संगठनात्मक संस्कृति प्रतिभावान कर्मचारियों को रोकने में कैसे मददगार है?

आफ़ताब एक प्रतिष्ठित और बड़े भारतीय समाजसेवी संगठन में मैनेजर के पद पर कार्यरत है। हालांकि संगठन की ओर से उन्हें वर्क फ़्रॉम होम की सुविधा मिली हुई है, लेकिन आफ़ताब को लगभग रोज ही दफ़्तर जाना पड़ता है। उनके कार्य और जिम्मेदारियां व्यापक हैं और इसलिए उन्हें टीम और अन्य लोगों के साथ निरंतर सम्पर्क में रहने की आवश्यकता होती है। दोपहर के खाने के समय आफ़ताब को अपने सहकर्मियों के साथ बैठना और अपने मन की बात करना पसंद है। आफ़ताब को लगता है कि उनके सहकर्मी इस तरह की पहल का स्वागत करते हैं और अपने निजी एवं पेशेवर जीवन के मुद्दों के बारे में बात करने के लिए समय निकालते हैं। वे एक दूसरे की बात को सुनते एवं समझते हैं। कुछ समय पहले समाजसेवी संस्था ने एक पहल की जिसके अंतर्गत कर्मचारियों के एक बहुत बड़े समूह ने महीने में एक-दो बार दफ़्तर में पॉटलक लंच आयोजित किया था। इस लंच के आयोजन का भार किसी भी एक व्यक्ति को ज़बरदस्ती नहीं दिया गया था और इसमें शामिल होने तथा अपना योगदान देने लिए के सभी आमंत्रित थे।

संगठनात्मक संस्कृति कुछ मेंटल मॉडल्स से मिलकर तैयार होती हैं जिसमें संगठन द्वारा स्वीकार किए गए मूल्य (विविधता, इक्विटी और समावेशन) होते हैं। इसमें दृश्यमान कलाकृतियां जैसे संरचनाएं और प्रथाएं, और अर्ध-दृश्यमान कलाकृतियां जैसे कामकाज का माहौल, पावर डायनमिक्स और संगठन के भीतर संबंध आदि भी शामिल होती हैं। इस प्रकार संगठनात्मक संस्कृति एक संगठन के सामाजिक ताने-बाने को परिभाषित करती है।

इंडियन स्कूल ऑफ डेवलपमेंट मैनेजमेंट (आईएसडीएम) और अशोका यूनिवर्सिटी के सेंटर फॉर सोशल इम्पैक्ट एंड फिलैंथ्रोपी (सीएसआईपी) ने मिलकर भारतीय सामाजिक प्रयोजन संगठनों (एसपीओ) में प्रचलित प्रतिभा प्रबंधन प्रथाओं पर एक अध्ययन किया है। यह अध्ययन क्षेत्र में प्रतिभा की कमी, भर्ती औचित्य, और संगठनों में उचित भुगतान का निर्धारण करने के तरीकों जैसे पहलुओं को समझने के लिए डेटा का एक विश्वसनीय स्रोत हो सकता है। इस रिपोर्ट के निष्कर्ष देश भर में एसपीओ नेताओं और कर्मचारियों के साथ किए गए 90 से अधिक गहन साक्षात्कारों और चार क्वांटिटेटिव सर्वेक्षणों से प्राप्त हुए हैं। हमारा उद्देश्य प्रतिभा को परिभाषित करना; संगठनों द्वारा अपने अंदर पहले से मौजूद प्रतिभा की पहचान, उनको आकर्षित करने तथा उसके समावेशन के लिए अपनाए गए तरीक़ों को समझना; तथाकथित प्रतिभा के व्यक्तिगत लक्ष्यों तथा प्रेरणाओं के असर का मूल्यांकन करना तथा संगठन के भीतर ही प्रतिभा प्रबंधन से जुड़ी चुनौतियों की पहचान करना था।

रिपोर्ट से पता चलता है कि एक स्वस्थ संगठनात्मक संस्कृति का प्रतिभाओं को हासिल करने और उन्हें रोककर रखने पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है। कार्यस्थल का वातावरण और पावर डायनमिक्स जैसे कारक कर्मचारियों के मनोबल और उनके हित को महत्वपूर्ण रूप से प्रभावित करते हैं। रिपोर्ट में यह भी पाया गया कि एक खुली और जन-केंद्रित संस्कृति कर्मचारियों को कार्यालय कार्यक्षेत्र की ओर आकर्षित करती है। नेतृत्व शैली जैसे कारक किसी भी संगठन के भीतर कर्मचारियों के प्रेरणा स्तर को महत्वपूर्ण रूप से प्रभावित करते हैं। इसलिए, एक सामंजस्यपूर्ण संगठनात्मक संस्कृति विभिन्न समूहों या टीम को समस्या-समाधान के लिए नए दृष्टिकोणों की तलाश में सहयोग की अनुमति देती है। यह काम के लिए ‘सही’ दृष्टिकोण अपनाने में भी कर्मचारियों का मार्गदर्शन करता है। रिपोर्ट के इन निष्कर्षों पर इस लेख में विस्तार से चर्चा की गई है।

1. सहकर्मी संबंध कर्मचारी प्रतिधारण को प्रभावित करते हैं

संगठन के भीतर अपने साथियों के साथ संबंध बनाना और बनाए रखने से कर्मचारियों में मनोबल का स्तर उंचा बना रहता है। यह अपनी ज़िम्मेदारी के संबंध में उपयुक्त और सम्मानजनक इंटर-इंट्रा टीम डायनमिक्स की भी पुष्टि करता है। सामान्य कार्यस्थल का माहौल टीम संबंधों तथा उनके हित को प्रभावित करता है। हमारे अध्ययन के लिए किए जाने वाले सर्वे में भाग लेने वाले एक तिहाई लोगों का कहना था कि सहकर्मियों तथा समकालीनों के साथ उनके संबंध उनकी निरंतर व्यस्तताओं तथा संगठन में बने रहने की प्रेरणा पर अपना प्रभाव डालते हैं।

2. कामकाज का एक सकारात्मक माहौल बेहतरी को बढ़ावा देता है

विभिन्न नेताओं के बीच संबंधों की गुणवत्ता और प्रतिभा प्रदर्शन करने वाले भौतिक वातावरण शामिल करने वाले एक संगठन का सामाजिक ताना-बाना कर्मचारी प्रेरणा को प्रभावित कर सकते हैं। ऐसे कार्यक्षेत्र जहां व्यक्तियों के मूल्यों को महत्व देने वाले और उनके मानसिक हित का ख़याल रखने के साथ ही उनके पेशेवर-व्यक्तिगत जीवन के संतुलन को बनाए रखने वाले कार्यक्षेत्र वाले संगठन में प्रतिभा प्रतिधारण की दर बहुत ऊंची होती है। हमारे अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि एक सहृदय, समावेशी और बेहतर आपसी संबंध वाली संस्कृति से कर्मचारियों को कार्यस्थल पर सहजता महसूस होती है और वे अपने सहकर्मियों के साथ काम करने के अपने उत्साह को बनाए रखते हैं। सकारात्मक टीम संबंध कर्मचारियों की प्रेरणा और प्रतिबद्धता को सकारात्मक रूप से प्रभावित करते हैं। हमारे अध्ययन में एक साक्षात्कार प्रतिभागी ने कहा कि उसे काम पर आने में मज़ा आता है और वह इस बात की सराहना करती है कि उसके सहकर्मी दोस्ताना मज़ाक आदि में शामिल होते हैं। उसे यह भी भरोसा है कि उसके सहकर्मी “सब कुछ बेहतर बनाए रखने के लिए कुछ भी करने वाले” लोग हैं।

3. संगठनात्मक मूल्यों का व्यापक प्रभाव पड़ता है

संगठनात्मक मूल्यों को स्थापित करने और जागरूक होने के महत्व को कम करके नहीं आंका जा सकता है। विविधता, इक्विटी, और भर्ती और चयन प्रक्रियाओं में शामिल करने के सिद्धांतों को अपनाने में संगठनात्मक विश्वास जैसे पहलू मानसिक मॉडल हैं जो संगठन की संस्कृति की नींव बनाते हैं। आम तौर पर ऐसे मूल्य ऊपर से नीचे तक जाते हैं और संगठन के संस्थापक नेतृत्व के कार्यों से अत्यधिक प्रभावित होते हैं। किसी संगठन द्वारा अपनाए गए मूल्य उसके आंतरिक और बाहरी हितधारकों के साथ उसके संवाद को आकार देते हैं। साथ ही, ये अपने कार्यों को करने के लिए आवश्यक दृष्टिकोण अपनाने की दिशा में अपनी प्रतिभा का मार्गदर्शन करने में मदद करते हैं। हमारा शोध इस बात की पुष्टि करता है कि, एसपीओ के लिए, संगठन से जुड़े मूल्यों और संस्कृति को बनाए रखना कर्मचारी के प्रदर्शन का एक प्रमुख मानदंड है।

लेगो ब्लॉक का ढेर-कर्मचारी प्रतिभा
एक सामंजस्यपूर्ण संगठनात्मक संस्कृति विभिन्न समूहों या टीम को समस्या-समाधान के लिए नए दृष्टिकोणों की तलाश में सहयोग की अनुमति देती है। | चित्र साभार: पेक्सेल्स

4. संगठनात्मक संस्कृति प्रतिभाओं को बनाए रखने को बहुत अधिक प्रभावित करती है

संगठनात्मक संस्कृति के विकास को केंद्र में रखकर किए गए अभ्यास एक संगठन के भीतर प्रतिभा के आकर्षण और प्रतिधारण यानी उन्हें हासिल करने और बनाए रखने को सकारात्मक रूप से प्रभावित करते हैं। हमारे शोध से स्पष्ट होता है कि संगठनात्मक संस्कृति ने एसपीओ में काम कर रहे 60 फ़ीसद सर्वेक्षण उत्तरदाताओं के निरंतर जुड़ाव और प्रतिधारण को प्रभावित किया है। साथ ही, एक मजबूत संगठनात्मक संस्कृति की उपस्थिति 52 फ़ीसद सर्वेक्षण उत्तरदाताओं के लिए विकास क्षेत्र में काम करना जारी रखने के लिए प्रमुख कारण के रूप में सामने आई।

प्रतिभा प्रबंधन प्रथाओं में संगठनात्मक संस्कृति के घटकों का एकीकरण एसपीओ को प्रतिभा प्रेरणा और कारण के प्रति प्रतिबद्धता में सुधार करने में मदद कर सकता है। इससे नए प्रयोगों और उत्पादकता को बढ़ावा मिलता है और आकर्षण और प्रतिधारण में वृद्धि होती है। नियमित टीम-निर्माण गतिविधियां यह सुनिश्चित कर सकती हैं कि कर्मचारी एक दूसरे के साथ संबंध बनाए रखें और उत्पादक टीम बनाने में सक्षम हों। इस प्रकार, लोगों को अपनी राय, सफलताओं और असफलताओं को साझा करने के लिए सुरक्षित स्थान प्रदान करने से एसपीओ को जटिल सामाजिक मुद्दों को संबोधित करने के लिए सहयोग, क्रॉस-लर्निंग, समस्या-समाधान और नवाचारों को बढ़ावा देने में मदद मिल सकती है।

5. कर्मचारी जनकेंद्रित नेतृत्व शैली की ओर आकर्षित होते हैं

पावर डायनेमिक्स प्रतिभा आकर्षण और प्रतिधारण में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। विकास क्षेत्र में काम कर रहे पेशेवरों के लिए नेताओं द्वारा प्रदर्शित दृष्टिकोण और व्यवहार खासतौर पर मायने रखता है। और, किसी विशेष संगठन में नेतृत्व की शैली संगठन की प्रतिभा और उनके निरंतर जुड़ाव के प्रेरणा स्तरों को काफी प्रभावित करती है। परिणामस्वरूप एक सहभागी (जिसमें टीमों को सुनना, असहमति की अनुमति देना, सामूहिक निर्णय लेना आदि शामिल है), भरोसा करने वाली (प्रतिभा क्षमता में विश्वास करना), सहजता से उपलब्ध, प्रशंसनीय और सहायक (कर्मियों को पहल करने की अनुमति देना) नेतृत्व शैली संगठन की प्रतिभा को बनाए रखने में प्रभावी साबित हो सकते हैं। हमारे शोध में पाया गया है कि सहभागी और उत्साहजनक नेतृत्व शैली भी पूर्व कर्मचारियों को उनके पूर्व संगठनों की ओर आकर्षित करती है। इसलिए, नेतृत्व की एक सहानुभूतिपूर्ण और जन-केंद्रित शैली अपनाने से एसपीओ को प्रतिभा को आकर्षित करने और बनाए रखने में मदद मिल सकती है। इसके विपरीत, नेतृत्व की एक सूक्ष्म प्रबंधन-उन्मुख शैली संगठनों में प्रतिभा की उच्च दर से संबंधित होती है।

6. इंट्राऔर इंटरटीम सहयोग दोनों आवश्यक हैं

अध्ययन के निष्कर्षों से संकेत मिलता है कि विचारों के आदान-प्रदान के लिए टीम के भीतर और टीमों में आपसी सहयोग और अवसरों को बढ़ावा देने के लिए, एक खुली और जन-केंद्रित संस्कृति की उपस्थिति आवश्यक है। जहां व्यक्ति अपनी राय व्यक्त करने के लिए स्वतंत्र महसूस करते हैं और उसके लिए उन्हें जज नहीं किया जाता है। सहकर्मी एक दूसरे के साथ अच्छी तरह से मिलते हैं क्योंकि वे अपने समूहों के भीतर व्यक्तिगत पृष्ठभूमि और राय की विविधता का सम्मान करना सीखते हैं। इससे व्यक्तियों और विभिन्न टीमों के बीच सहयोग की भावना आती है तथा ज्ञान और सूचना के मुक्त-प्रवाह के आदान-प्रदान से सहायता मिलती है।

एक एसपीओ के वित्त और संचालन प्रमुख के अनुसार, विभिन्न टीमों के बीच सुचारू और समय पर बातचीत की संस्कृति बनाने का प्रयास करना बहुत महत्वपूर्ण है। इस तरह की बातचीत से अनमोल अनुभव सामने आते हैं जो संगठनात्मक संस्कृति को जानकारियों से भरते हैं और उसे तैयार करते हैं। चूंकि इस तरह की बातचीत के लिए कई अवसर मिलना मुश्किल है, इसलिए उन्हें इस तरह से बनाया जाना महत्वपूर्ण है जिससे संवाद और चर्चा में आसानी हो और जो एक दूसरे से सीखने की प्रक्रिया को बढ़ाने में मददगार साबित हो सके।

अक्सर, कार्यस्थल में ऐसे माहौल से प्रतिभा के भीतर रचनात्मकता आती है। ऐसी जगहों में आगे की बातचीत से नए समाधान सामने आ सकते हैं, और कर्मियों को अपने कार्यों को पूरा करने के लिए समस्या-समाधान के दृष्टिकोण को सीखने और विकसित करने में मदद मिल सकती है।

कुल मिलाकर, एक सकारात्मक कामकाजी माहौल और मजबूत पारस्परिक संबंधों सहित एक स्वस्थ संगठनात्मक संस्कृति, सामाजिक क्षेत्र में प्रतिभा पर सकारात्मक प्रभाव डाल सकती है। सहकर्मी संबंध, टीम के समीकरणों और भौतिक कामकाजी माहौल, ये सभी संगठनात्मक प्रतिभा के मनोबल और प्रेरणा को प्रभावित करते हैं।

इसलिए, एक सकारात्मक संगठनात्मक संस्कृति बनाने और बनाए रखने से कर्मचारियों में संतुष्टि और प्रतिबद्धता का स्तर बढ़ सकता है और आख़िर में यह उन्हें नए विचारों, सामूहिक समस्या-समाधान और संगठन के भीतर उच्च प्रतिधारण दर के नेतृत्व के लिए प्रेरित कर सकते हैं।

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एक सरकारी स्वास्थ्य बीमा योजना, जो सबके लिए हो

बात यह नहीं थी कि कोई इलाज नहीं था या कोई विकल्प नहीं था। बात असल में पैसे की थी जो कि पलक (पहचान छिपाने के लिए नाम बदला गया है) को बचाने के लिए काफी नहीं थे। पलक की उम्र सिर्फ आठ साल थी और हमेशा उमंग से भरी हुई मुस्कुराहट उसके चेहरे पर रहती। खुशी से उछलती मधुर बाल गीत गाती थी और ताली बजा-बजा के खेलती थी।

एक दिन अचानक पता चला उसे खून का कैंसर हो गया है। इस कैंसर का इलाज हो सकता था। पलक की नसों में जो ख़राब खून बन रहा था उसे रोक कर, उनसे अच्छा खून निकल सकता था, एक बोन-मेरो ट्रांसप्लांट के जरिये। आजकल दवाइयों से खून के कैंसर के अलावा अन्य कई गंभीर रोगों का इलाज संभव है – लेकिन बात इलाज की नहीं, पैसों की थी। पलक के परिवार वालों को बताया गया कि उसके इलाज के लिए पूरे 15 लाख रुपए लगेंगे। इतने पैसों में शायद मुंबई में एक कमरा भी ना मिले, लेकिन फिर भी यह रकम 95 प्रतिशत भारतीयों की पहुँच से बाहर है। यही समस्या पलक के परिवार की भी थी।

स्वाथ्य बीमा

इतनी बडी धन राशि का इंतजाम करना एक साधारण परिवार की जिम्मेदारी होनी ही नहीं चाहिए। यह काम स्वास्थ्य बीमा का है। इसी उद्देश्य से तो ये बीमा योजनाएं बनाई जाती हैं।

बीमा महायोद्धा कर्ण के कवच की तरह है। रोज-रोज शायद उसकी जरूरत भले ही ना पड़े परन्तु जब जीवन-मृत्यु के युद्ध में किसी भी कारण उतरना पड़े तो कवच रक्षा करता है। उसे पहने रहने से किसी चीज़ का भय महसूस नहीं होता है। इसी तरह स्वास्थ्य बीमा रोज उपयोग में नहीं आते हुए भी हर परिवार को आश्वस्त रखता है।

स्वास्थ्य बीमा का मूल सिद्धांत होता है कि बहुत सारे लोग एक बड़ा समूह बनाकर, थोड़ा-थोड़ा पैसा इकट्ठा करें, तो एक बड़ी पूंजी बन सकती है। इस जमा पूंजी से पैसा मरीजों को आराम से दिया जा सकता है। लेकिन अगर कोई परिवार इस तरह के बीमा के साथ जुड़ना चाहे तो उन्हें अपने जैसे लाखों परिवारों को ढूंढना पड़ेगा और उनके साथ मिलकर इस तरह की बीमा योजना बनानी पड़ेगी। यह बहुत मुश्किल काम है और अपने आप नहीं हो सकता है। इसके लिए आवश्यक है कि सरकार पहल करे।

मौजूदा योजनाएं

भारत में बिहार, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और अन्य कई राज्यों में निशुल्क स्वास्थ्य बीमा की योजनाएं लागू की गई हैं, जिनका टैक्स के पैसों से भुगतान होता है। इनसे बहुत से अस्पताल जुड़े हुए हैं और इलाज का पैसा इन योजनाओं के अंतर्गत दिया जाता है। परंतु इसमें दो तरह की समस्या है:

(क) इन योजनाओं से कई तरह की बीमारीओं का इलाज होता है लेकिन सरकारी पैसों की तंगी के कारण इनकी पहुंच सिर्फ 3० से 4० प्रतिशत लोगों तक ही है।

(ख) इन योजनाओं तक पहुंचने वालों के लिए भी, इनमें मिलने वाली राशि गंभीर बीमारीओं का पूरा खर्च उठाने के लिए पर्याप्त नहीं है।

एक पेड़ के नीचे बैठे पुरुष-स्वास्थ्य बीमा
सरकार एक नए स्वास्थ्य बीमा की दिशा में सोच सकती है – ऐसा स्वास्थ्य बीमा जिसमें पूरी आबादी गरीब-अमीर सभी आ जाएं। | चित्र साभार: फ़्लिकर

इसके परिणाम स्वरूप इन योजनाओं के अंतर्गत, आधा से ज्यादा पैसा 5-7 हजार रुपए प्रति बीमारी की तरह से बांटा जा रहा है जिससे कुछ खास फर्क नहीं पड़ रहा है। एक लाख रुपए से ज्यादा राशि, इनमें से सिर्फ 4 प्रतिशत लोगों को ही मिल पा रही है। यह विचार करने की बात है कि सरकारी बजट की तंगी को देखते हुए, क्या यह पैसे का सदुपयोग है? यह तो ऐसी बात हुई कि नाव के डूबने से लोगों को बचाने के लिए सबको तैरना सिखाया जा रहा है। थोड़ा बहुत फायदा हुआ तो भी जब बाढ़ में नाव उलट जाएगी कौन कितना तैर पाएगा?

