हम एक अजीब समय में जी रहे हैं। जीवाश्म ईंधन के उपयोग को सिलसिलेवार तरीक़े से ख़त्म करने की कॉप28 की प्रतिबद्धता के बावजूद तेल और गैस निकालने की प्रक्रिया पर कोई रोक लगती नहीं दिख रही है। दूसरी तरफ़, हम विकास और ऊर्जा के हस्तांतरण (एनर्जी ट्रांज़िशन) के लिए भी भारी मात्रा में खनिजों का खनन किए जा रहे हैं।
इस प्रक्रिया में, हम स्थानीय समुदायों, मूल निवासियों और सबसे अधिक पर्यावरण का दोहन कर रहे हैं। वर्तमान व्यवस्था स्पष्ट रूप से अनुचित है और नैतिकता जैसे गहरे विषय से जुड़ी हुई है: हम अपने बच्चों और भावी पीढ़ियों के लिए कैसा समाज और ग्रह छोड़ने वाले हैं?
खनन कैसा भी क्यों ना हो, हर किसी को उस पर कोई न कोई आपत्ति होती ही है। फिर चाहे वह हमारे गांव की खदान हो या दुनिया की सभी कोयला खदानें; महासागरों में होने वाला खनन हो या संरक्षित क्षेत्रों में किया जाने वाला खनन।
लेकिन फिर भी, कोई दुनिया में अलग-अलग जगहों पर चल रहे इस खनन प्रक्रिया को पूरी तरह से बंद करने की मांग नहीं करता है। ऐसा इसलिए कि इसका सीधा मतलब विकास की किसी गतिविधि का ना होना होगा। यानी कोई फ़ोन नहीं, कार नहीं, ना ही लोहे या सोने जैसी धातुओं का इस्तेमाल और सभी को पेड़ और पौधों से बने घरों में रहना होगा। यह एक ऐसी स्थिति है जिसकी कल्पना करना भी मुश्किल है, और आज भी एक बड़ा तबका ऐसा है जिनका जीवनस्तर सुधारे जाने की ज़रूरत है।
खनिज पदार्थों की बहुलता वाले देशों में एक साथ दो तरह की सोच वाले लोग होते हैं। स्थानीय स्तर पर, एंटी-एक्सट्रैक्टिविस्ट यानी कि खनन-प्रतिरोधी समुदाय के लोग अपने इलाके में खनन का विरोध करते हैं। वहीं राष्ट्रीय स्तर पर, वे लोग जो इस उम्मीद में जीते हैं कि खनिजों की बिक्री से ग़रीबी हटाने और समृद्धि लाने (संसाधनों का राष्ट्रवाद जिसे रिसोर्स नैशनलिज्म भी कहते हैं।) में मदद मिलेगी। इन दोनों तरह की सोच के बीच किस प्रकार सामंजस्य बैठाया जा सकता है?
खनन को अनुमति मिलने की स्थिति में उसके सभी हितधारकों जैसे कि खनन करने वालों, कर्मचारी और ठेकेदार, सरकार, स्थानीय समुदाय और पर्यावरण आदि के साथ न्याय एवं उचित व्यवहार किया जाना चाहिए। लेकिन आमतौर खनन से पहले इन खनिजों के मालिकों को भुला दिया जाता है जो इसका एक मुख्य हितधारक होता है।
देशों का अपने प्राकृतिक संसाधनों पर स्थायी मालिकाना हक होता है। खनिजों का स्वामित्व आमतौर पर किसी सामूहिक (राज्य/प्रांत, जनजाति आदि) का प्रतिनिधित्व करने वाली सरकार के किसी स्तर को सौंपा जाता है। इसकी प्रतिक्रिया में, खनिज उन लोगों की ओर से रखे जाते हैं जिनसे समूह बनता है। और चूंकि, सामूहिकता एक शाश्वत, बहु-पीढ़ी इकाई है, इसलिए प्राकृतिक संसाधनों पर भविष्य की सभी पीढ़ियों का भी अधिकार है।
अगर हम प्राकृतिक संसाधनों को एक साझी विरासत मानते हैं, तो खनिज मालिकों की सोच के अनुसार, खनन वास्तव में एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें खनिज संपदा को संपत्ति के अन्य रूपों में बदला जाता है। पीढ़ीगत समानता और स्थिरता के लिए हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि आने वाली पीढ़ियों को कम से कम उतना ही विरासत में मिले जितना हमें मिला है। ऐसी स्थिति में हमारे पास दो विकल्प होते हैं।
