कर्नाटक में बच्चों की ग्राम सभाएं आयोजित की जाती हैं जिन्हें कन्नड़ में ‘मक्कला ग्राम सभा’ कहा जाता है। ये सभाएं ग्रामीण इलाकों में बच्चों के लिए स्थानीय सरकार यानी ग्राम पंचायत के साथ जुड़ने का एक सक्रिय मंच हैं। साल 2006 में, कर्नाटक के ग्रामीण विकास और पंचायत राज (आरडीपीआर) विभाग ने एक सरकारी आदेश जारी किया। इस आदेश में यह निर्देशित किया गया कि प्रत्येक ग्राम पंचायत को एक ऐसी ग्राम सभा आयोजित करनी होगी जिसमें बच्चे मुख्य सदस्य हों और जो इनसे संबंधित मुद्दों पर केंद्रित हों।
आमतौर पर, एक ‘मक्कला ग्राम सभा’ में पांच से छह गांवों के 150 से 250 बच्चे शामिल होते हैं। छात्रों के अलावा, इस सभा में ग्राम पंचायत के अध्यक्ष और उपाध्यक्ष, पंचायत विकास अधिकारी (पीडीओ), शिक्षा विभाग का क्लस्टर रिसोर्स पर्सन (सीआरपी), आशा और आंगनवाड़ी कार्यकर्ता, शिक्षक, स्वास्थ्य, महिला और बाल विकास एजेंसियों के अधिकारी और स्थानीय पुलिस स्टेशन के प्रतिनिधि शामिल होते हैं।
इन सभाओं में बच्चे खुद के, साथियों के तथा अपने स्कूल व समुदाय से जुड़े मुद्दों को उठाते हैं। उठाए गए सवाल आमतौर पर स्कूल और गांव में बुनियादी ढांचे की जरूरतों या बच्चों की सुरक्षा (जैसे कि उनके स्कूल के पास शराब की दुकानों का होना, या स्कूल परिसर में जुआ और तोड़फोड़ जैसी गतिविधियों) के बारे में होते हैं।
हर साल नवंबर से जनवरी के बीच 6 हजार से ज़्यादा ग्राम पंचायतों के हज़ारों बच्चे मक्कला ग्राम सभाओं में हिस्सा लेते हैं। यह लेख “चिल्ड्रन मूवमेंट फॉर सिविक अवेयरनेस” (सीएमसीए) के अनुभवों और सीखों पर आधारित है। सीएमसीए एक नागरिक समाज संगठन है जो 2011 से कर्नाटक में इन सभाओं को सक्रिय और व्यवस्थित रूप से संचालित करने के लिए एक कार्यक्रम लागू कर रहा है। सीएमसीए का उद्देश्य इन सभाओं को ऊर्जा प्रदान करना और यह तय करना है कि बच्चे असरदार तरीके से अपनी समस्याओं और विचारों को सामने रख सकें।
बच्चों के प्रति संवेदनशील शासन यह सुनिश्चित करने के लिए महत्वपूर्ण है कि बच्चे केवल प्राप्तकर्ता न हों बल्कि उनसे संबंधित मामलों और निर्णयों में सक्रिय भागीदार भी हों। हमने जिन स्कूल के छात्रों के साथ बातचीत की, वे बताते हैं कि ये ग्राम सभाएं उन्हें अपने मसले सामने रखने का मौका देती हैं। चिक्कमंगलूरू की 9वीं कक्षा की छात्रा, रेणुका* कहती हैं, “यह सभा बहुत उपयोगी है। हमारे स्कूल में न तो कंपाउंड है, न ही कंप्यूटर या डिजिटल उपकरण। जब हमने ये जरूरतें बताईं तो सरकारी अधिकारियों ने वादा किया कि हमारे स्कूल को तकनीकी सुविधाएं दी जाएंगी। अगर हमें ऐसे मंच नहीं मिलते तो हम मौजूदा दिक्कतों के बारे में कभी नहीं बोल पाते।”
हमने जिन पंचायत अधिकारियों से बातचीत की, वे भी ग्राम सभाओं को एक सकारात्मक प्रभाव मानते हैं। बच्चों के नजरिए के महत्व को स्वीकार करते हुए, रामनगर ज़िला पंचायत के सीईओ, डिग्विजय बोडके, कहते हैं, “हमें बच्चों के नजरिए से सोचने की ज़रूरत है ताकि उनकी समस्याओं को समझा जा सके। ‘मक्कला ग्राम सभाएं’ हमें यह समझने में मदद करती हैं कि उनके मन में क्या चल रहा है।”
अधिक समावेशी और बच्चों के लिए सुरक्षित मौके प्रदान करने के लिए, ग्राम पंचायत अधिकारी यह सुनिश्चित करते हैं कि स्कूलों और अन्य सार्वजनिक स्थानों, साथ ही ग्राम सभा में, बच्चों के लिए ‘वॉइस बॉक्स‘ लगाए जाएं।
ये बॉक्स बच्चों को उन मुद्दों और चुनौतियों को व्यक्त करने का मौका देते हैं जिनके बारे में वे सीधे सभा में बोलने में संकोच कर सकते हैं या अगर वे सभा में उपस्थित नहीं हो पाते हैं। इस तरह, बच्चे अपनी जरूरतों और समस्याओं को सुरक्षित और सहज तरीके से साझा कर सकते हैं।
‘मक्कला ग्राम सभाओं’ ने हमें दिखाया है कि एक नेक इरादों वाली सरकार, मजबूत नीतियां और तंत्र, राज्य और जिला स्तर के अधिकारियों का उचित ध्यान और प्रेरणा, और एक सक्रिय नागरिक समाज मिलकर समुदाय में महत्वपूर्ण बदलाव ला सकते हैं। उदाहरण के लिए, चिक्काबल्लापुरा और हसन जिलों के सरकारी स्कूलों में, ‘मक्कला ग्राम सभाओं’ की चर्चाओं के परिणामस्वरूप स्कूल भवनों की मरम्मत और अन्य सुधार किए गए हैं। बच्चों ने आय प्रमाण पत्र से संबंधित छात्रवृत्तियों तक पहुंच की दिक्कतों के बारे में बताया है। साथ ही पॉक्सो अधिनियम पर जागरूकता कार्यक्रमों और स्कूल के बच्चों और अन्य लोगों के लिए बाल विवाह के खिलाफ जागरूकता अभियान की मांग की है।
चूंकि बच्चों को ग्राम सभा की बैठक में भाग लेना, सुनना, और पूरी तरह से शामिल होना जरुरी होता है, ‘मक्कला ग्राम सभाएं’ बच्चों को लोकतांत्रिक प्रक्रिया में शामिल करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। हालांकि, बच्चों को बदलाव का एक प्रभावी साधन बनाने के लिए और भी कुछ उपाय हैं।
यह बहुत महत्वपूर्ण है कि ग्राम पंचायत के प्रतिनिधि और जिम्मेदार अधिकारी—जैसे कि पंचायत के अध्यक्ष, अन्य निर्वाचित सदस्य, पंचायत विकास अधिकारी (पीडीओ), शिक्षा विभाग के अधिकारी, आशा कार्यकर्ता और आंगनवाड़ी शिक्षिका, और बाल अधिकार एजेंसियां—इन ग्राम सभाओं में उपस्थित रहें। इनकी उपस्थिति ‘मक्कला ग्राम सभा’ को उत्पादक बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। जब ये अधिकारी मौजूद होते हैं तभी बच्चों और उनकी देखभाल के लिए जिम्मेदार वयस्कों को सही जानकारी दी जा सकती है। इससे चुनौतियों का समाधान खोजने में मदद मिलती है जैसे कि मुद्दे के समाधान की जिम्मेदारी कौन लेगा और उन मुद्दों के लिए धन कहां से आवंटित किया जा सकता है जो सीधे ग्राम पंचायत से जुड़े नहीं हैं।
हमने जिन बच्चों से बातचीत की, उन्होंने भी इस बात को समझा। 9वीं कक्षा की छात्रा अनीता* कहती हैं, “आज की ग्राम सभा में शामिल होने के बाद मुझे खुशी हुई। यहां सरकारी अधिकारियों ने आश्वासन दिया कि हमारी मांगों और चिंताओं को ध्यान में रखा जाएगा। मुझे लगता है कि कुछ विभागों के अधिकारी जो इस कार्यक्रम में शामिल नहीं हुए, उन्हें भी आना चाहिए था ताकि वे हमारी समस्याओं का समाधान कर पाते।”
बेहतर परिणाम पाने के लिए मक्कला ग्राम सभाओं को बाल विकास और भागीदारी के प्रति ज्यादा समग्र दृष्टिकोण अपनाने की जरुरत है। हम देखते हैं कि मक्कला ग्राम सभाओं में बच्चों की ओर से उठाए गए मुद्दे अभी भी ज्यादातर मौलिक अधिकारों जैसे कि स्कूल की मरम्मत और यह सुनिश्चित करना कि स्कूलों में आवश्यक बुनियादी ढांचा हो, से संबंधित हैं।
कर्नाटक जैसे-जैसे बच्चों के प्रति संवेदनशील स्थानीय शासन को आगे बढ़ाने वाली नीतियों की ओर बढ़ रहा है तो ऐसे में बच्चों की भागीदारी और निरंतर निगरानी के तंत्र बहुत महत्वपूर्ण हैं। इसमें बच्चों की बजट और निर्णय लेने में भागीदारी शामिल है। ये उपाय सुनिश्चित करते हैं कि बुनियादी अधिकारों से संबंधित समस्याएं समय पर और लगातार हल की जा सकें। इसके परिणामस्वरूप बच्चों के अनुभव में सुधार होगा और ‘मक्कला ग्राम सभा’ में उनकी भागीदारी ज्यादा सक्रिय होगी। साथ ही, यह बच्चों और स्थानीय सरकार के बीच गहरे और अर्थपूर्ण संवाद की संभावना को बढ़ाएगा। बच्चों के विकास सूचकांकों और उनकी समग्र भलाई पर इसका प्रभाव लंबे समय तक रहेगा।