एक न सोच

सरकार अपने सीमित संसाधनों को देखते हुए और सुरक्षा की प्राथमिकता समझते हुए, एक नए स्वास्थ्य बीमा की दिशा में सोच सकती है। ऐसा स्वास्थ्य बीमा जिसमें पूरी आबादी गरीब-अमीर सभी आ जाएं। इसमें सिर्फ कैंसर, लिवर ट्रांसप्लांट, मल्टीपल बाईपास सर्जरी जैसी अत्यधिक खर्च वाली बीमारियां शामिल हों। इससे जनसाधारण को आश्वासन मिलेगा कि अगर उनके परिवार का कोई भी सदस्य ऐसी भीषण बीमारी से ग्रस्त हो गया तो उन्हें कम से कम पैसों की चिंता तो नहीं करनी पड़ेगी, उन्हें बड़ा सुकून मिलेगा, चाहे वे इस बीमा का कभी इस्तेमाल न करें। भीषण बीमारियां बहुत कम लोगों को होती हैं, और एक व्यक्ति के लिए बीमारी का खर्चा लाखों में होने के बावजूद भी कुल बजट की निर्धारित राशि की सीमा के अंदर ही होगा।

इस बीमा योजना के तहत सभी लोग शामिल होने से सरकार के कई काम अपने आप हो जायेंगे।

इस तरह की योजनाओं से राज्य सरकारें बाकी सब बीमारियों के लिए और अधिक मजबूत स्वास्थ्य सेवाओं को उपलब्ध कराने के बारे में आश्वस्त होकर सोच सकती हैं। अपने प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों से जरूरी सेवाओं को (जैसे डेंगू, रक्तचाप, और मधुमेह का इलाज) भी निशुल्क देने का प्रबंध कर सकती है। इन सबको उपलब्ध कराने में शायद समय लग सकता है। इस परिस्थिति में, इस तरह के स्वास्थ्य बीमा से सरकार एक बड़ी समस्या के बारे में निशंक रह सकती है – अगर किसी परिवार को ऐसी विकट स्थिति का सामना करना पड़े तो उनकी नौका डूबेगी नहीं। और, जानें सिर्फ पैसों के अभाव में नहीं गंवाईं जाएंगी।

इस बीमा योजना के तहत सभी लोग शामिल होने से सरकार के कई काम अपने आप हो जायेंगे – जैसे, बार-बार व्यक्ति की पहचान, उसकी आर्थिक स्थिति, वगैरह चेक करना। एक और फायदा गंभीर और खर्चीली बीमारियों के बीमा योजना में पूरी आबादी को शामिल करने का यह होगा कि पूरे राज्य में सबसे महंगे अस्पतालों को अपने दाम कम करने पड़ेंगे। इससे सभी छोटे-बड़े अस्पतालों पर दबाव पड़ेगा कि वे भी अपनी कीमतें कम करें। इससे आगे चलकर, सरकार के लिए सभी स्वास्थ्य सेवाओं को उपलब्ध कराने का खर्चा भी काफी कम हो जायेगा।  

दूर की जा सकने वाली तकलीफ

जब पलक के परिवार को इस गहरे सदमे से गुजरना पड़ा तब सिर्फ पैसों की कमी के चलते, उसको और उसके साथ परिवार की पूरी ख़ुशी को खो देने के अलावा कोई रास्ता नहीं था। दुख की बात यह है कि पलक को बचाया जा सकता था। इसके लिए आवश्यक इलाज सामने नज़र आ रहा था। सब कुछ होते हुए भी सिर्फ पैसों की कमी थी। इस तरह के काम को बीमा योजनाएं आसानी से कर सकती हैं और दुखद मौतों से बचा जा सकता है ताकि पलक की तरह किसी और को इससे न गुजरना पड़े।

यह विचार करने का विषय है। ऐसी बीमारियां प्रियजनों के बिछड़ने की पीड़ा, मानसिक तनाव, और आर्थिक भय का मिलाजुला बोझ साथ लाती हैं और लोगों को पूरी तरह कुचल देती है। इस विनाशकारी समस्या का समाधान स्वास्थ्य बीमा द्वारा ही करना होगा। बड़ा बोझ कम होने से हम बाकी समस्याओं पर भी ठीक से ध्यान दे सकते हैं। उन कारणों की भी अवहेलना नहीं की जा सकती जिनसे मृत्यु हो सकती है और परिवार तकलीफ में आ सकता है। इस समस्या का समाधान निकालने के लिए इन दोनों मूलभूत समस्याओं को पृथक करके देखना जरूरी है। यदि दोनों को अलग-अलग समझकर ठीक ढंग से नियंत्रित नहीं किया जाएगा तो पैसों की कमी से लोग मृत्यु की तरफ जाते रहेंगे। यह बहुत दुख का विषय है। सब मिलकर इस पर विचार करें तो इस विषम समस्या का समाधान हो सकता है।

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आर्थिक, सामाजिक या स्वास्थ्य से जुड़े प्रयासों के लिए साझेदारी कैसे करें?

कोविड-19 के दौरान और उसके बाद तथा भारत के आगे आए तिहरे संकट (स्वास्थ्यगत, आर्थिक और सामाजिक) के सामने, हमने कई समाजसेवी संस्थाओं को अपने प्रयासों को संयोजित करने और अपने समुदायों की सुरक्षा करने के प्रयास में एक साथ आते देखा।

यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि इस सहयोग के लाभ सर्वविदित हैं: ज्ञान बांटना, क्षमाता को बढ़ाना और व्यवस्थागत परिवर्तन के लिए कई मोर्चों को एक साथ साधने की क्षमता। हालांकि अक्सर ही दो या अधिक संगठनों के बीच एक सफल साझेदारी के संचालन में आने वाली बाधाएं इसे व्यापक रूप अपनाने से रोकती हैं। इसे देखते हुए किसी भी समाजसेवी संगठन को ऐसा क्या करना चाहिए जिससे उनकी साझेदारी की सफलता सुनिश्चित हो सके?

आंतरिक क्षमता के निर्माण से लेकर, संगठनात्मक रणनीति को साथ में लाने और एक नई साझेदारी शुरू करने तक—यह लेख उन पांच चरणों की रूपरेखा तैयार करता है जिन्हें समाजसेवी संगठन एक सफल साझेदारी के लिए अपना सकते हैं।

1. साझेदारी के लिए नेताओं को तैयार करना

अ) संगठनों के साथ आने से होने फायदों को पहचानें: एक ही डोमेन में काम करने वाले संगठनों के विश्लेषण से संगठन नेतृत्व को अपने और अपने साथियों की उन ताक़तों का पता चलता है जिनसे वे सामाजिक मुद्दों का हल निकालते हैं। इस बात को ध्यान में रखते हुए समाजसेवी संगठनों के नेतृत्व को संगठन के संभावित साझेदार के उस सहयोग को पहचानना चाहिए जो संगठनों के उद्देश्यों को हासिल करने में मददगार हो सकता है। कार्यक्रमों और भागीदारों में मूल्यों, समानताओं और अंतरों का आकलन, उनके द्वारा किए जाने वाले प्रयासों और दोहराव को कम कर सकता है। साथ ही, प्रतिस्पर्धी मानसिकता को सहयोगी मानसिकता में बदलने में भी मददगार साबित हो सकता है।

ब) सहयोग की संस्कृति बनाएं: फोकसिंग ऑन सॉफ़्ट स्किल्स में सुनने और समानुभूतिपूर्वक प्रतिक्रिया देने की क्षमता विकसित करना शामिल है। इससे एक ऐसा वातावरण बनाने में मदद मिलती है जिसमें टीम के सदस्य अपने विचार बांटने को लेकर आश्वस्त महसूस करते हैं। विभाग के प्रमुखों से सलाह-मशविरा करने से यह सुनिश्चित होता है कि टीम के सदस्यों के विचारों को सुना गया है। साथ ही यह भी सुनिश्चित होता है कि सहयोग की विचारधारा और सामान्य परिणामों को संगठन के सभी स्तरों तक पहुंचाया गया है।

स) टीम प्रयासों का जश्न मनाएं: मिले-जुले प्रयास और योगदान का जश्न मनाने वाले नेता एक साझा लक्ष्य को प्राप्त करने में विभिन्न सदस्यों की भूमिका को पहचानते हैं। इस दृष्टिकोण को अपनाने से एक मिसाल कायम होती है और ‘साइलो मेंटैलिटी’ यानी संगठन के भीतर एक-दूसरे से राज रखने की मानसिकता नहीं पनप पाती है।

दो लोगों के हाथ_एनजीओ साझेदारी
चित्र साभार: रॉपिक्सेल

2. साझेदारी के लिए आंतरिक क्षमता का निर्माण

अ) बड़े उद्देश्यों पर ध्यान दें: जब टीम के सभी सदस्यों को अपने संगठनों या सम्भावित साझेदारों द्वारा विस्तृत इकोसिस्टम में किए जा रहे योगदान और उसकी प्रक्रिया की समझ होती है तब वे विभिन्न संगठनों के साथ साझेदारी को अपेक्षाकृत अधिक स्वीकार करते हैं। जिस प्रकार नेतृत्व वाली टीम को अपने संगठनों की ताक़तों को पहचानने की ज़रूरत होती है, उसी तरह टीमों के लिए भी उतना ही महत्वपूर्ण है कि वे उस मूल्य को पहचानें जो भागीदार उनके काम में जोड़ते हैं।

ब) टीम समीक्षा में सहयोगी कौशल शामिल करें: सफलता की समीक्षा करते समय, संवाद और टीम वर्क की प्रक्रिया पर केंद्रित आत्म-चिंतन को शामिल किया जाना चाहिए। इससे टीम के सदस्यों को उनकी भूमिका, योगदान और भविष्य में सफलता के स्तर को बढ़ाने हेतु सहयोग को बेहतर बनाने के उपायों पर विचार करने में मदद मिलती है।

स) लचीलेपन और असफलता की गुंजाइश रहने दें: टीम को अपने ज्ञान को साझा करने के लिए मंच दिया जाना चाहिए। इसके अलावा अपने कर्मचारियों को अनुमति दें कि वह अपने समय का कुछ हिस्सा यानी रुचि के अनुसार वर्टिकल (सहयोगी संगठनों) या अपनी टीम के अलावा अन्य टीम में लगाएं। इसके अलावा किसी भी संगठन में असफलताओं को सबक़ के रूप में देखना सहयोगी मानसिकता को प्रोत्साहित करने की रणनीति होती है।

द) तैयारी में समय लगाएं: संगठनों के लिए यह ज़रूरी है कि वह साझेदारी (आंतरिक या बाह्य दोनों ही प्रकार की) में शामिल प्रक्रियाओं पर ध्यान केंद्रित करे। यानी वे इस पर ध्यान दें कि किस प्रकार साझा उद्देश्यों की पहचान की गई है, नियमित संवाद का स्वरूप कैसा है, संसाधनों को आपस में बांटना, बोर्ड को उद्देश्य की तरफ लगाकर रखना, नेतृत्व से सम्पर्क में रहना और संचालनात्मक क्षमता आदि क्यों महत्वपूर्ण है।

3. संगठनात्मक रणनीति संरेखित करना

अ) रणनीति में ‘साझेदारी का नज़रिया’ शामिल करें: समाजसेवी कार्यक्रमों और/या संगठनों को बनाए रखने, मजबूत करने या बढ़ाने के लिए साझेदारी की व्यवहार्यता का आकलन करें। संगठनात्मक रणनीतियों की समीक्षा करते समय समाजसेवी संगठन आत्मनिरीक्षण कर यह पता लगा सकते हैं कि सहयोगी प्रयास से उनके लक्ष्य को बेहतर तरीके से कैसे मदद मिल सकती है, और यह कैसे उनकी अल्पकालिक या दीर्घकालिक योजनाओं में अपना योगदान दे सकता है।

ब) साझेदारी समीकरणों पर ध्यान केंद्रित करें: संगठनात्मक लक्ष्यों के प्रमुख तत्व के रूप में साझी सफलता के समीकरण को रखना महत्वपूर्ण है। भागीदारों की पहचान करने, साझेदारी बनाने और उन साझेदारियों को बनाए रखने की सफलता का विश्लेषण शुरू से ही एक संगठन की साझेदारी यात्रा को ट्रैक करता है। साथ ही, रास्ते के साथ-साथ समायोजन के लिए जगह बनाता है।

4. एक साझेदारी रणनीति विकसित करना

साझेदारी की यात्रा आरंभ करने के लिए उद्देश्य स्थापित करना पहला कदम है। ऐसा करने के लिए समाजसेवी संस्थाओं को विचार करना चाहिए:

5. एक सहयोग की शुरुआत

जहां ऊपर बताए गए कारक साझेदारी की तत्परता की यात्रा के बारे में बताते हैं, वहीं साझेदारी  में प्रवेश के लिए मुख्य फ़ैसलों तथा प्रतिबद्धता की ज़रूरत होती है। किसी भी दो या अधिक संगठनों को आपस में साझेदारी करने से पहले निम्नलिखित कारकों को ध्यान में रखना चाहिए:

अ) लक्ष्य: प्रत्येक साझेदार को तय किए गए समान लक्ष्य और उसकी पूर्ति के प्रति सहमत होना चाहिए। पहल के कार्यान्वयन और सहयोगी के कामकाज दोनों के लिए सफलता के मानदंड को परिभाषित करने से भागीदारों को प्रभावी ढंग से प्रगति पर नज़र रखने में मदद मिलती है।

ब) भूमिकाएं: कौशल एवं शक्ति के आधार पर प्रत्येक साझेदार की भूमिका को स्पष्ट कर देने से साझेदारी के मूल्य बरक़रार रहते हैं। ज़िम्मेदारियों के विभाजन का दस्तावेजीकरण प्रत्येक पक्ष के लिए सहयोग में समान रूप से योगदान करने के मौके तैयार करता है।

स) प्रतिभा: साझेदारी के लिए समर्पित कर्मियों को अपने संगठन की ओर से चर्चाओं में योगदान देने की ज़रूरत होती है। शुरुआत में वरिष्ठ नेता इस भूमिका को अपनाते हैं और महत्वपूर्ण निर्णय लेने के बाद सहयोगियों को सौंप देते हैं।

द) मॉडल/प्रारूप: अपने मौजूदा कार्यक्रम को विस्तार देने के इच्छुक समाजसेवी भागीदारों के बीच क्षमता निर्माण की क्षमता के साथ एक प्रतिकृति मॉडल की आवश्यकता होती है। अपनी पहल के भीतर अन्य कार्यक्रमों को एकीकृत करने की चाह रखने वाले साझेदार के लिए आवश्यक है कि वे इस बात की पहचान करें कि अपने लक्षित समुदायों को प्रभावित करने के लिए इसे कैसे टिकाऊ बनाया जा सकता है। दोनों पक्षों के बीच साझेदारी के प्रारूप या मॉडल को लेकर स्पष्टता होनी चाहिए।

ई) समीक्षा: निगरानी और मूल्यांकन प्रणालियां सहयोगी कार्रवाई की दिशा में सूचित करने और जवाबदेही बनाए रखने के लिए महत्वपूर्ण आंकड़े प्रदान करती हैं। बीच-बीच में होने वाली समीक्षाओं में संचालन के प्रभावी होने, परिभाषित लक्ष्यों को प्राप्त करने में प्रगति और सामूहिक रूप से भागीदारों के कामकाज जैसे पहलुओं पर ध्यान केंद्रित किया जाता है। साझेदारों में आंकड़ों को लेकर पारदर्शिता रहने से प्रत्येक व्यक्ति को आम तथा संगठनात्मक लक्ष्यों को प्राप्त करने में अपने योगदान को लेकर सोचने में आसानी होती है और वह अपने योगदान के उचित आकलन में सक्षम हो पाता है।

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बुजुर्गों के लिए बनी एक हेल्पलाइन समाजसेवी संस्थाओं को विस्तार के तरीके सिखाती है

एल्डर लाइन एक राष्ट्रीय हेल्पलाइन है जिसे अक्टूबर 2021 में भारत सरकार द्वारा कानूनी, वित्तीय, स्वास्थ्य या सामाजिक मामलों से जूझ रहे बुजुर्गों को सहायता प्रदान करने के लिए शुरू किया गया था। यह हेल्पलाइन एक टोल-फ़्री नम्बर (14567) है। इसे तेलंगाना राज्य सरकार और टाटा ट्रस्ट्स द्वारा मार्च 2019 और सितम्बर 2020 के बीच हैदराबाद में शुरू किया गया था। धीरे-धीरे इस कार्यक्रम का विस्तार देश के सभी राज्यों एवं केंद्र-शासित प्रदेशों में भी किया गया।

सोशल सेक्टर में, सफलता का एक महत्वपूर्ण संकेत यह है कि सरकार उस कार्यक्रम को अपनाए और उसका विस्तार करे, जिसका डिज़ाइन, जिसकी अवधारणा और क्रियान्वयन किसी नागरिक संगठन ने किया हो। इसके कई उदाहरण हैं जैसे कि 108 आपातकालीन प्रतिक्रिया सेवा, स्वयं सहायता समूह और आशा कार्यकर्ता। एल्डर लाइन सेवा इस ‘एडॉप्शन एंड स्केल अप बाय गवर्नमेंट’ मॉडल का सबसे ताजा उदाहरण है। हालांकि किसी भी प्रयास के विस्तार में आने वाली बाधाएं कार्यक्रम-विस्तार के स्वरूप और इसकी प्रभारी टीम के आधार पर अलग हो सकती हैं। लेकिन हमारा ऐसा मानना है कि इस पहल से कुछ ऐसी सीखें मिली हैं जो इस सेक्टर के लिए मूल्यवान साबित हो सकती हैं।

1. अपना पक्ष तैयार करें

अपने कार्यक्रम का विस्तार चाहने वाले संगठनों को, अक्सर सहयोग की ज़रूरत के बारे में सरकार को समझाना पड़ता है। यह पहली बाधा होती है जो कार्यक्रमों के विस्तार की प्रक्रिया में आती है। हमें इस सेवा की ज़रूरत से जुड़े सवालों के जवाब देने पड़े और साथ ही, विस्तार से यह भी बताना पड़ा कि हमारी हेल्पलाइन अन्य कॉल सेंटरों से किस तरह अलग है। इसके अतिरिक्त, हमें बड़े उद्देश्य भी स्थापित करने पड़े जिसके तहत इस हेल्पलाइन पर सम्पर्क करने वाले कॉलर को अतिरिक्त सुविधा एवं सेवा प्रदान करनी होती थी। जमीनी मुद्दों पर प्रतिक्रिया देने और राज्य भर के समुदायों के साथ काम करने में सक्षम हमारी मौजूदा टीम की विशेषता को रेखांकित कर हमने सरकारी अधिकारियों को इस मॉडल की ताक़त को समझाने में सफलता हासिल की।

इसके अतिरिक्त, ये कॉल अपने आप ही बुजुर्गों को परेशान करने वाले बड़े मुद्दों के छोटे उदाहरणों की तरह काम करते हैं। ये हस्तक्षेप की ज़रूरत वाले क्षेत्रों की पहचान में हमारी मदद करते हैं जहां सरकार, विकास क्षेत्र के भागीदारों या समुदाय की मदद से बेहतर काम किया जा सकता है। उदाहरण के लिए, जुलाई 2022 में आयोजित रथ यात्रा के दौरान, ओड़िशा राज्य सरकार ने एल्डर लाइन नंबर और इसकी सेवाओं को लोकप्रिय बनाया। ओडिशा की राज्य सरकार ने पाया कि राज्य में ओडिशा कनेक्ट सेंटर और एल्डर लाइन के कॉल सेंटर के जरिए सामाजिक सुरक्षा पेंशन से संबंधित कॉल्स की संख्या में वृद्धि देखी गई। राज्य सरकार की नीति के अनुसार, पात्रता रखने वाले किसी वरिष्ठ नागरिक को ऑनलाइन आवेदन जमा करने की निश्चित अवधि के भीतर सामाजिक सुरक्षा पेंशन मिलनी चाहिए। हालांकि कॉल करने वाले लोगों ने बताया कि उन्होंने करीब तीन साल पहले पेंशन के लिए आवेदन दिया था लेकिन पोर्टल पर आज भी यही दिखा रहा है कि उनका आवेदन प्रक्रिया में है।

