छब्बीस जनवरी यानी हमारा गणतंत्र दिवस। साल 1950 में इसी दिन भारत का संविधान लागू हुआ था। हमारे देश के प्रशासन को सुचारू रूप से चलाने के नियम-कायदे और समूची व्यवस्था संविधान द्वारा ही तय की जाती है। साल 1992 में देश ने 73वें और 74वें संशोधन के रूप में विकेंद्रीकरण की तरफ अपना कदम बढ़ाया। इसका उद्देश्य ज़मीनी स्तर के लोकतंत्र को मज़बूत करके स्थानीय राजनीतिक इकाइयों को मज़बूत बनाना था।
इस वीडियो में आप जानेंगे कि 73वें और 74वें संशोधनों के लागू होने के बाद देश के प्रत्येक राज्य के लिए यह ज़रूरी हो गया कि वे गांव और शहरों में अलग-अलग स्थानीय सरकारों का गठन करें। साथ ही, काम करने के लिए उन्हें फंड देने वाली व्यवस्था बनाएं और हर पांच साल में स्थानीय चुनाव करवाएं। इसके पीछे सोच यह थी कि आम लोगों पर सीधा असर डालने वाले फ़ैसलों में उनकी राय शामिल होनी चाहिए। साथ ही, यह भी माना गया कि स्थानीय समस्याओं का सबसे अच्छा और उचित हल भी स्थानीय लोग और सरकारें ही निकाल सकती हैं।
सभी राज्य सरकारें अपने नीचे आने वाली स्थानीय सरकारों द्वारा किए जाने वाले कामकाज के लिए ज़िम्मेदार होती हैं। इसलिए इन स्थानीय सरकारी संस्थानों को मिलने वाली शक्तियां उनके राज्य के क़ानूनों पर निर्भर करती हैं। स्थानीय सरकारें, जहां ज़मीनी स्तर पर विकास को सुनिश्चित करने के लिए ज़रूरी हैं, वहीं इसकी ज़िम्मेदारी एक समुचित प्रणाली के रूप में केंद्र, राज्य और ज़िला प्रशासन तीनों पर है। इन सबको एक सहजता से चलने वाली मशीन की तरह काम करना होता है, ताकि स्थानीय सरकारें अपने निर्धारित लक्ष्यों को हासिल करने के लिए नियमित और सुचारू रूप से काम कर सकें।
मेरा नाम ऐसे तो चतर सिंह है लेकिन सभी मुझे प्यार से चतरु बुलाते हैं। मेरा घर राजस्थान के राजसमंद जिले के देवडुंगरी नामक गांव में है। मैं अपने माता-पिता के साथ रहता हूं। मेरे माता-पिता दोनों ही मनरेगा योजना के अंर्तगत दिहाड़ी मज़दूरी करते हैं। हमारे गांव देवडुंगरी में ज़्यादातर लोग या तो मज़दूरी करते हैं या फिर वे काम की तलाश में दूसरी जगह चले जाते हैं। इसके पीछे का कारण यह है कि हमारे गांव में इतनी बारिश नहीं होती है कि खेती-किसानी हमारे लिए रोजगार का विकल्प बन सके। हमारे परिवार में कुल सात लोग हैं, लेकिन शादी के बाद मेरी बहनें अब अपने ससुराल में रहती हैं और मेरे सभी भाई भी रोज़गार और काम-धंधे के सिलसिले में दूसरी जगहों पर जाकर बस गये हैं।
मैं एक ई-मित्र हूं। यह एक प्लेटफ़ार्म होने के साथ ही एक तरह की नौकरी भी है – एक ई-मित्र वह व्यक्ति होता है जो राजस्थान में लोगों को सरकार द्वारा लागू की गई अनिवार्य सेवाओं और योजनाओं और ऑनलाइन सेवाओं के लिए आवेदन करने में उनकी मदद करता है। अपने काम के लिए मैं जन सूचना पोर्टल का उपयोग करता हूं। यह एक सार्वजनिक सूचना पोर्टल है जिसे राजस्थान की सरकार चलाती है और रीयल टाइम में इस पर सूचनाएं अपडेट होती हैं। इस पोर्टल के माध्यम से हम लोगों की पात्रता डिलीवरी और आवेदन की स्थिति का पता लगाया जा सकता है। मैं मज़दूर किसान शक्ति संगठन (एमकेएसएस) के साथ काम करता हूं। इस संगठन की स्थापना देवडुंगरी में ही हुई थी। हमारा घर मेरे माता-पिता की आय और मेरे द्वारा हर दिन कमाए जाने वाले 289 रुपये के न्यूनतम वेतन से चलता है जो मुझे एमकेएसएस के साथ काम करने की एवज़ में मिलता है।
जब मैं सात या आठ साल का था तब एक बिना लाइसेंस के डॉक्टरी करने वाले व्यक्ति ने मेरी एक टांग में इंजेक्शन लगा दिया, जो किसी एक ऐसी नस पर असर कर गई जहां उसे नहीं करना चाहिए था। इसके कारण मैं स्थायी रूप से विकलांग हो गया। समाज में व्याप्त अंधविश्वासों के कारण, किसी ने भी मेरी विकलांगता को चिकित्सीय गलती से जोड़ कर नहीं देखा। बल्कि इसके उलट, लोगों का मानना था कि मुझ पर किसी तरह का अभिशाप है। मुझे समय पर हॉस्पिटल भी नहीं ले ज़ाया गया ताकि सही इलाज मिल सके। इसके बदले, मुझे सब लोग मिलकर मंदिर ले गये जहां एक पुजारी लगातार मेरे परिवार के लोगों को झूठी और ग़लत सलाह देता रहा। हर बार वह कभी दो महीने तो कभी चार महीने बाद बुलाता। उसका कहना था कि मैं एक दिन ठीक हो जाऊंगा। इसी तरह दो-तीन साल निकाल गये। समय इतना बीत चुका था कि इसके बाद मेरी उस नस को ठीक करना किसी भी डॉक्टर के वश में नहीं था। इस विकलांगता ने मेरे जीवन पर बहुत बुरा प्रभाव डाला। मेरे बड़े भाई ने कुछ समय तक मुझे घर पर ही पढ़ाया। लेकिन इस विकलांगता के कारण मुझे 10-11 साल तक की उम्र तक औपचारिक शिक्षा से वंचित रहना पड़ा।
मेरी बारहवीं तक की पढ़ाई देवडुंगरी के ही स्कूल से हुई और उसके बाद मैं डिस्टेंस लर्निंग से अपनी ग्रेजुएशन पूरी की। लेकिन जब मैंने दूसरी बार बीए करने का फ़ैसला लिया तो उसके लिए मेरे सामने कक्षा में जाकर पढ़ाई करने की शर्त थी। मेरी मां मुझे घर से बाहर नहीं जाने देना चाहती थीं। उन्हें हमेशा इस बात की चिंता लगी रहती थी कि बाहर मेरी देखभाल करने वाला कोई नहीं होगा और मैं ख़ुद से अपना ख्याल नहीं रख पाऊंगा। इस बात को लेकर मेरे और उनके बीच बहस भी गई थी। मैं उनकी चिंता समझ रहा था लेकिन मैं घर के बाहर की दुनिया को भी देखना और समझना चाहता था। मैंने अक्सर ही देखा है कि विकलांग लोग अपनी ज़िंदगी को घर की चारदीवारी में क़ैद कर लेते हैं। मुझे अपने लिए ऐसा जीवन नहीं चाहिए था।
समय के साथ मैंने चलना और यहां तक कि यात्राएं करना भी सीख गया। और इस तरह से मैंने अपनी उच्च शिक्षा पूरी की। ई-मित्र के मेरे काम से मेरे जीवन को नया अर्थ मिला और मैं इस काबिल बन पाया कि लोगों की मदद कर सकूं। ई-मित्र के जरिए मुझसे मदद पाने वाले लोगों में ज़्यादातर कम आय वर्ग वाले लोग होते हैं और अक्सर सरकारी सामाजिक अधिकारों और उनसे मिलने वाले लाभों तक स्वयं नहीं पहुंच पाते हैं।
सुबह 3.30 बजे: मैं सुबह जल्दी जाग जाता हूं और दो घंटे तक विभिन्न प्रतियोगिता परीक्षाओं की तैयारी करता हूं। मैं राजस्थान एलिजेबिलिटी एग्जामिनेशन फॉर टीचर्स (आरईईटी) से लेकर राजस्थान प्रशासनिक सेवाओं (आरएस) के लिए होने वाली सभी परीक्षाओं की तैयारी कर रहा हूं। मेरा सपना है कि या तो मैं एक अच्छा शिक्षक बन जाऊं या फिर मेरा चयन आरएस अधिकारी के रूप में हो जाये। मेरी नौकरी लगने के बाद मेरा परिवार आर्थिक रूप से स्थिर हो जाएगा। मुझे नई-नई चीजें सीखने में बहुत मजा आता है और तीन विषयों में एमए के करने के साथ ही मेरे पास बीएड की डिग्री भी है। चूंकि घर से निकलना मेरे लिए संभव नहीं था और मैंने केवल पांचवी कक्षा तक की ही पढ़ाई स्कूल से की है, इसलिए मुझे शिक्षा का महत्व अच्छे से मालूम है।
स्कूल ना जाना पाना मेरी एकमात्र चुनौती नहीं थी – कलंक और अंधविश्वास ने जीवन भर मेरा पीछा नहीं छोड़ा। गांव वालों का मानना था कि सुबह-सुबह मेरा चेहरा देखने से उनका दिन ख़राब हो सकता है। मेरा परिवार, विशेष रूप से मेरी मां को कई तरह के ताने सुनते पड़ते थे जैसे कि, ‘इसे सुबह दस या ग्यारह बजे के बाद ही बाहर भेजो। सुबह-सुबह इसका चेहरा देखना हमारे लिए अशुभ होता है।’
लेकिन जब से मैंने ई-मित्र के रूप में काम करना शुरू किया है तब से मेरे आसपास और समुदाय के लिए लोगों का व्यवहार मेरे प्रति बदल गया है। एक समय मेरी विकलांगता के कारण मुझे नीचा दिखाने वाले लोग ही मुझसे अपने पेंशन, राशन और अन्य सामाजिक अधिकारों के लिए किए गए अपने आवेदनों की स्थिति के बारे में पूछने के लिए सुबह से ही मेरे घर के बाहर क़तार में खड़े हो जाते हैं।
चूंकि मैं अपने इस कम को समाज सेवा से जोड़कर देखता हूं इसलिए मुझे उनकी मदद करने से ख़ुशी मिलती है। लोगों की सहायता करना और उन्हें उनके अधिकारों के बारे में बताना ज़रूरी है ताकि उन्हें अपने अधिकारों की समझ हो सके। उदाहरण के लिए, ग़रीबी में अपना जीवन गुजर-बसर कर रही एक विधवा बुजुर्ग मेरे पास इसलिए आई थी क्योंकि उसे अपना पेंशन नहीं मिल रहा था। हालांकि उन्हें विधवा पेंशन के साथ-साथ वृद्धा-पेंशन भी मिल सकता था लेकिन उन्हें पढ़ना-लिखना नहीं आता था इसलिए वह आवेदन से जुड़ी कागजी प्रक्रिया करने में सक्षम नहीं थीं। मैंने उनका पेंशन फॉर्म भरा, जॉब कार्ड बनाने के लिए भी आवेदन फॉर्म भरा, और कोशिश की कि उनका नाम राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम की सूची में भी उनका नाम दर्ज हो जाए। अगर सब कुछ सही रहा तो उन्हें जीवन भर इन सभी योजनाओं से मिलने वाले लाभ प्राप्त होंगे। अपने ई-मित्र सेंटर पर मैं हर दिन कम से कम ऐसे 50 से 60 लोगों से मिलता हूं और उनकी मदद करता हूं।
मेरा ऑफिस सुबह साढ़े नौ बजे शुरू होता है, इसलिए मैं सुबह का नाश्ता करने के बाद नौ बजे काम के लिए निकल जाता हूं।
