अपनी पारिवारिक समस्याओं के साथ-साथ गांव और पंचायत के मुद्दों पर चर्चा करते हैं और कभी-कभी लोक गीत भी गाते हैं।

3. स्थानीय विकास 

मनरेगा के तहत किया गया श्रम गांव की संपत्ति निर्माण में जाता है। उदाहरण के लिए, राजस्थान में पानी की कमी को कम करने के लिए टांकाओं (तालाबों) को आधुनिक बनाने के लिए मनरेगा का उपयोग किया गया है। मंजू कहती हैं, “जो सड़कें बनाई जाती हैं, और जो काम लोग करते हैं, वह आमतौर पर श्रमिकों के लिए भी एक प्रोत्साहन होता है क्योंकि उन्हें लगता है कि उनके गांव का बुनियादी ढांचा भी साथ-साथ विकसित हो रहा है।”

एक सामान्य आरोप जो लगाया जाता है, वह यह है कि इस प्रकार बनाई गई संपत्ति और यह काम भी अपने आप में निम्न गुणवत्ता का होता है, जिसे खाइयां खोदने के बराबर माना गया है – उत्पादक नहीं है। हालांकि, यह सच नहीं है। यूएनडीपी द्वारा मनरेगा परिसंपत्तियों के प्रभाव मूल्यांकन से पता चलता है कि वे आय सृजन, अधिक लाभकारी कृषि पद्धतियों की ओर बदलाव और जल संचयन और अन्य संरचनाओं के निर्माण का नेतृत्व करते हैं जो गांव के लिए उपयोगी हैं।

मजदूर किसान शक्ति संगठन के सह-संस्थापक शंकर सिंह एक कच्चे हिसाब के द्वारा स्थानीय अर्थव्यवस्था पर मनरेगा के प्रभावों के बारे में बात करते हैं। “भीम का उदाहरण लें, जहां 2,000 पंजीकृत श्रमिक हैं। यदि इन सभी श्रमिकों को पूरा काम, पूरा दाम (255 रुपये की पूरी दर पर 125 दिन का काम) मिलता है, तो आप भीम की स्थानीय अर्थव्यवस्था में छह करोड़ रुपये से अधिक जोड़ रहे हैं। और वह पैसा कहां जा रहा है? यह यहां के छोटे दुकानदारों के पास जा रहा है।”

भीम में धरने पर बैठी महिलाएं-मनरेगा
श्रमिक अक्सर काम पाने के लिए संघर्ष करते हैं। | चित्र साभार: इंडिया डेवलपमेंट रिव्यू

मनरेगा समस्याओं से मुक्त नहीं है

मनरेगा श्रमिक और नागरिक समाज संगठन, जो काफ़ी समय से श्रम और संबंधित मुद्दों पे काम कर रहे हैं, दोनों ही रोजगार गारंटी कानून को बहुत महत्वपूर्ण मानते हैं। इसके बावजूद, इस कानून को कई समस्याओं का सामना करना पड़ता है जो इसकी प्रभावशीलता और श्रमिकों की आजीविका को प्रभावित करती हैं।

एक महत्वपूर्ण मुद्दा, पंचायत सचिव (ग्राम विकास अधिकारी) और सरपंचों का जॉब कार्ड जारी करने के लिए ज़्यादा इच्छुक नहीं होना है, और वे अक्सर बजटीय  कमी का हवाला देते हुए जॉब कार्ड जारी करने से बचते हैं। इसके अतिरिक्त, जॉब कार्ड के लिए आवेदन करने वाले हर व्यक्ति को जॉब कार्ड नहीं मिलता है। बीना चौहान, जो ब्यावर में जीएसवीएस के साथ कम्युनिटी मोबलाइजर के रूप में काम करती हैं, कहती हैं कि शहर के आसपास के गांवों में मनरेगा का काम शुरू करना आसान नहीं था। “जिस पहली पंचायत में हम गए, वहां का सरपंच बेहद झिझक रहा था। यहां तक ​​कि जब एक पंचायत ने जॉब कार्ड जारी करना शुरू किया और हम अगली पंचायत में चले गए तो वहां के सरपंच ने इसके खिलाफ पुरुषों को एकजुट करने की कोशिश की, उन्होंने कहा, ‘आज वे यह मांग रहे हैं, कल यह कुछ और होगा।’’

