दिल्ली के सरकारी स्कूलों में हुए उद्यमिता शिक्षा के प्रयोग से क्या पता चलता है?

पूरी दुनिया में टिकाऊ आर्थिक विकास के लिए उद्यमशीलता और स्व-रोजगार के महत्व पर जोर दिया जा रहा है।

स्टार्ट-अप और सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यम (एमएसएमई) रोजगार के अवसरों को पैदा कर, क्षेत्रीय असमानताओं को दूर कर और विभिन्न समुदायों के लोगों के जीवन स्तर में सुधार लाते हुए देश की आर्थिक वृद्धि में अपना महत्वपूर्ण योगदान देते हैं। व्यापक आर्थिक अवसरों और जनसांख्यिकीय लाभांश की विशाल क्षमता को देखते हुए – 2030 तक भारत में कामकाजी लोगों की कुल संख्या 104 करोड़ होने का अनुमान है – भारत सरकार मेक इन इंडिया और स्टार्टअप इंडिया जैसे कार्यक्रमों के जरिए उद्यमिता पर जोर दे रही है। हालांकि, अगर कामकाजी आबादी में उद्यमशीलता कौशल और महत्वाकांक्षाओं की कमी है तो ऐसे में इस तरह के प्रयासों के कम पड़ने की संभावना है। इसलिए, इस बात की तत्काल आवश्यकता है कि भारत की आबादी को ‘उद्यमिता के लिए तैयार’ किया जाए।

एक आंकड़े के मुताबिक, भारत में स्नातक छात्रों के नामांकन की दर लगभग 25–28 फीसद है। इसका मतलब यह है कि प्रत्येक वर्ष, हायर सेकंडरी की पढ़ाई पूरी करने वाले लगभग तीन चौथाई छात्र उच्च शिक्षा के लिए अपना नामांकन नहीं करवाते हैं और इसके बदले उनकी रुचि श्रम बाज़ार में प्रवेश करने में होती है। इनमें से अधिकांश छात्रों के पास रोजगार योग्य कौशल नहीं होता है और कुछ में बुनियादी कौशल का भी अभाव होता है। देश में युवा बेरोजगारी दर 25 प्रतिशत के आसपास है।

भारत की जनसंख्या के इस विशाल आकार को देखते हुए, स्कूलों से अपनी पढ़ाई पूरी करने वाले युवाओं को रोजगार की तलाश करने और स्वयं रोजगार पैदा करने के लिए उन्हें विभिन्न प्रकार के कौशल प्रशिक्षण देने की जरूरत है। यदि विद्यालय से ही युवाओं को उद्यमिता शिक्षा दी जाए तो यह भारतीय समाज के लिए मूल्यवान साबित होगा।

शुरुआती स्तर पर ही उद्यमिता सिखाने के प्रयोग

वर्तमान में, भारत में उद्यमिता की औपचारिक शिक्षा को बीए और एमए के स्तरों पर और केवल तकनीकी और प्रबंधन संस्थानों में ही शामिल किया गया है। ज्यादातर मामलों में, इन पाठ्यक्रमों को पढ़ाने के लिए शिक्षण के पारंपरिक तरीकों का ही प्रयोग किया जाता है और इसके लिए छात्रों को सक्रिय रूप से इसमें शामिल होने की जरूरत नहीं होती है। इस प्रथा पर सवाल उठाते हुए कि उद्यमिता शिक्षा केवल कॉलेज में पढ़ रहे छात्रों के लिए है, दिल्ली सरकार के स्कूलों में कक्षा 9-12 के लिए उद्यमिता मानसिकता पाठ्यक्रम (ईएमसी) शुरू किया गया था। इस पहल का मूल विचार यह था कि, स्कूल में अनुभव आधारित शिक्षा के जरिए बच्चों में उद्यमशीलता की क्षमताओं और मानसिकता का विकास न केवल रचनात्मकता, नवाचार और कुछ नया बनाने या किसी सामाजिक समस्या को हल करने के जुनून को प्रेरित करेगा, बल्कि इससे छात्रों को सही करियर चुनने में भी सुविधा मिलेगी।

साल 2021 में, पाठ्यक्रम के अनुभावनात्मक घटक को और अधिक बढ़ाने के लिए बिजनेस ब्लास्टर्स नाम के एक बड़े पैमाने वाले कार्यक्रम की घोषणा की गई थी। इसके तहत कक्षा 11 और 12 के छात्रों को ऐसे बिज़नेस आइडियाज पर काम करना होगा जिससे लाभ मिल सके/या सामाजिक प्रभाव पैदा किया जा सके।

कार्यक्रम को उद्यमिता के लिए आवश्यक जागरूकता और कौशल निर्माण करने के लिए डिज़ाइन किया गया था, जिसमें व्यावसायिक कौशल, जिज्ञासा, सहयोग, संचार और विफलता के डर पर काबू पाना शामिल है। 10 छात्रों की प्रत्येक टीम को 2,000 रुपये तक की प्रारंभिक पूंजी आवंटित की गई थी। छात्रों के इन समूहों को ऐसे व्यावसायिक विचारों लाने के लिए कहा गया जो उपयोगी, व्यावहारिक, लाभ कमाने वाले हों, या जो सामाजिक प्रभाव पैदा करते हों और जिनमें विकास की संभावना हो। हर टीम को अपने व्यावसायिक विचार को अंतिम रूप से निवेशकों के सामने पेश करने से पहले उसमें सुधार करने की सलाह दी गई। छह महीने की अवधि वाले इस कार्यक्रम में लगभग तीन लाख छात्रों, 1000 स्कूल नेताओं या प्रधानाध्यापकों, 10,000 से अधिक शिक्षकों, 1000 बिज़नेस कोच और मेंटर और शिक्षा विभाग के विशेष कार्य बल (स्पेशल टास्क फ़ोर्स) को शामिल किया गया था। दिल्ली के शिक्षा मंत्री ने व्यक्तिगत रूप से इस कार्यक्रम की देखरेख की थी। चूंकि यह अपने तरह की एक नई पहल थी, इस कार्यक्रम के दौरान हमने अनुभवात्मक घटक के साथ शिक्षाशास्त्र और उद्यमशीलता शिक्षा के कार्यान्वयन के संबंध में बहुत कुछ सीखा। यहां हम अपने कुछ खास अनुभवों के बारे में बता रहे हैं।

कला की शिक्षा में स्कूल की कुछ ड़कियां_सरकारी स्कूलों में उद्यमिता
इस बात की तत्काल आवश्यकता है कि भारत की आबादी को ‘उद्यमिता के लिए तैयार’ किया जाए। | चित्र साभार: प्लानेटकास्ट मीडिया सर्विसेज लिमिटेड

1. इससे करियर के विकल्प खुलते हैं

अनुभवात्मक उद्यमिता पर शुरू किया गया यह बड़े पैमाने का कार्यक्रम वास्तविक जीवन में करियर चुनने में मदद करने वाली प्रयोगशाला साबित हुआ। इससे छात्रों को अपने परिवेश के प्रति अधिक चौकस और जागरूक बनने में मदद मिली, जिसके परिणामस्वरूप उनके अंदर संभावित अवसरों और संभावनाओं के प्रति जिज्ञासा और आलोचनात्मक सोच की भावना विकसित हुई। छात्रों का कहना था कि उन्हें यह जानकर खुशी हुई कि वे न केवल अपने पर्यावरण की समस्याओं को सुलझा सकते थे बल्कि इस काम को करते हुए अपनी आजीविका भी कमा सकते थे।

दिल्ली के सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले ज्यादातर छात्र निम्न सामाजिक-आर्थिक परिवेश से आते हैं। इन छात्रों के परिवारों में उनके माता/पिता ही मुख्य रूप से कमाते हैं जो सहायक, सफ़ाईकर्मी, मैकेनिक होते हैं, या फिर क्लेरिकल काम करते हैं। अपनी आर्थिक परिस्थिति को स्वीकार करते हुए, इन छात्रों को अपने परिवारों का सहयोग करने के लिए जल्द से जल्द (स्कूल की पढ़ाई खत्म होने के तुरंत बाद) श्रम बाजारों में प्रवेश करने की जरूरत होती है। इसके कारण उनके पास उच्च शिक्षा के सीमित अवसर रह जाते हैं।

बिजनेस ब्लास्टर्स कार्यक्रम के कारण उन्हें स्कूल समाप्त होने के बाद उद्यमिता को एक कानूनी और बेहतर करियर विकल्प के रूप में देखने में मदद मिली।

2. यह रोजगार योग्यता कौशल और आत्म-प्रभावकारिता को बढ़ाने में मदद करता है

छात्रों के साथ हमारी बातचीत से हमें पता चला कि व्यवसाय चलाने की प्रक्रिया में प्राप्त कौशल और योग्यताएं, परिणाम की परवाह किए बिना एक स्थायी प्रभाव पैदा कर सकती हैं।

विचारों को सोचने, प्रतिक्रिया लेने, विचारों को बेहतर बनाने, टीम के साथ काम करने, पिच तैयार करने, उत्पाद का निर्माण करने और इसे बेचने की गहन व्यावहारिक प्रक्रिया के दौरान छात्रों को अपनी ताकतों, कमज़ोरियों, बढ़े हुए आत्मविश्वास और बेहतर हुई कार्यक्षमता का ज्ञान हुआ। साथ ही उन्होंने जोखिम उठाना सीखा और अपने विचारों को प्रभावी तरीक़े से रखने और समस्याओं का समाधान करने में सक्षम हुए।

कक्षा में सीखने और मॉक गतिविधियों में भाग लेने से उन्हें इस तरह के कौशल विकसित करने में मदद नहीं मिलती। ऐसे छात्र जो टीम लीडर की भूमिका में थे, उन्होंने यह भी बताया कि, पहली बार उन्हें समूह में मिलकर (टीमवर्क) और सहयोग की भावना के साथ काम करने का महत्व समझ में आया। उनका यह भी कहना था कि इसके अलावा प्रक्रिया के दौरान उन्होंने योजना और क्रियान्वयन के दौरान चुनौतियों का सामना करना और असफलताओं से निपटने के तरीके को भी समझा। अनुभवात्मक शिक्षा ने शिक्षण को अधिकांश छात्रों के लिए अपेक्षाकृत अधिक प्रासंगिक और वास्तविक बना दिया है।

3. इससे हितधारकों की मानसिकता में बदलाव आता है

कार्यक्रम में शामिल बिज़नेस कोच, शिक्षक और अफ़सरों ने बताया कि भाग लेने वाले छात्रों को अपने व्यवसायों का निर्माण करते और उसकी ज़िम्मेदारी उठाते हुए देखकर उन्हें यह बात समझ में आई कि इन छात्रों में भी – उनके अपने बच्चों की तरह ही – क्षमता है। कार्यक्रम में शामिल विभिन्न हितधारकों ने हमसे साझा किया कि छात्र तब और अधिक बेहतर स्थिति में आ गये जब उन्हें प्रदान की जाने वाली सहायता को दान और सशक्तिकरण के दायरे से दूर कर दिया गया। इसकी बजाय, ऐसे अवसरों पर ध्यान केंद्रित करना बेहतर होता है जो आमतौर पर छात्रों को उपलब्ध नहीं होते हैं।

बड़े पैमाने पर एक नई तरह परियोजना का संचालन करना

परियोजना की समयबद्ध प्रकृति, पहली बार लागू किए जाने के कारण होने वाली अनिश्चितता, और इसमें शामिल नाबालिगों की सुरक्षा की चिंताओं से हमें नए विचारों के बड़े पैमाने पर परियोजना प्रबंधन के बारे में सीखने में मदद मिली। कार्यक्रम के संचालन के तरीके के हमारे विश्लेषण के आधार पर, यह स्पष्ट था कि जहां नीतिनिर्माता दृष्टिकोण प्रदान कर सकते हैं, वहीं इस दृष्टिकोण को क्रियान्वित करने के लिए सहयोग और समर्पण की भावना से काम करने वाले लोगों की एक टीम की आवश्यकता होती है। परियोजन के निम्नलिखित दृष्टिकोणों से काम कर रही टीम (ऑन-ग्राउंड टीम) को लाभ मिला:

 1. सख्त समयसीमा

परियोजन को लागू करने की ज़िम्मेदारी जिन लोगों पर थी, उन्होंने साझा किया कि उन्हें प्रक्रिया के दौरान कड़ी निगरानी और समय सीमा का विचार पसंद आया। इससे उन्हें ऐसे कामों को करने में मदद मिली जो उनकी ज़िम्मेदारी और विशेषज्ञता से बाहर के दायरे के थे। उन्होंने यह भी कहा कि संभव है कि समयसीमा की अनुपस्थिति में, टीम का प्रदर्शन इतना अच्छा नहीं होता।

2. स्वायत्ता

उन्होंने आगे स्वीकार किया कि बड़े पैमाने की परियोजना को क्रियान्वित करने की चुनौती ने उन्हें कुछ नया करने और काम पूरा करने के लिए अपने स्वयं के संसाधन खोजने के लिए प्रेरित किया। यह न केवल निगरानी के कारण हुआ, बल्कि शीर्ष टीम द्वारा विभिन्न स्तरों पर ज़मीन पर काम कर रहे (ऑन-ग्राउंड) टीमों को दी गई परिचालन स्वायत्तता (स्थितिजन्य और परियोजना बाधाओं के भीतर) भी एक कारक था, जिसके कारण परियोजना का सफल कार्यान्वयन संभव हो सका। स्कूल टीमों ने अपने स्कूल की छात्र टीमों की इस यात्राओं को आकार देने में मिली स्वतंत्रता की भी सराहना की।

3. साझा सबक़

स्कूलों में चिंताओं और समाधानों को साझा करने में सक्षम होने से, सलाहकारों को ढूंढने और छात्र सुरक्षा सुनिश्चित करने जैसे जटिल मुद्दों के लिए जल्दी से सीखना और समाधान ढूंढना संभव हो गया है।

ना तो सभी समस्याओं की परिकल्पना केंद्रीय टीम द्वारा की जा सकी और ना ही कार्यान्वयन टीमों के भीतर ही सभी समस्याओं का हल मिल सका। सभी दिशाओं में होने वाले मुक्त संवाद से परियोजन को खत्म करने और रास्ते में आने वाली चुनौतियों का सामना करने में मदद मिली।

हमारे सामने आई प्रमुख चुनौतियों में से एक व्यावसायिक प्रशिक्षकों, निवेशकों और अन्य लोगों के नेटवर्क से संबंधित थी जिन्होंने छात्रों के लिए एक सहायक वातावरण बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

कई स्थानीय उद्यमी और बीबीए/एमबीए छात्र निःशुल्क आधार पर व्यावसायिक प्रशिक्षकों की भूमिका निभाने के लिए तैयार हुए। हालांकि, पीछे मुड़कर देखने पर हमें लगता है कि काम की निस्वार्थ प्रकृति पर दोबारा सोचने की और सलाहकारों के बेहतर प्रबंधन की जरूरत है क्योंकि कार्यक्रम के दौरान उन्हें विभिन्न प्रकार की चुनौतियों का सामना करना पड़ा।

मेंटर और कोच को विभिन्न टीमों से मिलने के लिए समय निकालने और यात्रा करने में परेशानी का सामना करना पड़ा और अंत में उनमें से कइयों ने स्वयं को इस परियोजना से बाहर कर लिया। कोचों को थोड़ी बहुत छूट मिली थी कि वे अपने सत्रों को अपने अनुसार निर्धारित कर सकें, क्योंकि छात्रों (जो नाबालिग हैं) के साथ बैठकें स्कूल के घंटों के दौरान स्कूल शिक्षक की उपस्थिति में आयोजित की जानी थीं।

मेंटरशिप के लिए किसी भी तरह का शुल्क नहीं है इसलिए छात्रों के साथ हर महीने प्रति सप्ताह दो से तीन घंटे बिताने वाले बिजनेस प्रशिक्षकों को प्रोत्साहित करने के लिए नए तरीके खोजने की जरूरत है। दूरी और यात्रा के मुद्दों पर काम करने के तरीके के रूप में निरंतर समर्थन देने के उद्देश्य से ग्रुप चैट और वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग का उपयोग किया जा सकता है। लेकिन भविष्य में बजट बनाते समय कुछ आमने-सामने की बैठकों को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए।