कोविड-19 महामारी द्वारा भी इस प्रोजेक्ट के विस्तार में मदद मिली।

इसके बाद टीम ने आवेदनों की स्थिति की जांच शुरू की तो पता चला कि पेंशन प्राप्त करने की प्रक्रिया के पहले चरण में पंचायत कार्यकारी अधिकारी से अनुमति प्राप्त करनी होती है। लेकिन यह काम उनकी मुख्य ज़िम्मेदारियों में शामिल नहीं होने के कारण अधिकारियों ने आवश्यक सत्यापन के लिए पोर्टल खोलकर देखा ही नहीं था। टीम ने इस तरह की समस्याओं के दायरे का पता लगाया और पेंशन वितरण प्रशासन को कुछ सुझाव दिए। सुझाए गए परिवर्तनों में मॉनिटरिंग के तरीकों को शामिल किया गया था ताकि राज्य में, इस प्रक्रिया को वरिष्ठ नागरिकों के अनुकूल बनाने के लिए लोगों को ज़िम्मेदार बनाया जा सके और पारदर्शिता के स्तर को बढ़ाया जा सके।

कोविड-19 महामारी द्वारा भी इस प्रोजेक्ट के विस्तार में मदद मिली। 2019 में सामाजिक न्याय मंत्रालय के साथ होने वाली शुरुआती मीटिंग में हमें बताया गया कि वे इस प्रोजेक्ट के विस्तार में शामिल होने को लेकर इतनी जल्दी फ़ैसला नहीं ले सकते हैं। हालांकि महामारी के आने और तेलंगाना में एल्डर लाइन के सफल कार्यान्वयन के कारण सरकार को देशभर के वरिष्ठ नागरिकों के लिए इस तरह की सेवा के महत्व को समझने में भी आसानी हुई। उसके कुछ ही दिनों बाद हम मंत्रालय के साथ मिलकर सभी राज्यों एवं केंद्रशासित प्रदेशों में इस सेवा के लिए इंफ़्रास्ट्रक्चर तैयार करने का काम कर रहे थे।

2. सार्वजनिक क्षेत्र के बुनियादी ढांचे का उपयोग करें

हेल्पलाइन के महत्व के बारे में सरकार को समझाने और इसके विस्तार को सुविधाजनक बनाने के उद्देश्य से इसे बोर्ड में लाने के परिणामस्वरूप कई तरह की नई चुनौतियां सामने आईं। हमें अपने दृष्टिकोण को क्रियान्वित करने के लिए मौजूदा सरकारी बुनियादी ढांचे का उपयोग करने का निर्देश दिया गया था। इसमें किसी निजी संस्था के बजाय राष्ट्रीय सूचना विज्ञान केंद्र (एनआईसी) के क्लाउड सर्वर का उपयोग करना शामिल था क्योंकि हम देश के वरिष्ठ नागरिकों से संबंधित संवेदनशील डेटा पर काम करने वाले थे। उन्होंने यह भी अनिवार्य किया कि हम एल्डर लाइन की सभी टेलीफोन/इंटरनेट आवश्यकताओं के लिए बीएसएनएल का उपयोग करें। इन शासनादेशों के परिणामस्वरूप हेल्पलाइन के राष्ट्रव्यापी लॉन्च में कुछ देरी हुई क्योंकि एनआईसी और बीएसएनएल जैसे संस्थानों की कई अन्य प्राथमिकताएं थीं। इसके अतिरिक्त, एनआईसी के क्लाउड का उपयोग करने के लिए विशिष्ट प्रोटोकॉल का पालन किया जाना था क्योंकि सर्वर की सुरक्षा सर्वोपरि थी।

इसे विस्तार से जानने के लिए निजी क्लाउड सेवा प्रदाताओं की भूमिका पर विचार करते हैं। वे आमतौर पर एक खाता प्रबंधक नियुक्त करते हैं, जो यह सुनिश्चित करता है कि ग्राहकों की आवश्यकताओं को पूरा किया गया है। साथ ही, आवश्यकता होने पर यह समस्या का निवारण भी करता है। हालांकि, एनआईसी में, सुरक्षा कारणों से क्लाउड सेवा के विभिन्न पहलुओं के लिए अलग-अलग लोग जिम्मेदार हैं। इसलिए, एनआईसी के अधिकारियों तक पहुंचना और अनुमोदन प्राप्त करना एक बाहरी संस्था के रूप में हमारे लिए एक अधिक समय लेने वाली प्रक्रिया थी।

देरी का एक और उदाहरण हमारे सामने तब आया जब हम निर्बाध सेवा सुनिश्चित करने का प्रयास कर रहे थे। हेल्पलाइन के लिए बिजली, टेलीफोन और इंटरनेट कनेक्शन जैसी सभी महत्वपूर्ण सेवाओं का बैकअप होना चाहिए। प्राथमिक टेलीफोन कनेक्शन बीएसएनएल नेटवर्क का है। लेकिन एक अन्य सेवा प्रदाता से सेकंडरी कनेक्शन भी लिया गया है ताकि प्राथमिक कनेक्शन डाउन होने की स्थिति में कॉल ऑटोमैटिकली इसके माध्यम से रूट की जाती हैं।

सार्वजनिक क्षेत्र के बुनियादी ढांचे का उपयोग करना लंबे समय में हमारे पक्ष में रहा।

हमें यह पता लगाने में कुछ समय लगा कि क्या हमारे लिए ऐसी प्रणाली स्थापित करना संभव होगा और साथ ही इसे कारगर बनाने के लिए हमें किससे सम्पर्क करने की ज़रूरत है। एक बार ऐसा करने के बाद, इसे हर राज्य/केंद्र शासित प्रदेश में दोहराया जाना था, और प्रत्येक केंद्र पर काम कर रहे कर्मचारियों को इस प्रक्रिया को समझाने में काफी समय लगा और हमें बहुत मेहनत भी करनी पड़ी।

हालांकि शुरुआत में हमें चुनौतियों का सामना करना पड़ा और इस प्रक्रिया में बहुत देरी भी हुई। लेकिन सार्वजनिक क्षेत्र के बुनियादी ढांचे का उपयोग करना लंबे समय में हमारे पक्ष में रहा। ऐसा इसलिए क्योंकि दादरा और नगर हवेली, दमन और दीव और लद्दाख जैसे केंद्र शासित प्रदेशों में बीएसएनएल के अलावा इंटरनेट और टेलीफोन कनेक्टिविटी के लिए कोई सेवा प्रदाता नहीं है। इसके अतिरिक्त, सर्वर की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए सख्त प्रोटोकॉल का पालन किया गया था, और इस पूरी प्रक्रिया में किसी भी नियम का उल्लंघन नहीं किया गया।

हमने जाना कि सरकार के माध्यम से अपने कार्यक्रमों को विस्तार देने की मांग करने वाली समाजसेवी संस्थाओं को मौजूदा सार्वजनिक क्षेत्र के बुनियादी ढांचे के साथ काम करने के तरीकों में कुशल होना चाहिए। हालांकि यह समय लेने वाला हो सकता है लेकिन लंबे समय में फायदेमंद होता है।

3. स्थानीयकरण की अनुमति दें

विस्तार करने पर दी जाने वाली एकरूपता जहां आकर्षक लगती है। वहीं इन कार्यक्रमों को लागू करने की चुनौतियां और इसके द्वारा लक्षित किए जा रहे समूहों के अनुभव विभिन्न क्षेत्रों में अलग-अलग हो सकते हैं। इसलिए, एल्डर लाइन ने एक विकेन्द्रीकृत दृष्टिकोण रखने का सोचा-समझा फैसला किया, जहां एकल, केंद्रीकृत कार्यान्वयन एजेंसी की बजाय प्रत्येक राज्य का अपना कार्यान्वयन भागीदार होना था। इसलिए हेल्पलाइन नंबर, प्रक्रियाओं के लिए व्यापक दिशानिर्देश और लोकाचार जहां सभी राज्यों में एक जैसे हैं, वहीं प्रत्येक राज्य यह सुनिश्चित करता है कि बुजुर्गों की सेवा करते समय स्थानीय विविधताओं को ध्यान में रखा जाए। आज हमारी चुनौतियां इस बात से संबंधित हैं कि कैसे हम राज्य की विशेषताओं के साथ अपना संबंध बनाए रखते हुए देशभर में सेवा का मानकीकरण कर सकते हैं। एक राज्य से दूसरे राज्य में उभरने वाले मुद्दों के आधार पर एल्डर लाइन अभी भी अपनी प्रक्रियाओं में सुधार ला रही है।

जब कोई कार्यक्रम विस्तार करता है तो उसे ऐसी चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है जिनकी कभी परिकल्पना नहीं की गई थी। हैदराबाद में एल्डर लाइन लागू होने के बाद, हमने लगभग 200 बेघर बुजुर्गों को बचाया और उनमें से 70 को राज्य के भीतर ही परिवार के सदस्यों से दोबारा मिलवा दिया गया। हालांकि, विस्तार करने पर, हमें ऐसे कई मामले मिले जहां एक राज्य में मदद हासिल करने वाले बुजुर्ग दूसरे राज्य के थे। ऐसे कुछ मामले देखने के बाद, हमने अंतर्राज्यीय बचाव और बेघर बुजुर्गों के पुनर्मिलन के लिए एक व्यापक प्रक्रिया स्थापित की।

इसी तरह, अपने विस्तार की इच्छा रखने वाले किसी भी संगठन को इस तथ्य को ध्यान में रखना चाहिए कि एक ही दृष्टिकोण सभी क्षेत्रों के लिए काम नहीं कर सकता है। हालांकि, प्रक्रियाओं को मजबूत करने के साथ-साथ स्थानीय दृष्टिकोण को लागू करने के लिए राज्य भागीदारों को सशक्त बनाना लाभप्रद हो सकता है।

समुद्र तट पर टहलते दो बुजुर्ग_भारत के बुजुर्ग
कार्यक्रम कार्यान्वयनकर्ताओं को अपने लक्षित समूहों की प्राथमिकताओं के बारे में जानने में समय व्यतीत करना चाहिए। | चित्र साभार: नागेश जयरमन / सीसी बीवाई

4. व्यावहारिक दृष्टिकोण अपनाएं

हस्तक्षेप कार्यक्रमों के डिजाइन और निष्पादन दोनों में मुख्य कर्मियों का शामिल होना अत्यावश्यक है। आपको दिन-प्रतिदिन के स्तर का कामकाज करने पर समय बिताने के लिए तैयार रहना होगा। ध्यान रखें कि चूंकि आप अपने कार्यक्रम प्रबंधकों या फील्ड टीमों के साथ बेहतर संवाद कर पाएंगे इसलिए ऐसा करने से आपको विस्तार से जुड़े निर्णय लेने में मदद मिलेगी। व्यावहारिक दृष्टिकोण टीम को यह समझने में भी सक्षम बनाता है कि कार्यान्वयन में क्या बाधाएं हो सकती हैं, और उन लोगों को तय ढांचे वाला मार्गदर्शन प्रदान करता है जो कार्यक्रम के विस्तार के बाद कार्य को आगे बढ़ाएंगे।

5. अपने लक्ष्य को समझें

एल्डर लाइन को डिजाइन करते समय, हमने देश में मौजूदा हेल्पलाइनों का व्यापक अध्ययन किया, विशेष रूप से 108 इमरजेंसी रिस्पांस सर्विस और 1098 चाइल्डलाइन जो कि संकट में बच्चों के लिए बनाई गई एक हेल्पलाइन है। इन हेल्पलाइनों की जांच से मिली सीख के आधार पर, हमने यह तय करने की दिशा में काम किया कि हेल्पलाइन को बुजुर्गों की प्राथमिकताओं को ध्यान में रखते हुए डिजाइन किया जाए। कार्यक्रम लागू करने वालों को अपने टारगेटेड समूहों की प्राथमिकताओं के बारे में जानने-समझने में समय व्यतीत करना चाहिए, क्योंकि यह नई चीजों के अनुकूल बनने, इसका नियमित उपयोग करने और सेवा को बेहतर बनाने की कुंजी है।

आईवीआर सिस्टम बुजुर्गों के लिए अत्यधिक थकाऊ और नेविगेट करने में भ्रमित करने वाला हो सकता है।

सबसे पहले देशभर में हेल्पलाइन का नंबर 14567 है। यह संख्या एक ऐसा छोटा कोड है जिसमें एसटीडी कोड जोड़ने की आवश्यकता नहीं होती है और एक वरिष्ठ नागरिक के लिए इसे याद रखना आसान होता है। किसी विशेष राज्य/केंद्र शासित प्रदेश से होने वाली सभी कॉल उसी राज्य/केंद्र शासित प्रदेश के भीतर कनेक्ट सेंटर को निर्देशित की जाती हैं, और यह उस सेल टॉवर के आधार पर निर्धारित किया जाता है जिससे कॉल की शुरुआत होती है। इसके अलावा, हेल्पलाइन पर कॉल करने से कॉल करने वाला इंटरएक्टिव वॉयस रिस्पांस (आईवीआर) सिस्टम के बजाय सीधे अपने स्थानीय कनेक्ट सेंटर अधिकारी से जुड़ जाता है। इसके पीछे की समझ यह थी कि आईवीआर सिस्टम बुजुर्गों के लिए अत्यधिक थकाऊ और नेविगेट करने में भ्रमित करने वाला हो सकता है। अंत में, कनेक्ट सेंटर के कर्मचारियों को कॉल करने वालों से दया और धैर्य वाले भाव के साथ स्थानीय भाषा में बातचीत करने के लिए प्रशिक्षित किया जाता है। एक नियमित कॉल सेंटर के विपरीत, कॉल को बंद करने के लिए कोई निश्चित ऊपरी समय सीमा नहीं है।

6. विस्तार के लिए डिजाइन

सरकार के लिए एल्डर लाइन के सफल क्रियान्वयन और उसके विस्तार के बाद यह कहा जा सकता है कि इसकी अवधारणा और निर्माण, विस्तार के इरादे से ही की गई थी। जहां बुजुर्गों के लिए बनाई गई अन्य हेल्पलाइनों को एक या कुछेक लोगों की एक टीम पर भरोसा करते हुए छोड़ दिया जाता है जो कॉल और ज़मीनी स्तर पर समस्याओं को सुलझाती हैं। वहीं, एल्डर लाइन के पास केंद्र और फ़ील्ड टीम से जुड़ने के लिए अलग-अलग लाइन हैं और इन लाइन पर बैठने वाले लोग अपना काम प्रभावशाली तरीक़े से करने के लिए प्रशिक्षित हैं।

टीमों के दोनों समूहों को डोमेन से संबंधित सात दिनों का प्रशिक्षण दिया गया था, जिससे उन्हें यह समझने में मदद मिली कि हेल्पलाइन की आवश्यकता क्यों है, बुजुर्गों के मुद्दे क्या हैं, विभिन्न योजनाएं और नीतियां जो बुजुर्गों से संबंधित हैं, संभावित प्रश्न जो वे पूछ सकते हैं, और कैसे वे बुजुर्गों से बात करते समय उनके साथ सहानुभूति रख सकते हैं।

इसके अतिरिक्त, हमने एक समान केंद्रीय सॉफ्टवेयर का उपयोग किया, जिससे सभी राज्यों की टीमें जुड़ी हुई हैं। सॉफ्टवेयर में प्रत्येक राज्य के लिए अलग-अलग ‘रूम’ होते हैं, जो यह सुनिश्चित करते हैं कि किसी विशेष राज्य की टीम केवल अपने राज्य से संबंधित डेटा तक ही पहुंच सकती है। इसका उद्देश्य मॉडल को इस तरह से स्थापित करना था जो इसे पूरे देश में विस्तार करने और दोहराने के योग्य बनने दे जिससे सरकार के लिए इसे अपने हाथ में लेना और चलाना आसान हो।

7. शुरू से ही सरकारी मशीनरी के साथ काम करें

यह सुनिश्चित करने के अलावा कि कार्यक्रम को विस्तार के लिए डिज़ाइन किया गया था, हमने उनके साथ सहयोग करने के लिए कार्यक्रम की संकल्पना में जल्दी ही सरकार से संपर्क किया। शुरुआत में सरकार का सहयोग प्राप्त करने से हमें अपनी योजना को अधिक प्रभावी तरीके से लागू करने में मदद मिली। हमारे पास संबंधित राज्य विभागों का समर्थन होने के कारण क्षेत्र में हमारे संचालन विभिन्न राज्यों में सुचारू रूप से आगे बढ़ रहे हैं। यह सहयोग पुलिस जैसे स्थानीय अधिकारियों को हमारी टीम के अनुरोधों के प्रति अधिक उत्तरदायी बनाता है और इसमें उन्हें भी शामिल करता है जिनकी हम सहायता करना चाहते हैं। टीम सरकारी अस्पतालों/औषधालयों, जिला कानूनी सेवा प्राधिकरणों और कानूनी सहायता क्लीनिकों, वृद्धाश्रमों और आश्रय गृहों के साथ-साथ सरकार और नागरिक समाज संगठनों द्वारा संचालित डे-केयर केंद्रों जैसे संस्थानों की मदद लेने में भी सक्षम थी।

इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें

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समाजसेवी संस्थाएं अपने कार्यक्रमों की साझेदारी कैसे तैयार कर सकती हैं?

