पूर्वी दिल्ली के अंतिम छोर पर एक पहाड़ जैसी कोई आकृति दिखाई पड़ती है। थोड़ा नज़दीक जाने पर साफ़ दिखता है कि यह पहाड़ दरअसल कचरे का वही ढ़ेर है जिसे गाज़ीपुर लैंडफ़िल के नाम से जाना जाता है। कचरे के इसी विशाल ढ़ेर में सैकड़ों लोगों को अनौपचारिक रूप से रोज़गार मिलता है।
मैं पहली बार गाज़ीपुर 2017 में गया था। इतने सालों में मैंने देखा है कि हर दिन शहर के लोगों द्वारा असीमित मात्रा में पैदा किए गए कूड़े को रीसायकल करने के लिए कई तरह के उपाय और विकल्प अपनाए गए हैं। इस बदलाव का संकेत स्थानीय नगर निगम द्वारा लगाई गई बड़ी-बड़ी मशीजिन्होंने जलते हुए कचरे के ढ़ेर की जगह ले ली है। इन मशीनों का इस्तेमाल कचरे के ढ़ेर को अलग करने, रीसायकल करने, उन्हें दोबारा पैक करने और फिर अर्थव्यवस्था में वापस लौटाने के काम में किया जाता है। इसके लिये हर दिन लगभग 20 बैकहो मशीन एक्सकेवेटर और 15 वेस्ट सेपरेटर और सीव (ट्रोमेल) लगातार काम करते रहते हैं। 2017 में जब पहली बार मैं यहां गया था तो इनमें से कोई भी मशीन नहीं थी। कई तरह के ऐसे व्यवसाय हैं जो इस कचरे के विशाल ढ़ेर और उसकी रिसायकलिंग पर निर्भर हैं। इस ढ़ेर में से प्लास्टिक, मेटल, कपड़े, पॉलिथीन, काँच सहित कई ऐसी सामग्रियाँ निकलती हैं जिनका इस्तेमाल सैनिटेरी टाइल, खाद आदि बनाने में किया जाता है।
हर दिन सैकड़ों कचरा बीनने वाले कूड़े के इस पहाड़ में कड़ी मेहनत करके अपना जीवनयापन करते हैं।
ट्रक ने कचरा उड़ेल दिया है और चीलों का झुंड अब अपने बारी का इंतज़ार कर रहा है।
उत्तर प्रदेश के मऊ के रहने वाले दूबे जी यहां के चौकीदार हैं। एक निजी सिक्योरिटी एजेंसी ने उन्हें काम पर रखा है जिसे लैंडफ़िल में मज़दूर मुहैया करवाने का ठेका मिला है। इनकी ज़िम्मेदारी कचरे के इस विशाल ढ़ेर की सबसे ऊँचाई पर खड़े होकर रीसायकल के काम पर निगरानी रखना है।
केबल सिंह लैंडफ़िल पर ट्रक ड्राइवर हैं। यहां काम करते हुए इन्हें लगभग तीस साल हो चुके हैं।
ट्रोमेल कचरे को अलग करने में मदद करता है—यह चलनी की तरह काम करता है और एक विशेष आकर की चीजों को अलग करता है।
मशीनें लगातार चालू रहती हैं जिसके कारण इसमें ख़ास क़िस्म की ख़राबियां आती रहती हैं। यहां नियुक्त मैकेनिक और वेल्डर समय-समय पर इन मशीनों को ठीक करते हैं।
हवा में मौजूद धूल स्वास्थ्य के लिए बहुत हानिकारक होता है। नए लगाए गए स्प्रिंकलर से हवा में पानी का छिड़काव किया जाता है ताकि धूल कम हो जाए।
लैंडफ़िल पर रहने वाले मज़दूर बारी-बारी से एक दूसरे के लिए खाना पकाते हैं।
कई मज़दूर लैंडफ़िल में ही रखे गए कंटेंनर-नुमा घरों में रहते हैं।
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