यह बताना अहम है कि ग्राम पंचायतों में महिलाओं की संख्या 50 प्रतिशत होने से बच्चों के प्रति उत्तरदायिता में सकारात्मक बदलाव आया है। हम देखते हैं कि महिला प्रतिनिधि चुनौतियों को बेहतर ढंग से संभालती हैं और बच्चों की ओर से उठाए गए मुद्दों का जल्दी ही समाधान खोजने की कोशिश करती हैं। संस्थागत तंत्र को और मजबूत करने के लिए जरूरी अतिरिक्त कदम उठाए जा रहे हैं, जैसे राज्य स्तर पर एक नोडल अधिकारी की नियुक्ति ताकि कार्यान्वयन में सुधार हो सके। इसके अलावा बच्चों की ओर से खुद ऑडिट करना जिससे वे सीधे तौर पर सेवाओं की गुणवत्ता और वितरण पर रिपोर्ट कर सकें। विद्यालयों और अन्य स्थानों पर नियमित बैठकें हों ताकि बच्चे जिन समस्याओं का सामना कर रहे हैं, उन पर चर्चा की जा सके।
ग्राम पंचायतों में महिलाओं की संख्या 50 प्रतिशत होने से बच्चों के प्रति उत्तरदायिता में सकारात्मक बदलाव आया है।
इसके अलावा, पंचायत विकास अधिकारियों की तरफ से बच्चों को कार्यवाही की रिपोर्ट समय पर प्रस्तुत करना। साथ ही, मक्कला ग्राम सभा के परिणामों को संबंधित विभाग के ऑनलाइन पोर्टल पर अपडेट करना। इससे बच्चों की भागीदारी और भी प्रभावी हो सकती है। साथ ही इस पूरी प्रक्रिया को मान्यता मिलेगी और बच्चों के विकास सूचकांकों के अलावा सतत विकास लक्ष्यों की पूर्ति में भी मदद मिलेगी।
आरडीपीआर विभाग की ओर से जारी सर्कुलर आज एक विस्तृत और प्रभावी दस्तावेज़ है। इसे सालों से काम कर रहीं समाजसेवी संस्थाओं के जमीनी अनुभवों से मजबूत बनाया गया है जो आरडीपीआर को सुझाव के रूप में मिलते रहे हैं। समाजसेवी संस्थाएं जैसे द कन्सर्न्ड फ़ॉर वर्किंग चिल्ड्रेन (सीडब्ल्यूसी), चिल्ड्रेन्स मूवमेंट फ़ॉर सिविक अवेयरनेस (सीएमसीए), प्रकृति फ़ाउंडेशन, ग्रामांतर, चाइल्ड राइट्स ट्रस्ट (सीआरटी) और नव युवा प्रतिष्ठान सुनिश्चित करते हैं कि मक्कला ग्राम सभाएं चलती रहें।
यहां कुछ कदम दिए गए हैं जो सिविल सोसाइटी संगठनों (सीएसओएस) ने उठाए हैं:
अब दूसरे राज्यों के लिए समय आ गया है कि वे मौजूदा नीतियों और पहलों को ध्यान में रखते हुए अपनी ग्राम पंचायतों में बच्चों की ग्राम सभाओं को लागू करें।
जैसे-जैसे बच्चों के परिप्रेक्ष्य में स्थानीय शासन का उद्देश्य जोर पकड़ रहा है, ऐसे में यह अनूठा मंच एक मील का पत्थर साबित हुआ है। यह एक जांच और समीक्षा बिंदु के रूप में काम कर रहा है। साथ ही, बच्चों के लिए खुशी और आशा के दरवाजे भी खोल रहा है। यह हमारे लोकतंत्र में बच्चों की भागीदारी के महत्व को मान्यता देता है। बचपन में सहभागी लोकतंत्र के ऐसे शक्तिशाली अनुभव न केवल चुनावों और मतदान के दौरान बल्कि जीवन के एक तरीके के रूप में भी सरकार के साथ नागरिकों की भागीदारी को बढ़ावा देंगे।
*गोपनीयता बनाए रखने के लिए नाम बदल दिए गए हैं।
इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें।
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माली बनते हैं या पैदा होते हैं? इस प्रसिद्ध सवाल का जवाब जानने के लिए महाराष्ट्र के सतारा में जाएं और निकमवाड़ी गांव के गुलदाउदी और गेंदे के फूलों के खेतों पर नज़र डालें। जहां तक नजर डालो, वहां तक फूलों के रंग-बिरंगे खेत फैले हुए हैं, जिन पर पीले और नारंगी रंग के कालीन बिछे हुए हैं। लगभग दो दशक पहले, कृष्णा नदी बेसिन के इस गांव के किसान केवल दो नकदी फसलें, गन्ना और हल्दी उगाते थे, जिससे औसत उत्पादक का बस गुजारा भर हो पाता था।
हालांकि ये दोनों अब भी उगाई जाती हैं, लेकिन फूल निकमवाड़ी में खुशी और समृद्धि ला रहे हैं।
इसकी शुरुआत 2005 में हुई। धर्मराज गणपत देवकर, जिनकी आयु अब 60 वर्ष है, के नेतृत्व में मुट्ठी भर किसानों ने एक कृषि अधिकारी की सलाह पर ध्यान दिया और विश्वास की एक कठिन छलांग लगाते हुए पहली क्यारी में गेंदा के पौधे लगाए। यह 170 से ज्यादा घरों वाला गांव आज ‘फुलांचा गांव’ (फूलों का गांव) के नाम से प्रसिद्ध है, जिसमें 200 एकड़ से ज्यादा भूमि पूरी तरह से फूलों की खेती के लिए समर्पित है। दोपहर की धूप में चमकते फूलों की ओर इशारा करते हुए, 37 वर्षीय किसान विशाल निकम कहते हैं – “यहां किसी भी मौसम में आइये, झेन्दु (गेंदा) और बहुरंगी शेवंती (गुलदाउदी) के फूलों से लदे हरे-भरे खेत देखने को मिलेंगे।”
निकमवाड़ी और उसके आस-पास के गांवों में ‘पूर्णिमा व्हाइट’, ‘ऐश्वर्या येलो’ और ‘पूजा पर्पल’ जैसी आठ किस्म की संकर गुलदाउदी उगाई जाती हैं। गुलदाउदी एक सर्दियों की फसल है, जिसका मौसम दिसंबर से मार्च तक, 120 दिनों का होता है। बारहमासी गेंदा वर्ष भर उगता है। इलाके में फैली सैकड़ों नर्सरियों में से एक, ‘ओम एग्रो टेक्नोलॉजी नर्सरी’ के शालिवान साबले कहते हैं – “’पीताम्बर येलो’, ‘बॉल’ और ‘कलकत्ता येलो’ ग्राहकों की पसंदीदा छह किस्मों में से हैं। हम सालाना करीब 20 लाख पौधे बेचते हैं।”
प्रकृति की सुन्दरता अद्भुत है – यह उपहार सोने के बराबर है। लेकिन इस खजाने को निकालने के लिए, किसी भी कृषि पद्धति की तरह, बहुत ज्यादा मेहनत करनी पड़ती है – पौधे लगाना, निराई करना, सिंचाई करना और सुबह से शाम तक फूल तोड़ना। और फिर शाम को बाज़ार के लिए निकलने से पहले पिक-अप ट्रकों में फूल भरना। हालांकि दिन के आखिर में, पैसा ही सुखदायक मरहम बनता है।
प्रति एकड़ लगभग 10 टन की औसत वार्षिक उपज के साथ, निकमवाड़ी के किसान सालाना लगभग 10 लाख रुपये कमाते हैं, जो गन्ने और हल्दी से होने वाली आय से कहीं ज्यादा है। इसमें कोई संदेह नहीं कि कई किसानों ने पानी की अधिक खपत वाली गन्ने की फसल को छोड़ दिया है। किसानों में चीनी मिलों के प्रति अविश्वास गहरा होने के कारण, हाल के वर्षों में गन्ने का रकबा कम हो गया है। उनका कहना है कि चीनी मिल उनकी उपज का वजन करने में धोखाधड़ी करती हैं तथा समय पर भुगतान नहीं करती हैं।
संजय भोंसले (55) ‘पूर्णिमा व्हाइट’ गुलदाउदी के अपने खेत की देखभाल से कुछ समय के लिए छुट्टी लेते हुए कहते हैं – “गन्ना मिलें लोगों को उनके पैसे के लिए 18 महीने से ज़्यादा इंतज़ार करवाती हैं। फूल उगाना फ़ायदेमंद है, क्योंकि हमें हर हफ़्ते भुगतान मिलता है।” निकमवाड़ी के किसान ड्रिप सिंचाई पद्धति का उपयोग करते हैं, जिसके अंतर्गत वे बावड़ियों से पानी प्राप्त करते हैं, जिसका पुनर्भरण कृष्णा नदी से आने वाली नहरों द्वारा होता है। इस तरह के बागवानी नवाचार खेतों को अधिक टिकाऊ, पर्यावरण-अनुकूल और स्वस्थ बना सकते हैं, तथा प्रकृति के साथ मानव के जटिल अंतर्संबंधों की रक्षा कर सकते हैं। आठ एकड़ के मालिक संतोष देवकर कहते हैं – “आजकल केवल मुट्ठी भर परिवार ही बड़े खेत के मालिक हैं, जो गन्ना उगाते हैं।” फूलों के बाज़ार में उतार-चढ़ाव के कारण वे एक एकड़ में गन्ना उगाते हैं।
पुष्प अर्थव्यवस्था में पदानुक्रम चलता है। गुलाब, गुलनार और जरबेरा जैसे फूल अपनी आकर्षक कीमतों के मामले में प्रीमियम स्थान पर हैं, इसके बाद रजनीगंधा और ग्लेडियोलस जैसे बल्बनुमा फूल आते हैं।
गेंदा और गुलदाउदी सबसे निचले पायदान पर हैं। लेकिन निकमवाड़ी में फूलों की भारी मात्रा के कारण इसकी भरपाई हो जाती है। रोज सात पिकअप ट्रकों पर करीब 12 टन फूल, 100 किलोमीटर दूर पुणे के गुलटेकड़ी बाजार भेजे जाते हैं। हालांकि यह गांव मंदिर शहर वाई और जिला मुख्यालय सतारा के करीब है, लेकिन किसान पुणे को प्राथमिकता देते हैं, जहां मांग ज्यादा है। गणेश उत्सव से लेकर दिवाली और गुड़ी पड़वा तक त्योहारों के सीजन में मांग चरम पर होती है।
कृषि अधिकारी विजय वारले का कहना था कि निकमवाड़ी के किसान गुलदाउदी से प्रति एकड़ लगभग 2.5 लाख रुपये कमाते हैं, जबकि गेंदा से प्रति एकड़ लगभग 2 लाख रुपये की कमाई होती है। महाराष्ट्र में फूल एक फलता-फूलता व्यवसाय है, जहां 13,440 हेक्टेयर भूमि पर फूलों की खेती होती है। यह 1990 के दशक में फूलों की खेती की नीति बनाने वाला पहला राज्य भी है।
