बिहार में बाल विवाह: यह अब तक क्यों चला आ रहा है?

किशोरावस्था में शादी युवा महिलाओं और लड़कियों को उनके हक़ से वंचित करता है क्योंकि इसका संबंध कम उम्र में गर्भधारण, मातृ एवं बाल मृत्यु, घरेलू हिंसा और पीढ़ी दर पीढ़ी रहने वाली गरीबी से है। भारत में पिछले 20 वर्षों में बाल विवाह के स्तर में सुधार आया है। राजस्थान, छतीसगढ़ और मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में इसके बेहतर परिणाम देखने को मिले हैं। हालांकि, त्रिपुरा, पश्चिम बंगाल और विशेष रूप से बिहार जैसे राज्यों में लैंगिक असमानता के कारण बाल विवाह को रोकने में बाधाओं का सामना करना पड़ा है। इन राज्यों में अब भी पाँच में से दो से अधिक लड़कियों की शादी जल्दी कर दी जाती है।

2015–16 से 2019-20 तक बिहार के 37 जिलों में से 10 जिलों में लड़कियों के बाल विवाह में वृद्धि देखी गई है। इनमें से सात जिलों में यह वृद्धि 5 प्रतिशत से अधिक है। इसके विपरीत, 11 जिलों में कम उम्र में विवाह के प्रचलन में 5 प्रतिशत से अधिक की कमी दर्ज की गई है।1 इस आंकड़े को देखते हुए सेंटर फॉर कैटालाइजिंग चेंज की सक्षम पहल ने बिहार में कम उम्र में विवाह की गतिशीलता और कारकों का मिश्रित-विधि अध्ययन2 किया। इस संस्था ने माता-पिता और युवाओं के दृष्टिकोण, शिक्षा के कथित मूल्य, और युवाओं की लैंगिकता और पसंद को लेकर स्थापित नियमों की छानबीन की।

नीले और सफ़ेद स्कूल वाले कपड़ों में साइकल पर लड़कियां-बाल विवाह बिहार
बिहार में अब भी स्कूली शिक्षा में 10 साल से भी कम समय की शिक्षा हासिल करने की प्रथा है। | चित्र साभार: सेंटर फॉर कैटालाइजिंग चेंज

यहाँ सर्वेक्षण से प्राप्त कुछ ऐसे कारकों के बारे में बताया गया है जिनके कारण अब भी बिहार में जल्दी विवाह की परंपरा को प्रोत्साहन मिलता है, साथ ही कुछ ऐसे कारकों की जानकारी भी दी गई है जो इसे रोकने के लिए काम करते हैं।

कम स्तर की स्कूली शिक्षा

1. बिहार में अब भी स्कूली शिक्षा के रूप में 10 साल से कम समय की शिक्षा हासिल करने की परंपरा है। लड़कियों (7.8 वर्ष) और लड़कों (8.3 वर्ष) दोनों के लिए ही औसत शिक्षा का स्तर बहुत कम है। हालांकि लड़कों (54 प्रतिशत) की तुलना में अधिक लड़कियां (73 प्रतिशत) अपनी पढ़ाई पूरी करने के लिए दोबारा स्कूल जाना चाहती हैं।

2. बढ़ती उम्र के साथ स्कूली शिक्षा में लैंगिक अंतर बढ़ता जाता है। माध्यमिक शिक्षा पूरी करके आगे भी पढ़ाई जारी रखने वाले 57 प्रतिशत लड़कों की तुलना में सिर्फ 32 प्रतिशत लड़कियां ही माध्यमिक स्तर से आगे की पढ़ाई कर पा रही हैं।

3. हर तीन में से एक लड़की को स्कूल छोड़ना पड़ता है क्योंकि उन्हें इस पढ़ाई का कोई फायदा नहीं दिखाई देता है। महिलाओं के लिए आर्थिक अवसरों की कमी और लड़कियों को शिक्षित करने के प्रति ससुराल वालों/माता-पिता का विरोध और आर्थिक भागीदारी की अनुमति लड़कियों को शिक्षा हासिल करने से रोकती है। इसके विपरीत लड़के पैसे कमाने के लिए बीच में ही अपनी पढ़ाई छोड़ देते हैं और विभिन्न तरह के कामों में लग जाते हैं।

4. अपने बच्चों के प्रति माता-पिता की आकांक्षाएँ बच्चों के लिंग पर निर्भर करती हैं। लगभग 55-57 प्रतिशत अभिभावक (माँ और पिता दोनों) अपनी बेटियों को उच्च माध्यमिक स्तर तक पढ़ाना चाहते हैं। जबकि वहीं 51-56 प्रतिशत माता-पिता चाहते हैं कि उनके बेटे एम.ए. तक की पढ़ाई पूरी करें।

5. कानूनी उम्र से कम उम्र में शादी लड़कों और लड़कियों दोनों के लिए आम है। लड़कियों के विवाह की औसत आयु 17 (+/-2) और लड़कों के लिए यह आयु 20.8 (+/–2) है। 

6. लड़कियों की शिक्षा का स्तर अधिक होने पर विवाह के प्रस्ताव में कमी आने की संभावना होती है लेकिन लड़कों के लिए शिक्षा के बढ़ते स्तर के साथ विवाह प्रस्तावों की संख्या में काफी तेजी आ जाती है। 

पितृसत्तात्मक मानसिकता

1. समुदाय के रक्षकों जैसे पंचायत के लोग, फ्रंटलाइन में काम करने वाले कार्यकर्ता, पुरुष और लड़के अपनी पितृसत्तात्मक सोच जल्दी शादी करने की प्रथा के वाहक होते हैं। शादी के बाजार में दहेज को लड़कों की योग्यता के सूचक के रूप में देखा जाने लगा है। इसलिए ऐसे माता-पिता को अपनी कम उम्र की लड़कियों के लिए दूल्हे खोजने में आसानी होती है जो ऐसे मामलों में गर्व के साथ ‘मोलभाव’ करने की क्षमता रखते हैं।

2. समुदाय के रक्षकों में शिक्षा की उपयोगिता की समझ बहुत कम (100 के आंकड़ें में 40.2) है। समाज माता-पिता पर उसकी लड़की को पढ़ाने से ज्यादा उसकी शादी करवाने का दबाव बनाता है। इन रक्षकों का ऐसा मानना है कि लड़कियों की शिक्षा का कोई महत्व नहीं है और यह एक तरह का बोझ है।

3. लड़कियों को आगे बढ़ाने, उनके अधिकार और जीवन से जुड़े चुनाव को लेकर इन लोगों का व्यवहार भेदभाव से भरा हुआ है। पितृसत्तात्मक मानदंडों का पालन शादीशुदा जवान लड़कों (52.3/100) और अविवाहित लड़कियों और जवान औरतों में सबसे कम (43.8/100) है। अविवाहित लड़कों में लड़कियों की लैंगिकता और उनके चुनावों पर नियंत्रण रखने की प्रवृति भी सबसे अधिक (52.6/100) दिखती है।

4. शादी के मामले में फैसला करने वाला आदमी मुख्य​ रूप से पिता होता है। तीन चौथाई से अधिक विवाहित जवान औरतों और दो तिहाई से ज्यादा विवाहित जवान पुरुषों का कहना है कि उनके पिता ने ही उनकी शादी जल्दी कारवाई है। 

विकास, मीडिया एक्सपोजर और योजनाओं का ज्ञान

1. बिहार के सात निश्चय (या 7 शपथ) कार्यक्रम को 2015 में लागू किया गया था। इसकी प्राथमिकता ग्रामीण इलाकों में सड़कों का विकास, बिजली और जल-आपूर्ति थी। इसके अलावा इस योजना के तहत युवा शिक्षा, कौशल विकास, रोजगार और महिला सशक्तिकरण पर ध्यान देने की बात भी शामिल है। इस तरह के ग्रामीण विकास लिंग संबंधी इच्छाओं और मानदंडों को निम्नलिखित तरीकों से प्रभावित कर सकते हैं:

2. मीडिया की अधिक उपलब्धता (उत्तरदाताओं का अखबारों, पत्रिकाओं, टेलिविजन, रेडियो, मोबाइल फोन, इन्टरनेट और फेसबुक, व्हाट्सएप जैसे सोशल मीडिया प्लैटफ़ार्म आदि से जुड़ाव) का माँओं के मन में शिक्षा के इस्तेमाल का सकारात्मक असर पड़ता है और साथ ही उनकी अपनी लड़कियों की लैंगिकता को नियंत्रित करने की प्रवृति में भी कमी आती है।

3. बिहार में लड़कियों की शिक्षा को प्रोत्साहन देने वाली ढेरों योजनाएँ हैं। इन योजनाओं में गतिशीलता की सुविधा बढ़ाने के लिए साईकिल देने का प्रावधान, स्कूल के यूनीफॉर्म खरीदने के लिए  स्टाईपेंड या स्कूल की पढ़ाई पूरा करने के बाद भुगतान की गारंटी देने वाली सशर्त नकद ट्रांसफर आदि शामिल हैं।

जीविका स्वयंसहायता समूह (सेल्फहेल्प ग्रुप्स या एसजीएच)

2006 में शुरू की गई बिहार रुरल लाईवलीहुड प्रमोशन सोसायटी (या जीविका) एसजीएच के रूप में महिला सामुदायिक संस्थानों को बनाने का काम करती है। 1.06 लाख एसजीएच के अपने नेटवर्क के माध्यम से इसने बिहार के ग्रामीण इलाकों में औरतों की वित्तीय स्थिति को मजबूत बनाया है। इससे भी ज्यादा, चूंकि महिलाओं ने अब सार्वजनिक रूप से अपनी जगह बनाई है और राजनीतिक, वित्तीय और नागरिक प्रक्रियाओं में भाग लेना शुरू किया है इसलिए अब पितृसत्तात्मक और नियामक प्रतिबंधों को चुनौती देने की उनकी क्षमता भी बढ़ी है।

1. जीविका के सदस्यों में लड़कियों की लैंगिकता को नियंत्रित करने की प्रवृति सबसे कम होती है जो इस तरफ इशारा करती हैं कि ऐसे समूहों द्वारा लिंग मानदंड में ऐसे छोटे-छोटे बदलाव लाये जा सकते हैं।

2. ऐसी माएँ जो जीविका की सदस्य हैं, वे अपने बेटों और बेटियों को एक समान शिक्षा दिलवाने की इच्छा रखती है और उनमें शिक्षा की उपयोगिता से जुड़ी समझ का स्तर ऊंचा है।

3. जीविका के सदस्यों के रूप में काम करने वाली विवाहित महिलाएँ और माएँ शादी की न्यूनतम उम्र को लेकर प्रगतिशील सोच रखती हैं।

बाल विवाह को कैसे रोक सकते हैं?

बाल विवाह को खत्म करने के लिए ऐसे ऐसे बहुआयामी दृष्टिकोण की जरूरत है जो शिक्षा और सामाजिक और आर्थिक रूप से औरतों के सशक्तिकरण को बढ़ावा दे। इस समस्या से निबटने के लिए नीचे कुछ सुझाव दिये गए हैं। 

1. गरीबी को दूर करना और पूर्ण विकास को बढ़ावा देना

अध्ययन से यह बात सामने आई है कि बाल विवाह के सबसे ज्यादा मामले सामाजिक-आर्थिक रूप से हाशिये पर जी रहे लोगों और उन गांवों में देखे जाते हैं जो विकास के सूचकांक पर नीचे स्थित है। आजीविका के अवसर बनाना और बहुत गरीब परिवारों को स्वास्थ्य, शिक्षा और गतिशीलता जैसी जरूरी अधिकारों तक उनकी पहुँच बढ़ाकर यह सुनिश्चित किया जा सकता है कि माता-पिता अपने नाबालिग बच्चों की शादी के लिए मजबूर नहीं होंगे।

2. शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार और स्कूली शिक्षा को पूरा करने को प्राथमिकता देना

शिक्षा को उपयोगी बनाने के लिए उसकी गुणवत्ता में सुधार लाना, पढ़ाने के नए तरीकों को शामिल करना और शिक्षकों को लैंगिक समानता पर संवेदनशील बनाना जरूरी है। स्कूली शिक्षा पूरा करने के लिए प्रोत्साहन देना और शिक्षा को कौशल के अवसरों से जोड़ना भी महत्वपूर्ण है।

3. महिलाओं के आर्थिक अवसर को सुनिश्चित करना

कम उम्र की महिलाओं और लड़कियों को महिलाओं की आर्थिक भागीदारी को बढ़ाने वाली सरकारी नौकरियों में 35 प्रतिशत आरक्षण जैसी योजनाओं के बारे में शिक्षित करना आवश्यक है। महिलाओं की आर्थिक मजबूती के लिए शुरू की गई योजनाओं को प्रभावी रूप से लागू करने के अलावा उनके लिए पैसा कमाने के अवसर बनाकर महिलाओं को स्कूल की पढ़ाई पूरी करने के लिए तैयार किया जा सकता है। साथ ही इससे बाल-विवाह पर भी रोक लगाई जा सकती है।

4. मुख्य योजनाओं और अधिकारों के बारे में जागरूकता बढ़ाना 

जहां एक तरफ लड़कियों की शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए लागू की गई कई योजनाओं से लड़कियों की भागीदारी में बहुत अधिक उछाल आया है वहीं 57 प्रतिशत लड़कियों को मुख्यमंत्री कन्या उत्थान योजना (देरी से शादी और स्कूल शिक्षा को पूरा करने के उद्देश्य को बढ़ावा देने के लिए सशर्त नकद हस्तानंतरण कार्यक्रम) जैसी योजनाओं के बारे में पता नहीं था। लैंगिक प्रशिक्षण को जोड़कर जीविका के साथियों की क्षमता को मजबूत करने की प्रक्रिया बाल विवाह को रोकने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है। 

5. पितृसत्तात्मक मानदंडों को चुनौती देने के लिए जीविका को मजबूत बनाना 

जीविका धीरे-धीरे बाल विवाह से जुड़े प्रचलित पितृसत्तात्मक मानदंडों को चुनौती देने का काम कर रहा है। 

6. युवा लड़कों और लड़कियों को संवेदनशील बनाना 

अविवाहित लड़कों में लड़कियों की लैंगिकता को नियंत्रित करने की प्रवृति सबसे अधिक पाई गई है। कम उम्र में उन्हें लैंगिक नियमों, अनुमति के बारे में संवेदनशील बनाने और सकारात्मक पुरुषत्व को बढ़ावा देने की दिशा में काम करना चाहिए।

7. समुदाय के संरक्षकों का मंच तैयार करना 

माता-पिता और समुदाय के नेताओं दोनों ही प्रकार के संरक्षकों पर पड़ने वाला सामाजिक दबाव बाल विवाह को रोकने के रास्ते में बाधा पहुंचाता है। इस समस्या का समाधान गाँव के प्रभावी बुजुर्गों, धार्मिक नेताओं, शादी करवाने वाले बिचौलियों, फ्रंटलाइन कार्यकर्ताओं, शिक्षकों, जीविका एसजीएच के सदस्यों और पंचायत के सदस्यों को लड़कियों की शिक्षा, कार्यबल में औरतों की भागीदारी और औरतों के लिए हिंसा-मुक्त वातावरण के निर्माण के मामले में संवेदनशील बनाकर किया जा सकता है।

यह शोध यह दिखाता है कि इस क्षेत्र में अब भी बहुत अधिक काम करने की जरूरत है लेकिन बाल विवाह को लेकर लोगों की, खासकर युवा महिलाओं की सोच धीरे-धीरे बदल रही है। चूंकि बिहार और पूरे भारत में बहुत सारी लड़कियों की शादी अब भी 21 से कम उम्र में हो रही है इसलिए लड़कियों के लिए शादी की कानूनी उम्र सीमा 18 से बढ़ाकर 21 करने की प्रस्तावना में इसे ख़त्म करने वाले प्रयासों को मजबूत करने की जरूरत है।

फुटनोट:

  1. औरंगाबाद, बेगूसराय, बक्सर, गया, जमुई, कैमूर, खगड़िया, मधेपूरा, नवादा, रोहतास और शिवहर जैसे जिलों में 2015-16 से 2019-20 में बाल विवाह के दर में कमी आई थी। भगलपुर, कटिहार, किशनगंज, लखीसराय, पूर्व चंपारण, पूर्णिया और सहरसा में इसी समयावधि (एनएफ़एचएस-5) में 5 प्रतिशत तक बढ़ा हुआ पाया गया। 
  2. इस अध्ययन के शोध टीम में डॉ सास्वत घोष, एसोसिएट प्रोफेसर, इंस्टीट्यूट ऑफ डेवलपमेंट स्टडीज़, कोलकाता; डॉ अनामिका प्रियदर्शिनी, वरिष्ठ विशेषज्ञ, रिसर्च सक्षमा, सी3; देवकी सिंह, विशेषज्ञ, लिंग समानता, सी3; मधु जोशी, प्रमुख, लिंग समानता, सी3; शुभा भट्टाचार्य, विशेषज्ञ, लिंग समानता, सी3; और डॉ काकोली दास, एसोसिएट प्रोफेसर, विद्यासागर विश्वविद्यालय हैं।

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हमें फील्ड कार्यकर्ताओं के कौशल विकास को प्राथमिकता देने की जरूरत क्यों है

कोविड-19 और उसके बाद लगने वाले लॉकडाउन ने कंपनियों और संगठनों के काम करने के तरीके को बदल दिया है। इन संगठनों में सामाजिक क्षेत्र में काम करने वाले संगठन भी शामिल हैं। एक तरफ उनमें से कुछ संगठनों ने अपने मुख्य कार्यक्रमों का ध्यान राहत प्रयासों की तरफ किया है जिनसे उनके पहले से मौजूद संसाधनों को विस्तार मिला है। वहीं ज़्यादातर संगठनों को दूरस्थ कार्य मॉडल (रिमोट वर्किंग मॉडल) की दिशा में जाना पड़ा। इस प्रक्रिया ने क्षेत्र के भीतर व्याप्त सीमित डिजिटल कौशल एवं क्षमताओं और उन्हें मजबूत करने की जरूरत पर प्रकाश डाला है। इससे भी बड़ी बात यह है कि आज के इस रिमोट वर्किंग वास्तविकता में तकनीक और आंकड़े-संबंधी भूमिकाएँ बहुत ही आवश्यक बन गई हैं। हालांकि पूर्ति के सापेक्ष तकनीकी रूप से प्रशिक्षित प्रतिभा की मांग बढ़ने से इन भूमिकाओं के लिए उम्मीद किए जाने वाले वेतनों में वृद्धि हुई है। और इसलिए सीमित बजट वाले ज़्यादातर सामाजिक उद्यमों के लिए नई प्रतिभा की नियुक्ति करना लगभग असंभव हो गया है।  

