August 9, 2023

कैसे समाजसेवी संगठन अपनी कहानी सकारात्मकता से कह सकते हैं? 

सामाजिक संगठनों का अपने कार्यक्रमों की पिच तैयार करते हुए सकारात्मक भाषा और उदाहरण अपनाना सोच बदलने वाला साबित होगा।
7 मिनट लंबा लेख

पिछले 30 वर्षों से विकलांगता पर काम कर रहे एक संगठन के रूप में, लतिका खूबियों पर ज़ोर देने वाले नज़रिए (स्ट्रेंथ-बेस्ड अप्रोच) के साथ काम करती है: जब हम विकलांग बच्चों और उनके परिवारों से मिलते हैं तो हम इस बात पर ध्यान केंद्रित करते हैं कि उनके मामले में सकारात्मक पहलू क्या हैं। फिर उस पर काम करते हैं। हम कभी भी समस्या के साथ आगे नहीं बढ़ते हैं।

इसका मतलब यह नहीं है कि हम समस्या को नज़रअंदाज़ कर देते हैं। यहां पर हम इस बात का दिखावा नहीं कर रहे हैं कि बच्चे की समस्या को सकारात्मक रवैये और खिलखिलाती मुस्कान की मदद से दूर किया जा सकता है। दुनिया लोगों को कई तरह से अक्षम महसूस करवाती है और इससे निपटने और परिवारों के आगे बढ़ने के तरीके खोजने में मदद करने के लिए हमारी टीम की ढेरी सारी रचनात्मकता और कौशल लगता है। लेकिन हम ताक़त पर ज़ोर देते हुए कोशिश करना शुरू करते हैं न कि कमियों या चुनौतियों के साथ। 

तो फिर, जब हम अपने काम को फंडर्स या आम जनता के सामने पेश करते हैं तो हम आगे बढ़ने के लिए सबसे बुरे नतीजों की संभावना (वर्स्ट केस सिनारियो) का सहारा क्यों लेते हैं? आपने कितनी बार ऐसे वाक्य पढ़े या लिखे हैं: ‘ऐसी दुनिया में बड़े होने की कल्पना कीजिए, जहां अवसरों की कमी है और आपको उनसे वंचित किया जाता है, इसलिए नहीं क्योंकि आप योग्य नहीं है बल्कि इसलिए क्यों आप एक लड़की के रूप में पैदा हुई हैं!’ हमारी नज़र हमेशा ही इस तरह के जुमलों पर पड़ती है और हम स्वयं भी ऐसी कुछ बातें लिखने के दोषी भी हैं। दरअसल, दुख, आक्रोश और नैतिक श्रेष्ठता की भावना विकास सेक्टर में होने वाले संवादों की पहचान हैं।

एक सेक्टर के रूप में, हमें समस्या बताने के साथ आगे बढ़ने के लिए तैयार किया जाता है। हमारे दानदाता हमें प्रस्तावों और पिच के लिए प्रदान किए गए प्रारूपों में, इस दृष्टिकोण को विकसित करने के लिए हमें प्रशिक्षित करते हैं; फंडरेजिंग के विशेषज्ञ भी ऐसा ही करते हैं। उनकी सलाह होती है कि: अपनी ऑडियंस को समस्या के बारे में जितना सम्भव हो उतना नाटकीय ढंग से बताएं, उसके बाद उन्हें बताएं कि क्यों आप ही इसे ठीक करने वाले हैं।

फेसबुक बैनर_आईडीआर हिन्दी

और, वे ग़लत नहीं हैं। समस्या पर बात करना बहुत प्रभावशाली होता है। मूल मुद्दे पर उनका बहुत अधिक ज़ोर देना यह सुनिश्चित करता है कि समस्या वही है जो हमें बाद में भी याद रह जाएगा। लेकिन ऐसा करना जहां कम समय के लिए कारगर हो सकता है, वहीं हमारे उद्देश्यों की पूर्ति नहीं करता है। अपनी कहानियों को स्पष्ट, काले और सफेद शब्दों में तैयार करके, हम उन लोगों के साहस और क्षमताओं को नजरअंदाज कर देते हैं जिनके साथ हम काम करते हैं। ऐसा करके हम इस बात से भी इनकार कर देते हैं कि पहले से ही कितना कुछ बदल चुका है जिसमें बहुत कुछ अच्छा भी है।

