April 19, 2023

कश्मीरी जनजातियों के सामने रोज़गार या शिक्षा में से एक को चुनने की दुविधा क्यों है?

मौसमी प्रवासन, कम आय और जाति-आधारित भेदभावों के चलते गुज्जर बकरवाल और चोपन जैसी कश्मीरी जनजातियों तक शिक्षा नहीं पहुंच पा रही है।
10 मिनट लंबा लेख

जहां दुनिया परिस्थितिक तंत्र के संरक्षा और जलवायु अनुकूलन के बारे में जानने के लिए पशुपालकों का सहारा लेती हैं, वहीं जम्मू एवं कश्मीर में इस ज्ञान के संरक्षकों में शिक्षा और काम करने लायक़ साक्षरता की भी कमी है। फलस्वरूप ये जनजातियां अदृश्य एवं पिछड़ों का जीवन जीने के लिए मजबूर हैं।

जम्मू एवं कश्मीर को 2019 केंद्रशासित प्रदेश का दर्जा दिया गया। इस प्रदेश में कुल 11.9 फ़ीसद जनजातीय आबादी है। इसमें पशुपालकों यानी चरवाहों का प्रतिशत सबसे अधिक है। 2011 में सबसे बड़े समुदाय – गुज्जर-बकरवाल – में साक्षरता का प्रतिशत लगभग 22 फ़ीसद था। एक दशक बाद राज्य में शिक्षा पर काम कर रहे लोगों का कहना है कि यह बहुत कम रह गया है। यही स्थिति चोपन समुदाय की भी है जिन्हें अभी भी अनुसूचित जनजाति का दर्जा नहीं मिला है। इस समुदाय द्वारा न केवल स्कूल में नामांकन का स्तर 50 फ़ीसद से कम है बल्कि उनमें से आधे बच्चे प्राथमिक शिक्षा के बाद ही पढ़ाई छोड़ देते हैं। 

इन समुदायों के सदस्य अपने अधिकारों के लिए लड़ने, सरकारी नीतियों और योजनाओं का अधिकतम लाभ उठाने और स्वास्थ्य जैसी सार्वजनिक सुविधाओं का उपयोग कर पाने में असमर्थ हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि वे न तो व्यवस्था से बातचीत करने की भाषा जानते हैं और न ही उनके पास इतना आत्मविश्वास है। उनके लिए बाज़ार तक पहुंचना और उसे समझना मुश्किल है। इसके कारण वे अपनी उच्च-गुणवत्ता वाली पनीर (चीज़), भेड़ के ऊन और पारंपरिक चिकित्सा के ज्ञान से पैसा नहीं कमा पाते हैं।

कश्मीर के शोपियां के गुज्जर-बकरवाल युवा नेता शौकत चौधरी कहते हैं कि “हमारे लोग बादल फटने जैसी प्राकृतिक आपदा के कारण लगातार मरते रहते हैं और राहत कार्य या तो देरी से पहुंचता है या फिर कभी नहीं पहुंच पाता। यहां तक कि इस इलाक़े में काम करने वाली समाजसेवी संस्थाएं भी हमारे पास नहीं आती हैं क्योंकि हम सुदूर इलाक़ों में रहते हैं जहां पहुंच पाना आसान नहीं होता है।”

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यह इलाक़ा प्रशासनिक एवं इंफ़्रास्ट्रक्चर की चुनौतियों वाले इलाक़े के रूप में जाना जाता है और इसका राजनीतिक उथल-पुथल का भी अपना इतिहास रहा है। बकरियों, भेड़ एवं भैंस पालने वाली इन समुदायों की जीवनशैली भी शिक्षा के लचीले मॉडल की मांग करती है।

मौसमी प्रवास

गुज्जर-बकरवाल और चोपन अपने मवेशियों के लिए घने चारागाहों की तलाश में गर्मियों के महीनों में अधिक ऊंचाई वाली जगहों पर चले जाते हैं। चूंकि भेड़ एवं बकरियां चराने वाले चरवाहे अपनी जगह छोड़ नई जगह जाते हैं तो उनके बच्चे भी उनके साथ हो लेते हैं। नतीजतन गर्मी के उन महीनों में उनकी पढ़ाई-लिखाई पीछे छूट जाती है।  

