मानव जीवन, ऑक्सीजन के लिए पेड़ों पर आश्रित है, इसे लेकर तो बहुत बात होती है लेकिन यह सिर्फ आधा सच है। हम पेड़-पौधों के अलावा फाइटोप्लैंक्टन नामक सूक्ष्म पौधे जीवों पर भी आश्रित होते हैं जो पृथ्वी पर मौजूदा पचास प्रतिशत ऑक्सीजन उत्पादन और विभिन्न खाद्य, पर्यावरणीय संतुलन का काम करते हैं।
फाइटोप्लैंक्टन ग्रीक भाषा के दो शब्दों, फाइटो (पौधा) और प्लैंकटन (भटकने वाला/ड्रिफ्टर) से आया है। यह एककोशकीय, स्वपोषी, पौधे सरीखे जलीय जीव, महासागर से लेकर मीठे और खारे पानी के विभिन्न जल स्रोतों में रहते हैं। हालांकि ज़्यादातर फाइटोप्लैंक्टन को नंगी आंखों से देखना संभव नहीं है लेकिन कुछ को देखा जा सकता है, जैसे ट्राइकोडेस्मियम, फिलामेंटस फाइटोप्लैंक्टन। ये प्रकाश संश्लेषण (फोटोसिंथेसिस) कर जीवित रहते हैं। यही वजह है कि ये महासागरीय जल निकायों की यूफोटिक ज़ोन नाम की 200 मीटर तक की ऊपरी परत तक ही सीमित रहते हैं। यह वह गहराई है जहां तक सूर्य का प्रकाश जलीय वातावरण में प्रवेश करता है और इन सूक्ष्म जीवों तक पहुंचता है। ये जीव जलीय पारिस्थितिकी तंत्र (वाटर इकोसिस्टम) के खाद्य जाल (फूड वेब) के मुख्य उत्पादक होते हैं। दूसरे शब्दों में, जलीय जीवों के खाने का इंतजाम यही सूक्ष्म जीव करते हैं। ये जीव विभिन्न प्रकार के होते हैं जिन्हें कोशिका संरचना से लेकर आकार के आधार पर वर्गीकृत किया गया है। सामान्य फाइटोप्लैंकटन्स में सायनोबैक्टीरिया, डायटम्स, हरी शालजीव और कोकोलिथोफोर्स शामिल हैं।
फाइटोप्लैंक्टन पर बात करना क्यों ज़रूरी है?
कनाडा की डलहौजी यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं के अनुसार वर्ष 1950 के बाद से फाइटोप्लैंकटन की वैश्विक आबादी में लगभग 40% तक की गिरावट आई है। हाल ही में भारतीय उष्णकटिबंधीय मौसम विज्ञान संस्थान के वैज्ञानिक डॉ. रॉक्सी मैथ्यू कोल के नेतृत्व में एक अध्ययन किया गया, जो जर्नल ‘जियोफिजिकल रिसर्च लेटर्स’ में प्रकाशित हुआ है। इसके अनुसार भारतीय महासागर में पिछले 6 दशकों में फाइटोप्लैंकटन की संख्या में 20% तक की कमी आई है। अध्ययन से पता चलता है कि पश्चिमी भारतीय महासागर में यह गिरावट पिछले 16 वर्षों में 30% तक हो गई है। इन अध्ययनों को गंभीर रूप से स्वीकारना और इन पर काम करना ज़रूरी है। इनके मुताबिक जलवायु परिवर्तन सिर्फ पानी की कमी, जहरीली हवा तक सीमित नहीं है बल्कि यह सूक्ष्म जीवों को भी प्रभावित कर रहा है। इससे ना केवल मानव जीवन बल्कि जलीय और जमीनी पारिस्थितिकी तंत्र का संतुलन भी बिगड़ रहा है।
फाइटोप्लैंक्टन की पर्यावरण में क्या भूमिका है?