पड़ोसी गांवों ने भी फूलों की खेती शुरू कर दी है, लेकिन जो बात निकमवाड़ी को अलग करती है, वह यह है कि यहां हर घर में फूल उगाए जाते हैं, चाहे किसी के पास दो-चार गुंठा (1000 वर्गफीट) हो, या कई एकड़।
यह उनकी सहभागिता की भावना और सामूहिक दृष्टिकोण ही है, जो निकमवाड़ी को एक आदर्श गांव बनाता है। वे एकल फसल उत्पादन के नुकसान से भी अवगत हैं। छोटे-छोटे क्षेत्रों में गन्ना और हल्दी जैसी नियमित फसलें उगाने के अलावा, बहुत से किसान फूलों के खेतों में अजवायन भी उगाते हैं, एक ऐसी जड़ी-बूटी जिसकी विदेशों और भारतीय महानगरों में बहुत मांग है। संजय भोंसले, जिनका पांच एकड़ का खेत बहु-फसल का एक उदाहरण है, कहते हैं – “हम रसोई के लिए धनिया और बेचने के लिए अजवायन की खेती करते हैं। हम 1.5 लाख रुपये खर्च करते हैं और उपज से आय 3.5 लाख रुपये होती है।”
यह लेख मूलरूप से विलेज स्क्वायर पर प्रकाशित हुआ था।
हीरेन कुमार बोस महाराष्ट्र के ठाणे स्थित पत्रकार हैं। वे सप्ताहांत में किसानी भी करते हैं।
कमोबेश हर जमीनी संस्था अपने सामाजिक प्रभाव को व्यापक बनाने की आकांक्षा रखती है ताकि उनकी सेवाएं और प्रयास, अधिक से अधिक लोगों तक पहुंच सकें। विस्तार की इस प्रक्रिया से न केवल वे अपने दायरे को बढ़ा सकते हैं बल्कि इससे उनकी सामाजिक पहचान भी मजबूत होती है।
हालांकि यह यात्रा उतनी सरल नहीं होती जितनी दिखती है। नवाचार संस्थान, चित्तौड़गढ़ और कोटड़ा आदिवासी संस्थान, उदयपुर जैसी जमीनी संस्थाओं के साथ बातचीत से पता चलता है कि इसमें कई तरह की बाधाएं है।
बढ़ती ज़िम्मेदारियों और बढ़ने काम के बोझ के साथ संस्थाओं के सामने कई तरह की चुनौतियां आती हैं। इसमें प्रभावी प्रबंधन, वित्त, प्राथमिकताएं, नए अवसरों की पहचान, रणनीतिक दृष्टिकोण प्रमुख रूप से शामिल हैं।
जमीनी संस्थाओं के लिए स्थायी और नियमित वित्तीय स्रोत जुटाना हमेशा एक कठिन काम रहा है। नवाचार संस्था के अरुण कहते हैं, “हमारे पास ज्यादातर फंड अन्य संस्थाओं से होकर आते हैं। ऐसे में पहले से ही निर्धारित होता है कि इस धनराशि का उपयोग केवल सामुदायिक गतिविधियों के लिए ही किया जा सकता है। ऐसे में संस्था को बढ़ाने, कार्यकर्ताओं के क्षमता-विकास और अन्य जरूरी पहलुओं के लिए फंड की समस्या बनी रहती है।”
कुछ एनजीओ अपनी कार्यक्षमता और विकास की वित्तीय आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए स्थानीय संसाधनों की खोज करने की बजाय अंतरराष्ट्रीय दानदाताओं का इंतजार करते हैं। वे मानते हैं कि अंतरराष्ट्रीय दानदाता इन आवश्यकताओं को कुछ हद तक समझते हैं। एफसीआरए के मुद्दों के बाद ऐसा करना और अधिक चुनौतीपूर्ण हो गया है।
कोटड़ा आदिवासी संस्थान के निदेशक सरफ़राज का मानना है कि “संस्था का छोटा होना कोई बुरी बात नहीं है। अन्ना हजारे ने रालेगण सिद्धि जैसे छोटे से गांव में काम किया लेकिन आज वह पूरे भारत के लिए एक मॉडल ग्राम बन चुका है। ऐसे और भी मॉडल ग्राम बनने चाहिए।”
आज कई समाजसेवी संस्थाओं में दीर्घकालिक दृष्टिकोण और स्पष्ट मिशन की कमी दिखती है जो उनके विकास और विस्तार में बाधा बनती है। समाज में स्थायी प्रभाव लाना एक लंबी प्रक्रिया है। हालांकि अक्सर संस्थाएं इस लंबी प्रक्रिया के कारण बदलती सामाजिक चुनौतियों पर तो समुदाय के साथ जुड़कर काम करने के नवाचारों को प्राथमिकता देती हैं। लेकिन इसमें खुद को आगे बढ़ाने के लिए बनाई गई भविष्य की योजनाएं पीछे छूट जाती हैं।
कई एनजीओ बदलती चुनौतियों के अनुरूप खुद को ढालने में असफल रहते हैं, जिससे उनकी कार्यक्षमता प्रभावित होती है। जमीनी संस्थाएं अभी भी अपने कार्यकर्ताओं की क्षमताओं का विश्लेषण करने, उन्हें उपयुक्त कार्य-क्षेत्रों में लगाने और उनकी चुनौतियों को समझने पर कम ध्यान देती हैं। बिना उचित कौशल और क्षमताओं के कार्यों का बंटवारा करने से अपेक्षित परिणाम नहीं मिल पाते हैं।
अरुण इस बात पर जोर देते हैं कि “जमीनी संस्थाएं समाज के बीच रहते हुए भी भूमिकाओं में बदलाव (शिफ्ट ऑफ रोल) को समझने की कोशिश नहीं करती हैं। वे अब भी अपने पुराने मिशन पर काम कर रही हैं और कॉम्फर्ट ज़ोन से बाहर निकलने को तैयार नहीं हैं।”
उपलब्ध मानव संसाधनों का सही तरीके से उपयोग करने की नीति का अभाव संस्थान के विकास में बड़ी बाधा बनता है। इस स्थिति में, संस्थाओं का विस्तार करने का विचार अक्सर इस डर से रुक जाता है कि इससे समस्याएं और भी जटिल हो सकती हैं।
तेजी से बढ़ती तकनीक ने जमीनी संस्थानों की आवश्यकताओं को भी बदल दिया है। अरुण कहते हैं, “आजकल हर संस्था के पास वेबसाइट होना अनिवार्य हो गया है और समुदाय से जुड़ाव के लिए सोशल मीडिया भी ज़रूरी हो गया है।” वे आगे जोड़ते हैं कि “लेकिन तकनीकी रूप से सक्षम प्रोफेशनल्स कम वेतन पर और छोटे इलाकों में लंबे समय तक काम करने के इच्छुक नहीं होते। इसके अलावा, अब इस सेक्टर में भी लोग प्रोफेशनल हो गए हैं। वे अपने संस्थान से अधिक अपने रिज़्यूमे को मजबूत बनाने को प्राथमिकता देते हैं। हालांकि प्रोफेशनल होने में कोई बुराई नहीं है लेकिन इस सेक्टर में बदलाव लाने के लिए समय देना पड़ता है। उन्हें हमारी जैसी जमीनी संस्थाओं में रोके रखना वास्तव में एक गंभीर चुनौती है।”
यह भी देखा गया है कि प्रबंधन, फंडिंग प्रपोजल, डेटा विश्लेषण, प्रोजेक्ट रिपोर्ट आदि में तकनीक का योगदान पिछले कुछ वर्षों में बहुत तेजी से बढ़ा है। ऐसे में, कम तकनीकी कौशल वाली संस्थाएं अपने लक्ष्यों को बड़े स्तर पर ले जाने में विफल हो जाती हैं।
संस्थाओं को अपने कार्य को बढ़ाने के लिए बेहतर रणनीतिक योजना, निगरानी, और मूल्यांकन जैसे तरीकों की आवश्यकता होती है। इसके लिए कर्मचारियों की क्षमता को लगातार बढ़ाना ज़रूरी है। सरफ़राज़ कहते हैं, “ऐसा नहीं है कि संस्थाएं क्षमता-वर्धन पर काम नहीं करती हैं लेकिन इसके तरीके काफी पुराने हैं। हम अभी भी पुराने कंटेंट पर काम कर उसे अधिक प्रभावी बनाने पर ध्यान नहीं दे रहे हैं।” कई संस्थाएं क्षमता निर्माण में निवेश करने से इसलिए भी हिचकिचाती हैं क्योंकि उनके पास इसके लिए आवश्यक वित्तीय संसाधन नहीं होते हैं।
जटिल सरकारी नीतियां और अनुपालन आवश्यकताएं भी बाधा बनती हैं। कई बार समाजसेवी संस्थाओं पर कठोर सरकारी नियम और प्रतिबंध होते हैं जिससे उनके लिए अपने काम को बढ़ाना मुश्किल हो जाता है। सरफ़राज बताते हैं कि “हमारे पास दो अकाउंटेंट हैं। उनमें से एक तो सारा दिन बस सरकारी नियमों के 12ए, 80जी जैसे कागजों को पूरा करने में ही लगे रहते है। कागजों की जटिलता के चलते कई संस्थाएं एफसीआरए होते हुए भी बाहरी धन नहीं ले पाती हैं।”
अरुण इसमें जोड़ते हैं “जब कॉर्पोरेट सोशल रिस्पॉन्सिबिलिटी (सीएसआर) की शुरुआत हुई तो एक उम्मीद जगी थी कि वित्तीय स्थिति बेहतर होगी। लेकिन बाद में कॉर्पोरेट्स ने अपनी पसंद के विषयों पर फाउंडेशन चलाने शुरू कर दिए। इससे स्थानीय मुद्दों पर काम करने वाली संस्थाओं के लिए वित्तीय मुश्किलें और बढ़ गईं। सरकार को इस पर भी गहराई से विचार और विश्लेषण करना चाहिए।”
भले ही जमीनी संस्थानों के पास अपनी कई चुनौतियां हैं लेकिन इनकी बेहतर समझ समाधान अथवा विकल्प तलाशने में भी मदद करती है। संस्थाएं चाहे तो अपने रास्ते खोज सकती है जिसमें ये विकल्प आपकी मदद कर सकते हैं –