क्षेत्र में बढ़ती मांग को देखते हुए डिजिटल क्षमता और बुनियादी ढांचे में निवेश महामारी के पहले की तुलना में अब बातचीत का और अधिक महत्वपूर्ण बिन्दु बन चुका है। इसलिए सामाजिक उद्यमों को प्रशिक्षण और विकास प्रारूपों की मदद से अपने कर्मचारियों के क्षमता निर्माण पर ध्यान देने की जरूरत है जो न केवल कौशल की कमी को भरने में मददगार साबित होते हैं बल्कि पहले से मौजूद प्रतिभा को बनाए रखने में भी मदद करते हैं। यह सिर्फ मुख्यालय में काम कर रहे कर्मचारियों पर ही लागू नहीं होता है बल्कि फील्ड में काम करने वाले उन कर्मचारियों पर भी होता है जिनका काम संगठन की सफलता के लिए महत्वपूर्ण है।

फील्ड में काम करने वाले कर्मचारियों का कौशल विकास करके संगठन के भीतर ही क्षमता का निर्माण करना

सामाजिक क्षेत्र में हमारी ज़्यादातर भूमिका संचालन में होती है, जो हमें फील्ड में काम कर रहे कई कर्मचारियों से बातचीत का मौका देती हैं। हम लोगों ने विभिन्न क्षेत्रों में असुरक्षा की बढ़ती हुई भावना का अहसास किया है। इस क्षेत्र में काम कर रहे ज़्यादातर फील्ड कर्मचारी कार्यकाल-आधारित होते हैं और एक विशेष कार्यक्रम तक सीमित होने के कारण जमीनी स्तर पर काम करने वाले पेशेवर लगातार अपने इस समयावधि की सुरक्षा को लेकर अनिश्चितता में रहते हैं। उन्हें अक्सर उस संगठन के रोजाना के संचालन से भी बाहर रखा जाता है जिसमें वे काम करते हैं। इसलिए नियोक्ता और कर्मचारी दोनों के ही अंदर अपनी क्षमता निर्माण से जुड़ी किसी तरह का प्रोत्साहन नहीं होता है क्योंकि वे खुद को एक परियोजना से परे नहीं देख पाते हैं। यह फील्ड में काम कर रहे लोगों की प्रतिबद्धता और प्रेरणा के स्तर को प्रभावित कर सकता है जिसके कारण कार्यक्रम को बेहतर बनाने की दिशा में उनके निवेश के स्तर पर भी असर पड़ सकता है। यह समझने योग्य बात है कि  कई लोग संभवत: अपनी संविदात्मक ज़िम्मेदारी से परे संगठन से अपना जुड़ाव महसूस नहीं करते हैं।

फील्ड में काम कर रहे कर्मचारियों पर बहुत अधिक निर्भर किसी क्षेत्र के लिए कौशल विकास जरूरी है क्योंकि इससे वे अगली परियोजना के लिए अधिक कुशल होते हैं।

हालांकि, फील्ड में काम कर रहे कर्मचारियों को अस्थाई संविदा या सलाहकारों के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए। बल्कि इन्हें ऐसे लोगों की तरह देखा जाना चाहिए जो एक संगठन के दायरे में हैं, ताकि वे अपने कौशल का विकास कर सकें और आगे अपना करियर बेहतर बना सकें। हमारे द्वारा नेतृत्व किए जाने वाले संगठन हकदर्शक में वे अंतिम स्तर पर काम करने वाले एजेन्टों के रूप में मुख्य भूमिका निभाते हैं और सरकारी योजनाओं और नीतियों के प्रभावी कार्यान्वयन में मदद करते हैं। सामाजिक उद्यमों के लिए वे जमीन पर काम करने वाले उनके आँख और कान की भूमिका निभाते हैं। उनके ज्ञान और अंतरदृष्टि से संगठन को समुदायों की वास्तविक-समय की समस्याओं को समझने में मदद मिलती है। फील्ड में काम करने वाले लोग मौजूदा कार्यक्रमों पर लगातार अपनी मूल्यवान प्रतिक्रियाएँ देते रहते हैं। फील्ड में काम कर रहे कर्मचारियों पर बहुत अधिक निर्भर किसी क्षेत्र के लिए कौशल विकास जरूरी है क्योंकि इससे वे भविष्य में आगे काम करने वाली परियोजनाओं के लिए अधिक कुशल हो जाते हैं। इसके अलावा, सरकार अब भी कोविड-19 राहत और पुनर्वास प्रयासों में सहायता के लिए सामाजिक क्षेत्रों पर ही भरोसा करती है। इसलिए फिजिकल डिस्टेन्सिंग और रिमोट वर्किंग वाली मिश्रित व्यवस्था में फील्ड में काम करने वाले कर्मचारियों का कौशल विकास जरूरी हो गया है।

फील्ड में काम करने वाले कर्मचारियों के क्षमता निर्माण के बारे में कैसे सोचें

अपने कार्यक्रमों को अनुकूलित करें और डिजिटल साक्षरता का अनुमान न लगाएँ

अपने अनुभवों से हमनें यह सीखा कि लोगों की योग्यता, उनकी जरूरतों और उनकी भूमिकाओं के लिए आवश्यक कौशल निर्माण कार्यक्रमों को विकसित करना जरूरी है। हम शहरी और ग्रामीण समुदाय के स्थानीय लोगों को प्रशिक्षित करते हैं जिन्हें हम हकदर्शक्स कहते हैं—ये हकदर्शक ऐप पर आपको आपके अधिकारों के बारे में बताते हैं। यह ऐप उन्हें समुदायों के लिए योग्य कल्याण सेवाओं को ढूँढने में मदद करता है। यह उनके लिए सहायता प्रणाली भी मुहैया करवाता है ताकि वे सरकारी योजनाओं के लिए आवेदन में और उनके अधिकारों और लाभों को हासिल करने में उनकी मदद कर सकें। इन फ्रंटलाइन कार्यकर्ताओं का भुगतान या तो हमलोग करते हैं या वह नागरिक सेवा शुल्क के रूप में उन्हें एक छोटी सी राशि देता है जिसकी वे मदद करते हैं।

महिला को गुलाबी पर्ची दिखाते हुए हकदर्शक (एक संगठन) की फील्ड वर्कर-फ़ील्ड कार्यकर्ता कौशल विकास
लोगों की योग्यता, उनकी जरूरतों और उनकी भूमिकाओं के लिए आवश्यक कौशल निर्माण कार्यक्रमों को विकसित करना जरूरी है। | चित्र साभार: सौम्या खंडेलवाल

आज हमारे पास 330 पूर्णकालिक कर्मचारी हैं जिनमें 210 लोग फील्ड में काम कर रहे हैं और इनके अलावा 10,000 हकदर्शक्स भी हैं। हमारा काम करने का मॉडल जमीनी स्तर पर सरकारों और समुदायों के मध्य जानकारियों की कमी को तकनीक के माध्यम से कम करना है। इसलिए फील्ड के कर्मचारियों के लिए बनाए गए हमारे प्रशिक्षण मॉडल में डिजिटल साक्षरता एक प्रमुख हिस्सा होता है। लेकिन हमारे पास फील्ड कार्यकर्ताओं के लिए विभिन्न मॉडल हैं जो उनकी भूमिकाओं और पहले से मौजूद कौशल पर आधारित होते हैं।   

हकदर्शक की भूमिका में काम करने आने वाली ज़्यादातर महिलाएं पहली बार स्मार्टफोन इस्तेमाल करती हैं, इसलिए हम उन्हें सिर्फ सरकारी योजनाओं पर ही प्रशिक्षण नहीं देते हैं। हम उन्हें स्मार्टफोन के इस्तेमाल के लिए बुनियादी पहलुओं पर भी प्रशिक्षित करते हैं। ऐसा इसलिए हैं क्योंकि विशेष रूप से ज़्यादातर ग्रामीण समुदाय स्मार्टफोन का इस्तेमाल यूट्यूब पर वीडियो देखने या व्हाट्सऐप या फेसबुक के लिए करता है। उदाहरण के लिए, जब हम स्थानीय औरतों को हकदर्शक बनने का प्रशिक्षण दे रहे थे तब हमनें यह पाया कि उनमें से ज़्यादातर औरतों को वर्णमाला की (लेटर की) को संख्या की (नंबर की) में बदलना नहीं आता था। या वे यह भी नहीं जानती थीं कि उनके फोन की मेमरी को कैसे साफ किया जाता है। वे पासवर्ड के लिए बड़े अक्षर और छोटे अक्षर की अदला-बदली नहीं कर पाती थीं। हम ऐसा मान लेते हैं कि अगर कोई आदमी स्मार्टफोन का इस्तेमाल कर रहा है तो उसे इसकी बुनियादी जानकारी होगी लेकिन अपने अनुभवों से हमनें यह जाना कि ऐसा बिलकुल नहीं है। 

महिलाओं द्वारा स्मार्टफोन के उपयोग के उद्देश्यों को देखते हुए उनके ज्ञान की कमी को समझा जा सकता है। इसलिए यह महत्वपूर्ण है कि इस अंतर को समझने में समय लगाया जाये और परिष्कृत प्रशिक्षण प्रक्रिया में जाने से पहले उस अंतर पर काम किया जाए।

दिये जा रहे समर्थन के साथ प्रशिक्षण में सिद्धान्त और व्यावहारिक दोनों तरह के अनुप्रयोगों को शामिल करने की आवश्यकता है 

हकदर्शक्स को ऐप के इस्तेमाल के तरीकों और विशिष्टाओं के बारे में बताने के बाद हम यह सुनिश्चित करते हैं कि उन्हें असाईंमेंट दिये जाएँ ताकि वे विभिन्न प्रक्रियाओं के बारे में जानें और ऐप द्वारा प्रदान किए जाने वाले टूल का उपयोग करने का अभ्यास करें। उदाहरण के लिए, हम उन्हें लोगों की नकली प्रोफ़ाइल बनाने के लिए कहते हैं और ऐप के डैशबोर्ड पर उनके आवेदन की स्थिति पर नजर रखने का अभ्यास करवाते हैं।  

हमारा प्रशिक्षण पूरी तरह से डिजिटल नहीं हो सकता है।

इस तरह के शुरुआती प्रशिक्षण काम शुरू करने के लिए मददगार होते हैं। लेकिन जब वे क्षेत्र में जाकर काम करेंगे तब ही वे इस ऐप का व्यावहारिक उपयोग सीख पाएंगे और हमसे सवाल करेंगे। इस स्थिति को ध्यान में रखते हुए हम लोग एक महीने बाद रिफ्रेशर प्रशिक्षण का आयोजन करते हैं; और प्रत्येक 30–40 हकदर्शक्स के लिए जिला स्तर पर एक समन्वयक नियुक्त करते हैं। इन समन्वयकों का काम हकदर्शक्स से मिलकर ऐप के संचालन से जुड़े उनके सवालों का जवाब देना होता है। साथ ही वे सरकारी योजनाओं से जुड़े उनके सवालों का जवाब भी देते हैं। हमनें एक हेल्पलाइन भी बनाया है जिस पर हकदर्शक्स फोन कर सकते हैं, इसके अलावा तुरंत अपने सवालों का जवाब पाने के लिए एक सक्रिय व्हाट्सऐप ग्रुप भी है। रिफ्रेशर प्रशिक्षणों और चल रहे समर्थन का यह संयोजन तकनीकी उत्पादों के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। हम हर 15 दिन में अपने ऐप को नई विशिष्टाओं और सरकारी योजनाओं से जुड़ी नई जानकारियों के साथ अपडेट करते हैं। जहां एक तरफ हम हकदर्शक्स के लिए पुश नोटिफिकेशन का इस्तेमाल करते हैं वहीं इन विशेषताओं की व्याख्या के लिए पूरी तरह इनपर निर्भर नहीं रह सकते हैं। कहने का मतलब यह है कि हमारा प्रशिक्षण पूरी तरह से डिजिटल नहीं हो सकता है। हमारे समन्वयक और हेल्पलाइन हमारे हकदर्शक्स को जरूरी सहायता देते हैं।

तकनीकी प्रशिक्षण का संबंध सॉफ्ट स्किल से भी उतना ही है जितना कि तकनीक से

फील्ड में काम करने वाले कार्यकर्ताओं के लिए स्मार्टफोन या तकनीक से परिचित न होना कोई असामान्य बात नहीं है। कईयों के पास सरकारी अधिकारियों से लेकर स्थानीय सामुदायिक नेताओं जैसे हितधारकों के साथ काम करने का पूर्व अनुभव नहीं होता है। इस कारण से व्यक्तिगत आत्मविश्वास और सामाजिक और स्थानीय गतिशीलता के बारे में सोचना महत्वपूर्ण है।

हमनें यह महसूस किया कि हमारी तकनीकी प्रशिक्षणों में परिवार के सदस्यों को शामिल करने की भी जरूरत है।

जब हमलोगों ने महिलाओं को प्रशिक्षित करना शुरू किया तब पाया कि वे अपनी सेवाओं के बदले पैसा लेने में झिझकती है, खास कर पुरुषों से। वे लेनदेन के कथित सामाजिक निहितार्थ के बारे में चिंतित थीं। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह थी कि उनके पति या परिवार के सदस्य इस काम के परिणाम के रूप में किसी भी तरह का बाहरी जुड़ाव नहीं चाहते थे। तब हमें इस बात का एहसास हुआ कि हमारी तकनीकी प्रशिक्षणों में इनके परिवार के सदस्यों को भी शामिल करने की जरूरत है। इसलिए हमनें अपने सत्रों में इन महिलाओं के पतियों आर भाइयों को भी बुलाना शुरू कर दिया। इसका बाद में एक दूसरा फायदा तब हुआ जब महिलाएं आसपास जाने के लिए परिवार के पुरुष सदस्यों के स्कूटर पर निर्भर रहने लगीं ताकि वे अपना काम कर सकें।

उन लोगों के लिए सह-पाठ्यक्रम बनाना जिन्हें प्रशिक्षण से लाभान्वित होने की उम्मीद है

कौशल विकास के लिए विभिन्न प्रकार के प्रशिक्षण कार्यक्रम और दी जा रही सहायता मददगार तो हैं लेकिन पर्याप्त नहीं हैं। कौशल को विकसित करने के लिए किए गए किसी भी प्रकार के प्रयास को आवश्यक रूप से फील्ड में काम करने वाले लोगों की बदलती जरूरतों के अनुसार परिवर्तित होते रहना चाहिए। इससे भी महत्वपूर्ण यह है कि इनमें उनकी प्रतिक्रियाओं को भी शामिल किया जाना चाहिए ताकि मॉडल की बेहतर संरचना तैयार की जा सके और यह उनकी विशेष समस्याओं को सुलझाने में मदद कर सके।

हमने पाया कि प्रतिक्रियाओं को शामिल करने से यह सुनिश्चित करने में भी मदद मिलती है कि कार्यक्रम में उनकी भागीदारी है जिनकी सेवा के लिए यह बनाया गया है।

हम लोगों ने इसे अपने अँग्रेजी भाषा के कार्यक्रम में देखा जिसका आयोजन हमनें अपने फील्ड के कर्मचारियों के लिए किया था। हमारे पूर्णकालिक कर्मचारियों ने हमसे यह अनुरोध किया कि हमें ईमेल-संवाद के तौर-तरीकों और ग्राहकों से पेशेवर तरीके से संवाद जैसे विषयों पर भी ध्यान केन्द्रित करना चाहिए। इन कर्मचारियों में हमारे दोस्त और फील्ड समन्वयक भी शामिल थे। इस प्रतिक्रिया ने हमारे प्रशिक्षण कार्यक्रम को मजबूत बनाने और हमारे कर्मचारियों को अच्छा काम करने के लिए आवश्यक कौशल के निर्माण में हमारी मदद की। इसके अलावा, हमने यह पाया कि प्रतिक्रियाओं को शामिल करने से यह सुनिश्चित करने में भी मदद मिलती है कि कार्यक्रम में उनकी भागीदारी है जिनकी सेवा के लिए यह बनाया गया है।

प्रशिक्षण का विकेंद्रीकृत मॉडल अधिक सफल होता है

हम जानते हैं कि सामाजिक क्षेत्र में स्थानीय संदर्भ व्यापक रूप से भिन्न होते हैं और कार्यक्रम की सफलता के लिए आवश्यक है वह इन विविधताओं को ध्यान में रखे। जब देश भर में काम करने वाले फील्ड कार्यकर्ताओं के प्रशिक्षण की बात आती है तब हमनें पाया कि इस स्थिति में विकेन्द्रीकरण (डिसेन्ट्रलाइजेशन) वाला मॉडल सबसे अच्छा काम करता है। इससे यह सुनिश्चित होता है कि हमारे प्रशिक्षण क्षेत्र में व्याप्त सामाजिक, सांस्कृतिक, भाषिक, आर्थिक और राजनीतिक विभिन्नताओं के कारकों को ध्यान में रखते हैं। 

उदाहरण के लिए, उत्तर भारत के राज्यों में हमें दक्षिण भारत के राज्यों की तुलना में परिवार के पुरुष सदस्यों को शामिल करने में अपेक्षाकृत अधिक समय लगाना पड़ता है। असम और नागालैंड के उत्तरपूर्वी राज्यों में हमें स्मार्टफोन की विशेषताओं के बारे में सिखाने में कम समय लगता है। वहीं बुन्देलखण्ड जैसे इलाकों में हमें अधिक समय लगाना पड़ता है जहां औरतों को अधिक मदद की जरूरत होती है। 

हमारे प्रशिक्षण हमेशा ही विकेन्द्रीकरण को प्राथमिकता देते हैं चूंकि हमने काम करने की प्रक्रिया के दौरान इसे सीखा है और इसका स्तर अच्छा किया है इसलिए हम आगे भी विकेन्द्रीकरण के लिए सक्षम हैं। दूसरे शब्दों में, छोटी इकाई के रूप में भी विकेन्द्रीकरण मॉडल का अनुकरण करना संभव है। 

हमारी चुनौती हमारे प्रशिक्षण कार्यक्रमों में बेहतर तकनीक का लाभ उठाने और इस प्रक्रिया में मानवीय हस्तक्षेप की आवश्यकता को कम करने की है। हम ऐप पर नई योजनाओं और नई सुविधाओं के बारे में लोगों को प्रशिक्षित करने के लिए ऑडियो और पॉडकास्ट के उपयोग के तरीके ढूंढ रहे हैं। हालाँकि, इसके लिए पूरी तरह से अलग कौशल की आवश्यकता होती है; शायद यह हमारी टीम के लोगों के लिए क्षमता निर्माण कार्यक्रमों का अगला चरण होगा। 

सामाजिक बेहतरी के लिए तकनीक के इस्तेमाल पर ज्ञान का आधार बनाने का प्रयास करने वाले 8 भागों वाली शृंखला का यह दूसरा लेख है।  

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विधवाओं को परिवार के जमीन में हक़ नहीं मिलता

अब भी रोज अपना नया रूप दिखाने वाली कोविड-19 महामारी ने अपनी दूसरी लहर के दौरान भारत के ग्रामीण इलाकों को बहुत बुरी तरह चपेट में लिया था। दूसरी लहर के दौरान पहली लहर की तुलना में अधिक लोग मरे थे और ग्रामीण इलाकों में गैर आनुपातिक रूप से पुरुषों की मृत्यु दर महिलाओं की तुलना में अधिक थी। हम लोग गुजरात के ग्रामीण इलाकों में काम कर रहे थे। उन इलाकों में दूसरी लहर के दौरान मृत्यु दर में 22 प्रतिशत की वृद्धि हुई थी। द वायर की एक रिपोर्ट के अनुसार कोविड-19 के कारण मरने वालों की वास्तविक संख्या उपलब्ध आंकड़ों से  27 गुना अधिक है। 

