भारत के मध्यवर्ती आदिवासी इलाकों में छोटे और सीमांत किसान, बढ़ती भूमि-हीनता, सिकुड़ते खेतों और बिखरी हुई जोत के कारण नई तरह के संकटों का सामना कर रहे हैं। यह स्थिति जलवायु परिवर्तन और खेती में महिलाओं की बढ़ती भागीदारी के चलते और जटिल हो जाती है, क्योंकि पुरुष बेहतर आय की तलाश में खेती छोड़कर शहरों या दूसरे कामों की ओर पलायन कर रहे हैं। इस स्थिति से निपटने में बड़े, पंजीकृत कृषि उत्पादक संगठन (एफपीओ) किसानों को बाजार से जोड़ने में मदद कर सकते हैं और स्वयं सहायता समूह कर्ज तक उनकी पहुंच आसान बना सकते हैं। लेकिन दूर-दराज के इलाकों में छोटे भू-खण्डों पर खेती करने वाले परिवार इनमें से किसी भी विकल्प का लाभ तब तक नहीं उठा पाते हैं, जब तक कि उनके खेत की उपज बढ़िया न हो। नतीजतन, घरेलू स्तर पर अच्छी उत्पादकता अनियमित और अव्यावहारिक बनी रहती है।
कलेक्टिव फॉर इंटीग्रेटेड लाइवलीहुड इनिशिएटिव्स (सीआईएनआई) में हम 2007 से झारखंड के आदिवासी इलाकों में कृषि और आजीविका पर काम कर रहे हैं। हमारे अनुभव से यह स्पष्ट होता है कि अगर किसान छोटे-छोटे स्थानीय समूहों में मिलकर खेती करें, तो वे कम लागत में अधिक उत्पादन कर सकते हैं। साथ ही, वे एफपीओ का बेहतर उपयोग कर सकते हैं और जोखिम भी आपस में बांट सकते हैं। सामूहिक खेती के ऐसे स्वैच्छिक मॉडल, जिनमें एक समूह में केवल छह से दस किसान हों, कई परिवारों को आत्मनिर्भर खेती से लाभकारी खेती की दिशा में पहला कदम उठाने में मदद कर सकते हैं।
कृषि जनगणना 2015-16 के अनुसार, छोटे और सीमांत किसान यानी जिनके पास दो हेक्टेयर (लगभग पांच एकड़) से कम जमीन है, भारत के कुल किसानों का 85 प्रतिशत से अधिक हिस्सा हैं। लेकिन वे केवल 47.3 प्रतिशत कृषि भूमि पर ही खेती करते हैं। इन किसानों के लिए खेती को आर्थिक रूप से टिकाऊ बनाने के लिए जरूरी है, कि वे साल में उत्पादन के दिनों की संख्या लगभग 50 से बढ़ाकर कम से कम 150 से 250 दिन तक कर सकें।
यहां कुछ तरीके दिए गए हैं, जिनसे सामूहिक खेती छोटे किसानों के लिए कृषि को अधिक लाभकारी बना सकती है।
1. एक-दूसरे से सटे खेतों को जोड़कर जमीन को खेती योग्य बनाना
झारखंड में लगभग 600 छोटे भू-खण्डों पर, सीआईएनआई ने महिलाओं और उनके परिवारों को छोटे, अनौपचारिक समूह बनाने में मदद की है ताकि वे मिल-जुलकर अपनी जमीनों पर खेती कर सकें। इनमें से करीब 60 प्रतिशत भू-खण्डों पर किसान अब गुजर-बसर की खेती से आगे बढ़कर आजीविका केंद्रित खेती करने लगे हैं।
इस बदलाव का एक कारण यह है कि सामूहिक खेती में योजना बनाते हुए बारीकियों का ध्यान रखना (माइक्रोप्लानिंग) आसान हो जाता है। यह योजना हर जगह की भौगोलिक परिस्थितियों, जरूरतों, संसाधनों और चुनौतियों जैसी जानकारियों को शामिल करते हुए बनाई जाती है। समूह में काम करने से किसान तकनीक, उपकरण और श्रमिकों का उपयोग अधिक कुशलता से कर पाते हैं। इसके अलावा, एक जैसी फसल उगाने से उसे बाजार तक आसानी से पहुंचाया जा सकता है और इसमें लागत भी कम लगती है।