एक सेक्टर के रूप में हमने एक अधिक न्यायसंगत दुनिया के अपने दृष्टिकोण को साकार करने के लिए बड़े ही उत्साह के साथ काम किया है। चाहे हम 100 करोड़ रुपए वाले किसी राष्ट्र स्तरीय संगठन का हिस्सा हों या फिर किसी विशेष क्षेत्र में केंद्रित होकर काम करने वाली किसी छोटी संस्था के साथ काम कर रहे हों, हम एक ऐसे बिंदु पर पहुंच चुके हैं जहां समस्याएं अपने आप में इतनी जटिल हैं कि केवल हमारे द्वारा दिए गए निजी समाधान इनके लिए पर्याप्त नहीं हो सकते हैं। 

आज, अपने संगठन के उद्देश्यों को भी प्राप्त करने के लिए, हमें अपनी उपस्थिति को बढ़ाने की बजाय, अपने विचारों और दृष्टिकोणों को विस्तार देने की आवश्यकता है। साझेदारियां इस प्रक्रिया को तेज करने वाले चालक के रूप में काम करती हैं।

सहयोग फ़ाउंडेशन द्वारा हाल ही में 160 समाजसेवी संस्थाओं के नेताओं के साथ किए गए सर्वेक्षण में यह बात सामने आई है कि 96 फ़ीसद का ऐसा मानना है कि साझेदारी से कार्यक्रमों को विस्तार देना सम्भव है। फिर भी, इनमें से केवल आधे लोगों के पास ही इस दिशा में आगे बढ़ने के लिए पर्याप्त रणनीति है। रणनीति के स्तर पर उनकी यह कमी इस सेक्टर की एक ऐसी बात है जो हम सभी पिछले कुछ समय से जानते हैं: साझेदारी एक मुश्किल काम है। इन्हें कारगर बनाने के लिए, संस्थाओं को साझेदारियों से जुड़े ‘कैसे’ के जवाबों के लिए फैसले लेने के साथ-साथ ‘क्यों’ और ‘क्या’ के लिए भी रणनीति बनाने पर समय लगाने की जरूरत है। इसकी शुरूआत के लिए जरूरी कुछ कदमों पर आगे बात की गई है।

सबसे पहले एक सही साझेदार की तलाश करें

सबसे आम विकल्प परिचित या जाने-माने नेताओं और संगठनों के साथ साझेदारी करना है। हालांकि, जरूरी नहीं है कि सबसे सहज या स्पष्ट चुनाव हमेशा सबसे अच्छी साझेदारी साबित हो ही। इसलिए चयन के लिए मानदंडों की एक सूची तैयार करना बहुत उपयोगी होता है।

दो रस्सियाँ एक साथ बंधी हुई_भारतीय एनजीओ
समाजसेवी संस्थाओं के नेताओं को सहयोग और साझेदारी की ज़रूरत को पहचानने की आवश्यकता है। | चित्र साभार: पिक्साबे

1. अपनी मनचाही साझेदारियों और कार्यक्रमों के नतीजों पर फिर सोचें

यह उस मुद्दे के आसपास ध्यान केंद्रित करने में मदद करता है जिस पर आप काम कर रहे हैं। एक बार यह हो जाने के बाद, संभावित साझेदारों की पहचान करने के लिए एक आउटरीच रणनीति विकसित करें – इससे आप अपने नेटवर्क से परे देख सकते हैं और नए रिश्ते बन सकते हैं। कुछ आउटरीच तरीके जिन पर आप विचार कर सकते हैं:

2. अपने रुचि के आधार पर भागीदारों की सूची बनाएं

विशेष रूप से, साझेदारों को नीचे दिए गए विषयों पर एक सी सोच रखनी महत्वपूर्ण है:

3. अपने बोर्ड और सलाहकार सदस्यों के परामर्श से साझेदारी समझौता बनाएं

आप जिस भी साझेदारी में शामिल हैं, उसकी शर्तों पर पूर्ण स्पष्टता सुनिश्चित करें, इसमें निम्नलिखित बिंदु शामिल होने चाहिए:

इसके बाद अपने कार्यक्रम को छोटी साझेदारियों में विभाजित करें

कई वर्षों तक अपना कार्यक्रम चलाने के बाद हमारे लिए शुरुआती दौर में किए गए उन समझौतों को भूलना आसान है जो हमने इसे ज़मीनी स्तर पर लाने के दौरान किए थे। साझेदारी के लिए समान स्तर के अनुकूलन की जरूरत होती है – इस समय हमें यह मान कर चलना होता है कि साझेदार के पास न के बराबर पूर्व-ज्ञान है। इस प्रकार की धारणा के साथ काम करने से कार्यक्रम को सुचारू रूप से अपनाने के लिए निम्नलिखित को तैयार करने में मदद मिलती है।

1. कॉन्टेंट

कॉन्टेंट (सामग्री) में साझेदारी वाला नज़रिया लागू करने से आपके साझेदार को प्रशिक्षण सामग्रियों, कार्यान्वयन प्रक्रियाओं, अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्नों और हस्तक्षेपों की सफलता का समर्थन करने वाले प्रमाणों की जानकारियां देना और अंतर्दृष्टि प्रदान करना शामिल होगा। आंकड़ों की साझेदारी और एट्रीब्यूशन को लेकर बातचीत करने की आवश्यकता होती है।

2. मानव संसाधन

किसी भी प्रकार की साझेदारी की सफलता में मानव संसाधन की एक जरूरी भूमिका होती है। इसलिए, अपनी टीम की क्षमताओं का मूल्यांकन करना बहुत ही आवश्यक होता है, फिर चाहे यह साझेदारी प्रबंधन के लिए हों या फिर भागीदार की क्षमता निर्माण के लिए। साझेदारी प्रबंधन (पार्टनरशिप मैनेजमेंट) में आमतौर पर प्रतिभा की जरूरत होती है जो सहयोग को बढ़ावा देती है और संभावित संघर्ष को प्रबंधित करने में सक्षम होती है। साथ ही, यह मौके की खास जरूरतों को पूरा करने के हिसाब से कार्यक्रमों को अनुकूलित करना जानती है और यह सुनिश्चित करती है कि साझेदारी का दस्तावेज़ीकरण सही प्रकार से हो रहा है। क्षमता समर्थन की पहचान आमतौर पर भागीदार चयन प्रक्रिया के दौरान की जाती है। अपने भागीदार की ज़रूरत और आपके संगठन की क्षमता को जानने से आपको पता चल जाता है कि अलग-अलग भूमिकाओं के लिए आपको किसी को नियुक्त करने या भीतर से ही किसी को चुनने की जरूरत है।

3. संचालन और लागत

साझेदारी शुरू करने के लिए आवश्यक समय और वित्तीय संसाधनों पर विचार करना महत्वपूर्ण है। इसके अलावा आवश्यकताओं के आकलन, निगरानी, ​​​​संचार और दस्तावेज़ीकरण सहित एंड-टू-एंड प्रोग्राम कार्यान्वयन की भी ज़रूरत होती है। संचालन और लागत भौगोलिक क्षेत्रों, भागीदार संगठन के आकार, और प्रशिक्षण के ऑनलाइन, ऑफ़लाइन या मिश्रित तरीके के चयन के आधार पर भिन्न हो सकते हैं।

साझेदारी की लागत में निम्नलिखित चीजें शामिल हो सकती है:

4. वित्तीय संसाधन एवं फंडरेजिंग

साझेदारी के लिए फंडरेजिंग पर साझेदारों के साथ खुलकर बातचीत करना जरूरी है क्योंकि ऐसा हो सकता है कि भागीदार समाजसेवी संस्थाओं को साथ मिलकर फ़ंड देने वालों से संपर्क करने की आवश्यकता पड़े। इन परिस्थितियों में आपस में साझेदारी कार्यक्रम की लागत के आकार, मौजूदा फंडर संपर्कों से होने वाले लाभ, और फंडर्स के प्रतिनिधित्व में इक्विटी जैसे विषयों को लेकर पारदर्शिता और स्पष्टता होनी चाहिए।

साझेदारी के लिए फंड की मांग करते समय, सुनिश्चित करें कि आपके पास निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर उपलब्ध हैं:

आगे की राह

साझेदारी उस सामाजिक प्रगति को दोबारा हासिल करने का एक अवसर है जिसे हमने इस पिछले वर्ष में खो दिया है – चाहे वह खोई हुई आजीविका के संदर्भ में हो, कुपोषण में वृद्धि हो, या सीमित स्वास्थ्य सुविधाओं पर अत्यधिक बोझ से संबंधित हो। कार्यक्रम की विशेषज्ञता, सामुदायिक संबंधों तथा प्रतिभा का लाभ उठाकर, साझेदारी हमें उन लोगों की बहुआयामी जरूरतों को पूरा करने के लिए प्रेरित कर सकती हैं जिनकी हम सेवा करते हैं। हालांकि, नेताओं और संगठनों के बीच किसी स्वाभाविक साझेदारी की तैयारी के बिना सफलता की संभावनाएं सीमित ही दिखाई पड़ती है। इसलिए समाजसेवी नेताओं के लिए सहयोग और साझेदारी की आवश्यकता को पहचानने का समय आ गया है। इस सांस्कृतिक नींव को अब मजबूत करने से संगठन के लक्ष्यों को प्राप्त करने और प्रभाव को बढ़ाने के लिए समावेशी रणनीतिक योजना को सक्षम बनाया जा सकेगा।

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चार जनजातियां, चार व्यंजन और परंपरागत खानपान पर ज्ञान की चार बातें

भारत के तमाम समुदायों में, लगभग 6,000 क़िस्मों के चावल, 500 से अधिक तरह के अनाज और सैकड़ों प्रकार की सब्ज़ियां और जड़ी-बूटियां उगाई और खपत की जाती हैं। इतना ही नहीं। देसी खाने के स्वाद में लगातार हो रही यह बढ़त यहां के लोगों की विविध और समय के साथ बदल रही खाने पकाने की तकनीकों से भी आती है।

भारतीय भोजन में सब्ज़ियों के डंठल, तनों और छिलकों का इस्तेमाल मुख्यधारा के मीडिया द्वारा लाई गई ज़ीरो-वेस्ट कुकिंग मुहिम के बहुत पहले से कर रहे हैं। जहां खाने पकाने के कुछ तरीके सामाजिक नियमों से निकले हैं, वहीं कुछ के पीछे स्थानीय जैवविविधता और पारंपरिक चिकित्सा पद्धतियां हैं।

आईडीआर के साथ इस बातचीत में भारत की चार अलग-अलग जनजातियों के चार शेफ़ (रसोइये) अपनी पसंदीदा रेसिपी (व्यंजन) के बारे में बता रहे हैं। यहां वे बता रहे हैं कि देसी व्यंजनों और उन्हें तैयार करने के परंपरागत तरीकों को बचाए रखना क्यों जरूरी है और उन्हें क्यों डर है कि इस खानपान को बनाए रखने के लिए जरूरी संसाधन और ज्ञान खो सकता है।

सोडेम क्रांतिकिरण डोरा, कोया जनजाति, आंध्र प्रदेश

मैं आंध्र प्रदेश के पश्चिम गोदावरी जिले के चिन्नाजेडीपुडी गांव का एक घरेलू रसोइया और किसान हूं। मैं ह्यूमन्स ऑफ़ गोंडवाना प्रोजेक्ट में एक कम्यूनिटी आउटरीच पर्सन के रूप में भी काम करता हूं। बीते कुछ सालों से मैं आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, तेलंगाना और अन्य राज्यों में रहने वाली विभिन्न जनजातियों के पारंपरिक भोजन का दस्तावेजीकरण कर रहा हूं।

मैं जिस कोया जनजाति से आता हूं, उसका पौष्टिक भोजन खाने का समृद्ध इतिहास रहा है। हमारा अधिकांश भोजन जंगलों से आता था। हम सब्जियां, जड़ी-बूटियां और फूल, जिसमें महुआ का फूल भी शामिल है, वगैरह खाते थे। महुआ के बारे में बहुत से लोग जानते तो हैं लेकिन वे इसे केवल शराब से जोड़कर देखते हैं। हालांकि आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, झारखंड और महाराष्ट्र में रहने वाली कोया और अन्य जनजातियां महुआ के फूलों का उपयोग खीर, जैम, बिस्कुट और लड्डू आदि बनाने के लिए करती हैं। बल्कि, हमारे समुदाय की गर्भवती महिलाएं अब भी महुआ लड्डू का सेवन करती हैं क्योंकि यह हीमोग्लोबिन बढ़ाता है और उनके लिए आयरन सप्लीमेंट का काम करता है।

महुआ लड्डू रेसिपी-आदिवासी खाना
चित्र और रेसिपी साभार: सोडेम क्रांतिकिरण डोरा

कभी पश्चिम गोदावरी जिले में महुआ और तेंभुरनी सरीखी देसी चीजें प्रचुर मात्रा में हुआ करती थीं। लेकिन अब ऐसा नहीं रह गया है। अब इन्हें हम अपने पड़ोसी जिले पूर्वी गोदावरी से खरीदते हैं। हमारे जिले में चल रही झूम खेती के कारण, वन क्षेत्र का वह बहुत बड़ा ऐसा हिस्सा हमने खो दिया जहां हम महुआ उगाते थे। उसके बाद और विकास परियोजनाएं आईं जिनके कारण अब जंगल तक हमारी पहुंच लगभग समाप्त हो गई है। अब हम कानूनी रूप से अपने जंगलों से संसाधन इकट्ठा नहीं कर सकते हैं।

कई छोटे-छोटे स्वयं सहायता समूह हैं जो हमारे भोजन को लेकर लोगों में जागरूकता फैलाने का काम कर रहे हैं और लोगों को महुआ उत्पादों को पैक करने और बाज़ार में बेचने का प्रशिक्षण भी दे रहे हैं। इन समूहों का दूरगामी प्रभाव पड़ा है। इसी तरह के समूहों के प्रयासों ने तेलंगाना में, एक आईएएस अधिकारी का ध्यान अपनी तरफ आकर्षित किया। उस अधिकारी ने फिर महुआ को मिनी आंगनबाड़ियों में ले जाने का काम किया, जहां अब यह नई मांओं के लिए पोषण का स्रोत बन रहा है। लेकिन टिकने के लिए इन समूहों को सरकार से वित्तीय सहायता की आवश्यकता है। यदि समाजसेवी संस्थाएं भी बेहतर बाजार संपर्क बनाने में इन स्वयं सहायता समूहों का समर्थन करने पर ध्यान दे सकें तो यह बहुत अच्छी पहल होगी।

कल्पना बालू अटकरी, वारली जनजाति, महाराष्ट्र

मैं महाराष्ट्र के पालघर जिले के मूल निवासी वारली समुदाय से आती हूं। आम दिनों में इस समुदाय के लोग अपने दिन की शुरुआत नारियल या चावल भाखरी (फ्लैटब्रेड) के नाश्ते के साथ करते हैं। इसके बाद मोरिंगा, अन्य पौष्टिक सब्जियों और पत्तियों के साथ पकाई गई तूर (अरहर) दाल खाई जाती है। इसमें सूरन (याम) करी और तूर फली के उबले गोले भी शामिल हो सकते हैं। हमारे खान-पान की आदतें मौसम और उस मौसम में हमारे गांवों में उगाए जाने वाले अनाजों और सब्ज़ियों पर निर्भर करता है। उदाहरण के लिए फ़रवरी में जब सूर्य निकलने लगता है तब हम लोग रागी अंबिल (रागी से बना शीतल पेय पदार्थ) पीते हैं।

समय बदलने के साथ हमारा खानपान भी बहुत बदल गया है। हमारी दादी-नानियां चूल्हे (मिट्टी से बने) पर खाना पकाती थीं। लेकिन अब हम लोग गैस के चूल्हों का उपयोग करते हैं और इसलिए खाने के स्वाद में भी अंतर आ गया है। इससे भी बड़ी बात यह है कि हमारी युवा पीढ़ी अब पारम्परिक भोजन नहीं खाना चाहती है। वह मुंबई जैसे बड़े शहरों में खाए जाने वाली चीजें खाना चाहती है। उन्हें यह सब बताने का कोई फ़ायदा नहीं है कि खाने में स्वादिष्ट लगने वाला फ़ास्ट फ़ूड स्वास्थ्य के लिए बहुत हानिकारक होता है। इसलिए उन्हें पोषक खाना खिलाने के लिए हमने अपने खाने के साथ ही प्रयोग करना शुरू कर दिया। बच्चों को उनकी दाल में मोरिंगा के पत्ते पसंद नहीं होते हैं इसलिए हम उन पत्तों को सुखाकर उसे पीस लेते हैं और उस पीसे गए पाउडर को दाल में मिला देते हैं। बच्चों को इसका पता भी नहीं चलता है! और, हमारी पातबड़ी (पकौड़े) उनके बीच बहुत लोकप्रिय हैं। हम इसे आलू और केले के पत्ते से बनाते हैं ताकि बच्चों को आवश्यक पोषक तत्व मिल सके।

पातबड़ी रेसिपी_आदिवासी खाना
चित्र और रेसिपी साभार: कल्पना बालू अटकरी

मेरे पिता हिरण, खरगोश और मोर का शिकार करते थे और हम उनका मांस खाते थे। जंगलों के जाने के साथ ये जानवर भी हमारे जीवन से चले गए। हम बांस के पौधे के कई हिस्सों को खाया करते थे लेकिन अब बांस दुर्लभ चीज़ हो गई है। मैं एक स्वयं-सहायता समूह के साथ काम करती हूं। वहां मैं महिलाओं को पैसे की बचत के बारे में प्रशिक्षण देने के साथ-साथ वारली खाने के फ़ायदे और उसे पकाने की विधियों की जानकारी भी देती हूं। ये महिलाएं खेती और अन्य तरह की मेहनत-मज़दूरी का काम करती हैं और मेरे इन सत्रों में शामिल होने के लिए समय निकालती हैं। हम जिन चीज़ों का इस्तेमाल कर खाना बनाते हैं, ये महिलाएं स्वयं ही वे चीज़ें खोज कर लाती हैं। जिसका अर्थ है कि उनके दिन का एक अच्छा-ख़ासा हिस्सा खाने के काम में जाता है। उनके लिए समय की बर्बादी का मतलब है पैसे का नुक़सान। मैं चाहती हूं कि सरकार इन महिलाओं को आर्थिक रूप से समर्थन देने का कोई तरीका अपनाए जो अपनी जनजाति के भोजन को सीखना और संरक्षित करना चाहती हैं।

द्विपनिता राभा, राभा जनजाति, मेघालय

मैं मेघालय के उत्तर गारो हिल्स जिले के एक गांव में रहती हूं। मैं जिस राभा समुदाय से आती हूं, वहां बिना तेल के खाना बनता है। मुझे लगता है कि इसकी वजह यह है कि हम सुबह से शाम तक के अपने भोजन में मांस का इस्तेमाल करते हैं। हमारा आहार मौसमी जड़ी-बूटियों और मांस से तैयार होता है। भारत के दूसरे हिस्सों के विपरीत, हाल तक दाल हमारे खाने का हिस्सा नहीं थी। लोग अक्सर हम लोगों से कहते रहते हैं कि बहुत अधिक फ़ैट (वसा) होने के कारण बहुत अधिक मांस का सेवन स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। हालांकि, वे इस बात पर ध्यान नहीं देते हैं कि बिना तेल के मांस पका कर हम खाने में तेल की मात्रा का संतुलन बरक़रार रखते हैं।

राभा समुदाय के लोग अपने खाना पकाने में जिन सामग्रियों का उपयोग करते हैं, वे पूर्वोत्तर भारत के अन्य समुदायों द्वारा उपयोग की जाने वाली सामग्री के समान हैं। असमिया लोगों की तरह, हम कोल खार (केले की राख से निकले क्षारीय अर्क) का उपयोग करते हैं। गारों समुदाय के लोगों की तरह ही हम भी कप्पा (एक तीखी मांस की करी) खाते हैं, लेकिन हम मांस को भूनने की बजाय उबालते हैं और मसालों का उपयोग नहीं करते हैं। हालांकि, जब खार के साथ खाना पकाने या कप्पा खाने की बात आती है, तो लोग तुरंत राभा भोजन के बारे में नहीं सोच पाते हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि यह उतना लोकप्रिय नहीं है और वे इसके बारे में नहीं जानते हैं। मुझे खाना पकाना बहुत पसंद है।

कोविड-19 के दौरान मैंने एक फ़ेसबुक पेज और एक इंस्टाग्राम पेज शुरू किया था जिसपर मैं अपने घर में पकाए जाने वाले खाने के बारे में लोगों को बताती हूं। मैं लोगों की उत्सुकता को देखकर हैरान थी। मैंने बाक पुकचुंग खिसर्काय (सूअर की अंतड़ियों और खून से पकाई गई पोर्क करी) और अन्य व्यंजन जैसे बाक काका तुपे रायप्राम (हरी या काली दाल, केले के तने, कोल खार, और चावल के आटे के साथ पकाया गया सूअर का मांस) और काका तुपे की तस्वीरें लगाई थीं। मैंने बामची (हरी या काली दाल और कोल खार के साथ पका हुआ चिकन) की तस्वीरें भी डाली थीं जो उन्होंने कभी नहीं देखा था। मुझे इन व्यंजनों से जुड़े सवाल संदेश में मिलने लगे। कई लोग चाहते थे कि मैं उनके घर तक खाना डिलिवर करवाऊं जो कि मैंने अपने गांव के आसपास के लोगों के लिए किया भी।

बाक पुकचुंग खिसर्काय रेसिपी-आदिवासी खाना
चित्र और रेसिपी साभार: द्विपनिता राभा

एक धारणा है कि भोजन एक निश्चित तरीके से दिखना चाहिए। हमारे समुदाय के युवाओं को शर्मिंदगी होती है कि उनका खाना स्वादिष्ट नहीं दिखता है। बल्कि इसी शर्मिंदगी के कारण शादी-विवाह जैसे मौक़ों पर से कई व्यंजन ग़ायब होने लगे हैं। इस धारणा को तोड़ने के लिए मैं उत्तरपूर्वी राज्यों में जाती हूं और विभिन्न मेलों में राभा जनजाति के खानों की प्रदर्शनी लगाती हूं। ऐसी जगहें राभा व्यंजनों को लोगों तक पहुंचने में मददगार साबित होती हैं और उनसे मिलने वाली सराहना से हमारे युवाओं में गर्व और आत्मविश्वास का भाव पैदा होता है। मैं हमारे भोजन को उसके सभी प्रामाणिक रूपों में दर्ज करना चाहती हूं ताकि आने वाली पीढ़ी इसे पकाना जारी रखे। मैं राभा भोजन पर एक किताब भी लिखना चाहती हूं लेकिन इसके लिए मुझे समाजसेवी संस्थाओं और सरकार से वित्तीय सहायता की आवश्यकता होगी।