आधिकारिक रिकॉर्ड की कमी के बावजूद यह बात स्पष्ट है कि इस महामारी में हजारों औरतें विधवा हुई हैं। कईयों ने अपने परिवार के इकलौते कमाने वाले आदमी को खोया है और दुख और आजीविका के दोहरे बोझ के तले जीने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। भारत के संदर्भ में यह और अधिक गंभीर चिंता का विषय है क्योंकि अकेले जीवन जी रही औरतों को कलंक के रूप में देखा जाता है। और समुदाय और सरकार की नीतियों में इन औरतों की जगह हमेशा हाशिये पर होती है। एकल औरतों की बढ़ती संख्या के सामाजिक प्रभाव को कुछ देर तक नजरंदाज भी कर दें तो कोविड-19 के कारण आने वाले संकट ने ग्रामीण  भारत में ‘कृषि के नारीकरण’ की स्थिति को पैदा कर दिया है। इसकी व्याख्या इस रूप में की जा रही है कि चूंकि औरतों के पास अपनी ही जमीन के मालिकाना हक के संदर्भ में किसी भी तरह का फैसला लेने का अधिकार नहीं होता है। ऐसी स्थिति में वे अन्जाने ही अवैतनिक कृषि श्रम बल (अपनी ही जमीन पर काम करने वाली) की सूची में शामिल हो जाती हैं। 

जमीन के मालिकाना हक़ को लेकर लिंग-आधारित आंकड़ों की कमी है। कृषि जनगणना जमीन के मालिकाना अधिकार के अलावा सामाजिक संरचनाओं को लेकर भी थोड़ी बहुत जानकारी देती है। भारत में कुल कृषि योगी भूमि के सिर्फ 12.8 प्रतिशत पर ही औरतों का मालिकाना हक़ है जिसमें जमीन का क्षेत्र 10.3 प्रतिशत है। गुजरात में यह आंकड़ा और जगहों की तुलना में थोड़ा सा ही अधिक है। यहाँ के 14.1 प्रतिशत हिस्से पर औरतों का मालिकाना हक़ है जो कुल जमीन का 13.2 प्रतिशत हिस्सा है।

कानूनी और नीतिगत स्तर पर मिली स्वीकृति के बावजूद औरतों के भूमि अधिकार भेदभाव वाले सामाजिक-सांस्कृतिक मानदंडों और पितृसत्तात्मक परम्पराओं में गहरे धँसे हुए हैं। लैंगिक असमानताओं को दूर करने के लिए राज्यों द्वारा उठाए गए ठोस कदमों की कमी के कारण कानूनी ढांचे और वास्तविक रूप में इन अधिकारों के प्रयोग को सक्षम बनाने की प्रक्रिया के बीच का अंतर बहुत गहरा है। पुरुषों और लड़कों को बिना किसी विवाद के जमीन का मालिकाना हक़ मिल जाता है वहीं भूमि पर औरतों द्वारा किए गए कानूनी दावे पर हमेशा ही सवाल उठाया जाता रहा है और अक्सर उन्हे हिंसात्मक विरोध का भी सामना करना पड़ा है।  

वायरस लिंग-तटस्थ हो सकता है लेकिन इसका प्रभाव नहीं

महामारी के प्रकोप के बाद से स्वाति में हम लोगों ने ऐसे अध्ययन किए जिनके माध्यम से हम औरतों और लड़कियों पर महामारी के प्रभाव को समझ सकें। इन किए गए जाँचों का मुख्य विषय औरतों के भूमि अधिकारों पर कोविड-19 का प्रभाव था। ग्रामीण इलाकों में भूमि एक महत्वपूर्ण संसाधन के रूप में काम करती है। और ग्रामीण इलाकों की आजीविका में भूमि-आधारित आजीविका का योगदान 70 प्रतिशत होता है। 85 प्रतिशत से अधिक औरतें खेती के कामों से जुड़ी होती है। इस आंकड़ें को देखते हुए हम लोग उन औरतों के भूमि या विरासत में मिली जमीन तक उनकी पहुँच पर पड़ने वाले उस प्रभाव को समझना चाहते थे जिन्होनें अपना पति, पिता, ससुर या परिवार का कोई ऐसा सदस्य खोया है जो जमीन का मालिक था। 

15 मार्च 2021 से 15 मई 2021 के बीच हम लोगों ने गुजरात के 40 गांवों में तीन जिलों में (सुरेन्द्रनगर, महिसागर और पाटन) के पाँच प्रखंडों (दसड़ा, ध्रंगधरा, संतरामपुर, सिद्धपुर और राधनपुर) में गहरे अध्ययन का आयोजन किया। उस दौरान कोविड-19 के कारण या संभावित कारण से कुल 473 लोगों की मौत दर्ज की गई थी, जिसमें 63 प्रतिशत पुरुष थे और 27 प्रतिशत औरतें।

औरतों के साथ किए गए साक्षात्कार और सामूहिक बातचीत से उन विशिष्ट चुनौतियों के बारे में पता लगा जिनका सामना उन्हें अपने भूमि अधिकारों तक पहुँचने के क्रम में करना पड़ता है। ये चुनौतियाँ जमीन के पुरुष मालिकों और परिवार में फैसले लेने वाले सदस्य के साथ महिलाओं के संबंध, उस महिला की उम्र, उसके बच्चे हैं या नहीं, उसका बच्चा लड़का है या लड़की और ऐसे ही विभिन्न कारकों से जुड़ी होती है। 

महिलाओं के भूमि अधिकारों की मध्यस्थता अब भी पुरुषों के साथ उनके संबंध से जुड़ी है

हाल ही में विधवा हुई 26 साल की संगीताबेन का एक चार साल का बेटा है। उसका परिवार पतदी शहर में रहता था जहां बिजली विभाग में उसके पति की सरकारी नौकरी थी। पति की मृत्यु के बाद संगीताबेन को अपने पति के परिवार के साथ मिठगोढ़ा गाँव में जाकर रहना पड़ा जो पतदी शहर से 16 किलोमीटर दूर है।  

पुरुष सदस्यों की मृत्यु के बाद औरतों पर कई ऐसे सामाजिक नियम और प्रतिबंध लग जाते हैं जिनसे उन्हें नुकसान होता है। 

संगीताबेन का मानना है कि उसके पास परिवार की जमीन से जुड़ी किसी तरह की जानकारी नहीं है। “मैं जानती हूँ कि यह जमीन मेरे ससुर की है लेकिन मुझे यह नहीं मालूम कि उस जमीन पर किसी और का नाम भी है या नहीं। मैं यह भी नहीं जानती हूँ कि मेरे पति का नाम भी उस कागज पर है या नहीं।” शुरुआत में संगीताबेन ने जमीन के कागज पर अपने नाम को शामिल करने में किसी भी तरह की चुनौती की आशंका से इंकार कर दिया था। “इसमें किसी तरह की दिक्कत नहीं होगी क्योंकि मेरा एक बेटा है,” लेकिन बाद में अपनी बात आगे बढ़ाते हुए उसने कहा कि “लेकिन यह काम जल्दी नहीं होगा क्योंकि मेरी उम्र अभी कम है और मेरे देवर की अभी तक शादी नहीं हुई है। जब तक उसकी शादी नहीं हो जाती है तब तक मेरा नाम जमीन के कागज में नहीं जोड़ा जाएगा।” बहुत हद तक इस बात की संभावना दिख रही थी कि संगीताबेन की शादी उसके देवर से कर दी जाएगी। 

मिठगोढ़ा में रहने वाली 48 वर्षीय ललिताबेन ने कोविड-19 के कारण अपने पति को खो दिया। वह पारिवारिक जमीन से जुड़े कागजों पर अपना नाम शामिल करने की प्रक्रियाओं के लिए पूरी तरह से अपने देवर पर आश्रित होने के कारण चिंतित हैं। प्रोटोकॉल के अनुसार उत्तराधिकारी के नाम जोड़ने की प्रक्रिया एक महीने के अंदर पूरी हो जानी चाहिए। इस अवधि के बीत जाने के बाद इस मामले को जिला दफ्तर में ले कर जाना पड़ता है जो एक जटिल और खर्चीली प्रक्रिया भी हो सकती है। जबकि परंपरा के अनुसार एक विधवा औरत अपने पति की मृत्यु के बाद कम से कम छः महीने तक घर से बाहर नहीं जा सकती है। 

आंध्र प्रदेश के महबूबनगर जिले में एक महिला किसान ज्वार की ओसाई करती हुई-ज़मीन अधिकार विधवा
औरतों के भूमि अधिकार भेदभाव वाले सामाजिक-सांस्कृतिक मानदंडों और पितृसत्तात्मक परम्पराओं में गहरे उलझे हुए हैं। | चित्र साभार: फ्लिकर

औरतें अपने भूमि के अधिकार को सुरक्षित करना चाहती हैं लेकिन उन्हें सामाजिक समर्थन नहीं मिलता है

उपरियाला गाँव की 43 वर्षीय नीलाबेन अपने पति और तीन बच्चों के साथ अहमदाबाद में रहती थी। कोविड-19 के कारण उनके पति की मृत्यु हो गई। पति की मृत्यु के बाद वह अपने बच्चों के साथ अपने गाँव वापस लौट गई। नीलाबेन के देवर ने पारिवारिक जमीन में उन्हें उनका हक़ देने से मना कर दिया। आमदनी का कोई और स्त्रोत न होने के कारण उन्हें दूसरों के खेत में दिहाड़ी मजदूर के रूप में काम करना पड़ता है और वह और उनका परिवार उनके सास-ससुर के घर में रहते हैं। किसी भी तरह के समर्थन की कमी के कारण वह अपने हक़ की लड़ाई लड़ने से कतराती है। 

औरतों को उनका परिवार दूसरे घर से आई हुई लड़की’ के रूप में देखता है और उनके दावों को सीमित कर दिया जाता है 

महामारी के दौरान 29 साल की काजलबेन के ससुर की मृत्यु हो गई और अब जमीन के कागज में परिवार के सभी सदस्यों का नाम जोड़ा जाएगा। जब उससे यह पूछा गया कि क्या उसका नाम भी इस सूची में जोड़ा जाएगा तब उसने कहा कि, “अरे, नहीं। दूसरे घर से आई कल की बहू पर कौन भरोसा करेगा?”

जीतिबेन की उम्र 50 साल है और अपनी मौत के बाद उनके पति अपने पीछे तीन बच्चे और 25 एकड़ जमीन छोड़ कर गए हैं। जीतिबेन के ससुर उनके पति की जमीन के कागज पर उसका और उसकी बेटियों के बदले उसके देवर का नाम जोड़ने का दबाव दे रहे हैं। उसके ससुर का कहना है कि, “हम तुम्हारा ख्याल रखेंगे लेकिन जमीन परिवार के लोगों के पास ही रहना चाहिए।”

औरतों को ‘स्वेच्छा’ से अपने अधिकारों को छोड़ देने के लिए मजबूर किया जाता है 

गोरियावाड़ गाँव में रहने वाली पचास वर्षीय लसुबेन ने दूसरी लहर के दौरान कुछ ही दिनों के अंतराल पर अपने पति और सास-ससुर तीनों को खो दिया। परिवार की परंपरा के अनुसार लसुबेन अगले एक साल तक घर से बाहर कदम नहीं रख सकती है। उनके ससुर के पास 30 बीघा जमीन थी जिसे उसके पति और देवर दोनों में बराबर रूप से बांटा गया था। मृत्यु के बाद लसुबेन के देवर ने लैंड म्यूटेशन प्रोसेस (स्थानीय नगर निगम के राजस्व अभिलेखों में जमीन के कागज पर लोगों का नाम जोड़ने या बदलने की प्रक्रिया) शुरू कर दी और इसके तहत अपना, लसुबेन और उनके बच्चों का नाम कागज में जुड़वा दिया। 

कुछ ही दिनों बाद राजस्व तलाती (अधिकारी) की सलाह पर, लसुबेन के देवर ने लसुबेन को मजबूर कर दिया कि वह लसुबेन के बेटे के पक्ष में अपने और अपनी बेटियों के अधिकारों को छोड़ दें। उनसे कहा गया कि अगर जमीन के मालिकों की संख्या कम होगी तो योजनाओं और ऋणों का फायदा उठाना आसान होगा। हालांकि लसुबेन और उनकी बेटियाँ अपना कानूनी हक़ छोडने के लिए अदालत के सामने बयान देने के लिए राजी हो गई लेकिन उनका ऐसा मानना था कि जमीन के कागज में उनका नाम होने से उन्हें अपने भविष्य को लेकर सुरक्षा का एहसास होता।  

परंपरागत प्रथाएँ और पितृसत्तात्मक राज्य 

बँटवारे को रोकने के लिए और परिवार को संयुक्त रखने के नाम पर जमीन को बड़े बेटे या भाई के नाम पर रखने जैसी परंपराओं का अब कोई फायदा नहीं है और औरतों को इससे ज्यादा नुकसान होता है। 

कांताबेन (63) और विजूबेन (65) नाम की दो भाभियाँ अपने परिवार के 15 बीघा जमीन पर जोताई का काम करती थीं। यह जमीन उनके सबसे बड़े जेठ के नाम पर है। जब उनके पति जिंदा थे तब अनाधिकारिक रूप से उनके पतियों को पाँच-पाँच बीघे जमीन का मालिकाना हक़ मिला हुआ था। अब उनके सबसे बड़े जेठ ने दोनों ही औरतों को जमीन का हक़ देने और उसपर फसल पैदा करने से मना कर दिया है। अब उन्हें गाँव में दूसरों के खेत में मजदूरों की तरह काम करना पड़ता है। इस बार के मौसम में इन विधवा औरतों ने मुश्किल से 3–4 हजार रुपए की कमाई की है और अब अगले साल तक उन्हें और काम नहीं मिलेगा। 

सक्षम कानूनी ढांचे और महिलाओं के भूमि अधिकारों का वास्तविक उपयोग करने के बीच का अंतर बहुत गहरा है।

सक्षम कानूनी ढांचे और महिलाओं के भूमि अधिकारों का वास्तविक उपयोग करने के बीच का अंतर बहुत गहरा है। नागरिक समाज संगठनों के साथ-साथ सरकार को इस समस्या की पहचान का बीड़ा उठाना चाहिए। उन्हें समझना चाहिए कि एक समावेशी, न्यायसंगत और सतत विकास हेतु और महामारी से दीर्घ अवधि में उबरने के लिए, ग्रामीण औरतों की संपत्ति की ताकत और उसकी पिछड़ी स्थिति को मजबूत बनाना जरूरी है।

इसे करने के लिए नीचे दिये कदम उठाए जा सकते हैं:

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पॉक्सो एक्ट के बारे में पाँच बातें

बाल शोषण के प्रति 60 देशों की प्रतिक्रियाओं की जांच करने वाली 2019 की इकोनॉमिस्ट इंटेलिजेंस यूनिट की रिपोर्ट में कुछ दिलचस्प जानकारियां सामने आई हैं। इसने सर्वेक्षण किए गए सभी देशों में बच्चों को यौन शोषण और दूसरे अन्य प्रकार के शोषणों से बचाने के लिए कानूनी ढांचे के मूल्यांकन में भारत को सबसे ऊपर रखा है। इस माप के आधार पर, रिपोर्ट के अनुसार भारत ने बच्चों के लिए सबसे बेहतर वातावरण माने जाने वाले यूनाइटेड किंगडम, स्वीडन और ऑस्ट्रेलिया को पीछे छोड़ दिया है।

भारत में बाल यौन शोषण के ख़िलाफ़ प्राथमिक क़ानून क्या हैं?

पॉक्सो एक्ट, 2012 और इसके संबंधित नियमों को बच्चों को विभिन्न तरीक़े के यौन अपराधों से बचाने और इन अपराधों से निबटने के लिए बाल-सुलभ न्यायिक तंत्र शुरू करने के उद्देश्य से बनाया गया था। लेकिन, हमारे देश में ऐसे व्यापक बाल यौन शोषण क़ानूनों के बावजूद इस तरह के दुर्व्यवहार का पैमाना चौंका देना वाला है। वर्ल्ड विजन इंडिया द्वारा 2017 में किए गए सर्वेक्षण के अनुसार भारत में प्रत्येक दो में से एक बच्चा यौन शोषण का शिकार है। इसके अलावा अधिकांश मामलों में अपराधी पीड़ित के परिचित होते हैं। जिसके कारण पीड़ित इस समस्या के निवारण के लिए अधिकारियों से नहीं मिलना चाहते हैं।

झील के किनारे मछली पकड़ रहे दो लड़के-पॉक्सो एक्ट
बच्चों से जुड़े किसी भी संगठन के लिए बाल संरक्षण नीतियां बिल्कुल महत्वपूर्ण हैं। | चित्र साभार: पिक्साबे

कोविड-19 महामारी के समय से बच्चों के साथ होने वाले दुर्व्यवहार की घटनाएँ और तेज़ी से बढ़ रही हैं। साइबर अपराध के नए और कपट वाले रूप अपना सिर उठा रहे हैं। इसके अलावा, जैसा कि हाल के एक अध्ययन से पता चलता है, हमारे पॉक्सो एक्ट के बारे में जागरूकता का स्तर सामान्य से भी बहुत नीचे है।

यहाँ पॉक्सो एक्ट के बारे में जानने वाली पांच प्रमुख बातें हैं, खासकर यदि आप विकास क्षेत्र में बच्चों के साथ काम करते हैं:

1. यह लैंगिक रूप से एक तटस्थ क़ानून है

18 वर्ष के कम उम्र के किसी बच्चे को ‘किसी भी व्यक्ति’ के रूप में परिभाषित करते हुए पॉक्सो एक्ट बाल यौन शोषण पीड़ितों हेतु उपलब्ध कानूनी ढांचे के लिए एक लिंग-तटस्थ वातावरण बनाता है। नतीजतन, यौन दुर्व्यवहार से पीड़ित कोई भी बच्चा इस अधिनियम के तहत उपचार की सुविधा प्राप्त करने में सक्षम है। यह अधिनियम यौन शोषण के अपराधियों के बीच भी लिंग के आधार पर अंतर नहीं करता है, और ऐसे कई मामले हैं जिसमें न्यायालय ने ऐसे दुर्व्यवहारों के लिए औरतों को दोषी ठहराया है

2. दुर्व्यवहार की सूचना नहीं देना अपराध है

पॉक्सो एक्ट की प्रमुख विशेषता, और यकीनन सबसे अधिक बहस वाला बिंदु धारा 19 के तहत अनिवार्य रिपोर्टिंग का दायित्व है। इसके अनुसार प्रत्येक उस व्यक्ति के लिए स्थानीय पुलिस या विशेष किशोर पुलिस इकाई में जाकर सूचना देना अनिवार्य है जिसे किसी बच्चे के साथ किए जा रहे यौन अपराध का संदेह है या उसकी जानकारी है।