जैसे-जैसे कार्यक्रम आगे बढ़ेगा, व्यावसायिक प्रशिक्षकों की दीर्घकालिक संलग्नता के लिए, उन्हें समर्थन और पुरस्कृत करने के तरीके निकालना अधिक व्यावहारिक बन जाएगा। इसके अतिरिक्त, स्कूली शिक्षकों-जिनमें से कई पहली बार व्यावसायिक विचारों पर छात्रों को सलाह दे रहे थे-को प्रशिक्षित करने की आवश्यकता है।

बिजनेस ब्लास्टर्स कार्यक्रम जैसे और प्रयोगों के लिए, स्कूल प्रणाली और नौकरशाही की संपूर्ण भागीदारी पर बहुत अधिक जोर नहीं दिया जा सकता है।उच्च शिक्षा के वर्तमान संकट और बेरोजगारी के उच्च दर को ध्यान में रखते हुए, हमारा मानना ​​है कि ऐसे प्रयोग अनुकरणीय हैं। प्रयोग की सफलता का एक व्यवस्थित विश्लेषण ऐसे कार्यक्रम के अगले संस्करण के बेहतर कार्यान्वयन में मदद करेगा।

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विकास सेक्टर में मजबूत फैसिलिटेटर बनने के आठ नुस्खे

सेवाओं को बेहतर बनाने में, विकास सेक्टर में काम करने वाले उन साथियों की भूमिका हमेशा अहम रही है जो ज़मीन पर काम करते हैं। लोगों तक कार्यक्रम की जानकारी पहुंचाने और उसका सही इस्तेमाल करने के तरीके बताने के दौरान ज़मीनी कार्यकर्ताओं के सामने कई चुनौतियां आती हैं। ऐसे साथियों के काम को आसान और बेहतर बनाने के लिए हम यहां पर फैसलिटेशन पर बात कर रहे हैं।

इस वीडियो सामग्री को तैयार करने में हमने विकास सेक्टर में काम करने वाले कुछ ऐसे साथियों से चर्चा की है जिनका फैसिलिटेशन में खासा अनुभव रहा है। और, उनसे समझा है कि अच्छा फैसिलिटेटर बनने के लिए आपको किस तरह की तैयारी, प्रेजेंटेशन या बाक़ी चीजें करने की जरूरत है।

इस सामग्री को तैयार करने के लिए हम इब्तिदा संस्था के अमरदीप, प्रथम से कुलदीप पुंडीर, जीवन रेखा परिषद संस्था से बिराज उपाध्याय और मंथन कोटड़ी संस्था से उम्मेद सिंह का विशेष आभार व्यक्त करते हैं।

अब चलिए, समझते हैं कि एक बेहतरीन फैसिलिटेटर कैसे बना जा सकता है। 

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जब पीनी पड़े चाय पे चाय, फिर भी काम ना हो पाय!

कॉमिक पैनल जिसमें एक एनजीओ कार्यकर्ता सरकारी दफ़्तर में काम के लिए चक्कर काट रहीं है, पर काम की जगह उन्हें बस चाय पिलाई जा रही है_हल्का फुल्का
चित्र साभार: श्रुति रॉय

आपदा प्रबंधन, केरल और ओडिशा से सीखा जा सकता है

भारत ने, 2022 के साल में 314 दिन ऐसे देखे जब इसके अलग-अलग इलाकों में भारी बारिश, बाढ़ और भूस्खलन जैसे विध्वंसक मौसमी घटनाएं दर्ज की गईं। अनुमान है कि इस एक साल में, लगभग 20 लाख हेक्टेयर फसल भूमि और 4.2 लाख घर क्षतिग्रस्त हो गये। विश्व मौसम विज्ञान संगठन के एक विश्लेषण के अनुसार, 1970 से 2021 के बीच 573 जलवायु-संबंधी आपदाओं में लगभग 1,38,377 भारतीयों की मृत्यु हुई है – जो एशिया में दूसरी सबसे बड़ी संख्या है। ऐसी घटनाओं और मानवता पर इसके प्रभाव के स्पष्ट होने के साथ इन आपदाओं के लिए तैयारी और अनुकूल प्रणालियों का निर्माण आवश्यक होता जा रहा है। लेकिन जैसा कि हमने महामारी के दौरान देखा, स्वास्थ्य और सेवा वितरण सहित हमारी कई प्रणालियां इन चुनौतियों से लड़ने में सक्षम नहीं थीं।

हमारे पॉडकास्ट ऑन द कॉनट्रेरी बाय आईडीआर में, हमने केरल के पूर्व स्वास्थ्य मंत्री केके शैलजा और समाजसेवी संगठन ग्राम विकास की कार्यकारी निदेशक लिबी जॉनसन से बातचीत की। केके शैलजा को उनके नेतृत्व और कोविड-19 महामारी और केरल में नीपा वायरस के प्रकोप से निपटने के लिए राष्ट्रीय और वैश्विक स्तर पर पहचान मिली है। लिबी को जमीनी स्तर और नीतिगत कार्य तथा आपदा प्रबंधन में 25 वर्षों से अधिक का अनुभव है। उन्होंने 1999 के ओडिशा में आये सुपर चक्रवात के साथ-साथ 2004 हिंद महासागर में आई सुनामी के बाद ग्राम विकास की राहत, पुनर्वास और पुनर्निर्माण गतिविधियों में कॉर्डिनेटर की भूमिका निभाई थी। 

लिबी और शैलजा ने इस बातचीत में बताया है कि कैसे अलग-अलग राज्यों के मामले में उनका भूगोल और जनसांख्यिकी अलग तरह की चुनौतियां पैदा करती हैं। उन्होंने लचीलेपन के वास्तविक अर्थ और इसे हासिल करने के तरीकों, नागरिक समाज की भूमिका, और अज्ञात आपदाओं के लिए की जाने वाली तैयारी जैसे विषयों पर भी बात की है।

नीचे दिये गये सम्पादित ट्रांस्क्रिप्ट में आप कार्यक्रम के दोनों अतिथियों की बातचीत की एक झलक पा सकते हैं।

केरल एवं ओडिशा: आपदाओं का पुराना इतिहास 

लिबी जॉनसन: प्राकृतिक आपदाएं राज्य को [ओडिशा] को कई सालों से प्रभावित करती आ रही हैं, और पिछले पांच वर्षों से तो हमारे राज्य में वार्षिक आपदा घटनाएं – चक्रवात या बाढ़ – बहुत ज्यादा होने लगी हैं। साल 2021 में, [कोविड-19] के दौरान मध्यपूर्व और ओडिशा के तटीय इलाकों में एक चक्रवात आया था। इसलिए अंतिम कुछ साल हमारे लिए संघर्ष से भरे रहे। ओडिशा सरकार ने कुछ गंभीर, सशक्त प्रारंभिक चेतावनी प्रणालियां स्थापित की हैं और इसका एक फायदा चक्रवात और इसी तरह की आपदाओं के दौरान जानमाल के नुकसान को रोकना है। 1999 के महा चक्रवात के दौरान हुए अनुभवों की तुलना में यह उल्लेखनीय प्रगति है।

ओडिशा में शहरीकरण की दर भारत में सबसे कम है।

ओडिशा की 40 फीसद आबादी अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजातीय समुदायों से है। राज्य का लगभग दो तिहाई भूगोल पहाड़ी है जिसके बड़े हिस्से में जंगल है। बाकी का बचा एक तिहाई तटीय हिस्सा सघन आबादी वाला इलाका है और यहां विभिन्न व्यवसायों से जुड़े लोग रहते हैं। ओडिशा की जीएसडीपी का लगभग एक-तिहाई हिस्सा खनन और खनिज प्रसंस्करण उद्योगों से आता है। इसलिए, जंगल और जल जैसे प्राकृतिक संसाधनों पर रोज ही इसका प्रभाव पड़ रहा है। [इलाके में] पांच बड़े नदी बेसिन और वार्षिक बाढ़ वाले इलाके हैं। [राज्य में] शहरीकरण की दर भी भारत के अन्य राज्यों की तुलना में सबसे कम है, इसलिए यहां की अर्थव्यवस्था बहुत ही ग्रामीण और कृषि प्रधान है। लेकिन सकल राज्य उत्पाद (ग्रॉस स्टेट प्रोडक्ट) में कृषि का योगदान केवल 15–16 फ़ीसद है जिसके कारण प्रवासन की दर बहुत अधिक है।

ये सभी कारक मिलकर ओडिशा को अपेक्षाकृत असुरक्षित बना देते हैं। [उदाहरण के लिए, कोविड -19 के दौरान], निचले स्तर पर स्वास्थ्य सुविधाओं के अभाव के कारण राज्य वास्तव में तैयार नहीं था। उन्होंने पंचायतों की जिम्मेदारी बढ़ाकर इससे निपटने का प्रयास किया लेकिन ओडिशा में पंचायती राज व्यवस्था अभी भी अपनी प्रारंभिक अवस्था में है, जिसके कारण तेजी से प्रतिक्रिया देने में सक्षम नहीं है।

केके शैलजा: मुझे लगता है, केरल को भी ओडिशा जैसी ही स्थिति का सामना करना पड़ता है और यह भी बाढ़ और तूफ़ान के प्रति अत्यंत संवेदनशील है। भूभाग एक जैसे हैं – जंगलों से ढके पहाड़। साल 2018 और 2019 में राज्य में विनाशकारी बाढ़ आई था और हमने ओखी जैसे तूफान का सामना किया था।

सामाजिक-आर्थिक रूप से, केरल के लिए चीजें तुलनात्मक रूप से बेहतर हैंभूमि सुधार अधिनियम, संपूर्ण साक्षरता मिशन और विकेंद्रीकृत योजना जैसे सामाजिक सुधारों के कारण राज्य का मानव विकास सूचकांक ऊंचा है। भारत के अन्य राज्यों की तुलना में केरल में गरीबी दर भी सबसे कम है। लेकिन 860 प्रति वर्ग किलोमीटर, यानी यहां का जनसंख्या घनत्व बहुत अधिक है, जो महामारी के दौरान एक बड़ा खतरा बन गया था। जीवनशैली से जुड़ी बीमारियां – उच्च रक्तचाप, मधुमेह, कैंसर – भी बड़े पैमाने पर हैं और इस दौरान चिंता का कारण बन गई थीं।

बाढ़ के पानी से भरी सड़क पर चलते लोग_आपदा प्रबंधन
1970 से 2021 के बीच 573 जलवायु-संबंधी आपदाओं में लगभग 1,38,377 भारतीयों ने अपनी जानें गंवाई हैं। | चित्र साभार: रामकृष्ण आश्रम / सीसी बीवाय

आपदा की तैयारी में क्या-क्या शामिल होता है?

1. संकट से परे लचीलेपन का निर्माण

लिबी जॉनसन: 1999 के महा चक्रवात से ओडिशा ने जान को पहुंचने वाली हानि को रोकना सीखा। पिछले कुछ वर्षों में हुई किसी भी आपदा के कारण ओडिशा में होने वाली मौतों की संख्या दहाई में नहीं पहुंची है। जहां यह एक प्रशंसनीय बात है, वहीं किसी आपदा के समय की जाने वाली प्रतिक्रिया अभी भी बहुत ही अनौपचारिक और बिना किसी तैयारी के की जाने वाली प्रतिक्रिया है। तैयारी से जुड़े बहुत सारे काम होते हैं – प्रारंभिक चेतावनी प्रणालियां अपना काम करने लगती हैं, लोगों को चक्रवात आश्रयों में ले जाया जाता है, राष्ट्रीय आपदा प्रतिक्रिया बल (एनडीआरएफ) तुरंत बचाव और राहत कार्य शुरू कर देता है। चाहे हो वह तत्काल भोजन राहत हो या फिर आश्रय सहायता, सब कुछ में बहुत अधिक मनमानी है, [जो कि] सभी अनुभवों [राज्य के अनुभव] को देखते हुए आश्चर्यजनक है। और हम फिर भी इन सभी समस्याओं के लिए तकनीकी-प्रबंधकीय समाधानों (टेक्नो-मैनेजरियल सोल्यूशंस) में भरोसा करते हैं। (इस दृष्टिकोण) की अपनी सीमाएं हैं क्योंकि यह नागरिकों को केंद्र में नहीं रखता है।

लचीलापन लंबे समय में होने वाले विकास और किसी घटना के झटके को झेलने की नागरिकों की क्षमता है। [उदाहरण के लिए], लोगों ने संपत्ति के रूप में लंबे समय तक न टिकने वाले खाद्य पदार्थों का संग्रहण कर रखा हो, लेकिन उनके बैंक में [पर्याप्त] धन नहीं हो। इसके अलावा, जिस परिवार के पास बैंक बैलेंस है और जिसके पास नहीं है, उनके बीच का अंतर बहुत स्पष्ट है। इसलिए, हमें विकास की बुनियादी बातों पर लौटना होगा, और आपदाओं के इर्द-गिर्द इस आभास को दूर करना होगा जिसके कारण लोगों को महसूस होता है कि यह कुछ ऐसा है जो बहुत अलग है।

केके शैलजा: जब भी कोई दुर्घटना होती है हम तभी [लोगों] के बारे में सोचते हैं, और यह पर्याप्त नहीं है। दोबारा बेहतर व्यवस्था के निर्माण का मतलब यह बिलकुल नहीं है कि हम बाढ़ या किसी अन्य आपदा के बाद [उसी संरचना] को दोबारा तैयार करना – इसका मतलब होता है दोबारा ऐसी व्यवस्था बनाना कि लोग इस तरह की कठिनाइयों का सामना कर सकें।

2. योजना और प्रतिक्रिया के केंद्र में नागरिकों को रखना

लिबी जॉनसन: एक नागरिक के रूप में [जब मैं इसके बारे में सोचती हूं] मेरी सरकार ने मेरे साथ कैसा व्यवहार किया है तो मुझे महसूस होता है कि मैंने कक्षा 2 के बच्चे जैसा कुछ गलत किया है और सरकार एक प्रधानाध्यापक है। चिंता और डर का एक भाव निरंतर बना रहता है। राज्य और नागरिकों को दो व्यवस्कों के रूप में एक दूसरे से व्यवहार करना चाहिए; लेकिन ऐसा नहीं हो रहा है। हमारे देश और विशेष रूप से ओडिशा में, यह एक [अपेक्षाकृत] अभिभावक और बच्चे के बीच होने वाले रिश्ते के जैसा है। एक नागरिक का अपने राज्य में विश्वास का स्तर क्या है, जो पंचायत सरपंच, जिला कलेक्टर या मुख्यमंत्री के रूप में प्रकट होता है?