बारामूला के कटियांवाली इलाक़े के शिक्षक परवेज अहमद फामदा कहते हैं “मैं जिस सरकारी स्कूल में पढ़ाता हूं वहां के सभी बच्चे गुज्जर-बकरवाल समुदाय के हैं। हर साल अप्रैल से नवंबर-दिसंबर तक ये गुलमर्ग, पीर-पंजाल या हिंदूकुश के जंगलों में चले जाते हैं। गर्मी के मौसम में 50 में से केवल पांच छात्र ही स्कूल आते हैं।” परवेज़ भी इसी समुदाय से आते हैं और वे अधिक से अधिक बच्चों को शैक्षणिक व्यवस्था में लाना चाहते हैं। उनका कहना है कि प्रवास उनके नामांकन में एक बड़ी बाधा है और यह स्कूल में नामांकन करवाने वाले बच्चों की शिक्षा को भी बाधित करता है।

सर्दियों में वापस लौटने के बाद बर्फ़बारी के कारण ये बच्चे स्कूल वापस नहीं लौट पाते हैं। बड़गाम जिले में चरवाहों के बच्चों के लिए स्कूल चलाने वाले शिक्षक रऊफ मोहिउद्दीन मलिक कहते हैं कि “प्रत्येक वर्ष एक ऐसा समय आता है जब बर्फ़ के कारण सब कुछ बंद हो जाता है। नतीजतन ज़्यादातर शिक्षक अपने छात्रों को अधिक से अधिक चार से पांच महीने ही पढ़ा पाते हैं।” नामांकन लेने वाले बच्चों में लगभग 50 फ़ीसद बच्चे नौवीं कक्षा के पहले और अक्सर प्राथमिक स्कूल के बाद ही पढ़ाई छोड़ देते हैं।

पांच बच्चे कैमरे के सामने पोज करते हुए-कश्मीर शिक्षा
प्रवास नामांकन में एक बड़ी बाधा है और यह स्कूल में नामांकन करवाने वाले बच्चों की शिक्षा को भी बाधित करता है। | चित्र साभार: संदीप चेतन | सीसी बीवाई

आजीविका की चुनौती

रिपोर्ट्स बताती हैं कि, महामारी के दौरान कई बच्चों को स्कूल छोड़ना पड़ा क्योंकि उनके माता-पिता आर्थिक संकट से जूझ रहे थे। ज़्यादातर बच्चे अपने माता-पिता के साथ मिलकर काम करने लगे थे और परिवार की आय में अपना योगदान दे रहे थे जो पहले से ही बहुत कम थी। कश्मीर में आरटीआई एक्टिविस्ट राजा मुज़फ़्फर भट चरवाहों के बच्चों के लिए बने स्कूलों के साथ काम करते हैं। उनका कहना है कि “चोपन जिन मवेशियों को पालते हैं वे उनके अपने नहीं होते; इन मवेशियों के मालिक दूसरे लोग होते हैं। प्रतिमाह 10,000–12,000 रुपयों के लिए वे बरसात और कड़कड़ाती ठंड में भी भेड़ों को घास के मैदानों तक लेकर जाते हैं।

चोपन सरकारी योजनाओं के लाभार्थी नहीं हैं क्योंकि उन्हें अनुसूचित जनजाति के रूप में मान्यता नहीं मिली है।

सरकारी स्कूलों में नामांकन करवाने और स्कूल जाने के लिए गुज्जर-बकरवाल बच्चों को सरकार की तरफ़ से छोटी सी छात्रवृत्ति मिलती है। परवेज़ जिस ‘स्मार्ट स्कूल‘ में पढ़ाते हैं वहां बच्चों को उनकी उम्र एवं लिंग के आधार पर 500 रुपए से 900 रुपए के बीच की राशि मिलती है। लेकिन यह राशि हमेशा पर्याप्त नहीं होती है। चोपन समुदाय के लोगों को सरकारी योजनाओं का लाभ भी नहीं मिल पाता है क्योंकि अभी तक उन्हें अनुसूचित जनजातियों की सूची में शामिल नहीं किया गया है।

अनंतनाग नगरपालिका समिति की पार्षद और स्थानीय भाजपा नेता आलिया जान कहती हैं कि उनका ज्यादातर समय माता-पिता को अपने बच्चों को पहलगाम, अनंतनाग में उनके द्वारा स्थापित स्कूल में भेजने के लिए राजी करने में चला जाता है। “वे मुझसे कहते हैं कि उनके पास आमदनी नहीं है। वे एक स्तर तक सरकारी स्कूलों का खर्च उठा भी सकते हैं। लेकिन उनके पास अपने बच्चों को 10+2 की पढ़ाई करवाने या उन्हें कॉलेज भेजने के लिए पैसे नहीं हैं।”