फाइटोप्लैंक्टन, जलीय खाद्य जाल में प्राथमिक उत्पादक होते हैं। ये प्रकाश संश्लेषण से अपना भोजन खुद बनाते हैं और जनसंख्या में बढ़ते रहते हैं। इसी प्रकाश संश्लेषण के दौरान ये ऑक्सीजन का उत्पादन करते हैं। इन्हें अन्य सूक्ष्मजीव जैसे जुप्लेंकटन खाते हैं, जिन्हें छोटी मछलियां, अन्य जलीय जीव खाते हैं, और छोटी मछलियों को बड़ी मछलियां जैसे व्हेल खाती हैं। इस तरह यह सूक्ष्म जीव पूरे जलीय तंत्र के भोजन की नींव हैं। तरह-तरह के पोषक तत्व जैसे नाइट्रोजन, फास्फोरस इन्हीं के जरिए जलीय जीवों तक पहुंचते हैं। इनकी संख्या में गिरावट, अन्य जीवों के लिए भोजन की कमी पैदा कर सकती है जिससे उनकी प्रजनन दर में भी भारी गिरावट आएगी और खाद्य जाल और जीवों की बढ़ोतरी प्रभावित होगी।
फाइटोप्लैंक्टन, प्रकाश संश्लेषण के दौरान हवा में मौजूद कार्बन डाइऑक्साइड का इस्तेमाल करते हैं जिससे पर्यावरण में इसकी मात्रा संतुलित बनी रहती है। भारतीय उष्णकटिबंधीय मौसम विज्ञान संस्थान, पुणे की जलवायु वैज्ञानिक अदिति मोदी बताती हैं, “फाइटोप्लैंक्टन भारी मात्रा में कार्बन डाइऑक्साइड को अवशोषित करते हैं, इनकी कमी से कार्बन अवशोषण कम हो जाएगा जिससे कार्बन का स्तर बढ़ सकता है। इससे जलवायु परिवर्तन को बढ़ावा मिल सकता है और वैश्विक पारिस्थितिकी तंत्र और मौसम पैटर्न प्रभावित हो सकते हैं।”
फाइटोप्लैंक्टन का अहम कार्य जलवायु विनिमयन (क्लाइमेट चेंज) भी है जो एक तय जलवायु चक्र बनाए रखने में और चलाने में मदद करते हैं। इनकी कमी वैश्विक तापमान और चरम मौसमी गतिविधियों को बढ़ा सकती है। यानी, इससे बढ़ता तापमान, लू, आंधी-तूफान, बढ़ते समुद्री जल स्तर जैसी कई समस्याएं देखने को मिल सकती हैं जो आगे चलकर खेती और उससे जुड़े उद्यमों को प्रभावित कर सकती हैं।
इसकी संख्या में गिरावट के क्या कारण हैं?
फाइटोप्लैंक्टन को बढ़ने अथवा फैलने के लिए ठंडे पानी की जरूरत होती है क्योंकि यह पोषक तत्वों से भरपूर होता है। फाइटोप्लैंक्टन, प्रकाश ऊर्जा, कार्बन डाइऑक्साइड, पानी और जल स्रोत में मिश्रित पोषक तत्व जैसे कैल्शियम, फास्फेट, नाइट्रेट आदि का इस्तेमाल कर अपना भोजन बनाते हैं और बढ़ते हैं। सामान्य रूप से समुद्र की सतह का तापमान गहरे पानी की तुलना में अधिक गर्म होता है, बढ़ती गहराई के साथ पानी ठंडा होता जाता है। मौसम में परिवर्तन के कारण सतह का पानी अधिक गर्म हो रहा है और यह अधिक गर्म सतह एक अवरोध बनाती है। एक ढक्कन की तरह जो ठंडे, पोषक तत्वों से भरपूर पानी को गर्म सतह के पानी के साथ मिलने से रोकता है। इससे, फाइटोप्लैंक्टन को जीवित रहने और बढ़ने के लिए आवश्यक पोषक तत्व नहीं मिल पाते हैं और उनकी संख्या में गिरावट आती है।
समुद्र के बढ़ते तापमान के अलावा महासागर अम्लीकरण (ओशन एसिडिफिकेशन), और ग्लोबल वार्मिंग ने कार्बन डाइऑक्साइड को वातावरण में बढ़ाया है। अब समुद्र इस गैस को अधिक मात्रा में सोखते हैं और परिणामस्वरूप पानी अधिक अम्लीय (एसिडिक) हो गया है जिससे फाइटोप्लैंक्टन तक आयरन जैसे पोषक तत्व नहीं पहुंच पाते हैं। इससे उनकी कोशिका भित्ति (सेल वॉल्स) कमजोर हो जाती हैं और उनकी बढ़ोतरी और कार्य क्षमता में बाधा आती है। इसके अलावा प्रदूषण, समुद्री लहरों में बदलाव, हानिकारक शैवाल प्रस्फुटन (हार्मफुल एलगल ब्लूम्स), बहुत अधिक मछली पकड़ा जाना जैसे कारक भी फाइटोप्लैंक्टन की संख्या में गिरावट लाते हैं। गहराई से समझें तो प्रदूषण, औद्योगिक कचरा, प्लास्टिक, उर्वरक और कीटनाशक जैसे रसायन समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र में प्रवेश करते हैं, जिससे फाइटोप्लैंक्टन पर हानिकारक प्रभाव पड़ता है। ये प्रदूषक, पोषक चक्रों को बाधित कर सकते हैं, पानी में प्रकाश के प्रवेश को कम कर सकते हैं, और विषाक्त पदार्थों की मात्रा बढ़ा सकते हैं।