सुबह 9.30 बजे: ई-मित्र का काम करने वाला कमरा, राजसमंद के भीम तहसील में स्थित एमकेएसएस के दफ़्तर में ही है। हमारे ऑफिस को ‘गोदाम’ कहा जाता है और यह चार जिलों – राजसमंद, पाली, अजमेर और भीलवाड़ा- के बीच में स्थित है। इन चारों जिलों के लोग अपना काम करवाने के लिए मेरे ऑफिस में आते हैं। मेरा काम मुख्य रूप से ऑनलाइन ही होता है, जहां मैं लोगों को सरकारी योजनाओं के तहत मिलने वाले लाभों के लिए आवेदन करवाने और समय-समय पर उनके आवेदनों की स्थिति का पता लगाने में उनकी मदद करता हूं। इसके अलावा मैं उन्हें राजस्थान राज्य सरकार की उन विभिन्न योजनाओं के बारे में भी बताता हूं जिनका उन्हें लाभ मिल सकता है।
राजस्थान की सरकार ने हमारे क्षेत्र में सेवा के लिए न्यूनतम पचास रुपये की दर तय की हुई है। हालांकि, मैंने देखा है कि कई ई-मित्र पचास रुपये की रसीद बनाते हैं लेकिन वास्तव में अपनी सेवाओं के लिए सौ से डेढ़ सौ रुपये तक भी लेते हैं।
मेरी सबसे बड़ी चिंता व्यवस्था में व्याप्त भ्रष्टाचार है। मैंने देखा है कि ई-मित्र उन लोगों का लाभ भी उठाते हैं जिन्हें सरकारी योजनाओं का लाभ मिल सकता है। उदाहरण के लिए, भवन और अन्य निर्माण श्रमिक अधिनियम, 1996 के तहत श्रम कार्ड रखने वाले आदमी को शुभ शक्ति योजना का लाभ मिल सकता है। इस योजना के अंतर्गत ऐसे श्रमिकों की बेटी को सरकार की तरफ से पचपन हज़ार रुपये की सहायता राशि मिलती है यदि वह अठारह साल तक अविवाहित है और उसने कम से कम कक्षा आठ तक की पढ़ाई पूरी कर ली है। ऐसे कई लोगों को ई-मित्रों द्वारा ठगा जाता है और वे उनसे कहते हैं कि अगर वे उन्हें दस से बीस हज़ार रुपये तक दें तो वे उनके पचपन हज़ार रुपये जल्द से जल्द दिलवाने में उनकी मदद कर सकते हैं। ऐसा नहीं करने पर आवेदन से लेकर अधिकार के पैसे मिलने की प्रक्रिया पूरी होने में बहुत लंबा समय लग सकता है।
हालांकि हमारे सेंटर को व्यवस्था में व्याप्त भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए ही शुरू किया गया था। जब 2014 में मैंने एमकेएसएस के ऑफिस में काम करना शुरू किया था, तब हमने पाया कि एक ई-मित्र ने एक महिला से बीस रुपये की जगह दो सौ रुपये का भुगतान करवाया था। चूंकि मैं ऑफिस से बाहर निकल बहुत अधिक मदद नहीं कर सकता हूं, इसलिए मुझे एक मॉडल ई-मित्र चलाने की जिम्मेदारी दी गई जहां लोगों से उचित राशि ही ली जाएगी।
दोपहर 1.30 बजे: मैं और मेरे सहकर्मी मिलकर दोपहर के खाने की तैयारी करते हैं। हम लोग गोदाम में ही खाना पकाते हैं और खाते हैं। खाना पकाने के दौरान हम अपनी निजी ज़िंदगियों से लेकर राजनीति जैसे विषयों पर चर्चाएं भी करते हैं। अक्सर ही हमारी बातचीत का विषय जवाबदेही व्यस्वथा में मौजूद धोखाधड़ी होती है क्योंकि ये विभिन्न सरकारी विभागों में स्थानीय अधिकारियों और ई-मित्रों के बीच के संबंध इस समस्या को और बढ़ा देते हैं।
राजस्थान सरकार के अंर्तगत छह सौ अधिक सेवाएं और योजनाएं हैं और ईमित्र के माध्यम से इन सभी तक पहुंचा जा सकता है। हम अब तक कुल तीन बार जन सुनवाई का आयोजन कर चुके हैं ताकि इस बात का अंदाज़ा लगाया जा सके कि इन योजनाओं का लाभ सही लोगों तक पहुंच रहा है या नहीं। यह जानने के लिए कि प्रत्येक ग्रामीण को मिलने वाला अधिकार किस चरण में मिलता है, हम गांव में सामाजिक ऑडिट भी आयोजित करते हैं। उसके बाद हम पूरे गांव और विभाग के अधिकारियों को जन सुनवाई के लिए एक जगह पर बुलाते हैं। इस सुनवाई में हम प्रत्येक व्यक्ति के सामने योजनाओं से जुड़ी ग़लतियों का पता लगाते हैं और उसे दूर करते हैं। उदाहरण के लिए, अगर हम प्रधान मंत्री आवास योजना के लिए जन सुनवाई का आयोजन करेंगे तो हम उसमें लोगों के सामने आने वाली समस्याओं की पहचान करेंगे ताकि उससे संबंधित विभाग अपनी ग़लतियों को ठीक करने की दिशा में काम कर सके। इससे हमें यह जानने में भी मदद मिलती है कि कहीं किसी ने ग़लत तरीक़े से पैसे तो नहीं लिये हैं और इसके बाद हम उसी समय पूरे गांव के सामने अधिकारियों को इसके लिए जवाबदेह बना सकते हैं।
शाम 5.00 बजे: मैं आमतौर पर शाम पांच से छह बजे तक काम करता हूं। एक आवेदन प्रक्रिया से जुड़ा काम करने में मुझे आधे घंटे से लेकर एक घंटे तक का समय लग जाता है क्योंकि सभी जानकारियों को सही-सही भरना बहुत महत्वपूर्ण है। इस सेवा के लिए मैंने किसी भी प्रकार की विशेष प्रशिक्षण नहीं ली है इसलिए बिना गलती के काम करने के लिए या तो मैं यूट्यूब पर निर्भर रहता हूं या फिर गलती करके सीखता हूं।
जनसूचना पोर्टल के माध्यम से हमें सभी प्रकार की प्रासंगिक जानकारी मिल जाती है और हम एक व्यक्ति के लिए कई आवेदन फॉर्म भर सकते हैं। ऐसे में गलती पकड़ना आसान होता है। मुझे आज भी याद है। ई-मित्र के रूप में काम करते हुए मुझे कुछ ही साल हुए थे, एक महिला अपनी पेंशन के बारे में जानने के लिए हमारे पास आई थी। कई महीनों से उसे उसकी पेंशन की किस्त नहीं मिली थी। मैंने रिकॉर्ड चेक किया और पाया कि दस्तावेज के सत्यापित नहीं हो पाने के कारण उसे मृत घोषित किया जा चुका है। इस मामले की गहराई से जांच करने के बाद हमने जाना कि राजस्थान में लगभग छह से आठ लाख लोगों को मृत घोषित किया जा चुका था जबकि वे जीवित थे। इन परिस्थितियों में, सरकार के लिए तकनीक से जुड़े काम करने वाले लोगों के साथ ही विभिन्न स्तरों के अधिकारियों से संपर्क रखना मददगार साबित होता है ताकि हम हम सीधे उनसे संपर्क कर सकें। हमने उप-विभागीय मजिस्ट्रेट (एसडीएम) और खंड-विकास अधिकारी (बीडीओ) से संपर्क किया और उनसे इस मामले को उजागर करने और समाधान खोजने के लिए कहा। मैंने हमेशा ही हमारे काम को सरकार से जोड़ कर देखा है – वे हमारे बिना काम नहीं कर सकते और ना ही हम उनके बिना।
काम के बाद कभी-कभी मुझे ट्रेनिंग या मीटिंग के लिए भी बुलाया जाता है। जैसे कि, मैं स्कूल फॉर डेमोक्रेसी से बहुत नज़दीक से जुड़ा हुआ हूं। यह एक संगठन है जो लोकतांत्रिक और संवैधानिक अधिकारों और मूल्यों के लिए काम करता है। वे मुझे वर्कशॉप के लिए बुलाते हैं ताकि मैं वहां के लोगों को राजस्थान की महत्वपूर्ण योजनाओं की जानकारी दे सकूं और उन्हें जन सूचना पोर्टल के इस्तेमाल के तरीक़ों के बारे में बता सकूं। मैं विकलांगों द्वारा झेले जाने वाले भेदभाव के प्रति संवेदनशील बनाने के लिए युवाओं के साथ भी काम करता हूं।
मैं विकलांग बच्चों के माता-पिता को यह सलाह देता हूं कि उन्हें अपने बच्चों को घर की चारदीवारी में बंद करके नहीं रखना चाहिए। इसके बदले, उन बच्चों को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए और जीवन में कुछ करने के अवसर प्रधान करने चाहिए। शिक्षा के बिना मेरा जीवन अभी के जीवन से बहुत अलग होता, और बचपन में मुझसे जुड़ा कलंक का भाव पूरी ज़िंदगी मेरा पीछा नहीं छोड़ता।
शाम 7.00 बजे: काम से घर लौटकर मैं लगभग एक घंटे तक टीवी देखता हूं। मुझे क्रिकेट देखने में बहुत मज़ा आता है और जब 2023 के वर्ल्ड कप में भारत के हारने पर मैं बहुत दुखी भी हो गया था। इसके अलावा, मैं सीआई डी धारावाहिक भी देखता हूं। यहां गांव में अंधेरा जल्दी हो जाता है इसलिए मैं आमतौर पर रात के नौ बजे से पहले खाना खा लेता हूं। दिन भर मुझे अपना फोन देखने का समय नहीं मिलता है, इसलिए खाने के बाद मैं अपने मैसेज पढ़ता हूं उनके जवाब देता हूं। यह सब करते करते मेरी आंख लग जाती है और मैं सो जाता हूं क्योंकि अगले दिन सुबह उठकर मुझे पढ़ाई भी करनी होती है।
जैसा कि आईडीआर को बताया गया है।
इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें।
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सितंबर 2022 में, भारत के खाद्य मंत्रालय ने अपनी कैंटीनों में मोटे अनाजों (मिलेट्स) से बने उत्पाद उपलब्ध कराए जाने अपने निर्णय की घोषणा की। इंटरनेशनल इयर ऑफ द मिलेट्स 2023 के मौक़े पर मंत्रालय अब बैठकों में स्वास्थ्य के लिहाज़ से फायदेमंद स्नैक्स जैसे रागी बिस्कुट, लड्डू और बाजरे के चिप्स वग़ैरह परोसने की तैयारी कर रहा है। अब कैंटीन में बनने वाले डोसा, इडली और वड़ा के लिए भी मुख्य अनाज के रूप में बाजरे का उपयोग होने लगा है।
पिछले कुछ वर्षों से, इस उद्देश्य के साथ कई पहलें काम कर रही हैं कि मोटे अनाज को हमारे खानपान में वापस लाना है, और इसलिए, इसकी खेती पूरे जोरों पर है। मिलेट्स को अब निम्न स्तर के मोटे अनाज के रूप में ना देख कर हमारी धरती के लिए अनुकूल और पौष्टिक अनाज माना जाने लगा है। हाल में सरकार का पूरा ध्यान शहरी ग्राहकों के व्यवहार में बदलाव पर रहा है जो इन उत्पादों को खरीदने की क्षमता रखते हैं। लेकिन बाकी का देश मिलेट्स का उपभोग कैसे करेगा, विशेष रूप से इसकी वर्तमान कीमत और उपलब्धता को देखते हुए?