एक शिक्षक और सामने छात्रों का एक समूह-कश्मीर शिक्षा
महामारी के दौरान कई बच्चों ने पढ़ाई छोड़ दी क्योंकि उनके माता-पिता आर्थिक संकट से जूझ रहे थे। | चित्र साभार: परवेज अहमद फामदा

लिंग भेद

इन समुदायों की लड़कियों को लड़कों की तुलना में शिक्षा के लिए अधिक चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। प्रवास के दिनों में परिवार के लोग अपने बेटों को दोस्तों या रिश्तेदारों या आवासीय स्कूलों में छोड़ने की इच्छा जताते हैं। लेकिन बेटियों के मामले में ऐसा करने को लेकर वे सहज नहीं हो पाते। चरवाहे समुदायों में महिलाओं के बीच साक्षरता दर देश और अन्य केंद्र शासित प्रदेशों के औसत से बहुत कम है। हाल ही में हुए एक सर्वे के अनुसार जम्मू एवं कश्मीर में महिला साक्षरता दर लगभग 67 फ़ीसद है जो कि पूरे भारत के औसत दर 70 फ़ीसद की तुलना में बहुत कम नहीं है। इस सामाजिक संकेतक के अनुसार केंद्र शासित प्रदेशों का प्रदर्शन देश के अन्य राज्यों की तुलना में बेहतर है। राजा बताते हैं कि “कश्मीर में कई सारी महिलाएं कॉलेज एवं विश्वविद्यालय में पढ़ाई करती हैं। लेकिन उत्तर प्रदेश, बिहार और यहां तक कि दिल्ली में भी मुस्लिम समुदाय की लड़कियां इतनी आगे तक पढ़ाई नहीं कर पाती हैं। लेकिन जब चोपन एवं गुज्जर पहाड़ों में जाते हैं तब उनकी बेटियां स्कूल नहीं जा सकती हैं। और ऐसा इसलिए बिल्कुल नहीं है क्योंकि ये लड़कियां पढ़ना नहीं चाहतीं।”

लड़कियों की पढ़ाई-लिखाई सबसे अंत में आती है।

आलिया का कहना है कि पहलगाम में प्रवास की दर कम हुई है क्योंकि पर्यटन से यहां के लोगों को साल भर आमदनी होती है। लेकिन यहां भी लड़कियों के लिए शिक्षा का मुद्दा सबसे अंत में आता है। वे बताती हैं कि “माता-पिता अपनी बेटियों को स्कूल नहीं भेजना चाहते क्योंकि इन लड़कियों को शादी के बाद अपने ससुराल वालों के साथ रहना होता है।” महामारी से पहले शुरू किए गए इस स्कूल में आलिया लिंग अनुपात में सुधार के लिए काम कर रही हैं। वे आगे बताती हैं कि “मैं परिवारों को समझाती हूं कि एक शिक्षित स्त्री दो परिवारों को सकारात्मक रूप से प्रभावित कर सकती है। एक शिक्षित मां अपनी बेटियों की शिक्षा को सुनिश्चित करेगी।”

सामाजिक भेदभाव

सरकारी स्कूलों में चरवाहों या पशुपालकों के बच्चों की सामाजिक स्थिति भी बहुत ख़राब है। आलिया कहती हैं कि “यहां तक कि स्कूल के शिक्षक भी हमारे लोगों के लिए जंगली या देहाती जैसे अपमानजनक शब्दों का इस्तेमाल करते हैं। किसी को भी अपनी पहचान को लेकर कभी शर्मिंदगी महसूस नहीं करवानी चाहिए।” राजा का कहना है कि “चोपन अपने चरने वाले मवेशियों की सुरक्षा के लिए रात भर जागते हैं। इस कारण दूसरे समुदाय के लोगों को उन पर भरोसा नहीं होता और वे इन्हें चोर पुकारते हैं।” परवेज़ अपनी बात जोड़ते हुए कहते हैं कि शर्मिंदगी से बचने के लिए छात्र अक्सर अपनी पहचान को छुपा लेते हैं। 

आलिया का मानना है कि चरवाहे समुदाय के बच्चों के लिए अलग से एक स्कूल की स्थापना से इस समस्या के निदान में मदद मिल सकती है। इस कलंक के बाद भी अपनी शिक्षा हासिल करने वाले परवेज़ कहते हैं कि उनकी संख्या में वृद्धि से उन्हें मदद मिलेगी। “उच्च शिक्षा वाले संस्थानों में, हमें अपने लोगों का ‘झुंड’ बनाने की जरूरत है।”

एक शिक्षक के चारों ओर छात्रों का एक समूह-कश्मीर शिक्षा
कश्मीर की समस्या मौजूदा शिक्षा कार्यक्रमों के खराब कार्यान्वयन और मूल्यांकन की है। | चित्र साभार: परवेज अहमद फामदा