संस्था का प्रभारी कोई भी व्यक्ति जो अपने अधीनस्थ से संबंधित यौन अपराध की सूचना देने में विफल होता है उसे दंडित किया जा सकता है।

इस अधिनियम के तहत न केवल यौन शोषण करने वाले अपराधी दंडित होता है बल्कि उन लोगों को भी सज़ा मिलती है जो ऐसे अपराधों की सूचना नहीं देते हैं। इस अधिनियम के तहत सूचना छुपाने वाले को कारावास या जुर्माना या कई मामलों में दोनों ही प्रकार की सज़ा होती है। इस अधिनियम की धारा 21 के तहत किसी भी कम्पनी या संस्थान में अपने अधीनस्थ से संबंधित यौन अपराध की सूचना देने में असफल होने वाले प्रभारी को जेल भेजे जाने के साथ ही उस पर जुर्माना लगाया जा सकता है। हालाँकि यह अधिनियम बच्चों को ग़ैर-रिपोर्टिंग दायरे से बाहर रखता है। बाल यौन शोषण को रोकने के लिए पिछले कुछ वर्षों में कई लोगों के ख़िलाफ़, आपराधिक कार्रवाई की गई है। इनमें ख़ासकर ऐसे लोग हैं जो शैक्षणिक संस्थानों के प्रभारी है। 

3. यौन अपराध की रिपोर्ट करने के लिए कोई समय सीमा नहीं है

आमतौर पर, बाल यौन शोषण पीड़ितों को पहुँचने वाला आघात उन्हें तुरंत अपनी शिकायत दर्ज कराने से रोकता है। इसे स्वीकार करते हुए, 2018 में, केंद्रीय कानून और न्याय मंत्रालय ने स्पष्ट किया कि पॉक्सो अधिनियम के तहत यौन अपराधों की रिपोर्ट करने के लिए कोई समय या आयु सीमा नहीं है। नतीजतन, पीड़ित किसी भी समय अपराध की रिपोर्ट कर सकता है, यहां तक कि दुर्व्यवहार किए जाने के कई साल बाद भी। इसलिए, भारत में बच्चों के साथ काम करने वाले संगठन समय व्यतीत करने के बहाने अपने कर्मचारियों के खिलाफ बाल यौन शोषण की शिकायतों को दूर नहीं कर सकते हैं। दूसरी तरफ़, अमेरिका के कई राज्यों और यूरोपीय संघ के कई देशों में कानूनी सहारा चाहने वाले बाल यौन शोषण पीड़ितों के लिए समय सीमा की शर्त अब भी लगाई गई है। इस तरह की समय सीमा उन पीड़ितों के रास्ते में बाधाएं पैदा करती है जो जीवन में बाद में अपने यौन शोषण के आरोपों को आवाज देने का इरादा रखते हैं।

4. पीड़ित की पहचान की गोपनीयता बरक़रार रखना

पॉक्सो एक्ट की धारा 23 किसी भी प्रकार के मीडिया में पीड़ित की पहचान को प्रकट करने पर प्रतिबंध लगाती है सिवाय उस स्थिति के जब स्थापित विशेष अदालत द्वारा अनुमति दी गई हो। इस धारा के उल्लंघन के तहत दंड का प्रावधान है भले ही पीड़ित के पहचान का ख़ुलासा सद्‍भाव से ही क्यों ना किया गया हो। इस स्थिति को दोहराते हुए, सुप्रीम कोर्ट ने 2018 में सोशल मीडिया पर अन्य बातों के अलावा पॉक्सो पीड़ित की पहचान का खुलासा करने को लेकर भी कई निर्देश जारी किए।

5. पॉक्सो नियम के तहत नए दायित्व

पिछले साल सरकार ने पॉक्सो नियमों की नई सूची जारी की। भारत में बच्चों के लिए काम कर रही संस्थाओं के लिए इन नियमों से तीन मुख्य निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं। सबसे पहले, बच्चों को आवास देने वाली या उनके साथ लगातार सम्पर्क में आने वाली किसी भी संस्था को समय-समय पर पुलिस सत्यापन करवाना होगा। साथ ही उन कर्मचारियों की पृष्ठभूमि की आवश्यक रूप से जाँच करवानी होगी जो बच्चों से बातचीत करते हैं या उनके सम्पर्क में रहते हैं। दूसरे, ऐसी संस्था को अपने कर्मचारियों को बाल सुरक्षा और संरक्षण के प्रति संवेदनशील बनाने के लिए नियमित प्रशिक्षण देना होगा। तीसरी और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इसे बच्चों के ख़िलाफ़ हिंसा को लेकर ज़ीरो टॉलरन्स के सिद्धांत पर आधारित बाल संरक्षण नीति अपनानी होगी। इस नीति को उस राज्य सरकार की बाल संरक्षण नीति को प्रतिबिंबित करना चाहिए जिसमें संगठन संचालित होता है।

कानूनी अनिवार्यताएं एक तरफ, बच्चों से जुड़े किसी भी संगठन के लिए बाल संरक्षण नीतियां बिल्कुल महत्वपूर्ण हैं। ये नीतियां बाल शोषण की घटनाओं से निबटने के लिए प्रक्रियाओं को सुव्यवस्थित करती हैं और ऐसी घटनाओं के सामने आने पर मनमानी कार्रवाई को कम करती हैं। इसके बदले में यह प्रतिष्ठा को क्षति पहुँचने से रोकता है और संगठन की विश्वसनीयता को बढ़ाता है।

एक अच्छी तरह से तैयार की गई बाल संरक्षण नीति संगठन के बाल शोषण रोकथाम उपायों को स्पष्ट रूप से परिभाषित करेगी। साथ ही बाल दुर्व्यवहार की घटनाओं को हल करने के लिए एक निवारण तंत्र तैयार करने में मददगार होगी। ऐसा करने पर, यह पोक्सो एक्ट के तहत अनिवार्य रिपोर्टिंग दायित्व को प्रतिबिंबित करेगा। और बाल शोषण की शिकायतों को दूर करने और नीति को लागू करने के लिए संगठन के भीतर व्यक्तियों के एक निर्दिष्ट समूह में अधिकार निहित करेगा। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि एक मजबूत बाल संरक्षण नीति इस विश्वास को प्रेरित करेगी कि इसे अपनाने वाला संगठन बाल शोषण की चिंताओं से निष्पक्ष रूप से और कानून की उचित प्रक्रिया के अनुसार निबटेगा।

अस्वीकरण: इस लेख का उद्देश्य सामान्य जानकारी प्रदान करना है और इसे संदर्भ-विशिष्ट पेशेवर कानूनी सलाह के बदले उपयोग में नहीं लाया जाना चाहिए। यह लेख मूलतः अंग्रेज़ी में प्रकाशित हुआ था और आप इसे यहाँ पढ़ सकते हैं। आईडीआर ने इस लेख का हिंदी में अनुवाद किया है ताकि अनुवादक के प्रयोग से इसे बृहत् स्तर पर पहुँचाया जा सके। जहां एक तरफ़ आईडीआर अंग्रेज़ी में लिखे मूल लेख के अचूक अनुवाद की सभी संभव कोशिशें करता है, वहीं भाषाई सीमाओं के कारण हिंदी लेख में कुछ अंतर का पाया जाना सम्भव है। इन अंतरों और अनुवाद के कारण आई किसी भी तरह की ग़लती के लिए न तो आईडीआर और ना ही लेखक ज़िम्मेदार होगा।

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रिमोट डाटा कलेक्शन के लिए फ़ोन सर्वेक्षण: कैसे सही परिणाम पाएँ

पारंपरिक रूप से, ऐसा माना जाता है कि आमने-सामने बैठकर साक्षात्कार (जहाँ सर्वेक्षण करने वाले और जवाब देने वाले के बीच बेहतर जुड़ाव होता है) करने से बेहतर नतीजे मिलते हैं। लेकिन कोविड-19 महामारी के कारण शोध और मूल्यांकन के लिए स्नेहा में हमारी टीम को आँकड़े जुटाने के लिए मजबूर होकर रिमोट तरीके अपनाने पड़े। इस प्रक्रिया से हम लोगों ने निम्नलिखित बातें सीखीं:

1. सौहार्दपूर्ण संबंध कायम करना 

प्राथमिक आँकड़े जुटाने में उत्तरदाता के साथ पारदर्शी और विश्वास-आधारित संबंध बनाना महत्वपूर्ण होता है। फील्ड में काम करने के दौरान सर्वेक्षक अपने पहचान पत्र या अपने संस्थान के लेटरहेड के साथ अपनी पहचान को जाहिर कर सकते हैं। फोन पर साक्षात्कार के दौरान ऐसा कर पाना मुश्किल हो जाता है। इस बात की समझ पैदा करना ज़रूरी होता है कि साक्षात्कार करने वाले ने जवाब देने वाले उस व्यक्ति का नंबर कैसे हासिल किया और उसके सर्वेक्षण का मकसद क्या है।  

2. सूचित करके सहमति प्राप्त करें 

डेटा कलेक्शन के बारे में हमनें जो पहली चीज सीखी वह यह है कि उत्तरदाताओं को सूचित करके उनसे सहमति लेना बहुत महत्वपूर्ण होता है। इस काम को करने के लिए साक्षात्कर्ता को यह सुनिश्चित करना पड़ता है कि उत्तरदाता डेटा संग्रह के उद्देश्य और उनसे की जाने वाली उम्मीद को पूरी तरह समझ रहा है। संवाद में शामिल किए जाने वाले कुछ महत्वपूर्ण बिन्दु इस प्रकार है: 

डाटा इकट्ठा करने के लिए एक सर्वेक्षक इलेक्ट्रॉनिक उपकरण का इस्तेमाल कर रहा है
साक्षात्कर्ता को यह सुनिश्चित करना पड़ता है कि उत्तरदाता डेटा संग्रह के उद्देश्य और डेटा संग्रह की प्रक्रिया को अच्छी तरह समझ रहा है। | चित्र साभार: बिल & मेलिंडा गेट्स फ़ाउंडेशन/फ्रेडेरिक कौर्बेट

3. कॉल-बैक को लेकर लचीले प्रोटोकॉल का निर्माण 

जब हम यह योजना बना रहे थे कि हमारी टीम जवाब देने वाले व्यक्तियों से कितने अंतराल पर कॉल बैक करेगी तब हम लोगों ने एक प्रोटोकॉल बनाया कि एक उत्तरदाता  को तीन दिनों तक प्रतिदिन अमूमन दो या तीन घंटे के अंतराल पर तीन बार फोन किया जाएगा। इसके बावजूद, उत्तरदाताओं के हालात के हिसाब से हमें इसमें बदलाव लाने की जरूरत पड़ी। उदाहरण के लिए, हम जिन क्षेत्रों में काम कर रहे थे उनमें से एक क्षेत्र में, औरतों को सुबह के समय फोन करने से बहुत कम जवाब मिलते थे, क्योंकि उस इलाके में लोगों के घरों में सुबह के समय बस कुछ घंटों के लिए पानी आता था। इन तरह की वास्तविकताओं और स्थानीय परिस्थिति की समझ के अनुसार हम लोगों ने अपनी व्यवस्था में बदलाव किए। 

4. साक्षात्कार को छोटा रखना 

जैसा कि शोधकर्ताओं द्वारा ज़ोर देकर कहा जाता है कि एक आदर्श फोन साक्षात्कार की अधिकतम अवधि बीस से तीस मिनट से ज्यादा नहीं होनी चाहिए। हम लोगों ने यह महसूस किया कि सामाजिक-आर्थिक और भौगोलिक बातों से जुड़े बहुत अधिक सवाल पूछने से (जैसे कि संपत्ति के आकलन के लिए घर के चीजों को सूचीबद्ध करना) साक्षात्कार का समय बढ़ जाता है।

5.  आँकड़ों की गुणवत्ता को सुनिश्चित करना 

यह सुनिश्चित करने के लिए कि हम लक्षित उत्तरदाताओं तक पहुँच पा रहे हैं या नहीं हम लोगों ने कुछ और सवालों को जोड़ दिया और अतिरिक्त सत्यापन के लिए साक्षात्कार करने वालों को पूरक सूचनाओं की एक सूची दे दी। इसमें घर/गली का पता या गर्भवती महिलाओं के मामले में उनकी गर्भावस्था के इतिहास से जुड़े सवाल शामिल किए गए, जिनकी जानकारी सिर्फ उन्हें होती है।

सर्वेक्षणकर्ता ने उत्तरदाता से पूछकर यह सुनिश्चित किया कि वह लगातार बात करने में सहज है।

हासिल होने वाले अनुभवों के आधार पर, हमारे सर्वेक्षक उत्तरदाताओं से मिलने वाले गैर-मौखिक संकेतों (अगर फोन स्पीकर पर रखा गया है तब आवाज़ के उतार-चढ़ाव, आसपास की आवाजों या प्रतिध्वनि की पहचान) को समझने में कुशल हो गए।इसके अलावा आँकड़ों की प्रविष्टि में आने वाली त्रुटियों को रोकने के लिए हमने सॉफ़्टवेयर चेक का प्रयोग किया। इसके माध्यम से हमने मोबाइल एप्लिकेशन में प्रतिक्रियाओं के लिए ड्रॉप डाउन मेनू बनाए।

6.  सर्वेक्षक की क्षमता का निर्माण और संवाद के लिए ओपन लाइन की व्यवस्था 

वर्षों के अनुभव के बावजूद, हमारे सर्वेक्षक शुरू में फोन सर्वेक्षणों को लेकर आशंकित थे। अपने लक्ष्यों को पूरा करने की चिंता के अतिरिक्त वे साक्षात्कार के दौरान प्रतिवादी की समझ का आकलन करने और परिवार के सदस्यों के आसपास अधिक संवेदनशील प्रश्न पूछने के बारे में चिंतित थे।

इसे देखते हुए हमारी टीम ने समुदाय के लोगों से बातचीत शुरू करने से पहले साक्षात्कार करने वालों लोगों और स्नेहा कर्मचारियों के साथ मिलकर एक फ़ोन सर्वेक्षण किया था। इसके अलावा, हमने उन्हें याद दिलाया कि फोन सर्वेक्षणों के लिए प्रतिक्रिया दर कम होगी, जिसके कारण दैनिक लक्ष्य निर्धारित करने की प्रथा को हटा दिया गया था।

महामारी के दौरान अपने अनुभव के आधार पर, हम स्वयंसेवकों, स्वास्थ्य प्रणालियों के कर्मचारियों और सामुदायिक नेताओं जैसे हितधारकों के साथ सर्वेक्षण के लिए दूरस्थ डेटा संग्रह की सलाह देते हैं।

अंत में, हमने साक्षात्कारकर्ताओं को उन संभावित परिदृश्यों से परिचित कराया जिनका वे सामना कर सकते हैं—उदाहरण के लिए, यदि कोई उत्तरदाता उदास लग रहा था या यदि राशन या चिकित्सा सेवाओं के लिए कोई आवश्यकता व्यक्त की गई थी, तो उन्हें उचित रेफरल लिंकेज के बारे में बताया गया था।

महामारी के दौरान अपने अनुभव के आधार पर, हम स्वयंसेवकों, स्वास्थ्य प्रणालियों के कर्मचारियों और सामुदायिक नेताओं जैसे हितधारकों के साथ सर्वेक्षण के लिए दूरस्थ डेटा संग्रह की सलाह देते हैं। यह इस तथ्य को देखते हुए विशेष रूप से सच है कि दूरस्थ कार्य ने हमें लगातार ऑनलाइन डीब्रीफिंग टीम मीटिंग आयोजित करने की अनुमति दी, जहां किसी भी चुनौती का तुरंत समाधान किया गया और सह-शिक्षण संभव बनाया गया।हम जानते हैं कि फोन पर किए जाने वाले सर्वेक्षण कभी भी आमने-सामने बैठकर लिए गए साक्षात्कार की जगह नहीं ले सकते हैं, विशेष रूप से तब जब मानव शरीर या अन्य किस्म के मापों को लेने की जरूरत हो। हालाँकि,  रिमोट डाटा कलेक्शन की अपनी जगह है, और एक क्षेत्र के रूप में हमें इसका अधिक से अधिक उपयोग करने की क्षमता का निर्माण करने की जरूरत है।

इस लेख में व्यक्त किए गए विचार एक निगरानी, मूल्यांकन, जवाबदेही और शिक्षण (एमईएएल) विशेषज्ञ, दो पर्यवेक्षक और ग्यारह सर्वेक्षक सहित स्नेहा में निगरानी और मूल्यांकन टीम के साथ गुणात्मक अन्वेषण (तीन गहन साक्षात्कार और दो फोकस-समूह चर्चा) के माध्यम से प्राप्त जानकारियों पर आधारित हैं। ।

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सफल प्रस्ताव लेखन के तरीके

सामाजिक क्षेत्र में फंडरेजिंग (धन उगाहने) के कई दृष्टिकोण हैं। क्राई, अक्षय पात्र, ग्रीनपीस और यूनिसेफ़ जैसे संगठन खुदरा फंडरेजिंग के पथप्रदर्शक रहे हैं। मिलाप और केटो जैसे नए डिजिटल बिचौलिये भी बाजार में आ चुके हैं। मैजिक बस भारत में फंडरेजर गाला प्रारूप को अपनाने वाला सबसे पहला संगठन है, और दसरा या गिव इंडिया जैसे संगठन उच्च-आय-संपत्ति वाले लोगों (एचएनआई) के लिए विश्वनीय मध्यस्थों के रूप में काम करते हैं।

इसके अलावा एडुकेट गर्ल्स जैसे भी संगठन हैं जो पूरी तरह से संस्थागत फंडरेजिंग पर भरोसा करते हैं। इसके लिए हमें अपने लेख को स्पष्ट करने और विभिन्न प्रकार के संस्थागत फंडों जैसे फाउंडेशन, ट्रस्ट, उद्यम परोपकार, कॉर्पोरेट आदि के लिए आकर्षक प्रस्ताव लिखने की आवश्यकता है। इस तरह की केन्द्रित फंडरेजिंग रणनीति से हमारी लागत कम हो जाती है—हम अपने वार्षिक बजट का एक प्रतिशत से भी कम हिस्सा धन उगाहने पर खर्च करते हैं और हमारे पास धन उगाहने के लिए पाँच सदस्यों वाली एक टीम है।

12 वर्ष पहले जब हमनें शुरू किया था तब हमारा वार्षिक बजट 15 लाख रुपए था और तब से हर 15 से 18 महीने में हमनें इसे लगभग दोगुना किया है। हमारे जैसे कई स्वयंसेवी संस्थानों के लिए इस तरह का विकास एक चुनौती लेकर आता है। क्योंकि हम न केवल पुराने दानकर्ताओं को बनाए रखते हैं बल्कि तेजी से बढ़ते बजट की पूर्ति के लिए नए दानकर्ताओं की खोज में भी लगे रहते हैं। इसलिए धन उगाहने के लिए एक सफल रणनीति बहुत अधिक महत्वपूर्ण है और ऐसी रणनीति में एक अच्छा प्रस्ताव और एक शानदार टीम का समर्थन शामिल है।

सफल प्रस्ताव के तत्व

इतने सालों में हमनें कई ऐसे मुख्य घटकों की पहचान की है जो हमारे सभी प्रस्तावों में शामिल हुए हैं और जो आगे जाकर अनुदान में परिवर्तित हो गए हैं। हमारे अनुभव से हमनें यह जाना है कि किसी प्रस्ताव में कुल चार प्रश्नों के उत्तर मौजूद होने चाहिए।

1. हम किस समस्या का समाधान करने की कोशिश कर रहे हैं?