शांति बड़ाइक, चिक बड़ाइक जनजाति, ओडिशा

ओडिशा के सुंदरगढ़ जिले में, मेरा चिक बड़ाइक समुदाय अक्टूबर-नवंबर में अपने द्वारा उगाए गए अनाज की कटाई करने के बाद नवाखाना (नया भोजन) उत्सव मनाता है। यह कई रस्मों और कई तरह के व्यंजनों वाला एक बड़ा पर्व है। हम पोहा बनाने के लिए चावल को चपटा करते हैं और सभी साग (पत्तेदार सब्जियों) को एक साथ मिलाकर पकाते हैं। इसमें सरसों के पत्ते, तुरई के पत्ते और वे सारी सब्जियां होती हैं जो हम अपने घरों के पिछले हिस्से में उगाते हैं। पकाने से पहले हम साग को उबालते हैं। यह ओड़िशा के अन्य समुदायों के खानपान के तरीक़े से अलग तरीक़ा है। हमारे नवाखाना की रस्म में मुर्ग़ों की बलि भी चढ़ाई जाती है। हम दो-तीन मुर्ग़े ख़रीदते हैं और इनकी बलि चढ़ाने से पहले अपने पूर्वजों की पूजा करते हैं। उसके बाद हम मुर्ग़ों के सभी हिस्सों का सेवन करते हैं। हम मुर्ग़ा चावल भूंजा (भूने चावल के साथ मुर्ग़े का मांस) खाते हैं जो बच्चों में बहुत लोकप्रिय है। उसके बाद हम मुर्ग़े के सिर वाले हिस्से से पीठा (पैनकेक) भी बनाते हैं।

मुर्ग़ा पीठा रेसिपी_आदिवासी खाना
चित्र साभार: इंद्रजीत लाहिरी | रेसिपी साभार: शांति बड़ाइक

पिछले चार-पांच साल से मैं शांति स्वयं सहायता समूह को चला रही हूं। इस समूह में 10 महिलाएं हैं और हम आसपास के गांवों की महिलाओं को बचत के तरीक़े और उसके लाभ के बारे में प्रशिक्षित करने के अलावा खाना पकाने पर भी ध्यान देते हैं। हमारे समूह की कुछ सदस्य राउरकेला जैसे शहरों में ऐसे लोगों के घरों में खाना पकाने का काम करती हैं जिनके पास अपने लिए खाना पकाने का समय नहीं होता है।

कुकिंग टीचर बनने के लिए हमने स्किल इंडिया प्रोग्राम के साथ एक ट्रेनिंग कोर्स किया। अब हम गांव-गांव जाकर लड़कियों को विभिन्न प्रकार के व्यंजन बनाने की विधि सिखाते हैं। इन लड़कियों में ज़्यादातर वे लड़कियां होती हैं जिनकी पढ़ाई बीच में ही छूट गई है। हम ऐसा इसलिए करते हैं ताकि वे लड़कियां अपनी शादी का इंतज़ार करने की बजाय आजीविका के जरिए खोज सकें। हम उन्हें रागी मंचुरियन जैसे नए व्यंजन बनाना सिखाते हैं। हम भी उनसे खाना पकाने की उनकी विधियां सीखते हैं।

प्रशिक्षण पूरा करने के बाद उन्हें स्किल इंडिया प्रोग्राम से सर्टिफिकेट मिलता है। इसका इस्तेमाल वे कुटीर उद्योग शुरू करने के लिए ऋण लेने में कर सकती हैं। समस्या यह है कि सभी लड़कियों के पास ऋण लेकर अपना व्यवसाय शुरू करने की हिम्मत नहीं होती है। सरकार और समाजसेवी संस्थाओं को कार्यक्रम पूरा होने के बाद इन लड़कियों को सहायता प्रदान करनी चाहिए। वे इन महिलाओं के लिए एक केंद्र की स्थापना कर सकते हैं जहां ये मिलकर खाना पका सकें और अपने लिए कुछ पैसे कमा सकें। अन्यथा, इन कार्यक्रमों से वास्तव में आय सृजन नहीं होगा।

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समाजसेवी संस्थाओं में नेतृत्व परिवर्तन के दौरान क्या ग़लतियां हो सकती हैं?

सफ़ीना हुसैन एजुकेट गर्ल्स की संस्थापक और महर्षि वैष्णव इसके सीईओ हैं। एजुकेट गर्ल्स एक समाजसेवी संस्था है जिसकी स्थापना साल 2007 में हुई थी। यह संस्था भारत के शैक्षिक रूप से पिछड़े क्षेत्रों में लड़कियों की शिक्षा के लिए समुदायों को एकजुट करने का काम करती है।

2022 में, संगठन ने नेतृत्व में बदलाव देखा – सफ़ीना ने सीईओ के पद से इस्तीफ़ा दिया और महर्षि ने उनकी जगह ज़िम्मेदारी संभाली। महर्षि एक दशक से एजुकेट गर्ल्स से जुड़े थे और इससे पहले संस्था के सीओओ और स्टाफ प्रमुख के रूप में अपनी सेवाएं दे चुके थे।

आईडीआर के साथ अपने इस इंटरव्यू में सफ़ीना और महर्षि हमें बता रहे हैं कि एजुकेट गर्ल्स में नेतृत्व परिवर्तन का समय क्यों आ गया था और परिवर्तन की इस पूरी प्रक्रिया का स्वरूप कैसा था। साथ ही, इन दोनों ने इस प्रक्रिया के दौरान आने वाली चुनौतियों के बारे में भी बात की है। इस बातचीत में इन्होंने उन संगठनों के लिए कुछ सुझाव भी दिए जो नेतृत्व परिवर्तन की प्रक्रिया से गुजर रहे हैं। 

महर्षि वैष्णव (बाएं) और सफ़ीना हुसैन (दाएं)_एनजीओ लीडर
महर्षि वैष्णव (बाएं) और सफ़ीना हुसैन (दाएं)। | चित्र साभार: एजुकेट गर्ल्स 
हमें बताएं कि उस समय इस नेतृत्व परिवर्तन की आवश्यकता क्यों थी? 

सफ़ीना: मैंने इस बदलाव के बारे में बहुत पहले ही सोचना शुरू कर दिया था। और आखिरकार हमने इसे 2017 में अपनी पांच साल की रणनीति में शामिल कर लिया। यदि आप इसे संगठनात्मक यात्राओं के संदर्भ में देखें तो आप पाएंगे कि यह नेतृत्व परिवर्तन अपेक्षाकृत बहुत ही जल्दी हो गया। दरअसल, मेरा मानना है कि एक संस्थापक कभी-कभी संगठन के विकास या उसके द्वारा किए जाने वाले कामों से होने वाले प्रभाव के लिए सबसे बड़ी बाधा भी बन सकता है। संस्थापक संगठनों को शुरू करते हैं और उसके बाद वे उन्हें उस स्थिति में पहुंचाते हैं, जहां से वे तेजी से आगे बढ़ सकते हैं। लेकिन ऐसा ज़रूरी नहीं है कि संस्थापक के पास वे कौशल हों जिनकी उस समय संगठन को जरूरत है। एजुकेट गर्ल्स का आकार हर 18 महीने में दोगुना हो रहा था, और मुझे पता था कि इसे अब मुझसे अलग एक नए तरह के नेतृत्व की आवश्यकता है।  

संस्थापक एक बारीक समस्या खोजने और उसके लिए एक समाधान तैयार करने में अच्छे होते हैं। उनके पास जोखिम को सहने और नई चीजों को आजमाने की जबरदस्त क्षमता होती है। मैं एक बड़ी मशीनरी चलाने के बजाय उन चीजों पर ध्यान केंद्रित करना चाहती थी जिसके लिए मेरे पास कौशल नहीं था। नेतृत्व परिवर्तन की चाह रखने के पीछे की वास्तविक सोच यही थी। 

नेतृत्व परिवर्तन की प्रक्रिया शुरू करने के लिए आपने कौन से अन्य कदम उठाए? 

सफ़ीना: एक बार जब हमने परिवर्तन की योजना बनानी शुरू की तब महर्षि की यात्रा बहुत तेज़ी से बदलने लगी। फंडरेंजिंग लीडर से चीफ ऑफ स्टाफ की भूमिका में चले गए, फिर सीओओ बन गए, और अंत में सीईओ की भूमिका में आ गए। 

महर्षि: मुझे इस बात की बिल्कुल जानकारी नहीं थी कि उत्तराधिकार की यह योजना 2017 में बन गई थी या फिर सफ़ीना इस पर सक्रियता से काम कर रही थीं। लेकिन सफ़ीना ने धीरे-धीरे मेरे कंधों पर बड़ी जिम्मेदारियां देकर मेरी परीक्षा लेनी शुरू कर दी थी। इसलिए फंडरेजिंग से संचार और सरकारी संबंधों तक, इस तरह के काम मेरी जिम्मेदारी बन गए। और, ये सभी काम बहिर्मुख पहलू वाले काम थे। उसके बाद सफ़ीना ने मेरे सामने यह विचार रखा कि “मुझे चीफ़ ऑफ स्टाफ की तलाश है, क्या आपको इसमें रुचि होगी?” मैंने उनसे इसका मतलब पूछा और यह भी पूछा कि मुझे क्या करना होगा। उन्होंने कहा “मेरे हर रोज़ के काम में तुम्हें मेरी मदद करनी होगी।” तो यह न केवल कामकाजी जिम्मेदारियां थीं बल्कि एक पूरे संगठन के लिए सपोर्ट सिस्टम था। मैंने कहा कि मैंने इससे पहले ऐसा कुछ नहीं किया है लेकिन मैं कोशिश करना चाहता हूं। इस भूमिका में आने के बाद संगठन में चल रही चीजों के बारे में मैंने जाना। एचआर, विस्तार, योजना, संचालन और वित्त पर प्रभाव और बजट सभी क्षेत्रों के बारे में जानकारियां हासिल हुईं। कर्मचारियों के प्रमुख के रूप में बिताए वे तीन साल मेरे लिए अनमोल रहे क्योंकि उन तीन सालों ने मुझे संगठन को एक इकाई के रूप में देखने के योग्य बनाया। 

जब हमारे पूर्व ऑपरेशन प्रमुख ने अपना पद छोड़ा था तब सफ़ीना ने मुझे पूरी तरह से ऑपरेशन्स का भार सम्भालने का सुझाव दिया। समय-समय पर इन छोटे बदलावों ने आख़िरकार मुझे सीईओ बनने के लिए तैयार कर दिया।

यह सीधे तौर पर हुआ परिवर्तन नहीं था। मुझसे कहा गया था कि “आप अस्थाई रूप से काम करेंगे और आपको बाहरी विशेषज्ञों की सहायता मिलेगी जो बोर्ड के साथ मिलकर संगठन के अगले सीईओ को ढूंढने का काम करेंगे। लेकिन इसमें आपका ही नुक़सान है।” उस समय तक मुझे एजुकेट गर्ल्स के साथ काम करते हुए लगभग आठ साल हो चुके थे।

सफ़ीना: एजुकेट गर्ल्स से परे अपने भविष्य के बारे में सोचने और जानने के लिए मैंने एक कोच की मदद ली। मुझे इस बात पर पूरा भरोसा था कि यदि मैंने अपने लिए एक नया भविष्य नहीं देखा तो मैं शायद इस नौकरी को कभी नहीं छोड़ पाऊंगी। हमने आंतरिक रूप से भी प्रतिभा का विकास किया। महर्षि को तैयार करने के अलावा, हमने ऐसा रास्ता बनाया जिस पर चलकर एक टीम विकसित हो सकती है। बाद में, हमने बोर्ड उपसमिति के साथ परिवर्तन की एक औपचारिक प्रक्रिया के निर्माण के लिए लीडरशिप एडवाइजरी फ़र्म, एगॉन जेंडर को शामिल किया।

किसी थर्ड पार्टी को शामिल करना आम बात नहीं है। उन्होंने किस प्रकार मदद की और ऐसा करने से किस तरह के फ़ायदे हुए?

सफ़ीना: एक संस्थापक के रूप में आप यह तय कर सकते हैं कि आप कुछ करना चाहते हैं और फिर सीधे उस काम को कर सकते हैं। हालांकि, किसी बाहरी पक्ष द्वारा परिवर्तन की इस प्रक्रिया को शुरू करने से मुझे बहुत अधिक मदद मिली। इससे मेरी जिम्मेदारियां कम हुईं और मेरे साथ संगठन के बाक़ी लोग भी शामिल हुए, विशेष रूप से बोर्ड और टीम के सदस्य। यदि मैंने इस परिवर्तन को सीधे तौर पर लागू कर दिया होता तो इससे महर्षि के सामने मुश्किलों का एक पहाड़ खड़ा हो जाता और उनके असफल होने की सम्भावना बहुत अधिक होती। लेकिन चूंकि हमने इस तरीक़े को अपनाया, इसलिए सभी के पास परिवर्तन की इस प्रक्रिया को समझने, हर प्रकार की सम्भावनाओं के बारे में जानने और हमारे द्वारा लिए गए निर्णय के प्रति आश्वस्त होने का समय था। इस तरह, इस प्रक्रिया ने वास्तव में सभी को साथ लाने में मेरी मदद की।

दूसरा, मुझे लगा था कि एगॉन जेंडर महर्षि को उनके भविष्य के काम के लिए तैयार कर रहे हैं लेकिन वास्तव में वे मुझे मेरी भूमिका से निकलने के लिए तैयार कर रहे थे। इस तैयारी के बिना मैं सब गड़बड़ कर देती। और चूंकि संगठन में महर्षि की भूमिका कई बार बदली इसलिए टीम बड़ी ही सहजता से इसे स्वीकार करती गई। 

एक हाथ से दूसरे हाथ में बैटन_एनजीओ लीडर
एक संस्थापक कभी-कभी किसी संगठन के विकास या उसके प्रभाव के लिए सबसे बड़ी बाधा बन सकता है। | चित्र साभार: पेक्सेल्स
महर्षि, आप परिवर्तन प्रबंधन प्रक्रिया के बारे में क्या सोचते हैं?

महर्षि: जब परिवर्तन की प्रक्रिया शुरू हुई तब तक मुझे एजुकेट गर्ल्स से जुड़े कई साल हो चुके थे। मुझे संगठन को जानने या हमारे ऑपरेशन के विस्तार को जानने के लिए अलग से समय नहीं लगाना पड़ा। मैं सीधे काम शुरू कर सकता था। हालांकि मुझे सफ़ीना की जग़ह भी लेनी थी। इसलिए किसी सुखद एहसास की बजाय लगातार यह वास्तविकता पता चल रही थी कि मैं संस्थापक से पदभार ग्रहण कर रहा हूं। 

परिवर्तन की प्रक्रिया में सफीना द्वारा अपना नियंत्रण छोड़ना और मुझे इसे हासिल करना था। और, यह कई तरीक़ों से हुआ। हमारे स्टेट ऑपरेशन्स टीम के साथ पहली मुलाक़ात में सफ़ीना ने खुद को मुक्त कर लिया। उनके ऐसा करते ही मैं समझ गया कि मुझे पहले सीओओ की भूमिका वाले आक्रामक नज़रिए को छोड़कर अब सीईओ के रूप में एक अधिक परिपक्व, शांति स्थापित करने वाले संस्थापक की भूमिका निभानी थी। 

हमारे सहयोगी और फ़ंडर मेरी योजनाओं और संगठनात्मक इरादों को लेकर उत्सुक थे। इसलिए मुझे उन्हें आश्वस्त करने के लिए बिज़नेस कंटीन्यूटी प्लान्स को लाने पड़े ताकि उन्हें यह विश्वास हो जाए कि हम सही राह पर हैं। 

एगॉन जेंडर के मेरे मेंटॉर – गोविंद अय्यर और नमृता झंगियानी – ने मुझे सीईओ के रूप में पदभार लेने को तैयार करने के लिए 12 महीने का एक कठोर कार्यक्रम बनाया। पहला छह महीना मेरी ग़लतियों पर केंद्रित था। उसके बाद अगले छह महीने में मैंने यह सीखा कि एक सीईओ के रूप में मैं किसी काम को कैसे अलग तरीक़े से कर सकता हूं।

अगर मुझे गोविन्द और नमृता, और हमारे बोर्ड के अध्यक्ष सफीना और उज्जवल ठाकर से मिले कोर मैसेज पर काम करना होता तो यह बहुत आसान था। वे इस बात को लेकर बहुत स्पष्ट थे कि मेरी कार्यशैली, नेतृत्व, डेलिगेशन, कल्चर सेटिंग वगैरह, सफीना से अलग होना ही था। इसलिए उन्होंने सुझाव दिया कि मैं टीम को अपने तरीके से अभ्यस्त होने के लिए पर्याप्त समय दूं।

मूल बातों पर टिके रहें और शुरुआत में ही कुछ भी अपमानजनक करने से बचें।

मुझसे यह भी कहा गया कि शुरुआत में मूल बातों पर ही ध्यान दूं और कुछ भी आक्रामक करने का प्रयास न करूं। पहले कुछ महीनों के महत्व को कम नहीं समझना चाहिए। हालांकि मैं एक अंदर वाला ही हूं फिर भी संदर्भ समझना हमेशा ही जरूरी होता है। इसलिए मुझे सभी संबंधित आंतरिक और बाहरी दोनों प्रकार के हितधारकों को समझने के लिए समय लेने की ज़रूरत थी। मेरे पुराने सहयोगी अब मुझे रिपोर्ट करते थे इसलिए मुझे सब के साथ पेशेवर संबंध को बरक़रार रखना था।

ऐसा लगता है कि यह एक सहज परिवर्तन था लेकिन किसी भी प्रकार का परिवर्तन बिना चुनौतियों के सम्भव नहीं है। क्या आप परिवर्तन के समय की अपनी चुनौतियों के बारे में हमें कुछ बताना चाहेंगे? और, सफ़ीना, अपने हाथ से बागडोर छोड़ना आपके लिए कैसा था?