यहीं पर, भारत की सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस), अपने विस्तार और खाद्यान्न वितरकों के विशाल नेटवर्क के साथ, मोटे अनाजों को जन-जन तक पहुंचाने में भूमिका निभा सकती है। अनाज और दालों जैसे आवश्यक उत्पादों की खरीद-क्षमता को नियंत्रित करके, पीडीएस लोगों के खाने के तरीकों और खाने के उनके चुनाव को प्रभावित करता है। मोटे अनाजों की पोषकता और इसके उत्पादकों को समर्थन देने के महत्व को पहचानते हुए, भारत सरकार ने सार्वजनिक प्रणालियों के माध्यम से बाजरा के उत्पादन और वितरण को बढ़ावा देना शुरू कर दिया है।
ओडिशा में, वाससन (वाटरशेड सपोर्ट सर्विसेज एंड एक्टिविटीज नेटवर्क), राज्य सरकार के साथ साझेदारी में, पीडीएस और मिड-डे मील योजना जैसी पहले से उपलब्ध सार्वजनिक संरचनाओं के माध्यम से लोगों के आहार में मोटे अनाजों को दोबारा शामिल करने पर काम कर रहा है।
वाससन की पूर्व प्रोग्राम मैनेजर अशिमा चौधरी का कहना है कि, ‘केवल शहरी उपभोक्ताओं के लिए वैल्यऐडेड उत्पादों से मिलेट्स की मांग को पैदा नहीं किया जा सकता है। यह बड़ी आबादी द्वारा किए जाने वाले भारी मात्रा के उपभोग से संभव हो सकता है।’
अशिमा का मानना है कि बाजरा अनाज की थोक खपत को और अधिक सक्रिय रूप से बिलकुल उसी प्रकार प्रोत्साहित करना होगा जैसा कि अतीत में चावल और गेहूं के लिए किया गया था।
फिलहाल सरकार केवल रागी, ज्वार और बाजरा ही ख़रीदती है और उसे पीडीएस के माध्यम से उपलब्ध करवाती है। छोटे अनाजों जैसी बाजरा की किस्मों को ओडिशा और मध्य प्रदेश के साथ-साथ तेलंगाना और आंध्र प्रदेश में पीडीएस में शामिल करने पर विचार किया जा रहा है। हालांकि, छोटी किस्मों को शामिल करने की पहल स्थानीय समाजसेवी संगठनों द्वारा प्रयोग के तौर पर की जा रही है, और अभी तक इसे राज्य की नीति में शामिल नहीं किया गया है।
सार्वजनिक वितरण में, छोटे मोटे अनाजों को शामिल करने की बातचीत सामने आने से पहले, कर्नाटक, ओडिशा, तेलंगाना और मेघालय जैसे राज्यों ने प्रायोगिक तौर पर पीडीएस दुकानों पर सिंगल-कोटेड मोटे अनाजों -ज्यादातर रागी- का वितरण शुरू कर दिया था। तमिलनाडु ने हाल ही में राज्य मिलेट मिशन में रुचि दिखाना शुरू कर दिया है; धर्मपुरी और नीलगिरी के चुनिंदा जिलों में रागी पायलट प्रोजेक्ट के रूप में उचित मूल्य की दुकानों में उपलब्ध करवाया गया है।
आमतौर पर राज्य के विभिन्न क्षेत्रों में रागी और ज्वार की खपत को देखते हुए कर्नाटक सरकार ने पीडीएस के माध्यम से मोटे अनाज की विभिन्न किस्मों को सुलभ बनाने का प्रयास कर रही है। हालांकि, विधायक कृष्णा बायरेगौड़ा के नेतृत्व में राज्य के मिलेट मिशन से इसे क्रियान्वित करने की वास्तविकताएं कहीं अधिक जटिल रही हैं।
राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम, 2013 (एनएफएसए) इस बात पर जोर देता है कि इस योजना के दायरे में आने वाले परिवारों को प्रति व्यक्ति प्रति माह पांच किलोग्राम अनाज मिलना चाहिए जिसमें चावल तीन रुपये प्रति किलोग्राम, गेहूं दो रुपये प्रति किलोग्राम, और मोटा अनाज एक रुपया प्रति किलोग्राम के दर से मिलना चाहिए; बाजरे को मोटे अनाज की श्रेणी में रखा गया है। बाज़ार – मुख्य रूप से रागी – अचानक मुख्य धारा का अनाज बन गया और एनएफएसए के जरिए उसे चावल से सस्ता किया जा रहा था।
साल 2019 में, ओडिशा सरकार ने अपने सात जिलों (गजपति, कालाहांडी, कंधमाल, कोरापुट, नुआपाड़ा, मल्कानगिरी और रायगड़ा) में रियायती दर पर रागी उपलब्ध कराना शुरू किया। इनमें से छह जिलों में, कार्डधारक प्रति माह एक रुपये प्रति किलो की दर से रागी खरीद सकते हैं। केवल मल्कानगिरी जिले में अधिक खपत के कारण सरकार ने दो किलोग्राम रागी एक रुपये में देने का फैसला किया। चौधरी बताते हैं कि आज भी ओडिशा में इन्हीं दरों पर ये अनाज उपलब्ध हैं। उचित मूल्य वाली दुकानों के जरिए रागी को व्यापक स्तर पर उपलब्ध बनाकर और सबकी पहुंच में लाकर ओडिशा सरकार ने प्रभावी तरीके से पीडीएस के लाभार्थियों को चावल और गेहूं से परे अन्य अनाजों से जोड़ना शुरू कर दिया है।
हालांकि, नीति में रागी जैसे मोटे अनाजों पर जोर दिया गया है, लेकिन इसका कार्यान्वयन एक अलग वास्तविकता दिखाता है। जहां बाजरे की क़ीमत को कम करके उसे पीडीएस के माध्यम से उपलब्ध बनाया गया वहीं आज भी ज़्यादातर राज्यों में चावल अधिक सस्ता है।
नीलगिरी जीवमंडल में स्वदेशी समुदायों के साथ काम करने वाली कीस्टोन फाउंडेशन के लक्ष्मी नारायण ने तमिलनाडु में नीलगिरी जिले के पिल्लूर क्षेत्र में अपने फील्डवर्क के दौरान एक समान पैटर्न देखा। वे कहते हैं कि, ‘हालांकि उचित मूल्य की दुकानों पर रागी उपलब्ध है, लेकिन इसकी कीमत 3-5 रुपये प्रति किलोग्राम मिलने चावल से अधिक है और जो जनजातीय समुदायों के मुफ़्त है।’
नारायण यह भी बताते हैं कि, कोविड-19 महामारी से पहले, नीलगिरी के ग़ैर-शहरी क्षेत्रों के परिवार चावल के साथ खाने के लिए खुद रागी की खेती करते थे। हालांकि, महामारी के दिनों में रागी के बीज ना ख़रीद पाने के कारण लाभार्थियों का परिवार पूरी तरह से पीडीएस में मिलने वाले चावल पर निर्भर हो गया।
पिछले पांच सालों में नीलगिरी के क्षेत्रों में जनजातीय समुदायों का सामान्य स्वास्थ्य स्तर ख़राब हुआ है और वे इसका कारण चावल की अत्यधिक खपत को बताते हैं।
प्रदान करती हैं। क्षेत्र के अन्य मूल अनाज जैसे कंबू (पर्ल मिलेट), सोलम (ज्वार), और थिनाई (फॉक्सटेल) की किस्में, जो परंपरागत रूप से नीलगिरी में रहने वाली इरुला नाम की जनजातीय समुदाय के खानपान में व्यापक रूप से शामिल थे, अब उनकी थाली से पूरी तरह ग़ायब हो चुके हैं। त्योहारों और विशेष अवसरों पर वे केवल रागी ही खाते हैं।
नारायणन आगे कहते हैं कि, ‘पिछले पांच सालों में नीलगिरी के क्षेत्रों में जनजातीय समुदायों का सामान्य स्वास्थ्य स्तर ख़राब हुआ है और वे इसका कारण चावल की अत्यधिक खपत को बताते हैं।’
पीडीएस के माध्यम से रागी, बाज़ार और ज्वार का वितरण अपेक्षाकृत आसान है क्योंकि ये साबुत अनाज होते हैं इसलिए इन्हें प्रसंस्करण की जरूरत नहीं होती है। उदाहरण के लिए, रागी को बहुत आसानी से पीसा जा सकता है, और घर-परिवार के लोग अक्सर रागी का आटा बनाने के लिए पारंपरिक पिसाई विधियों का उपयोग करते हैं, जिसे पकाना और खाना आसान होता है। हालांकि रागी का प्रसंस्करण अपेक्षाकृत आसान होता है, लेकिन प्रसंस्करण की ज़रूरत ही इसके उपभोग में बाधा पैदा करती है। उदाहरण के लिए, तमिलनाडु में, जहां रागी को पारंपरिक रूप से हाथ से पीस कर आटा बनाया जाता था। हालांकि, अब यह परंपरा बची नहीं रह गई है और लोग पुल्वराइज़र से लेकर ग्राइंडर जैसी मशीनों पर निर्भर होने लगे हैं।
एमएस स्वामीनाथन रिसर्च फाउंडेशन (एमएसएसआरएफ) के निदेशक डॉ इज़राइल ओलिवर किंग, मिलेट प्रसंस्करण की चर्चा को आगे बढ़ाते हैं। कई लोगों ने सिंगल-कोट रागी को साफ करने और पीसकर आटा बनाने के लिए अनौपचारिक तरीक़ों का सहारा लिया है, छोटे अनाजों (मिलेट्स की छोटी क़िस्मों) को संसाधित करना और भी कठिन होता है। डॉ किंग बताते हैं कि छोटे अनाजों- जिनके बीज पर कई परतें होती हैं- को पकाने योग्य बनाने के लिए डीहुलर जैसी विशिष्ट मशीनरी की आवश्यकता होती है। डीहुलर जैसी मशीनें बहुत महंगी होने के साथ ही आसानी से उपलब्ध नहीं होती हैं, इसलिए राज्य मुख्य रूप से आसानी से संसाधित होने वाले अनाजों पर ध्यान केंद्रित करता है।
हालांकि नीलगिरी में सुदूर इलाक़ों में, नारायणन ने देखा कि लोगों के आसपास साधारण मशीनें भी नहीं थीं और रागी को संसाधित करने के लिए उन्हें लंबी दूरी की यात्रा कर मैदानी इलाक़ों में जाना पड़ता है।
यह समझा जा सकता है कि इस यात्रा में होने वाले धन और समय के खर्च को देखते हुए लोग मोटे अनाजों ख़रीदने से बचते हैं। उनके लिए चावल एक आसान विकल्प है।
पीडीएस और उचित मूल्य की दुकानों के ज़रिए मिलेट्स की शुरूआत को निकटवर्ती मिलिंग प्रणालियों द्वारा समर्थित करने की आवश्यकता है।
चौधरी बताते हैं कि, ओडिशा में, मिलेट्स खाने से जुड़ी सामूहिक यादें अभी भी अपेक्षाकृत ताजा हैं। इसलिए, 2019 में, जब पीडीएस के जरिए रागी को लोगों तक पहुंचाया गया तब वे इसे अपने खानपान में शामिल करने की संभावना को लेकर ग्रहणशील थे। लेकिन, नई पीढ़ी के पास बाजरे के अनाज के उपयोग को लेकर जानकारी की कमी है।
पीडीएस और उचित मूल्य की दुकानों के जरिए मिलेट्स की शुरूआत को निकटवर्ती मिलिंग प्रणालियों द्वारा समर्थित करने की आवश्यकता है – स्थानीय चावल मिलों और आटा चक्कियों के समान – जहां मिलेट्स आसानी से, कम लागत पर और घर के नजदीक संसाधित किया जा सकता है।
इसके अलावा, चावल और गेहूं के विपरीत प्रसंस्कृत मोटे अनाजों की शेल्फ लाइफ कम होती है और इसे केवल प्रसंस्करण और वितरण की एक कुशल स्थानीय प्रणाली से ही संभव बनाए रखा जा सकता है। इस संबंध में, ओडिशा सरकार ने ओडिशा मिलेट मिशन के माध्यम से स्थानीय उत्पादन, प्रसंस्करण और वितरण को सफलतापूर्वक बढ़ावा दिया है, जिससे इस कीमती अनाज का केवल थोड़ा सा हिस्सा ही खराब होता है।
ओडिशा में, वाससन ने देखा है कि लोग अनाज ग्रेड के साथ-साथ सूक्ष्म पोषक तत्वों की समृद्धि के मामले में उच्च गुणवत्ता वाले अनाज का उपभोग करना चाहते हैं, और अपने आहार में विविधता की इच्छा भी रखते हैं। यह पुरानी पीढ़ियों के लिए विशेष रूप से सच है, जिन्हें मोटे अनाज की विभिन्न क़िस्मों का स्वाद स्पष्ट रूप से याद है।
हालांकि, जैसे-जैसे स्वाद बदलता है, इन अनाजों का प्रचार भी बदलना होगा। चौधरी को लगता है कि युवा पीढ़ी को जौर -चावल और रागी के आटे से बना किण्वित दलिया- जैसे पारंपरिक व्यंजनों में कोई दिलचस्पी नहीं है। स्कूलों और आंगनबाड़ियों में अभियानों के माध्यम से शीघ्र जागरूकता पैदा करने से बाजरा को एक पसंदीदा और स्वादिष्ट अनाज के रूप में चित्रित करने में मदद मिल सकती है।