जब हम किसी नए दानकर्ता से संपर्क करते हैं तब सबसे बड़ी जरूरत उस समस्या के स्पष्टीकरण की होती है जिसे हम सुलझाने का प्रयास कर रहे हैं। अगर आप अपनी आँखें बंद करते हैं तब आपको समस्या और समाधान दोनों दिखने चाहिए। हम लोग इसे ‘सफलता की दृष्टि’ कहते हैं। उदाहरण के लिए जब हम एडुकेट गर्ल्स के मामले में अपनी आँखें बंद करते हैं तब हमें यह दिखता है कि एक छोटी लड़की सुबह 5 बजे से जागकर पानी लाने जाती है, घर का सारा काम करती हैं। वह स्कूल नहीं जाती है। उसकी शादी जल्दी हो गई है और चूंकि उसकी शादी जल्दी हो गई है इसलिए उसके बच्चे भी जल्दी पैदा हो गए हैं। वह शिक्षित नहीं है और उसके बच्चों के भी स्कूल जाने की संभावना बहुत कम है। इसलिए निरक्षरता और गरीबी का अंतर-पीढ़ी चक्र कायम रहता है। सफलता की हमारी दृष्टि बहुत अधिक स्पष्ट है: यह लड़की स्कूल में है, वह स्कूल में रहती है, दोस्त बनाती है, उसके आसपास मदद करने वाले लोग हैं और वह पढ़ना और लिखना सीखती है।

हमें पूछना चाहिए: क्या एक 10–12 साल की उम्र का बच्चा संगठन के इस काम को समझने में सक्षम है?

समस्या को समझने के दौरान हमें खुद से यह सवाल करना चाहिए: क्या 10-12 साल की उम्र का बच्चा संगठन के काम को समझने में सक्षम है? एक क्षेत्र के रूप में हम बहुत अधिक शब्दजाल का इस्तेमाल करते हैं, जिससे लोगों में संशय पैदा हो सकता है। स्पष्टता और सरलता ही मुख्य कुंजी है। 

इसका दूसरा भाग है इस बात पर ज़ोर देना कि इस समस्या को हल करना महत्वपूर्ण क्यों है। व्यक्तिगत स्तर पर इसे स्पष्ट करना और व्यापक प्रभाव की व्याख्या दोनों ही महत्वपूर्ण है। लड़कियों की शिक्षा के लिए, हम लोग कुछ तथ्यों का उपयोग करते हैं: लड़कियों को शिक्षित करने से विकास के 17 सतत लक्ष्यों में से नौ लक्ष्यों को हल करने में मदद मिलती है—कुपोषण से बच्चे और मातृ मृत्यु दर, आजीविका और यहाँ तक कि जलवायु परिवर्तन की लड़ाई भी। हमारे लिए एक मजबूत मामला दोनों ही चीजों की व्याख्या करता है, लड़कियों के शिक्षित होने का व्यक्तिगत अधिकार, और उसके परिवार पर कई स्तरों पर पड़ने वाले इसके प्रभाव, व्यापक समुदाय और यहाँ तक कि राष्ट्रीय जीडीपी भी। हम यह भी बताते हैं कि इस समस्या के समाधान की आवश्यकता क्यों है और इसमें हस्तक्षेप न करने में क्या खतरा है। 

2. हम क्या कर रहे हैं?

एक बार जब आप समस्या और इसे हल करने के कारण को लेकर स्पष्ट हो जाते हैं, उसके बाद अगले चरण में यह बताना होता है कि संगठन इस समस्या को हल करने के लिए क्या कर रहा है। जहां तक हमारी बात है, हम लोग गाँव में स्कूल के बाहर की लड़कियों की पहचान करते हैं, उनका स्कूल में नामांकरण करवाते हैं, सुनिश्चित करते हैं कि उनका स्कूल ‘लड़कियों के अनुकूल’ है (उदाहरण के लिए उनके लिए अलग शौचालय है) और यह भी कि विद्यार्थी सीख रहे हैं और उम्र में बड़ी लड़कियों को जीवन-कौशल का प्रशिक्षण दे रहे हैं। एक अन्य महत्वपूर्ण विचार यह है कि आप अपने मॉडल के लिए साक्ष्य तैयार करें। हमारा अंतिम मूल्यांकन एक तीसरे पक्ष द्वारा किया गया यादृच्छिक नियंत्रित परीक्षण (आरसीटी) था, जिसे अब हम अपने दानकर्ताओं को यह दिखाने के लिए पेश करते हैं कि हमारा मॉडल काम करता है।

बल्बों की एक पंक्ति जिसमें एक बल्ब जला हुआ है_पिक्साबे-फंडरेजिंग प्रपोजल
एक सफल फंडरेजिंग रणनीति में सफल होने वाले प्रस्ताव के साथ प्रधान टीम का समर्थन भी शामिल होता है। | चित्र साभार: पिक्साबे

3. हमारे मुख्य ताकत क्या है?

दानकर्ताओं द्वारा कई प्रस्तावों की समीक्षा करने की संभावना होती है जो अक्सर समान समस्याओं का समाधान करते हैं। यह बताना आवश्यक है कि ‘आप क्यों?’ इस चुनौती के समाधान के लिए आप सही आदमी या सही संगठन क्यों हैं? किसी संगठन या कार्यक्रम की मुख्य ताकत जमीन पर उसका वितरण, उसका नेतृत्व, उसका बोर्ड, प्रौद्योगिकी का उपयोग, और इसी तरह के अन्य तत्व हो सकते हैं। अपनी मजबूती की पहचान करना, उनके बारे में विस्तार से बताना और उनमें निवेश करके उन्हें विकसित करना बहुत महत्वपूर्ण है। और बेशक इसके अलावा प्रस्ताव में इन्हें स्पष्टता से रेखांकित करना भी।

4. इसलिए प्रस्ताव के लिए मुख्य विचार क्या है?

अंत में, ऊपर के सभी बिन्दुओं को एक साथ लाकर आप अपने प्रस्ताव के मुख्य विचार को परिभाषित करें। एडुकेट गर्ल्स के लिए यह कुछ इस तरह का है: हम दो ‘पी’ यानी गरीबी (पोवर्टी) और पितृसत्ता (पेट्रीआर्की) पर ध्यान केन्द्रित करेंगे और स्कूल न जाने वाली लड़कियों की समस्या का समाधान करने के लिए एक साक्ष्य-, आंकड़ा- और तकनीक-आधारित मॉडल लेंगे, जो समुदाय में निहित है। उन्नत विश्लेषिकी के माध्यम से हम लोग भारत के ऐसे पाँच प्रतिशत गांवों की पहचान करेंगे जो सबसे अधिक हाशिये पर हैं और जहां जनसंख्या की 40 प्रतिशत लड़कियां स्कूल नहीं जाती हैं, और हम अपने मॉडल को वहाँ लागू करेंगे।

दानकर्ता से निवेदन करने से पहले यह जानना जरूरी है कि इससे पहले उन्होनें किस तरह की परियोजनाओं में दान किया है।

यहाँ बताए गए चरणों के अतिरिक्त, एक सफल प्रस्ताव के निर्माण में शोध के महत्व को नहीं भूल सकते हैं। एक संभावित दानकर्ता से निवेदन करने से पहले उनके इतिहास, उनके द्वारा निवेश किए गए कार्यक्रमों और परियोजनाओं के प्रकार, परियोजनाओं के आकार और उनके निवेश की अवधि, उनकी भौगोलिक और क्षेत्रीय पसंद आदि के बारे में जानकारी हासिल करना महत्वपूर्ण है। कुछ दानकर्ताओं को अधिकार-आधारित दृष्टिकोणों पर देखा जा सकता है, जबकि अन्य दानकर्ता आपके कार्यक्रम के आर्थिक विकास पर होने वाले नॉक-ऑन प्रभाव में कहीं अधिक रुचि ले सकते हैं। इसके अलावा कुछ अन्य दानकर्ता व्यवस्था-परिवर्तन के नजरिए को अपना सकते हैं। यह जानना महत्वपूर्ण है और इसके अनुसार ही हमें अपना प्रस्ताव तैयार करना चाहिए।

इस तरह के सभी शोध करने के बाद अब आप कोशिश कर सकते हैं और ऐसे दानकर्ता ढूंढ सकते हैं जो सफलता के आपके नजरिए को समझता है और आपके मुख्य उद्देश्य के अनुकूल सोचता है। हमारे लिए इस तरीके के सफल होने का एक कारण यह भी है कि हमारे वर्तमान दानकर्ता अक्सर हमें ऐसे नए दानकर्ताओं से मिलवाते हैं जिनकी सोच हमारे मिशन के अनुकूल होती है।

प्रस्ताव से परे: प्रधान टीम का समर्थन

धन उगाहने का अभ्यास सिर्फ एक अच्छा प्रस्ताव लिख लेना और संगठन के विभिन्न सदस्यों द्वारा अपनी भूमिका निभा लेना नहीं है। यहाँ हम अपने कुछ अनुभव साझा कर रहे हैं:

संस्थापकों पर निर्भर रहें

हमारे पास पांच सदस्यीय धन उगाहने वाली टीम है जो विभिन्न हितधारकों से आंकड़ें एकत्र करने के लिए प्रस्ताव लिखने, शोध करने, बातचीत करने से लेकर हर चीज का ध्यान रखती है। हालाँकि, कोई भी संगठन कितना भी व्यवस्थित या प्रक्रिया-संचालित क्यों न हो, इसके लिए समय-समय पर संस्थापकों पर निर्भर रहना महत्वपूर्ण है।

संस्थापक संगठन के दृष्टिकोण को व्यक्त करने का काम अच्छे ढंग से कर सकते हैं, और दानकर्ता अक्सर संस्थापकों से जुड़ते हैं और आश्वस्त होते हैं। एक अनुमान के अनुसार, हमारे संस्थापक अपना 25 प्रतिशत समय धन उगाहने के काम में लगाते हैं — इसके लिए वे चाहे दानकर्ता से या संस्था के प्रमुख से बात करते हैं या दानकर्ताओं के बोर्ड के सामने अपना प्रस्ताव पेश करते हैं। और चूंकि हमारे कई दानकर्ता कई सालों से हमसे जुड़े हैं इसलिए हमारा उनसे गहरा संबंध है और संस्थापक इन रिश्तों को बनाए रखने में सक्रिय भूमिका निभाते हैं।

बोर्ड पर भरोसा करें

प्रस्ताव भेजने और उनकी तरफ से फोन आने का इंतजार करने के बजाय हम हमेशा एक दानकर्ता के सामने गर्मजोशी के साथ अपना परिचय देना पसंद करते हैं। हम किसी संस्था तक पहुँचने के लिए अपने बोर्ड, अपने सलाहकार परिषद और अपने वर्तमान दानकर्ताओं के ऊपर भरोसा करते हैं—ज़रूरी नहीं है कि हमारे बारे में सकारात्मक बातें करें बल्कि कोष जुटाने से संबंधित हमारी कोशिशों को लेकर किसी विचार पर चर्चा भी हो सकती है।

यही वह जगह है जहां बोर्ड की भूमिका वास्तव में महत्वपूर्ण हो जाती है। जो एडुकेट गर्ल्स में अक्सर धन उगाहने में सक्रिय भूमिका निभाने पर ज़ोर देते हैं, चाहे वह गर्मजोशी से अपना परिचय देना हो या फोन करके हमारी मदद करनी हो और दानकर्ताओं से पूछे जाने वाले सवालों का जवाब देना हो। यह महत्वपूर्ण है कि बोर्ड के निर्माण के समय धन उगाहने की उम्मीद की बात स्पष्ट कर दी जाए। संभव है कि आप अपने बोर्ड में किसी दानकर्ता को न रखना चाहें लेकिन आपको लोगों के ऐसे संतुलन की जरूरत पड़ेगी जो अपने अनुभव के माध्यम से विश्वसनीयता प्रदान करते हैं (चाहे वह अकादमिक, सरकारी, वित्तीय या कुछ और ही हो)। ऐसे लोग जो संभावित दानकर्ताओं के अपने नेटवर्क को खोलें, और जो आपकी जगह लेकर आत्मविश्वास के साथ आपकी बात कह सकें। भले ही उनके पास अपना नेटवर्क न हो, उनके पास उद्देश्य के लिए जुनून होना चाहिए, संगठन के बारे में गहरा ज्ञान और एक तरह की वरिष्ठता होनी चाहिए जो इसके प्रभाव से उत्पन्न होती है।

धन उगाहने वाली टीम का निर्माण: मिशन संरेखण बनाम कौशल का सेट

हम हमेशा मिशन संरेखण पर निर्भर रहते हैं—कोई ऐसा आदमी जो आपके मिशन को लेकर जुनूनी हो, जो जुनून के साथ संवाद कर सके, और रिश्ते बनाने वाला हो और लोगों का आदमी हो। आप किसी ऐसे आदमी को चाहते हैं जो आपकी बात अच्छे से रख सके, नेतृत्व करे और तार्किक बातचीत का निर्माण करे। बाकी का हिस्सा अँग्रेजी है; आप एक ऐसे आदमी को ढूँढ ही लेंगे जो अच्छी अँग्रेजी लिखता है। महत्वपूर्ण यह है कि आप अपने मिशन और उस प्रभाव के प्रति प्रामाणिक हों, जिसके पीछे आप भाग रहे हैं—भाषा की निखार, चार्ट और ग्राफ साथ में आ जाएंगे।

अंतत:, धन उगाहना आपके काम और दुनिया में आपके द्वारा लाए गए बदलाव के बारे में है। अगर कार्यक्रम जमीनी स्तर पर पर्याप्त प्रभाव नहीं डाल रहा है तो एक अच्छी रणनीति और धन उगाहने वाली टीम को धन उगाहने के लिए संघर्षरत रहना पड़ेगा। हालांकि धन उगाहने के लिए सही दृष्टिकोण या सफलता की स्पष्ट दृष्टि के अभाव में प्रभावशाली कार्यों को अनदेखा भी किया जा सकता है। 

चर्चा 2020 में, महर्षि और सफीना ने इस बारे में बात की कि कैसे एक सामाजिक प्रभाव के विचार को एक सफल प्रस्ताव बनाया जा सकता है

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अनौपचारिक कर्मचारियों की मदद के लिए बनाई गई सरकारी योजनाओं में खामियाँ

भारत सरकार ने देश में 38 करोड़ असंगठित श्रमिकों को पंजीकृत करने के अधिदेश के साथ ई-श्रम पोर्टल लॉंच किया था। इस पोर्टल का उद्देश्य पंजीकरण के बाद ई-श्रम कार्ड (ओर श्रमिक कार्ड) जारी करके सामाजिक कल्याण और रोजगार लाभ तक पहुँचने में आने वाली बाधाओं को दूर करना है ताकि असंगठित श्रमिक भी इन सरकारी योजनाओं का लाभ उठा सकें। इस कार्ड के जरिये हर श्रमिक को एक अनोखी 12 अंकीय संख्या मिलती है जो सामाजिक सुरक्षा और रोजगार के लाभों तक की उनकी पहुँच को सक्षम बनाती है। सरकार की योजना यह है कि वह पोर्टल के माध्यम से एकत्र किए गए आंकड़े (डाटा) का उपयोग करके देश का पहला आधार-सीडेड असंगठित कामगारों का राष्ट्रीय डाटाबेस (एनडीयूडबल्यू) बनाएगी।

यह अपने तरह की एक अनूठी पहल है जिसका स्वागत किया जाना चाहिए क्योंकि इससे सभी असंगठित श्रमिक व्यवस्थित रूप से एक जगह आ जाएंगे। ‘श्रमिक’ शब्द की परिभाषा के दायरे का विस्तार करके यह बाहर रखे गए घरेलू और प्रवासी श्रमिकों की पूर्ववर्ती श्रेणियों को शामिल करने का काम करता है। इस पोर्टल पर ऑनलाइन और ऑफलाइन दोनों ही तरीके से पंजीकरण की सुविधा उपलब्ध है। हालांकि, जैसा नीचे बताया गया है, श्रमिकों के इस डिजिटल पोर्टल के इस्तेमाल के असफल प्रयासों ने गैर-डिजिटल ढांचे की महत्ता को रेखांकित किया है। यह गरीब और हाशिये पर जी रहे असंगठित श्रमिकों के लिए डिजिटल हस्तक्षेप की पहुँच और इसके प्रभाव को बेहतर करेगा, जिनकी सच्चाई एक डिजिटल विभाजन से प्रभावित है।

इसके अलावा, पोर्टल तक पहुँचने और पंजीकरण का प्रयास करने वाले श्रमिकों की अंतर्दृष्टि नियोक्ताओं, श्रमिक समूहों और नागरिक समाज संगठनों (सीएसओ) के बीच सक्रिय और प्रभावी सहयोग की जरूरत को उजागर करती है। इससे पोर्टल को उन लाभार्थियों तक पहुंचने में मदद मिलेगी जिन तक पहुँचना इसका लक्ष्य है।

डिवाइस और इंटरनेट तक पहुँचने की राह में आने वाली बाधाएँ

नई दिल्ली में काम करने वाले तीन प्रवासी घरेलू श्रमिकों के पंजीकरण की कोशिश की गई जिनमें से दो पश्चिम बंगाल (अमीरा और नूर) से थीं और एक मध्य प्रदेश (रीता देवी) की रहने वाली थी। इनके पंजीकरण की प्रक्रिया ने असमाहित समूह के लोगों को पहुँच, जागरूकता और कल्याण योजनाओं से जुड़े लाभों को पाने की क्षमता में आने वाली बाधाओं पर प्रकाश डाला। खुद को डिजिटल रूप से पंजीकृत करवाने की अमीरा की पहली कोशिश असफल हो गई क्योंकि वह बिना इन्टरनेट वाले अपने कीपैड फोन की मदद से ई-श्रम पोर्टल तक नहीं पहुँच सकती थी। अगली बारी नूर की थी—वह इस वेबसाइट तक इसलिए नहीं पहुँच पाई क्योंकि उसका 2G इंटरनेट वाला मोबाइल फोन इसके लिए अनुकूल नहीं था। और रीता खुद का फोन न होने के कारण अपने परिवार वालों से बात करने के लिए भी अपने नियोक्ता के फोन पर निर्भर है।

मोबाइल नंबर-सीडेड आधार तक पहुंचने में आने वाली बाधाएँ

उसके बाद हमने पंजीकरण के लिए डेस्कटॉप इंटरफेस का उपयोग किया। अमीरा का पंजीकरण फिर भी संभव नहीं हो पाया क्योंकि उसके आधार से जुड़ा मोबाइल नंबर उसके वर्तमान के मोबाइल नंबर से मेल नहीं खाता था। “ट्रेन से दिल्ली आने के दौरान मेरा वह नंबर खो गया जिसे मैं और मेरे पति इस्तेमाल करते थे…एक घरेलू श्रमिक के रूप में मैंने उस नंबर का इस्तेमाल करके किसी भी तरह का लाभ नहीं उठाया जो एक कर्मचारी को मिलता है…मुझे इन लाभों के बारे में मालूम भी नहीं था।” अमीरा ने पहले ऐसे किसी कल्याणकारी योजनाओं का लाभ नहीं उठाया था जिसके लिए मोबाइल-आधार सत्यापन की जरूरत होती है। इसलिए वह सालों तक इस बात से अनजान थी कि उसे अपने आधार से जुड़ा मोबाइल नंबर अपडेट करवाने की जरूरत है। पंजीकरण की इस प्रक्रिया में अमीरा जिस बात से सबसे ज्यादा परेशान और संशय में थी वह यह था कि इस ऑनलाइन पोर्टल पर कहीं उसके आधार का दुरुपयोग न हो जाए। क्योंकि उसे ऐसे किसी पोर्टल के बारे में कोई सूचना नहीं थी। उसने कहा, “इससे बंगाल में मेरे परिवार की पीडीएस पात्रता समाप्त तो नहीं हो जाएगी न?”