संस्थाओं को आगे बढ़ने के लिए वित्तीय विविधता को बढ़ावा देते हुए धन जुटाना आवश्यक है। इसमें वे व्यक्तिगत दान, कॉर्पोरेट साझेदारी और सरकारी अनुदान जैसे कई तरह के आर्थिक सहयोग को शामिल कर सकती हैं।
इसके साथ स्थायी फंडिंग की एक रणनीति विकसित करनी चाहिए और संभावित दानदाताओं के साथ संबंध बनाना चाहिए। सरफ़राज कहते हैं कि “आजकल धन देने वाले लोगों को डेटा पॉइंट, सटीक विषय बिंदु, मुद्दों पर स्पष्ट विश्लेषण चाहिए। इसके लिए हमें खुद को भी इस तरीके से तैयार रखना चाहिए।” अरुण जोड़ते हैं, “राजस्थान में कई संस्थाओं के विषयवार व्हाट्सप्प ग्रुप बने हुए हैं। जैसे – एसआर अभियान, बाल सरंक्षण अभियान यहां लोग अवसरों को साझा करते रहते है। इसके अलावा, एक सुनियोजित धन के रूप में समुदाय के साथ मिलकर भी आय के स्त्रोत तलाशे जा सकते हैं।”
सरफ़राज़ कहते हैं कि “अगर आपको अपने काम को बढ़ाना है तो ‘एकला चलो रे’ वाली अवधारणा को छोड़ना होगा। आपको अपनी लीडरशिप में युवाओं और मध्यम अनुभवी लोगों को मौका देना चाहिए और उन पर भरोसा करके आगे बढ़ना चाहिए।” इस पर आई-पार्टनर संस्था में लीडरशिप भूमिका में कार्यरत निशा कहती हैं, “संस्थाओं का किसी एक कुशल नेतृत्व से आगे बढ़ पाना मुश्किल है, इसके लिए और लोग चाहिए होंगे। हमारी संस्था ने अगली पीढ़ी की लीडरशिप को हाल ही में तैयार किया है। हालांकि यह थोड़ी लंबी प्रक्रिया है, इसके लिए कई प्रशिक्षण कार्यक्रमों का आयोजन करना होगा। साथ ही, इस प्रक्रिया में बहुत भरोसे और सहनशीलता की आवश्यकता है।”
नेतृत्व विकसित करने के लिए आजकल को-लीड का भी प्रचलन है। संस्था प्रमुख अपने साथ एक साथी को जिम्मेदारियां सौंपते हुए सिखाने का तरीका भी अपना सकते हैं। अरुण इसमें जोड़ते हैं कि “नेतृत्व विकास की आवश्यकता हर स्तर पर है। जमीनी कार्यकर्ताओं को भी संस्थान में अपनी तरक्की का अनुभव होना चाहिए। संस्थाओं को उनके लिए ऊपरी स्तर तक पहुंचने के रास्ते स्पष्ट करने चाहिए। इसके अलावा, अन्य समाजसेवी संस्थाओं, विश्वविद्यालयों, और प्रशिक्षण संस्थानों के साथ सहयोग करके भी इस कमी को पूरा किया जा सकता है।”
जमीनी संस्थाओं को यह समझना होगा कि अपने कार्य को बढ़ाने के लिए बेहतर संचार प्राथमिक कड़ी है। इसके लिए आधुनिक तकनीक का उपयोग शुरू करना चाहिए। अब सोशल मीडिया और अन्य नेटवर्कों का उपयोग केवल समुदाय तक आपके कार्य को पहुंचाने या जागरूक करने तक सीमित नहीं रह गया है। ये दानदाताओं को आकर्षित करने, सोशल सेक्टर से जुड़े ग्रुप, चैनल, और अन्य संस्थाओं से नेटवर्किंग करने, आपकी तात्कालिक विषयों और आवश्यक अवसरों के बारे में जागरूक रखने का अवसर प्रदान करते हैं।
हालांकि अरुण कहते हैं, “वित्तीय जरूरतों के चलते अभी संस्थाओं के लिए वेबसाइट, ऐप जैसे माध्यमों पर आना आसान नहीं होगा। लेकिन सोशल मीडिया माध्यमों पर निरंतर अपडेट रहने से शुरुआत की जा सकती है।”
एनजीओ को सरकारी नीतियों और कानूनी ढांचे की अच्छी समझ होनी चाहिए ताकि वे इन नियमों का पालन कर सकें और अपने कार्यों को बिना किसी बाधा के पूरा कर सकें। इसके लिए वे पेशेवरों या नेटवर्क से मदद ले सकते हैं, जो उन्हें इन नीतियों की समझ में मदद करेंगे। सरफ़राज़ दोहराते हैं कि “इस सेक्टर में अच्छी बात यह है कि यहां हर विषय पर संस्थाएं काम करती हैं। बस आपको अपनी नेटवर्किंग बनानी है। कानूनी ढांचे पर भी काम करने वाले बहुत लोग हैं। जिस तरह आप लोगों की मदद कर रहे हैं, वे भी आपकी मदद के लिए तैयार हैं। आपको बस उनसे जुड़ने की जरूरत है।”
कुल मिलाकर, जमीनी संस्थाओं को विस्तार करने में चुनौतियों को नकारा नहीं जा सकता है। लेकिन इसके लिए रणनीतिक और खुला दृष्टिकोण, लगातार सीखना, सहयोग करना, नेतृत्व विकसित करना और अपने समुदायों के साथ मजबूत संबंध बनाना आदि उनके आगे बढ़ने में सफलता की सीढ़ी बन सकते हैं।
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साल 2020 में, मैंने बिहार के किशनगंज जिले में सीमांचल लाइब्रेरी फाउंडेशन के ज़रिए लाइब्रेरी पहल की शुरुआत की थी। 25 लाख की आबादी वाले इस ज़िले में 65% पसमांदा मुसलमान रहते हैं। हमारे जिले के लोग देश के अलग-अलग शहरों में प्रवासी मजदूर के तौर पर काम करते हैं। यहां पुस्तकालय शुरू करने की प्रेरणा मुझे अपने साथ हुई कुछ दिलचस्प घटनाओं से मिली।
फ़र्ज़ कीजिए, आप अपने शहर में एक साहित्यिक किताब ढूंढ़ने निकलें और किताब के नाम पर केवल ‘जीजा साली की शायरी’ वाली किताब मिले तो आपको कितनी निराशा होगी? हमारी लाइब्रेरी पहल की पहली प्रेरणा यही निराशा थी। हमारे इलाके की दुकानों में न तो किताबें थी और न ही शहर में कोई पुस्तकालय कि जहां बैठकर पढ़ा जा सके।
साल 2020 में लगे लॉकडाउन के दौरान मैंने नौकरी छोड़ लाइब्रेरी पहल के विचार पर काम करना शुरू किया। लेकिन हमारी सबसे बड़ी परेशानी यह थी कि न तो हमारे पास कोई संसाधन थे और न ही कोई जगह। ऐसे में एक स्कूल ने हमें मिट्टी का एक कच्चा कमरा लाइब्रेरी शुरू करने के लिए दिया। इस तरह 26 जनवरी 2021 को ‘फातिमा शेख लाइब्रेरी’ के साथ हमारी लाइब्रेरी पहल की शुरुआत हुई जो 19वीं सदी की समाज-सुधारक और शिक्षाविद फातिमा शेख के नाम पर है। पहले दिन से ही हमें बच्चों और युवाओं में पुस्तकालय के प्रति आकर्षण दिखने लगा। लेकिन जल्द ही हमें अपनी सीमाओं का अंदाज़ा होने लगा। मिट्टी के कच्चे कमरे चल रही फातिमा शेख लाइब्रेरी आठ महीने के अंदर ढ़हने की कगार पर आ गई। हमारे काम से प्रभावित कुछ साथियों ने चंदा जमा किया और एक पक्के कमरे की व्यवस्था की। इसी तरह की फंडिंग की मदद से हमने किशनगंज की बेलवा पंचायत में अपने दूसरे पुस्तकालय ‘सावित्री बाई फुले लाइब्रेरी’ की शुरुआत की। इनके साथ, सीमांचल लाइब्रेरी फ़ाउंडेशन वंचित समुदाय के बच्चों के लिए एक स्कूल भी चला रहा है।
स्थानीयता हमारे लिए एक चुनौती और मौका दोनों रही है। उदाहरण के लिए, एक बार भगत सिंह की किताब ‘मैं नास्तिक क्यों हूं’ से स्थानीय समुदाय के कुछ लोग आहत हो गए थे। लेकिन मैं खुद स्थानीय सुरजापूरी समुदाय से आता हूं। इस वजह से आहत हुए लोग चाह कर भी कुछ नही कर पाए। इस तरह मुझे स्थानीय होने का फायदा मिल गया। लेकिन कई बार यह काम में रुकावट भी बना है। जैसे जब हमने लाइब्रेरी आंदोलन की शुरूआत की तो स्थानीय बुद्धिजीवी और लोकल मीडिया ने ध्यान ही नहीं दिया। हम किताबों के ज़रिये समानता और समता की बातें करते तो लोग हमें आवारा, बेकार और किताब-बेचा बोलते थे। स्थानीय होने की वजह से लोग हमें और हमारे काम को कमतर आंकते थे।
एक पुस्तकालय कार्यकर्ता के तौर पर जब भी मैं ग्रामीण पुस्तकालय के बारे में सोचता हूं तो वेणु गोपाल की यह कविता याद आती है – “न हो कुछ भी, सिर्फ सपना हो, तो भी हो सकती है शुरुआत, और वह एक शुरुआत ही तो है, कि वहां एक सपना है।” पुस्तकालय आन्दोलन कोई फिजिक्स का नियम नहीं है जो पूरी दुनिया में एक ही तरह से लागू हो। अंतर्राष्ट्रीय संस्था इंटरनेशनल फेडरेशन ऑफ़ लाइब्रेरी एसोसिएशन (आईएफएलए) पुस्तकालय के लिए खास मापदंडों का पालन करती है। आईएफएलए के अनुसार एक सार्वजनिक पुस्तकालय में कम से कम 10 हज़ार किताबें होने चाहिए। पुस्तकालय में पर्याप्त और आरामदायक बैठने की व्यवस्था, अध्ययन कक्ष, कंप्यूटर लैब, और अन्य आवश्यक सुविधाएं होनी चाहिए।