ओडिशा मिलेट मिशन के सहारे, राज्य बच्चों को बाज़ार उपलब्ध करवाने और उनके बीच इसे प्रोत्साहित करने की दिशा में काम कर रहा है। इसमें एकीकृत बाल विकास सेवाओं के तहत आंगनबाड़ियों में बच्चों के लिए सुबह के नाश्ते के रूप में रागी के लड्डू और बच्चों के स्वाद के लिए बाजरे के व्यंजनों के प्रचार कार्यक्रम शामिल हैं।
लेकिन रोवन विश्वविद्यालय में मानव विज्ञान के सहायक प्रोफेसर लक्ष्मण कलासापुडी को लगता है कि स्वाद एक पेचीदा विषय हो सकता है। 2010 में दक्षिण एशिया में छोटे अनाजों को पुनर्जीवित करने की परियोजना के तहत उत्तरी आंध्र प्रदेश के श्रीकाकुलम जिले में अपने शोध में, कलापसुदी ने देखा कि कई लोग मोटे अनाजों को सकारात्मक रूप से देखते हैं।
गांव के निवासियों का मानना था कि मोटे अनाज -मुख्य रूप से रागी- स्वस्थ, मजबूत, उगाने में आसान और ‘कोटा चावल’ या पीडीएस के माध्यम से उपलब्ध कराए जाने वाले चावल की तुलना में अधिक स्वादिष्ट है। कलापसुदी की परिकल्पना है कि बाजरा के लिए स्थानीय सरकार के दबाव, जिसे वाससन जैसे समाजसेवी समूहों ने समर्थन दिया, ने बाजरा को लोगों के आहार में शामिल करने के लिए एक योग्य अन्न के रूप में बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
साथ ही, बाजरा भी गरीबों द्वारा खाए जाने वाले भोजन के रूप में कमी, अकाल और भुखमरी के क्षणों से जुड़ा था। कलापसुदी कहते हैं, “[उत्तरदाताओं] ने बाजरा को खाने की इच्छा के बजाय विकल्प की कमी के कारण खाए जाने वाले भोजन के रूप में बताया। मोटे अनाजों को स्वादिष्ट और पोषक तत्वों का एक स्रोत होने के साथ ही मजबूरी के भोजन के रूप देखे जाने के कारण कई विरोधी विचार भी जुड़ जाते हैं – वहीं मोटे अनाज को ग़रीबों के अनाज के रूप में देखे जाने की धारणा का पता 1980 के दशक में चावल को इच्छित अनाज के रूप लागू किए जाने की प्रक्रिया से लगाया जा सकता है। बाजरे की पुनर्कल्पना एक इच्छित अनाज के रूप में करना 2010 के दशक की एक हालिया घटना है।
अपने फील्डवर्क के बारे में सोचते हुए, कलापसुदी ने बताया कि गांव के लोग मोटे अनाजों को एक गीत की लय की तरह याद करते थे। ‘फिंगर बाजरा, फॉक्सटेल, बार्नयार्ड, मोती बाजरा, ज्वार, और छोटे बाजरा के बारे में एक ही सांस में एक साथ बताते थे।’ हालांकि, वर्तमान में, श्रीकाकुलम जिले में अधिकांश मोटे अनाज की किस्मों को शायद ही कभी खाया जाता है, लेकिन रागी का अभी भी रागी अम्बाली – छाछ के साथ रागी माल्ट के रूप में बड़े पैमाने पर सेवन किया जाता है।
पीडीएस में बाजरा लाने में अग्रणी कर्नाटक भी इस जटिलता को दर्शाता है। डॉ किंग बताते हैं, ‘परंपरागत रूप से एक बाजरा खाने वाला राज्य, जहां उत्तरी जिले को ज्वार बेल्ट और दक्षिणी जिले को रागी बेल्ट के रूप में जाना जाता है, पीडीएस के माध्यम से आने वाली बाजरा की व्यापकता आश्चर्यजनक रूप से कम थी।’ इस पर किए गए एक अध्ययन से पता चलता है कि कम स्वीकार्यता को कुछ हद तक लोगों के खेतों और थालियों में बाजरा की मौजूदा प्रचुरता के लिए जिम्मेदार ठहराया जा सकता है।
वे आगे कहते हैं, ‘चूंकि राज्य के किसान पहले से ही बाजरे की खेती कर रहे हैं, उनके पास अपने खाने और बेचने के लिए पर्याप्त मात्रा उपलब्ध है।’ पीडीएस में बाजरा की स्वीकार्यता को समझने की कोशिश करते समय, ये जटिलताएं और विरोधाभासी धारणाएं ही हैं जो सबसे अधिक, इकलौती, स्पष्ट रही हैं। चूंकि मोटे अनाज मुख्यधारा में है, इसलिए इस बात को नजरअंदाज करना मुश्किल है कि मोटे अनाज के साथ मौजूदा रिश्ते कितने कमजोर हैं। या, अतीत में इसका क्या मतलब था। हमारे खान-पान और खरीददारी के व्यवहार को देख कर लगता है कि यह यात्रा उथल-पुथल से भरी रही है, जिसमें अनाज को चावल से कमतर मानने की सांस्कृतिक कल्पना और सुपर-अनाज के रूप में उनके हालिया पुनरुत्थान के बीच गहरी असंगति है।
क्या पीडीएस में बाजरा को शामिल करना सफल रहा है? ऐसी व्यवस्था, जिसमें ऐतिहासिक रूप से दरकिनार किए गए अनाज को चावल और गेहूं के मुकाबले खड़ा किया जाता है, हम ऐसा सवाल पूछने के लिए भी तैयार नहीं हैं।
इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें।
यह लेख मूल रूप से रेनमैटर फाउंडेशन के साथ साझेदारी में दलोकावोर वेबसाइट पर प्रकाशित किया गया था।
विशेष नोट: मेष से लेकर कन्या राशि का राशिफल आप यहां पढ़ सकते हैं।
बाल यौन शोषण के रोकथाम के लिए इससे जुड़ी शिक्षा ज़रूरी है और बच्चों और किशोरों के लिए बहुत फ़ायदेमंद भी, लेकिन ये सिर्फ़ एक हद तक ही उपयोगी और प्रभावकारी है। रोकथाम के लिए बताए जाने वाले नियम और सुझाव शायद बहुत छोटे बच्चों को समझ में न आए। ऊपर से, ज़्यादातर मामलों में उत्पीड़क बच्चे की पहचान का ही कोई होता है, जैसे उसके शिक्षक, रिश्तेदार, स्पोर्ट्स कोच, अभिभावक, डॉक्टर, दादा/दादी या नाना/नानी, या ऐसा कोई जो बच्चे से ज़्यादा ताक़तवर है। ऐसे में जब किसी अभिभावक के हाथों ही बच्चों का शोषण होता है तो उन बच्चों लिए इस पर बात करना या इसके ख़िलाफ़ आवाज़ उठाना आसान नहीं होता।
बाल यौन शोषण रोकथाम पर शिक्षा को असरदार बनाने के लिए इसके साथ-साथ व्यापक यौनिकता शिक्षा ज़रूरी है। यौनिकता शिक्षा सिर्फ़ ‘सेक्स कैसे करते हैं?’ तक सीमित नहीं है। इसमें सम्मान के आधार पर बने रिश्तों, रज़ामंदी, यौनिक स्वास्थ्य, सुरक्षित संबंध बनाने के सुझावों, गर्भनिरोध, यौन रुझान, जेंडर मानदंडों, शारीरिक छवि, यौन हिंसा वग़ैरह पर जानकारी भी होती है। इसलिए ‘व्यापक यौनिकता शिक्षा’ बोलने में थोड़ा मुश्किल होने के बावजूद इस तरह की शिक्षा के लिए ये एक बिलकुल सटीक नाम है।
आमतौर पर यौनिकता शिक्षा को स्कूली शिक्षा के साथ जोड़ा जाता है। ये सच है कि स्कूलों में यौनिकता शिक्षा दिया जाना चाहिए मगर ये ज़रूरी नहीं है कि ये शिक्षा सिर्फ़ शैक्षणिक संस्थानों में दी जाए, बल्कि ज़रूरी है कि औपचारिक शिक्षा के अलावा भी आम ज़िंदगी में इन मुद्दों पर बातचीत हो। अमेरिका में व्यापक यौनिकता शिक्षा पर काम करने वाले एक समाजसेवी संगठन (सेक्शुएलिटी इंफ़ॉरमेशन एंड एजुकेशन काउंसिल ऑफ द यूनाइटेड स्टेट्स – एसआईईसीयूएस) के मुताबिक़ यौनिकता शिक्षा “जानकारी हासिल करने और विचारों और मूल्यों की संरचना करने की ऐसी प्रक्रिया है जो जीवनभर जारी रहती है।”
नीचे कुछ तर्क दिए गए हैं जो साबित करते हैं कि बाल यौन शोषण रोकने में व्यापक यौनिकता शिक्षा की क्या भूमिका है।
‘शरीर के हिस्सों’ वाला वो पोस्टर जो स्कूल के क्लासरूम की दीवारों पर लगा हुआ करता था–उस पर एक इंसान की तस्वीर बनी होती थी और उसके शरीर के अलग-अलग अंगों के नाम लिखे होते थे।
उसके यौनांग हमेशा ढके हुए होते थे। उसी तरह, घर पर जब अभिभावक अपने बच्चों को शरीर के अंगों के नाम सिखाते हैं, वे जननांगों के नाम बताने से सकुचा जाते हैं। बच्चों को इन अंगों के बारे में अगर बताया भी जाए तो अटपटी सांकेतिक भाषा का इस्तेमाल किया जाता है जिससे बच्चे ये समझते हैं कि इन अंगों का नाम लेना ‘सही’ नहीं है।
एक पुरुष-प्रधान समाज में लड़कों को सेक्स के बारे में बात करने की ज़्यादा छूट दी जाती है और वे बातचीत के ज़रिए जननांगों के लिए अश्लील भाषा का इस्तेमाल करने लगते हैं।
जब बच्चों के साथ यौन शोषण होता है, उनके लिए अक्सर इसके बारे में बात करना नामुमकिन होता है क्योंकि यौनांगों के लिए उपयुक्त शब्द न मालूम होने पर उन्हें पता ही नहीं होता कि इस अनुभव के बारे में कैसे बताया जाए। बच्चों को उनके शरीर के हिस्सों के सही नाम (जैसे लिंग, योनि, मलद्वार, स्तन) सिखाना बहुत ज़रूरी है और यौनिकता शिक्षा ये भाषा सीखने में उनकी मदद करती है।
यौन और यौनिकता से जुड़ी शर्म बाल यौन शोषण के बारे में बात करने से रोकती है। बहुत छोटी उम्र में बच्चे ये सीख जाते हैं कि उनके शरीर के कुछ ऐसे हिस्से हैं जिन पर उन्हें शर्म आनी चाहिए। अपने यौनांगों को छूने या उनके बारे में बात करने के लिए उन्हें अक्सर डांट पड़ती है या सज़ा मिलती है। लड़कियां ये सीख जातीं हैं कि समाज उन्हें अपनी यौनिकता का अनुभव करने का हक़ नहीं देता, हालांकि वही समाज उन्हें यौन वासना पूरी करने वाले वस्तुओं की तरह देखता है। जब हम यौनिकता के मुद्दों पर चुप्पी और गोपनीयता के माहौल को बढ़ावा देते हैं, हम बच्चों के लिए अपने अनुभवों के बारे में बात करने को मुश्किल बनाते हुए उनके उत्पीड़कों को और भी ताक़तवर बना देते हैं। यौनिकता शिक्षा यौनिकता को ज़िंदगी का एक अभिन्न और प्राकृतिक हिस्सा मानकर इन प्रचलित विचारों को चुनौती देती है।
जेंडर पर आधारित पाबंदियां सिर्फ़ लड़कियों और औरतों पर ही नहीं बल्कि लड़कों और मर्दों पर भी लगाई जातीं हैं और ये आगे जाकर शोषण को बढ़ावा देतीं हैं। बाल यौन शोषण की जड़ पितृसत्ता है और जेंडर-आधारित मानदंड इसमें साफ़ झलकते हैं। मर्दों में औरतों के शरीर पर हक़दारी की भावना, लड़कियों और औरतों को वस्तु के रूप में देखना, यौन हिंसा का सामान्यीकरण, औरतों के यौन उत्पीड़न का समर्थन करने वाली ये सोच कि ‘लड़के तो लड़के ही होते हैं’, और लड़कियों और महिलाओं की यौनिक स्वतंत्रता का दमन पितृसत्ता के वो हिस्से हैं जो बाल यौन शोषण और अलग-अलग तरह की यौन हिंसा में साफ़ नज़र आते हैं। यौनिकता शिक्षा बच्चों और किशोरावस्था से गुज़र रहे लोगों को इन जेंडर-आधारित मानदंडों पर सवाल उठाना सिखाती है और उन्हें ये समझने में मदद करता है कि ये मानदंड भेदभावपूर्ण हैं और समाज द्वारा रचे गए हैं।