नूर और रीता का ऑनलाइन पंजीकरण इसलिए असफल हो गया क्योंकि उनके आधार कार्ड मोबाइल से जुड़े हुए नहीं थे। ऑनलाइन ई-श्रम पोर्टल के लिए मोबाइल नंबर-आधार सत्यापन की जरूरत होती है। इसलिए ये श्रमिक अपने लाभ के लिए डिजिटल हस्तक्षेप का उपयोग करने में असमर्थ थे।

प्रवासी श्रमिकों की अनिश्चितता उनके आधार अपडेट करने की प्रक्रिया के दौरान आने वाली चुनौतियों के कारण प्रबल होती है।

तीनों ही मामलों में, ऑनलाइन पंजीकरण की असफलता आम सेवा केन्द्रों (सीएससी) और ऑनलाइन पंजीकरण के लिए बनाए गए किओस्क पर श्रमिकों के भरोसे की जरूरत पर प्रकाश डालती है। इन केन्द्रों पर श्रमिक ऑनलाइन पंजीकरण के लिए अपने मोबाइल से अपना आधार जोड़ने में मदद हासिल कर सकते हैं। इस प्रकार गैर-डिजिटल ढांचे पर निर्भर करने वाली कल्याणकारी योजनाएँ डिजिटल होने का दावा करती हैं। यह पिछली रिपोर्टों के निष्कर्षों के अनुरूप है जो यह दर्शाता है कि प्रवासी श्रमिकों की अनिश्चितता उनके आधार को अपडेट करने की प्रक्रिया के दौरान आने वाली चुनौतियों के कारण प्रबल होती है। वित्तीय समावेशन पहल करने वाली संस्था चलो नेटवर्क की टीम के साथ बातचीत से हमें यह पता चला कि प्रवासी श्रमिकों को इन बाधाओं का सामना कई कारणों से करना पड़ता है। सबसे पहला कारण यह है कि प्रक्रिया को लेकर बहुत ही सीमित जागरूकता है और दूसरा, इसमें समय और वित्तीय खर्च शामिल है। महामारी के दौरान यह बात विशेष रूप से सामने आई जब श्रमिकों को आधार के अपडेट प्रक्रिया के कारण कल्याणकारी योजनाओं का सीमित लाभ मिल पाया। जिसके कारण सहायता के लिए उनकी निर्भरता गैर-डिजिटल ढांचे पर और बिचौलियों पर हो गई।

ई-श्रम लाभार्थियों के लिए एक समावेशी और अनुकूल पारिस्थितिकी तंत्र का निर्माण

सरकार भारत के आधार-सीड एनडीयूडबल्यू के निर्माण की दिशा में कदम उठा रही है और असंगठित श्रमिकों की कल्याणकारी लाभों तक पहुँच को आसान बनाने का काम कर रही है। लेकिन योजनाओं और लाभार्थियों के बीच अब भी दूरी है और इस दूरी को पाटने का काम बाकी है। इस दूरी को कम करने की जरूरत इसलिए भी है ताकि कल्याणकारी योजनाओं में भारत के उन 90 प्रतिशत असंगठित कार्यबल को शामिल किया जा सके जो हाशिये पर हैं और जिन्हें रोजगार-संबंधी कल्याणकारी योजनाओं का लाभ नहीं मिल पाता है। सरकार और कल्याणकारी पारिस्थितिकी तंत्र को इस समस्या की ओर ध्यान देने की जरूरत है जिसके कारण श्रमिक इस बुनियादी ढांचे का प्रभावी रूप से उपयोग नहीं कर पाते हैं और इन लाभों से वंचित रह जाते हैं। कुछ प्रमुख क्षेत्र निम्नलिखित हैं जिन पर विचार करने की जरूरत है:

1. डिजिटल असमानता को कम करना

भारत के कुल कार्यबल का 92 प्रतिशत हिस्सा असंगठित श्रमिकों का है। भारत में ग्रामीण इलाकों में केवल 4.4 प्रतिशत और शहरी इलाकों में 42 प्रतिशत ही ऐसे घर हैं जहां इंटरनेट की सुविधा उपलब्ध है। और यह अनुपात और कम हो जाता है जब हम इसमें लैंगिक और क्षेत्रीय असमानता को जोड़ते हैं।

इस डिजिटल रूप से असमान परिदृश्य में ई-श्रमिक के जैविक डिजिटल उत्थान की हमारी आशा दूर का सपना जैसा लगती है। हालांकि, पहले से मौजूद गैर-डिजिटल कल्याणकरी ढांचों का उपयोग—कल्याणकरी बोर्ड, उचित मूल्य की दुकानें (एफ़पीएस), सीएससी के एजेंट और सीएसओ—जो जमीनी स्तर पर असंगठित श्रमिकों के साथ काम कर रहे हैं, इसके तेजी और प्रभावशाली उत्थान में योगदान दे सकते हैं।

दो महिलाएं, एक अपने स्मार्टफोन को देख रही है और एक टैबलेट को देख रही है और ऐप का उपयोग कर रही है-ई-श्रम पोर्टल
असंगठित श्रमिकों के प्रभावी डिजिटल हस्तक्षेप के लिए एक मजबूत गैर-डिजिटल ढांचे के समर्थन की आवश्यकता है। | चित्र साभार: © बिल & मेलिंडा गेट्स फ़ाउंडेशन/प्रशांत पंजीयर

2. विश्वास और पहुँच को मजबूत बनाना

इतिहास को देखा जाये तो यह बात सामने आती है कि कई असंगठित श्रमिक राज्यों द्वारा रोजगार संबंधी लाभों के दायरे से बाहर ही रहे हैं। उन्हें पहली बार शामिल किए जाने वाली बात को ध्यान में रखते हुए, पोर्टल पर पंजीकरण के लाभों के बारे में लाभार्थियों और रोजगार पारिस्थितिकी तंत्र के बीच जागरूकता और विश्वास पैदा करने की जरूरत है। अनौपचारिकता न केवल राज्य-कार्यकर्ता संबंधों की बल्कि श्रमिक-नियोक्ता संबंधों की भी एक विशेषता बनी हुई है। इसलिए पहल के गुणों के बारे में श्रमिकों और उनके नियोक्ताओं के बीच विश्वास को सुदृढ़ करना महत्वपूर्ण है। यहां, बहुभाषी पोस्टरों और आवाज-आधारित जागरूकता पहलों के उपयोग के साथ जमीनी जागरूकता अभियान की जरूरत है। ऐसे अभियान विशेष रूप से उन प्रवासियों, महिलाओं और किशोर श्रमिकों को पंजीकरण के लिए प्रोत्साहित करने का काम करेंगे जो वर्तमान में साक्षरता और भाषा की कमी के कारण हाशिए पर हैं

3. गैर-डिजिटल ढांचे को मजबूत करना

असंगठित श्रमिकों के लिए प्रभावी डिजिटल हस्तक्षेप को एक मजबूत गैर-डिजिटल बुनियादी ढांचे द्वारा समर्थित किए जाने की आवश्यकता है। बड़े पैमाने पर प्रभाव पैदा करने के लिए, सरकार को सीएससी और कियोस्क सहित गैर-डिजिटल बुनियादी ढांचे के प्रशिक्षण और क्षमता निर्माण में निवेश करना चाहिए। यह श्रमिकों के लिए पोर्टल का प्रभावी ढंग से उपयोग करने का पहला कदम होगा। इसके अलावा जागरूकता फैलाने और लाभार्थियों तक पहुँच को बढ़ाने के लिए महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा), एकीकृत बाल विकास सेवा (आईसीडीएस) और सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) जैसे अन्य सरकारी हस्तक्षेपों से अंतिम व्यक्ति तक वितरण पहुँचाने वाले एजेंटों के मौजूदा नेटवर्क को पूंजीकृत किया जा सकता है।

4. अपने लाभ के लिए श्रमिकों के स्व-चयन से बचना

ई-श्रम पोर्टल घरेलू और प्रवासी श्रमिकों जैसी श्रेणियों को सामाजिक कल्याण लाभ प्रदान करता है जिन्हें अब तक कल्याणकारी बुनियादी ढांचे से बाहर रखा गया है। यह उन श्रमिकों के बीच अधिकारों के बारे में जागरूकता को बढ़ावा देने के लिए विशेष ध्यान देने की बात करता है जिनके श्रम को नीति और सामाजिक दोनों ही क्षेत्र में बाहर रखा गया है। नीति के दायरे में महिलाओं के घरेलू काम के ऐतिहासिक लिंग आधारित बहिष्करण को ध्यान में रखते हुए अधिकांश घरेलू कामगार अपने अधिकारों और उन हकों से अनजान रहते हैं जिनके वे पात्र हैं। यह स्थिति तब और बदतर हो जाती है जब श्रमिक गंतव्य राज्यों में प्रवासी होते हैं। जहां उनके पास अपने नियोक्ताओं के मुकाबले सीमित सौदेबाजी की शक्ति होती है। इस संदर्भ में, एक सक्रिय जागरूकता अभियान श्रमिकों के आत्म-बहिष्करण से बचने और लाभार्थियों के रूप में समान समावेश को बढ़ावा देने में मदद करेगा।

5. हितधारकों के रूप में नियोक्ताओं और सीएसओ का समावेशन

अंत में, असंगठित क्षेत्र में नियोक्ताओं और कर्मचारियों के बीच अनौपचारिक संबंधों को ध्यान में रखते हुए, सीएसओ, नियोक्ताओं और बिचौलियों जैसे कि केदारों और ठेकेदारों के साथ काम करना महत्वपूर्ण है। इससे एक पारिस्थितिकी तंत्र को सक्षम किया जा सकेगा जो श्रमिकों के लाभ पर केंद्रित होगा। पंजीकरण को प्रोत्साहित करने के लिए नियोक्ताओं को उकसाने से संभावित लाभ हो सकता है। इसके अलावा यह भी बताए जाने की जरूरत है कि असंगठित श्रमिक अपने नियोक्ताओं को बिना किसी तरह का नुकसान पहुंचाए या दंड का भागी बनाए इन लाभ का फायदा उठा सकते हैं। विशेष रूप से, ई-श्रम के साथ सीएसओ एकीकरण को दो तरह से देखा जा सकता है। सबसे पहले, अपने मौजूदा कार्यक्रमों में गैर-सरकारी स्वयंसेवी-आधारित पंजीकरण के माध्यम से श्रमिकों तक पहुंच को सक्षम करके। दूसरा, स्वास्थ्य और शिक्षा के क्षेत्र में पिछले प्रयासों के समान लाभों के प्रभावी वितरण के लिए सीएसओ के साथ भागीदारी करके। प्रभावी जमीनी एकीकरण असंगठित श्रमिकों के लिए कल्याणकारी पारिस्थितिकी तंत्र के सहयोग और मजबूती के लिए एक पथप्रदर्शक स्थान प्रदान कर सकता है।

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विकलांगता के अनुकूल कार्यस्थल का निर्माण: समावेशिता क्यों मायने रखती है

एक समावेशी नेतृत्वकर्ता ‘हम लोग बनाम वे लोग’ के कथन को केंद्र में रखकर काम नहीं करता है। उन्हें कार्यस्थल में अपने और उन लोगों के बीच मौजूद समानताओं पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए जिनसे उनका संवाद स्थापित होता है।

नाइजीरिया की लेखिका चिमामांडा नगोजी अदिची ने अपने प्रसिद्ध भाषण ‘द डेंजर ऑफ ए सिंगल स्टोरी’ में हम लोगों को किसी व्यक्ति के बारे में कही गई इकलौती बात—स्टीरियोटाइप—को लेकर आगाह किया था। अदिची ने ज़ोर देते हुआ कहा कि ऐसा इसलिए नहीं है क्योंकि स्टीरियोटाइप सच नहीं हैं, बल्कि इसलिए है क्योंकि ये अधूरे हैं—“वे एक कहानी को ही कहानी बना देते हैं।” कार्यस्थल पर विकलांग लोगों के साथ होने वाले हमारे संवाद के संदर्भ में यह एक वास्तविकता है। साथ ही जीवन के अन्य पहलुओं के संदर्भ में भी सच है। अदिची के अनुसार इस इकलौती कहानी का परिणाम यह होता है कि यह लोगों की गरिमा को प्रभावित करती है। “यह हमारी समान मानवता की मान्यता को कठिन बना देता है।” मेरे भाई हरी का उदाहरण लेते हैं। उसने नरसी मोंजी इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट स्टडीज के एमबीए कार्यक्रम में पहला स्थान पाया था। उसे दृष्टि दोष है, और उसने अपनी पढ़ाई ऑडियो कैसेट, स्क्रीन रीडर सॉफ्टवेयर और इंटरनेट के माध्यम से पूरी की। लेकिन जब उसके नौकरी की बात आई तब उसके ‘अंधेपन’ के कारण एक भी नियोक्ता उसे काम पर नहीं रखना चाहता था। उसने 70 इंटरव्यू दिये थे। समस्या यह नहीं थी कि इंटरव्यू लेने वाले सभी लोग उसे एक ऐसे आदमी के रूप में देख रहे थे जिसे दृष्टि दोष है, बल्कि समस्या यह थी कि वे लोग उसकी सिर्फ एक ‘कहानी’ को ही देख रहे थे—उसकी विकलांगता। इस स्थिति ने भय और बेचैनी पैदा कर दी और किसी भी दूसरी ऐसी कहानी को बगल कर दिया जिससे उसके साक्षात्कारकर्ताओं को उसके व्यक्तित्व को समझने, इंटरव्यू आयोजित करने और उस्की क्षमता का आकलन करने में मदद मिल सकती थी।

विकलांगता, शिक्षा तक पहुँच की कमी और गरीबी अक्सर एक दूसरे से जुड़े होते हैं।

उन्होनें उसकी असमानताओं पर इतना अधिक ध्यान केन्द्रित कर दिया कि वे समानताओं को देख ही नहीं सके। हरी को क्रिकेट पसंद है, एक ऐसा खेल जिसे पूरे देश में करोड़ो लोग पसंद करते हैं, और यह बातचीत शुरू करने के लिए एक अच्छा विषय हो सकता था। और उन लोगों में कुछ लोग सिर्फ इतना कह सकते थे कि, “नमस्ते, मैं आज तक किसी भी दृष्टि बाधित आदमी से नहीं मिला हूँ। मैं आपका इंटरव्यू कैसे कर सकता हूँ?”

एनेबल इंडिया का समावेशिता का विचार—सभी को शामिल करने की योग्यता—इस और इस जैसे कई अनुभवों से निकलकर आया है जो विभिन्न संगठनों के नेतृत्वकर्ताओं, प्रबन्धकों और कर्मचारियों से मुझे हासिल हुआ। मैंने महसूस किया कि मतभेदों के बारे में जागरूकता समावेशिता के लिए बाधा नहीं है। सबसे बड़ी बाधा इस बात की अयोग्यता है कि बातचीत के लिए एक आम जगह का निर्माण नहीं हो पाता है जिसके लिए रणनीतिक योजना और निर्माण योग्यता की जरूरत होती है। 

समावेशनीयता का गुणक क्या है?