2. सिंचाई अधिक कुशल तरीकों से की जा सकती है
झारखंड का ज्यादातर भूभाग पहाड़ी और असमतल है और यहां की खेती आमतौर पर वर्षा पर निर्भर करती है। जलवायु परिवर्तन के कारण मौजूदा चुनौतियां और बढ़ गई हैं। खेती के दौरान कभी बहुत अधिक तो कभी बहुत कम बारिश होने से हालात कठिन हो जाते हैं।
इन परिस्थितियों के कारण ज्यादातर किसान साल में केवल एक ही फसल उगा पाते हैं। हालांकि खेती को लाभकारी बनाने के लिए साल में दो या उससे ज्यादा फसलें उगाना जरूरी होता है। लेकिन इसके लिए एक स्थाई जलस्रोत और सिंचाई की मजबूत व्यवस्था चाहिए, जिसके लिए बहुत अधिक पूंजी की जरूरत होती है। उदाहरण के लिए, पानी जमा करने के लिए एक टंकी बनाने में लगभग तीन लाख रुपए की लागत आती है। सिंचाई के लिए पानी खींचने के लिए किसानों को पंप जैसे साधन चाहिए। इसके अलावा, डीजल जैसे ईंधन महंगे होते हैं और इन्हें खरीदने के लिए अक्सर दूर भी जाना पड़ता है। सौर ऊर्जा से चलने वाले पंप जलवायु के लिहाज से उपयुक्त और स्थाई विकल्प होते हैं। लेकिन ऐसी सिंचाई व्यवस्था बनाना एक महंगा सौदा है। तीन हॉर्सपॉवर के एक सोलर पंप की लागत 3.5 लाख तक हो सकती है। इसके अलावा, ड्रिप इरीगेशन में भी प्रति एकड़ एक लाख रुपए तक का खर्च आता है। इस तरह छोटे किसानों के लिए इस खर्चे को ढोना बहुत मुश्किल होता है, खासकर तब जब उनके पास एक एकड़ जमीन का केवल एक-तिहाई हिस्सा ही मौजूद हो।

अगर छह या अधिक किसान अपनी जमीनों को मिलाकर खेती करें और लागत को आपस में बांट लें, तो सिंचाई की व्यवस्था उनके लिए किफायती बन सकती है। हर परिवार अपनी जमीन के अनुपात में लागत में योगदान कर सकता है। इससे मौजूदा ढांचे का भी बेहतर इस्तेमाल हो सकता है। जैसे कि एक सौर पंप 3-3.5 एकड़ जमीन की सिंचाई कर सकता है। लेकिन अगर इसे केवल एक किसान इस्तेमाल करे, तो इसका पूरी तरह लाभ नहीं मिल सकता। किसान अगर समूहिक रूप से इसमें निवेश करेंगे, तो वे जलवायु-सहज तरीके से अपनी उत्पादकता बढ़ा सकते हैं।
एक ही जलस्रोत से जुड़े सामूहिक भू-खण्ड पर काम करने वाले किसान, अनौपचारिक जल उपयोगकर्ता समूह बना सकते हैं। ये समूह इस व्यवस्था को चलाने के लिए किसी व्यक्ति को चुन या नियुक्त कर सकते हैं। साथ ही, वे कीट-नियंत्रण और नेट हाउस फार्मिंग के लिए भी मिलकर काम कर सकते हैं। जलवायु परिवर्तन के चलते जहां कीट और बीमारियों के प्रकोप का जोखिम बढ़ गया है, वहां ऐसे कदम सफलता के लिए जरूरी हो गए हैं। जलवायु शमन के अन्य उपाय अपनाना—जैसे फसलों को बदलना, सौर ऊर्जा से चलने वाले कीट जाल लगाना और बायो-मल्च का इस्तेमाल करना आदि भी सामूहिक रूप से अधिक आसान है।