आत्मसम्मान बाल यौन शोषण से बचाव कर सकता है। किशोरावस्था में ख़ासतौर पर अगर लड़कियों का अपने शरीर के साथ एक अच्छा संबंध नहीं बन पाता है तो उनके आत्मसम्मान को नुकसान पहुंचता है। अपनी उम्र के लोगों के साथ अच्छे रिश्ते भी बचाव कर सकते हैं और जब किसी के शरीर या शक्ल के आधार पर उनका मज़ाक़ उड़ाया जाता है तो वे अकेले पड़ जाते हैं और उनके लिए अपने हमउम्र लोगों के साथ दोस्ती करना मुश्किल हो सकता है। यौनिकता शिक्षा शारीरिक छवि (हम अपने और दूसरों के शरीर के बारे में क्या सोचते हैं) से जुड़े मुद्दों पर ध्यान देते हुए उन सामाजिक मानदंडों पर सवाल उठाती है जो लड़कों और लड़कियों पर सुंदरता के निर्धारित पैमानों पर खरा उतरने के लिए दबाव डालते हैं।
होमोफ़ोबिया लड़कों और मर्दों को अपने यौन शोषण के बारे में चुप रहने पर मजबूर करता है। बाल यौन शोषण करने वाले ज़्यादातर लोग मर्द होते हैं और वे छोटे लड़कों का भी शोषण करते हैं। समाज में फैले होमोफ़ोबिया की वजह से लड़कों को अपने यौन रुझान के बारे में सोचने में घबराहट होती है। उन्हें फ़िक्र होती है कि वे अपने बाल यौन शोषण का अनुभव किसी से साझा करें तो उन्हें ‘गे’ समझा जाएगा। वे चुप रह जाते हैं क्योंकि लोग उनके शोषण के अनुभव को ‘गे अनुभव’ का तमग़ा दे देते हैं और उनके साथ खड़े होने के बजाय उन पर अपनी होमोफ़ोबिक विचारधारा थोप देते हैं। ये ग़लतफ़हमी कि यौन उत्पीड़न हमारा यौनिक रुझान तय करता है बिल्कुल अवैज्ञानिक है और इसका कोई सकारात्मक योगदान नहीं है। यौनिकता शिक्षा युवा लोगों में अलग-अलग यौनिक रुझानों के बारे गहरी समझ लाती है और उन्हें सिखाती है कि सिर्फ़ विषमलैंगिकता ही ‘प्राकृतिक’ और ‘स्वाभाविक’ नहीं है।
जो यौन शोषण से गुज़र चुके हैं उन पर उंगली उठाना शोषण करने वालों को सशक्त करता है और शोषण से गुज़रने वालों को अशक्त करता है। बच्चों और किशोरावस्था से गुज़र रहे लोगों से पूछा जा सकता है कि उन्होंने अपने साथ शोषण क्यों होने दिया और उन्होंने किसी को बताया क्यों नहीं। लड़कियों पे ख़ासतौर पर ‘छोटे कपड़े’ पहनने और उत्पीड़क को उकसाने का इल्ज़ाम लगाया जाता है। परिवार, दोस्तों, न्याय व्यवस्था, स्वास्थ्य व्यवस्था द्वारा शोषण सहने वालों को इसी तरह दोषी ठहराया जाता है और उत्पीड़क ने ऐसा क्यों किया ये सवाल उठाया ही नहीं जाता।
यौनिकता शिक्षा में कहा गया है कि अगर कोई अपने पूरे होशोहवास में यौनिक रिश्ते के लिए राज़ी न हो तो उसके साथ यौनिक रिश्ते बनाना जायज़ नहीं है।
यौनिकता शिक्षा रज़ामंदी पर ज़ोर डालते हुए शोषण सहने वाले को दोषी मानने के रिवाज पर सवाल उठाती है। ये कहता है कि अगर कोई अपने पूरे होशोहवास में यौनिक रिश्ते के लिए राज़ी न हो तो उसके साथ यौनिक रिश्ते बनाना जायज़ नहीं है, और यौनिक रिश्तों में हिंसा की भी कोई जगह नहीं है। जब जवान लोग यौनिकता के संदर्भ में रज़ामंदी और हिंसा के बारे में सीखते हैं, वे ये भी सीखते हैं कि जिन लोगों से रज़ामंदी नहीं ली गई या जिन पर हिंसा की गई हो, उन्हें कभी भी अपने हालातों के लिए दोषी नहीं ठहराया जा सकता।
ज़्यादातर अभिभावक अपने बच्चों की हिफ़ाज़त की फ़िक्र करते हैं जिसकी वजह से स्कूलों में बाल यौन शोषण रोकने पर कार्यक्रम आयोजित किए जाएं तो वे आमतौर पर इनका स्वागत करते हैं और इन्हें बढ़ावा देते हैं, चाहे उन्हें ख़ुद अपने बच्चों से इन मुद्दों पर बात करने में असहजता क्यों न महसूस हो। इसके बावजूद भी व्यापक यौनिकता शिक्षा के बारे में उनकी राय इतनी सकारात्मक नहीं है। उन्हें लगता है कि यौनिकता के बारे में जानने से उनके बच्चों का पढ़ाई-लिखाई से ध्यान भटक जाएगा और उन्हें बिना रोक-टोक के यौन संबंध बनाने की छूट मिल जाएगी। मगर इस तरह की सोच बच्चों और युवाओं के अधिकारों के ख़िलाफ़ है और ये किसी ठोस सबूत पर भी आधारित नहीं है।
स्कूल और घर पर यौनिकता शिक्षा दिया जाए तो ये बच्चों को बाल यौन शोषण से सुरक्षित रखने में अभिभावकों की मदद कर सकती है। यौनिकता शिक्षा के सभी प्रतिरूप एक जैसे नहीं हैं और वे कौन से मुद्दों पर ध्यान देते हैं या नहीं देते इसमें भी बहुत फ़र्क़ है। मगर व्यापक यौनिकता शिक्षा के तहत यहां बताए गए सभी मुद्दों पर बराबरी से चर्चा होनी चाहिए और अभिभावक होने के नाते आपको भी इन मुद्दों को पाठ्यक्रम में शामिल करने की मांग करनी चाहिए। बच्चों और युवाओं तक व्यापक यौनिकता शिक्षा पहुंचाने की कई सारी वजहें हैं – बाल यौन शोषण को रोकना और उसका सामना करना निश्चित रूप से उनमें से एक है।
यह आलेख मूलरूप से अक्टूबर, 2016 में इन प्लेनस्पीक, एक डिजिटल मैगजीन जो दुनिया के दक्षिणी हिस्सों में सेक्शुएलिटी से जुड़े विषयों पर बात करती है, पर अंग्रेजी में प्रकाशित हुआ था, और इसका हिंदी अनुवाद तारशी द्वारा किया गया।
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आपदा के समय वॉलंटियरिंग अपने चरम पर होती है। आपदा की तात्कालिकता, समाचार कवरेज की अधिकता, और मदद के लिए व्यापक रूप से लगाई जाने वाली गुहार के कारण लोग तुरंत अपनी इच्छा से धन और सेवाओं के साथ मदद के लिए आगे आते हैं। और, फिर भी भारत लगातार ऐसे नागरिक, सामाजिक और पर्यावरणीय संकटों से जूझ रहा है, जिन्हें कई सालों तक ध्यान और समर्थन की जरूरत होती है। ऐसा इसलिए है क्योंकि लंबे समय से चली आ रही समस्याओं – गरीबी, मानव तस्करी और मानसिक स्वास्थ्य संकट- को नागरिक सहयोग की ज़रूरत लगातार बनी रहती है।
यह विकास सेक्टर ही है जो इस काम के एक बड़े हिस्से को अपने कंधों पर उठाए हुए है। विभिन्न प्रकार की उभरती समस्याओं का हल निकालने के प्रयास के क्रम में यह सेक्टर उनके लिए फंड और मानव संसाधन जुटाने से लेकर उन्हें सही जगह पहुंचाने का काम करता है। लेकिन, समाजसेवी संसाधन अक्सर सीमित होने के साथ ही कई तरह की पाबंदियों के दायरे में भी आते हैं। भारत के सामाजिक सेक्टर में 10 लाख से कम नागरिक समाज संगठन (सीएसओ) हैं, और इनमें से केवल 11–12 फीसद ही (सेंटर फॉर सोशल एंड इकोनॉमिक प्रोग्रेस द्वारा प्रकाशित पिछले साल की बिटवीन बाइनरीज नाम रिपोर्ट के अनुसार) सक्रिय हैं। इसका सीधा मतलब यह है कि 11,000–12,000 लोगों के लिए केवल एक सक्रिय सीएसओ है। सबसे गरीब जिलों में, यह अनुपात घटकर 25,000–50,000 की आबादी पर एक संगठन तक का भी हो सकता है। स्थिति और बदतर हो जाती है जब हम विदेशी अंशदान विनियमन अधिनियम (एफसीआरए) में विधायी परिवर्तनों के कारण इस क्षेत्र में फंडिंग की कमी देखते हैं, जिसके परिणाम स्वरूप, कर्मचारियों की संख्या में कमी और उन्हें काम से निकाल देने जैसे अनगिनत मामले भी सामने आये हैं, जिसका वितरण सेवा पर भी गंभीर प्रभाव देखने को मिला है। इन बाधाओं को देखते हुए क्या भारत की समाजसेवी संस्थाएं अपने कार्यक्रमों को स्थायी रूप से चलाए रखने के वैकल्पिक तरीके खोज सकती हैं? क्या प्रतिबद्ध वॉलंटियरों का एक मज़बूत आधार कार्यक्रमों की इस गाड़ी को चलाए रख सकता है?
हालांकि, वॉलंटियर सामाजिक क्षेत्र के प्रशिक्षित कार्यकर्ताओं की जगह नहीं ले सकते हैं और न ही क्षेत्र में वर्षों से विकसित उनके कौशल का मुकाबला कर सकते हैं, वे एक समाजसेवी संस्था में – कई बार अप्रत्याशित तरीकों से – अपना योगदान दे सकते हैं। लेकिन समाजसेवी संस्थाएं इसे हमेशा इस तरह से नहीं देखती हैं। वे अपने काम में वॉलंटियर को सार्थक रूप से जोड़ पाने में विफल रहती हैं, या फिर अगर जोड़ भी लें तो बहुत अधिक समय तक जोड़े नहीं रख पाती हैं, और यह संगठन में एक वॉलंटियर द्वारा निभाई जा सकने वाली भूमिका को लेकर स्पष्ट सोच की कमी के कारण हो सकता है।
समाजसेवी संस्थाएं अक्सर ही वॉलंटियर को किसी कार्यक्रम या सर्वे आयोजित करने जैसे छोटे-मोटे कामों में मदद करने वाले अस्थायी संसाधन के रूप में देखती हैं – एक ऐसा स्टॉपगैप जिसे आसानी से बदला जा सकता है। कभी-कभी, वॉलंटियरों को उनके प्रयासों के लिए पर्याप्त महत्व नहीं दिया जाता है या उनके साथ बुरा व्यवहार किया जाता है। संभव है कि ऐसे में वे निराश होकर किसी संगठन के लिए दोबारा वॉलंटियरिंग ना करने का फ़ैसला ले लें, जिससे संगठन को लंबे समय के लिए सहयोगियों की एक सेना बनाने का अवसर खोना पड़ सकता है (एक समर्पित वॉलंटियर भविष्य में अपने परिवार और दोस्तों को भी साथ ला सकता है)।
वॉलंटियर सहभागिता के लिए समर्पित प्रयास, रचनात्मक सोच, सशक्त नेटवर्किंग और रणनीतिक योजना की आवश्यकता होती है।
तस्करी विरोधी अभियानों या किशोर पुनर्वास में शामिल, अत्यधिक विशिष्ट और कभी-कभी जोखिम भरा काम करने वाले कुछ समाजसेवी संगठनों को विशिष्ट कौशल और लंबे समय की प्रतिबद्धता की जरूरत होती है। इन संगठनों को वॉलंटियरों की भी जरूरत होती है, लेकिन उन्हें इस बात का भय होता है कि वॉलंटियर की अनियमितता या सीमित ज़िम्मेदारियां उठाना से संगठन के काम को खतरे में डाल सकती है। उदाहरण के लिए, एक तस्करी-विरोधी समाजसेवी संस्था को किसी ऐसे व्यक्ति ( जो तस्करी और पुलिस व्यवस्था से अपरिचित है और क्षेत्र के लोगों से अनजान है।) की जरूरत हो सकती है जो तस्कर को फंसाने के लिए नक़ली ग्राहक की भूमिका निभा सके – यह एक ऐसा काम जिसके लिए लंबे और कठोर प्रशिक्षण की आवश्यकता होगी। समाजसेवी संस्थाओं को अक्सर इस बात की जानकारी नहीं होती है कि इस तरह के मिशन के लिए उन्हें वॉलंटियर कहां से मिलेंगे।
हमारा अनुभव कहता है कि समाजसेवी संस्थाएं अभी तक वॉलंटियर द्वारा किए जा सकने वाले काम के वास्तविक मूल्य को समझ नहीं पाई हैं। वॉलंटियर की सहभागिता के लिए समर्पित प्रयास, रचनात्मक सोच, सशक्त नेटवर्किंग और रणनीतिक योजना की आवश्यकता होती है। इन संसाधनों के उपयोग और समाजसेवी संस्थाओं को नए और टिकाऊ तरीकों से स्वयंसेवकों से जोड़ने के लिए 2017 में द मूवमेंट इंडिया की स्थापना की गई थी। हम एक ऐसे प्लेटफ़ॉर्म हैं जो नागरिकों को तीन सामाजिक सेक्टर में वॉलंटियरिंग के अवसर प्रदान करते हैं- शिक्षा, सामाजिक स्वास्थ्य और मानव-तस्करी विरोधी कार्यक्रम। हमारा लक्ष्य समाजसेवी संगठनों को उनके लघु – और दीर्घकालिक लक्ष्यों को पूरा करने में उनकी मदद करना और वॉलंटियर को समृद्ध अनुभवों के माध्यम से उद्देश्य की भावना खोजने में सक्षम बनाना है।
