February 24, 2025

त्रिपुरा में समाजसेवी संगठनों के काम करने के लिए एक गाइड

भौगोलिक अलगाव के अलावा त्रिपुरा में समाजसेवी संगठनों के सामने और भी कई बाधाएं हैं, जिनसे निपटने में उनका लचीलापन और आपसी साझेदारियां मददगार साबित हो सकते हैं।
6 मिनट लंबा लेख

भारत के सबसे कम विकसित राज्यों में से एक त्रिपुरा भौगोलिक रूप से अलग-थलग होने के चलते कई तरह की चुनौतियों का सामना करता है। इसमें स्वास्थ्य सेवा, शिक्षा और आजीविका के समान अवसर न मिल पाना भी शामिल है। ऐसे में राज्य में काम कर रही समाजसेवी संस्थाएं विभिन्न समुदायों के विकास की जिम्मेदारी भी निभाती हैं। लेकिन ये संस्थाएं स्वयं वित्तीय संसाधनों और कुशल लोगों की कमी के साथ-साथ समाजसेवी संस्थाओं के लिए जरूरी इकोसिस्टम की अनुपस्थिति से जूझती रहती हैं।

त्रिपुरा में वॉलंटरी हेल्थ एसोसिएशन ऑफ त्रिपुरा (वीएचएटी) की स्थापना 1988 में एक समाजसेवी संस्था के रूप में की गयी थी। वीएचएटी शुरुआत से ही स्वास्थ्य, प्राथमिक शिक्षा और पर्यावरण जैसे विविध क्षेत्रों में काम करता रहा है। हमने सरकार के साथ मिलकर मलेरिया और टीबी के बचाव और इलाज पर काम किया है। हम समाजसेवी संस्थाओं के राज्य स्तरीय नेटवर्क की तरह काम करते हैं। हमसे जुड़े सदस्य संगठनों की क्षमता को मजबूत बनाना वीएचएटी की प्राथमिक प्राथमिकताओं में से एक है।

सालों के अनुभव के साथ, हमारे संगठन ने समुदायों की जरूरतों के अनुरूप खुद को विकसित किया है।। साथ ही, हमने त्रिपुरा में सोशल सेक्टर की बहुत सी चुनौतियों से निपटने के तरीके भी खोजे हैं। लेकिन यह सफर आसान नहीं रहा है। यहां हमारे अनुभव से संकलित कुछ ऐसे सबक हैं, जो राज्य में समाजसेवी संस्थाओं को चलाने और बनाए रखने में मददगार साबित हुए हैं। ये अनुभव त्रिपुरा के उभरते लीडर्स के साथ-साथ उन संस्थाओं के लिए भी उपयोगी हो सकते हैं, जो अपने काम को बढ़ाने (स्केलिंग) की इच्छा रखती हैं।

त्रिपुरा में समाजसेवी संस्थाओं के सामने आने वाली चुनौतियां

1. कैपेसिटी बिल्डिंग के लिए मदद का अभाव

हर साल हम अपनी फेडरेशन में शामिल छोटी समाजसेवी संस्थाओं के लिए दो दिन की एक कॉन्फ़्रेंस रखते हैं, जिसमें कैपेसिटी बिल्डिंग सत्र भी शामिल होते हैं। अगर संस्थाएं किसी खास विषय, जैसे जलवायु परिवर्तन या ऑर्गनाइजेशनल गवर्नेंस के बारे में सीखना चाहती हैं, तो हम उनकी मदद करते हैं। लेकिन हमें इसके लिए अलग से फ़ंडिंग नहीं मिलती है। इस कारण हम केवल कम अवधि की छोटी-छोटी पहलें ही कर सकते हैं।

फेसबुक बैनर_आईडीआर हिन्दी

यह केवल छोटे संगठनों की चुनौती नहीं हैं। वीएचएटी को भी कैपेसिटी बिल्डिंग की जरूरत होती है। हम भी उन संस्थाओं से सीखना चाहते हैं, जिन्होंने अन्य क्षेत्रों में सफल मॉडल विकसित किए हैं। लेकिन ऐसे अवसर मिलना कठिन होता है। जब भी ऐसा मौका मिलता है, हम सुनिश्चित करते हैं कि हमारे सदस्य उसमें भाग लें, ताकि हम नयी साझेदारियां बना सकें।