विकल्प

अमेरिका स्थित सामाजिक उद्यमी और लेखक ट्रैबियन शॉर्टर्स लोगों का परिचय उनकी सीमाओं और समस्याओं के आधार पर देने से इनकार करते हैं। लोगों की अक्षमताओं की बजाय उनकी आकांक्षाओं और योगदान पर ध्यान केंद्रित करते हुए काम करने के अपने नजरिए को वे ‘असेट फ़्रेमिंग’ कहते हैं। शॉर्टर्स कहते हैं कि ‘वास्तविकता यही है, हम सभी को एक ही चीज़ चाहिए। और, दुखभरी कहानियां और कलंक के भाव हमें एक-दूसरे की उपयोगिता देखने से रोक देते हैं। सामाजिक कार्य करने वालों की जिम्मेदारी है कि इस भावना को मजबूत न होने दें।’ वे आगे कहते हैं कि ‘हमें एक ऐसे नरेटिव की जरूरत है जो कहता है कि वास्तव में हम सभी के साझा हित हैं।’

अब, इस बात पर गौर करें कि कैसे 2016 में विकलांगजन सशक्तीकरण विभाग (विकलांग व्यक्तियों के सशक्तिकरण विभाग) का आधिकारिक नाम बदलकर, दिव्यांगजन सशक्तीकरण विभाग कर दिया गया। यहां पर विकलांग शब्द को दिव्यांग (दिव्य) से बदल दिया गया। दिव्यांग शब्द के इस्तेमाल के खिलाफ मद्रास उच्च न्यायालय में एक याचिका दायर (जिसे रद्द कर दिया गया) की गई थी क्योंकि इस मुद्दे पर होने वाली चर्चाओं में विकलांगों को शामिल नहीं किया गया था, और वे नहीं चाहते कि उन्हें किसी ‘दिव्य व्यक्ति’ के रूप में देखा जाए।

लेकिन, सवार यह है कि सशक्तीकरण की शुरुआत उन्हें ‘दिव्य’ कह कर क्यों की जानी चाहिए? ऐसा करना विकलांगों को एक उंचा स्थान तो देता है लेकिन साथ ही उन्हें उन अधिकारों और विशेषाधिकारों से बाहर कर देता है जिन्हें सक्षम शरीर वाले या सामान्य बुद्धिक्षमता लोग अपना अधिकार मानते हैं। ‘साझा हितों’ से शॉर्टर्स का तात्पर्य शिक्षा, स्वास्थ्य, रोज़गार और सार्वजनिक स्थानों तक बराबर पहुंच से है – वर्तमान में ये सभी विकलांगों की पहुंच से बाहर हैं।

उन्हें ‘दिव्य’ की उपाधि देने की बजाय, इस बात का विश्लेषण किया जाना चाहिए कि कैसे हमारे आसपास का माहौल उन्हें हमसे अलग करता है, हमें इन बाधाओं को दूर करने पर काम करना चाहिए। नजरिए में यह बदलाव, नई समझ देता है और हम अपनी योजना, फंडिंग और उद्देश्य पर भरोसा हासिल करने के तरीके बदलते हैं।

भूरे रंग की पृष्ठभूमि पर दो काले माइक_सामाजिक संस्था संचार
एक क्षेत्र के रूप में, हमें समस्या कथन के साथ आगे बढ़ने के लिए तैयार किया गया है। | चित्र साभार: पेक्सेल्स

हम समस्याओं के साथ आगे क्यों बढ़ते हैं?

समस्याओं पर ध्यान केंद्रित करने की अपनी आदत को तोड़ने पर विचार करते समय हमें यह भी समझने का प्रयास करना चाहिए कि हम में से अधिकांश लोगों को एक तबके को कमतर बताने वाली यह सोच (डेफिसिट थिंकिंग) क्यों पसंद है।

1. तथ्यों की बजाय धारणाओं को प्राथमिकता: फंड रेज करने और जागरूकता बनाने के लिए नकारात्मक चीजों पर ध्यान केंद्रित करना आसान होता है – क्योंकि हमें ऐसा करने का ही प्रशिक्षण दिया गया है। लेकिन जब हम ऐसा करते हैं, तब हम यह देखने में असफल हो जाते हैं कि वह कौन सी चीज है जो कारगर साबित हो रही है। उदाहरण के लिए, इस तथ्य को लें कि भारत में जीवन प्रत्याशा और बाल मृत्यु दर में सुधार हुआ है।

2. हमें अपने हिस्से की ही मदद मिल पाएगी: चाहे हमारा कारण कुछ भी हो, हम यह मानते हैं कि पैसों और ध्यान के लिए किसी दूसरे समाजसेवी संगठन से हमारी प्रतिस्पर्धा नहीं है। वास्तव में, ऐसी अस्पष्ट तस्वीर बनाने से हमें दानदाताओं, नीति निर्माताओं और आम लोगों के बीच खड़े होने की संभावना अधिक दिखाई पड़ती है।