सफ़ीना: महर्षि के सीईओ बनने के बाद उनके साथ की गई पहली बोर्ड मीटिंग में उज्जवल ने मुझे एक कोने में ले जाकर बड़े ही आराम से कहा कि “अब आपको ये सब और नहीं करना है। आगे से आपको ये सब कहने की कोई ज़रूरत नहीं है।” और मैंने कहा “मैं समझी नहीं। आप मुझसे क्या चाहते हैं? मैं यहां बोर्ड मीटिंग में क्यों आई हूं?” और उन्होंने मुझे जवाब देते हुए कहा “मैं चाहता हूं कि आप बोर्ड मीटिंग में शामिल हों लेकिन मैं नहीं चाहता कि आप कुछ कहें या करें।” तब मुझे समझ में आया कि दरअसल बोर्ड के सदस्य मुझसे कहना चाह रहे हैं कि अब आपके लिए एक नया कोना है और आप वहां चुपचाप बैठी रहें।” शायद मैं यह भूलती रहूंगी और लोगों को मुझे सही समय पर याद दिलाकर पीछे करते रहना होगा। 

आखिर में, मुझे खुद को याद दिलाते रहना है कि मैंने ऐसा किसी कारण से किया है। और, अब मैं वह करने के लिए स्वतंत्र हूं जो मैं करना चाहती थी। पिछड़ी युवा लड़कियों के लिए दूसरा-अवसर बनाने के लिए एक कार्यक्रम तैयार करने का काम। महर्षि के पदभार सम्भालने के बाद मेरे पास गांवों में जाकर लड़कियों के साथ बैठने और ज़मीनी-स्तर से चीजों को देखने का समय था। मुझे उम्मीद है कि इस बार मैं उन ग़लतियों को नहीं दोहराऊंगी जो मैंने 15 साल पहले एजुकेट गर्ल्स की स्थापना और उसके निर्माण के दौरान की थी। नेतृत्व परिवर्तन के बाद से मैंने अपना 50 फ़ीसद समय फ़ील्ड में बिताया है। मैंने लोगों से बातें की है, उनसे सीखा है और कॉर्पोरेट ऑफ़िस की इमारत से बाहर निकलकर अपना समय मस्ती से बिताया है जो मेरे लिए बड़ी बात है। मैं महर्षि की आभारी हूं।

महर्षि: यह मेरे लिए लगातार चलने वाले गहरे अहसासों की तरह रहा। एजुकेट गर्ल्स का मूल उद्देश्य सबसे पिछड़ी लड़कियों को वापस स्कूल जाने में उनकी मदद करना है। इसमें किसी तरह का परिवर्तन नहीं होता है। लेकिन कर्मचारियों के प्रमुख और सीओओ के रूप में मेरी पिछली भूमिका में मेरी सोच अलग थी। सफ़ीना हमेशा मुझे बचाने के लिए खड़ी थीं। लेकिन अब मैं ही हर बात के लिए ज़िम्मेदार था और यह समय वह था, जब जल्दी से सब ठीक करने की बजाय कोशिश और ग़लतियां की जाएं। इसका संबंध हमेशा ही मुख्य उद्देश्य के बारे में सोचने से होता है। मैंने पाया कि मैं ख़ुद से ही प्लान बी, सी या डी के बारे में पूछ रहा था।

चलिए, मान लेते हैं कि राजस्थान में हम ने अपना लक्ष्य प्राप्त कर लिया। लेकिन उस सरकार का क्या जो अब भी चाहती है कि हम उसके राज्य में काम करें? हमारी स्थानीय टीम और उस समुदाय का क्या होता है जिसके साथ वे काम करते हैं? इसलिए मेरा नज़रिया बदल गया। 

और, जहां तक चुनौतियों की बात है तो ऐसा एक भी दिन नहीं गुजरता जब मैं ख़ुद को यह याद नहीं दिलाता हूं कि हमारे पास 2,700 से अधिक कर्मचारी और 17,000 से ज़्यादा टीम सदस्य हैं। उन्होंने अपना जीवन और करियर हमें दे दिया ताकि हम अपना मिशन पूरा कर सकें। हम एक ऐसे संगठन का निर्माण कैसे कर सकते हैं जो मूल्यों से प्रेरित और लक्ष्य पर केंद्रित हो, और जिसके केंद्र में लड़कियां हैं। राजस्थान, यूपी, एमपी और बिहार सभी सरकारें, फंडर्स आदि के साथ काम करने की अपनी चुनौतियां होती हैं। तो, यह एक ऐसी झोली है जिसमें सब कुछ है।

नेतृत्व परिवर्तन की इसी प्रक्रिया से गुजरने की इच्छा रखने वाले अन्य भारतीय समाजसेवी संस्थाओं को क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए?

सफ़ीना: मैं उनसे कहूंगी कि इसके लिए एक डिज़ाइन तैयार करें और इस प्रक्रिया को सोच-समझ कर शुरू करें। इसके लिए पर्याप्त समय दें क्योंकि इस तरह की कोई प्रक्रिया रातों-रात नहीं हो सकती हैं। इसे करने के पीछे का कारण उचित होना चाहिए। ख़ुद से यह सवाल करें कि आप वास्तव में ऐसा क्यों करना चाहते हैं। यदि इसके पीछे का कारण सही नहीं होगा तो यह पूरी प्रक्रिया आपके और इस भूमिका में आने वाले नए व्यक्ति, दोनों के लिए परेशानी खड़ी करने वाली होगी। दूसरी सबसे महत्वपूर्ण चीज़ है संवाद। हमने नेतृत्व परिवर्तन की घोषणा के लिए तैयार किए गए ई-मेल के प्रत्येक शब्द पर विचार-विमर्श किया था। मैंने हमारे सभी फंडर्स से बात की और उन्हें इसके बारे में बताया। इस स्थिति में ज़्यादा बातचीत करना सही होता है। और सबको साथ लेकर चलना भी जरूरी है।

महर्षि: सबसे पहली चीज़ यह है कि इसके लिए आप तैयार हो जाएं। आप रातों-रात किसी संस्थापक की भूमिका में नहीं जा सकते हैं। जब सफ़ीना और उज्जवल ने मुझे इसकी घोषणा की तारीख़ के बारे में बताया और मुझसे कहा कि वे फ़ंडर्स को पहले ही इस बारे में सूचित करने वाले हैं और टीम को एकजुट करने वाले हैं, फ़ील्ड में काम कर रहे टीम के लिए एक वीडियो संदेश शूट करने वाले हैं तो ये सब सुनकर मैं कांप गया था।

संस्थापक एक अलग व्यक्ति है और आपको उनकी नकल करने की कोशिश नहीं करनी चाहिए।

संस्थापक एक अलग व्यक्ति है और आपको उनकी नक़ल करने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। उनके बेस्ट प्रैक्टिस को अपनाना ठीक है लेकिन उस व्यक्ति की तरह बनने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। अपने व्यक्तित्व को बनाए रखना चाहिए। जब तक आप स्वयं को संगठन की सोच और उसके लक्ष्य से जोड़कर रखेंगे तब तक आप उस सोच को सच करने की कोशिश करते रहेंगे जो संस्थापक ने संगठन के लिए तय किया था। 

गोविंद मुझसे लगातार पूछते रहते थे कि “यह सफ़ीना का संगठन है आप इसे अपना संगठन कैसे बनाएंगे?” मैं कहता था “मैं इसे अपने तरीक़े से चलाकर अपना संगठन बनाउंगा।” लेकिन 2025 तक 15.6 लाख लड़कियों के नामांकन को सुगम बनाने का अंतिम लक्ष्य बदलने वाला नहीं है। शायद, इसका रास्ता मेरा हो सकता है और यह मेरी टीम हो सकती है जो योजना को लागू कर रही हो, लेकिन कुछ और नहीं बदला है।

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एक एनजीओ के लिए ट्रू कॉस्ट फंडिंग कैसे हासिल करें?

ट्रू कॉस्ट फंडिंग कैसे हासिल करें, इस पर चर्चा करने से पहले हमें यह जानना जरूरी है कि ट्रू कॉस्ट फंडिंग क्या होती है? किसी भी समाजसेवी संस्था (एनजीओ) को संचालित करने में कई ऐसे खर्च शामिल होते हैं जो किसी प्रोजेक्ट के तहत नहीं आते हैं। इसके अलावा संस्था को खड़ा करने में निवेश करना और उसे चलाने के लिए कुछ धनराशि सुरक्षित (रिज़र्व्स) रखना, एनजीओ के लिए जरूरी होता है। फंडिग एजेंसियां आमतौर पर प्रोजेक्ट के लिए बजट प्रदान करती हैं। संस्था के कामकाज के लिए बजट का प्रावधान नहीं होने से संस्था को चलाने में दिक्कत होती है। अक्सर यह देखा जाता है कि संस्था से जुड़े कामकाज की फंडिग के ​लिए एनजीओ और फंडर्स में सहमति नहीं बन पाती है। ऐसे में, समस्या को फंडर्स के नजरिए से देखकर इसका हल निकाला जा सकता है।

भारत में एनजीओ को मिलने वाली आर्थिक सहायता के पर्याप्त होने के मसले पर संस्थाओं और फंडर्स में गंभीर मतभेद हैं। इस मामले की जड़ है – एनजीओ के संस्थागत विकास (ऑर्गेनाइजेशनल डेवलपमेंट – ओडी) के लिए धन की ज़रूरत। जहां फंडर्स का कहना है कि वे दोनों (प्रोजेक्ट और ओडी) के लिए धन प्रदान करते हैं, वहीं एनजीओ का अनुभव इससे अलग है। उनके अनुसार ओडी के लिए धन न मिल पाने से उन्हें संस्था को विकसित करने में दिक्कत होती है तथा वे प्रतिकूल परिस्थितियों का सामना करने की क्षमता भी नहीं विकसित कर पाते हैं।

हमारे शोध से पता चलता है कि जो एनजीओ, ओडी में साल-दर-साल निवेश करते हैं, उनकी वृद्धि दर (ग्रोथ रेट) बाकियों की तुलना में दोगुनी होती है। एनजीओ के विकास के लिए ज़रूरी विभागों और क्षमताओं (जैसे मानव संसाधन, नेतृत्व क्षमता, फंडरेज़िंग, कामकाज के आकलन और उससे सीखने की क्षमता – एमएलई आदि) का विकास करना, एक नींव बनाने की तरह है। इसके बूते पर वे सामाजिक बदलाव कार्यक्रमों को बेहतर ढंग से संचालित कर सकते हैं। इसके साथ ही प्रतिकूल परिस्थितियों का सामना करने के लिए पर्याप्त मात्रा में रिज़र्व फंड बनाना भी एनजीओ के लिए जरूरी है। इनके सहारे ही एनजीओ अपने प्रोजेक्ट्स को और प्रभावी बना सकते हैं और व्यापक सामाजिक प्रगति में और अधिक योगदान दे सकते हैं। इसलिए फंडर्स और एनजीओ के बीच इस गतिरोध को तोड़ना बहुत ज़रूरी है।

फंडर्स और एनजीओ के बीच विश्वास बनाने के लिए फंडर्स की सोच और नज़रिये को समझना ज़रूरी है।

हमारे नए शोध में हमने पाया कि फंडर्स और एनजीओ के बीच विश्वास बनाने और इन प्रथाओं को बदलने के लिए, फंडर्स की सोच और नज़रिये को समझना ज़रूरी है। यह शोध पे-वाट-इट-टेक्स (पीडब्ल्यूआईटी) इंडिया इनिशिएटिव [Pay-What-It-Takes (PWIT) India Initiative] का हिस्सा है, जो द ब्रिजस्पैन ग्रुप और एटीई चन्द्रा फाउंडेशन (एटीईसीएफ), चिल्ड्रन्स इन्वेस्टमेंट फंड फाउंडेशन (सीआईएफएफ), एडेलगिव फाउंडेशन और फोर्ड फाउंडेशन का संयुक्त प्रयास है। इसका मकसद भारत के सोशल सेक्टर को मजबूत करना है। 

फंडर्स की सोच को समझने के लिए हमने 77 फंडर्स का सर्वे किया। इस सर्वे के नतीजों की तुलना हमने पिछले साल 388 एनजीओ के साथ किये सर्वे से की। हमने सर्वे से निकलने वाले निष्कर्षों को और गहराई से समझने के लिए 53 साक्षात्कार किए और अतिरिक्त इनपुट इकट्ठा करने के लिए फंडर राउंडटेबल्स और वर्कशॉप्स में भाग लिया। 

इस शोध के नतीजे दिखाते हैं कि फंडर्स का नजरिया, एनजीओ लीडर्स से बहुत अलग है। इसके साथ ही, ये फंडर्स एवं एनजीओ के बीच बेहतर संवाद और आपसी विश्वास को बढ़ाने की ज़रूरत की तरफ भी इशारा करते हैं।

हमारे हालिया सर्वे में, 75 प्रतिशत फंडर्स ने कहा कि वे जिन संस्थाओं को अनुदान देते हैं, उनके संस्थागत विकास और लंबे समय तक उन्हें चलाए रखने के लिए जरूरी चीजों में भी निवेश करते हैं। इसके विपरीत, पिछले साल 388 एनजीओ के सर्वे में 70 प्रतिशत उत्तरदाताओं ने कहा कि अधिकांश फंडर्स संस्था की जरूरतों के लिए अनुदान नहीं देते हैं। 68 प्रतिशत फंडर्स का मानना है कि उनकी नीतियां एनजीओ की ज़रूरत के मुताबिक प्रशासनिक लागत एवं अन्य महत्वपूर्ण गतिविधियों के ख़र्चों (गैर-प्रोजेक्ट खर्चे या अप्रत्यक्ष लागत) को वहन करने के लिए पर्याप्त स्वतंत्रता देती हैं। इससे उलट, 83 प्रतिशत एनजीओ का कहना है कि यह फंड हासिल करना उनके लिए एक संघर्ष है। 

दलित, बहुजन और आदिवासी समुदाय के नेतृत्व वाले संगठन, भारत के अन्य एनजीओ की तुलना में वित्तीय रूप से बदतर हालात में हैं।

सर्वे में यह भी पाया गया कि बहुत कम फंडर्स (77 उत्तरदाताओं में से केवल सात) ही एनजीओ को रिज़र्व फंड बनाने में मदद करते हैं। ऐसे रिज़र्व के अभाव में फंड्स में होने वाली किसी अप्रत्याशित कमी की स्थिति में एनजीओ न सिर्फ वेतन भुगतान या अन्य मदों के खर्चे करने में असमर्थ हो जाते हैं बल्कि उनके लिए शोध और नए उपायों को अपनाने (इनोवेशन) जैसे ज़रूरी कार्यों में निवेश करना भी मुश्किल हो जाता है। इसके साथ ही, पिछले साल के शोध में हमने पाया कि दलित, बहुजन और आदिवासी समुदाय के नेतृत्व वाले संगठन, भारत के अन्य एनजीओ की तुलना में वित्तीय रूप से बदतर हालात में हैं। परिणामस्वरूप, भारत में हाशिये पर रहने वाले समुदायों की सेवा में लगे हुए संगठन स्वयं अक्सर आर्थिक रूप से हाशिये पर होते हैं।

एक एनजीओ के संचालन की वास्तविक लागत में ग़ैर-प्रोजेक्ट खर्चे (अप्रत्यक्ष लागत) जैसे कि संस्था के विकास में निवेश और रिजर्व्स बनाना भी शामिल है। फिर भी अधिकांश फंडर्स का लक्ष्य प्रोजेक्ट को फंड करना होता है। इसे लेकर फंडर्स का कहना है कि एनजीओ अपनी लागत और संस्थागत विकास की ज़रूरतों को ठीक से नहीं समझाते हैं। फंडर्स सर्वे में आधे लोगों का यह भी कहना था कि संस्थाएं ऐसा करते हुए पारदर्शिता नहीं बरतती हैं और खुद भी इस पर उचित ध्यान नहीं देती हैं।

रोहिणी निलेकनी फिलैन्थ्रॉपी की प्रमुख रोहिणी निलेकनी कहती हैं कि ‘एनजीओ को और अधिक होमवर्क करने की आवश्यकता है। कभी-कभी, शुरुआत में, वो अपनी जरूरतों को स्पष्ट नहीं कर पाते हैं।’ लेकिन फिर भी फंडर्स का दायित्व है के वो आगे बढ़कर एनजीओ की इस विषय में मदद करें। वे आगे जोड़ती हैं कि ‘हमें एनजीओ के ओडी में निवेश की आवश्यकता के बारे में बात करने में मदद करनी चाहिए। कैसे वे फंडर्स की सहृदयता पर निर्भर न रहकर रणनीति (स्ट्रेटेजी) और तर्क के आधार पर अपनी बात रख सकते हैं।’

एनजीओ अपनी तरफ से ऊपर ज़िक्र की गई बातों में फंडर्स की मदद का स्वागत करेंगे। एनजीओ लीडर्स के अनुसार धन की कमी, फंडर्स के इन सवालों का संतोषजनक जवाब दे सकने की सीमित क्षमता का मूल कारण है। वे ‘पहले मुर्गी आई या अंडा’ वाली विरोधाभासी स्थिति को जी रहे हैं – ओडी फंडिंग के अभाव के चलते वे इस प्रकार की फंडिंग जुटाने के लिए ज़रूरी स्टाफ, संसाधन और क्षमता नहीं जुटा पाते हैं और यह चक्र चलता रहता है।

दो रेलवे ट्रैक एक दूसरे के बगल में_ट्रू कॉस्ट फंडिंग
फंडर्स का नजरिया, एनजीओ लीडर्स से बहुत अलग है। फंडर्स एवं एनजीओ के बीच बेहतर संवाद और आपसी विश्वास को बढ़ाने की ज़रूरत हैं। | चित्र साभार: फ़्लिकर

फंडर्स को अपनी ट्रू कॉस्ट फंडिंग ज़रूरतें कैसे पिच करें?

जहां फंडर्स को यह संवाद शुरू करना चाहिए वहीं संस्थाओं के लिए जरूरी है कि वे अपनी फंडिंग पिच और फंडर्स के साथ अपने संवाद को, फंडर्स की मानसिकता और नजरिए के मुताबिक ढालें। सर्वे में मिले जवाबों के विश्लेषण से पता चलता है कि फंडर्स को तीन श्रेणियों में बांटा जा सकता है। इनसे हमें उन अड़चनों को समझने में मदद मिलेगी जो फंडर्स के सामने ट्रू कॉस्ट फंडिंग को अपनाते हुए आ सकती हैं।

फंडर्स की मानसिकता को समझ कर संस्थाएं यह समझ सकती हैं कि किस फंडर से किस उद्देश्य के लिए और किस प्रकार से धन की मांग की जा सकती है। इस शोध के दौरान हमने ऐसे संवाद कर सकने में सफल रहे फंडर्स और एनजीओ से भी बात की। इस बातचीत से हमें ट्रू कॉस्ट फंडिंग जुटाने के गुर सीखने को मिले।  

1. प्रोग्राम पैरोकार (प्रोग्राम प्रोपोनेंट) के लिए पिच

इस प्रकार के फंडर्स का मानना होता है कि किसी प्रोग्राम या प्रोजेक्ट की फंडिंग उनके सीमित संसाधनों का सबसे अच्छा उपयोग है। वर्तमान में, ऐसे फंडर्स गैर-प्रोजेक्ट खर्चे या अप्रत्यक्ष लागत के लिए अपने कुल अनुदान में एक ऊपरी सीमा या एक दर निश्चित करके रखते हैं। कई बार 5 से 15 प्रतिशत के बीच निश्चित यह दर एनजीओ की वास्तविक ज़रूरत की आधी भी नहीं होती है।

एनजीओ मुख्य रूप से कार्यक्रम को सहयोग देने के लिए इन फंडर्स से संपर्क कर सकती हैं। साथ ही, गैर-प्रोजेक्ट खर्चे या अप्रत्यक्ष लागत और ओडी निवेश की ज़रूरत को स्पष्ट कर उनके लिए धन की मांग कर सकती हैं, जो फंडर को स्वीकार्य होती हैं। समय के साथ, जैसे-जैसे फंडर और संस्था का रिश्ता बेहतर होता है, एनजीओ अपनी ज़रूरतों को मज़बूती से फंडर के समक्ष रखें, और समझाएं कि प्रोग्राम की सफलता के लिए इन खर्चों का वहन और निवेश कितना जरूरी है। साथ ही, अपना ट्रू कॉस्ट बजट भी तैयार रखें। उदाहरण के लिए, एनजीओ यह बता सकते हैं कि ऑर्गेनाइजेशन कल्चर (संगठनात्मक संस्कृति) और प्रबंधन में निवेश करने से एनजीओ के कर्मचारी ज़्यादा लम्बे समय तक संगठन के साथ जुड़े रहते हैं जिससे प्रोग्राम में भी बेहतर सफलता हासिल होती है; या कैसे टेक्नोलॉजी में निवेश प्रोग्राम को और अधिक लोगों तक ज्यादा बेहतर ढंग से पहुंचा सकता है। एनजीओ ये भी बता सकते हैं कि इससे पहले दूसरे फंडर्स द्वारा गैर-प्रोजेक्ट खर्चे के लिए अनुदान देने या ओडी में निवेश करने से प्रोग्राम में कैसे और कितने बेहतर परिणाम प्राप्त हुए थे।

2. परिस्थिति के अनुरूप नीतियों को ढ़ाल लेने वाले फंडर्स (अडैप्टिव फंडर्स) के लिए पिच

सर्वेक्षण के उत्तरदाताओं के बीच सबसे बड़ा समूह, अडैप्टिव फंडर्स, गैर-प्रोजेक्ट खर्चे के लिए अनुदान दरों को कुल अनुदान का 15 प्रतिशत से 25 प्रतिशत के बीच निर्धारित करता है, लेकिन अपनी ग्रांट मेकिंग में परिस्थिति के अनुरूप लचीलापन दर्शाता है। अडैप्टिव फंडर्स एनजीओ के साथ बातचीत के आधार पर गैर-प्रोजेक्ट खर्चे की दर निश्चित करते हैं या विशेष परिस्तिथियों या एनजीओ के साथ उनके संबंधों के आधार पर ओडी में निवेश करते हैं। इन फंडर्स से गैर-प्रोजेक्ट खर्चे के लिए अनुदान देने के लिए या प्रोग्राम की सफलता और संस्था द्वारा लाये जा रहे सामाजिक बदलाव से सीधे जुड़ी ऑर्गेनाइजेशनल डेवलपमेंट ज़रूरतों में निवेश के लिए संपर्क कर सकते हैं।