मुझे लगता है कि ओडिशा की एक बड़ी आबादी को अपने मुख्य मंत्री और उनके फ़ैसलों पर बहुत अधिक भरोसा है। लेकिन जिला स्तर पर इस भरोसे की कमी है। हो सकता है कि पंचायत स्तर पर, एक सरपंच बहुत कुछ करना चाहता हो लेकिन उसके हाथ बंधे हुए हैं क्योंकि केरल में जिस तरह का विकेंद्रीकरण हुआ है, ओडिशा में नहीं हुआ है। कोविड -19 के दौरान हुई पुलिसिंग विशेष रूप से [अधिकारियों में नागरिकों का विश्वास बहाल करने में] सहायक नहीं रही है। इसलिए (जबकि) हम नागरिक को केंद्र में रखने के साथ ही, (हमें यह सुनिश्चित करने की आवश्यकता है कि हम) नागरिक के साथ एक वयस्क के रूप में व्यवहार कर रहे हैं।

3. विकेंद्रीकृत प्रणालियों पर ध्यान केंद्रित करना

लिबी जॉनसन: स्थानीय स्तर के मुद्दों को प्रभावी ढंग से प्रबंधित करने के उल्लेखनीय उदाहरण के रूप में केरल, कर्नाटक और पश्चिम बंगाल को लिया जा सकता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि इन राज्यों ने संस्थागत डिजाइन और निर्णय लेने के लिए सब्सिडियरी का सिद्धांत का पालन किया, जिसमें विकेंद्रीकरण महत्वपूर्ण था। उन्होंने तय किया कि आवश्यक निर्णय लेने का अधिकार कलेक्टर की जगह पंचायत के पास होना चाहिए। अब हम केरल में विकेंद्रीकृत योजना अभियान की रजत जयंती मना रहे हैं। साल 1996 में, जब केरल सरकार ने पंचायतों को वित्तीय रूप से सशक्त बनाने का निर्णय लिया, तो बहुत से लोगों ने इसे पैसे की बर्बादी का नाम दिया था। लेकिन [कहना उचित होगा] ऐसा नहीं है।

4. तकनीक को समावेशी तरीके से शामिल करना

लिबी जॉनसन: हमें अपनी योजनाओं में तकनीक को शामिल करने की जरूरत है। हालांकि, तकनीक से जुड़े ढेर सारे नवाचार अब भी औसत नागरिक की पहुंच से दूर हैं; और उन्हें सामने लाने की जरूरत है। उदाहरण के लिए, आप एक किसान और उसकी जमीन के लिए मौसम के पूर्वानुमानों को कैसे प्रासंगिक बनाते हैं? हमें जिला-स्तर और प्रखंड स्तर के पूर्वानुमानों से जुड़ी जानकारी मिलती है, जिससे छोटे किसानों को कुछ खास लाभ नहीं मिल पाता। हम इसे किस तरह से सामने लेकर आएं ताकि अंतिम आदमी तक इसका लाभ पहुंच सके?

5. प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाओं और सूचना प्रणाली को मजबूत करना

लिबी जॉनसन: आज हम सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली में जो कुछ भी कर रहे हैं उसे [हमें पूरी तरह] बदलने की जरूरत है। विशेष रूप से ओडिशा में, जहां तीसरे स्तर की विशिष्ट देखभाल प्रणाली के निर्माण पर ध्यान केंद्रित किया गया है और हम प्राथमिक स्वास्थ्य [व्यवस्थाओं] को नजरअन्दाज कर रहे हैं। चाहे यह एक प्राकृतिक आपदा हो या फिर मलेरिया जैसी कोई साधारण सी बीमारी, जो कि अब वापस जंगलों में लौट आई है, हम इसकी जिम्मेदारी आशा और एएनएम कार्यकर्ताओं पर नहीं छोड़ सकते हैं। और ऐसा लगता है कि प्राथमिक स्वास्थ्य समस्याओं को [अपने दम पर] हल करने के लिए हम अपनी आशा दीदियों और एएनएम दीदियों पर बहुत अधिक भरोसा करते हैं।

केके शैलजा: महामारी से हमने कई सबक सीखे, [जिनमें से एक] यह है कि इस प्रकार की आपात स्थितियों से निपटने के लिए हमें प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों को तैयार करना होगा। हमने अपनी प्रयोगशालाओं को सक्षम बनाना शुरू कर दिया है ताकि वे शुरुआत में ही बीमारियों की पहचान कर सकें, इसके साथ ही हमने दूसरे और तीसरे-स्तर के अस्पतालों को भी बेहतर बनाना शुरू कर दिया। सरकार के पास अब अच्छे ऑपरेशन थिएटर और वार्ड हैं, जिनमें बिस्तरों की संख्या भी बढ़ी है।

[हमने यह भी सीखा कि] महामारी के लिए, हमें [स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओं] को बीमारियों का शीघ्र पता लगाने के लिए प्रशिक्षित करना चाहिए। हम लोगों को महामारियों और बीमारियों के बारे में जागरूक कर रहे हैं। [कोविड-19 के दौरान], हमने ‘मेरा स्वास्थ्य मेरी जिम्मेदारी’ वाले नारे का [उपयोग] शुरू कर दिया था। हम लोगों को सिखा रहे हैं कि वे महामारी और संक्रामक रोगों के साथ कैसे अपना जीवन जी सकते हैं।

6. नागरिक समाज संगठनों के साथ साझेदारी विकसित करना

लिबी जॉनसन: एक समय ऐसा था जब ओडिशा में समाजसेवी संस्थाएं आपदा राहत, या पुनर्वास और पुनर्निर्माण सहित अंतिम व्यक्ति तक सामाजिक कल्याण के लाभ को पहुंचाने वाले सबसे सशक्त एजेंट थे। मुझे याद है कि साल 1999 में, महा चक्रवात के बाद ग्राम विकास ने चार सालों तक पुनर्वास और पुनर्निर्माण पर काम किया था। इसमें राज्य की भूमिका न्यूनतम थी। लेकिन 2013 में आए चक्रवात फेलिन के बाद ऐसा नहीं था, जब अनुदान देने वालों ने सामाजिक-तकनीक साझेदार के रूप में सरकार के साथ मिलकर दूसरे स्तर की भूमिका निभाई और पुनर्निर्माण में सरकार की भूमिका ही मुख्य थी। हालांकि, साल 2018 में तितली चक्रवात या फिर 2019 में आये फानी चक्रवात के बाद, सरकार को तकनीक या सामाजिक भागीदार के रूप में [नागरिक समाज] की आवश्यकता नहीं थी क्योंकि उन्हें भरोसा था कि वे अपने दम पर इससे निपट सकते हैं।

ओडिशा को अपनी पंचायत प्रणालियों को मजबूत करने के लिए भी संगठनों की आवश्यकता है।

राज्य अब परिवारों को वित्तीय सहायता प्रदान कर रहा है, और लोग आवास योजना (सबऑप्टीमल हैबिटैट प्लानिंग) का विकल्प चुन रहे हैं। पर्यावास योजना या हैबिटैट प्लानिंग, यानी बड़े पर्यावरण के हिस्से के रूप में और सार्वजनिक सामान्य स्थानों को ध्यान में रखते हुए व्यक्तिगत घरों को डिजाइन करना, पूरी तरह से नियंत्रण से बाहर हो गई है। ऐसा पूरे ओडिशा में [हो रहा है] कि आपदाओं के बाद, लोगों के घर बेहतर ढंग से बनाए जा रहे हैं, लेकिन आवास के मामले में ऐसा नहीं है। इसके लिए विशिष्ट कौशल और तकनीकी अभिविन्यास की आवश्यकता होती है, जो समाजसेवी संस्थाएं और नागरिक समाज संगठन अपने साथ लेकर आते हैं।

ओडिशा को अपनी पंचायत [प्रणालियों] को मजबूत करने के लिए भी संगठनों की आवश्यकता है, और ऐसा सरपंचों को अधिक शक्ति देकर नहीं किया जा सकता है। [पंचायत मज़बूत तब बनती है] जब नागरिक-पंचायत के बीच का संबंध मज़बूत हो। स्थानों के व्यापक प्रसार और दूरस्थता, और लोगों की शिक्षा [स्तरों] में व्यापक विविधता को देखते हुए, [राज्य] को एक उत्प्रेरक की आवश्यकता है – [इसे] सुविधा प्रदान करने वाले संगठनों की आवश्यकता है। और दुर्भाग्य से, केरल और कुछ अन्य राज्यों के विपरीत, ओडिशा में साक्षरता मिशन या सामाजिक सुधार आंदोलनों जैसे जन आंदोलनों का कोई इतिहास नहीं है। इसलिए, ऐसा करने के लिए हमें मौजूदा नागरिक समाज संगठनों के पास वापस जाना होगा। और साझेदारी की यही वह प्रकृति है जिसे हमें शामिल करने की जरूरत है।

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समाजसेवी संस्थाएं अपनी विफलताओं पर बात क्यों नहीं करती हैं?

व्यावसायिक दुनिया में, तेजी से असफल होने और फिर उससे कहीं अधिक तेजी से तरक्की करने के बारे में बात करने का चलन है। नई कंपनियां लगातार अपने उत्पादों, सेवाओं और बिज़नेस मॉडल्स को सामने ला रही हैं और उन्हें दोहरा भी रही हैं। व्यावसायिक दुनिया ने यह बात समझ ली है कि बिना जोखिम उठाए नई तरह का काम करना संभव नहीं है और साथ ही यह भी कि जोखिम उठाने में असफल होने की भी पूरी संभावना होती है। लेकिन ऐसा क्यों है कि समाजसेवी संगठनों की दुनिया में लोग इस तरह से नहीं सोचते हैं?

कई विकसित देशों में व्यवसाय के दौरान मिली विफलता को सामान्य बताया जाता रहा है। लेकिन समाजसेवी संस्थाओं को लेकर – विशेष रूप से भारत में – चीजें ऐसी नहीं हैं। हालांकि इस सेक्टर के ज्यादातर लीडर विफलता की अनिवार्यता और इससे हमें मिलने वाले मूल्यवान सबक की महत्ता को समझते हैं, लेकिन वे इसे स्वीकार्य करने को तैयार नहीं है। यह समस्या समाजसेवी संगठनों, कॉर्पोरेट फाउंडेशन और कल्याणकारी संस्थाओं सभी में समान रूप से दिखाई देती है।

साल 2020 में, हमारी संस्था इंडिया डेवलपमेंट रिव्यू ने फेल्यर फाइल्स नाम से एक पहल शुरू की। हमारा लक्ष्य एक ऐसी जगह बनाना था जहां सामाजिक उपक्रमों को करते हुए मिली विफलताओं पर अधिक खुलेपन और सहजता से बातचीत की जा सके। इनके जरिए सेक्टर के अन्य लोग अपने साथियों के अनुभवों से सीख सकें और उन्हीं गलतियों को दोहराने से बच सकें। दो वर्षों में हमने समाजसेवी और परोपकारी संस्थाओं के बीच विफलता की धारणा के बारे में बहुत कुछ सीखा। यह भी जाना कि असफलताओं पर खुलकर चर्चा करने में आने वाली बाधाओं और कमजोरियों और चुनौतियों को साझा करने के लिए अनुकूल वातावरण बनाने के लिए क्या करने की आवश्यकता है।

असफलता के बारे में खुलकर बात करने के रास्ते में कौन सी बाधाएं आती हैं?

1. प्रतिष्ठा का जोखिम

भारत में, हमारी परवरिश ‘लोग क्या कहेंगे’ वाली सोच के इर्द-गिर्द की जाती है। दूसरे शब्दों में कहें तो, सांस्कृतिक रूप से, हम अपने पड़ोसियों और सगे-संबंधियों की राय पर बहुत अधिक ध्यान देते हैं। अक्सर ये चीजें हमारे काम को या काम को लेकर होने वाली बातचीत को प्रभावित और निर्धारित करती हैं। और, स्वाभाविक रूप से यही प्रवृति सामाजिक सेक्टर में भी दिखाई पड़ती है।

यह देखते हुए कि समाजसेवी नेता सामाजिक परिवर्तन की जटिल समस्याओं को हल करने का प्रयास कर रहे हैं – जिनमें से अधिकांश के लक्ष्य बदलते रहते हैं – जब चीजें काम नहीं कर रही होती हैं तो वे इसे स्वीकार करने में झिझकते हैं। इस बात को लेकर चिंता जायज है कि उनकी छवि कैसी हो जाएगी और इससे उनकी क्षमता के बारे में क्या पता चल सकता है। एक्यूमेन एकेडमी इंडिया के पूर्व कार्यक्रम प्रमुख अब्बास दादला इसे स्पष्ट शब्दों में समझाते हुए कहते हैं कि ‘मुझे लगता है कि कारण (असफलता को ना स्वीकार करना) बहुत ही सरल है और फिर भी इससे उबरना बहुत कठिन है: एक विशेष छवि में दिखना या देखे जाने की आवश्यकता, और किसी व्यक्ति की आत्म-छवि, जो कि आंशिक रूप से खुद की बनाई होती है और आंशिक रूप से समाज द्वारा तय की जाती है। सामाजिक सेक्टर में, हम लगातार उपलब्धियों, पुरस्कारों और सम्मानों का जश्न मनाने वाले व्यवहार को बढ़ावा देते हैं। यह समझते हुए कि हमारी असफलता की कहानियां दूसरों को कैसे लाभान्वित कर सकती हैं, हम इसके फायदे ना देखकर केवल इससे होने वाले नुकसान पर ही ध्यान देते हैं।’

2. संगठनात्मक संस्कृति

संगठन की संस्कृति भी यह तय करने में बड़ी भूमिका निभाती है कि असफलता के बारे में कितनी और किसकी उपस्थिति में तथा कितनी बार बात की जा सकती है। किसी भी संगठनात्मक ढांचे में, प्रोत्साहन और पुरस्कार का डिज़ाइन लोगों और टीम के कार्य करने के तरीके पर प्रभाव डालता है। यदि नेता सीखने और खुलेपन की संस्कृति को प्रोत्साहित नहीं करता है तो यह प्रवृत्ति पूरे संगठन में देखने को मिलती है।

फाउंडेशन फॉर मदर एंड चाइल्ड हेल्थ की सीईओ श्रुति अय्यर ने एक महिला के रूप में असफलता के बारे में सार्वजनिक रूप से बोलने के चलते आने वाली चुनौतियों के बारे में बताया। ‘लिंग की अपनी भूमिका होती है। एक महिला लीडर के रूप में, आपको अतिरिक्त झिझक होती है क्योंकि लोग पहले से ही यह मान कर बैठे हैं कि आप ‘नम्र’ और ‘कमजोर’ हैं। और इसलिए, जब आप असफलता के बारे में बात करती हैं तो आपको इस बात की चिंता होती है कि यह एक और कारण है कि आपको एक लीडर के रूप में गंभीरता से नहीं लिया जाएगा।’

किसी भी संगठनात्मक ढांचे में, प्रोत्साहन और पुरस्कार का डिज़ाइन लोगों और टीम के कार्य करने के तरीके पर प्रभाव डालता है।

साल 2020 में, श्रुति ने फेल्यर फाइल्स के लिए एक लेख लिखा था, जो उस साल के बारे में बताता है जिसमें सफलता के बाहरी पैमानों पर खरी उतरने के बावजूद, वे एक संस्था प्रमुख, सहकर्मी, बेटी, दोस्त और साथी के रूप में विफल रहीं। वे स्वीकार करती हैं कि संगठन से बाहर निकल जाने और अपने आसपास साथ एवं सहयोग का एक इकोसिस्टम बना लेने के बाद असफलता के बारे में सार्वजनिक रूप से बात करना आसान हो गया था। विशेष रूप से, अन्य विफल महिला नेताओं के बारे में जानकार उन्हें यह स्वीकार करने में मदद मिली कि वे अकेली नहीं थीं। हालांकि वे अब भी इस पर काम कर रही हैं, लेकिन उनका मानना है कि संगठनों के भीतर सीखने की संस्कृति को विकसित करना महत्वपूर्ण है, ताकि टीम अपनी विफलताओं के बारे में खुलकर और सहजता से बात कर सके।

‘अपनी विफलताओं के बारे में सहज होने के बाद भी, मैं अक्सर खुद से यह पूछती हूं कि: असफलता को लेकर मेरा संगठन किस प्रकार की संस्कृति को मानता है? क्या मेरी टीम समझती है कि असफल होना ठीक है? क्या मैं उनके साथ अपनी असफलताओं को लेकर सक्रिय रूप से संवाद करने की क्षमता रखती हूं? और टीम से परे, क्या मैं अपने बोर्ड के सदस्यों, दाताओं और अन्य हितधारकों से इस तरह के संवाद कर पाऊंगी?’