औसतन एक श्रमिक को केवल लगभग 45 दिन का काम मिलता है।

रामू के पूर्व ब्लॉक समन्वयक ईश्वर सिंह का कहना है कि इस लैंगिक भेदभाव के पीछे भ्रष्टाचार भी छिपा होता है। “कई बार सरपंच, सचिव, अन्य सरकारी अधिकारी और जिन ठेकेदारों को नियुक्त करते हैं उनमें वास्तव में काम करने की इच्छा नहीं होती है, क्योंकि इसके लिए पूरे दिन पंचायत कार्यालय में बैठना, मस्टर रोल तैयार करना, काम का ऑडिट करना आदि काम उन्हें करने पड़ेंगे। और, वे इससे बचना चाहेंगे। यहां तक ​​कि जब जॉब कार्ड जारी किए जाते हैं, तब भी अक्सर पूरे 100 दिनों का काम उपलब्ध नहीं होता है, और श्रमिकों को उनके द्वारा किए गए काम के लिए पूरा वेतन नहीं मिल पाता है। “मान लीजिए कि केंद्र सरकार आपको प्रति व्यक्ति एक रोटी भेजती है। लेकिन जब तक यह रोटी आप तक पहुंचती है, तब तक इसका एक निवाला ही बचता है। बीच में, सरकारी अधिकारियों, ठेकेदारों और अन्य बिचौलियों ने अपना पेट भर लिया है। जब तक मनरेगा का बजट ज़मीन पर पहुंचता है तब तक उसका यही हाल होता है।”

सिस्टम में भ्रष्टाचार पूरी तरह से फैला हुआ है। काम मांगने के बाद भी श्रमिक अक्सर काम पाने के लिए संघर्ष करते हैं क्योंकि या तो उनका नाम मस्टर रोल में नहीं होता है या फिर उन्हें साल में गारंटी 100 दिन से भी कम काम मिलता है। मंजू और जिन अन्य लोगों से हमने बात की, उनके अनुसार औसतन, श्रमिकों को केवल लगभग 45 दिन का काम मिलता है। प्रशासनिक बाधाएं, जैसे कि बैंक खाते खोलने और उपस्थिति दर्ज करने के लिए एनएमएमएस ऐप का उपयोग करने की आवश्यकता भी श्रमिकों को काम के लिए अपना नाम लिखने या भुगतान प्राप्त करने में बाधा डालती है।

इन समस्याओं की गंभीरता और हर स्थानीय समुदाय का उनसे निपटने का तरीक़ा अलग होता है। उदाहरण के लिए, ब्यावर जिले के गांवों में भी योजना के तहत आवंटित कार्य दिवसों की पूरी संख्या प्राप्त करने और पूरी राशि का भुगतान करने में भी बाधाएं आ रही हैं। जब किसी क्षेत्र का नाम ग्रामीण से शहरी में बदल जाता है तो मनरेगा उस पर लागू नहीं होता है क्योंकि यह योजना केवल ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार की गारंटी प्रदान करती है। इसलिए, भीम में महिला श्रमिकों को इस साल की शुरुआत में विरोध करते हुए पाया गया था – भीम को ग्राम पंचायत से नगर पालिका में पुनर्वर्गीकृत किया गया था, और इंदिरा गांधी शहरी रोजगार योजना (शहरी रोजगार गारंटी योजना) अभी तक वहां लागू नहीं की गई थी। इस प्रकार, भीम और ब्यावर दोनों में श्रमिकों ने अपनी मांगों को उठाने के लिए विरोध प्रदर्शन का सहारा भी लिया। 

मनरेगा से जुड़ी जमीनी स्तर की समस्याओं को स्वीकार करना और श्रमिकों के दृष्टिकोण को समझना आवश्यक है ताकि चुनौतियों से प्रभावी ढंग से निपटा जा सके और योजना के कार्यान्वयन में सुधार किया जा सके।

अधिक जानें 

  • मनरेगा और उसके क्रियान्वयन के बारे में और जानें
  • यह वीडियो देखकर समझिए कि ग्रामीण राजस्थान की पारिस्थितिकी संतुलन में मनरेगा कैसे मददगार है।
  • जानिए कैसे व्यवस्थागत चुनौतियों के चलते ओडिशा महिलाओं की तरक़्क़ी में अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पा रहा है।

लेखक के बारे में
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सबा कोहली दवे

सबा कोहली दवे आईडीआर में सह-संपादकीय भूमिका में हैं, यहाँ उन्हें लेखन, संपादन, स्रोत तैयार करने, और प्रकाशन की जिम्मेदारी है। उनके पास मानव विज्ञान की डिग्री है और वे विकास और शिक्षा के प्रति एक जमीनी दृष्टिकोण में रुचि रखते है। उन्होंने सोशल वर्क एंड रिसर्च सेंटर, बेयरफुट कॉलेज और स्कूल फॉर डेमोक्रेसी के साथ काम किया है। सबा का अनुभव ग्रामीण समुदाय पुस्तकालय के मॉडल बनाने और लोकतांत्रिक और संवैधानिक मूल्यों पर पाठ्यक्रम बनाने में शामिल रहा है।

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जैस्मीन बल

जैस्मीन बल आईडीआर में एक संपादकीय विश्लेषक हैं, जहां वह कंटेंट राइटिंग और संपादन से जुड़े काम करती हैं। इससे पहले इन्होंने वीवा बुक्स में एक संपादक के रूप में और सोफिया विश्वविद्यालय, जापान में एफएलए राइटिंग सेंटर में एक ट्यूटर के रूप में काम किया है। जैस्मीन ने वैश्विक अध्ययन और अंग्रेजी में एमए और सामाजिक विज्ञान में बीए किया है।

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