3. तात्कालिकता: यह हमने विज्ञापन उद्योग से सीखा है— अपने ग्राहकों को इस बात का अहसास दिलाएं कि यदि उन्होंने अभी इसे नहीं ख़रीदा तो कल यह उपलब्ध नहीं रहेगा। संदेश जितना अधिक निराशाजनक होगा, हमारी ऑडियंस द्वारा प्रतिक्रिया देने की संभावना उतनी ही अधिक होगी।

कहानी में बदलाव

क्या हम अपने समस्या-केंद्रित दृष्टिकोण को भूल सकते हैं? शॉर्टर्स के पास कमतर समझने (डेफिसिट थिंकिंग) से खूबियों पर ज़ोर देने (असेट फ्रेमिंग) की तरफ जाने के लिए एक सरल तीन-सूत्रीय योजना है:

1. यह आपके कहने के बारे में नहीं बल्कि आपके सोचने के तरीक़े से संबंधित है

क्या आप लोगों की क्षमता, उनकी आकांक्षाओं और उनके सपनों को ध्यान में रखते हुए, उन्हें अपने परिवार के किसी बच्चे की तरह देखते हैं? इस बात की कल्पना करना भी महत्वपूर्ण है कि एक बार समस्याओं के हल निकल जाने के बाद दुनिया कैसी हो जाएगी और उन समाधानों के बारे में सोचना भी ज़रूरी है जिससे ऐसा करना सम्भव हो सकेगा। जब कोई विकलांग बच्चा हमारे शुरुआती प्रोग्राम सेंटर ‘नन्हे’ में आता है, तब हम पहले दिन से ही उसे दोस्तों, स्कूल बैग, प्रसन्न माता-पिता के साथ देखते हैं। हम किसी अवास्तविक ‘उपचार’ की तलाश में नहीं है बल्कि एक ऐसे बच्चे की तलाश कर रहे हैं जो अपनी दुनिया में खुशी से रह रहा है, और फिर हम इसे वास्तविक बनाने के लिए काम करते हैं।

2. समस्याओं के साथ शुरुआत न करें

लोगों के रास्ते में आने वाली बाधाओं को दूर करने की आवश्यकता बताना जरूरी है, लेकिन हमारी शुरुआत यहां से नहीं होती है। उदाहरण के लिए, एक बस के लिए फंडरेजिंग करते समय हमने इस बात से अपनी शुरुआत की कि आवागमन की सुविधा की कमी के कारण भारत में बहुत सारे विकलांग बच्चे स्कूल नहीं जा पाते हैं। इसकी एसेंट-फ़्रेमिंग करने के बाद, हमने इसे इस प्रकार लिखा: ‘विकलांग बच्चों को स्कूल से बहुत प्यार है! दूसरे बच्चों की तरह ही, वे भी दोस्त बनाना, पढ़ना सीखना और खेलना चाहते हैं। लेकिन उनमें से कई बच्चे नियमित रूप से स्कूल नहीं जा सकते क्योंकि परिवहन एक बहुत बड़ी चुनौती है।’

3. लेकिन समस्याओं को नज़रअंदाज़ भी न करें

अगर हम लोगों के सपनों के रास्ते में आने वाली बाधाओं के बारे में ध्यानपूर्वक नहीं सोचते हैं तो हम उनके सामने आने वाली वास्तविक प्रणालीगत चुनौतियों को मौक़ा दे देते हैं। विकलांग बच्चे नियमित रूप से मुख्यधारा के स्कूल में असफल इसलिए नहीं होते क्योंकि वे बेवक़ूफ़ हैं। बल्कि वे इसलिए असफल हो जाते हैं क्योंकि इन स्कूल में पढ़ाने वाले शिक्षक उन तरीक़ों से पढ़ाने के लिए प्रशिक्षित नहीं हैं जिनसे इन बच्चों को मदद मिलती है। यह अस्तित्व से नहीं बल्कि प्रणाली से जुड़ी समस्या है। एक बार जब हम प्रणाली में इन समस्याओं की पहचान कर लेंगे, तब हम इसे कम करने की दिशा में काम कर सकते हैं।