कांटेदार तार_समाजसेवी संगठन
सामाजिक सेक्टर में हम उपलब्धियों का जश्न मनाने वाले व्यवहार को लगातार बढ़ावा देते हैं और उसे मजबूत बनाते हैं। | चित्र साभार: फ्लिकर / सीसी बीवाय

3. फंडरसमाजसेवी संगठनों के बीच का शक्ति असंतुलन

भारत में लगभग 35 लाख समाजसेवी संस्थाएं सक्रिय बताई जाती हैं जो 30 राज्यों और 600 से अधिक जिलों में फैली हुई हैं और लाखों लोगों को अपनी सेवाएं दे रही हैं। इन सभी संस्थाओं को व्यक्तिगत परोपकारियों, कॉर्पोरेट सोशल रिस्पॉन्सिबिलिटी (सीएसआर) के लिए आवंटित बजटों, द्विपक्षीय एवं बहुपक्षीय एजेंसियों तथा फाउंडेशनों से मिलने वाले अपर्याप्त फंड के लिए प्रतिस्पर्धा करनी पड़ती है। एक बहुत सीमित संसाधनों वाले क्षेत्र में मांग एवं आपूर्ति के बीच का परिणामी अंतर, फंडरों और अनुदान प्राप्तकर्ताओं के बीच पहले से ही मौजूद असमान शक्ति संतुलन को बढ़ाता है।

अक्सर यह मामला तब और जटिल हो जाता है जब फंड देने वाले यह चाहते हैं कि उनके द्वारा आवंटित धन का एक बड़ा हिस्सा (अगर पूरा नहीं भी तो) कार्यक्रम और सेवा प्राप्त करने वाले समुदाय पर खर्च किया जाए। इसके कारण प्रयोग तथा नए तरह के कामों की तो बात ही छोड़ दें, संगठन के संचालन में आने वाले खर्च के लिए भी बहुत कम धन बच पाता है। दूसरे शब्दों में कहें तो, असफलता के लिए किसी तरह की जगह ही नहीं है। और इसलिए, समाजसेवी संगठनों के नेता इसके प्रति सावधान होते हैं क्योंकि उन्हें इस बात का डर होता है कि असफलता स्वीकार करने से उन्हें आगे मिलने वाला अनुदान खतरे में ना पड़ जाए।

फंड देने वाले के प्रकार और उनके निर्देशों पर भी यह निर्भर करता है कि फंड देने वाले विफलता से सीखने के लिए तैयार हैं या नहीं।

सेल्को फाउंडेशन के निदेशक हुडा जाफ़र यह कहते हुए दूसरा पक्ष रखते हैं कि यह कोई पत्थर पर लिखी इबारत नहीं है और समाजसेवी संस्थाओं का रुख इस बात पर भी निर्भर करता है कि उनके फंडर किस तरह के हैं। ‘फंड देने वाले के प्रकार और उनके निर्देशों पर भी यह निर्भर करता है कि फंड देने वाले विफलता से सीखने के लिए तैयार हैं या नहीं। हमारा अनुभव कहता है कि द्विपक्षीय और बहुपक्षीय फंडिंग एजेंसियों के लिए अपने भागीदारों के साथ, प्रतिक्रिया देने और सीखने की लगातार चलने वाली कारगर व्यवस्था बनाना बहुत कठिन है क्योंकि ऐसा संभव है कि उनकी संरचना में एक निश्चित समयावधि के बाद ही बदलाव किया जा सकता हो। इसके विपरीत, हमने पाया कि परोपकारी संस्थाओं और पारिवारिक फाउंडेशन की मानसिकता लगातार सीखने वाली हो सकती है और वे विफलता के लिए धन देने वाले बेहतर उम्मीदवार साबित हो सकते हैं। पूंजी के स्त्रोत का प्रकार, यानी, चाहे वह कोई करदाता हो या फिर सार्वजनिक धन बनाम निजी धन, इस बात की भी गुंजाइश पैदा करता है कि नेतृत्व करने वाले लोगों को प्राथमिकताओं में संशोधन करना होगा और उन्हें लगातार ज़मीनी अनुभवों से सीखना होगा।’

हालांकि ज़िम्मेदारी केवल फंडर या अकेले समाजसेवी संस्थाओं की नहीं है। किसी तरह पूरी की पूरी व्यवस्था, सफलता और प्रभाव के इस मुखौटे को बरकरार रखते हुए अनजाने में विफलता के इर्द-गिर्द पसरी हुई चुप्पी को जस का तस बनाए हुए है। 

ट्रांसफॉर्म रूरल इंडिया फाउंडेशन के सह-प्रमुख अनीष कुमार का मानना ​​है कि अपनी विफलताओं के बारे में बात किए बिना प्रभावी ढंग से विकास कार्य करना संभव नहीं है, क्योंकि जोखिम उठाने और नवाचार के बिना सामाजिक प्रभाव को आगे बढ़ाने का कोई दूसरा रास्ता नहीं है।

‘विकास सेक्टर के संघर्ष को देखते हुए, हमारी विफलता की दर लाभ-कमाने वाले उद्यमों या स्टार्ट-अप की तुलना में अधिक होनी चाहिए। और फिर भी, हर कोई एक तरह से इस दिखावे को बनाए रखने और हमारे काम की इस वास्तविकता के बारे में बात नहीं करने में अपनी भूमिका निभा रहा है। फंडिंग संगठनों के कार्यक्रम अधिकारियों से लेकर अनुदान प्राप्त करने वाले साझेदारों तक – हर किसी पर कार्यक्रम से आए बदलावों के बारे में बताने का दबाव होता है, यह बताता है कि हम कितने ईमानदार हैं, और हम उन चीजों से क्या सीख सकते हैं जो काम नहीं करती हैं। और इसलिए हमारे सेक्टर में किसी परियोजना के वास्तविक जोखिमों को कम दिखाने और इसे इस तरह से तैयार करने की प्रवृत्ति दिखाई पड़ती है जिससे प्रस्ताव और अनुदान को मंजूरी मिल सके।’

क्या बदले जाने की जरूरत है

1. हमें असफलता से जुड़ी एक नई तरह की कहानी की जरूरत है

जब बात असफलता की आती है तो हमें अपनी मानसिकता और इससे जुड़ी कथा और कहन को बदलने की जरूरत है। इसे अधिक तटस्थ बनाने और भाषा को ‘असफलता’ के बजाय ‘सबक’ के इर्द-गिर्द रखने से लोगों को यह स्पष्ट करने में मदद मिल सकती है कि क्या नहीं करना है और अगली बार बेहतर कैसे करना है। जब हमने फेल्यर फाइल्स शुरू की तो हमने इस दृष्टिकोण को अपनाया और पाया कि इससे लोगों द्वारा अपनी कहानियों को बताने के तरीके और व्यवस्था द्वारा उन कहानियों को स्वीकार किए जाने के तरीके में अंतर आया है।

उदाहरण के लिए मनजोत कौर ने यह बताया कि कैसे उनकी आधिकारिक नेतृत्व शैली के कारण उनका संगठन अपने लक्ष्यों को पूरा करने में असफल रहा और जिसके बाद उन्होंने स्वयं को एक साहसी और अधिक नम्र नेता के रूप में बदला। उसी प्रकार, एक फ़ंडर के साथ शक्ति असंतुलन में फंसने के बाद दिलीप पत्तुबाला ने लिखा कि कैसे उन्होंने मुश्किल फैसले लेने और अपने संगठन के दृष्टिकोण के प्रति सच्चे रहने के महत्व को सीखा- जिन सबकों ने उनके संगठन को कोविड-19 महामारी से सफलतापूर्वक निपटने में मदद की।

हमें इस बात को पहचानने की भी जरूरत है कि विफलता बहुत अधिक प्रासंगिक है; यह समय-आधारित (एक समय में जो कार्यक्रम असफल लग रहा हो, संभव है कि बाद में उसे अपार सफलता मिले) होती है; और सफलता के उन मानदंडों से जुड़ी होती है जिन्हें हम स्वयं मानते हैं। केवल इसलिए कि हम उन मानदंडों को पाने में विफल रहे हैं, इसका यह मतलब नहीं है कि किसी अन्य दिशा में प्रगति नहीं हुई है।

2. हमें ईमानदार संवाद के लिए एक सुरक्षित जगह बनाने की जरूरत है

सेल्को फाउंडेशन विकास कार्यों में विफलताओं से उभरे सबक का जश्न मनाने पर केंद्रित एक सम्मेलन का आयोजन करता है। सेल्को फाउंडेशन में नॉलेज एंड एडवोकेसी की एसोसिएट डायरेक्टर रचिता मिश्रा के अनुसार, ‘हालांकि बंद कमरे में बातचीत आपको अपनी विफलता स्वीकार करने में मदद करती है, लेकिन वे पूरे तंत्र के भीतर बड़े बदलाव नहीं लाती हैं। सीखने के लिए, क्या कारगर रहा और क्या नहीं, इसका विश्लेषण प्रभावी ढंग से किया जाना चाहिए और इसे सार्वजनिक रूप से साझा भी किया जाना चाहिए।’ श्रुति उनकी बात को आगे बढ़ाते हुए कहती हैं कि ‘यह महत्वपूर्ण है कि इन जगहों पर ग़ैर-निर्णयात्मक दृष्टिकोण के आधार पर बातों को सुना जाए और आपको अपनी गलती बताने वाले लोगों की संख्या कम से कम हो। इसके बदले, मैं इसे सुनने और दूसरे लोगों, खासकर स्थापित लीडर्स की विफलताओं से सीखने के अवसर के रूप में देखती हूं।’

एक्यूमेन अकादमी फ़ेलोशिप भी पिछले कुछ वर्षों से अपने लीडर्स के समूह के साथ ऐसा कर रही है। हर साल, वे विश्वास और समुदायिकता का माहौल बनाने के लिए एक नए समूह के साथ काम करते हैं, ताकि उनके साथी खुलकर अपनी चुनौतियों या असफल नीतियों और नज़रियों को साझा कर सकें। अब्बास कहते हैं कि ‘हम इस कार्यक्रम में भाग लेने वाले लोगों की मदद करते हैं ताकि वे उन मान्यताओं को समझ सकें जो अब उनके काम नहीं आ रही हैं, [वे] धारणाएं और व्यवहार जो उन्हें पीछे खींच रहे हैं। इसके अलावा हम असफलताओं के बाद उन्हें फिर से नई शुरुआत करने में उनकी मदद करते हैं।’

अंत में, संगठन के भीतर भी, यह नेतृत्व की ही जिम्मेदारी होती है कि वह सीखने और चिंतन की संस्कृति को बढ़ावा दे ताकि गलतियों की पहचान की जा सके और उन्हें तुरंत ठीक किया जा सके।

3. इसे एक सामूहिक प्रयास के रूप में किए जाने की जरूरत है, और इसमें फंडर की भूमिका बहुत बड़ी होती है

हुडा का मानना है कि ‘जब एक फंडर खुलेपन, लचक और पारदर्शिता की संस्कृति लेकर आता है, तो इससे समाजसेवी संस्थाओं को न केवल अपनी सीख साझा करने में सुविधा होती है बल्कि उन प्रतिक्रियाओं को समझने और उसके आधार पर प्रक्रिया निर्माण के बाद उसे काम में लेने में भी मदद मिलती है।’

रचिता इसमें अपनी बात जोड़ते हुए कहती हैं कि विफलता पर बातचीत शुरू करने की ज़िम्मेदारी फंडर और समाजसेवी संस्था दोनों की है। ‘संस्था प्रमुखों को यह भी सुनिश्चित करने की ज़रूरत है कि उनके पास विभिन्न प्रकार के फंडर हों, और साथ ही उन्हें यह सुनिश्चित करने की दिशा में भी कदम उठाना होगा कि संगठन की संस्कृति किसी एक प्रकार के फंडर द्वारा परिभाषित न हो। विफलता पर बातचीत की शुरुआत दोनों पक्षों द्वारा समान रूप से की जानी चाहिए; एकतरफा बातचीत टिकाऊ नहीं होती है।’

अंत में, विफलताओं को स्वीकार करना और खुले तौर पर चर्चा करना किसी एक इकाई का एकमात्र काम नहीं हो सकता है। इसे एक सामूहिक प्रयास का रूप देने की जरूरत है, ताकि इससे मिलने वाले ज्ञान का लाभ इस तंत्र के विभिन्न सहभागियों तक पहुंच सके, और सबसे महत्वपूर्ण रूप से उन समुदायों को जिनकी सेवा के लिए ये मौजूद हैं।

यह लेख मूल रूप से अलायंस मैगजीन में प्रकाशित हुआ है।

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क्यों सामाजिक संस्थाओं को लोकल और ग्लोबल स्तर पर साथ काम करना चाहिए

सामाजिक विकास के कार्यक्षेत्र में काम कर रही स्वयंसेवी संस्थाओं की देश के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका रही है। भारत के संदर्भ में देखें तो समाज के वंचित वर्गों को अपने अधिकारों के प्रति जागरूक करने से लेकर, सरकारी योजनाओं के बेहतर क्रियान्वयन तथा नीतिगत स्तर पर सरकारों को जनहित में सुझाव देने तक सामाजिक संस्थाएं अपनी भूमिका का निर्वहन करती रही हैं। भारत में सूचना के अधिकार, शिक्षा के अधिकार, खाद्यान्न सुरक्षा के अधिकार, रोजगार और अन्य जनकल्याण से जुड़े महत्वपूर्ण कानूनों के प्रति समाज में समझ बनाने और इन कानूनों के समुचित क्रियान्वयन के लिए वातावरण निर्माण करने में सामाजिक संस्थाओं की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि सामाजिक संस्थाओं का जमीनी स्तर पर लोगों से सीधा जुड़ाव रहता है और इस कारण समाज के वंचित, पिछड़े वर्गों की जरूरतों की इन्हें बेहतर समझ होती है।

समाज, देश और दुनिया के बदलते संदर्भों के साथ सामाजिक संस्थाओं की प्राथमिकताओं और कार्यशैली में बदलाव होते रहे हैं। सामाजिक विकास के क्षेत्र में लम्बे समय तक काम करने और अपने अस्तित्व को बनाए रखने के लिए संदर्भ के अनुरूप प्रासंगिक बने रहना जरूरी भी है। अब इसके लिए बहुत छोटे स्तर के प्रयासों को इस तरह करते रहने की ज़रूरत है जिससे जिग्सॉ पहेली के हिस्सों की तरह हमारे बड़े और वैश्विक उद्देश्यों में फिट हो सकें। इस आलेख में हम बात करेंगे कि भारत में अलग-अलग कालखंडों में संदर्भों के अनुरूप सामाजिक संस्थाओं के स्वरूप और कार्यप्रणाली में क्या बदलाव हुए हैं। साथ ही, वर्तमान में किस प्रकार स्वयं को प्रासंगिक बनाए रखते हुए प्रभावशाली तरीके से विकास कार्यों में अपनी पहचान बनाई जा सकती है।

सामाजिक संस्थाओं की कार्यशैली में बदलाव का इतिहास

आजादी से पहले ज्यादातर सामाजिक संस्थाएं स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़ी हुईं थीं। ये छुआछूत, सती प्रथा जैसी सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ काम कर रहीं थीं। इन संस्थाओं में प्रमुख रूप से हरिजन सेवक संघ, प्रार्थना सभा, आर्य समाज, सत्य शोधन समाज और नेशनल काउंसिल फॉर वुमन वगैरह का नाम लिया जा सकता है। साथ ही, खादी के प्रचार या स्वदेशी चीजों को अपनाने जैसे रचनात्मक कामों में भी ये संस्थाएं बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रहीं थीं। 1950 से 1970 के दौर में, जब भारत तमाम तरह की सामाजिक और आर्थिक चुनौतियों से जूझ रहा था और अपने पैरों पर खड़ा होने के लिए प्रयासरत था। सामाजिक संस्थाएं भी इसी सोच से प्रेरित होकर सरकार का सहयोग कर रही थीं।

1970 से 1990 के कालखंड में सामाजिक संस्थाओं के स्वरूप व कार्यशैली में व्यापक स्तर पर बदलाव हुआ। इस समय हमारे देश में पाकिस्तान युद्ध, आपातकाल, सीमा पार आतंकवाद और बढ़ती ग़रीबी-बेरोज़गारी के चलते असंतोष और आक्रोश का वातावरण बन रहा था। यही वह समय था जब सामाजिक संस्थाएं सरकारों से प्रश्न करने लगीं, सरकारी नीतियों पर सवाल उठाने और उन पर बहस का चलन शुरू हुआ। लैंगिक समानता, शिक्षा, स्वास्थ्य, महिला सशक्तिकरण, स्वच्छता, वन अधिकार, शुद्ध पेयजल, बाल अधिकार जैसे मुद्दों पर मानव अधिकार के परिप्रेक्ष्य में संस्थाएं कार्य करने लगी। यह दौर ‘अधिकार आधारित’ दृष्टिकोण पर केंद्रित रहा और जन भागीदारी से सरकारों की जवाबदेही पर सवाल उठाए जाने लगे। 1990 के उपरांत हम पाते हैं कि सामाजिक संस्थाएं नीति निर्माण में सहयोग भी करने लगी और साथ ही साथ जन कल्याण के मुद्दों पर सरकारों का ध्यान भी खींचने लगीं।