यहां हम अपने द्वारा अपनाये जाने वाले कुछ तकनीकों और दृष्टिकोणों के बारे में बता रहे हैं।
वॉलंटियर की तलाश करने वाले समाजसेवी संगठन नैशनल सर्विस स्कीम (एनएसएस) पर विचार कर सकते हैं, जो एक केंद्रीय सेक्टर योजना है जो स्कूल, कॉलेज और विश्वविद्यालयों के छात्रों को सामुदायिक सेवा में भाग लेने में सक्षम बनाती है। प्रत्येक छात्र सदस्य को एक साल में 120 घंटे सेवा देने के लिए प्रमाण पत्र दिया जाता है। इसमें से लगभग 10–30 घंटे के समय को समाजसेवी कार्यों के लिए आरक्षित किया जा सकता है; बाकी बचे समय को केंद्रीय और राजकीय स्तर के सामाजिक पहलों के लिए रखा जाता है।
वर्तमान में देश भर में 39 लाख छात्र एनएसएस के विभिन्न इकाइयों में नामांकित हैं। यह मानव संसाधन का एक बड़ा स्रोत है जिसका उपयोग समाजसेवी संस्थाएं कर सकती हैं। सीएसओ के साथ काम करने से छात्रों को समुद्र तट की सफ़ाई और पौधारोपण जैसे अनिवार्य अभियानों के अलावा विभिन्न प्रकार की उत्साहवर्धक परियोजनाओं से भी जुड़ने का अवसर मिलता है। जब युवा वॉलंटियर अपनी पसंद की गतिविधियों से जुड़ते हैं तो उनका काम केवल प्रमाणपत्र-केंद्रित नहीं रह जाता है, बल्कि इससे उनके अंदर उद्देश्य का भाव पैदा होता है और सामाजिक चेतना को बढ़ावा देता है। ये उद्देश्य एनएसएस की भावना से भी मेल खाते हैं, जिसका उद्देश्य देश में सामाजिक रूप से जिम्मेदार नागरिकों की संख्या बढ़ाना है।
वॉलंटियर बड़े आवासीय समाजों, स्कूलों, रोटरी, राष्ट्रीय कैडेट कोर जैसे क्लबों और धार्मिक संस्थानों में भी पाए जा सकते हैं। समाजसेवी संस्थाओं को केवल उन तक पहुंचने की जरूरत है। वे वैकल्पिक रूप से द मूवमेंट इंडिया, चेज़ुबा, गुडेरा, कनेक्टफॉर और दोज़इननीड जैसे वॉलंटियर एकत्रीकरण प्लेटफार्मों का रुख भी कर सकते हैं जो इन्हीं संसाधनों पर आधारित हैं, जिससे समाजसेवी संस्थाओं को वॉलंटियर से सीधे संपर्क करने और उनके साथ स्वैच्छिक शर्तों पर बातचीत करने की परेशानी से बचाया जा सकता है।
साल 2018 में- जब केरल भीषण बाढ़ से प्रभावित था – हमारी टीम मुंबई में सेंट एंड्रयू कॉलेज में वॉलंटियरों की भर्ती कर रही थी। वहां के प्रिंसिपल ने हमें बताया कि यह एक मुश्किल काम होने वाला है। उन्होंने हमें आगाह करते हुए कहा कि, ‘मुझे नहीं लगता है कि किसी की भी इसमें रुचि होगी; वे पहले से ही अपनी पढ़ाई और इंटर्नशिप को लेकर बहुत व्यस्त हैं।’ हमें अक्सर ही इस तरह की स्थितियों का सामना करना पड़ता है जब लोग रुचि नहीं दिखाते हैं, और इसे दूर करने का सबसे बेहतर तरीका यह है कि अपने उद्देश्य के लिए एक मजबूत पिच तैयार की जाए।
और इसलिए, हमने छात्रों से अपनी बातचीत को एक सरल प्रश्न के साथ शुरू किया: सभी लोग आजकल किस बारे में बात कर रहे हैं? उन्होंने ज़ोरदार आवाज़ में जवाब दिया, ‘केरल की बाढ़ के बारे में।’ उसके बाद हमने उनसे पूछा, ‘इस बाढ़ से कितने लोग प्रभावित हुए हैं?’ सभी ने अपने-अपने अनुमान से एक संख्या बताई। हमने उन्हें सही उत्तर देते हुए बताया लगभग दस लाख लोग। इसके बाद हम आगे बढ़े, ‘क्या आप उस एक समस्या के बारे में जानते हैं जो इससे आठ गुना बड़ी है लेकिन कोई भी इसके बारे में बात नहीं कर रहा?’ हमारे इस सवाल ने तुरंत उनका ध्यान आकर्षित किया। वे सभी उस समस्या के बारे में जानना चाहते थे। हमने उनसे कहा कि अगर वे इसके बारे में जानना चाहते हैं तो उन्हें उस सेमिनार में शामिल होना चाहिए जो हम उनके कॉलेज में आयोजित करने वाले हैं। हमारी उम्मीद से तीन गुना अधिक छात्रों ने उस सेमिनार में हिस्सा लिया। हम उस सेमीनार में मानव तस्करी के विषय पर बात करने वाले थे। लोगों का ध्यान आकर्षित करने भर से आपका आधा काम हो जाता है।
संगठन, नागरिकों को मुद्दे के बारे में अधिक प्रभावी ढंग से समझाने का काम कर सकते हैं।
वर्तमान में सेंट एंड्रयू कॉलेज हमारे वॉलंटियरों का सबसे बड़ा आधार है। हमें वहां और मुंबई में मीठीबाई जैसे दूसरे कॉलेज में नए बैच के इंडक्शन और ओरिएंटेशन के दौरान मेंटल वेलबीइंग एक्सरसाइज़ के लिए वॉलंटियरिंग पिच के लिए भी आमंत्रित किया गया।
किसी अभियान या किसी उद्देश्य के लिए समर्थन जुटाने की चाहत रखने वाले समाजसेवी संगठनों को अक्सर हतोत्साहित किया जाता है और कहा जाता है, ‘लोगों को परवाह नहीं है; इस बारे में आप क्या करने जा रहे हैं?’ संगठन, नागरिकों को मुद्दे के बारे में अधिक प्रभावी ढंग से समझाने का काम कर सकते हैं।
दुर्भाग्यवश, कई समाजसेवी संगठन अपने मूल्य प्रस्ताव (वैल्यू प्रीपोजीशन) या कभी-कभी समस्या को स्पष्ट करने के लिए ही संघर्ष करते हैं। यहां मूल्य प्रस्ताव का अर्थ एक समाजसेवी संस्था के कार्यों के महत्व को उजागर करना है और यह बताना है कि नागरिकों को इसकी परवाह क्यों करनी चाहिए। उदाहरण के लिए, शैक्षणिक समाजसेवी संस्था का मूल्य प्रस्ताव तब अधिक प्रभावी होगा जब वे यह कहने के बजाय कि वे झुग्गी-झोपड़ी में रहने वाले समुदायों के बच्चों को शिक्षा प्रदान करते हैं उसे इस तरह से कहें कि, ‘हम बच्चों को शिक्षा से जोड़कर उन्हें शोषण से मुक्त कराते हैं।’
समाजसेवी संस्थाओं के लिए वॉलंटियर को यह बताना भी कठिन होता है कि जमीनी स्तर पर क्या हो रहा है और उनसे क्या उम्मीद की जा रही है। वॉलंटियर को एक प्रभावी अपील की ज़रूरत होती है, जैसे कि ‘इस गर्मी में एक बच्चे को स्कूल भेजने में हमारी मदद करें। मिशन एडमिशन स्क्वॉड से जुड़ें!’ या फिर ‘आज आपके द्वारा भरा जाने वाला प्रत्येक फॉर्म एक बच्चे के भविष्य को बदल सकता है।’ आप लोगों से क्या करवाना चाहते हैं इसके लिए आपकी ‘मांग’ स्पष्ट और विशिष्ट होनी चाहिए।
एक अच्छी बातचीत विशेष रूप से अनिवार्य होती है जब ऐसे कारणों की बात आती है जिससे जुड़ने से लोग झिझकते हैं। एक बार हमने जुवेनाइल होम में कॉर्पोरेट कर्मचारियों के लिए वॉलंटियरिंग सत्र का आयोजन करने की कोशिश की थी, लेकिन कई लोग इससे कतराने लगे क्योंकि वे ऐसे लोगों के साथ नहीं जुड़ना चाहते थे जिनका क़ानून के साथ संघर्ष चल रहा था। ऐसे मामलों में, वॉलंटियरों को मिशन के संदर्भ से परिचित कराना, स्थान का निर्धारण करना और उन्हें सुरक्षा प्रोटोकॉल के बारे में आश्वस्त करना मददगार साबित हो सकता है।
बहुत सारे लोग किसी अच्छे कारण के लिए अपने कौशल का योगदान देना चाहते हैं, लेकिन प्रत्येक व्यक्ति के पास लम्बे समय की प्रतिबद्धता के लिए ना तो समय होता है ना ही संसाधन इसलिए, वॉलंटियरिंग को जितना संभव हो सके उतना लचीला और व्यावहारिक होना चाहिए। लोगों को सप्ताह या महीने में शायद कुछ घंटों के लिए अपने घरों से स्वेच्छा से काम करने की सुविधा दें, और अपनी तरफ़ से लंबे समय वाली प्रतिबद्धता मांगने से बचें।
लोगों के लिए अपने समय और कौशल के योगदान को सुविधाजनक बनाना वॉलंटियरिंग को बढ़ाने का एक तरीका है।
सभी संगठनों में ऐसे कामों की सूची होती है जिसे आसानी से घर पर रहते हुए किया जा सकता है। उदाहरण के लिए, वॉलंटियर तकनीकी सामग्री तैयार करने और बच्चों के लिए कहानियां रिकॉर्ड करने का काम अपने मोबाइल फोन या लैपटॉप से कर सकते हैं। उन्हें धन जुटाने और स्लाइड डेक बनाने, जिंगल बनाने, डेटा एनालिटिक्स चलाने, प्रस्ताव लिखने (प्रत्येक समाजसेवी संस्था के पास एक अच्छा प्रस्ताव लेखन या फंडरेजिंग वाली टीम नहीं होती है) या समाजसेवी उत्पादों के लिए रूपांकनों (मोटिफ़) को डिजाइन करने के लिए शामिल किया जा सकता है – यह सब उनकी अपनी सुविधा से वे अपने घर से ही कर सकते हैं। लोगों के लिए अपने समय और कौशल के योगदान को सुविधाजनक बनाना वॉलंटियरिंग को बढ़ाने का एक तरीका है। जैसे तकनीकी मंचों ने खुदरा दान को लाभान्वित किया है, वैसे ही तकनीक का उपयोग वॉलंटियरिंग को मजबूत करने के लिए किया जा सकता है।
समाजसेवी संस्थाएं इस तरह से अतिरिक्त सेवाओं का उपयोग कर सकती हैं और अपने सीमित संसाधनों को खर्च किए बिना क्षमता निर्माण कर सकती हैं। एक गैर-लाभकारी संस्था जो महिलाओं के स्वयं सहायता समूहों के साथ काम करती है, सोशल मीडिया मार्केटर को नियुक्त किए बिना सोशल मीडिया पर अपने उत्पादों का प्रचार-प्रसार कर सकती है। फैशन डिज़ाइन के छात्र कमजोर महिलाओं द्वारा संचालित छोटे पैमाने की सिलाई इकाई में डिज़ाइन का योगदान दे सकते हैं।
सेवा में विशेष कौशल का प्रयोग किए बिना भी बहुत कुछ किया जा सकता है। उदाहरण के लिए, महामारी के दौरान, हमारे पास फोन ड्यूटी पर ऐसे वॉलंटियर थे, जो पूर्व कैदियों और यौन तस्करी से बचाई गई महिलाओं को फोन करके उनकी जांच करते थे और उन्हें कोविड-19 प्रोटोकॉल की याद दिलाते थे। इस तरह की एक सरल पहल ने न केवल जागरूकता फैलाने में मदद की, बल्कि इन कॉलों को प्राप्त करने वालों को विशेष और महत्वपूर्ण महसूस कराया।
सभी समाजसेवी संस्थाओं के पास सीएसआर फंड की उपलब्धता नहीं होती है। संभव है कि वे अनुदान के लिए कंपनी के मानदंडों पर खरा ना उतर रहे हों, या उनके प्रस्ताव कॉर्पोरेट निर्णय निर्माताओं को प्रभावित करने में विफल हो सकते हैं। फिर भी, यदि पैसा नहीं, तो कंपनियां सीएसओ आउटरीच कार्यक्रमों के जरिए अपने कर्मचारियों के कौशल और प्रतिभा को स्वेच्छा से दे सकती हैं। वे कौशल विकास कार्यक्रमों में महिलाओं के लिए व्यावसायिक कौशल प्रशिक्षण आयोजित कर सकते हैं, बड़े पैमाने पर कार्यक्रमों का प्रबंधन कर सकते हैं, ऑनलाइन बोली जाने वाली अंग्रेजी या सामग्री निर्माण कक्षाएं संचालित कर सकते हैं, या नौकरी के उम्मीदवारों को उनके साक्षात्कार कौशल को निखारने में मदद कर सकते हैं।
