2011 की जनगणना के अनुसार, भारत की कुल आबादी का लगभग 8.6 फ़ीसद आबादी आदिवासी है। संविधान आदिवासी समुदायों को कुछ विशेष कानूनी प्रावधान प्रदान करता है। लेकिन फिर भी कई समुदाय शिक्षा, स्वास्थ्य देखभाल और भूमि जैसे बुनियादी अधिकारों के लिए संघर्ष कर रहे हैं।
आदिवासी समुदायों का, इन अधिकारों को सुरक्षित करने के लिए आंदोलनों और विरोधों का, एक लंबा इतिहास रहा है, और महिलाओं ने इन संघर्षों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इन महिलाओं को अपने समुदाय के प्रतिरोध जैसी बाधाओं का भी सामना करना पड़ा है। इस फ़ोटो निबंध में हमने उन चार आदिवासी महिलाओं की उम्मीदों और सपनों के बारे में बताने का प्रयास किया है जो अपने-अपने समुदायों की मांगों और आवाज़ को बुलंद करने के लिए अथक प्रयास कर रही हैं।
आमना ख़ातून
आमना ख़ातून उत्तराखंड राज्य की एक खानाबदोश जनजाति वन्न गुज्जर समुदाय से आती हैं। वे अपने समुदाय की लड़कियों एवं महिलाओं की सशक्तिकरण के लिए काम करती हैं। उनका सपना एक ऐसे भविष्य का है जहां लड़कियां और महिलाएं अपने फ़ैसले खुद ले सकें और मर्दों द्वारा तय की गई परिभाषा से अलग हटकर अपना जीवन जी सकें। आमना महिलाओं के दृष्टिकोण से विभिन्न पारंपरिक प्रथाओं का दस्तावेजीकरण कर वन्न गुज्जर समुदाय की संस्कृति के संरक्षण में महिलाओं की महत्वपूर्ण भूमिका पर भी काम कर रही हैं। उनके अनुसार, रीति-रिवाजों और अनुष्ठानों में वन्न गुज्जर महिलाओं की भूमिका का दस्तावेज़ीकरण नहीं हुआ है और न ही इस विषय पर किसी तरह की चर्चा होती है कि सदियों-पुरानी इन रीति-रिवाजों का उन पर कैसा प्रभाव पड़ता है। उदाहरण के लिए, उनके गांव में उनके अपने समुदाय में कुड़ी के बट्टे कुड़ी (लड़की के बदले लड़की) जैसी प्रथा है। इस प्रथा के अनुसार शादी के दौरान दो परिवारों में दुल्हनों की अदला-बदली होती है। अगर एक परिवार ने एक बेटी की शादी दूसरे से कर दी, तो वे भी अपने एक बेटे की शादी दुल्हन के परिवार की लड़की से करेंगे। लेकिन इसने एक ऐसी स्थिति पैदा कर दी जहां दुल्हनों की किस्मत एक-दूसरे पर निर्भर थी। अगर एक दुल्हन के साथ अच्छा व्यवहार किया जाता तो दूसरी दुलहन के ससुराल वाले भी उसके साथ वैसा ही व्यवहार करती, लेकिन अगर बात बिगड़ी तो दोनों लड़कियों को भुगतना पड़ता था। अब यह प्रथा समाप्त हो चुकी है लेकिन साथ ही इनसे जुड़ी कहानियां भी भुला दी गई हैं। आमना ऐसी परंपराओं से उभरती कहानियों को इकट्ठा करने का प्रयास कर रही हैं, जिससे कि प्रभावित महिलाओं को अपने अनुभव के बारे में बात करने का मौका मिल सके। वे चाहती हैं उनके काम का प्रभाव तीन स्तरों पर दिखे। पहला, इससे उन्हें वन्न गुज्जर समुदाय से जुड़ी विभिन्न प्रथाओं को दर्ज करने में मदद मिलेगी। दूसरा, महिलाओं की कहानियां महिलाओं की ज़ुबानी ही सामने आएंगी। और तीसरा, इससे समुदाय को इन प्रथाओं की भेदभावपूर्ण प्रकृति को सामने लाने और उन्हें बदलने या समाप्त करने में मदद मिलेगी।