3. एक ऐसा नेटवर्क जो लघु उत्पादक समूहों को तकनीकी हब से जोड़े
किसानों का कोई समूह जिस भू-खंड या जमीन के टुकड़े पर सामूहिक खेती करता है, उसे तीन से चार गांवों तक फैले किसी बड़े केंद्र (हब) से जोड़ा जा सकता है। किसी एक समूह के लिए अपने दम पर अत्याधुनिक तकनीक का इस्तेमाल करना कठिन हो सकता है, लेकिन कई किसान समूहों के बीच तालमेल होने से यह काम सस्ता हो जाता है। सीआईएनआई द्वारा स्थापित हब, मौसम संबंधी सैटेलाइट डेटा जुटाता है और इसे डिजिटल माध्यमों से कुछ गांवों के किसान समूहों तक पहुंचाता है। यह हब कृषि विशेषज्ञों की मदद से मिट्टी की सेहत सुधारने और बरकरार रखने में भी किसानों की सहायता करता है। यह फसल चक्र के लिए फसलें चुनने और कीट नियंत्रक सेवायें उपलब्ध कराने में भी मदद करता है। इसके अलावा, ड्रिप सिंचाई या प्रिसीजन फार्मिंग में इस्तेमाल होने वाले घुलनशील उर्वरक सामूहिक रूप से इस्तेमाल किए जाने पर सभी के लिए किफायती हो जाते हैं।
4. सामूहिक खेती छोटे किसानों को एफपीओ इकोसिस्टम से जोड़ सकती है
एफपीओ और फार्मर प्रोड्यूसर कंपनियां (एफपीसी), जो आमतौर पर बड़े स्तर पर काम करती हैं, थोक में कृषि उपज खरीद सकती हैं और बड़े पैमाने पर उन्हें बाजार में बेच सकती हैं। लेकिन उनके लिए छोटे और सीमांत किसानों के साथ सीधे जुड़कर काम करना व्यावहारिक नहीं होता है। छोटे किसान समूह, एफपीओ के साथ जुड़ने के लिए जरूरी उत्पादन मात्रा और अन्य शर्तों को पूरा करने का काम कर सकते हैं।
किसान समूहों का एक छोटा नेटवर्क, अपनी जरूरतों को साथ लाकर एफपीसी के सामने रख सकता है और उनके लिए एक साथ ऑर्डर दे सकता है। उदाहरण के लिए, कीटनाशक सप्लायर जब किसी एक इलाके में आता है और उसे एक साथ कई खेतों के लिए ऑर्डर मिलता है तो वह उसी दिन काम पूरा कर सकता है। इसी तरह, मिल-जुलकर लगाई गई एक ही फसल से इतना उत्पादन हो जाता है कि एफपीओ उसे सीधे खेत से ही खरीद सकते हैं। छोटे और सीमांत किसानों के लिए परिवहन की लागत भी एक बड़ी बाधा है। अगर वे मिलकर एक ही फसल उगाते हैं (जैसे टमाटर) तो उनके लिए एक छोटा ट्रक -‘छोटा हाथी’- किराए पर लेना आसान हो जाता है। इससे किसान परिवहन लागत में 10 प्रतिशत तक की बचत कर सकते हैं।
सामूहिक खेती की अपनी चुनौतियां हैं
किसानों को सामूहिक रूप से खेती करने के लिए तैयार करना आसान नहीं है। भले ही, झारखंड में लोगों ने स्वयं सहायता समूहों की सफलता देखी है लेकिन यहां के अधिकांश किसानों के लिए सामूहिक खेती अब भी एक नया विचार ही है। कुछ मामलों में वे पुराने अनुभवों के चलते इसपर भरोसा नहीं कर पाते हैं। कई किसान जोखिम लेने के लिए तैयार नहीं होते हैं या फिर उन्हें लगता है कि समूह में जब बहुमत से फैसले लिए जाएंगे, तो इससे उनकी अपनी स्वायत्तता खत्म हो जाएगी। ऐसे में जिन गांवों में सामूहिक खेती सफल रही है, वहां किसानों को ले जाकर वास्तविक अनुभव कराना उनकी हिचक दूर करने में मदद कर सकता है।