दिल्ली स्थित द कम्युनिटी लाइब्रेरी प्रोजेक्ट जैसी बड़ी संस्था आईएफएलए के मापदंडों का बहुत हद तक अनुसरण करती है। बड़े शहरों के लिए ये मापदंड सार्थक हो सकते हैं लेकिन ग्रामीण पुस्तकालयों को इन पर मापना ठीक नही है।
पुस्तकालय मुफ्त ही नहीं बल्कि जाति, लिंग, धर्म, वर्ग की सीमाओं से भी आजाद होने चाहिए।
हमारी लाइब्रेरी पहल की शुरुआत एक बुकशेल्फ और कच्चे कमरे से हुई थी। उसी तरह हिंदी पट्टी में मौजूद बहुत सारे मुफ्त ग्रामीण पुस्तकालयों की शुरुआत इसी तरह से हुई है। इनके पास न तो इन्फ्रास्ट्रक्चर और न ही आधारभूत संसाधन मौजूद हैं। लेकिन इसके बावजूद ये अनूठे तरीकों से लोगों तक किताबें पहुंचाने का काम कर रहे हैं। इलाहाबाद शहर से 45 किलोमीटर दूर एक गांव में सावित्री बाई फुले पुस्तकालय एंड फ्री-कोचिंग के संचालक अमित गौतम कहते हैं कि “मैंने 2019 में प्राकृतिक वातावरण जैसे तालाब, पेड़ के नीचे बच्चों से बातें करना शुरू किया था। शुरू- शुरू में काफी दिक्कतें आई। लगभग एक साल तक खुली जगह में ही मैं बच्चों को पढ़ाता रहा। एक साल बाद बहुत मुश्किलों से हम एक पक्के कमरे का इंतजाम कर सके जहां आज हमारा पुस्तकालय चल रहा है।”
स्नेहजोड़ी संस्था, जो गुवाहाटी के एक मुहल्ले में पुस्तकालय चला रहा है, की संचालिका रेशमा कहती हैं कि “हमारे पुस्तकालय की शुरुआत रेलवे प्लेटफार्म पर मौजूद बच्चों और स्टेशन के नज़दीक बसी झुग्गियों से हुई थी। लगभग एक साल बाद अपने साथियों की मदद से हमने अपने घर की छत पर एक कच्चा कमरानुमा ढांचा खड़ा किया जहां हमारा पुस्तकालय चल रहा है।”
उत्तराखंड में भी कुछ लोग और संस्थाएं ग्रामीण पुस्तकालय को लेकर नये प्रयोग कर रहे हैं। चीन-नेपाल से सटे पिथौरागढ़ जिले में आरंभ स्टडी सर्कल लगातार कुछ नया करने की कोशिश कर रहा है। इसके सदस्य महेंद्र कहते हैं, “शुरुआत में पुस्तकालय के लिए कोई जगह न होने के चलते हमने किताबों को घर-घर पहुंचाने का विकल्प चुना। हमने एक लिस्ट बनाई जिसे सार्वजनिक जगहों पर टांग दिया। जिसे भी किताबों की जरूरत होती वह ख़ुद हमसे संपर्क करता था और हम वह किताबें उसके घर पहुंचा देते थे। 2019 में जाकर हमने पुस्तकालय के लिए एक छोटी सी जगह ली। लेकिन लोग यहां बैठकर पढ़ नहीं पाते हैं। फ़िलहाल हमारे पास और संसाधन भी नही हैं इसलिए किताबों को घर-घर पहुंचाना ही हमारे पुस्तकालय का मॉडल है।”
उत्तरखंड के ही अल्मोड़ा जिले में एक घुमंतू पुस्तकालय चल रहा है जिसका नाम ग्वाला कक्षा है। ग्वाला कक्षाओं के संचालक भास्कर जोशी बताते हैं, “जब बच्चे मवेशियों को चराने बीहड़ों में जाते हैं तो उनके पास बहुत खाली वक़्त होता। ग्वाला कक्षाएं बनाकर हमने एक मॉडल विकसित किया है जिसमें बच्चे खाली वक़्त में पढ़ पाते हैं।” राजस्थान में स्थित स्कूल फॉर डेमोक्रेसी का पुस्तकालय मॉडल भी ऐसा ही है। जहां बच्चे सामुदायिक भवन, पेड़ के नीचे, गांव के चबूतरे में पुस्तकालय चला रहे हैं। कवि और पुस्तकालय कार्यकर्ता महेश पुनेठा कहते हैं कि “ग्रामीण पुस्तकालय इन्फ्रास्ट्रक्चर के सहारे नहीं बल्कि उद्देश्य के आधार पर चल रहे हैं। पुस्तकालय का उद्देश्य बड़ा होना चाहिए। इन्फ्रास्ट्रक्चर इतना अहम नहीं है। हमारा उद्देश्य बच्चों में पढ़ने की आदतें विकसित करना, उन्हें साहित्य से जोड़ना और एक जगह लाकर उनसे संवाद करना है।”
स्नेहजोड़ी संस्था की संचालिका रेशमा कहती हैं, “शुरू-शुरू में हमारी लाइब्रेरी में सभी तबके के बच्चे आते थे। लेकिन कुछ वक़्त बाद ऊंची जातियों और अंग्रेजी माध्यम के बच्चों ने लाइब्रेरी आना छोड़ दिया। बच्चों के लाइब्रेरी न आने का तो मैं सही-सही कारण नहीं बता सकती हूं। लेकिन जो मैंने गौर किया है, उस आधार पर कह सकती हूं कि इन बच्चों का पारिवारिक माहौल ऐसा है कि वे ओबीसी, दलित और अल्पसंख्यक समुदाय के बच्चों के साथ नही बैठना चाह रहे हैं।” भेदभाव, छुआछूत और ऊंच-नीच की इस खाई को कम करने के लिए सीमांचल लाइब्रेरी फाउंडेशन ने ‘साथ में खाना’ नामक एक पहल की भी शुरुआत की है। बच्चे अपने घरों से खाना लाते हैं और एक जगह इकट्ठे होकर मिल-बांटकर खाते हैं। इस पहल को लेकर कमाल की प्रतिक्रियायें आ रही हैं। खाने के बहाने बच्चे अपने अधिकारों को जान रहे हैं और जाति, धर्म, लिंग और सभी तरह के भेदभाव पर खुल कर बातें कर रहे हैं।
इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए सरकार को ग्रामीण पुस्तकालय के लिए एक अलग मापदंड बनाना चाहिए। लेकिन सरकार की प्राथमिकताओं में ग्रामीण पुस्तकालय आता ही नहीं है। सरकार, मीडिया और बड़े गैर-सरकारी संस्थाओं की नज़र शहरों के परिधि से बाहर निकल ही नहीं पाती है। इसलिए ये लोग ग्रामीण पुस्तकालय से जुड़े पाठकों की अनदेखी कर रहे हैं। दरअसल ग्रामीण पुस्तकालय तय मापदंड चुनौती दे रहे हैं और अपने लिए खुद मापदंड बना रहे हैं। जब हम इस देश के पाठकों की गणना करते हैं तो अक्सर ग्रामीण क्षेत्र के पाठकों को, खासकर बच्चों को नज़रअंदाज़ कर देते हैं। ऐसा क्यों माना जाता है कि पुस्तकालय केवल बड़े शहरों में होने चाहिए। पुस्तकालय की चौखट को पार करने के लिए मोटी फीस की ज़रूरत क्यों पड़ती है? पुस्तकालय मुफ्त ही नहीं बल्कि जाति, लिंग, धर्म, वर्ग की सीमाओं से भी आजाद होने चाहिए।
“ये किताबें तो किसी दूसरी दुनिया की लगती हैं” पुस्तक प्रदर्शनी के दौरान सात वर्षीय औरंगजेब ने मुझे जब यह बात कही तो मुझे एहसास हुआ कि किताबें ग्रामीण बच्चों से हमेशा ही दूर रही हैं। अब जब बच्चे इन किताबों को देख रहे है तो उन्हें यह दूसरी दुनिया की लगती हैं।
आरंभा स्टडी सर्किल के सदस्य महेंद्र कहते हैं, “महिलाएं सामाजिक उदासीनता का शिकार रोज ही बन रही हैं लेकिन किताबें इनके संघर्ष को शब्द देती है। निवेदिता मेनन की किताब सीइंग लाइक अ फेमिनिस्ट के जरिए जब हम परिवार और महिलाओं से जुड़े प्रश्नों को कैसे समझा जाए पर चर्चा करते हैं तो लड़कियों में बदलाव साफ़ नज़र आती है।
हिंदी पट्टी में चल रहे अलग-अलग मुफ्त ग्रामीण पुस्तकालय बिना किसी तय मापदंड के नई परिभाषाएं गढ़ रहे हैं।
“भैया जिस तरह आप लोग हमें बराबर मानकर मोहब्बत से बातें करते हैं। हमारी हर एक बात को सुनते हैं। दुनिया हमारे साथ ऐसा क्यों नही करती है?” ये बातें जब सावित्री बाई फुले लाइब्रेरी में आने वाली 13 साल की फ़रीना बोलती है। या फिर जब फातिमा शेख़ लाइब्रेरी की 14 वर्षीय आयशा कहती है कि “पुरुषों को यह अधिकार किसने दिया कि वह हमारे घर आकर चाय पियें , हमें देखे और कोई कमी निकालकर रिजेक्ट कर दें।” तो इस में नारीवादी नजरिया छुपा हुआ है। हमारी तीनों लाइब्रेरी में आने वालों में 70% से ज्यादा लड़कियां हैं। पुस्तकालय लड़कियों के लिए एक सुरक्षित जगह है जहां वे खुद अपने अंदर झांक पाती हैं। दरअसल पुस्तकालय एक नॉन-जजमेंटल जगह है जहां बच्चे अपने खास व्यक्तित्व के साथ आते हैं। पुस्तकालय बच्चों में ताकतवर होने का भाव जगाता है।
पुस्तकालय का पाठ्यक्रम स्कूली पाठ्यक्रम की तरह बोझिल नहीं है। यहां बच्चे शब्दों को सिर्फ सुनते ही नहीं बल्कि उसे देखते भी हैं और उसके साथ खेलते भी हैं। यहां होने वाली कहानियां और गतिविधियां बच्चों को सिर्फ साक्षर ही नहीं बल्कि बेहतर इन्सान भी बनाने में मदद करती हैं।