भौगोलिक अलगाव त्रिपुरा में समाजसेवी संगठनों के लिए कई अन्य बाधाएं भी खड़ी करता है। उदाहरण के लिए, यहां के सामाजिक सेक्टर का एक बड़ा हिस्सा गुवाहाटी में होने वाले कार्यक्रम में तो आसानी से शामिल हो सकता है, लेकिन दिल्ली जैसे बड़े शहरों की यात्रा उनके लिए एक खर्चीला और समय-साध्य काम है। हम पूर्वोत्तर के संगठनों का एक नेटवर्क बनाने की कोशिश कर रहे हैं। साथ ही त्रिपुरा और मिज़ोरम जैसे राज्यों में समाजसेवी संगठनों की साझेदारियां बनाने की प्रक्रिया भी जारी है।हमारा लक्ष्य है कि ऐसी जगहों पर सामाजिक सेक्टर का इकोसिस्टम विकसित किया जाए है, जहां अभी तक ऐसा कोई तंत्र मौजूद नहीं है। इससे उन क्षेत्रों में संगठनों की कैपेसिटी बिल्डिंग को भी मजबूती मिलेगी।

2. ज़्यादातर लोगों के लिए सामाजिक सेक्टर की नौकरी एक स्थाई रोज़गार नहीं है

त्रिपुरा का सामाजिक सेक्टर भारत के अन्य राज्यों की तरह औपचारिक रूप से संगठित नहीं है। एक आम धारणा यह भी है कि इसमें कोई स्थाई रोज़गार नहीं है। नतीजन सेक्टर के कई लीडर दिन में कोई नौकरी करते हैं और ख़ाली समय मिलने पर सोशल वर्क करते हैं। इससे उन्हें अपने काम की प्राथमिकताएं तय करने में मुश्किल आती है, जिससे वे कई अवसर चूक जाते हैं। उदाहरण के लिए, अगर कोई सरकारी अधिकारी उन्हें दिन में अचानक मीटिंग के लिए बुलाता है, तो वे अपनी नौकरी से समय निकाले बिना उसमें शामिल नहीं हो सकते। इस कारण कुछ समय बाद उनके संगठन का विकास भी प्रभावित होने लगता है।

राज्य में यह धारणा आम है कि आप समाजसेवी संस्था में काम करना तभी चुनते हैं, जब आपके पास कोई अन्य विकल्प नहीं बचता है। यह केवल वेतन का मुद्दा नहीं हैं। हमने कई लोगों संगठन छोड़कर सार्वजनिक क्षेत्र में कम वेतन की नौकरी चुनते देखा है, क्योंकि वे उसे अधिक स्थिर और सुरक्षित मानते हैं। हमारे जैसे संगठनों के लिए इसका अर्थ है कि हमारे पास प्रतिभाशाली उम्मीदवारों की बहुत सीमित संख्या होती है, जिससे सही लोगों का चयन करना मुश्किल हो जाता है। कुछ संगठन खास प्रोजेक्ट्स के लिए विशिष्ट योग्यता वाले उम्मीदवारों को नियुक्त करना चाहते हैं। लेकिन हम उन्हें कैसे समझाएं कि हमारे युवाओं के लिए सोशल सेक्टर आमतौर पर उनकी प्राथमिकता में सबसे नीचे होता है?