शैवाल, फाइटोप्लैंक्टन तक सूर्य के प्रकाश को पहुंचने से रोकते हैं और जहरीले पदार्थ छोड़ते हैं, जो फाइटोप्लैंक्टन को मार सकते हैं।
मानवीय गतिविधियों के कारण समुद्री लहरों के पैटर्न में बदलाव, जल परिसंचरण (वाटर सर्कुलेशन) को प्रभावित कर सकते हैं। इससे पोषक तत्वों का वितरण प्रभावित होता है और फाइटोप्लैंक्टन उन तक नहीं पहुंच पाते। साथ ही, शैवाल प्रस्फुटन यानि दूषित पोषक तत्वों के कारण कुछ शैवाल प्रजातियों का बढ़ जाना भी इसकी एक वजह है। शैवाल, फाइटोप्लैंक्टन तक सूर्य के प्रकाश को पहुंचने से रोकते हैं और जहरीले पदार्थ छोड़ते हैं जो फाइटोप्लैंक्टन को मार सकते हैं। ज्यादा मछली पकड़ने से भी समुद्री खाद्य जाल बाधित होता है क्योंकि ज़ूप्लैंकटन का शिकार करने वाली मछलियां कम हो जाती हैं। फाइटोप्लैंक्टन ज़ूप्लैंकटन का चारा हैं, पर्याप्त शिकारियों के बिना ज़ूप्लैंकटन की बढ़ती आबादी से फाइटोप्लैंक्टन की ज्यादा चराई होगी, जिससे उनकी संख्या में कमी आ सकती है।
फाइटोप्लैंक्टन में कमी से मनुष्य का जीवन कैसे प्रभावित हो सकता है?
अदिति मोदी बताती हैं कि “उत्पादकता से भरपूर उष्णकटिबंधीय भारतीय महासागर में, फाइटोप्लैंक्टन की कमी खाद्य आपूर्ति और उन समुदायों की आजीविका को गंभीर रूप से प्रभावित कर सकती है जो इस पर निर्भर हैं। भारतीय महासागर एक अत्यंत उत्पादक बेसिन है, जो इसके किनारे बसे देशों के लिए भोजन और आजीविका का बेहतरीन स्रोत है।” फाइटोप्लैंक्टन की कमी से मछलियां कम हो सकती हैं जिससे इस पर आश्रित लोगों के स्वास्थ्य में गिरावट (जैसे प्रोटीन की कमी) और मछली निर्यात में कमी आ सकती है।
संयुक्त राष्ट्र खाद्य और कृषि संगठन के आंकड़ों से पता चलता है कि टूना मछली की उपलब्धता वाले वैश्विक पकड़ क्षेत्र का 20% हिस्सा हिंद महासागर में आता है। यह भारत को विश्व बाजारों में टूना का दूसरा सबसे बड़ा आपूर्तिकर्ता बनाता है। वैज्ञानिकों के अनुसार, पिछले पांच दशकों में हिंद महासागर में टूना उत्पादन की दर में 50-90% की गिरावट आई है। हालांकि इस गिरावट का एक हिस्सा औद्योगिक मछली पकड़ने की गतिविधियों में वृद्धि के कारण है लेकिन यह फाइटोप्लैंकटन की कमी से भी संबंधित है। क्योंकि टूना और अन्य मछलियों का बड़े पैमाने पर वितरण, फाइटोप्लैंक्टन की उपलब्धता और प्रचुरता से जुड़ा है, इसलिए इनकी कमी स्थिति को और गंभीर बना सकती है और अफ्रीका, दक्षिण एशिया में मछली की आपूर्ति बाधित हो सकती है। जिन समुदायों और देशों के भोजन में मछली अति आवश्यक खाद्य है, इस कमी से उनके भोजन पैटर्न और स्वास्थ्य में बदलाव संभव हैं।
केंद्रीय समुद्री मत्स्य अनुसंधान संस्थान की मरीन फिश लैंडिंग्स रिपोर्ट 2019 के अनुसार, भारत के पश्चिमी तट से मछली पकड़ने में कमी आई है। रिपोर्ट के अनुसार, 2019 में महाराष्ट्र ने 45 वर्षों में सबसे कम वार्षिक पकड़ दर्ज की है जिसमें सभी प्रजातियों में तीव्र कमी देखी गई। रिपोर्ट में कहा गया कि 2019 में राज्य में कुल अनुमानित मछली की लैंडिंग (जो मछली पकड़कर बंदरगाहों पर पहुंचती है) 2.01 लाख टन थी जबकि 2018 में यह 2.95 लाख टन थी यानी 32% कमी। इस कमी के लिए पूरी तरह फाइटोप्लैंक्टन ज़िम्मेदार नहीं हैं लेकिन यह अन्य कारण जैसे प्रदूषण, प्लास्टिक वेस्ट, बढ़ता तापमान, मौसमी गतिविधियां आदि में से एक जरूर है। भारत के मछली निर्यात में कमी आर्थिक विकास को प्रभावित कर सकती है और मछली व्यापार में कमी होने से मछली पकड़कर या बेचकर जीवन यापन करते समुदायों के लिए भी आर्थिक रूप से परिस्थितियां बिगड़ सकती हैं।