किशनगंज के पोठिया में चल रहे फातिमा शेख़ लाइब्रेरी की 15 वर्षीय दलित लड़की भूमिका देवी (बदला हुआ नाम) डॉक्टर भीमराव अम्बेडकर की किताब ‘अछूत कौन थे’ पढ़ने के बाद कहती है, “भैया हमारे साथ इतना भेदभाव हो रहा है, मुझे तो पता ही नहीं था। ये सब तो मैं बचपन से देख रही हूं। अब जाकर मुझे पता चला कि है कि हमारे साथ भेदभाव हो रहा है।” एक लाइब्रेरी कार्यकर्ता के तौर पर अपनी लाइब्रेरी की किसी बच्ची से ये बात सुनना बहुत ही भावुकता भरा पल था। हमारा समाज धर्म, जाति, लिंग, वर्ग के आधार पर बंटा हुआ है। किताबें इसी खाई को लगातार भरने की कोशिश कर रही हैं।
हिंदी पट्टी में चल रहे अलग-अलग मुफ्त ग्रामीण पुस्तकालय बिना किसी तय मापदंड के नई परिभाषाएं गढ़ रहे हैं। आज भी शिक्षा पर कुछ खास लोगों का ही वर्चस्व है। मुफ्त ग्रामीण पुस्तकालय इस वर्चस्व को चुनौती दे रहा है।
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विकास सेक्टर में तमाम प्रक्रियाओं और घटनाओं को बताने के लिए एक ख़ास तरह की शब्दावली का इस्तेमाल किया जाता है। आपने ऐसे कुछ शब्दों और उनके इस्तेमाल को लेकर असमंजस का सामना भी किया होगा। इसी असमंजस को दूर करने के लिए हम एक ऑडियो सीरीज़ ‘सरल–कोश’ लेकर आए हैं जिसमें आपके इस्तेमाल में आने वाले कुछ महत्वपूर्ण शब्दों पर बात करने वाले हैं।
विकास सेक्टर में किसी भी संस्था के लिए उसका विज़न और मिशन कथन बहुत मायने रखता है। अक्सर यह आपको संस्था की वेबसाइट पर स्पष्ट रूप से लिखा दिखाई देता है।
आपकी संस्था का विज़न, उसके आने वाले लक्ष्यों और उन आकांक्षाओं पर बात करता है जिससे पता चलता है कि संस्था भविष्य में अपने काम से किस तरह का प्रभाव डालना चाहती है। वहीं, दूसरी ओर संस्था का मिशन, उसके मूल्यों और उद्देश्यों को दर्शाता है। यह बताता है कि कोई संस्था क्या करती है, किन लोगों के लिए काम करती है और वह अपने लक्ष्यों को कैसे प्राप्त करेगी।
उदाहरण के लिए, अगर आप वर्ल्ड वाइल्ड लाइफ की वेबसाइट पर देखें तो उनका विज़न एक ऐसे भविष्य का निर्माण करना है जिसमें लोग प्रकृति के साथ सामंजस्य बनाकर रहें। वहीं, उनके मिशन पर गौर करें तो यह कहता है कि संस्था वर्ल्ड वाइल्ड लाइफ फंड के ज़रिये प्रकृति का संरक्षण करना और धरती पर जैव विविधता से जुड़े गंभीर खतरों को कम करना चाहती है।
अगर आप यह अच्छी तरह से जान लेंगे कि विज़न और मिशन क्या है, तो आप आसानी से समझा पाएंगे कि आपकी संस्था अभी कहां है तथा आपकी टीम क्या हासिल करना चाहती है। जब आपकी संस्था में सबकी एक जैसी समझ होगी तो इसका सकारात्मक प्रभाव न केवल कामकाज के तरीक़े पर पड़ेगा बल्कि इससे काम की उत्पादकता भी बढ़ेगी।
अगर आप इस सीरीज़ में किसी अन्य शब्द को और सरलता से समझना चाहते हैं तो हमें यूट्यूब के कॉमेंट बॉक्स में ज़रूर बताएं।
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किसी कार्यक्रम के लिए युवाओं में रुचि पैदा करना और उनकी सहभागिता सुनिश्चित करना, किसी समाजसेवी संगठन के लिए आसान काम नहीं है। यहां प्रोग्राम डिज़ाइन के एक हिस्से के तौर पर, एक ताकतवर और प्रभावी संदेश (नरेटिव) की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है। यदि कार्यक्रम का उद्देश्य और युवाओं को उससे होने वाले लाभ को लेकर एक स्पष्ट और संक्षिप्त विचार हो तो एक ऐसा संदेश तैयार किया जा सकता है। हालांकि महत्वपूर्ण होने के बाद भी इस संदेश को कार्यक्रम के अन्य पहलुओं के सामने दरकिनार कर दिया जाता है। इसके कारण युवाओं की उतनी उत्साहपूर्ण प्रतिक्रिया नहीं मिल पाती है।
कम्यूटिनी – द यूथ कलेक्टिव के सह-संस्थापक और वार्तालीप कोअलिशन के सदस्य, अर्जुन शेखर बताते हैं कि कैसे एक मज़बूत और समाधान केंद्रित संदेश, युवा सहभागिता को बढ़ा सकता है। वे जलवायु कार्रवाई का उदाहरण देते हैं। अर्जुन कहते हैं कि “वर्तमान में जलवायु परिवर्तन पर हो रही चर्चा भयावह लग सकती है, खासतौर पर युवाओं के लिए क्योंकि उन्हें ही भविष्य में इसके प्रभावों का सामना करना है। हम समाचारों में सुनते हैं कि हम सबसे गर्म साल का अनुभव कर रहे हैं, धीरे-धीरे यह स्थिति और खराब होती जाएगी—यह हकीकत डरावनी लगती है। यह जानकारी जलवायु परिवर्तन के कारण होने वाली समस्या, लागत और नुकसान को उजागर करते हुए, उन्हें एक अंधकारमय और कष्टपूर्ण भविष्य का चित्र दिखाती है। यह युवाओं को कार्रवाई करने के लिए प्रेरित नहीं करती, बल्कि उन्हें निराशा का अनुभव कराती है। हमें समाधान केंद्रित संदेशों की जरुरत है जो उन्हें इस मुद्दे को समझने और सुलझाने में मदद करे।’
एक ऐसा संदेश जो आने वाले कल के लिए उम्मीद जगाता हो और युवाओं में उद्देश्य और सहनशीलता की भावना पैदा करता हो। कम्यूटिनी के मुख्य संचालन अधिकारी और वार्तालीप के सदस्य राजेश एन सिंह मेहर कहते हैं कि “अगर कोई सामाजिक मुद्दा, एक रोमांचक अवसर के रूप में प्रस्तुत किया जाए जो उन्हें एक बढ़िया करियर बनाने में मदद कर सकता है। इसके साथ ही, अगर ये उनके जीवन से जुड़ा हो तो वे इससे जुड़ेंगे।”
किसी कार्यक्रम को युवाओं के लिए प्रासंगिक बनाने के लिए, कार्यक्रम डिज़ाइन में उनकी ज़रूरतों को शामिल करना ज़रूरी है। अक्सर संगठन अपने कार्यक्रम एजेंडा को भागीदारों पर थोपते हुए से लगते हैं, क्योंकि फंडर्स ऐसा चाहते हैं। अर्जुन ज़ोर देकर कहते हैं कि शुरूआत से ही युवाओं की ज़रूरतों को पहचानना और उन्हें कार्यक्रम डिज़ाइन में शामिल न किए जाने के चलते ही वे इसमें रुचि नहीं लेते हैं। असल में, जब युवाओं को नेतृत्व करने के लिए शामिल किया जाता है तो इससे जल्दी परिणाम मिलते हैं।
इस तरह, संदेशों को – चाहे वह पोस्टर हो, किसी गतिविधि का बुलावा या फिर आवेदन की मांग, हमेशा यह सरलता से बताने वाला होना चाहिए कि किसी युवा को उसमें क्यों रुचि लेनी चाहिए।
अर्जुन ज़िक्र करते हैं कि उन्हें बहुत पहले यह समझ आ गया था कि युवा आमतौर पर चार चीजों से जुड़े होते हैं: करियर, शिक्षा, दोस्त और परिवार। इनमें से किसी भी जगह पर उनके पास फैसले लेने की क्षमता (या एजेंसी) नहीं होती है। नियम हमेशा उनके लिए बनाए जाते हैं, उनके द्वारा नहीं। “उन्हें एक ऐसा पांचवां स्थान चाहिए जहां उन पर दुनिया बदलने का दबाव न हो। यहां वे खुद को बदल सकते हैं और आपसी बातचीत के जरिए अपनी मान्यताएं तय कर सकते हैं, जिससे उन्हें जवाबदारी की भावना महसूस होगी।”
अर्जुन आगे कहते हैं कि ऐसी जगहें युवाओं को अपने खुद के माइक्रो-नरेटिव बनाने में भी मदद करती हैं। उनके अनुसार, हम जो समाचार देखते-सुनते और अखबारों में पढ़ते हैं, वे मुख्यधारा में चल रही बातें और विचार होते हैं। इसके विपरीत, माइक्रो-नरेटिव तब होता है जब लोग अपने व्यक्तिगत अनुभवों को कहानियों में बयान करते हैं और दूसरे उनसे कुछ करने के लिए प्रेरित होते हैं। दूसरों को शामिल करने और उन्हें रास्ता दिखाने वाली आत्मनिर्भरता से भरी यह भावना बहुत जरूरी है।
युवा तब ज्यादा प्रेरित होते हैं जब वे किसी मुद्दे से व्यक्तिगत रूप से जुड़ाव महसूस करते हैं। अर्जुन कहते हैं कि “कम्यूटिनी कभी आंकड़ों के सहारे यह नहीं कहता है कि किसी युवा को कार्यक्रम में क्यों शामिल किया जाना चाहिए? इसकी बजाय, हम उस मुद्दे को युवाओं के जीवन से जोड़ते हैं।” राजेश बताते हैं कि उनके “चेंजलूम्स” प्रोग्राम में एक ‘इर्मशन फेज़’ होता है जिसमें युवाओं को उन जगहों पर ले जाते है जो जलवायु परिवर्तन से प्रभावित हैं या भीषण गर्मी में उन्हें यात्रा करवाई जाती है।
हम चिंतनशील कामों और क्षमता निर्माण को बढ़ावा देते हैं जिससे वे सोचना सीख सकें।