जुलियाना पेड्रो फर्नांडीज सिद्दी
जुलियाना पेड्रो फर्नांडीज सिद्दी, कर्नाटक के कारवार जिले में, जंगलों से घिरे और शहर से कटे गादगेरा नाम के एक गांव में रहती हैं। उनका संबंध सिद्दी समुदाय से है जिनके वंशज़ अफ्रीका के थे। भारत में, वे कर्नाटक, महाराष्ट्र और गुजरात में बसे हुए हैं। कारवार जिले में जहां जुलियाना रहती है, 30-40 सिद्दी लोग एक बड़े समुदाय के रूप में रहते हैं। वे वही खाते हैं जो जंगल में उपलब्ध होता है या फिर खेती कर उगाते हैं। उनके गांव में ना तो बिजली है और ना ही शहर तक जाने के लिए कोई सड़क। इस समुदाय के लोगों के पास शिक्षा एवं राजनीतिक भागीदारी जैसे मौलिक अधिकार भी न के बराबर ही हैं। जुलियाना का कहना है कि राजनीतिक प्रतिनिधित्व की कमी का कारण लोगों के पास पहचान संबंधी दस्तावेज़ों का ना होना है। वे याद करते हुए बताती हैं कि जब वे 19 साल की थीं तब उनके गांव के सिद्दी लोगों ने उन्हें तालुक़ पंचायत का सदस्य बनने के लिए चुनाव में हिस्सा लेने के लिए प्रोत्साहित किया था। लेकिन समुदाय के ज़्यादातर लोगों के पास पहचान से जुड़े दस्तावेज नहीं थे। नतीजतन उन्हें मतदान नहीं करने दिया गया और वे तीन मतों से हार गईं। जुलियाना का मानना है कि आईडी न होने के कारण भी सिद्दियों को सरकारी योजनाओं के तहत मिलने वाले लाभ और अन्य अधिकारों से वंचित रहना पड़ता है। राजनीतिक भागीदारी की महत्ता को समझते हुए जुलियाना अपने समुदाय की आवाज़ को बुलंद करने के लिए काम कर रही हैं। वे न सिर्फ़ समुदाय के लोगों को पहचान पत्र प्राप्त करने में उनकी मदद कर रही हैं बल्कि उनमें कई लोगों को स्थानीय प्रशासनिक इकाइयों के लिए चुनाव लड़ने के लिए भी प्रोत्साहित करती हैं। वे अपने समुदाय के लोगों को एकजुट करने के लिए पारम्परिक सिद्दी गीतों और नृत्यों का प्रयोग करती हैं। जुलियाना उन गीतों और नृत्यों का उपयोग अपने समुदाय, उनकी कहानियों और बड़े मंचों पर उनकी चुनौतियों पर ध्यान आकर्षित करने के साधन के रूप में भी कर रही है। उनका मानना है कि इससे उनके समुदाय के लोगों को ऐसे मंचों तक पहुंचने में आसानी होगी जहां तक पहुंचना उनके लिए दुर्लभ है और साथ ही इससे उनकी आवाज़ बुलंद होने में भी मदद मिलेगी।
आलिया जान
आलिया जान, कश्मीर के अनंतनाग जिले में भाजपा महिला मोर्चा की जिला अध्यक्ष हैं। वे अपने क्षेत्र और अनुसूचित जनजाति के अंतर्गत आने वाले गुर्जर समुदाय, जिससे वे संबंधित हैं, के समग्र विकास पर काम कर रही हैं। हालांकि उनका प्राथमिक ध्यान शिक्षा, विशेष रूप से लड़कियों के लिए उच्च शिक्षा पर है। इलाक़े में कॉलेज न होने के कारण बच्चों को पढ़ाई के लिए दूर शहर जाना पड़ता है और आमतौर पर लड़कियां पीछे छूट जाती हैं। ऐसा इसलिए भी होता है क्योंकि ज़्यादातर माता-पिता