रजिस्टर को भरने का काम करती महिला_सतत विकास लक्ष्य
अब वैश्विक स्तर पर ‘जवाबदेही’ या वैश्विक विकास में ‘सामूहिक भागीदारी’ पर बात की जाने लगी। | चित्र साभार: फ़्लिकर 

समाजसेवी संस्थाओं की वर्तमान कार्यशैली

पिछली सदी का आख़िरी दशक, वह समय था जब अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर वैश्वीकरण के चलते बदले परिदृश्य में संयुक्त राष्ट्र संघ सहित दुनिया के तमाम मंचों पर सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक व पर्यावरण जैसे गंभीर मुद्दों पर गंभीर चिंतन शुरू हुआ। अब वैश्विक स्तर पर ‘जवाबदेही’ या वैश्विक विकास में ‘सामूहिक भागीदारी’ पर बात की जाने लगी। इसे एक उदाहरण से समझें तो साल 1992 और 2012 के पृथ्वी सम्मेलन (रियो समिट) के अंतर्गत वैश्विक सामूहिक भागीदारी पर संवाद शुरू हुआ। इसमें सतत विकास (सस्टेनेबल डेवलपमेंट) को केन्द्र में रखकर दुनिया को एक मंच पर लाने के प्रयास शुरू हुए। यही वह समय था जब जलवायु परिवर्तन जैसी गंभीर समस्या पर सभी राष्ट्रों से मिलकर सामूहिक रणनीति बनाने का आह्वान किया गया। विकसित, विकासशील और गरीब राष्ट्रों की अलग-अलग जिम्मेदारियों पर बहस शुरू हुई। इस प्रकार अब व्यापक संदर्भों के साथ सामाजिक मुद्दों पर कार्य करने की आवश्यकता महसूस हुई।

इस समयकाल में हमने देखा के वे मुद्दे जो कल तक सामाजिक थे, या पिछले दशक में राजनीतिक हुए थे, वे अब वैश्विक होने की तरफ बढ़ने लगे। हमने पाया कि अब जिस प्रकार विकास की प्रक्रियाएं वैश्विक स्तर पर चल रही हैं, उनके साथ कदम-ताल मिलाकर चलना भी जमीनी स्तर की संस्थाओं के लिए जरूरी हो गया है। समाजिक संस्थाओं के लिए जरूरी हो गया है कि यदि इन वैश्विक प्रक्रियाओं को नहीं समझेंगे तो हम शायद एक दायरे तक सीमित रह जाएंगे और स्वयं को वर्तमान समय के अनुकूल प्रासंगिक बनाए रखने की चुनौती खड़ी हो जाएगी। इस दौरान संस्थाओं ने साझा उद्देश्यों के लिए साथ आने, समुदाय की समस्याओं के हल समुदाय से ही निकालने पर ज़ोर देने और आर्थिक-सामाजिक-वैचारिक स्तर पर लगातार बदलते रहने की तैयारी रखने जैसे गुर सीखे।

एक बार फिर बदलाव की जरूरत

आज वैश्वीकरण के युग में यह बात स्थापित हो चुकी है कि केवल आर्थिक ही नहीं सामाजिक, सांस्कृतिक और पर्यावरणीय विषय भी अंतर्राष्ट्रीय, राष्ट्रीय से लेकर जमीनी स्तर तक प्रभाव डालते हैं। जलवायु परिवर्तन, सतत विकास लक्ष्य, लैंगिक समानता जैसे मुद्दे वैश्विक मंचों से लेकर स्थानीय स्तर तक, एक बराबर प्रासंगिक हैं। विकास के मुद्दों को वैश्विक संदर्भों के चश्मे से देखते हुए अपने काम के दायरे में लाने के लिए जमीन पर काम कर रही संस्थाओं की क्षमता बढ़ाए जाने की जरूरत है। सरल शब्दों में कहा जाए तो छोटे प्रयास करते हुए बड़े उद्देश्यों और बड़े निर्णय लेते हुए उसके ज़मीनी प्रभावों पर साथ-साथ विचार किया जाना चाहिए।

कुछ उदाहरणों पर गौर करें तो, यदि कोई संस्था खेती-किसानी के मुद्दों पर काम करती है तो उसके लिए यह समझना जरूरी है कि जलवायु परिवर्तन का असर खेती पर किस प्रकार दिखाई दे रहा है। वह इसका सामना करने के लिए किस तरह के बदलाव और इसका असर कम करने के लिए क्या तरीके अपना सकती है। बीजों, कीटनाशकों, सिंचाई के तरीके और यहां तक कि कौन सी फसल बोई जाएगी, यह तय करते हुए भी संस्थाएं वैश्विक जलवायु उद्देश्यों को ध्यान में रख सकती हैं। साथ ही, उन्हें यह भी समझना होगा कि संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा निर्धारित किए गए सतत विकास लक्ष्यों में उनका काम किस लक्ष्य को संबोधित करता है।

लैंगिक बराबरी का लक्ष्य, संयुक्त राष्ट्र द्वारा तय किए गए 17 सतत विकास लक्ष्यों में पांचवें नंबर पर आता है।

इसी प्रकार, यदि कोई संस्था लैंगिक समानता व महिला सशक्तिकरण पर केंद्रित होकर काम करती है तो इस विषय पर किए गए कार्य लैंगिक बराबरी के लक्ष्य को लेकर किए प्रयासों में आते हैं। लैंगिक बराबरी का लक्ष्य, संयुक्त राष्ट्र द्वारा तय किए गए 17 सतत विकास लक्ष्यों में पांचवें नंबर पर आता है। इसमें महिलाओं और बच्चियों के साथ भेदभाव को मिटाने, उनके खिलाफ हिंसा को रोकने, उनके नेतृत्व विकास, निर्णय में भागीदारी, आर्थिक स्वावलंबन, प्रजनन स्वास्थ्य तक उनकी पहुंच सुनिश्चित करने को शामिल किया जाता है। यदि कोई जमीनी संगठन ग्रामीण क्षेत्र में घरेलू हिंसा के खिलाफ कोई अभियान चला रहा है तो उसका अपने इस अभियान को सार्वभौमिक सतत विकास लक्ष्यों से जोड़कर देख पाना, इस कार्य को एक व्यापक संदर्भ प्रदान कर देता है। यदि संस्थाएं अपने कार्यों को वैश्विक विकास की प्रक्रियाओं व संदर्भों से जोड़ते हुए अपने दस्तावेज तैयार करेंगी तो उनके द्वारा दाता संस्थाओं पर बेहतर प्रभाव छोड़ सकने की संभावना भी बढ़ जाती है।

माइक्रो और मैक्रो स्तरों पर साथ काम करना

सामाजिक विकास के मुद्दों पर, विभिन्न वैश्विक मंचों पर चल रही चर्चा-प्रक्रिया को समझकर उनका स्थानीय स्तर के सामाजिक सरोकारों से संबंध को देख पाना इसका पहला कदम है। दूसरा कदम, स्थानीय मुद्दों को वैश्विक मंचों तक पहुंचाने की प्रक्रिया को जानना व उनमें भागीदार होने के लिए क्षमताओं का विकास करना है। आज के तकनीकी युग में यह काम बहुत मुश्किल भी नहीं है, बस हमें ग्लोबल से लोकल और लोकल से ग्लोबल के अंर्तसंबंधों पर समझ बनाने की जरूरत है। यदि हम ऐसा कर पाते हैं तो हमारी पहचान के साथ-साथ, काम करने के बेहतर अवसर भी खुलेंगे।

संस्थाएं जो विभिन्न समुदायों के साथ जुड़कर शिक्षा, स्वास्थ्य, महिला सशक्तिकरण, पर्यावरण और कृषि जैसे विभिन्न सामाजिक मुद्दों पर कार्य कर रही है, मगर संसाधनों व जानकारी के अभाव में अपने कार्यों को व्यापक संदर्भों के साथ नहीं जोड़ पाती है, उनकी क्षमताओं के विकास के लिए अन्य संस्थाओं का आगे आना होगा। ये अन्य संस्थाएं वे हैं जिनके पास माइक्रो-मैक्रो स्तर पर एक साथ समांतर कार्य करने का अनुभव है। अपने अनुभव के साथ ये संस्थाएं जमीनी स्तर की संस्थाओं के लिए प्रशिक्षण और कार्यशालाएं आयोजित कर उनका क्षमतावर्धन कर सकती हैं।

बेहतर तो यह होगा कि प्रत्येक राज्य में सामाजिक विकास की संस्थाओं का एक ऐसा मंच तैयार हो जहां संवाद के जरिए सीखने-सिखाने की प्रक्रिया निरंतर चलती रहे। इस सहभागी मंच में विकास की वैश्विक प्रक्रियाओं, अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों, संस्थागत विकास, वैश्विक व स्थानीय मुद्दों में अंतर्संबंध और संसाधन जुटाने की बेहतर रणनीति जैसे विषयों पर निरंतर संवाद होता रहे । इस तरह के प्रयासों से निश्चित तौर पर बेहतर परिणाम मिलेंगे और सामाजिक संस्थाओं में आत्मविश्वास भी जागृत होगा। साथ ही, ये संस्थाएं स्वयं को आज के संदर्भों में गतिशील व प्रासंगिक बनाए रख पाने में सक्षम हो सकेंगी।

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जलवायु समस्या का हल मिल गया है!

राजस्थान मे बारिश के कमी पर पिता-पुत्र सवांद_बारिश एवं फसल
चित्र साभार: श्रुति रॉय

पर्यावरण बचाने के लिए आंदोलन खड़ा करने में क्या-क्या लगता है?

स्टालिन दयानंद एक पर्यावरणविद हैं जो दो दशकों से महाराष्ट्र में आर्द्रभूमि (वेटलैंड) एवं जंगलों की सुरक्षा के लिए नागरिक आंदोलन खड़ा करने पर काम कर रहे हैं। पर्यावरण से जुड़ी क़ानूनी जानकारी, पर्यावरण की शिक्षा और जमीनी स्तर पर इसका संरक्षण करना उनके काम के प्रमुख आधार हैं। मुंबई में संरक्षण का काम करने वाली एक समाजसेवी संस्था वनशक्ति के निदेशक स्टालिन कई पर्यावरण अभियानों में सबसे आगे रहे हैं। इनमें आरे बचाओ आंदोलन (सेव आरे मूवमेंट),सिंधुदुर्ग के जंगलों को खनन से बचाने का विरोध, उल्हास नदी बचाओ परियोजना और नवी मुंबई में आर्द्रभूमि पर एक अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे के निर्माण के खिलाफ विरोध शामिल है।

स्टालिन ने आईडीआर से बात करते हुए बताया है कि जन-आंदोलन खड़ा करने के लिए क्या-क्या करना पड़ता है, ऐसे आंदोलनों को ‘विकास विरोधी’ क्यों नहीं करार दिया जाना चाहिए, और क़ानूनी उपचार किसी भी पर्यावरणविद के लिए अंतिम सहारा क्यों है।

पर्यावरणविद स्टालिन दयानंद की एक तस्वीर_पर्यावरण संरक्षण
चित्र साभार: स्टालिन दयानंद
आरे बचाओ आंदोलन के लिए समर्थन जुटाने के अपने अनुभव के आधार पर, क्या आप पर्यावरण आंदोलनों में सार्वजनिक भागीदारी के महत्व के बारे बता सकते हैं?

जलवायु परिवर्तन कुछ चुनिंदा लोगों तक ही सीमित नहीं रहने वाला है। अमीर वर्ग उपलब्ध संसाधनों की मदद से अपने ऊपर पड़ने वाले इसके प्रभाव को कम कर सकता है, लेकिन गरीब वर्ग -जो संख्या में अधिक हैं- वह पीड़ित ही रहेगा। जलवायु परिवर्तन से जुड़ा कोई भी फैसला या घटना एक बहुत बड़ी आबादी को प्रभावित करेगा। इसलिए यह महत्वपूर्ण है कि समस्या के समाधान से सीधे तौर पर निपटने वाले लोगों को ही इसका प्रवक्ता बनाया जाए।

लेकिन समस्या यह है कि समाधान को लेकर लोगों में सहमति नहीं है। इसमें शामिल और इससे प्रभावित अलग-अलग लोग कभी भी एक जैसी सोच नहीं रखते हैं। इस असहमति के कारण वैश्विक स्तर पर लोग, जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से लड़ने के लिए एकजुट नहीं हो पाते हैं। इसलिए यह आवश्यक है कि आंदोलन में समाज के हर तबके का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित किया जाए। इसमें विभिन्न सामाजिक आर्थिक वर्गों, अलग-अलग शैक्षणिक योग्यताओं और आजीविका के लिए विभिन्न प्रकार के साधनों का उपयोग करने वाले लोगों को शामिल करना महत्वपूर्ण है।

जब आरे बचाओ आंदोलन शुरू हुआ, तब हमारी आलोचना यह कहकर की गई थी कि यह एक ‘अंग्रेजी बोलने वाले लोगों का आंदोलन’ था। और फिर भी, पेड़ों को बचाने के लिए मेट्रो कार की शेड में घुसने वाले पहले लोगों में वे आदिवासी थे जिन्होंने कहा था कि ‘यह हमारा जंगल है; आप इसे हाथ भी नहीं लगा सकते हैं।’

आरे बचाओ आंदोलन में समाज के हर तबके के लोगों ने भाग लिया था। इनमें डॉक्टर, इंजीनियर, शिक्षक, अभिनेता, गृहणियां, छात्र और प्रोफेसर शामिल थे। और, उनका साथ देने के लिए मजदूर, मथाडी श्रमिक (सिर पर सामान ढोने वाले), मछुआरे, आदिवासी, छात्र, वरिष्ठ नागरिक, महिलाओं के अधिकारों के लिए लड़ने वाले संगठन और यहां तक कि राजनीतिक वर्ग भी खड़ा था।

आरे को बिल्डर्स की मदद करने के लिए बलि का बकरा बनाकर पेश किया गया था, और हमारे पास इसे साबित करने के लिए दस्तावेज भी हैं। लोगों ने इस बात को समझा और इसीलिए इसे बचाने को एकजुट हुए। इस आंदोलन की सफलता का कारण भी यही था। मुंबई जैसे शहर में, जहां सरकार या बिल्डरों के हाथ से 10 वर्ग फीट जमीन छुड़ा पाना भी एक मुश्किल काम है, वहां हमें 830 एकड़ जंगल सुरक्षित करने में कामयाबी हासिल हुई है। हम मेट्रो कार शेड निर्माण को नहीं रोक पाये, लेकिन आज के समय में जहां भी लोकतंत्र चरमरा रहा है, वहां लोक के लिए तत्काल जीत हासिल करना बहुत मुश्किल है। सरकार विरोध के हर स्वर को कुचलने के लिए दुष्प्रचार से लेकर डराने-धमकाने तक, सभी प्रकार के तरीकों का इस्तेमाल कर रही है और जो करना चाह रही है, उसमें सफल हो रही है।

आपने समाज के विभिन्न वर्गों से व्यापक स्तर की भागीदारी कैसे जुटाई?