इससे उन्हें मुख्यधारा में चल रही बातचीत को वास्तविक अनुभव के साथ जोड़कर यह समझने में मदद मिलती है कि उनके आसपास के वातावरण में जलवायु परिवर्तन का क्या असर पड़ रहा है। इस जागरूकता के साथ, युवा वापस आकर समस्याओं के समाधान खोजने के बारे में सोचते हैं और ऐसे तरीके तलाशते हैं जो उनके समुदाय के लिए हितकारी हो।
• वित्तीय जरुरत: राजेश अपने अनुभव बताते हैं कि युवाओं के लिए वित्तीय ज़रूरतें बाकी सभी चीज़ों से ज़्यादा अहमियत रखती हैं। वे कहते हैं कि “संगठन चाहे किसी भी सामाजिक मुद्दे पर काम कर रहे हों, उन्हें अपने हस्तक्षेप कार्यक्रम में आजीविका को शामिल करना ज़रूरी है। इसका मतलब यह नहीं है कि युवा सक्रिय नागरिकता या लिंग, जलवायु परिवर्तन आदि के बारे में सीखने में रुचि नहीं रखते हैं। बल्कि, आर्थिक सहायता उनके लिए शिक्षा में किया जाने वाला एक निवेश हो सकता है। कपड़े, मग या कोई तोहफा उनके लिए प्रोत्साहन का काम नहीं करता, यह हम करके देख चुके हैं।
वहीं, आर्थिक प्रोत्साहन एक अल्पकालिक आर्थिक सहायता है लेकिन आर्थिक समाधानों को लंबे समय के लिए भी अपनाया जा सकता है। अर्जुन कहते हैं कि वे जलवायु कार्रवाई पर काम करते हुए युवाओं को पर्यावरण सहज नौकरियां (ग्रीन जॉब्स) करने की जानकारी और प्रोत्साहन देते हैं। राजेश बताते हैं कि वे युवाओं को उद्योग लगाने के दौरान पर्यावरण के लिए बने अनुकूल सिद्धांतों का ध्यान रखने और पर्यावरणीय लाभ को बढ़ावा देने वाले प्रोजेक्ट यानी ग्रीन मनी के बारे में बताते हैं।
• मनोवैज्ञानिक जरुरत: राजेश कहते हैं कि युवा अपने साथियों और परिवार की तरफ से मिल रहे सामाजिक दबाव से परेशान होते हैं, जो उनके मानसिक स्वास्थ्य और बेहतरी पर भी असर डालता है। “इस उम्र में उनकी पहचान के कई पहलू मजबूत होने लगते हैं और वे अपने जीवन के दूसरे पहलुओं जैसे जाति, धर्म, ओरिएंटेशन वग़ैरह पर अपनी कोई राय बनाना शुरू कर देते हैं। (परिवार पर) निर्भरता से आत्मनिर्भरता की ओर बढ़ रहे युवा के लिए संगठनों को ऐसे स्थान बनाने चाहिए जिसके माहौल में उन्हें यह ना सोचना पड़े कि बाक़ी लोग उनके बारे में क्या सोचेंगे और वे बिना किसी तनाव के अपने विचार और भावनाएं जाहिर कर सकें।”
अर्जुन युवाओं में आत्मसम्मान पैदा करने और ख़ुद का महत्व समझने में काम आने वाले मनौवैज्ञानिक साधनों के महत्व को सामने लाते हैं। “हम चिंतनशील कामों और क्षमता निर्माण को बढ़ावा देते हैं जिससे वे यह सोचने में सक्षम हो सकें कि किसी विशेष मुद्दे को लेकर नेतृत्व और बदलाव लाने वाली भूमिका कैसे निभाई जा सकती है।
सामाजिक बदलाव को प्राथमिकता के तौर पर सोचना हमेशा मुश्किल होता है। युवा पहले से ही करियर बनाने, परिवार के प्रति जवाबदेह होने, अपनी संस्कृति में शामिल होने और अपने दोस्तों के साथ रोमांचक अनुभव करने जैसी कई इच्छाएं रखते हैं। सामाजिक बदलाव में योगदान देना उनसे एक अतिरिक्त अपेक्षा करने जैसा है और इस अपेक्षा के साथ कहानी को आगे बढ़ाना कारगर नहीं होता है। अर्जुन इसे अपनी एक पहल जिसका नाम स्माइल (स्टूडेंट्स मोबिलाइजेशन इनिशिएटिव फॉर लर्निंग थ्रू एक्सपोजर) है, के उदाहरण से समझाते हैं। वे कहते हैं कि “युवाओं को जमीनी स्तर के संगठनों और सामाजिक आंदोलनों में इंटर्न के तौर पर रखा जाता है, ताकि वे जमीनी हकीकतों का सामना कर सकें और कुछ सीख सकें। लेकिन उन्हें अपने परिजनों को यह समझाना मुश्किल लगता है कि ‘हम ग्रामीण इलाकों का दौरा क्यों करना चाहते हैं।’ पहला सवाल जो पूछा जाता है, वह है, ‘इससे आपको क्या मिलेगा?’ इसलिए हमने पिच बदल दी। हमने व्यक्ति के सीखने पर ध्यान केंद्रित किया। जब हम उनसे पूछते है कि क्या वे नेतृत्व क्षमता का निर्माण करना चाहते हैं और अपने सोच-विचार को मज़बूत बनाना चाहते हैं तो वे भाग लेने में ज्यादा रुचि दिखाते हैं।”
राजेश इस बात पर ज़ोर देते हैं कि युवाओं के लिए किसी भी अनुभव को रोमांचक और मज़ेदार बनाना ज़रूरी है। सामाजिक मुद्दों के बारे में बहुत सी जानकारी है जो हर किसी को पता होनी चाहिए, लेकिन इसके बारे में सीखना बहुत उबाऊ या समय लेने वाला है। वे कहते हैं कि “उदाहरण के लिए, हमारे एक कार्यक्रम में संविधान के महत्व को उजागर किया जाता है, लेकिन इस विषय को रोचक कैसे बनाया जाए? उन्होंने इसके लिए गेम आधारित गतिविधियां और चैंपियनशिप बनाई जिसमें विभिन्न क्षेत्रों की टीमें संविधान के बारे में सबसे ज्यादा जानकारी दिखाने के लिए प्रतिस्पर्धा करती हैं।”
युवा की भावनाओं को शामिल करना एक स्थायी प्रभाव और सार्थक संबंध बनाने की कुंजी है।
राजेश के मुताबिक यह गेमिंग अनुभव उन्हें आकर्षित करने का एक तरीका है। इसके बाद, वे उन्हें जरुरी कौशल और तरीके निकालने में मदद करते हैं। बाकी दूसरे समूहों को जानबूझकर एक—दूसरे से मिलाया जाता है ताकि प्रतिभागियों को अलग-अलग दृष्टिकोण और वास्तविकताओं का अनुभव हो। इससे उन्हें बंधुत्व, समानता और न्याय जैसे बुनियादी मूल्यों को समझने में मदद मिलती है। इसके अलावा, प्रतिभागियों को अपने माता-पिता, शिक्षकों और दूसरे जरुरी लोगों को भी साथ लाने के लिए कहा जाता है, जिससे एक अनोखा सांस्कृतिक भाव पैदा होता है जो परिचित और अपरिचित को एक साथ लाता है। इस तरह, सामाजिक मुद्दों को मजेदार और आकर्षक तरीके से पेश करने से युवाओं में सक्रियता और उत्साह लाता है।
अर्जुन इस बात पर जोर देते हैं कि युवाओं को प्रभावी ढंग से जोड़ने के लिए, उनके साथ समानुभूति रखना और उसके हिसाब से कार्यक्रम के उद्देश्यों को ढालना अहम है। “युवाओं के मन में बहुत सारी भावनाएं होती हैं और पारंपरिक सोच अक्सर उनके साथ मेल नहीं खाती है। उनका मानसिक दृष्टिकोण गतिशील होता है, वे एक साथ कई गतिविधियों और बातचीत में उलझे होते हैं। वे एक साथ टेक्स्टिंग, कॉलिंग और एक आर्टिकल पढ़ने जैसे काम कर सकते हैं। उनसे जुड़ने के लिए, नरेटिव और अभियान भावनात्मक आधार पर बनाए जाने चाहिए जो उनके जज्बातों को छू लें। उनके मन को बदलने के बजाय, उनके दिल को जीतने पर ध्यान देना चाहिए। उनकी भावनाओं को शामिल करना एक स्थायी प्रभाव और सार्थक संबंध बनाने की कुंजी है।”
राजेश ने इन मामलों में गैर-लाभकारी संगठनों की गलती को उजागर करते हुए कहा कि “संगठन अक्सर सोशल मीडिया पर काफी समय खर्च करते हैं, अपने काम के बारे में पोस्टर और पोस्टकार्ड बनाते हैं। लेकिन ये प्रयास अक्सर बाहरी दुनिया, खासतौर पर युवाओं के साथ मेल नहीं खाते हैं। हम अपनी ही कहानियों के इको चैंबर में और वास्तविकता से दूर रहते हैं। हालांकि, हमारे पास लोगों की शक्ति है, और इसका उपयोग करना हमारी सबसे सफल “नरेटिव बिल्डिंग” रणनीति रही है। हर युवा जिसे हम काम में शामिल करते हैं, वह अपने आप में एक “कहानीकार” बन जाता है, संदेश को दूर तक फैलाता है और दूसरों को भी जुड़ने के लिए प्रोत्साहित करता है।”
इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें।
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पश्चिम बंगाल में पिछले ढाई साल से केंद्र सरकार के निर्देशों का पालन न किए जाने के आधार पर महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी एक्ट, 2005 (मनरेगा) के तहत कार्य गतिविधियां बंद हैं। लगातार तीन वित्तीय वर्षों से, पश्चिम बंगाल में केंद्र की ओर से आवंटित किया जाने वाला मनरेगा बजट लगातार शून्य है।
इसका सीधा असर यहां से पलायन कर रहे श्रमिकों की बढ़ती संख्या के रूप में देखा जा सकता है। यह लेख इसी समस्या से जूझ रहे तीन जिलों उत्तर दिनाजपुर, दक्षिण दिनाजपुर और पुरुलिया के श्रमिकों के अनुभव पर आधारित है।