एनजीओ को चाहिए कि गैर-प्रोजेक्ट खर्चे या ओडी की ज़रूरतों का आकलन करते हुए फंडर्स को समझाएं कि अभी वे किस स्थिति में हैं और कैसे उन मदों के लिए ग्रांट देने से प्रोग्राम और संस्था के द्वारा लाये जाने वाले सामाजिक बदलाव पर एक सकारात्मक असर पड़ सकता है।

इन फंडर्स से सहायता प्राप्त करने के लिए संस्थाएं इस प्रकार के अनुदान और निवेश से होने वाले सकारात्मक प्रभावों की भी बात कर सकते हैं। जैसे – कमर्चारियों के मनोबल में वृद्धि या इन निवेशों से संस्था के वार्षिक बजट, रिजर्व फंड या सामाजिक बदलाव के स्तर (ज्यादा लोगों की सेवा कर पाना, या समुदाय की सेवा बेहतर ढंग से कर पाना) में बढ़ोतरी की बात की जा सकती है।

एक अन्य विकल्प टार्गेटेड फंड्स (targeted funds) को ढूंढ़कर उनसे संपर्क करना हो सकता है जिसमें टेक्नोलॉजी, रिसर्च एवं नॉलेज, या सस्टेनेबिलिटी जैसे विशिष्ट उद्देश्यों की फंडिंग की जाती है। ऐसे में ओडी ज़रूरतें अलग से प्रोग्राम फंडिंग के रूप में पिच की जा सकती हैं।

अडैप्टिव फंडर्स से बात करते समय, फंडर्स और एनजीओ की भागीदारी और उस से हासिल होने वाले बेहतर परिणामों के पूर्व उदाहरण देना जरूरी है। इन उदाहरणों से गैर-प्रोजेक्ट खर्चे के लिए अनुदान देने या ओडी में निवेश से सामाजिक बदलाव के स्तर पर होने वाले सकारात्मक असर को दर्शाया जा सकता है। 

3. संगठन निर्माताओं (ऑर्गेनाइजेशन बिल्डर्स) के लिए पिच

संगठन निर्माता, प्रोग्राम फंडिंग के साथसाथ ऑर्गेनाइजेशनल डेवलपमेंट में निवेश और प्रतिकूल परिस्थितियों का सामना करने की क्षमता के विकास का भी महत्त्व समझते हैं। ऐसे फंडर्स गैरप्रोजेक्ट खर्चे की दरें आमतौर पर एनजीओ लीडर्स के साथ बात करके निर्धारित करते हैं और यह दर 25 प्रतिशत से अधिक भी हो सकती हैं। वे एनजीओ की प्राथमिकताओं के आधार पर ऑर्गेनाइजेशनल डेवलपमेंट फंडिंग भी प्रदान करते हैं। लेकिन इस श्रेणी से भी बहुत कम फंडर्स ही लगातार रिजर्व फंड का निर्माण करने में मदद करते हैं।

एनजीओ इस प्रकार के संगठन निर्माता फंडर्स को ट्रू कॉस्ट फंडिंग (वास्तविक लागत – प्रोग्राम फंडिंग, गैर-प्रोजेक्ट खर्चे के लिए अनुदान देने, ऑर्गेनाइजेशनल डेवलपमेंट में निवेश या रिजर्व फंड) के लिए पिच कर सकती हैं, ताकि वह एनजीओ को और अधिक प्रभावी, मजबूत, एवं प्रतिकूल परिस्थितियों का सामना करने में सक्षम बना सकें। अप्रतिबंधित अनुदान (अनरेस्ट्रिक्टेड फंडिंग) और आवश्यकतानुसार टार्गेटेड फंड्स के लिए भी पिच कर सकते हैं। एनजीओ निम्न सुझावों को भी अमल में ला सकते हैं:

संक्षेप में कहा जाए तो एनजीओ के लिए ऐसे फंडर्स को अपना भागीदार समझकर उनके साथ मिलकर काम करना जरूरी है क्योंकि इस तरह से मिली सफलता से भविष्य में अन्य फंडर्स को भी प्रेरित किया जा सकता है। 

ऊपर ज़िक्र किए गए सुझाव कोई पत्थर की लकीर नहीं हैं और संस्थाओं को चाहिए कि वे इन सुझावों को अपने संदर्भ और जरूरतों के मुताबिक समझ कर अमल में लाएं। फिर भी, ये सुझाव फंडर्स की श्रेणियों की समझ, आपसी संवाद को बेहतर करने और एक ऐसी बुनियाद खड़ी करने में मददगार हो सकते हैं जिनके ऊपर आपसी विश्वास, एक-दूसरे की परिस्थितियों की समझ, सकारात्मक सहयोग और आख़िरकार ट्रू कॉस्ट फंडिंग की इमारत की रचना की जा सकती है। सामाजिक बदलाव को लाने के रास्ते में सच्चे साझेदारों की तरह काम करके ही फंडर्स और एनजीओ एक मजबूत सोशल सेक्टर का निर्माण कर सकते हैं।

मूल लेख यहां पढ़ें। हिंदी अनुवाद और संपादन: उर्मिला गुप्ता, अलीना मुसन्ना, रोहन अग्रवाल और शशांक रस्तोगी। टिपणियों एवं सुझावों के लिए आशिफ़ शेख़ (जन साहस) को विशेष धन्यवाद।

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फ़ोटो निबंध: पश्चिम बंगाल के मछुआरे खेती को अपना नया पेशा क्यों बना रहे हैं?

पश्चिम बंगाल के पूर्वी मिदनापुर जिले के कई तटीय गांवों में मछुआरे बसे हुए हैं। अब इन मछुआरे समुदायों की आजीविका पर संकट मंडरा रहा है। इसका कारण जलवायु परिवर्तन के कारण होने वाला कटाव और दीघा, ताजपुर, शंकरपुर और मन्दारमनी में समुद्री तटों को जोड़ने जा रही तटीय सड़क वाली सरकार की विकास परियोजनाएं हैं।

बाईं ओर समुद्र और दाईं ओर एक बसा हुआ गाँव-मछुआरा समुदाय आजीविका
ताजपुर, पुरबा मेदिनीपुर के पास मौजूदा सड़कों को कटाव ने क्षतिग्रस्त कर दिया है।

बावन वर्षीय कबिता प्रधान पूर्वी मिदनापुर के एक तटीय गांव बागुरान जलपाई में रहने वाली एक मछुआरिन हैं। अक्टूबर 2022 में, उष्णकटिबंधीय चक्रवात सितरंग के बंगाल के तट से टकराने की भविष्यवाणी की गई थी। इस कारण कबिता का छ: सदस्यीय परिवार अपनी मछली पकड़ने की अस्थायी झोपड़ी को खाली कर निकटतम चक्रवात आश्रय में चला गया। हालांकि सितरंग बंगाल के तट से नहीं टकराया और कबिता के परिवार का घर सुरक्षित रह गया। लेकिन कटाव और तटीय बाढ़ के कारण पिछले कई दशकों में कबिता के परिवार को कई तरह के संकटों का सामना करना पड़ा। कबिता का कहना है कि “हम हमेशा तूफान, बाढ़ और नुकसान का सामना करने की चिंता के साथ जीते हैं। 2021 में जब चक्रवात यास 100 किमी प्रति घंटे की रफ्तार से हवा के साथ तट से टकराया तो हमने सब कुछ खो दिया। एक ओर, मछलियों की संख्या में कमी आ गई है, और दूसरी ओर, जलवायु परिस्थितियां हमें असुरक्षित बना रही हैं।”

बागुरन जलपाई की एक मछुआरा, कबिता प्रधान की प्रोफ़ाइल-मछुआरा समुदाय आजीविका
बागुरन जलपाई में रहने वाली मछुआरिन कबिता प्रधान।

मछलियों की संख्या में रही कमी से आजीविका का संकट पैदा हो रहा है

मछली पकड़ने के काम में आर्थिक नुक़सान हो रहा है। इस नुकसान की भरपाई के लिए बागुरान जलपाई के एक अन्य मछुआरे देवव्रत खुटिया ने अपनी जमीन पर खेती शुरू कर दी है। खुटिया का कहना है कि “पहले हम अपनी नांवों में काम करने के लिए मज़दूर रखते थे लेकिन अब लाभ कमाने के लिए ऐसा करना सम्भव नहीं है। पिछले कुछ वर्षों में मछली पकड़ने के काम में बहुत फायदा नहीं रह गया है इसलिए हम आजीविका के लिए खेती करने लगे हैं।” राज्य में अपनी आजीविका के लिए तटीय मछली पकड़ने और इससे संबंधित गतिविधियों पर निर्भर लोगों की संख्या लगभग 4,00,000 है। वे आगे बताते हैं कि इनमें से 90 फ़ीसद लोगों ने या तो खेती से जुड़ा काम शुरू कर दिया है या फिर बेहतर अवसर के लिए दूसरे राज्यों में चले गए हैं।

बागुरन जलपाई के एक पारंपरिक मछुआरे देवव्रत खुटिया की प्रोफ़ाइल, जो अपने खेत में काम कर रहे हैं-मछुआरा समुदाय आजीविका
बागुरन जलपाई के पारंपरिक मछुआरे देवव्रत खुटिया अपने खेत में काम करते हुए।

देवव्रत और अन्य छोटे मछुआरों का कहना है कि मछली पकड़ने के लिए ट्रॉलरों को मिलने वाले लायसेंस, समुद्र में मछलियों की संख्या में आने वाली गिरावट का ज़िम्मेदार हैं। गंगा के मुहाने से लेकर बंगाल की खाड़ी की गहराई तक, लगभग 15,000 ट्रॉलर मंडरा रहे हैं और ये हमारा रास्ता रोक रहे हैं। समुद्र तट से बारह समुद्री मील के दायरे में गहराई में जाकर मछली पकड़ने (बॉटम ट्रॉलिंग) पर प्रतिबंध लगा हुआ है। लेकिन पूर्वी मिदनापुर में छोटे स्तर के मछुआरों का कहना है कि ये ट्रॉलर समुद्री तट से एक मील की दूरी पर ही गहराई में उतरकर मछली पकड़ने लगते हैं। इससे पारंपरिक छोटे मछुआरों पर आजीविका का संकट मंडराने लगा है।

ताजपुर के पास जलदा मत्स्य खोटी (एक फिश लैंडिंग सेंटर जिसे मछुआरा समुदाय द्वारा प्रबंधित किया जाता है) में एक छोटे पैमाने के मछुआरे संतोष बार ने बताया कि ट्रॉलर समुंद्र में गहरे उतरकर मछली पकड़ते हैं लेकिन वहीं पारंपरिक और टिकाऊ तरीक़ों से मछली पकड़ने वाले मछुआरों की अपनी सीमाएं हैं। संतोष का कहना है कि “हमारी परंपरा के अनुसार हम समुद्र तट से 3–5 समुद्री मील से आगे नहीं जा सकते हैं। हम अपनी नाव को एक खूंटे से बांध देते हैं और आवंटित क्षेत्र में अपना जाल बिछाते हैं। लेकिन ट्रॉलर ऐसे किसी भी नियम को नहीं मानते। वे जहां और जितना चाहें उतनी गहराई में उतरकर मछली पकड़ते हैं।”

एक पारंपरिक मछली लैंडिंग केंद्र, जिसमें एक के बाद एक बैरिकेड्स और झोपड़ियाँ हैं-मछुआरा समुदाय आजीविका
ताजपुर में जलदा मत्स्य खोटी (पारंपरिक मछली लैंडिंग केंद्र), लगभग 4,000 मछुआरे परिवारों का घर है।

दक्षिण बंगाल मत्स्यजीवी फोरम (डीएमएफ), दक्षिण बंगाल में एक छोटे पैमाने पर मछुआरा संघ है जो तटीय मछुआरों के अधिकारों पर ध्यान केंद्रित करता है। इसके अध्यक्ष देबाशीष श्यामल कहते हैं कि “हाल के वर्षों में पश्चिम बंगाल में समुद्री मत्स्य पालन में उत्पादन दर में काफ़ी गिरावट आई है। मत्स्य पालन विभाग के आंकड़ो के अनुसार 2017–18 में राज्य का मछली उत्पादन 1.85 लाख टन था। 2018–19 और 2019–20 में उत्पादन की यह मात्रा घटकर 1.63 लाख टन हो गई।”

लकड़ी के डंडे पर लटके जाल में मछलियां ले जा रहे दो किसान-मछुआरा समुदाय आजीविका
दादनपत्रबार में ताज़ी मछलियां ले जाते मछुआरे।

देबाशीष कहते हैं कि जलवायु परिवर्तन और अनियोजित विकास परियोजनाओं ने इस क्षेत्र के छोटे स्तर के मछुआरों की आजीविका को प्रभावित किया है। वे जोड़ते हैं कि “वार्षिक मछली मारने का समय अंतराल (सितम्बर से मार्च) अक्सर ही आने वाले साइक्लोन के कारण कम हो गया है। इसके अलावा, दीघा, शंकरपुर, मन्दारमनी और ताजपुर की तटीय विकास परियोजनाओं के कारण ऐसी भूमि कम होती जा रही है जहां मछुआरे मछली सुखाने का काम करते थे।”

यास चक्रवात के बाद समुद्र और समुद्र तट पर हर जगह मलबा-मछुआरा समुदाय आजीविका
चक्रवात यास के बाद ताजपुर में तबाही के संकेत।

मरीन ड्राइव परियोजना से समुदाय को और अधिक खतरा है

दीघा, ताजपुर, शंकरपुर और मन्दारमनी में पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए 2018 में शुरू हुई मरीन ड्राइव विकास परियोजना में 173 करोड़ रुपये का निवेश किया गया था। स्थानीय लोगों का दावा है कि 29.5 किमी लंबी तटीय सड़क से हजारों मछुआरों के जीवन और आजीविका के साथ-साथ क्षेत्र की नाजुक तटीय पारिस्थितिकी पर भी ख़तरे के बादल मंडरा रहे हैं।

रात में रोशनी से जगमगाता पुल-मछुआरा समुदाय आजीविका
सौला पुल, हाल ही में निर्मित मरीन ड्राइव का हिस्सा है।

ताजपुर के पास नवनिर्मित सड़क मई 2021 में चक्रवात यास के कारण बह गई थी। ताजपुर के एक स्थानीय दुकान मालिक सुरंजन बराई ने बताया कि “समुद्र अपनी वर्तमान स्थिति से लगभग 2 किमी दूर था। पहले पर्यटक नियमित रूप से आते थे और ताजपुर समुद्र तट पर लगभग सौ स्टॉल थे, लेकिन कटाव के कारण अब यहां कुछ भी नहीं है। पिछले कुछ वर्षों में तट का विस्तार भी कम हो चुका है।” 2018 में जारी नेशनल सेंटर फॉर कोस्टल रिसर्च की एक रिपोर्ट के अनुसार पश्चिम बंगाल में सबसे अधिक 63 प्रतिशत क्षरण दर्ज किया गया है, इसके बाद पुडुचेरी में 57 प्रतिशत, केरल में 45 प्रतिशत और तमिलनाडु में 41 प्रतिशत का क्षरण दर्ज किया गया है।

समुद्र के किनारे निर्माण कार्य-मछुआरा समुदाय आजीविका
ताजपुर में निर्माण कार्य प्रगति पर है। मई 2021 में चक्रवात यास के तट से टकराने पर तट का यह हिस्सा बह गया था।

दादनपत्रबार मत्स्य खोटी के एक पारंपरिक मछुआरे श्रीकांत दास ने कहा कि मरीन ड्राइव परियोजना छोटे स्तर के मछुआरों से परामर्श किए बिना ही शुरू कर दी गई। ये मछुआरे यहां के महत्वपूर्ण स्थानीय हितधारक हैं। श्रीकांत का दावा है कि सरकारी विभाग के पास न तो योजना है और न ही नक्शे। वे बताते हैं कि “2018 की शुरुआत में, हमने सुना कि तट के साथ एक डबल-लेन सड़क का निर्माण किया जाएगा। तब से हमने सरकारी विभागों से उनकी योजनाओं के बारे में पूछना शुरू किया क्योंकि हम (छोटे मछुआरे) तटों पर रहते हैं और इसका इस्तेमाल छह महीने तक मछलियों को सुखाने के लिए करते हैं।” उन्होंने अपनी बात आगे बढ़ाते हुए कहा “हमने सूचना के अधिकार के तहत एक आवेदन किया था जिसमें हमने परियोजना के विस्तार और वास्तविक नक़्शे के बारे में जानने की मांग की थी। लेकिन अधिकारियों से हमें इस आवेदन को लेकर कोई जवाब नहीं आया। इस परियोजना को तटीय विनियमन क्षेत्र की मंजूरी नहीं मिली है।”

बाईं ओर एक झोपड़ी। झोंपड़ी के बगल में लकड़ी के खंभों पर और झोपड़ी के सामने फर्श पर मछलियां लटकी हुई हैं-मछुआरा समुदाय आजीविका
दादनपत्रबार मत्स्य खोटी में एक पारंपरिक झोपड़ी।

जब उनके मछली सुखाने वाले क्षेत्र के बीच में सड़कें बनने लगीं तो श्रीकांत जैसे छोटे मछुआरों ने विरोध किया और दादनपत्रबार में निर्माण कार्य पर रोक लगा दी। सरस्वती दास नाम की एक मछुआरिन ने कहा कि लगभग 4,000 परिवार दादनपत्रबार खोटी में रहते हैं। उन्हें इस बारे में नहीं बताया गया था कि इस सड़क के निर्माण से वे बेघर हो जाएंगे। उन्हें अभी तक मछली पकड़ने और मछली सुखाने का कोई विकल्प उपलब्ध नहीं कराया गया है। सरस्वती का यह भी दावा है कि यदि सरकार मरीन ड्राइव परियोजना के लिए सड़कों का निर्माण शुरू कर देती है तो इसके अलावा 10 अन्य खोटियां विस्थापित हो जाएंगी। वर्तमान में नयाखली, जलदा और सौला में तीन पुलों के निर्माण का काम पूरा हो चुका है। दादनपत्रबार खोटी के पास दक्षिण पुरोसोत्तमपुर गांव में मछुआरों के विरोध के कारण काम ठप है।

एक मछुआरे सरस्वती दास की प्रोफाइल, जो जमीन पर बैठकर मछली छांट रही हैं-मछुआरा समुदाय आजीविका
दादनपत्रबार में मछलियों की छंटाई का काम कर रही एक मछुआरिन सरस्वती दास।

दक्षिण पुरोसोत्तमपुर के ग्रामीण ज्यादातर मौसमी मछली पकड़ने के साथ-साथ कृषि करते हैं। उनका दावा है कि मरीन ड्राइव परियोजना के लिए 27 ग्रामीणों की लगभग 25 बीघा (1 बीघा = 27,000 वर्ग फुट) कृषि भूमि का अधिग्रहण किया गया है। दक्षिण पुरोसोत्तमपुर के एक ग्रामीण बिरेन जाना ने बताया कि “मेरी 6 दशमलव ज़मीन चली गई (1 दशमलव 435.6 वर्ग फुट है); गांव के एक दूसरे आदमी की 3 बीघा ज़मीन सड़क में चली गई। हमने अपने नुकसान की भरपाई के लिए सरकारी विभाग से गुहार लगाई है, लेकिन कुछ नहीं हुआ।” जाना ने आगे बताया कि वे विकास के लिए अपनी जमीन देने को राज़ी हुए थे, लेकिन उचित मुआवजे के साथ।

खेत में फसल काटते हुए पूर्ण चंद्र सासमल की प्रोफाइल-मछुआरा समुदाय आजीविका
अपनी 8 कट्ठा (1 कट्ठा 720 वर्ग फुट) ज़मीन खोने वाले पूर्ण चंद्र सास्मल दक्षिण पुरोसोत्तमपुर में अपनी खेत में काम करते हुए।

विधान सभा के एक स्थानीय सदस्य अखिल गिरी ने कहा कि सरकार इन मुद्दों से अवगत है। उन्होंने आगे दावा किया कि मछुआरा समुदाय के लाभ के लिए सड़क का निर्माण किया गया था। वे कहते हैं “समुदायों के साथ झगड़ा-झंझट और विवाद से बचने के लिए कुछ स्थानों पर सड़क को मोड़ दिया गया है। बिना सहमति के सरकार किसी की जमीन का अधिग्रहण नहीं करेगी। सरकार जिनकी भी ज़मीन लेगी उन्हें मुआवजा मिलेगा; प्रक्रिया जारी है।” वे कहते हैं कि “अब वे अपनी खोटी से बड़ी आसानी से सूखी मछलियों का आयात-निर्यात कर सकते हैं।

देबाशीष ने कहा कि सरकार हमेशा समुद्र के किनारे पर्यावरण की दृष्टि से विनाशकारी परियोजनाओं की योजना बनाती रही है, लेकिन स्थानीय मछुआरा समुदाय को कभी शामिल नहीं करती है, जिनका जीवन समुद्र पर निर्भर करता है। “इससे पहले हमने हरिपुर में परमाणु हथियार लॉन्च-पैड परियोजना देखी है और हाल ही में ताजपुर में गहरे-समुद्री बंदरगाह के निर्माण को मंजूरी दी गई है। यहां तक ​​कि राज्य सरकार द्वारा पर्यटन विकास के आधार पर कॉर्पोरेट हितों को बढ़ावा देने के लिए मरीन ड्राइव परियोजना को आगे बढ़ाया जा रहा है। हमारा मानना ​​है कि ये परियोजनाएं हमें कभी भी उचित रोजगार नहीं देंगी और छोटे पैमाने के और कारीगर मछुआरों के लिए वैकल्पिक आजीविका के रूप में कारगर नहीं हो सकती हैं।”

सभी चित्र तन्मय भादुड़ी से साभार लिए गए हैं। यह फ़ोटो-निबंध दिल्ली फोरम द्वारा समर्थित यूथ फॉर द कोस्ट फेलोशिप के हिस्से के रूप में तैयार किया गया है।

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क्यों बाल-विवाह पर असम के मुख्यमंत्री की कार्रवाई पर रोक लगनी चाहिए?