लेकिन समूह बनाने के बाद भी उन्हें अलग-अलग तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। शुरूआत में जहां व्यवस्था बनाने की चुनौतियां होती हैं, वहीं व्यवस्था बनने के बाद आपसी असहमतियों से निपटने और फिर धीरे-धीरे नई व्यवस्था के साथ तालमेल बैठने का एक सिलसिलेवार क्रम होता है। शुरूआती बाधाएं कई बार सदस्यों का आत्मविश्वास हिला देती हैं। जैसे कि सिंचाई सुविधा के लिए भुगतान करने या मुनाफे में भागीदारी को लेकर विवाद हो सकता है। इसी तरह, कौन सी फसल उगाई जानी चाहिए, इसे लेकर असहमतियां देखने को मिल सकती हैं। इसे अंग्रेजी में फॉर्मिंग, स्टॉर्मिंग और नॉर्मिंग स्टेज कहा जाता है और इनसे पार जाकर ही कोई समूह स्थाई रूप से आगे बढ़ सकता है।

सामूहिक खेती करने वाले किसानों के पास तकनीकी जानकारी और उनके प्रयोग का कम अनुभव होता है। सौर ऊर्जा तकनीकों को अपनाने वाले किसान, सोलर पंप के खराब हो जाने या प्रशिक्षित ऑपरेटर्स की कमी जैसे जोखिमों का सामना करते हैं। खेती में बहुत कुछ समय पर निर्भर करता है और अगर उपकरण सही समय पर काम नहीं करते हैं, तो किसान उस मौसम की फसल नहीं उगा पाते हैं। यही वजह है कि ब्लॉक या जिला स्तर के तकनीकी हब बहुत जरूरी हैं। गैर-लाभकारी संगठन इस मामले में अहम भूमिका निभाते हैं। वे किसानों की तकनीकी क्षमता बढ़ाने, उन्हें मोबाइल ऐप्स से परिचित कराने और किफायती कृषि तकनीकों और वित्तीय साक्षरता हासिल करने में मदद करते हैं।
हालांकि किसानों की सबसे बड़ी चुनौती, वित्तीय संसाधनों तक पहुंचना है। एक किसान परिवार को एक साल के उत्पादन के लिए औसतन 10-15 हजार रुपए की आवश्यकता होती है। यह लागत जमीन के आकार, फसल के चुनाव और खेती के तरीकों पर भी निर्भर करती है। छोटे किसानों के लिए यह राशि खर्च करना मुश्किल होता है। लेकिन छोटे समूहों में ऐसा करना आसान हो जाता है। सीआईएनआई किसानों को एनआरएलएम गाइडलाइन्स के तहत उत्पादक समूहों से जोड़ता है, जिससे वे उस योजना में उपलब्ध चक्रीय निधि का लाभ उठा पाते हैं।
फिर भी, सामूहिक खेती के लिए मजबूत नीतिगत प्रोत्साहन की जरूरत है। ज्यादातर सीएसआर फंडर और सरकारी नीतियां एकल किसानों को समर्थन देती हैं। हमें ऐसी योजनाएं, सब्सिडी, ऋण, अनुदान और बीमा साधन चाहिए जो खासतौर पर सामूहिक खेती पर ध्यान केंद्रित करें। इससे मध्य भारत के आदिवासी क्षेत्र के अनगिनत परिवार गरीबी के चक्र से बाहर आ सकते हैं।
इस लेख को तैयार करने में प्रसन्ना कुमार मोडक ने योगदान दिया है।
इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ें।
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