साल 2014 में जब पहली बार पेड़ों को काटे जाने की खबर आई, तब स्कूल के बच्चों -जिनके लिए हमने पर्यावरणीय शिक्षा के सत्रों का आयोजन किया था – ने हम लोगों से आरे के बारे में पूछना शुरू किया। हमने उन्हें बताया कि जंगल को काटा जा रहा है और बच्चों ने कहा कि वे ऐसा होने से पहले उस जंगल को देखना चाहते हैं। इसलिए हम उन्हें वहां लेकर गये। वे पेड़ों पर चढ़े, उन्हें गले लगाया और वही पहला विरोध था, मुंबई में होने वाला पहला ‘चिपको’ आंदोलन था।

फिर यह आरे के आसपास रहने वाले लोगों के बीच फैल गया। वे इससे स्वयं को जोड़ पा रहे थे और उन्होंने इसके महत्व और मूल्य को समझ लिया था। उन लोगों ने ही दूसरे लोगों को इकट्ठा किया। प्रत्येक रविवार को धरना का आयोजन किया जाने लगा जिसके कारण धीरे-धीरे मुहिम की चर्चा होने लगी। हालांकि, यह एक बिल्कुल भी सुनियोजित आंदोलन नहीं था। हमने कल्पना भी नहीं की थी कि यह आंदोलन नौ वर्षों तक चलेगा।

कोई भी आंदोलन तभी सफल हो सकता है जब वह जमीनी हो और उसमें स्थानीय लोगों की भागीदारी हो।

इसकी सफलता को प्रभावित करने वाले कई कारकों में से एक कारक पुरानी यादें थीं। प्रदर्शनकारियों में 40 से 50 वर्ष की उम्र वाले बहुत सारे लोग थे जिनकी बचपन की यादें आरे के जंगलों से जुड़ी थीं। आप अपने बचपन के एक हिस्से को हमेशा ही बचाए रखना चाहते हैं, और इसलिए आप उन जगहों के बचाव में घरों से बाहर निकलते हैं। जब आप अपने साथ बच्चों को लाते हैं तो वे उस जगह से आपके जुड़ाव को देखते और महसूस करते हैं, उसके बाद स्वयं भी उस मुहिम का समर्थन करने लगते हैं। इस मामले में हम सौभाग्यशाली थे। यह आंदोलन एक ऐसे शहर में हो रहा था जहां के लोग आरे को आज भी एक जंगल और पिकनिक वाली जगह के रूप में याद करते हैं।

सफल नागरिक आंदोलन का एक अन्य उदाहरण रत्नागिरी जिले के नानार में किया गया आंदोलन था, जहां ग्रामीणों के विरोध के कारण प्रस्तावित तेल रिफाइनरी को दूसरे गांव, बारसु-सोलगांव में स्थानांतरित किया गया था। उन प्रदर्शनों में महिलाएं आगे थीं, और अंत में लोगों की जीत हुई। अब बारसु-सोलगांव के लोग भी रिफाइनरी के विरोध में संघर्ष कर रहे हैं।

क्या ये सभी प्रदर्शन विकास-विरोधी हैं? नहीं, बिलकुल भी नहीं हैं। क्योंकि आप अपनी परियोजनाएं ऐसी जगहों पर लेकर नहीं जा रहे हैं जहां लोगों के पास पानी नहीं है या वे अन्य सामाजिक-आर्थिक कठिनाइयों से पीड़ित हैं। इन परियोनाओं को उन जगहों पर लेकर जाना चाहिए और वहां के लोगों की मदद करनी चाहिए। इसके बजाय आप आत्मनिर्भर और शांतिपूर्ण तरीके से अपना जीवन बिता रहे लोगों के आर्थिक और सामाजिक ताने-बाने को नुकसान पहुंचा रहे हैं। और आप इसे विकास का नाम देते हैं!

यदि आप चाहते हैं कि लोग किसी मुहिम के लिए आपको समर्थन दें, तो इसका कोई तय फार्मूला नहीं है; हर संदर्भ में अलग-अलग तरीकों की ज़रूरत होगी। लेकिन किसी भी आंदोलन की सफलता के लिए आवश्यक है वह ज़मीनी स्तर का हो और उसमें स्थानीय लोगों की भागीदारी सुनिश्चित की जाए। कहने का मतलब यह है कि, मुझे लगता है कि यदि आपने सही जगह चोट की और आपका तरीका स्पष्ट है तो लोग आपके साथ आएंगे – जैसे कि ईमानदारी से बात करना और अपने दावों के समर्थन में सबूत पेश करना आदि।

प्रगति की राह पर चल रहे एक शहर की आवश्यकताओं और शहरी पारिस्थितिकी के संरक्षण के बीच संतुलन कैसे स्थापित किया जा सकता है?

शहर आज समुद्र के स्तर में वृद्धि, बढ़ते तापमान, प्रदूषण और ठोस अपशिष्ट प्रबंधन के कारण होने वाले जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से जूझ रहे हैं। आइए, सभी चार कारकों पर एक नजर डालते हैं। जब समुद्र धरती की तरफ़ बढ़ता है तो आप क्या करते हैं? आप उसे पीछे नहीं धकेल सकते हैं; आपको पीछे होना होगा। आपको समुद्र के पानी को अंदर आने और बाहर जाने के लिए जगह देनी होगी। लेकिन हम क्या कर रहे हैं? हम समुद्र के क्षेत्र में घुसे जा रहे हैं। हम तटीय सड़कों का निर्माण कर रहे हैं। तटीय सड़क लीवर सिरोसिस से पीड़ित किसी व्यक्ति को देशी शराब की बोतल थमाने जैसा है। तटों के साथ इससे बुरा कुछ नहीं किया जा सकता है। यदि यह सड़क इतनी ही जरूरी थी तो इसे शहतीर (बांस का बना एक ढांचा) पर बनाया जा सकता था। अब, यह तट पर दबाव बनाएगा और जिससे पानी शहर में प्रवेश करेगा और बाढ़ जैसी स्थिति पैदा होगी।

दूसरा कारक तापमान में लगातार हो रही वृद्धि है। आप इसका मुकाबला कैसे कर रहे हैं? वातावरण में गर्मी को बढ़ाने के लिए अधिक से अधिक पेड़ों को काटकर और कंक्रीट की सड़कें बनाकर?

इसके बाद बारी आती है प्रदूषण की। अगर आप झुग्गियों में जाकर देखेंगे तो वहां वेंटीलेशन, हवा के आवागमन की व्यवस्था नहीं है, ना ही खुली जगह है; लोग नालों के किनारे रह रहे हैं और बच्चे बीमारियों के साथ ही पैदा हो रहे हैं। मुंबई में सभी को सांस की समस्या है क्योंकि अंतहीन निर्माण और गाड़ियों की लगातार बढ़ती संख्या के कारण वातावरण में धूल की मात्रा बहुत अधिक है।

पानी के प्रदूषण की भी समस्या है। प्रकृति ने मुंबई को दो सुंदर वन्यजीव क्षेत्रों का आशीर्वाद दिया है, उसमें से एक है ठाणे क्रीक फ़्लैमिंगो सैंक्चुअरी जो रामसर स्थल है। इस अभ्यारण्य में 1.5 लाख पक्षी हैं। उनके नालों में क्या है? केवल नाले का पानी और प्लास्टिक। फिर भी वे पक्षी वहां लगातार बने रहने का प्रयास कर रहे हैं क्योंकि उनके पास रहने की एकमात्र वही जगह बची रह गई है। आप अपनी आर्द्रभूमि (वेटलैंड्स) खोते जा रहे हैं और बची हुई भूमि को प्रदूषित कर रहे हैं।

हमारे ठोस कूड़ा प्रबंधन की स्थिति कैसी है? भारत का सबसे बड़ा कचरा डंप कांजुरमार्ग डंपिंग ग्राउंड है, जिसे 120 हेक्टेयर आर्द्रभूमि पर बनाया गया है। कानूनन, नमक क्षेत्रों, तटीय विनियमन क्षेत्रों, आर्द्रभूमियों और मैंग्रोव के अंदर अपशिष्ट लैंडफिल के निर्माण पर प्रतिबंध है। लेकिन मुंबई के सभी डंपिंग ग्राउंड मैंग्रोव के अंदर हैं।

प्रदूषित वातावरण की पृष्ठभूमि के साथ एक पुल की तस्वीर_पर्यावरण संरक्षण
शहर आज समुद्र के स्तर में वृद्धि, बढ़ते तापमान, प्रदूषण और ठोस अपशिष्ट प्रबंधन के कारण होने वाले जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से जूझ रहे हैं। | चित्र साभार: डेरेक जेवियर
जब कानूनों का उल्लंघन किया जा रहा हो तो पर्यावरण के लिए क्या किया जा सकता है?

मैं कहूंगा कि आज जो कुछ भी बचा है वह न्यायपालिका के कारण ही बचा है। लेकिन न्यायपालिका को अभी बहुत कुछ करना है और फैसले उस गति से नहीं किए जा रहे हैं जिससे किए जाने चाहिए। यदि आप बहुत लंबे समय से भूखे हों और कोई आपको बिस्कुट का एक पैकेट दे देता है तो आप उसका एहसान मानते हैं। न्यायपालिका भी कुछ-कुछ समय पर हमें बिस्कुट का एक पैकेट थमा दे देती है और चूंकि हम बहुत लंबे समय से भूखे हैं इसलिए उसके प्रति आभार प्रकट करने लगते हैं।

एक अन्य प्रणालीगत कमी भी है – पर्यावरण मामलों की सुनवाई करने वाले लोग विशेषज्ञ नहीं हैं। पर्यावरणीय विवादों के लिए राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण (एनजीटी) नाम का एक विशेष निकाय है, जिसमें न्यायिक सदस्य होते हैं जो कानून के विशेषज्ञ होते हैं और ऐसे सदस्य होते हैं जिनके पास पर्यावरण मामलों में विशेषज्ञता होती है। लेकिन अक्सर ही एनजीटी के आदेशों को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दे दी जाती है और कई बार ऐसा होता है कि स्थगन आदेश (स्टे ऑर्डर) जारी कर दिए जाते हैं। उसके बाद इन मामलों की सुनवाई में बहुत लंबा समय लग जाता है और उन्हें रद्द कर दिया जाता है। मुंबई तटीय सड़क परियोजना का ही उदाहरण ले लीजिए। साल 2019 में, बॉम्बे उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति प्रदीप नंदराजोग ने बिलकुल सही कहा था कि यह एक ज़मीन हासिल करने वाली परियोजना थी, न कि एक बुनियादी ढांचा। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने उनके आदेश को पलट दिया और बीएमसी से कहा कि वे सुप्रीम कोर्ट के आदेशों के अधीन निर्माण के काम को आगे बढ़ा सकते हैं। यदि आप 10 साल बाद मामले की सुनवाई करेंगे और फिर आपको इस बात का एहसास होगा कि आपने कुछ गलत किया है तब आप तट के प्राकृतिक परिदृश्य को कैसे बरकरार रख पायेंगे?

ऐसी स्थिति में क्या मुकदमा ही अंतिम सहारा है?

यह सबसे अंतिम रास्ता है। हमारे लिए अदालत का दरवाजा खटखटाने का निर्णय लेना सबसे अधिक कष्टदायक होता है। लेकिन हम मानते हैं कि वहां आपको न्याय पाने का अवसर मिलता है। हालांकि, देर से मिला न्याय किसी काम का नहीं होता है। और पर्यावरण से जुड़े मामलों में समय ही मूल तत्व होता है। अदालत जाने से पहले हम सभी संभव उपाय करके देख लेते हैं – विनती करना, अधिकारियों से मिन्नतें करना। जब कुछ नहीं होता है तभी हम न्यायपालिका के पास जाते हैं। और अदालत जाने के बाद सबसे पहले आपको यह साबित करना पड़ता है कि इस मामले में आपका कोई निजी हित नहीं है, क्योंकि दूसरे पक्ष से सभी प्रकार के आरोप लगाए जाएंगे।

इससे भी बढ़कर, पैसे और सत्ता वाले लोग मुकदमों को लंबे समय तक खींचने के सभी तरीके जानते हैं और इस उम्मीद में होते हैं कि आप झुक जाएंगे। एक मामले में जंगल में खनन पर रोक लगाने के अदालती आदेश थे। अभी सुनवाई शुरू नहीं हुई थी, लेकिन सरकार ने काम शुरू करने के इरादे से जनसुनवाई की। जब हम अदालत के आदेश के साथ संबंधित अधिकारियों से मिलने गये तो उन्होंने मुस्कुराते हुए हमसे कहा, ‘आपलोग कब तक हमें रोकेंगे? हम दो या फिर 10 साल बाद फिर से आ जाएंगे। लेकिन खनन तो होगा।’

जलवायु परिवर्तन के बारे में चेतावनियां साल 2006 से ही आनी शुरू हो गई थीं। लेकिन 2030-40 तक जो होने की भविष्यवाणी की गई थी वह सब कुछ अभी ही हो रहा है। हम आराम से बैठकर यह नहीं कह सकते कि हमारे पास अभी भी एकजुट होकर काम करने का समय है। हम समय से बहुत पीछे हैं। हम अपने इस लगातार हो रहे पतन को रोकने का प्रयास भर कर रहे हैं। मुकदमेबाजी बहुत ही अच्छी चीज नहीं है। इसमें लगातार प्रयास करने और धैर्य बनाए रखने, दोनों चीजों की जरूरत होती है, और जब आप बार-बार अपने प्रयासों को विफल होता देखते हैं तो मोहभंग, अवसाद और क्रोध की स्थिति पैदा होने लगती है। लेकिन हमें दृढ़ रहने की जरूरत है। हम अपनी असाधारण सफलता से खुश हैं। यह कुछ भी न करने से बेहतर है।

लोग वालंटियरिंग से आगे का क्यों नहीं सोच पाते हैं, ऐसा क्या है जो उन्हें इससे अधिक का योगदान देने से रोकता है?

लोग लंबी दौड़ के लिए तैयार नहीं हैं। उन्हें त्वरित परिणाम चाहिए, और वे अपनी चेतना को संतुष्ट करना चाहते हैं। वे हमसे सवाल करते हैं कि हमने इस मुद्दे को क्यों नहीं उठाया या उस मुद्दे का विरोध क्यों नहीं किया। हम उन्हें बताते हैं, आप अपने हिस्से का काम करिए, और यदि वह कारगर नहीं होता है तो हम आपकी मदद करेंगे। लेकिन हमसे यह उम्मीद मत कीजिए कि सभी मुद्दों के लिए हम ही संघर्ष करेंगे। लोग यह बताने के लिए हमसे संपर्क करते हैं कि उनके घरों के सामने के सदाबहार पेड़ों को काटा जा रहा है। लेकिन उनकी रुचि केवल उनके घर के आसपास के दृश्य तक ही सीमित होती है। हम उनसे पुलिस बुलाने के लिए कहते हैं। लेकिन वे ऐसा नहीं करते हैं। हम उनका डर समझ सकते हैं; लोगों को जिस हद तक डराया-धमकाया जा सकता है, वह बहुत ही चिंताजनक है।

पैसे, क्षमता, साहस और ताक़त की कमी के कारण पर्यावरण को लेकर व्यापक पैमाने पर सक्रियता नहीं आ पा रही है।

आरे बचाओ आंदोलन के दौरान लोगों को बेतरतीब ढंग से उठाया गया और हिरासत में लिया गया। पुलिस वाले विरोध कर रहे लोगों की वीडियो बनाते और उनसे पूछते, ‘आपको यहां किसने बुलाया था? आप कहां रहते हैं?’ एक आम आदमी इन सब पचड़ों में नहीं पड़ना चाहता है। मराठी में एक कहावत है, ‘शिवाजी जन्ममाला आण पाहिजे, पण आमचा घरात नाहीं।’ हम शिवाजी का जन्म तो चाहते हैं लेकिन अपने घर में नहीं। क्योंकि हम अपने बच्चों को उस जोखिम में नहीं डालना चाहते जो उस महान राजा ने उठाया था।

लोगों को आगे आने की जरूरत है लेकिन ऐसा नहीं हो रहा है। लंबे समय तक इस रास्ते पर चलने के लिए आपको संसाधन और बैंडविड्थ दोनों की जरूरत है। पैसे, क्षमता, साहस और ताक़त की कमी के कारण पर्यावरण को लेकर व्यापक पैमाने पर सक्रियता नहीं आ पा रही है।

पर्यावरणीय सक्रियता के आपके अनुभव क्या हैं?