अपने साथियों को किसी अच्छे उद्देश्य के लिए आगे आने के लिए मनाने के लिए केवल एक कर्मचारी की आवश्यकता होती है
कॉर्पोरेट वॉलंटियर अपनी कंपनी के सीएसआर दायरे के बाहर, समाजसेवी संस्थाओं के लिए धन जुटाने में मदद कर सकते हैं।
एक बार हम मानव तस्करी से बचे लोगों के लिए एक कॉर्पोरेट टीम को लेकर आये थे। कर्मचारियों द्वारा बच्चों के साथ बातचीत के बाद, हमने उनसे लिंक्डइन पर संगठन के पेज को फॉलो करके और उस पर आये हुए पोस्ट पर प्रतिक्रिया देकर उसकी दृश्यता को बढ़ाने का आग्रह किया। यह एक सरल काम था जिससे उनकी सोशल मीडिया से जुड़े लोगों की नज़र संगठन पर पड़ती। इससे आश्रय के अपने नेटवर्क को बढ़ने में मदद मिलेगी और लंबे समय में धन प्राप्त करने की संभावना में सुधार होगा।
कभी-कभी, कॉर्पोरेट वॉलंटियर अपनी कंपनी के सीएसआर दायरे के बाहर, समाजसेवी संस्थाओं के लिए धन जुटाने में मदद कर सकते हैं। समाजसेवी संस्था और उसके काम से उनका परिचय कर्मचारियों को औपचारिक सीएसआर चैनलों के माध्यम से भविष्य के वित्तपोषण के लिए संगठन की सिफारिश करने के लिए प्रेरित कर सकता है।
यदि उन्हें औपचारिक सीएसआर मार्ग से सफलता नहीं मिली है तो कॉर्पोरेट वॉलंटियर की तलाश करते समय, सीएसओ किसी कंपनी के भीतर अलग-अलग विभागों से संपर्क करने पर भी विचार कर सकते हैं।
हमने अनुभव किया है कि टाटा कंसल्टेंसी सर्विसेज जैसे बड़े संगठनों में, टीमों के पास अपनी सामाजिक प्रभाव परियोजनाओं को लेने के लिए पर्याप्त स्वायत्तता है; इस तरह के निर्णय हमेशा उच्च अधिकारियों पर निर्भर नहीं होते हैं। समाजसेवी संस्थाएं सीधे कर्मचारियों के साथ अवसर की तलाश सकती हैं। अपने साथियों को किसी अच्छे उद्देश्य के लिए आगे आने के लिए मनाने के लिए केवल एक कर्मचारी की आवश्यकता होती है।
प्रत्येक वॉलंटियरिंग काम के अंत में हम वॉलंटियर से दो सरल सवाल पूछते हैं: ‘आपने क्या किया?’ और ‘आपने वास्तव में क्या किया?’ पहले प्रश्न का तुरंत जवाब आता है जिसमें वे एक वॉलंटियर के रूप में अपने द्वारा किए गये काम कि गिनती करवाते हैं। एक आदमी कह सकता है कि वह एक निम्न-आय वाले समुदाय के पास गया और वहां उसने 15 परिवारों का सर्वे किया। दूसरे प्रश्न के पूछे जाने पर वे इस बात पर सोचना शुरू करते हैं कि उन ‘वास्तव’ में क्या किया। उसके बाद वे अपने काम के गहरे प्रभाव की सराहना करनी शुरू करते हैं: ‘मैंने केवल सर्वे ही नहीं किया, मैंने एक बच्चों को शिक्षा तक पहुंचने में उसकी मदद की।’
जब वॉलंटियर को इस बात के लिए प्रेरित किया जाता है कि वे अपनी भूमिका को परिवर्तनकारी भूमिका के रूप में देखें तो इससे उनके अंदर कारण से जुड़ने का भाव गहरा होता है और उन्हें संगठन से अपने जुड़ाव को विस्तृत करने के लिए प्रेरित करता है। सच्चाई यह है कि वॉलंटियरिंग का जितना मतलब दूसरों की सेवा करना है उतना ही हमारे कौशल और प्रतिभा को नये नज़रिए देखने और अपने महत्व को समझने में सक्षम होना भी है।
इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें।
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विकास सेक्टर में तमाम प्रक्रियाओं और घटनाओं को बताने के लिए एक ख़ास तरह की शब्दावली का इस्तेमाल किया जाता है। आपने ऐसे कुछ शब्दों और उनके इस्तेमाल को लेकर असमंजस का सामना भी किया होगा। इसी असमंजस को दूर करने के लिए हम एक ऑडियो सीरीज़ ‘सरल–कोश’ लेकर आए हैं जिसमें हम आपके इस्तेमाल में आने वाले कुछ महत्वपूर्ण शब्दों पर बात करने वाले हैं।
इस बार का शब्द है – जलवायु परिवर्तन। विकास सेक्टर में कई लोग जलवायु परिवर्तन शब्द को अलग-अलग तरीके से समझते हैं – जैसे पृथ्वी का बढ़ता तापमान या बढ़ता प्रदूषण। लेकिन ये जलवायु परिवर्तन के कुछ उदाहरण भर हैं। किसी इलाक़े में लंबे समय तक रहने वाली मौसमी परिस्थितियां जलवायु कहलाती हैं। जलवायु में परिवर्तन का जीवन के अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग प्रभाव पड़ता है।
जलवायु परिवर्तन समय के साथ एक गंभीर चिंता का विषय बनता जा रहा है। मनुष्य द्वारा की जाने वाली गतिविधियों का इस पर लगातार बुरा प्रभाव पड़ा है। इनकी वजह से ग्लोबल वार्मिंग, मौसमी आपदाएं जैसी समस्याएं देखने को मिल रही हैं। पूरी जानकारी के लिए यह ऑडियो सुनें।
अगर आप इस सीरीज़ में किसी अन्य शब्द को और सरलता से समझना चाहते हैं तो हमें यूट्यूब के कॉमेंट बॉक्स में ज़रूर बताएं।
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सामाजिक प्रभाव पैदा करने के लिए समर्पित शोधकर्ताओं के रूप में, हम अपने काम से प्रभावित होने वाले समुदायों के जीवन को बेहतर बनाने का प्रयास करते हैं। हालांकि, सर्वेक्षण में सवालों के जवाब देने के अलावा इन समुदायों को हमारी शोध प्रक्रियाओं में शायद ही कभी शामिल किया जाता है। अक्सर उनकी भूमिका डेटा स्रोत के तौर पर सीमित होती है, जिनसे हम नीति निर्माताओं के लिए वह अंतर्दृष्टि हासिल करते हैं जो उनके कार्यक्रम से जुड़े निर्णयों में उनका मार्गदर्शन करती है।
इसलिए, नीति से जुड़े निर्णयों जैसे – समस्याओं/जरूरतों की पहचान करने, डेटा की व्याख्या करने और सुझावों को आकार देने जैसी प्रक्रियाओं से बाहर ही रखा जाता है। इन पर उनका सबसे कम असर दिखाई देता है। अक्सर उन्हें इस दृष्टिकोण के कारण न केवल उनके पास उपलब्ध मूल्यवान स्थानीय प्रासंगिक ज्ञान को नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है बल्कि इससे गरिमा के सिद्धांतों से भी समझौता करना पड़ता है।
शोध में सहभागी दृष्टिकोण समुदायों को इस रूप में सशक्त बनाता है ताकि वे अपने जीवन को प्रभावित करने वाले निर्णयों में सक्रियता से भाग ले सकें। यह साक्ष्य की आवश्यकता, उसकी व्याख्या और उसके उपयोग में समुदाय की आवाज़ को सुनने के महत्व की पहचान करता है। साक्ष्य एक मूल्यवान संसाधन होता है जो समुदायों तक सुलभ होना चाहिए। इस पर उनके दृष्टिकोण का प्रभाव भी होना चाहिए और इसकी प्रकृति ऐसी होनी चाहिए कि यह आख़िरकार नीति निर्णयों को आकार भी दे।
हाल ही में, झारखंड में प्रोजेक्ट संपूर्ण के माध्यम से (कंसोर्टियम, आईडीइनसाइट के हिस्से के रूप में, एक निगरानी और मूल्यांकन पार्टनर है) – आईडीइनसाइट ने स्कूली छात्रों और शिक्षकों – जो कि शोध में प्राथमिक उत्तरदाता थे – के साथ जुड़ने के लिए संचार तकनीकों और विजुअल उपकरण (कहानी कहने वाले बोर्ड और वीडियो) जैसे भागीदारी के तरीकों का उपयोग किया था। इन उपकरणों के माध्यम से, आईडीइनसाइट ने परियोजना की आधार रेखा से उत्पन्न कुछ निष्कर्षों को साझा किया। इस दृष्टिकोण ने डेटा की व्याख्या में प्रतिभागियों को शामिल करना सुनिश्चित किया, जिससे स्कूल की वास्तविकताओं के बारे में उनके गहन ज्ञान के आधार पर प्रोग्रामैटिक कार्रवाई को आकार देने में मदद मिली – यह अधिक भागीदारी अनुसंधान की दिशा में एक कदम है।
प्रोजेक्ट संपूर्ण एक सामाजिक-भावनात्मक शिक्षण (एसईएल) पहल है जिसका नेतृत्व झारखंड सरकार ने समाजसेवी संगठनों के एक संघ के साथ साझेदारी कर किया है। हमारे भागीदारों के निवेदन पर, हमने अपने मूल्यांकन प्रयासों में सहभागिता के नज़रिए को शामिल किया ताकि बड़े पैमाने पर छात्रों और शिक्षकों की भागीदारी सुनिश्चित की जा सके।
कार्यान्वयन और मूल्यांकन डिजाइनों को पहले ही अंतिम रूप दे दिया गया था और सहभागी लेंस का उपयोग करने के विचार की खोज उसके बाद की गई थी। इसलिए सहभागी तत्वों को उसके अनुसार अनुकूलित किया गया और मुख्य रूप से आधारभूत निष्कर्षों को साझा करने पर ध्यान केंद्रित किया गया था।
हमने छात्र एवं शिक्षकों के इंटरव्यू और कक्षा में किए गये अवलोकन के माध्यम से आधारभूत डेटा इकट्ठा किया था। हम शिक्षकों और छात्रों को इस नए साक्ष्य का उपयोग करने में मदद करने के लिए छात्रों के सामाजिक–भावनात्मक कौशल स्तर, शिक्षक व्यवहार, स्कूल के माहौल आदि पर अपनी सीख साझा करना चाहते थे। हम अपने निष्कर्षों को प्रासंगिक बनाने के लिए शिक्षकों और छात्रों का इनपुट भी लेना चाहते थे।
हालांकि, सर्वे से निकलने वाले जटिल परिणामों को शिक्षकों और छात्रों तक पहुंचाना और उनकी भागीदारी को सुनिश्चित करना आईडीइनसाइट के लिए भी काफी नया काम था। आमतौर पर हम नीति निर्माताओं और निर्णय निर्माताओं के साथ अपने परिणाम साझा करते हैं लेकिन जमीन पर समुदाय के साथ परिणाम साझा करने का अनुभव हमारे लिए भी नया ही था। हमें इस बात की जानकारी थी कि परिणाम को साझा करने में किसी भी तरह की तकनीकी शब्दावली या डिजिटल प्रेजेंटेशन का प्रयोग नहीं किया जाना चाहिए; इसके बदले, हमें कुछ बहुत ही सरल, मज़ेदार, समावेशी और आसानी से जुड़ाव वाला माध्यम चाहिए था। हमने योजना को विकसित करने के लिए आईडीइनसाइट के डिग्निटी और लीन इनोवेशन टीम के साथ काम किया और स्कूल में की जाने वाली तीन गतिविधियों को चुना:
इस ब्लॉग में, हम झारखंड सरकारी स्कूलों में शिक्षकों और छात्रों के साथ अपने निष्कर्षों को साझा करने के लिए एक भागीदारी दृष्टिकोण की योजना बनाने बनाने, उसे क्रियान्वित करने से लेकर इस प्रक्रिया में टीम को मिलने वाले सबक़ भी बांटते हैं।
हितधारकों को हमारे निष्कर्षों से प्रभावी ढंग से जोड़ने के लिए, डेटा का सावधानीपूर्वक चयन और फ़्रेमिंग महत्वपूर्ण थी। वीडियो और स्टोरीबोर्ड प्रस्तुति के लिए, हमने लक्षित दर्शकों की पहचान करके और उन मुख्य बातों को स्पष्ट रूप से परिभाषित करके शुरुआत की जिनसे हम संवाद करना चाहते थे। उसके बाद हमें इसमें शामिल करने के लिए सबसे प्रासंगिक और आसानी से समझ में आने वाले निष्कर्षों को अलग किया।
अधिकतर छात्रों को यह महसूस होता है कि उनके शिक्षकों को उनकी परवाह है।