एक समावेशी नेता बनने के लिए जिसे हम समावेशिता गुणक कहते हैं (IncQ), को विकसित करने की जरूरत होती है—नेताओं के लिए एक सक्षमता ढांचा कि कैसे अपने संगठन में विविध लोगों को शामिल किया जाए। उच्च IncQ वाला एक नेता अपने टीम के सदस्यों से अधिकतम योगदान हासिल कर लेता है और तीन मुख्य सिद्धांतों द्वारा निर्देशित होता है: 

1. परिदृश्य को आंतरिक बनाना 

एक समावेशी नेता जानता है कि सभी लोग एक ही जगह से नहीं आते है और न ही सबके पास एक ही तरह की विशेष सुविधा होती है। वे उन व्यवस्थागत बाधाओं से परिचित होते हैं जो विभिन्न लिंगों, वर्गों या योग्यताओं वाले लोगों के बीच के संवाद पर हावी होता है। वे यह भी जानते हैं कि कैसे ये बाधाएँ एक दूसरे को काटती हैं और फिर इन बाधाओं को दूर करने के लिए सक्रिय रूप से रणनीतियों की योजना बनाते हैं।

उदाहरण के लिए, विकलांगता, शिक्षा तक पहुँच और गरीबी अक्सर एक दूसरे से जुड़े होते हैं। इससे निजात पाने के लिए हम लोगों ने बहुराष्ट्रीय कंपनियों में काम करने वाले उन नेतृत्वकर्ताओं से बात की जिनके साथ हम लोगों ने काम किया था। हमने उनसे उन विकलांग लोगों को काम पर नियुक्त करने की गुजारिश की जिन्के पास डिप्लोमा की डिग्री थी—ऐसे पदों के लिए जिनके लिए स्नातक के डिग्री की जरूरत होती है। नेताओं ने उन्हें नियुक्त करने का सही फैसला लिया और साथ ही इस परिदृश्य के साथ आने वाली असमानताओं से निबटने के लिए एक स्तर वाले क्षेत्र मुहैया करवाए। अगला चरण इन कर्मचारियों को छात्रवृति प्रदान करना था ताकि वे अपने स्नातक की पढ़ाई पूरी कर सकें। इसी तरह से, सूचना तकनीक (आईटी) क्षेत्र में काम करने वाली ऐसी बहुत सारी कंपनियाँ हैं जो विकलांग लोगों को आसानी से कार्यस्थल पर पहुँचने के लिए संशोधित दो पहिये वाहन खरीदने के लिए उधार देती है। यहाँ दिये गए प्रत्येक उदाहरण में, नेतृत्वकर्ताओं ने ‘बहाने’ से आगे बढ़कर एक स्तर वाले क्षेत्र के निर्माण के लिए अपनी क्षमता का उपयोग किया है।

2. असमानताओं को सामान्य बनाना 

असमानताओं से परे जाने के लिए एक नेतृत्वकर्ता को अपने और उस आदमी के बीच की समानता पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए जिससे वे बात कर रहे हैं। एक समावेशी नेतृत्वकर्ता ‘हम लोग बनाम वे लोग’ के कथन को केंद्र में रखकर काम नहीं करता है। वे उचित भाषा और संवाद को शुरू करने वाली बातों का उपयोग करके संवाद को आसान बनाने की सक्रिय कोशिश करते हैं। हालांकि सभी अन्य बातचीत की तरह ही असमनताओं का यह सामान्यीकरण भी दो-तरफ़ी प्रक्रिया है। विकलांग कर्मचारियों को खुद की वकालत करने वाले माध्यमों और तरीकों (सेल्फ-एडवोकेसी टूल) को अपनाना होगा जो उन्हें उनकी विकलांगता से अलग और परे जाकर उनकी पहचान बनाने में मदद करे। इन तरीकों में शौक़, विशेषताएँ और ऐसी इच्छाएँ शामिल हो सकती हैं जो बदलाव के लिए चिंगारी का काम करें। 

हर आदमी में विकास की क्षमता होती है। एक नेतृत्वकर्ता और प्रबन्धक के रूप में यह हमारी क्षमता की कमी को दर्शाता है कि अक्सर हम इस बात को भूल जाते हैं।

उदाहरण के लिए, जब एक नेतृत्वकर्ता अजय* से मिले, 38 वर्षीय एक ऐसा व्यक्ति जो बौद्धिक विकलांगता से ग्रस्त है और एक शब्दांश में ही बात करता है, इस स्थिति में नेतृत्वकर्ता को यह मालूम नहीं था कि उन्हें क्या कहना है। हालांकि जब अजय ने उन्हें एक ऐसा कार्ड दिया जिसमें उसने खुद को एक क्रिकेट प्रेमी और मिस्टर डिपेंडेबल के रूप में दर्शाया तब नेतृत्वकर्ता ने उससे क्रिकेट के बारे में पूछना शुरू कर दिया। इस विषय के साथ अजय धीरे-धीरे खुलना शुरू हुआ और उसने कुछ वाक्य बोले। नेतृत्वकर्ता अब उसके व्यक्तित्व के बारे में जान सकते थे, जो उस स्थिति में शायद संभव नहीं होता अगर वह ‘बौद्धिक विकलांगता’ शब्द को अपने दिमाग में लेकर चलते। 

एक दूसरे मामले में, एक प्रबन्धक को अपने इंटर्न्स को अमरीकी लहजे में विषय से संबंधित वीडियो से परिचित करवाना था। इसके लिए उन्होने सबसे पहले उसी तरह की सामग्री को भारतीय लहजे में बने वीडियो के माध्यम से दिखाना शुरू किया ताकि बाद में अमरीकी लहजे वाला वीडियो देखना उसके उन इंटर्न के लिए आसान हो जाए जिनके लिए एक गैर-भारतीय लहजा कठिन हो सकता है। यह एक सीखने वाले लोगों को केंद्र में रखकर उठाया गया कदम था जो विभिन्न पृष्ठभूमि से आने वाले लोगों के लिए कारगर साबित हुआ। 

3. बदलती हुई उम्मीदें 

हर आदमी में विकास की क्षमता होती है। हर आदमी में विकास की क्षमता होती है। एक नेतृत्वकर्ता और प्रबन्धक के रूप में यह हमारी क्षमता की कमी को दर्शाता है कि अक्सर हम इस बात को भूल जाते हैं। एक समावेशी नेतृत्वकर्ता एक सराहनात्मक पूछताछ (AI) का उपयोग करता है जो मूल्यांकन का एक ऐसा तरीका है जो कर्मचारियों की कमजोरियों के बजाय उनके ताकत पर केन्द्रित होता है। यह सभी तरह की पृष्ठभूमियों से आए कर्मचारियों पर समान रूप से लागू होता है—चाहे वह आदमी विकलांग हो या नहीं। और यह इस विश्वास के साथ किया जाता है कि आप जिस चीज पर केन्द्रित होंगे वह चीज विकसित होगी। 

जब भी कोई नया कर्मचारी टीम में आता है तब नेतृत्वकर्ता उसके मजबूत पक्ष के बारे में जानता है और उनके द्वारा सामना किए जाने वाली व्यवस्थतात्मक बाधाओं के बारे में समझता है। यहाँ से वे दोनों सह-निर्माण समाधानों की तरफ बढ़ सकते हैं। एक बार जब यह काम पूरा हो जाता है उसके बाद कर्मचारी की क्षमताओं पर ध्यान केन्द्रित करते हुए उन सीमाओं को आगे बढ़ाये जाने की जरूरत है। 

विविध जातीय पहचान, विकलांगता और उम्र वाले लोग-विकलांगता कार्यस्थल
विकलांग कर्मचारियों को खुद की वकालत करने वाले माध्यमों और तरीकों (सेल्फ-एडवोकेसी टूल) को अपनाना होगा जो उन्हें उनकी विकलांगता से अलग और परे जाकर उनकी पहचान बनाने में उनकी मदद करे। | चित्र साभार: फ्लिकर

उदाहरण के लिए एक ऐसे एमएनसी का मामला देखते हैं जिसने इंटेर्नशीप के लिए बौद्धिक विकलांगता वाले एक आदमी को नियुक्त किया। शुरुआत के दिनों में वह इंटर्न ज़्यादातर अपने प्रबन्धकों और उस सहकर्मी से ही बातचीत करता था जिसे उसका दोस्त (बडी) नियुक्त किया गया था। समय के साथ उस इंटर्न को प्रेजेंटेशन में शामिल होने के लिए कहा गया, जिससे उसकी रुचि खुद से प्रेजेंटेशन देने में बढ़ गई। एमएनसी की रणनीति यह थी कि वह उस इंटर्न को उसकी पसंद के किसी भी विषय पर एक छोटे समूह के सामने बोलने के योग्य बना सके। दूसरे चरण में प्रबंधन ने उस इंटर्न को अपनी तरफ से एक विषय दिया जिसपर उसे बोलना था। और अंत में इंटर्न को एक औपचारिक प्रेजेंटेशन तैयार करने के लिए कहा गया जिसे एक बड़े समूह के सामने पेश करना था। 

मीटर को धीरे धीरे बढ़ाने की एमएनसी की इस प्रक्रिया ने इंटर्न को लोगों के सामने बोलने का साहस हासिल करने में मदद की और साथ ही बातचीत से तकनीकी ज्ञान हासिल करने में भी मददगार साबित हुई।

इस तरह के हस्तक्षेप से कर्मचारियों को न केवल उनके तात्कालिक नौकरी में मदद मिलती है बल्कि आगे उनके करियर में भी सहायता प्रदान होती है। इसके अलावा, इस तरह की प्रक्रिया को तैयार करने के लिए पर्यपात कौशल वाला कोई नेतृत्वकर्ता समाज के विभिन्न पहलुओं से आने वाले टीम के सदस्यों के साथ काम करने के लिए विश्वास एकत्रित करता है। 

स्वयंसेवी संस्थाओं के लिए सबक

ये सभी चीजें सबसे अधिक इच्छुक नेतृत्वकर्ताओं और प्रबन्धकों के लिए सीखना आसान नहीं है—इसलिए नहीं क्योंकि वे इसमें अपना समय नहीं लगाना चाहते हैं बल्कि इसलिए क्योंकि अक्सर उनके पास ऐसी कोई भाषा नहीं होती है जिसके इस्तेमाल से वे किसी अपने से अलग आदमी से मिलने पर उनके साथ अपने अपराधबोध, अपनी चिंताओं और असहजताओं के बारे में बात कर सकें। 

उस समान भाषा को खोजने के लिए पहले एक नेता और सहयोगी को स्व-समावेशी होने की जरूरत होती है। इसमें अपनी जगह के बारे में जागरूकता प्राप्त करके अपने बारे में सहज महसूस करना शामिल है, जो उन कठिनाइयों के साथ आता है। इसमें अपनी समस्याओं और चिंताओं के बारे में खुलकर बोलने की योग्यता शामिल है—चाहे वह समस्या निजी हो या पेशेवर। एक कार्यस्थल वास्तविक अर्थों में तभी समावेशी हो सकता है। 

संगठनों के साथ काम करने वाले सूत्रधारों के रूप में हमारा काम विभिन्न स्तरों पर इन बातचीत के लिए जगह बनाना है। इसके लिए हमें संगठन बनाने वाले विभिन्न तत्वों की एक सूक्ष्म समझ बनाने की जरूरत होती है—तभी हम उपकरण, विधियों और रणनीतियों के साथ सामने आ सकते हैं। यहाँ वर्षों में हासिल किए कुछ अनुभव के बारे में बता रही हूँ:

1. एक समावेशी कार्यस्थल का अर्थ नेतृत्वकर्ता से अधिक होता है 

जहां समावेशी कार्यस्थल बनाने के लिए नेतृत्वकर्ताओं से बात करना और उन्हें शिक्षित करना एक आवश्यक काम है वहीं इस विचार का पूरे संगठन में समान रूप से प्रवाह भी उतना ही महत्वपूर्ण है। विभिन्न स्तरों पर उस बदलाव को लागू करने के लिए नेतृत्व की भूमिका एक लागूकर्ता के रूप में होनी चाहिए। इसमें ऐसे व्यक्ति शामिल हैं जो एक विकलांग सहकर्मी की जरूरतों के साथ सहज हैं और उनकी जरूरतों को समझते हैं। साथ ही विकलांग लोगों को अपनी विकलांगता से परे जाकर अपनी दूसरी पहचान बनाने में सक्षम होना होगा। 

2. ‘पीसटाइम’ बातचीत दूर तक जाती है

हम लोगों ने देखा है कि विकलांग और शारीरिक रूप से स्वस्थ कर्मचारियों के बीच उपयोगी बातचीत उस समय होती है जब वे इसे ‘पीसटाइम’ में करते हैं—एक अनौपचारिक, बिना काम वाले माहौल में। उदाहरण के लिए, एक शारीरिक रूप से स्वस्थ आदमी स्कूल में जब किसी विकलांग आदमी के साथ पढ़ाई करता है या वे दोनों एक साथ स्वयंसेवक के रुप में काम करते हैं तो ऐसा संभव है कि वे विकलांगता और योग्यता की सोच से परे जाकर एक टिकाऊ संबंध बनाने में सक्षम हों। पीसटाइम ऐसे अवसर देता है जहां एक दूसरे को जानने और स्वीकार करने की प्रक्रिया सही तरीके से होती है।

3. सूत्रधारों को आत्म-निरीक्षण करते रहने की जरूरत है

विकलांगों के बारे में बातचीत में भेद्यता की जगह की मांग होती है। यह विकलांगों, विकलांगों के साथ काम करने वाले स्वयंसेवी सूत्रधारों और नेतृत्वकर्ताओं के संपर्क बिन्दु पर भाग लेने वाले सहभागियों के लिए भी सच है। संबंध बनाना, एक-दूसरे का ध्यान रखना और एक दूसरे के लिए सुरक्षात्मक बनना आसान है। हालांकि एक सूत्रधार के रूप में हमें अपने उन कामों के प्रति सावधान रहना चाहिए जो इस तरह की भावनाओं से पैदा होते हैं। 

हमारी सुविचारित सुरक्षा एक व्यक्ति की अपनी सीमाओं को आगे बढ़ाने और रोजगार की प्रतिस्पर्धी दुनिया के लिए तैयार करने में सक्षम होने के रास्ते में खड़ी हो सकती है। 

यह एक अधिक समतामूलक दुनिया के निर्माण के हमारे अपने विचार से एक भटकाव है। इसलिए हमें लगातार अपनी गतिविधियों का मूल्यांकन करने की जरूरत है। क्योंकि अदिची के शब्दों में वह समतामूलक दुनिया—‘एक प्रकार का स्वर्ग’—हमारे अपराधबोध या दया से नहीं उभरेगा बल्कि व्यक्ति विशेष के एकल कथन को अस्वीकार करने से तैयार होगा। 

*गोपनीयता बनाए रखने के लिए नामों को बदल दिया गया है।

गायत्री गुलवाड़ी से मिले सहयोग के साथ। 

लोचदार आजीविका निर्माण पर सबक और दृष्टि को उजागर करने वाली 14-भाग वाली शृंखला में यह पांचवां लेख है। लाईवलीहूड्स फॉर ऑल, आईकेईए फ़ाउंडेशन के साथ साझेदारी में दक्षिण एशिया में अशोक के लिए रणनीतिक केंद्र बिन्दु वाले क्षेत्रों में से एक है।

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लोगों को टैक्स में राहत दिलवाने वाली क्राउडफंडिंग पर एक टिप्पणी

धन उगाहने के लिए क्राउडफंडिंग का तरीका बहुत ही लोकप्रिय बन गया है। विशेष रूप से पिछले एक साल के दौरान कोविड-19 को लेकर अपना दान देने वाले ज़्यादातर लोगों ने इसी तरीके का प्रयोग किया है। हालांकि ऐसा करने वाले लोगों को कर निहितार्थ और क़ानूनों के बारे में पता होना चाहिए ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि उगाहे गए धन का अधिकतम हिस्सा उसी उद्देश्य के लिए खर्च किया जा रहा है जिस उद्देश्य के लिए उसे इकट्ठा किया गया है। साथ ही इस प्रक्रिया में कानून का उल्लंघन नहीं किया जा रहा है। यह बात धन उगाहने वाले और दान देने वाले दोनों के लिए ही समान रूप से महत्वपूर्ण है। 

आपने कुछ महीने पहले राणा अय्यूब और सोनू सूद के बारे में पढ़ा होगा कि वे क्राउडफंडिंग मंचों के माध्यम से एकत्र किए गए दान की राशि के कारण कर विभाग के अधिकारियों की नजरों में आ गए और उन्हें इनसे जुड़ी परेशानियों का सामना करना पड़ा। इन दो उदाहरणों में उन लोगों के लिए कुछ ज्ञान की बातें हैं जो क्राउडफंडिंग के मंचों के उपयोग की योजना बना रहे हैं और वैसे दानकर्ता जो इस प्रकार का अनुदान करते हैं। इन्हें आमतौर पर निम्नलिखित वर्गों में बांटा जा सकता है:

क्राउडफंडिंग मंचों पर जुटाए गए धन पर कर-निर्धारण 

राणा अय्यूब ने दान में 2.7 करोड़ रुपए जमा किए थे, और उन्हें इस धन के एवज में 90 लाख रुपए की धनराशि कर के रूप में देनी पड़ी। इस तरह देखा जाये तो लोगों द्वारा दान में दी गई राशि का एक हिस्सा कर भुगतान में चला गया न कि निहित उद्देश्य की पूर्ति में।

फूलों की धून्धली पृष्ठभूमि के साथ एक हाथ से दूसरे हाथ में दस रुपए के एक नोट का आदान-प्रदान किया जा रहा है-क्राउडफंडिंग टैक्स
प्राप्तकर्ता को प्राप्त होने वाली राशि पर आयकर का भुगतान भी करना पड़ सकता है। | चित्र साभार: फ्लिकर

व्यक्तिगत तौर पर धन उगाहने वाले प्रत्येक व्यक्ति को यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि अगर आप दान में मिलने वाली धनराशि को अपने बैंक खाते में इकट्ठा करते हैं तब आपको उस धनराशि पर आयकर का भुगतान भी करना पड़ेगा। साथ ही सबसे पहले आपके बैंक खाते में आने वाले धन पर आयकर विभाग की कड़ी नजर भी रहेगी। इसके आगे, जब आप यह धनराशि प्राप्तकर्ता को देते हैं तब उन्हें प्राप्त किए गए इस पैसे पर आयकर का भुगतान करना पड़ सकता है। इस पूरी प्रक्रिया में दान देना एक दोगुने कर-निर्धारण का विषय बन जाता है।

इसे तीन मॉडलों के माध्यम से विस्तार से समझा जा सकता है।

क्राउडफंडिंग के लिए कराधान के विभिन्न परिदृश्यों का विवरण देने वाली टेबल

स्थिति 1: जब कोई व्यक्ति किसी अन्य संगठन या व्यक्ति के बदले उगाही गई धनराशि को अपने बैंक खाते में एकत्र करता है और फिर उस पैसे को उन्हें देता है—यह स्थिति सबसे बुरी होती है।

स्थिति 2 में कर के प्रभाव को एक हद तक कम किया जा सकता है, जहां धन उगाहने वाले अभियानकर्ता अभियान चलाते हैं और दानकर्ता दान की धनराशि को सीधे प्राप्तकर्ता संगठन/व्यक्ति विशेष को देता है (इस मामले में 34 प्रतिशत वाला आय का पहला स्तर लागू नहीं होता है)। इस स्थिति के दूसरे रूप में, धन एकत्र करने वाला क्राउडफंडिंग का मंच प्राप्त धन को संगठन को हस्तानांतरित करता है, इस मामले में भी फिर से पहले स्तर पर कर का नुकसान नहीं होता है। ज़्यादातर क्राउडफंडिंग मंच ऐसा ही करते हैं। लेकिन यह हमेशा इस आधार पर संभव नहीं हो सकता है कि धन को किस लिए जुटाया गया है—शायद इस धन को बच्चों की शिक्षा, आवारा कुत्तों की देखभाल आदि के उद्देश्य के लिए एकत्रित किया गया हो सकता है। 

इस समस्या को टालने का एक आसान तरीका एक स्वयंसेवी संस्था को ढूँढना है जो उस क्षेत्र में काम करती है जिसके लिए आप घन इकट्ठा करना चाहते हैं, जैसा कि स्थिति 3 में बताया गया है। मान लेते हैं कि उस स्वयंसेवी संस्था को 12A और 80G के तहत कर पर छूट प्राप्त है, इस मॉडल के दो फायदे हैं: 

इससे भी अधिक, इसका एक और बड़ा फायदा है—दानकर्ताओं को उनके दान की राशि पर 50 प्रतिशत तक का कर-राहत मिलता है। इसका मतलब यह है कि अगर आप 10,000 रुपए दान में देते हैं तब आप अपनी कुल कर योग्य आय को 5,000 रुपए तक कम कर सकते हैं। इसका अर्थ यह भी है कि यदि आप 30 प्रतिशत के उच्चतम कर दायरे में हैं तो आपकी देनदारी 1,500 रुपए कम हो जाएगी। 

दाता के लिए कर बचत और प्राप्तकर्ताओं के लिए अधिक राशि देने वाले और प्राप्त करने वाले दोनों के लिए ही सर्वश्रेष्ठ स्थिति होती है। और एक फंड उगाहने वाले के रूप में आपका उद्देश्य यही होना चाहिए। 