ट्रेन से झाँकता एक व्यक्ति_सामाजिक संस्थाएं
सीएसआर अधिनियम में संशोधन किया गया है, जिससे कंपनियां अब उन क्षेत्रों में भी सामाजिक कार्यों पर खर्च कर सकती हैं, जहां उनके प्लांट्स नहीं हैं। | चित्र साभार: पीपी यूनुस / सीसी बीवाय

3. फ़ंडिंग नहीं है, लेकिन इसकी वजह कोई नहीं बताता

कई फ़ंडर असम में केवल गुवाहाटी तक ही जाते हैं, क्योंकि यहां पहुंचना सबसे आसान है। लेकिन कोई भी अगरतला नहीं जाता । पहले लोग ख़राब कनेक्टिविटी को कारण बताते थे। लेकिन अब तो यहां फ्लाइट् से लेकर ट्रेन जैसी हर सुविधा मौजूद है।

त्रिपुरा में उद्योगों की संख्या बेहद सीमित है। पहले सीएसआर फंडर कहते थे कि वे उन क्षेत्रों के विकास में निवेश नहीं कर सकते, जहां उनका कोई मौजूदा व्यवसाय नहीं है। लेकिन अब सरकार ने सीएसआर अधिनियम में संशोधन किया है, जिससे कंपनियों को उन जगहों पर भी सामाजिक कार्यों के खर्च की अनुमति मिल गयी है, जहां उनके प्लांट नहीं हैं। अधिनियम में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि कंपनियों के लिए अपने स्थानीय क्षेत्र में खर्च को प्राथमिकता देना अनिवार्य नहीं, बल्कि बस एक दिशा-निर्देश मात्र है। इसके बावजूद, कंपनियां अब भी त्रिपुरा में निवेश नहीं कर रही हैं।

मैं पिछले साल एक कार्यक्रम में था, जिसमें एक सीएसआर फ़ाउंडेशन अलग-अलग राज्यों में अपने खर्च का ब्यौरा दे रहा था। लेकिन इसमें त्रिपुरा के हिस्से में आने वाली राशि एक प्रतिशत से भी कम थी। मैंने उनसे पूछा कि त्रिपुरा में उनके कोई प्रोजेक्ट क्यों नहीं हैं? इस पर उन्होंने जवाब दिया कि उन्हें राज्य में कोई रजिस्टर्ड समाजसेवी संस्था नहीं मिली। मैंने उन्हें कहा कि मैं उन्हें हमारे राज्य की पांच ऐसी संस्थाओं के नाम बता सकता हूं, जो सारे अनुपालन (कम्प्लायसेंज) निभाती हैं और पूरे दस्तावेज रखती हैं। लेकिन बाद में जब मैंने उनसे संपर्क किया, तो कोई जवाब नहीं मिला। हमारा प्रयास है कि त्रिपुरा और मिज़ोरम जैसे राज्यों के संगठनों को उन सीएसआर फाउंडेशनों से जोड़ा जाए, जो इस साझेदारी को आगे बढ़ाने के लिए तैयार हैं।

फ़ंडर की ओर से संवाद की कमी भी एक बड़ी चुनौती है, जिसका हमें लगातार सामना करना पड़ता है। हमने कितनी ही बार कई ग्रांट्स के लिए आवेदन किए, लंबे-चौड़े कम्प्लायंस फ़ॉर्म भरे और कई चरणों की चयन प्रक्रिया से गुज़रे, लेकिन अंततः हमें कोई ठोस परिणाम नहीं मिला। कई बार फंडिंग संस्थाएं हमें ग्रांट के लिए शॉर्टलिस्ट करने के बाद भी बातचीत बंद कर देती हैं। अगर हमारा प्रपोजल मानकों के अनुरूप नहीं होता या हमने कोई गलती की है, तो हमें इसके बारे में जानने का अधिकार है। केवल तभी हम अपनी गलतियों से सीखकर अपनी रणनीति सुधार सकते हैं और बेहतर तरीके से आगे बढ़ सकते हैं।

यह वे बाधाएं हैं जिनका सामना हम नियमित रूप से करते हैं। समय के साथ हमने इनमें से कुछ से निपटने के तरीक़े खोज लिए हैं। यहां वे उपाय हैं, जो हमारे लिए कारगर साबित हुए हैं।