शिक्षकों के साथ चर्चा के लिए, हमने ऐसे निष्कर्षों को चुना जो प्रासंगिक और सरल होने के अतिरिक्त जिनकी जरूरत अन्य संदर्भों के लिए भी थी। हम निष्कर्षों को संवेदनशील ढंग से तैयार करने के प्रति सचेत थे, विशेषकर वे जो सुधार के अवसरों पर प्रकाश डालते थे। एक काल्पनिक उदाहरण लेते हैं: यदि निष्कर्ष में यह बात सामने आती है कि ’60 फीसद शिक्षक गलत उत्तर के लिए छात्रों को डांटते हैं’, तो उसे हम कुछ इस प्रकार लिखेंगे, ‘अधिकतर छात्रों को यह महसूस होता है कि उनके शिक्षकों को उनकी परवाह है; हालांकि आंकड़े यह भी दिखाते हैं कि शायद कुछ शिक्षक कक्षा में छात्रों को डांट भी लगाते हैं।।’ इस प्रकार, हम नकारात्मक निष्कर्ष को एक सकारात्मक निष्कर्ष के साथ जोड़ देते हैं।
सामुदायिक जुड़ाव के क्षेत्र में अनुभव रखने वाले टीम के साथियों के इनपुट, जिनमें परियोजना टीम के बाहर के लोग भी शामिल हैं, साथ ही हमारे कार्यान्वयन भागीदार जो नियमित रूप से इन प्रतिभागियों के साथ काम करते हैं, ने निष्कर्ष तैयार करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इसके अलावा, हमने शिक्षकों के एक समूह से भी प्रतिक्रिया ली ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि निष्कर्ष आसानी से समझ में आने वाले थे जिससे कि मुख्य बातें प्रमुखता से सामने आईं।
अपनी नियोजित गतिविधियों के सुचारू निष्पादन को सुनिश्चित करने के लिए, हमने स्कूल में प्रवेश करने से लेकर गतिविधियों के संचालन और स्कूल छोड़ने तक की पूरी प्रक्रिया की कल्पना की। इससे हमें संभावित चुनौतियों की पहचान करने, समाधान विकसित करने और अधिक आत्मविश्वास हासिल करने में मदद मिली।
हमने छात्रों के साथ स्टोरीबोर्ड प्रस्तुति और ड्राइंग गतिविधि आयोजित करने और एक ही दिन में प्रत्येक स्कूल में शिक्षकों के साथ चर्चा करने की योजना बनाई; इसलिए, समय को इस अनुसार अनुकूलित करना बहुत अधिक महत्वपूर्ण था। कुशल प्रसार सुनिश्चित करने के लिए, हमने स्कूल लीडर्स, शिक्षकों और कार्यान्वयन भागीदारों से पहले ही संपर्क कर लिया था। हमने अपने स्कूल के दौरे के पीछे के उद्देश्य को स्पष्ट कर दिया था, आवश्यकता संबंधी सहायता के बारे में बताया, और शिक्षक और छात्र की उपलब्धता की भी पुष्टि की। इससे हम, शुरू करने और स्कूल पहुंचने के बाद गतिविधियों को आयोजित करने में लगने वाले समय को कम कर सके।
डेटा के साथ शिक्षकों और छात्रों को प्रभावी ढंग से जोड़ने के लिए हमें ऐसे प्रारूपों का उपयोग करने की ज़रूरत थी जो प्रासंगिक हों और जिसमें सीमित तकनीक अवधारणाओं का इस्तेमाल हुआ हो। ग्राहकों के साथ निष्कर्ष साझा करने के हमारे सामान्य तरीके इस संदर्भ में उपयुक्त नहीं थे।
इसलिए हमने संपर्क स्थापित करने के लिए स्टोरीटेलिंग और गतिविधि-आधारित तकनीकों को चुना। उदाहरण के लिए, हमने जिस स्टोरीबोर्ड प्रेजेंटेशन और चित्रकला से जुड़ी गतिविधियों को चुना था वे छात्रों के दैनिक अकादमिक पाठ्यक्रम का हिस्सा थीं। हमने जो कहानी बनाई थी वह बहुत अधिक प्रासंगिक थी क्योंकि इसमें एक शिक्षक अपने छात्रों के साथ अपने रिश्ते को बेहतर बनाने की कोशिश करता है और कक्षा का माहौल बेहतर करने के लिए उनके साथ काम करता है। मौखिक कहानी कहने के साथ-साथ, हमने कक्षा के ब्लैकबोर्ड पर चिपकी एक बड़ी लचीली सामग्री पर मुद्रित एक स्टोरीबोर्ड का उपयोग किया – जिसे, फिर से, छात्र पढ़ाई के दौरान हर दिन देखने के आदी हो गये थे। स्टोरीबोर्ड से यह जोड़ने में मदद मिली कि कहानी कितनी प्रासंगिक थी – हमने ऐसे चरित्रों का इस्तेमाल किया जो उनके जैसे ही दिखते थे, उनके जैसे स्कूलड्रेस पहनते थे और उसी कक्षा में बैठते थे। चित्रकला वाली गतिविधि एक सामूहिक गतिविधि थी; छात्रों को रंगों के साथ काम करने और वे जो चित्र बनाना चाहते थे उसके साथ जुड़ने में मजा आया।
चित्र बनाने की गतिविधि शुरू करने से पहले, हमने छात्रों को भी वीडियो दिखाए जिनसे चित्र बनाने के उनके विचारों को प्रेरणा मिली।
चूंकि वीडियो देखने में हमेशा मज़ेदार, समझने में आसान और सोशल मीडिया पर साझा करने योग्य होते हैं, इसलिए हमने शिक्षकों और अभिभावकों के लिए एक एनिमेटेड वीडियो विकसित किया है। जब हमने इन वीडियो को शिक्षकों को दिखाया, तो उन्हें इस कहानी स्कूल में होने वाले उनके अनुभव के जैसी ही लगी और इस बात को लेकर उनकी सोच सकारात्मक थी कि माता-पिता और दूसरे शिक्षक इन वीडियो को पसंद करेंगे और इनसे सीखना चाहेंगे! चित्र बनाने की गतिविधि शुरू करने से पहले, हमने छात्रों को भी वीडियो दिखाए जिनसे चित्र बनाने के उनके विचारों को प्रेरणा मिली।
छात्रों के साथ प्रासंगिकता सुनिश्चित करने के लिए, हमारी टीम के फील्ड मैनेजर ने स्टोरीबोर्ड प्रस्तुति के लिए कहानीकार की भूमिका निभाई। प्रस्तुतकर्ता के लिए यह महत्वपूर्ण था कि वह ऐसा व्यक्ति हो जिससे छात्र भाषा और संस्कृति के स्तर पर जुड़ सकें। हमने स्थानीय भाषा में बोलचाल के स्पर्श के साथ एक छोटी सी पटकथा बनाई, जिससे छात्रों के लिए इसे समझना आसान हो गया।
कहानी कहने वाली गतिविधि (स्टोरीटेलिंग) आईडीइनसाइट के लिए नया प्रारूप था, हमने टीम के साथ मिलकर कई मॉक सत्र किए ताकि पटकथा के साथ-साथ प्रस्तुति के लहजे और ऊर्जा के स्तर को बेहतर किया जा सके। एक बार तय हो जाने के बाद, हमारे फ़ील्ड मैनेजर ने प्रस्तुति को बेहतर बनाने के लिए अपने टीम के सदस्यों और अपने समुदाय के बच्चों के साथ बहुत ही गंभीरता और लगन के साथ पटकथा का अभ्यास किया।
स्कूलों में स्टोरीबोर्ड प्रस्तुतियों के दौरान, हमने छात्रों से सरल प्रश्न पूछकर उन्हें सक्रिय रूप से शामिल किया, जिनका उन्होंने एक स्वर में उत्तर दिया। इस संवादात्मक (इंटरैक्टिव) दृष्टिकोण ने उनका ध्यान केंद्रित रखने और कहानी के साथ उन्हें जोड़े रखने में हमारी मदद की।
इसी प्रकार, हमने अपने वीडियो प्रोडक्शन एजेंसी के साथ मिलकर वीडियो पटकथा पर भी कई बार काम किया ताकि इसे भाषा के शब्दजाल से बचाया जा सके और यह सुनने में परिचित और प्रासंगिक लगे।
छात्रों और शिक्षकों के साथ आईडीइनसाइट की बातचीत आमतौर पर निगरानी और मूल्यांकन कार्य पर डेटा संग्रह के लिए स्कूलों का दौरा करने तक ही सीमित होती है। यह पहली बार था जब हम इसके बदले अपने निष्कर्षों को साझा करने के लिए स्कूलों के दौरे पर थे और छात्रों की भागीदारी, आनंद और सीखने के लिए एक आरामदायक वातावरण बनाना हमारी सर्वोच्च प्राथमिकता थी।
हमने अपने कार्यान्वयन भागीदारों के साथ सहयोग किया, जो नियमित रूप से स्कूलों के साथ जुड़ते हैं। उनकी उपस्थिति से हमें स्कूल लीडर्स, शिक्षकों और छात्रों के साथ संबंध स्थापित करने में मदद मिली। हमारे साझेदारों से हमें परिचय स्थापित करने में मदद मिली, उन्होंने छात्रों के साथ आइसब्रेकर गेम आयोजित किए और शिक्षकों और छात्रों के साथ बेहतर संवाद करने में हमारी मदद की।
हमने इस पर भी जोर दिया कि गतिविधियों में भागीदारी स्वैच्छिक हो और साथ ही भाग ना लेने के बच्चों के निर्णय का सम्मान किया जाए।
आइसब्रेकर खेलों में हमने भी सक्रियता से भाग लिया जिससे छात्रों को हमारे साथ सहज होने में मदद मिली। ‘ड्रा योर विजन’ की गतिविधि से शांत बच्चों को कला के माध्यम से स्वयं को अभिव्यक्त करने का अवसर मिला और इससे उनकी भागीदारी भी सुनिश्चित हुई। हमने इस पर भी जोर दिया कि गतिविधियों में भागीदारी स्वैच्छिक हो और साथ ही भाग ना लेने के बच्चों के निर्णय का सम्मान किया जाए।
शिक्षकों के साथ हमने इसकी शुरुआत पहले जान-पहचान और फिर उनके द्वारा पढ़ाए जाने वाले विषयों पर चर्चा से की। हमने उनके अनुभवों और चुनौतियों के साथ सहानुभूति जताई और एक ऐसा वातावरण बनाया जिसमें वे सहज और मुक्त भाव से अपने विचारों और राय को साझा कर पाएं।
आधारभूत निष्कर्षों पर इनपुट प्राप्त करने के हमारे लक्ष्य को देखते हुए, हमारी गतिविधियां विशेष रूप से मूल्यवान अंतर्दृष्टि बनाने के लिए डिज़ाइन की गई थीं। हमने शिक्षक और छात्र की प्रतिक्रियाओं को नोट किया और उनकी सहभागिता के स्तर को देखा। जबकि शिक्षकों से निष्कर्षों पर इनपुट अपेक्षाकृत सीधा था, वहीं छात्रों से मिलने वाली प्रतिक्रिया विशेष रूप से दिलचस्प थी।
ऐसा इसलिए है क्योंकि छात्रों से की जाने वाली बातचीत का प्रारूप अर्ध-संरचित बातचीत था और हमने जिन चित्रों की समीक्षा की थी उसका उद्देश्य अर्थपूर्ण अंतर्दृष्टि प्राप्त करना था। हमने कार्यक्रम सुधार प्रयासों में जानकारी शामिल करने के लिए इन मूल्यवान जानकारियों को अपने भागीदारों के साथ साझा किया। उदाहरण के लिए, एक आर्टवर्क में सहपाठियों को शारीरिक विकलांगता वाले एक छात्र का समर्थन करते हुए और उसे अपने खेल के मैदान में शामिल करते हुए दिखाया गया है। इस दृष्टिकोण का उपयोग विकलांगता-अनुकूल स्कूल वातावरण और बुनियादी ढांचे को सुनिश्चित करने के लिए छात्रों के नेतृत्व वाली परियोजना के निर्माण में किया जा सकता है।
अब आगे क्या? संपूर्ण परियोजना के हिस्से के रूप में भागीदारी के तरीकों में हमारा प्रारंभिक प्रयास एक मूल्यवान अनुभव रहा है। ये अंतर्दृष्टि हमारे भविष्य के काम को आकार देगी और आईडीइनसाइट पर समान परियोजनाओं के व्यापक परिदृश्य में योगदान देगी। जैसे-जैसे हम आगे बढ़ते हैं, हम अपने दृष्टिकोण को और अधिक परिष्कृत करने, अपने सहयोगात्मक प्रयासों को दृढ़ करने और उन समुदायों पर सकारात्मक प्रभाव डालने के लिए उत्साहित हैं जिनकी हम सेवा करते हैं।
इस ब्लॉग में मूल्यवान इनपुट और समीक्षा के लिए सुमेधा जलोटे, नेहा रायकर और देबेंद्र नाग का धन्यवाद। इस काम को आकार देने और विचारशील चिंतन और ज्ञान साझा करने को प्रोत्साहित करने में उनके मार्गदर्शन के लिए टॉम वेन का विशेष धन्यवाद।
यह लेख मूल रूप से आईडीइनसाइट पर प्रकाशित हुआ था। इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें।
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