आर्थिक रुप से उतने सशक्त नहीं होते कि अपने बच्चों को आगे पढ़ने के लिए शहर भेज सकें- उनके पास अक्सर ऑटो या बस के किराए, यूनिफ़ॉर्म और किताबों के लिए पैसे नहीं होते हैं। माता-पिता को अपनी लड़कियों को उतनी दूर भेजने में थोड़ा डर भी लगता है। इसके अलावा मौसम एक अलग बाधा है- बर्फ़बारी और कम तापमान से लम्बी यात्रा करना मुश्किल हो जाता है। आलिया की इच्छा है कि वे अपने ज़िले में ही एक कॉलेज बनवा सकें जहां बहुत कम शुल्क पर उनके ज़िले की लड़कियों को उच्च शिक्षा मिल सके। उनका मानना है कि समुदाय में अगली पीढ़ी की महिलाओं की बेहतरी के लिए शिक्षा बहुत ही महत्वपूर्ण है। क्योंकि एक शिक्षित महिला न केवल अपने अधिकारों को लेकर जागरूक होती है बल्कि यह भी सुनिश्चित करती है कि उसकी बेटियां भी सशक्त बनें।
कल्पना चौधरी
कल्पना चौधरी गुजरात के सूरत जिले की महुवा तहसील के कच्छल गांव में समरस ग्राम पंचायत की सरपंच हैं। इस पंचायत की सभी सदस्य महिलाएं हैं। जैसा कि इस तरह की पंचायतों में होता है, उन्हें चुनाव के बदले पंचायत सदस्यों ने निर्विरोध रूप से चुना है। कल्पना अपने गांव में सार्वजनिक विद्यालयों की स्थिति में सुधार लाने और शिक्षा को बेहतर करने के लिए बहुत बड़े पैमाने पर काम कर रही हैं।
इसके अलावा, वे अपने गांव की 30 महिलाओं के साथ मिलकर प्रकृति केटरिंग सर्विस नाम की एक केटरिंग सर्विस भी चलाती हैं। कल्पना का कहना है कि महिलाएं रोज़ खाना पकाती हैं। और वे इस रोज़ किए जाने वाले काम को माध्यम बनाकर महिलाओं को अपने घरों से बाहर निकलने, एक दूसरे से बातचीत करने और पैसे कमाने का अवसर प्रदान करना चाहती थीं। प्रकृति के सदस्य के रूप में, महिलाएं शादियों और जन्मदिन की पार्टियों में खाना बनाती हैं, होम डिलीवरी करती हैं, और कभी-कभी कार्यक्रमों में अपना खुद का स्टॉल भी लगाती हैं। वे मुख्य रूप से पारंपरिक आदिवासी भोजन जैसे कि देखरा (हरी अरहर की पैटीज़), चोखा ना रोटला (चावल की रोटी) और पनेला (केले के पत्तों में कद्दू का पेस्ट लगाकर भाप से पकाई जाने वाली चीज़) पकाती हैं। वे प्रकृति से जो भी पैसा कमाती हैं, उसके दो हिस्से करती हैं – एक हिस्सा सभी महिलाओं में बांट दिया जाता है, बाकी आधा एक आपातकालीन कोष के रूप में अलग रखा जाता है। यदि किसी सदस्य को बहुत कम समय में पैसों की ज़रूरत पड़ती है तो वह इस कोष से पैसे ले सकता है या फिर अपने हिस्से के बदले बहुत कम ब्याज दर पर उधार ले सकता है। कल्पना ने बताया कि कैसे प्रकृति एक ऐसी सुरक्षित जगह बन गया है जहां महिलाएं एकजुट होती हैं और एक दूसरे से सीखती हैं। इससे भी बड़ी बात यह है कि अपने घरों से बाहर निकलकर काम करने और अपने पैसे कमाने से इन महिलाओं में आत्मविश्वास का स्तर बढ़ा है।
इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें।
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