एफ़सीआरए दान के आसपास विनियमन 

एक बात जिसे ध्यान में रखने की जरूरत है वह यह है कि धन उगाहने वाले एक व्यक्ति के रूप में आपके पास ऐसे किसी भी विदेशी नागरिक से दान लेने की अनुमति नहीं है जिसके पास एफ़सीआरए प्रमाणपत्र नहीं है। एफ़सीआरए गृह मंत्रालय द्वारा लागू किया गया एक कानून है जो भारत में आने वाले विदेशी योगदान या दान की राशि को नियंत्रित करता है। इसलिए धन उगाहने के क्रम में, आपको यह सुनिश्चित करना चाहिए कि आपके द्वारा चुना गया क्राउडफंडिंग का मंच आपके अभियान में किसी विदेशी नागरिक से दान नहीं ले रहा है। 

धन उगाहने के दौरान ध्यान में रखने योग्य बातें

क्राउडफंडिंग मंचों पर धन उगाहने वालों को योगदान देते समय ध्यान में रखने वाली कुछ बातें

क्राउडफंडिंग मंचों के माध्यम से धन उगाहने के काम को चला सकने का एक उदाहरण: आईआईएम अहमदाबाद के मेरे सहपाठियों ने हाल ही में हमारे एक सहपाठी के परिवार के एक दिवंगत सदस्य के लिए फंड एकत्रित किया था। क्राउडसोर्सिंग मंच पर धन उगाहने में शामिल बारीकियों को देखते हुए हम लोगों ने धन को दो भागों में उगाहने का चुनाव किया। हम लोगों ने भारतीय नागरिकों को इंडिया केयर्स के माध्यम से दान देने के लिए कहा। चूंकि यह एक स्वयंसेवी संस्था है, इसलिए इसके प्राप्तकर्ताओं को कर का भुगतान नहीं करना पड़ा था, और इससे हम सभी दानकर्ताओं को 80G के तहत मिलने वाले कर-राहत की सुविधा भी मिली। हमारे कई सहपाठी जो अब विदेशी नागरिक हो चुके हैं, उनके लिए हम लोगों ने एक अन्य स्वयंसेवी संस्था का उपयोग किया—जिसके पास एफ़सीआरए प्रमाणपत्र था—ताकि हम अंतर्राष्ट्रीय धन ले सकें और अमरीका में उन्हें कर से राहत मिल सके। धन उगाहने वाले इस दोहरे दृष्टिकोण से हमें भारतीयों और विदेशी दोनों दानकर्ताओं के लिए इस प्रक्रिया को अनुकूलित बनाने में मदद मिली। क्राउडफंडिंग मंच विभिन्न उद्देश्यों के लिए धन उगाहने के एक अच्छे तरीके के रूप में उभर कर आया है। कई बार हम लोग उनके द्वारा लगाए गए 5–10 प्रतिशत शुल्क को लेकर सोच में पड़ जाते हैं। लेकिन हम यह भूल जाते हैं कि गलत तरीके से धन उगाहने के कारण कुल जमा हुई राशि का 30 प्रतिशत से अधिक हिस्सा जरूरतमंद तक नहीं पहुँच पाता है। इसलिए धन उगाहने का काम करें लेकिन बुद्धिमानी से। 

इस लेख को स्वयंसेवी संस्थाओं के लोगों के लिए विशेष रूप से संपादित किया गया है। इस लेख का मूल संस्करण 19 अक्तूबर 2021 को हिन्दू बिजनेसलाइन में प्रकाशित हुआ था। 

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स्वयंसेवी संस्थाओं में मानवाधिकार से जुड़े कामों के लिए वित्तपोषण

पिछले दशक में भारत में सामाजिक क्षेत्र ने वित्तपोषण के मामले में अचानक से आए एक बदलाव का अनुभव किया। जहां इसमें कोविड-19 ने नए आयाम जोड़े वहीं इसके आगमन के पहले से ही अन्य कारकों ने अपनी भूमिकाएँ निभानी शुरू कर दी थीं, और स्वयंसेवी संस्थानों और कार्यान्वयन संगठनों को इस लगातार बदलते परिदृश्य में समायोजित करना पड़ रहा था। पिछले कुछ सालों में विदेश से आने वाले धन की निश्चितता में कमी आई है और वित्तपोषण के शब्दकोश में कुछ नई शब्दावलियाँ जुड़ी हैं (‘इम्पैक्ट इन्वेस्टिंग’, ‘पी2पी’, ‘क्राउडफंडिंग’, ‘हैकेथोंस’)। शायद सबसे जरूरी बात यह है कि सीएसआर निवेश ने सेवा वितरण के पक्ष में धन को हटा दिया है, खास कर उनके लिए जो वार्षिक ‘प्रोजेक्ट’ मोड में शिक्षा और स्वास्थ्य पर काम कर रहे हैं।

जहां सामाजिक बदलाव को लागू करने वाले सभी लोगों को नए परिदृश्य के साथ तालमेल बैठाने में निवेश करना पड़ रहा है वहीं इसका सबसे अधिक प्रभाव उन संगठनों पर पड़ा है जो सशक्तिकरण के ढांचे के साथ मुख्य रूप से मानव अधिकार के मुद्दों पर काम कर रहे हैं। उनकी स्थिति को और बेहतर तरीके से समझने के लिए हम लोगों ने कार्यान्वयनकर्ताओं, अनुदानकर्ताओं, मध्यवर्ती संस्थाओं और उन शोधकर्ताओं के प्रतिनिधियों से बात की जो काम करते हैं और मानव अधिकार से जुड़े कामों को अपना समर्थन देते हैं। हम लोगों ने उनसे एक सवाल किया: आपने ऐसे फंडरेजिंग और वित्तपोषण की कौन सी रणनीतियों का प्रयोग किया जो सफल रहीं और जिन्होनें जमीन पर आपके काम को जारी रखने में आपकी मदद की?

हम लोगों ने जिन 15 लोगों से बातचीत की वह बाल अधिकार, श्रम अधिकार, लैंगिक न्याय और स्वास्थ्य अधिकार (मानसिक स्वास्थ्य और लैंगिकता सहित) से जुड़े मुद्दों पर काम करते हैं। यह उनकी प्रतिक्रियाओं का एक संश्लेषण है—जो उन्होनें आजमाया, परखा और सीखा है।

1. पुनर्विन्यास और पुनर्रचना

ज़्यादातर संगठनों ने अपने लक्ष्य को पूरा करने के लिए बहु-आयामी दृष्टिकोण को अपनाया है। उनके द्वारा आकर्षित किए जाने वाले वित्तपोषण पर इस बात का प्रभाव पड़ता है कि वे अपने काम के किस पहलू को मुख्य रूप से दर्शाते हैं। उदाहरण के लिए, घर से निकाल दी गई या छोड़ दी गई विधवाओं के सशक्तिकरण पर काम करने का एक महत्वपूर्ण घटक सम्मान के साथ जीवन यापन करने के लिए उनकी क्षमता का निर्माण करना है। इसमें कौशल-निर्माण, उद्यमशीलता का विकास और आय सृजन जैसी गतिविधियां शामिल हैं—ये सभी सीएसआर के अधिदेश के अधीन हैं और निवेशकों को उस स्थिति में भी प्रभावित करते हैं जब औरतों के अधिकारों की सिफ़ारिश करने वाली बातें भी उन्हें प्रभावित नहीं कर पाती हैं।

2. कम लागत का लाभ होना

वित्तपोषण की अनिश्चितता से बचे रहने के लिए कम लागत एक मुख्य योगदानकर्ता के रूप में अपनी भूमिका निभाता है। अधिकार-आधारित काम में सेवा वितरण की तुलना में कम लागत वाला लाभ अंतर्निहित होता है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि एक समुदाय को उन समान सेवाएँ मुहैया करवाने में लगने वाली लागत की तुलना में अधिकारों तक पहुँचने के लिए सशक्त बनाने के काम में बहुत ही कम खर्च आता है। उदाहरण के लिए, पूरे प्रखण्ड में राज्य के साथ समुदाय और अभिभावकों के एक समूह की बातचीत के माध्यम से सरकारी विद्यालय की व्यवस्था को मजबूत करने की पहल में आने वाला खर्च उतने ही बच्चों की क्षमता वाले नए विद्यालय के निर्माण में आने वाले खर्च से बहुत कम होता है। इससे संगठनों द्वारा धन जुटाने की प्रक्रिया में तेजी आती है क्योंकि इन कार्यक्रमों की ‘दानकर्ताओं के निवेश से मिलने वाले लाभ (रिटर्न ऑन डोनर इनवेस्टमेंट) की दर अच्छी होती है। क्योंकि अंतिम विश्लेषण में, खुद ही काम को आगे बढ़ा सकने वाले लोगों के समुदायों के निर्माण से ज्यादा टिकाऊ कौन सी चीज है?

एक गोले में बैठकर एक ऐसा खेल खेलती हुई औरतें जो परिवार के कल्याण को बढ़ावा देता है_वित्तपोषण स्वयंसेवी संस्थाएं
आधिकार-आधारित, सशक्तिकरण की दिशा में होने वाले पहलों में भरोसा करने वाले दानकर्ताओं ने यह पाया कि उनके वित्तपोषण के लिए दीर्घकालिक दृष्टिकोण होनी चाहिए। | चित्र साभार: बिल & मेलिंडा गेट्स फ़ाउंडेशन/बारबरा किन्ने

3. जानकारी हासिल करते रहना और उसका अनुपालन करना

कानून, नियम, दिशानिर्देश, पंजीकरण, पुनर्पंजीकरण, दस्तावेजीकरण, और बहुत कुछ— अनुपालन के लिए अनिवार्य चीजों की सूची अंतहीन है और समय-समय पर इसमें बदलाव आता रहता है। उनके साथ तालमेल बिठाए रखने के लिए संगठन फोरम (ऑनलाइन और ऑफलाइन दोनों) का उपयोग करते हैं जैसे कि ऐसे वेबिनार और लेख हाल में विदेशी योगदान (विनियमन) अधिनियम (एफ़सीआरए) संशोधनों की व्याख्या करते हैं। इसके अलावा, वे टीम के सदस्यों (खासकर वित्तीय टीम के सदस्यों) को हाल में किए गए संशोधनों के बारे में पता लगाने और उनके अनुपालन को सुनिश्चित करने की ज़िम्मेदारी सौंपते हैं। सबसे जरूरी यह होता है कि वे अपने जैसे अन्य संगठनों के साथ सहक्रियात्मक संबंध बनाए है ताकि वे वास्तविक समय पर उठाए जाने वाले सही कदम और उचित सलाह के स्त्रोत को सुनिश्चित कर सकें। 

4. वित्तपोषण के नए स्त्रोत की तलाश 

जहां वित्तपोषण के कुछ पारंपरिक स्त्रोत घटते जा रहे हैं, खासकर विदेशी अनुदान, वहीं दानकर्ताओं की एक पूरी ऐसी नई पीढ़ी इस मैदान में कदम रख रही है जो असामान्य कारणों का समर्थन करती है। इस तरह के कुछ फंड पुरस्कारों और प्रतियोगिता, हितों की अभिव्यक्ति (एक्स्प्रेशन ऑफ इंटरेस्ट) की पुकार, शोध अनुदान और फ़ेलोशीप के रास्ते आते हैं। भारत में भी, कुछ दानकर्ताओं ने दुस्साहस दिखाया और खुद को मुख्यधारा वित्तपोषण के विषयों से अलग कर लिया। अधिकार-आधारित संगठनों को यह एहसास हुआ कि धन के इन नए स्त्रोतों की तलाश में लगातार पैनी नजर रखते हुए समय और ऊर्जा खर्च करना बहुत महत्वपूर्ण है। 

5. समय के साथ वित्तीय भंडार का निर्माण

संगठनात्मक भंडार और कोष के लिए वित्तपोषण एक ख़त्म होते हुए बजट की चीज बन गया है। फिर भी कुछ स्वयंसेवी संस्थाएं एक ठोस आधार-निर्माण के काम में लगी हुई हैं। इन ठोस आधार के तैयार हो जाने के बाद वित्तपोषण के स्त्रोत की अनुपस्थिति में भी ये संस्थाएं कम से कम तीन से छ: महीनों तक अपने बुनियादी काम करने में सक्षम हो सकती हैं। इन संगठनों ने जो अनुभव हासिल किया वह यह था कि कोशिश करना बंद नहीं करना है। हो सकता है कि हर बार प्रस्ताव पेश करने के समय कुल बजट का एक छोटा हिस्सा संगठन के बचत कोष के लिए देने का विचार सफल न हो। लेकिन लंबे समय तक छोटी-छोटी राशियों को जमा करने से आपात की स्थिति में यह राशि महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है।

6. क्राउड और खुदरा वित्तपोषण की दिशा

क्राउड और खुदरा वित्तपोषण दोनों ही उस चीज का निर्माण कर सकते हैं जिसकी संगठनों को जरूरत होती है—अप्रतिबंधित, असम्बद्ध संसाधनों का एक तालाब:

7. संचार पर ध्यान केन्द्रित करना

‘जो लोग जमीन पर अच्छा और अर्थपूर्ण काम करते हैं वे इसका प्रसारण नहीं करते हैं’ एक ऐसा सिद्धान्त है जिसका समय जा चुका है। इसमें निवेश करना और संचार के जिम्मेदार बनने के लिए कौशल का विकास करना, संचार और मिडिया रणनीति को विकसित करना, सोशल मीडिया पर गहरी और लोकप्रिय अपील वाली उपस्थिती को सुनिश्चित करना बहुत आवश्यक है। इसके अलावा दानकर्ताओं और शुभ चिंतकों (भूतपूर्व, वर्तमान और संभावित) के साथ समय-समय पर संवाद बनाए रखने जैसी गतिविधियों को उतना ही महत्वपूर्ण माना जाने लगा है जितना महत्वपूर्ण किसी संगठन का जमीन पर उतरकर वास्तविक काम करना है।

8. अंतर-क्षेत्रीय चैम्पियनों की तलाश

काम करने वालों और दानकर्ताओं के बीच भरोसे की कमी पर विस्तार से बात की जा चुकी है। सामाजिक परिवर्तन प्रारूप के बारे में जानकारी की कमी से पैदा होने वाले, कार्यकर्ताओं के काम करने के तरीके और गैर-जवाबदेही की सामान्य धारणा के कारण अधिकार के ढांचे में काम करने वाले लोगों का घाटा लगातार बढ़ता जा रहा है। इस कमी को कम करने की क्षमता क्षेत्र में कारण विशेष से जुड़े उन काम कर रहे चैम्पियनों (कॉज़-चैम्पियन्स) के पास है जिनपर दानकर्ता विश्वास करते हैं।

उदाहरण के लिए स्वास्थ्य के अधिकारों पर काम कर रहे एक संगठन को अपने दानकर्ताओं से कम से कम तीन वर्षों तक की प्रतिबद्धता हासिल करने में मुश्किल हो रही थी। बातचीत का रुख़ उस समय बदल गया जब उन्होनें सरकारी और निजी क्षेत्र के ऐसे प्रतिनिधियों की मदद लेनी शुरू की जिन्होनें बहु-वर्षीय वित्तपोषण की जरूरत के बारे में बार-बार बताया। 

9. आंकड़ों में निवेश

संगठनों ने पाया कि आंकड़ों और प्रमाणों के होने से वित्तपोषण से संबंधित बातचीत नाटकीय रूप से बदल जाती है। जब संगठन ऐसा कहने में सक्षम होते हैं कि वे आंकड़ों पर नजर रखते हैं और इस पर काम करते हैं तब उन्हें अपने मॉडल के लिए एक मामला तैयार करने और साथ ही यह भी बताने में सुविधा होती है कि वित्त की जरूरत न केवल कार्यक्रमों को है बल्कि शोध, और निगरानी और मूल्यांकन (एम&ई) के लिए भी है। शोध के लिए अनुदान की जरूरत, मजबूत एम&ई व्यवस्था में निवेश और सफलता और चुनौतियों के प्रमाण को विस्तृत रूप से साझा करने की प्रक्रियाएँ भी क्षेत्र में जवाबदेही की कमी के बहस का जवाब देने में मददगार साबित हुई है।

10. उपयुक्त मध्यस्थता वाले साथी की खोज

अपने संगठन के लिए एक उपयुक्त मध्यस्थता वाले साथी की पहचान भर करने से बहुत अधिक बदलाव आ जाता है। लागू करने वाले संगठन के दृष्टिकोण से एक उपयुक्त मध्यस्थ वह होता है जो न केवल उस अनुदानकर्ता का प्रतिनिधित्व करता है जिसने उसे नियुक्त किया है बल्कि वास्तव में संगठन के कारण, चुनौतियों और क्षमताओं को भी समझता है। वे दानकर्ताओं को असामान्य कारणों, संगठनों और भौगोलिक क्षेत्रों पर विचार करने के लिए तैयार कर सकते हैं। वे वर्तमान में न केवल संगठन के वित्तपोषण इंजन को चलाने की क्षमता को सशक्त बनाने में मदद कर सकते हैं बल्कि भविष्य के लिए कौशल और संचालन व्यवस्था के आधार का निर्माण भी कर सकते हैं। और, वे संगठन को अपने मूल तत्व को खोये बिना अपने कामों के प्रदर्शन के नए तरीकों के बारे में सोचने में उनकी मदद कर सकते हैं। और हाँ ऐसे मध्यस्थ मौजूद हैं!

अनुदानकर्ताओं की नजर से

अधिकार-आधारित, सशक्तिकरण उन्मुख पहलों के समर्थन में भरोसा करने वाले अनुदानकर्ताओं ने यह सीखा है कि जिस तरह से वे उन कामों के प्रभाव को दीर्घकालिक रूप में देखने की उम्मीद करते हैं जिनका उन्होने समर्थन किया है, उसी तरह से उनके वित्तपोषण को भी एक लंबी अवधि वाले दृष्टिकोण की जरूरत है। अनुदानकर्ताओं के बीच ‘प्रगतिशीलता’ का एक सूचकांक उन मुख्य अनिवार्यताओं में निवेश की योग्यता है जो संगठनो को उनके प्रभाव को बनाए रखने में मदद करती है—सामुदायिक नेतृत्व को मजबूत करती है; भविष्य में ड्यू डिलिजेंस के अभ्यासों को आसान बनाने वाले अनुपालनों के निर्माण में मदद करती है; वित्तपोषण के इंजन की स्थापना में निवेश करवाती है; प्रस्ताव लेखन के लिए संगठनों को क्षमता निर्माण के साथ जोड़ती है; और उन्हें प्रासंगिक मध्यस्था वाले साथियों से जोड़ने का काम करती है।

अंत में, ऐसे अनुदानकर्ता संगठनों को इस तरह से मजबूत बना सकते हैं ताकि वे मुख्यधारा के वित्तपोषण की भाषा बोल सकें और अनुपालन के दायरे का मजबूती से जवाब दे सकें, जिससे कि ये संगठन परियोजना के लिए अकेले ही वित्तपोषण करने की प्रक्रियाओं की संकीर्ण सीमाओं से परे जा सकें।

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