पश्चिम बंगाल के उत्तर दिनाजपुर जिले की ईटाहार पंचायत के कमालपुर गांव में 29 साल के भजन बर्मन और 27 साल की उनकी पत्नी किरण पॉल के साथ रहते हैं। ये दोनों हैं कि उन्हें उनके गांव या उसके आसपास के क्षेत्रों में ही काम मिल जाए ताकि रोजगार के लिए किसी और राज्य ना जाना पड़़े।
पश्चिम बंगाल के ग्रामीण इलाके से भजन और उनके जैसे हजारों युवा पलायन कर रोज़गार के लिए कहां जाएंगे, यह तय नहीं है। भजन कहते हैं, “हम साल में आमतौर पर आठ महीने पैसा कमाने के लिए दूसरे राज्य में जाते हैं और शेष चार महीने खेती-बाड़ी के समय गांव में रहते हैं। दिल्ली, हरियाणा, हैदराबाद जहां हमें काम मिलता है, वहां चले जाते हैं। फिलहाल तो हम लोग हैदराबाद के एक अस्पताल में हाउस कीपिंग का काम करते हैं जिसमें हमें 12 हजार रुपये महीने की तनख्वाह मिलती है। उसी में घर के लिए पैसे बचाना होता है हालांकि गांव और यहां दोनों जगहों के खर्च की वजह से बहुत दिक्कत होती है”। वे मानते हैं कि बेशक मनरेगा में 100 दिन का ही रोजगार मिलता है और मजदूरी भी कम है, लेकिन ये बाहर जाने से बेहतर विकल्प है।
कमालपुर के बुजुर्ग मनरेगा मजदूर जुलाल बर्मन कहते हैं कि जब मनरेगा चालू था तो उन्होंने काम किया था, लेकिन केंद्र सरकार द्वारा बजट आवंटन रोके जाने के कारण उनका 30 से 40 दिन का पैसा अभी भी बकाया है। हालांकि अब पैसा और काम रोके जाने का केस कोर्ट में चल रहा है।
स्थानीय मनरेगा कार्यकर्ता एवं श्रमिक संगठन पीबीकेएमएस (पश्चिम बंग खेत मजूर समिति) के एरिया-कोआर्डिनेटर हसीरुद्दीन अहमद कहते हैं, “केंद्र सरकार के द्वारा मनरेगा का फंड रोके जाने के बाद पलायन बहुत बढ़ा है। कमालपुर और बलरामपुर में अनुसूचित जाति, मुस्लिम वर्ग और ओबीसी समुदाय के लोग ज्यादा रहते हैं। दोनों गांवों को मिलाकर करीब 600 घर हैं और लगभग हर घर का कोई न कोई सदस्य बाहर काम की तलाश में पलायन करने पर मजबूर है।”
दोनों गांव के लोग बताते हैं कि जब पहले यहां मनरेगा का काम चल रहा था, तब उसमें कई सारी गड़बड़ियां की जाती थीं। जो काम मनरेगा श्रमिकों से लिया जाना चाहिए था उसकी जगह जेसीबी मशीन का इस्तेमाल किया जाता था ताकि श्रमिकों के मुकाबले मशीन से जल्दी काम लेकर पैसा बनाया जा सके।
हालांकि इस वर्ष के शुरुआत में राज्य सरकार ने बकाया मजदूरी करीब 30 लाख मनरेगा कर्मियों के खाते में ट्रांसफर करने का निर्णय लिया है। इसमें कुछ लोगों को उनकी मज़दूरी मिल चुकी हैं तो कुछ को नहीं। हालांकि आंकड़ों के अनुसार राज्य में वास्तविक मनरेगा मजदूरों की संख्या कहीं अधिक है।
पीबीकेएमएस के सदस्य और सामाजिक कार्यकर्ता अबू बकर कहते हैं, “मनरेगा में बेरोजगारी भत्ते का प्रावधान होने के बावजूद कोई लाभ नहीं मिलता है। जब भत्ता मांगने के लिए पंचायत में जाते हैं तो कहा जाता है कि बीडीओ ऑफिस जाएं, वहां जाकर कहा जाता है कि डीएम (कलेक्टर) ऑफिस जाएं। आखिर में जब डीएम ऑफिस हम जाते हैं तो वहां कहा जाता है कि इसके लिए हम बीडीओ या प्रखंड विकास अधिकारी को आदेश कर देंगे”।
उत्तर दिनाजपुर के ईटाहार ब्लॉक के कमालपुर गांव की ही निवासी सुचित्रा दास बताती हैं कि उनका और उनके पति दीपक दास का नाम मनरेगा सूची से हटा दिया गया है। अब उनके पति दिल्ली में काम करते हैं जबकि वह गांव में ही रहती हैं। मनरेगा एमआइएस (प्रबंधन सूचना प्रणाली) की पड़ताल में यह पाया गया कि दोनों का नाम तीन फरवरी 2023 को हटा दिया गया था और इसकी वजह काम की मांग नहीं होना बताया गया है।
उत्तर दिनाजपुर के रायगंज ब्लॉक की कमलाबाड़ी पंचायत के 733 मनरेगा मजदूरों में से 242 मनरेगा मजदूरों यानी करीब एक तिहाई श्रमिकों के नाम विभिन्न वजहों से डिलीट किये गये हैं। यहां रायगंज शहर का विस्तार हो चुका है, जहां कई सरकारी दफ़्तर और बाजार हैं। इस वजह से यहां रोजगार के दूसरे विकल्प भी मौजूद हैं और अपेक्षाकृत पलायन का असर यहां कम है। लेकिन ग्रामीणों का अनुमान है कि यहां के करीब 50 लोग बाहर काम करने गये हैं।
मनरेगा सूची से नाम हटाये जाने की शिकायत पश्चिम बंगाल के सबसे अधिक गरीब आबादी वाले जिले पुरुलिया से भी मिलती है। यहां के बड़ा बाजार ब्लॉक के तुमरासोल गांव की रहनेवाली पूर्णिमा महतो और ममानी रजक बताती हैं कि उनका नाम 17 मार्च 2023 को मनरेगा सूची से डुप्लीकेट जॉब कार्ड होने की बात कहकर हटा दिया गया था। लेकिन उनका दावा है कि यह पूरी तरह से गलत है।
25 जुलाई 2023 को तत्कालीन केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री गिरिराज सिंह द्वारा लोकसभा में दिये गये एक जवाब के अनुसार, सूची से जॉब कार्ड को हटाए जाने के कई कारण हैं। इसमें फर्जी या डुप्लीकेट जॉब कार्ड होना, काम की मांग न होना, परिवार का अपनी ग्राम पंचायत से कहीं और स्थायी रूप से चले जाना या फिर मृत्यु हो जाने के बाद भी जॉब कार्ड में उस व्यक्ति का नाम चल रहा हो। इन तमाम मामलों में जॉब कार्ड से नाम हटाया जा सकता है।
केंद्रीय मंत्री के जवाब के अनुसार, वर्ष 2022-23 डिलीट किये गये जॉब कार्ड में पांच करोड़ से अधिक नाम हैं। राष्ट्रीय स्तर पर वर्ष 2021-22 की तुलना में वर्ष 2022-23 में 247 प्रतिशत अधिक नाम डिलीट किये गए हैं।
पश्चिम बंगाल में मनरेगा सूची से नाम डिलीट किये जाने के मामले राष्ट्रीय औसत से 21 गुणा अधिक हैं।
नाम डिलीट किये जाने में पश्चिम बंगाल सबसे ऊपर है। वित्त वर्ष 2022-23 में 83 लाख से अधिक श्रमिकों के नाम डिलीट किये गये जबकि वर्ष 2021-22 में करीब डेढ़ लाख श्रमिकों के नाम डिलीट किये गये थे। मात्र एक वित्तीय वर्ष के अंतराल पर पश्चिम बंगाल में 5199.20 प्रतिशत नाम अधिक डिलीट किये गये। यानी, पश्चिम बंगाल में मनरेगा सूची से नाम डिलीट किये जाने के मामले राष्ट्रीय औसत से 21 गुणा अधिक हैं।
पश्चिम बंग खेत मजूर समिति ने नवंबर 2022 में कलकत्ता हाईकोर्ट में एक याचिका दायर कर पश्चिम बंगाल के वैध मनरेगा मजदूरों को मजदूरी से वंचित रखने का विरोध किया था। हाईकोर्ट ने 19 जनवरी 2024 को इस जनहित याचिका पर सुनवाई के दौरान एक चार सदस्यीय समिति का गठन कर उससे पश्चिम बंगाल में वास्तविक मनरेगा मजदूरों की पहचान सुनिश्चित कराने का फैसला दिया।
हालांकि इस समिति के वकील पूर्वायण चक्रवर्ती ने बताया, “कमेटी तो गठित हो गई है लेकिन हमें अब तक यह पता नहीं चला है कि इसने काम करना शुरू किया है या नहीं, हमें इसका इंतजार है”।
जैसा कि दक्षिण दिनाजपुर जिले के कुसमंडी ब्लॉक के समसिया गांव की मनरेगा मजदूर सिद्दीका बेगम कहती हैं कि उनके पति सहराब अली पंजाब में काम करते हैं और घर पर परिवार की पूरी जिम्मेवारी उन्हीं पर है। इसी तरह गांव की मरजीना खातून नाम की एक महिला ने बताया कि उनके पति कश्मीर में कमाते हैं और यहां परिवार की जिम्मेवारी उन पर है।
इस तरह, मनरेगा की काम बंदी ने महिलाओं पर दोहरा बोझ बढ़ाया है। एक तो कामबंदी की वजह से उनकी आय का जरिया छिन गया है औरनदूसरा इसमें काम न होने की वजह से घर के पुरुषों के पलायन से उन पर पारिवारिक जिम्मेवारियों का दबाव दो गुना हो गया है। मनरेगा ने आत्मनिर्भर महिलाओं का एक वर्ग भी तैयार किया था जो अब काम बंद होने से खत्म होता नज़र आ रहा है। फिलहाल, केंद्र व राज्य के बीच टकराव की वजह से कानूनन मिली रोजगार गारंटी धरातल पर लागू न होने से लोगों के पास पलायन के अलावा और कोई विकल्प नहीं बचा है।
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