23 जनवरी को, असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा ने घोषणा की कि राज्य सरकार बाल-विवाह निषेध अधिनियम, 2006 (पीसीएमए) और पोक्सो (पीओसीएसओ) अधिनियम के तहत बाल-विवाह के खिलाफ एक राज्यव्यापी अभियान शुरू करेगी। इसकी वजह बताते हुए उनका कहना था कि “नाबालिग लड़की से विवाह करना न केवल कानून के खिलाफ है, बल्कि यह लड़की के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है और उसके स्वास्थ्य के लिए ख़तरनाक भी है।” फरवरी की शुरुआत में, इस क़ानून को लागू किया गया और लागू होने के दूसरे सप्ताह तक ही राज्य में 3,015 गिरफ्तारियां हो गईं। मुख्यमंत्री ने घोषणा की कि पुलिस पिछले सात वर्षों में बाल-विवाह में शामिल लोगों को पूर्वव्यापी प्रभाव से गिरफ्तार करेगी। नतीजतन ऐसे पुरुष भी गिरफ़्तार हुए हैं जिनका विवाह वर्षों पहले हुआ था। उनकी पत्नियां अब वयस्क हो चुकी हैं और कुछ मामलों में तो उनकी, कम से कम एक, संतानें भी है। यदि पति उपलब्ध नहीं है तो परिवार के अन्य सदस्य (भाई, मां, और/या पिता) की गिरफ़्तारी हुई है।

इस कार्रवाई के व्यापक नतीजे दर्ज किए जा रहे हैं। कई परिवार अलग हो गए हैं और/या आर्थिक सहायता का अपना मुख्य स्रोत यानी कमाऊ सदस्य खो चुके हैं। कई युवतियों ने पुलिस थानों के बाहर खड़े होकर विरोध जताया और कहा कि उनकी शादी उनकी मर्ज़ी से हुई थी और वे इसे तोड़ना नहीं चाहती हैं। लेकिन इन सब का कोई फ़ायदा नहीं हुआ है। स्वास्थ्य के पहलू पर भी अपनी इच्छा से गर्भवती हुई महिलाओं ने गर्भपात वाली गोलियां खाकर, ना चाहते हुए भी गर्भपात करवाया। इनमें अक्सर ग़लत तरीक़े से इन गोलियों के सेवन और गर्भपात के लिए असुरक्षित तरीक़े अपनाए जाने के मामले सामने आए हैं। कई गर्भवती लड़कियों ने जानबूझकर प्रसव के पहले होने वाली अपनी स्वास्थ्य जांचें ना करवाने का विकल्प चुना तो वहीं कई लड़कियों ने घर पर प्रसव करवाने का फ़ैसला कर कई तरह के जोखिम उठाए। पिछले दिनों एक दुखद मामला सामने आया था जिसमें एक किशोरी लड़की की प्रसव के दौरान ही मृत्यु हो गई थी। यह सिर्फ इसलिए हुआ क्योंकि उसका परिवार किसी अस्पताल में जाकर प्रसव करवाने का जोखिम नहीं उठाना चाहता था। परिवार को लड़की के पति की गिरफ़्तारी का डर था। जहां एक तरफ़ बाल-विवाह पर रोक लगाने की मुख्यमंत्री के ये इरादे सराहनीय हैं, वहीं दूसरी तरफ़ लड़कियों और उनके परिवारों की भलाई को नज़रअन्दाज़ करते हुए ऐसे कठोर कदम उठाना ग़ैरजिम्मेदाराना भी है। इस फैसले ने गर्भावस्था से संबंधित देखभाल से जुड़े उन लाभों को उलट कर रख दिया है जो बीते कई सालों में अथक कोशिशों से हासिल किए गए थे। साथ ही, यह कदम लड़कियों और युवतियों के अपनी पसंद से चुनाव करने के अधिकार का भी हनन कर रहा है।  इसके अलावा, इस दृष्टिकोण में उन कारकों पर ज़ोर देना शामिल नहीं हैं जो बाल-विवाह को बढ़ावा देते हैं और रणनीति के स्तर पर भी ये तरीक़े बाल-विवाह की रोकथाम पर खरे नहीं उतरते हैं।

असम में बाल-विवाह की स्थिति

बिहार, झारखंड, त्रिपुरा और पश्चिम बंगाल के साथ असम उन राज्यों में शामिल है जहां बाल-विवाह की दर सबसे अधिक है। 2019–21 में, असम में 20-24 वर्ष की उम्र की 32 फ़ीसद लड़कियों का विवाह 18 वर्ष से पहले कर दिया गया था, वहीं साल 2005-06 (31 फ़ीसद) में भी यह आंकड़ा लगभग समान ही था। ज़्यादातर शादियां बचपन के अंतिम पड़ाव में होती हैं और 15-19 वर्ष के आयु वर्ग की केवल 2.1 फ़ीसद लड़कियों का विवाह 15 साल की उम्र से पहले हुआ था। किशोरावस्था (उम्र 15-19) में गर्भधारण की उम्र 18–19 वर्ष की उम्र के बीच है। यह दर 17 वर्ष की आयु वालों के लिए 5.3 फ़ीसद (और 16 वर्ष की आयु के लिए 2.2 फ़ीसद) से क्रमशः 18.3 फ़ीसद और 33.4 फ़ीसद 18 और 19 वर्ष की आयु वालों के लिए है।

बाल-विवाह क्यों होते हैं?

भारत में बाल-विवाह की लगातार बनी हुई स्थिति के पीछे चार मुख्य कारकों को देखा जाता है। ये कारक हैं: पारिवारिक ग़रीबी, पितृसत्तात्मक संरचना और लैंगिक असमानता, मानवीय संकट या संघर्ष और व्यवस्था-स्तर की कमियां। गरीबी इसकी एक प्रमुख वजह है। कई अध्ययनों ने इस बात की पुष्टि की है कि अधिक शिक्षित महिलाएं, आर्थिक रूप से सम्पन्न परिवार से आने वाली महिलाएं, शहरी क्षेत्रों की महिलाएं और कम वंचित सामाजिक समूहों से आने वाली महिलाओं को अन्य तबकों की महिलाओं की तुलना में बाल-विवाह जैसी कुरीतियों का सामना कम करना पड़ता है। गरीबी, परिवार के आर्थिक विकल्पों को सीमित करती है, और विवाह से परिवार अपनी बेटियों के आर्थिक बोझ को पति के परिवार पर स्थानांतरित कर देते हैं। चूंकि दुल्हन का पिता विवाह का खर्च उठाता है इसलिए गरीब परिवार अक्सर अपनी बेटियों की शादियां एक साथ और कम उम्र में कर देते हैं। ऐसी परिस्थितियों में शादी के ख़र्चों को कम करने के लिए अक्सर ही लड़कियों की उम्र का ख़्याल नहीं रखा जाता है।

भारत के अधिकांश हिस्सों में अब भी पितृसत्तात्मक परिवार व्यवस्था क़ायम है। इस व्यवस्था में गहराई तक गुंथे लैंगिक मानदंडों को बनाए रखने की प्रथा अब भी है। साथ ही, बच्चों की शादी का समय और उनके लिए जीवनसाथी के चुनाव का निर्णय भी पितृसत्ता पर ही निर्भर करता है। इन नियमों के पालन का दबाव होता है। माता-पिता से बार-बार उनकी बेटी के अविवाहित होने के कारण पूछना और उनके लिए उपयुक्त पति ढूंढ़ने की पेशकश करना, बेटियों के बारे में अफ़वाहें और परिवार के अन्य सदस्यों को लेकर भद्दी टिप्पणियों आदि के कारण, अपनी लड़कियों की शादियों में होने वाली देरी को लेकर मानसिक रूप से तटस्थ परिवार भी विचलित हो जाता है। एक पिता ने हमें बताया कि “सब जानते हैं कि कम उम्र में शादी करना ग़लत है। लेकिन इसके बावजूद सभी ऐसा करते हैं… लोगों को इस प्रथा को तोड़ने में डर लगता है…गांव के 90 फ़ीसद लोग मानते हैं कि बाल-विवाह एक सामाजिक प्रथा है। अगर कोई इसके उल्लंघन का प्रयास करता है तो उसे समुदाय से बाहर कर दिया जाता है।” इसके अलावा कौमार्य का महत्व और इस बात का डर कि उम्र बढ़ने पर लड़कियों का लड़कों के साथ घुलने मिलने और यौन संबंध बनाने या फिर माता-पिता की अनुमति के बिना शादी कर लेने और इससे उनके परिवार की इज़्ज़त (प्रतिष्ठा) पर आंच आने जैसी बातें भी बाल-विवाह जैसी प्रथा को बनाए रखने में अपनी भूमिका निभाती हैं।

लॉकडाउन के दौरान कई राज्यों में बाल-विवाह में वृद्धि देखी गई थी।

राजनीतिक संकटों जैसे नागरिकता (संशोधन) अधिनियम और ऐसे ही क़ानूनों के कारण उपजी अनिश्चितता के कारण, बाढ़ या महामारी जैसे मानवीय संकट के समय में गरीब परिवारों को लैंगिक रूप से असमान मानदंडों के पालन की ओर धकेला जा सकता है। वे बाल-विवाह को आर्थिक तंगी से निपटने और लड़कियों को हिंसा से ‘सुरक्षित’ रखने या कम संसाधनों से निपटने के साधन के रूप में देखते हैं। उदाहरण के लिए लॉकडाउन के दौरान कई राज्यों में बाल-विवाह में वृद्धि देखी गई थी।

व्यवस्था-स्तर की कमियां भी एक बड़ी बाधा है। भारत में बाल-विवाह की बड़ी संख्या के बावजूद  पीसीएमए के तहत आपराधिक रिकॉर्ड में शायद ही कोई उल्लंघन दिखाई देता है। 2021 में केवल 1,050 मामले ही दर्ज हुए थे। मुख्यमंत्री ने न केवल हाल में हुई शादियों को ही निशाने पर लिया था बल्कि इनमें सात साल पहले हुई शादियां भी शामिल थीं। बावजूद इसके इतने कम मामले का दर्ज होना अधिनियम के कार्यान्वयन के प्रति कानून लागू करवाने वाले अधिकारियों की गम्भीरता और सीमित कार्रवाई को दर्शाता है और उनके अंतर्निहित इरादों पर सवालिया निशान लगाता है।

क्या दंडात्मक उपाय काम करते हैं?

सबूत बताते हैं कि दंडात्मक उपाय अपनाने और अपराधीकरण करने से बाल-विवाह को छुपाने और जानबूझ कर दुल्हनों की ग़लत उम्र बताकर गुप्त बाल-विवाह के मामलों को बढ़ावा मिलता है। इन कठोर उपायों की बजाय नरम दृष्टिकोण अपनाने वाली पहलें, दंडात्मक कार्रवाइयों और अपराधीकरण करने की बजाय क़ानूनी ताकत का उपयोग करने को, बाल-विवाह को रोकने के उपाय के रूप में अपनाने से अधिक नतीजे मिलने की संभावना होती है। इससे परिवार और समुदाय में इसकी स्वीकार्यता का स्तर बढ़ेगा। उदाहरण के लिए, कई संगठनों ने कानून का उपयोग माता-पिता के अलावा कई तरह के उन लोगों के बारे में जागरूकता फैलाने के लिए किया है, जिन्हें बाल-विवाह में भाग लेने के लिए दंडित किया जा सकता है। दूसरों ने यह सुनिश्चित किया है कि माता-पिता विवाह योग्य उम्र तक पहुंचने से पहले अपनी बेटी की शादी नहीं करने का वादा करते हुए एक शपथ पर हस्ताक्षर करें। बाल-विवाह को रोकने के लिए किए जा रहे प्रयासों में पुलिस और अन्य प्रशासनिक अधिकारों को शामिल कर क़ानूनी रूप से बाल-विवाह आयोजनों को रोकने की कोशिश भी शामिल है। कई संगठन पर्चे भी वितरित करते हैं जिन पर प्रमुखता से स्थानीय हेल्पलाइन नंबर लिखा होता है। इनसे समुदाय के सदस्यों को बाल-विवाह की रिपोर्ट करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। हालांकि, वे भी कानून के तहत मामला दर्ज करने और किसी की गिरफ्तारी से बचते हैं, और इसकी बजाय चेतावनी या परामर्श के माध्यम से बाल-विवाह को रोकने के लिए क़ानूनी ताकत का इस्तेमाल करते हैं।

काली चप्पल पहने पुरुष और नीली साड़ी में महिला-बाल विवाह असम
सबूत बताते हैं कि दंडात्मक कार्रवाई और अपराधीकरण केवल बाल-विवाह को भूमिगत करते हैं। | चित्र साभार: इंविजिबल लेंस फ़ोटोग्राफ़ी / सीसी बीवाई

बाल-विवाह को कम करने के कारगर उपाय क्या हैं?

इस बात का कोई सबूत नहीं है कि दंडात्मक कार्रवाई के सकारात्मक परिणाम मिले हैं या लड़कियों को सशक्त बनाने में सफलता मिली है। कानूनों का कार्यान्वयन बाल-विवाह को हतोत्साहित करने या उसके उन्मूलन या लड़कियों के समझपूर्ण विकल्प और समान अवसरों के मौलिक अधिकारों का सम्मान करने में महत्वपूर्ण योगदान नहीं देता है।

लड़कियों के विवाह में देरी, उन्हें सशक्त बनाने और उनके अधिकारों का सम्मान करने के लिए शिक्षा अब तक की सबसे प्रभावी रणनीति है।

सामाजिक परिवर्तन धीरे-धीरे होता है और मुख्यमंत्री को यह समझना चाहिए कि किसी भी प्रकार का सुधार तुरंत नहीं किया जा सकता हैं। इसकी बजाय वे साक्ष्य-आधारित रणनीतियों पर विचार कर सकते हैं जिनके जरिए लड़कियों को सशक्त बनाया गया हो और बाल-विवाह जैसे मामलों में कमी आई हो। शादी में देरी करने, लड़कियों को सशक्त बनाने और उनके अधिकारों का सम्मान करने की अब तक की सबसे प्रभावी रणनीति है लड़कियों को स्कूल में रखना और यह सुनिश्चित करना कि वे माध्यमिक शिक्षा पूरी करें। स्कूल में लड़कियों (और लड़कों) को बनाए रखने के लिए सबसे आशाजनक मॉडल पश्चिम बंगाल में चल रहा मॉडल है जिसमें नियमित स्कूल उपस्थिति के लिए सशर्त नकद अनुदान का प्रावधान रखा गया है। साथ ही, ऐसे कार्यक्रम भी उम्मीद जगाते हैं जिनमें ज़रूरतमंद के लिए सप्लिमेंट्री कोचिंग प्रदान की जाती है, और बिहार में शुरू की गई साइकिलों के प्रावधान वगैरह ने गरीब माता-पिता को स्कूली शिक्षा का खर्च वहन करने में सक्षम बनाया है।

बड़ी उम्र की लड़कियों को सफलता के साथ स्कूल से नौकरी करने वाली स्थिति तक पहुंचाने के प्रयासों में, शैक्षिक प्रणाली के भीतर या बाहर से दिए जाने वाले, आजीविका प्रशिक्षण और रोज़गार कौशल के प्रावधान भी शामिल हैं। शिक्षा प्राप्त करने की तरह ही यह बाल-विवाह का विकल्प बन सकता है और साथ ही उन माता-पिता से उनकी बेटी के विवाह न करने को लेकर पूछे जाने वाले सामान्य प्रश्न का उत्तर भी बन सकता है। आजीविका का उचित कौशल प्रशिक्षण और संबंधित कमाई के अवसरों तक पहुंचने के लिए लड़कियों को सलाह देना और उनका मार्गदर्शन करना दर्शाता है कि वे भी अपने भाइयों की तरह अपने परिवार की आर्थिक सम्पत्ति बन सकती हैं। ये लड़कियों के सीमित महत्व की धारणा को भी कमजोर करता है।

ओडिशा में, राज्य सहित कई स्तरों पर लड़कियों में अभिव्यक्ति और चुनाव की क्षमता को मज़बूत करने से जुड़ी पहलें भी उम्मीद जगाने वाली रही हैं। लैंगिक मानकों और असंतुलन को बदलने वाले जीवन कौशलों को सिखाने वाले ये कार्यक्रम लड़कियों को एकजुट होने, उन्हें नए विचारों और कौशलों से परिचित कराने और उनके अधिकारों और समर्थन के स्रोतों के बारे में परिचित कराने के लिए एक सुरक्षित स्थान प्रदान करते हैं। वे विवाह में देरी के महत्व और उन रणनीतियों के बारे में भी बताते हैं जिससे वे इस प्रथा को रोक सकते हैं। 

माता-पिता और प्रभावी सामुदायिक नेताओं से अवश्य सम्पर्क किया जाना चाहिए। पारंपरिक लैंगिक मानदंडों को बदलने के उद्देश्य वाले समुदाय-आधारित कार्यक्रमों की आवश्यकता है और साथ ही, लड़कियों को अधिक नियंत्रण और क्षमता प्रदान करने वाले कानूनों और अधिकारों की बेहतर समझ प्रदान की जानी चाहिए। इसके अलावा, कानून को बनाए रखने, दृष्टिकोण बदलने, और/या लड़कियों को सशक्त बनाने के लिए – पुलिस, शिक्षकों, स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओं और यहां तक ​​कि राजनेताओं को भी – अधिक सक्षम बनाना चाहिए।  प्रत्येक व्यक्ति को इस बात की जानकारी देने की ज़रूरत है कि क्या कारगर है और क्या नहीं, और प्रथाओं को अधिक संवेदनशील और कम दंडात्मक तरीके से कैसे बदला जाए। 

परिवारों को तोड़ना, युवा महिलाओं से उनका सहारा, उनके पति को दूर करना; नवजातों से उनके पिता को अलग करना; और महिलाओं को उनके वांछित गर्भाधारण या गर्भावस्था-संबंधित देखभाल के अधिकार से वंचित करना और यहां तक कि अपने पति को बचाने के लिए मौत के मुंह में जाने जैसे जोखिम में डालने वाले उपाय शायद ही उनके अधिकारों को मान्यता देते हैं। और न ही यह बाल-विवाह को रोक सकते हैं।

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