संकीर्ण से विस्तृत दृष्टिकोण की ओर

इसलिए बजाय यह कहने के कि ‘ऐसी दुनिया में बड़े होने की कल्पना करें जहां अवसरों की कमी है और आप उससे वंचित हैं, इसलिए नहीं क्योंकि आप काबिल नहीं है बल्कि इसलिए क्योंकि आपका जन्म एक लड़की के रूप में हुआ है!’ हम क्यों न इसे तरह कहें कि “एक कम-आय वाले देश में, 89 फ़ीसद लड़कियां प्राथमिक विद्यालय में नामांकित हैं और ऐसा माना जाता है कि लड़कियों को शिक्षित करना ‘दुनिया के अब तक के सबसे बेहतरीन विचारों में से एक है’। लेकिन प्राथमिक विद्यालय की पढ़ाई पूरी करने और हायर सेकंडरी तथा कॉलेज में नामांकन के मामले में लड़के अब भी लड़कियों से आगे हैं। और, बोर्डरूम में भी लड़कियां अल्पसंख्यक ही बनी हुई हैं। आपके सहयोग से ये लड़कियां अपनी शिक्षा पूरी कर सकती हैं और दुनिया में अपना सही स्थान हासिल कर सकती हैं।”

इस तरह की भाषा का प्रयोग कर, हम समस्या को इस तरह से परिभाषित कर रहे हैं, जो हमारी सामूहिक प्रगति को स्वीकार करने के साथ आज भी मौजूद रह गई समस्याओं के लिए व्यावहारिक समाधान भी सुझाता है।

लेकिन असेट फ़्रेमिंग का संबंध हमारे सोचने के तरीक़े को बदलने से है, न कि हमारे बोलने और लिखने के तरीक़े से, और फिर शब्दों के अपने मायने होते हैं।

लतिका में, कमतर बताने वाली भाषा को खोजते हुए हम अपने ब्रोशर, प्रस्तावों, प्रशिक्षण सामग्री और वेबसाइट का सावधानीपूर्वक अध्ययन कर रहे हैं। यह स्वीकार करना शर्मनाक है कि अपनी इन सामग्रियों में हमें इससे संबंधित कितना कुछ मिला है। एक उदाहरण हम यहां दे रहे हैं: ‘अपनी इच्छाओं और ज़रूरतों को व्यक्त करने में होने वाली कठिनाई, उत्तेजना की स्थिति में संवेदनशीलता और पूर्वानुमान की आवश्यकता से ऑटिस्टिक बच्चों को ऐसी स्थिति में अतिउत्साही महसूस करवा सकती है और परिणामस्वरूप वे मंद हो सकते हैं, जिसे नियंत्रित करना उनके लिए कठिन होता है।” इस पर लंबी और अनगिनत चर्चाओं के बाद, हमें अहसास हुआ कि हम एक महत्वपूर्ण सच से चूक रहे थे। ऑटिस्टिक बच्चों के प्रति हमारी प्रतिक्रियाएं स्वीकार्य व्यवहार पर हमारे अपने विचारों से निर्धारित होती हैं, फिर भी कई मायनों में, ऑटिस्टिक बच्चे – ‘स्वीकार्यता’ को लेकर कम चिंतित होते हैं- हमें बहुत कुछ सिखाते हैं। असेट फ़्रेमिंग की मदद से हम यह जान पाए कि हमारे पास सीखने के लिए कितना कुछ बचा है।

आज इसी कथन को मैं इस प्रकार लिखती हूं: ‘ऑटिस्टिक बच्चे अलग और रचनात्मक तरीक़ों से संवाद करते हैं, जिसमें अराजकता और संवेदी बोझ के प्रति तीव्र नकारात्मक प्रतिक्रियाएं शामिल हैं, जिनके प्रति लोगों ने खुद को असंवेदनशील बना लिया है। कई मायनों में, वे खदान में कनारी पक्षी की तरह हैं।’

आइए, एक अच्छे जासूसों की तरह, हम अपनी वेबसाइट, प्रस्तावों, प्रशिक्षण सामग्रियों और दस्तावेज़ों पर और सबसे ज्यादा अपने मन की नकारात्मकता का पता लगाएं। इस प्रक्रिया में हम जो भी सीखते हैं, उसका उपयोग अपनी स्वयं की धारणाओं और निष्कर्षों पर सवाल उठाने के लिए करें। हमें अपने कारणों को इतना गंभीर दिखाना बंद करना होगा जिससे कि लोग निराश हो जाएं और कार्रवाई करने से ही इनकार कर दें।

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लेखक के बारे में
जो चोपड़ा मैकगोवन-Image
जो चोपड़ा मैकगोवन

जो चोपड़ा विकलांग बच्चों के साथ काम करने वाले एक समाजसेवी संगठन लतिका रॉय फाउंडेशन की सह-संस्थापक और कार्यकारी निदेशक हैं। इसके अलावा जो एक लेखिका भी हैं।

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