फाइटोप्लैंक्टन की घटती जनसंख्या को रोकने के लिए क्या कदम उठाए जा सकते हैं
अदिति मोदी बचाव के कदमों को लेकर कहती हैं, “फाइटोप्लैंक्टन में तीव्र और व्यापक वृद्धि मुख्य रूप से पोषक तत्वों और प्रकाश की उपलब्धता से प्रभावित होती है। उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों जैसे भारतीय महासागर में, महासागर के यूफोटिक ज़ोन में पोषक तत्वों की आपूर्ति फाइटोप्लैंक्टन की वृद्धि को सीमित करती है। मानसून प्रणालियां पोषक तत्वों की आपूर्ति बढ़ाकर फाइटोप्लैंक्टन के खिलने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। इसके अलावा महासागर की सतह के तापमान में कमी, पानी की परतों के बीच ऊर्ध्वाधर मिश्रण (वर्टिकल मिक्सिंग) को बढ़ा सकती है, जिससे पोषक तत्वों की आपूर्ति और बढ़ती है, यह घटना अक्सर अरब सागर में सर्दियों के दौरान देखी जाती है। विभिन्न महासागर प्रक्रियाएं, जैसे अपवेलिंग और ऊर्ध्वाधर मिश्रण, पोषक तत्वों की उपलब्धता बढ़ाकर फाइटोप्लैंक्टन की वृद्धि में योगदान करती हैं।”
इन जीवों की जनसंख्या को वापस पुराने स्तर पर ले जा सकने की उम्मीद में हुए शोधों पर अदिति का कहना है, “हाल के शोधों से पता चलता है कि फाइटोप्लैंक्टन की कमी विश्व के महासागरों में भिन्न-भिन्न है। वैश्विक गर्मी, ध्रुवीय इलाकों पर फाइटोप्लैंक्टन के खिलने को बढ़ावा दे सकती है लेकिन उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में कमी का कारण बन सकती है। यदि आप भारतीय महासागर को देखें, तो यह 20वीं सदी से उष्णकटिबंधीय महासागरों में सबसे तेजी से गर्म हो रहा है। बढ़ती सतह की गर्मी ऊपरी महासागर के ऊर्ध्वाधर मिश्रण को सीमित करती है। इससे गहरे महासागर से पोषक तत्वों की आपूर्ति बाधित होती है और समुद्री फाइटोप्लैंक्टन की प्रकाश संश्लेषण गतिविधि घट जाती है। भारतीय महासागर के रुझानों से जुड़ा व्यक्तिगत अध्ययन दिखाता है कि ग्रीनहाउस गैसों की वृद्धि के साथ वैश्विक गर्मी भारतीय महासागर को एक पारिस्थितिकीय मरूस्थल में बदल सकती है। इससे अलग भी समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र की रक्षा के लिए विभिन्न पहलों की आवश्यकता है। कृषि में इस्तेमाल होने वाली रासायनिक खाद-कीटनाशकों और उद्योगों से निकलने वाले रासायनिक कचरे में नाइट्रोजन और फास्फोरस आदि जैसे पोषक तत्व होते हैं, समुद्र में इनके बहाव को कम करने के प्रयास भी हानिकारक शैवाल को बढ़ने से रोकते हैं। इसके अलावा, जलवायु परिवर्तन निवारण प्रयास, जैसे कार्बन संचित करने की परियोजनाएं और ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करना, महासागर की गर्मी और अम्लीकरण को कम करना भी एक उपाय है।”
अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी इन जीवों को बचाने, बढ़ाने के लिए कार्यक्रम चल रहे हैं, एक महत्वपूर्ण पहल संयुक्त राष्ट्र का महासागर विज्ञान दशक है, जो महासागर संरक्षण और जैव विविधता, जिसमें फाइटोप्लैंक्टन भी शामिल हैं, पर ध्यान केंद्रित करता है। ऐसे ही कई क्षेत्रीय और वैश्विक प्रयास इस दायरे में आते हैं।
आशिका शिवांगी सिंह एक स्वतंत्र लेखिका हैं। आशिका, मानवाधिकार, जाति, वर्ग, लिंग, संस्कृति आदि विषयों पर लिखती रहती हैं।
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