सफलता और विकास की रणनीतियां

1. धैर्य रखें और स्थिति के मुताबिक़ ढलना सीखें

शुरूआती सालों में संस्थाओं को बस अपना काम करते रहना चाहिए और धैर्य रखना चाहिए। हो सकता है कि उन्हें तुरंत कोई बड़ा प्रोजेक्ट या पर्याप्त फ़ंडिंग ना मिले, लेकिन समय के साथ यह बदल सकता है। शुरुआत छोटे स्तर पर करनी चाहिए- स्थानीय स्तर पर धन जुटाना और खर्चों में कटौती करना ही सबसे व्यावहारिक तरीका है। हम अब भी ऐसा ही करते हैं। हाल ही में हम 15-16 लोगों की एक मीटिंग कर रहे थे। हमें पता चला कि एक कमरा किराए पर लेने का खर्च 4000-5000 रुपए आएगा। तब हमने ज़िला मजिस्ट्रेट से संपर्क किया, जिन्होंने हमें एक सरकारी भवन में बिना किसी शुल्क के बैठक आयोजित करने की अनुमति दे दी।

कई समाजसेवी संगठनों के पास पूरे दस्तावेज नहीं होते, जिससे उन्हें फंडिंग मिलने में कठिनाई होती है। उदाहरण के लिए, जब हमने सेपाहीजाला जिले में एक प्रोजेक्ट के लिए अमेरिकन इंडिया फाउंडेशन के साथ साझेदारी की, तो उन्होंने हमसे कहा कि कुछ जमीनी स्तर के संगठनों को भी इसमें शामिल किया जाए। यदि छोटे संगठनों के पास नियमित और सुव्यवस्थित दस्तावेज हो, तो ऐसे मौकों पर हम उनका नाम आगे बढ़ा सकते हैं। फंडर्स दस्तावेज़ों के ज़रिए संस्थाओं के काम को ठीक से समझ पाते हैं।

अन्य जरूरी बात है, स्थिति के मुताबिक खुद को ढालना। चूंकि फंडिंग के अवसर सीमित होते हैं, इसलिए कभी-कभी संगठनों को फंडर्स की आवश्यकताओं के अनुसार अपने प्रोजेक्ट्स में कुछ बदलाव करने पड़ते हैं। हाल ही में, हमें एक फ़ाउंडेशन के साथ करते हुए ऐसा करना पड़ा। वे चाहते थे कि हम आजीविका पर काम करें, लेकिन हम स्वास्थ्य पर फ़ोकस करना चाहते थे। आख़िर में हमने सोचा, “हमारे पास आजीविका पर काम करने का एक दशक का अनुभव है, तो क्यों न इसे किया जाए?” जब फंडर्स हमारे काम को देख लेते हैं और हमारी विश्वसनीयता बन जाती है, तो हम उनसे अपनी अन्य ज़रूरतों के लिए फ़ंडिंग पर बात कर सकते हैं।

2. हायरिंग के नए तरीके अपनाएं

प्रोजेक्ट मैनेजर की पोज़ीशन के लिए, फंडर्स कई बार ऐसे उम्मीदवारों को वरीयता देते हैं जिनके पास सोशल वर्क में मास्टर्स डिग्री (एमएसडब्ल्यू) हो। लेकिन हमारे पास ऐसे योग्य उम्मीदवारों की बड़ी संख्या नहीं होती, जो हमारे लिए काम करना चाहते हों। एक बार जब हम स्वास्थ्य क्षेत्र की एक परियोजना के लिए भर्तियां कर रहे थे, तो हमें एक भी उपयुक्त उम्मीदवार नहीं मिला। हालांकि हमारी टीम में एक ऐसे व्यक्ति थे, जिनके पास एमएसडब्ल्यू डिग्री तो नहीं थी, लेकिन उन्होंने हमारे साथ दस साल तक काम किया था।कोविड-19 राहत कार्य के दौरान वह हमारे प्रोजेक्ट इंचार्ज थे।,इसके साथ ही वह एक फार्मासिस्ट थे और सोशियोलॉजी की पढ़ाई भी कर चुके थे। यानी उन्हें न केवल स्वास्थ्य, बल्कि सामाजिक सेक्टर की भी अच्छी समझ थी। हमने फंडर्स को बताया कि हमें उनके काम पर पूरा भरोसा है।