हस्तक्षेप एवं चुनौतियां

सरकार ने गुज्जर-बकरवालों के लिए शिक्षा की इस कमी को दूर करने की कोशिश की है। लेकिन खराब योजना और कार्यान्वयन के कारण ऐसे हस्तक्षेप बहुत अधिक प्रभावी नहीं हो पाते हैं।

1. मोबाइल स्कूल और मौसमी शिविर

1970 के दशक में सरकार ने कई सारे मोबाइल स्कूल की स्थापना की थी जिसमें शिक्षकों को एक प्रवासी समूह के साथ यात्रा करने की अनुमति दी जाती थी। शिक्षकों को ऐसे टेंट दिए गए थे जिनका इस्तेमाल वे कक्षाओं के रुप में कर सकते थे। ये मोबाइल स्कूल 1990 तक सक्रिय थे लेकिन इलाके की अशांति के कारण यह पहल ठंडी पड़ गई। मौसमी स्कूल को 2002 में दोबारा शुरू किया गया। लेकिन इनकी संख्या इतनी नहीं थी कि ये सभी प्रवासी समूहों तक पहुंच पाते। वहीं इनमें से कई स्कूल ऐसे भी थे जो काग़ज पर तो सक्रिय थे लेकिन वास्तविक रूप से ठप्प पड़ चुके थे। अनंतनाग जैसे सुदूर इलाक़ों में लोगों का कहना है कि लगभग एक दशक से उन्होंने ऐसे किसी स्कूल के बारे में नहीं सुना है। राजा कहते हैं कि “मैं पिछले तीन सालों से उंचाई पर स्थित इन चरागाहों पर जा रहा हूं। लेकिन मैंने ऐसे किसी मोबाइल या मौसमी स्कूल को चलते नहीं देखा है।”

छात्रों के लिए मौजूदा व्यवस्था और बुनियादी ढांचे के साथ पढ़ाई करना चुनौतीपूर्ण है।

परवेज़ कहते हैं कि जहां ऐसे स्कूल चल रहे हैं वहां भी छात्रों के लिए मौजूदा व्यवस्था और बुनियादी ढांचे के साथ पढ़ाई करना चुनौतीपूर्ण है। छात्रों के पास दिन का काम ख़त्म करने के बाद का ही समय होता है और शाम में यहां बिजली नहीं होती है। इस इलाक़े में आवागमन की भी सुविधा नहीं है। ना ही प्रत्येक शिक्षक के पास टेंट है। यहां तक जो टेंट हैं भी, वे भी वाटरप्रूफ़ नहीं हैं। वे अपनी बात आगे बढ़ाते हुए कहते हैं “जंगल में मूसलाधार बारिश होती है। और जब बारिश होती है तब अंदर बैठकर पढ़ना-पढ़ाना असम्भव होता है।” यह भी एक बाधा है कि छात्र विभिन्न आयु-वर्ग के होते हैं। इनमें कईयों ने इससे पहले स्कूल का मुंह तक नहीं देखा होता है। रऊफ़ का कहना है कि “हमने ऐसी परिस्थितियां भी देखी हैं जब एक शिक्षक एक सात-वर्ष की आयु वाले, एक 10 वर्ष की आयु वाले और एक 15 वर्ष की आयु वाले छात्र को एक साथ पढ़ाने के लिए एक आदर्श पाठ्यक्रम तय करने के लिए संघर्ष कर रहा है।”

2. मौसमी शिक्षक

मौसमी स्कूल के लिए कश्मीर सरकार का शिक्षा विभाग शिक्षकों के रूप में वोलन्टीयर का चुनाव करता है। परवेज़ ने बताया कि “इन शिक्षकों की योग्यता प्राथमिक स्तर से आगे के छात्रों को पढ़ाने की नहीं होती है और वे सभी विषयों को भी नहीं पढ़ा सकते हैं।” रऊफ़ इस बात से सहमत होते हुए कहते हैं कि “इनमें से ज़्यादातर 12वीं कक्षा तक भी नहीं पढ़े होते हैं। राजनीतिक पहुंच वाले लोग ही अक्सर इन पदों पर भर्ती हो जाते हैं और वास्तव में कभी स्कूल आते भी नहीं हैं।” हाल तक इन वॉलन्टीयर को प्रति माह 4,000 रुपया मिलता था लेकिन अब उन्हें 10,000 रुपए मिलते हैं। हालांकि योग्य उम्मीदवार इस पद में कम ही रुचि दिखाते हैं क्योंकि इसमें रोज़गार सुरक्षा नहीं है।