जिस भी रास्ते से संभव हो हमें अपना संघर्ष जारी रखना चाहिए। लोग एक पौधा या बीजारोपण कर अपने मन और अपनी आत्मा को साफ करने का प्रयास करते हैं और फिर भूल जाते हैं। सबसे बुरी बात यही है। अगर आप उस पौधे से बात करने में समय लगाते हैं और उसे एक पेड़ में बदलते हैं तब आपकी कहानी कुछ और होगी। ऐसा कहा जाता है कि आपको उस पेड़ की छाया में बैठने का सौभाग्य मिलना चाहिए जो आपके द्वारा लगाए गए पौधे से बड़ा होकर बना है।

पर्यावरणविद् केवल न्यायिक सक्रियता या मुकदमेबाजी नहीं है। यह बहुत सी चीजों का मिश्रण है; इसका संबंध प्रकृति से जुड़ने से और इस रिश्ते को तार्किक अंत तक ले जाने से है। हर इंसान को व्यक्तिगत रूप से आत्मा के स्तर पर प्रकृति से जुड़ना चाहिए, ना कि केवल धार्मिक या राजनीतिक दलों कि मांग की पूर्ति के कारण। मेरा मानना है कि देश के प्रत्येक नागरिक को अपने जीवन का कम से कम दो साल संरक्षण के काम में लगाना चाहिए। आपका वही कर्म आपके साथ जाएगा।

आज की बातचीत नुकसान को कम करने के बारे में है।लेकिन हम शुरुआत में ही बेहतर निर्माण कैसे करें?

निर्माण कैसे करें यह एक बहुत उपयुक्त प्रश्न है। सरकार ही प्रत्येक परियोजना पर्यावरण को नुकसान पहुंचाए बिना ही पूरी की जा सकती है। अगर आप एक बिंदु से दूसरे बिंदु तक जाना चाहते हैं, और आपके रास्ते में एक जंगल आता है तो आप पेड़ों को बिना छुए उसके ऊपर से जा सकते हैं। आप जमीन के 30 मीटर नीचे रेलवे लाइन बिछा सकते हैं, आप निश्चित रूप से उस जंगल को बिना छुए निकल सकते हैं। ढांचागत परियोजनाओं में पर्यावरण को ध्यान में रखा जाना चाहिए। यह हर किसी के लिए फायदे का सौदा हो सकता है। लेकिन इसे पूरा करने के लिए पैसे खर्च नहीं करने हैं। मानक बचाव यही है कि, ‘मैं इस जगह पर लगे 2,000 पेड़ काट रहा हूं और टिम्बकटू में 10,000 पौधे लगा रहा हूं।’ अगर बारिश यहां मुंबई में हो रही है तो मुझे मेरे छाते की जरूरत यहां है ना कि दिल्ली में।

पर्यावरण की कीमत पर विकास की बात हमारी व्यवस्था में बुरी तरह रचबस गई है।

लेकिन जंगल से होकर जाने का कारण कभी भी सड़क की सुविधा नहीं होती; इसका संबंध जंगल को चीरने और उसके अंदर भूमि खंड बनाने से है। कानूनी रूप से यह बात स्पष्ट होनी चाहिए कि किसी भी निर्माण परियोजना के कारण पर्यावरण को नुकसान नहीं पहुंचना चाहिए। हमारे देश का कौन सा कानून आपको पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने की अनुमति देता है? यहां तक कि वृक्ष अधिनियम भी एक संरक्षण अधिनियम है ना कि पेड़-काटने का अधिनियम। यह पर्यावरण संरक्षण अधिनियम है ना कि ‘विनाश अधिनियम।’ दुर्भाग्य से ‘सतत विकास’ शब्द एक विरोधाभास है। पर्यावरण की कीमत पर विकास की बात हमारी व्यवस्था में बुरी तरह रच-बस गई है। लेकिन हमेशा एक ऐसा समाधान होता है जिससे पर्यावरण को संरक्षित किया जा सकता है। फिर भी, उन तकनीकों को इस्तेमाल में नहीं लाया जा रहा है; पैसा जहां खर्च होना चाहिए वहां नहीं हो रहा है।

वन (संरक्षण) अधिनियम में संशोधन का वन्य जीवन और पर्यावरण पर क्या प्रभाव पड़ेगा?

इन संशोधनों का बिल्कुल भी स्वागत नहीं किया जाना चाही; वे और अधिक विनाश को बढ़ावा ही देंगे।

संशोधनों में कहा गया है रक्षा क्षेत्रों को संरक्षित करने की आवश्यकता है। मेरा तर्क यह है कि आप अभी भी इंजीनियरिंग और डिज़ाइन के माध्यम से ऐसा कर सकते हैं। पर्यावरण में रहने वाले जीवों के निवास के विनाश को प्रासंगिक नहीं बना देना चाहिए। सरकार उन आवासों के आसपास के इलाक़ों में काम की अनुशंसा कर सकती थी, या फिर यदि उनका इरादा उनके वर्तमान आवास को छीनने का है तो वे कम से कम उन जानवरों को एक उपयुक्त वैकल्पिक आवास प्रदान कर सकती है। अगर आपके इरादे सही हैं तो आपके पास संसाधनों की कोई कमी नहीं है। हमारा संविधान हमें दयालु होने के लिए कहता है। किसी जानवर को अपना निवास स्थान खोते और भूख से मरते देखने में कौन सी करुणा छिपी है?

वन्यजीव और जंगलों को एक दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता है। जब आप इसमें से किसी भी एक के साथ छेड़खानी करते हैं तो दूसरा इससे प्रभावित होता है। दुर्भाग्य से, जंगल की भूमि को किसी भी प्रकार की लूटपाट के लिए मुफ़्त में उपलब्ध माना जाता है। भारत ने 33 फीसद वन आवरण का लक्ष्य रखा है, लेकिन वर्तमान में यह केवल 21 फीसद है। जब आप पहले से ही इसके कम होने की बात स्वीकार रहे हैं तो फिर इसे नष्ट कैसे कर सकते हैं? उन्होंने वन सर्वेक्षण रिपोर्ट के साथ जो किया वह बहुत हास्यास्पद है। उन्होंने गन्ने के बागानों, घास के मैदानों, हर चीज को जंगलों की श्रेणी में रखा, और कहा कि वन क्षेत्र में वृद्धि हुई है।

जब आप आवास और वन विनाश की बात करते हैं तो आप पानी के स्तर में आ रही कमी की भी बात करते हैं। जंगल और जल का रिश्ता अटूट है और सरकार इसे नहीं समझ रही है। जंगलों को नष्ट करके हम भारत को जल संकट की ओर धकेल रहे हैं।

भूमि में निहित स्वार्थों और व्यवसायों पर पड़ने वाले राजनीतिक दबावों को देखते हुए, क्या पर्यावरणविद लंबे समय में फिलैंथ्रॉपी/सीएसआर फंडिंग पर भरोसा कर सकते हैं?

वनशक्ति में, सीएसआर शैक्षिक, वृक्षारोपण और आजीविका गतिविधियों के लिए आता है। फिलैंथ्रॉपी से मुकदमेबाजी के लिए भुगतान होता है, क्योंकि ऐसे लोग हैं जो दृढ़ता से मानते हैं कि हम सही काम कर रहे हैं। लेकिन फंड जुटाना बहुत कठिन है।

कई समाजसेवी संस्थाओं का एफसीआरए लाइसेंस इस तर्क के आधार पर रद्द कर दिया गया कि इस पैसे का उपयोग भारत के हितों को नुकसान पहुंचाने के लिए किया जा रहा है। सरकार समाजसेवी संस्थाओं को भूखा मारने के प्रयास में है। बुनियादी सवाल यही है राष्ट्र का हित किन कामों में है और किन कामों में नहीं? क्या राष्ट्र का हित इसमें है कि हम चुपचाप बैठ जाएं और जंगलों को बर्बाद होता और आदिवासियों को विस्थापित होता देखें। क्या राष्ट्र का हित किसानों से उनकी जमीन छीनकर, उद्योगपतियों द्वार उन्हें मजदूर बना देने में है? वर्तमान व्यवस्था के अनुसार, पारिस्थितिकी तंत्र को बर्बाद करने के लिए विदेशी धन लेना स्वीकार्य है, लेकिन विदेशी धन का उपयोग करके पर्यावरण को बचाने की कोशिश करना अपराध है।

आपने जिस चीज पर प्रकाश डाला है वह काफी धूमिल तस्वीर पेश करता है। क्या भविष्य के लिए किसी तरह की उम्मीद बची है?

जब तक आप इसमें अपने संसाधनों का निवेश करने के लिए तैयार हैं, तब तक उम्मीद बची हुई है। यह ऐसा है: एक आदमी था जो रोज भगवान के सामने प्रार्थना करता था और पूछता था कि उसने जैकपॉट क्यों नहीं जीता। वह एक महीने तक यही सवाल करता रहा, और एक दिन भगवान ने उत्तर दिया, ‘लेकिन इसके लिए पहले तुम्हें लॉटरी की टिकट खरीदनी पड़ेगी!’

इसलिए केवल प्रार्थना करने से कुछ नहीं होगा, आपको कुछ करना होगा; हम सभी को कुछ ना कुछ करना होगा। आशा किरण है। हमें बस उस आशा को ज़िंदा रखना है। जब आप भूख से मर रहे हों तो आपको मिलने वाले बिस्कुट के हर पैकेट के लिए आभारी होना चाहिए। आपको नहीं पता कि कब आपको सामने छप्पन भोग परोसा हुआ मिला जाए।

एक दिन आएगा जब, जनता संरक्षण को शासन में सबसे आगे रखने की मांग करेगी। हम इसी आशा के साथ अपना संघर्ष जारी रख रहे हैं।

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भारत में विकलांगता पेंशन योजना की असफलता के कारण क्या हैं?

2011 की जनगणना के अनुसार, भारत में 2.68 करोड़ से अधिक विकलांगजन (पीडब्ल्यूडी) हैं। दिव्यांगजन अधिकार (आरपीडब्ल्यूडी) अधिनियम, 2016, सरकार पर ऐसे प्रभावी उपाय करने की जिम्मेदारी डालता है जो विकलांगजनों के लिए समान अधिकार सुनिश्चित कर सकें। इन उपायों के तहत विकलांगों को सामाजिक सुरक्षा प्रदान करने की आवश्यकता होगी, जो रोजगार के सीमित अवसरों, विकलांगता के कारण होने वाले अतिरिक्त ख़र्चों, आर्थिक लोच में आई कमी और अन्य संबंधित कारकों से निपटने में उनकी मदद करेगा।

सामाजिक सुरक्षा प्रदान करने वाला, ऐसा ही एक उपाय इंदिरा गांधी राष्ट्रीय विकलांग पेंशन योजना (आईजीएनडीपीएस) है जिसे 2009 में लागू किया गया था। इस योजना के तहत 18–79 वर्ष की आयु वाले विकलांगजनों को 300 रुपये और 80 वर्ष से अधिक उम्र वाले विकलांगजनों को 500 रुपये विकलांग पेंशन देने का प्रावधान है। इस योजना की पात्रता हासिल करने के लिए, एक व्यक्ति का शरीर गंभीर रूप से (80 फीसद या अधिक) विकलांग होना चाहिए या फिर उसके शरीर में एक से अधिक विकलांगता होनी चाहिए और उसे गरीबी रेखा से नीचे आना चाहिए। पात्रता के सख्त मानदंड लागू करने और पीडब्ल्यूडी को पेंशन के रूप में न्यूनतम राशि प्रदान करने के बावजूद, 2023–24 के केंद्रीय बजट में इस योजना के लिए बहुत कम राशि आवंटित की गई। इस कमी के लिए राज्यों/केंद्रशासित प्रदेशों द्वारा योजना के तहत आवंटित राशि के उपयोग में आने वाली लगातार कमी को ज़िम्मेदार ठहराया गया।

आईजीएनडीपीएस के पात्रता मानदंड 95 फीसद से अधिक विकलांगता वाले लोगों को इसका लाभ उठाने से रोकते हैं। विकलांग लोगों के सर्वेक्षण (एनएसएस 76वें दौर) के विश्लेषण से पता चलता है कि केवल 5 फीसद विकलांगजन ही इस योजना के पात्रता मानदंडों को पूरा कर पाते हैं। यह निष्कर्ष उस स्थिति में और अधिक चिंताजनक बन जाता है जब हम इस बात को मानते हैं कि इस सर्वे में इस्तेमाल किया गया आंकड़ा 2011 की जनगणना से लिया गया है, जो विकलांगों की कम गिनती के लिए बदनाम है।

आईजीएनडीपीएस कारगर क्यों नहीं है

इसकी सीमित सफलता को समझने के लिए योजना की कुछ कमियों पर चर्चा करना जरूरी है।

1. पुराने और अलगाव करने वाले पात्रता मानदंड

विकलांगता की गंभीरता या संख्या के आधार पर लाभों को प्रतिबंधित करने का तर्क विकलांग व्यक्ति अधिनियम,1995 का पालन करता है। हालांकि हालिया आरपीडब्ल्यूडी अधिनियम, बेंचमार्क विकलांगता (40 फीसद) वाले लोगों के लिए विशेष प्रावधान प्रदान करता है, वहीं आईजीएनडीपीएस में इस बिंदु पर गौर नहीं किया जाता है। इसके अलावा, इस योजना में विकलांग बच्चों को भी शामिल नहीं किया गया है, और इसके कारण ऐसे बच्चों के माता-पिता के सामने आर्थिक चुनौतियां मुंह बाए खड़ी हो जाती हैं।

आधिकारिक सूत्रों के अनुसार, आईजीएनडीपीएस अभी भी, 2002 की गरीबी रेखा से नीचे (बीपीएल) जनगणना का उपयोग, यह जानने के लिए करता है कि कौन से विकलांगजन (पीडब्ल्यूडी) इसके लाभों का लाभ उठाने के लिए पात्र हैं। राष्ट्रीय सामाजिक सहायता कार्यक्रम (एनएसएपी) के दिशानिर्देश पात्र लाभार्थी डेटाबेस को बनाए रखने के लिए राज्यों/केंद्रशासित प्रदेशों को जिम्मेदार मानते हैं। भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक द्वारा एनएसएपी के हाल में किए गये ऑडिट से यह बात सामने आई है कि 35 राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों में से केवल 11 राज्यों/केंद्रशासित प्रदेशों के पास लाभार्थियों की पहचान के लिए उपयोग की जाने वाली बीपीएल सूची का ब्यौरा उपलब्ध था। इन 11 राज्यों/केंद्रशासित प्रदेशों में से केवल केरल और हरियाणा ने ही पात्र लाभार्थियों का डेटाबेस तैयार किया था। हालांकि 2011 की सामाजिक-आर्थिक जाति जनगणना (एसईसीसी) ने लाभार्थियों की बेहतर पहचान के लिए कई कल्याणकारी योजनाओं में पुरानी बीपीएल सूचियों को बदल दिया है। लेकिन आईजीएनडीपीएस ने इस नये बदलाव को अब तक नहीं अपनाया है। पुरानी बीपीएल सूची का पालन करने के कारण गंभीर विकलांगता वाले 84 फीसद विकलांगजन भी इससे बाहर हो गए हैं, जो सबसे न्यूनतम आय वर्ग से आते हैं।

अपने पेंशन दस्तावेज़ों के साथ एक महिला_विकलांगता
विभिन्न राज्यों में लाभार्थियों तक पहुंचने वाली राशि में बहुत अधिक अंतर है। | चित्र साभार: यून विमेन एशिया पैसिफिक / सीसी बीवाय

2. अपर्याप्त मुआवज़ा

केंद्र सरकार मासिक पेंशन के रूप में 300 रुपये प्रदान करती है, और साथ ही इस बात की सिफारिश करती है कि आरपीडब्ल्यूडी अधिनियम के अनुरूप विकलांगों को उचित सहायता प्रदान करने के लिए राज्यों को भी समान राशि का योगदान देना चाहिए। आदेश की कमी के कारण विभिन्न राज्यों में लाभार्थियों तक पहुंचने वाली राशि में बहुत अधिक अंतर है। उदाहरण के लिए बिहार में यह राशि 300 रुपये प्रति माह है जबकि आंध्र प्रदेश में 3,000 रुपये प्रति माह।