थोड़ी बातचीत के बाद फ़ंडिंग संस्था मान गयी कि चूंकि हमें ही प्रोजेक्ट पर काम करना है, इसलिए हमें ही यह फ़ैसला लेना चाहिए। इससे हमें एक अहम सीख मिली—हमें उन शैक्षणिक योग्यताओं पर ज़ोर नहीं देना चाहिए, जिन्हें पूरा कर पाना हमारे लिए व्यावहारिक रूप से संभव नहीं है। इसके बजाय, हमें अनुभव और कौशल को प्राथमिकता देनी चाहिए।

3. स्थानीय प्रशासन के साथ मिलकर काम करें 

हम सरकार के साथ साझेदारी में काम करते हैं और पंचायत, ब्लॉक और राज्य स्तर पर सभी बैठकों में भाग लेते हैं। सरकार हमें इनमें आमंत्रित करती है, क्योंकि हम सक्रिय भागीदार हैं। यदि हम उनकी बैठकों में भाग लेना बंद कर देंगे, तो वे हमें भूल जाएंगे। त्रिपुरा में राज्य सरकार भी कुछ विकास परियोजनाओं के लिए फंड देती है। इसलिए उनके साथ अच्छा तालमेल बनाए रखना फ़ायदेमंद होता है। हम अपने सभी कार्यक्रमों में सरकारी अधिकारियों को ज़रूर बुलाते हैं, ताकि वे खुद हमारे कामकाज को देख पायें।

ये सारी रणनीतिया समाजसेवी संगठनों को त्रिपुरा में सक्रिय रहने और वंचित लोगों व समुदायों से जुड़े रहने में मदद कर सकती हैं। हालांकि, संगठनों को अब भी विकास सेक्टर से जुड़े हितधारकों (स्टेकहोल्डर्स) की जरूरत है, जो बड़े पैमाने पर बदलाव लाने की जिम्मेदारी निभा सकें। सीएसआर फंडर्स उन संस्थाओं को समर्थन दे सकते हैं, जो सीमित संसाधनों के बीच लगातार काम कर रहे हैं। साथ ही वे त्रिपुरा में विकास परियोजनाओं के कार्यान्वयन में स्थानीय समाजसेवी संगठनों को शामिल कर सकते हैं।सरकार भी त्रिपुरा ग्रामीण आजीविका मिशन जैसी परियोजनाओं में जमीनी स्तर के संगठनों को बढ़ावा दे सकती है, क्योंकि ये संगठन समुदायों और उनकी जरूरतों को बेहतर तरीके से समझते हैं। सामाजिक सेक्टर में एक मजबूत और प्रभावी इकोसिस्टम विकसित करने का यही एकमात्र तरीका है।

अनुपम शर्मा, आईडीआर नॉर्थईस्ट मीडिया फेलो (2024–25) से हुई बातचीत पर आधारित।

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लेखक के बारे में
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सुजीत घोष

सुजीत घोष वॉलंटरी हेल्थ एसोसिशन त्रिपुरा के एग्जीक्यूटिव डायरेक्टर की ज़िम्मेदारियां देखते हैं और त्रिपुरा के सोशल-डेवलपमेंट सेक्टर का जाना-माना नाम हैं। वे बीते 15 सालों से सामाजिक सेक्टर में सक्रिय हैं और एक बेहतरीन कम्युनिटी मोबलाइजर और प्रशिक्षक हैं। साथ ही, सुजीत राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन के लिए नेशनल रिसोर्स पर्सन भी हैं और कई राष्ट्रीय संगठनों के साथ मिलकर काम करते हैं। उन्होंने सोशल वर्क में स्नातकोत्तर (एमएसडब्ल्यू) करने के साथ ग्रामीण विकास में भी पोस्ट ग्रैजुएट डिप्लोमा किया

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