3. आवासीय विद्यालय

1991 में पांचवीं कक्षा पास करने वाले जनजातीय छात्रों के लिए आवासीय विद्यालय के स्थापना की पहल हुई। परवेज़ का कहना है कि “ये हास्टल अक्सर ही भ्रष्टाचार के मुद्दों से घिरे रहते थे। उनका संचालन बहुत ही बुरा था और अक्सर ही न तो वहां बिजली होती थी और न ही इनकी स्थिति ऐसी होती थी कि उनमें कोई रह सके। सौभाग्यवश तब से अब तक स्थिति में सुधार आया है।”

हालांकि इन हॉस्टल की संख्या भी पर्याप्त नहीं है। दो साल तक अधिकारियों के पास चक्कर लगाने के बाद शौक़त ने शोपियां में एक हॉस्टल शुरू करने के लिए सरकार को तैयार कर लिया है। शौक़त ने कहा कि “यह हॉस्टल 2021 से चल रहा है और इसमें गुज्जर-बकरवाल समुदाय के 125 छात्र स्नातक की पढ़ाई कर रहे हैं।” इन हॉस्टलों में सीमित संख्या में सीट होती हैं।

जहां कुछ जिलों में गुज्जर-बकरवाल लड़कों के लिए हॉस्टल की सुविधा है वहीं इस समुदाय की लड़कियों के लिए ऐसी कोई सुविधा नहीं है। आलिया ने बताया कि “छात्राओं को अपनी पढ़ाई पूरी करने के लिए बहुत दूर तक की यात्रा करनी पड़ती है।” ऐसा नहीं है कि व्यवस्थाएं ठीक से काम नहीं कर रही हैं। कश्मीर की समस्या है मौजूदा शिक्षण कार्यक्रमों का ख़राब क्रियान्वयन और मूल्यांकन।

मोबाइल स्कूल एवं आवासीय विद्यालय अच्छे विचार हैं लेकिन उसके लिए बेहतर इंफ़्रास्ट्रक्चर और सुप्रशिक्षित एवं अच्छे वेतन पाने वाले शिक्षकों की आवश्यकता है। सरकार अधिक महिलाओं को पढ़ाने के लिए प्रशिक्षित कर सकती है क्योंकि स्कूल इस बात की पुष्टि करते हैं कि छात्र उनसे सीखने में अधिक सहज हैं। इसके अलावा, वे पुरुषों की तुलना में नौकरी में अधिक समय तक टिकी रहती हैं।

समुदायों के शिक्षा विशेषज्ञों ने वैकल्पिक पाठ्यक्रम भी प्रस्तावित किए हैं जो पशुपालक समुदायों के लोगों की आजीविका से मेल खाते हैं। उन्हें लगता है कि बच्चों को स्कूलों में उद्यमिता का पाठ पढ़ाया जाना चाहिए ताकि वे पशुपालन के अपने पारंपरिक ज्ञान को बाजार की समझ के साथ जोड़ सकें। कश्मीर के पशुपालक अपने लिए एक बेहतर कल की योजना बनाने में शामिल होने को तैयार हैं, लेकिन क्या कोई उनकी बात सुन रहा है?

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लेखक के बारे में
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देबोजीत दत्ता

देबोजीत दत्ता आईडीआर में संपादकीय सहायक हैं और लेखों के लिखने, संपादन, सोर्सिंग और प्रकाशन के जिम्मेदार हैं। इसके पहले उन्होने सहपीडिया, द क्विंट और द संडे गार्जियन के साथ संपादकीय भूमिकाओं में काम किया है, और एक साहित्यिक वेबज़ीन, एंटीसेरियस, के संस्थापक संपादक हैं। देबोजीत के लेख हिमल साउथेशियन, स्क्रॉल और वायर जैसे प्रकाशनों से प्रकाशित हैं।

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सलोनी मेघानी

सलोनी मेघानी आईडीआर में संपादकीय सलाहकार हैं। वे 25 वर्षों से अधिक समय से पत्रकार, संपादक और लेखिका हैं। उन्होंने द टेलीग्राफ, द टाइम्स ऑफ इंडिया, मुंबई मिरर, नेटस्क्राइब, टाटा ग्रुप, आईसीआईसीआई और एनवाईयू जैसे संगठनों के साथ काम किया है। सलोनी ने मुंबई विश्वविद्यालय से साहित्य में स्नातकोत्तर और न्यूयॉर्क विश्वविद्यालय से क्रिएटिव राईटिंग में एमएफए किया है।

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