आरपीडब्ल्यूडी अधिनियम के अनुसार, विकलांगता से संबंधित अतिरिक्त लागतों को ध्यान में रखते हुए, विकलांगजनों को मिलने वाली पेंशन, अन्य लोगों के लिए लागू की गई समान योजनाओं की तुलना में कम से कम 25 फीसद अधिक होनी चाहिए। हालांकि, विधवाओं/बुजुर्गों के लिए समान योजनाओं द्वारा दी जाने वाली 200 रुपये प्रति माह की तुलना में, इस पेंशन के तहत अधिक राशि प्रदान की जाती है। लेकिन इसके बावजूद यह विकलांगता के अतिरिक्त खर्चों का वहन करने के लिए पर्याप्त नहीं है।

3. आवश्यक दस्तावेजों की सख़्त सूची

इस योजना का लाभ उठाने के लिए किसी व्यक्ति के पास आधार कार्ड और राज्य द्वारा जारी विकलांगता प्रमाण पत्र सहित कई अन्य उचित दस्तावेज होने चाहिए। लेकिन किसी विकलांगजन के लिए आधार कार्ड बनवाना ही एक कष्टदायक अनुभव हो सकता है क्योंकि आधार नामांकन केंद्रों में अक्सर ही व्हीलचेयर के लिए रास्ते नहीं बने होते हैं और कर्मचारियों के असहानुभूतिपूर्ण रवैये के कारण आवेदक को बार-बार केंद्रों का चक्कर लगाना पड़ता है।

विकलांगजनों पर किया गया एनएसएस सर्वेक्षण (2017–18) यह बताता है कि केवल 28.8 फीसद विकलांगजनों के पास ही सरकार द्वारा जारी विकलांगता प्रमाणपत्र है, जो पेंशन पाने के लिए एक आवश्यक दस्तावेज है। इसके अलावा, विकलांगजनों के लिए लागू की गई योजनाओं का लाभ उठाने के लिए विशिष्ट विकलांगता पहचान या यूनिक डिसेबिलिटी आइडेंटिटी (यूडीआईडी) को भी अनिवार्य किया गया है। यूडीआईडी प्राप्त करने से जुड़ी कठिनाइयों को देखते हुए अधिक से अधिक लोगों के इस योजना के लाभ से वंचित होने की संभावना जताई जा सकती है।

4. योजना के सामाजिक ऑडिट की कमी

एनएसएपी के दिशानिर्देशों में, ग्रामीण विकास मंत्रालय (एमएमआरडी) ने इसका जिक्र किया है कि राज्यों को योजनाओं के सामाजिक ऑडिट के लिए अपने कुल बजटीय आवंटन का कम से कम 0.5 फीसद निर्धारित करना चाहिए। योजनाओं का सामाजिक ऑडिट संभावित लाभार्थियों द्वारा किया जाता है और इसे योजना की पारदर्शिता और जवाबदेही बनाए रखने के लिए महत्वपूर्ण माना जाता है। 2018 में, एमआरडी द्वारा जारी एक पत्र में कहा गया था कि राज्य/केंद्रशासित प्रदेश सामाजिक ऑडिट के नियम का पालन नहीं कर रहे थे।

आईजीएनडीपीएस को सशक्त बनाना

कमियों के आधार पर, निम्नलिखित सुझाव दिये गये हैं ताकि इस योजना को विकलांगों के लिए अधिक लाभकारी बनाया जा सके।

विकलांगजनों के लिए राष्ट्रीय स्तर का एकमात्र वित्तीय सहायता कार्यक्रम होने के नाते, विकलांगता पेंशन योजना अत्यधिक महत्वपूर्ण है। इस प्रकार, इसके कार्यान्वयन पर ध्यान केंद्रित करना और प्रभावी और सफल वितरण सुनिश्चित करना आवश्यक है। ऐसा करने से सतत विकास लक्ष्यों में निहित किसी को भी पीछे न छोड़ने के मूल्य को भी कायम रखा जा सकेगा।

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क्या शिमला शहर का अस्तित्व अब संकट में है?

हिमाचल प्रदेश देश के उन राज्यों में से एक है जो हमेशा से ही अपनी भौगोलिक सुंदरता और पर्यटन के लिए दुनियाभर में जाना जाता रहा है। शिमला, मनाली, डलहौज़ी, कसौली, धर्मशाला जैसे शहर अक्सर घूमने-फिरने के शौक़ीन लोगों की लिस्ट में शामिल मिलते हैं। लेकिन बीते कुछ सालों से ये शहर प्राकृतिक आपदाओं से जुड़ी घटनाओं के लिए भी खबरों में रहने लगे हैं। खासतौर पर, शिमला। दिल्ली से लगभग साढ़े तीन सौ किलोमीटर की दूरी पर स्थित यह शहर तमाम पर्यटकों के साथ-साथ दिल्ली और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (एनसीआर) में रहने वाले लोगों के लिए भी सबसे सहजता से पहुंची जा सकने वाली जगह है। इसका असर यह हुआ है कि कभी हमें शिमला जाने के रास्ते में दिनों लंबे ट्रैफ़िक जाम देखने को मिलते हैं तो कभी अचानक हुए भूस्खलन की खबरें सुनाई देती हैं। शिमला में लगातार आने वाली आपदाओं को लेकर जानकारों का कहना है कि पहाड़ों में प्राकृतिक आपदाएं आने की संभावना पहले से ही अधिक होती है तिस पर शिमला शहर को इसकी क्षमता से अधिक भार ढोना पड़ रहा है।

शिमला के इतिहास पर गौर करें तो ब्रिटिश राज में इसे लगभग 25,000 लोगों के रहने की योजना के साथ बसाया गया था। अपने 160 साल पुराने इतिहास में यहां का नगर निगम, ‘हिमाचल प्रदेश नगर निगम अधिनियम, 1994’ के पारित होने और 21 वार्डों के संशोधित परिसीमन के साथ एक स्वायत्त अस्तित्व में आया था। साल 2017 तक शहर में 25 वार्ड थे। साल 2018 में कुछ नए वार्डों को नगर निगम क्षेत्राधिकार में जोड़ा गया है जिससे इनकी कुल संख्या अब 34 हो गई है। नगर निगम, शिमला में कुल 46,306 घर हैं और कुल जनसंख्या लगभग 2.5 लाख है। इस आंकड़े को इस तरह देखा जा सकता है कि महज़ 25000 लोगों के लिए बसाए गए शहर में अब उससे ठीक दस गुना अधिक लोग रह रहे हैं। इससे अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि समय के साथ शिमला पर जनसंख्या का बोझ किस तरह से पड़ रहा है।

भूस्खलन (लैंडस्लाइड) से बढ़ता संकट

पिछले कुछ सालों से राज्य के अन्य क्षेत्रों के साथ-साथ शिमला में भूस्खलन के मामले बेहद तेजी से बढ़ रहे हैं। इस इलाक़े का पहला बड़ा भूस्खलन फरवरी, 1971 में शिमला में हुआ था, जब रिज मैदान का एक बड़ा उत्तरी हिस्सा नीचे गिर गया था। इससे उसके नीचे बने पानी के टैंक पर आए खतरे के चलते शिमला शहर संकट में आ गया था। इसके बाद, ऐसी बड़ी आपदा अगस्त, 1989 में देखने को मिली जब मटियाना में हुए भूस्खलन के चलते चालीस लोगों को जान गंवानी पड़ी थी। लेकिन हालिया कुछ सालों में, खासतौर पर 2014, 2015, 2017, 2021 और अब 2023 में इस इलाक़े से दुर्घटना और मौत की खबरें लगातार आ रही हैं।  

बीते अगस्त में, शिमला के शिव बावड़ी मंदिर में भूस्खलन ने इस कदर तबाही मचाई कि 20 श्रद्धालुओं की मलबे के नीचे दबने से मौत हो गई थी।

बीते अगस्त में, शिमला के शिव बावड़ी मंदिर में भूस्खलन ने इस कदर तबाही मचाई कि 20 श्रद्धालुओं की मलबे के नीचे दबने से मौत हो गई थी। वहीं, इसी दौरान शिमला के कृष्णा नगर वार्ड में हुए भूस्खलन से करीब छह मकान ढह गए जिसने हर किसी को अंदर तक झकझोर कर रख दिया। इस तरह शहर में केवल एक महीने के भीतर भूस्खलन से 27 लोगों की मौत हो गई तथा 150 परिवार बेघर हो गए। कृष्णा नगर के बारे में जानकारों की राय है कि यहां कई महीने बाद भी खतरा टला नहीं है। इसका मुख्य कारण यह है कि पूरे शहर के नालों का पानी कृष्णानगर इलाके में आता है। बेघर हुए परिवारों में से 100 परिवार अकेले इसी इलाक़े से थे जो हर तरह से असुरक्षित है।

भूस्खलन के कारण

1. शिमला शहर में, इसकी क्षमता से अधिक निर्माण कार्य किए जाने के कारण यहां से पानी के प्रवाह अक्सर रुक जाता है और यह भूस्खलन की वजह बनता है। यहां तक कि राज्य के मौजूदा मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू को भी पिछले दिनों बयान जारी कर यह कहना पड़ गया कि इलाक़े में ड्रेनेज सिस्टम का न होना भूस्खलन की बड़ी वजह है। राज्य के मुख्यमंत्री का यह भी मानना है कि भवनों के मूल ढांचे पर भी ध्यान देने और इन्हें पर्यावरण के मुताबिक बनाए जाने की जरूरत है। मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक, हिमाचल प्रदेश में राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण ने कुल 16,000 राजमिस्त्रियों को प्रशिक्षण देने का लक्ष्य तय किया गया है। इसमें प्राचीन एवं नई भवन शैली को जोड़ते हुए प्रदेश के भवनों को प्राकृतिक परिस्थितियों के अनुसार तैयार किए जाने पर काम किया जाएगा।

2. शिमला में किया गया लगभग 90 फीसदी  60-70 डिग्री पहाड़ी ढलानों पर किया गया है जो वास्तुशिल्प और भूवैज्ञानिक मानदंडों के खिलाफ हैं। भारतीय मानक ब्यूरो के अनुसार रहवासी इलाक़ों के लिए जहां 30 डिग्री पहाड़ी ढलान पर निर्माण किया जाना चाहिए, वहीं ग़ैर-रहवासी निर्माण कार्य के लिए पहाड़ी ढलान 45 डिग्री तक हो सकता है। तीखे ढलानों पर बनने की वजह से ये इमारतें प्राकृतिक आपदाओं के लिए अतिसंवेदनशील हो जाती हैं। यहां तक कि संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम की एक व्यापक रिपोर्ट में कहा गया है कि ‘शिमला में सर्वेक्षण की गई 2,795 इमारतों में से लगभग 65 प्रतिशत इमारतें असुरक्षित हैं।’

भूस्खलन की घटनाओं पर जलवायु परिवर्तन का भी असर पड़ता है। | चित्र साभार: विकिमीडिया कॉमन्स / सीसी बीवाय

3. शहर में भूस्खलन की एक बड़ी वजह लगातार शहर से हरियाली का कम होना भी है। दरअसल, पेड़ों की जड़ें मिट्टी पर मजबूती के साथ पकड़ बनाती हैं तथा पहाड़ों के पत्थरों को भी बांधकर रखती हैं। पेड़ों को लगातार काटे जाने से ये पकड़ कमज़ोर पड़ती है और जब बारिश होती है, तो पहाड़ के बड़े बड़े पत्थर गिरने लगते हैं। कई मीडिया रिपोर्टों में इस बात का भी ज़िक्र मिलता है कि सिटी डिजास्टर मैनेजमेंट प्लान और हैजर्ड रिस्क एडं वल्नरेबिलिटी असेसमेंट की रिपोर्ट में भी शिमला शहर में निर्माण कार्य को सुनियोजित तरीके से करने, ग्रीन एरिया को बढ़ाने की बात कही गई है। शहर के 33 फीसदी हिस्से को लैंडस्लाइड की दृष्टि से हाई रिस्क पर रखा गया है, जबकि 51 फीसदी हिस्से को मॉडरेट और केवल 16 फीसदी हिस्से को कम खतरनाक बताया गया है।

4. भूस्खलन की घटनाओं पर जलवायु परिवर्तन का भी असर पड़ता है। हिमालय में यह सबसे अधिक दिखाई देता है। जब बारिश ज्यादा होती है तो पहले से ही अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रहे पहाड़ी इलाक़ों की मुसीबत और बढ़ जाती है। इस बार शिमला में सामान्य से 64 प्रतिशत अधिक बारिश दर्ज की गई जिसका बुरा असर पूरे शहरभर में देखने को मिला।

शहर पर लगातार बढ़ता दबाव

पर्यटन, शिमला की आय का प्रमुख स्रोत रहा है। जनवरी से जून, 2023 तक राज्य में कुल एक करोड़ छह हजार पर्यटक पहुंचे, जिसमें 36 प्रतिशत शिमला और कुल्लू जिले की यात्रा करने वाले थे। इससे अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि समय के साथ शिमला में पर्यटकों की भीड़ कितनी तेजी से बढ़ रही है तथा इसका स्थानीय नागरिकों पर क्या असर पड़ सकता है। इसका एक उदाहरण, वर्ष 2018 के पर्यटन सीजन में शिमला की स्थानीय जनता पानी की गंभीर समस्या के चलते सड़कों पर आ जाना है। यही नहीं, इस दौरान स्थानीय लोगों ने पानी की किल्लत के चलते पर्यटकों से शिमला न आने की गुहार तक लगा डाली थी। इसके बाद सरकार भी इसे लेकर संजीदा हुई।

शिमला, प्रदेश की राजधानी भी है तो इसके चलते लगभग सभी विभागों के मुख्यालय यहीं पर स्थित हैं। इस वजह से अलग-अलग जिलों की जनता एवं प्रतिनिधियों को शिमला आना-जाना पड़ता है। इससे शहर में लोगों और गाड़ियों की संख्या बढ़ जाती है। यही नहीं, शहर में पीक ट्रैफिक में पर्यटकों की भरमार से कारों की औसत गति सिर्फ 10 किमी/घंटा हो जाती है। ऐसे में किसी मरीज़ के लिए समय पर अस्पताल पहुंचने जैसी बातें एक बड़ी चुनौती बन जाती हैं। इससे निजात पाने के लिए पिछले कुछ समय से राजधानी शिमला की क्षमता को लेकर विधानसभा में भी  उठीं हैं कि आखिर कैसे शहर पर अलग-अलग विभागों के बढ़ते बोझ को कम किया जाए और कुछ विभागों को राज्य के अन्य जिलों में शिफ्ट किया जाए। 

बेहतर योजनाओं की जरूरत

योजना किसी भी कार्य एवं जगह के विकास के लिए सबसे प्राथमिक विषय होता है। शिमला का बुनियादी ढांचा 1979 में तैयार की गई एक अंतरिम विकास योजना पर आधारित है। फरवरी 2022 में, सरकार की ओर से 2041 का ड्राफ्ट डेवलपमेंट प्लान को पेश किया गया था। इस नई योजना का उद्देश्य आने वाले दो दशकों में शहर के विकास की रूपरेखा तैयार करना था। इसमें न केवल सतत विकास (सस्टेनेबल डेवलपमेंट) का ध्यान रखा जाना था बल्कि शहर का विस्तार किए जाने की जरूरतों के साथ-साथ बदलती परिस्थिति से उपजी चुनौतियों का भी संज्ञान लेना था। लेकिन नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) ने एक महीने बाद, इस पर यह कहते हुए रोक लगा दी कि इससे पर्यावरण और सार्वजनिक सुरक्षा के लिए विनाशकारी नतीजे हो सकते हैं। ऐसे में शहर के लिए इसका समाधान कब और कैसे निकल पाएगा? और, कैसे अनियोजित निर्माण, जलवायु परिवर्तन तथा विकास नीतियों में असंतुलन के चलते अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ने पर मजबूर, यह खूबसूरत शहर, शिमला जीत पाएगा और बना रह पाएगा।

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