या तो खनन-प्रतिरोधी तरीक़ा: खनिजों को यथास्थिति छोड़ देना जहां वे हैं, हमारे बच्चों को वे उसी अवस्था में मिलेंगे जैसे हमें मिले थे, पीढ़िगत- समानता को हासिल करने का यह एक मात्र तरीक़ा है।
या संसाधन राष्ट्रवादियों का तरीक़ा: यह सुनिश्चित करने के लिए खनन और निवेश करना कि हमारे बच्चों को विरासत में मिलने वाली कुल संपत्ति उतनी ही मूल्यवान हो जितना कि ये खनिज।
अगर खनन का अर्थ संपत्ति का रूपांतरण है तब ऐसी स्थिति में खनन करने वाली इकाई (व्यक्ति/ कंपनी/ संस्था/संगठन) केवल एक आउटसोर्स धन प्रबंधन सेवा प्रदाता है, जिसे प्रबंधित, विनियमित किया जाना चाहिए और उनकी सेवा के अनुपात में उन्हें भुगतान किया जाना चाहिए।
खनिज स्वामित्व वाली प्रतिनिधि सरकार का लक्ष्य यह होना चाहिए कि रूपांतरण की इस प्रक्रिया में मूल्यों के संदर्भ में हानि की दर शून्य हो। दुर्भाग्य से, भारी नुकसान आम बात है, और जो प्राप्त होता है उसे आय मानकर उसका उपभोग किया जाता है।
खनन करने वाले, राजनेताओं और उनके साथियों के बीच, धन और सत्ता बनाए रखने की इच्छा, खनन प्रक्रिया के दौरान होने वाले अधिकांश मानवाधिकारों और पर्यावरण के दुरुपयोग को प्रेरित करती है।
वर्तमान और भावी पीढ़ियों को धोखा दिया जा रहा है, और उनसे चुराई जा रही संपत्ति का उपयोग भ्रष्ट व्यवस्था को बनाए रखने के लिए किया जा रहा है।
निष्पक्ष खनन की स्थिति को हासिल करने के लिए खनिज संपदा बेचते समय ज़ीरो लॉस की स्थिति से परे जाकर संपूर्ण खनिज बिक्री से होने वाली आय का निवेश ऐसी संपत्तियों में किया जाना चाहिए जिनका मूल्य पीढ़ी दर पीढ़ी बना रहता है। ज़मीन, क़ीमती धातु और पत्थर ऐसी संपत्ति के परंपरागत उदाहरण थे। आज के समय में, नॉर्वे के तेल फंड को मुद्रास्फीति-प्रूफ़िंग के साथ एक बंदोबस्ती निधि (इंडॉन्मेंट फंड) के रूप में, भविष्य की पीढ़ियों के लिए बचत करने का सबसे कारगर तरीक़ा माना जाता है।
फंड से होने वाली आय को सामान्य आबादी में एक समान रूप से वितरित की जाना चाहिए। भावी पीढ़ियों को यह निधि विरासत में मिलेगी और वे इसका लाभ उठा सकेंगे।
महत्वपूर्ण बात यह है कि, लाभांश पूरी आबादी और उनके फंड और खनिज विरासत के बीच एक प्रकार का संबंध बनाता है, जिससे जीरो लॉस की स्थिति को व्यावहारिक रूप से हासिल करने की संभावना अधिक हो जाती है। आर्थिक नज़रिए से देखा जाए तो यह दिखाना आसान है कि यह, वर्तमान में अपनाए जा रहे तरीके से बेहतर है। और इससे बढ़कर, यह उचित है। लेकिन इतना पर्याप्त नहीं है। खनन, विरासत के अन्य रूपों को भी प्रभावित करता है और निष्पक्ष खनन के लिए उन पर भी उचित तरीक़े से बात किए जाने की ज़रूरत है:
1. पर्यावरण और स्थानीय समुदायों की सुरक्षा के लिए, एहतियाती सिद्धांत के तहत, हमें निषिद्ध क्षेत्र बनाने चाहिए। हमें स्थानीय समुदायों की निशुल्क, पूर्व और जानकारीपूर्ण सहमति (एफपीआईसी) की गारंटी देनी चाहिए, पर्यावरण से जुड़े मजबूत नियमों को सुनिश्चित करना चाहिए और संभावित उच्च जोखिम वाली प्रथाओं पर रोक लगानी चाहिए। हमें तेज़ी से बढ़ते जा रहे नुक़सान को सीमित करने के लिए कई परियोजनाओं में खनन को सीमित करना चाहिए। पॉल्यूटर पेज प्रिंसिपल (प्रदूषक भुगतान सिद्धांत) के तहत, हमें बचाव, पुनर्भंडारण, क्षतिपूर्ति और प्रतिपूर्ति करने की मिटिगेशन हेरार्की की ज़रूरत है। हमें अपनी भावी पीढ़ियों के लिए अधिक से अधिक जंगल, पानी के साफ़ स्रोत आदि छोड़ने चाहिए। खनन परियोजनाओं से पर्यावरण और समुदायों का जीवन बेहतर होना चाहिए ना कि केवल नुक़सान से बचने के प्रयास करने चाहिए। जीवाश्म ईंधन जैसे कुछ खनिजों का अंतरराष्ट्रीय प्रभाव पड़ता है, और इसके लिए वैश्विक स्तर पर सीमित खनन के साथ-साथ नुकसान और क्षति की भरपाई की भी आवश्यकता होती है।
2. खनन परियोजनाओं के कारण पैदा होने वाली नौकरियां और आय भी विरासत में मिले अवसर हैं जो निष्कर्षण के साथ ख़त्म हो जाते हैं। यह समझ स्थानीय सामग्री, स्थानीय खरीद और स्थानीय रोजगार की व्यापक मांगों को प्रेरित करती है। इसके अलावा, यह सुनिश्चित करने के लिए खनन की सीमा तय की जानी चाहिए कि भावी पीढ़ियां भी खनन से होने वाली आय से लाभान्वित हो सकें।
3. इसी तरह, उपयोगी चीजों (तलवारें या हल के फाल) के लिए खनिज का उपयोग करने का अवसर एक बार मिलने वाली मूल्यवान विरासत है। यह समझ कुछ देशों को इस बात के लिए प्रेरित करती है कि वे अपनी वर्तमान जरूरतों के लिए खनिजों का आयात करते समय भविष्य की पीढ़ियों के उपयोग के लिए अपने कुछ खनिजों का रणनीतिक भंडार करें।
4. एक अन्य विरासत समाज के अन्य पहलुओं को विकसित करने के लिए खनन का उपयोग करने का अवसर है। कुछ देशों ने अपेक्षाकृत कम लागत पर साझा-उपयोग वाले ढांचों के निर्माण के लिए जानबूझकर नई खदानों का उपयोग किया है। अन्य देश मुख्य दक्षताओं का निर्माण करने के अंतिम लक्ष्य के साथ घरेलू मूल्य संवर्धन पर जोर देते हैं। ये सभी दुर्लभ अवसर हैं इसलिए उनका लाभ उठाना ज़रूरी है।
विरासत में मिली मूल्यवान संपत्ति को चोरी, हानि या बर्बादी से बचाने के लिए प्रबंधन की मानसिकता की आवश्यकता होती है। ऐसा इसलिए है ताकि हम अपने कर्तव्य को पूरा करते हुए यह सुनिश्चित कर सकें कि आने वाली पीढ़ियों को कम से कम उतना ही विरासत में मिले जितना हमें मिला। यह नागरिक समाज के लिए संभावित वैश्विक अभियानों का सुझाव देता है:
1. खनन प्रक्रिया के दौरान चोरी को रोकने के लिए, ट्रस्टी/प्रबंधक को प्रथम श्रेणी नियंत्रण प्रणाली लागू करनी होगी। इसमें एक उच्च सुरक्षा खनिज आपूर्ति श्रृंखला प्रणाली, आउटसोर्सिंग अनुबंधों से सर्वोत्तम प्रथाएं, सिस्टम ऑडिटर, एक व्हिसिल-ब्लोअर इनाम और सुरक्षा योजना आदि शामिल हैं।
2. चोरों को मानव जाति की संपत्ति नहीं सौंपी जानी चाहिए। इसके अलावा, खनिज मनी लॉन्डरिंग/टेररिज़्म फायनेंस का एक नियमित हिस्सा हैं। हमारे धन को संभालने में शामिल सभी लोगों के लिए फिट एंड प्रॉपर पर्सन टेस्ट (और आमतौर पर सत्यनिष्ठा उचित परिश्रम) आवश्यक हैं।
3. भावी पीढ़ियों के प्रति हम सभी का यह कर्तव्य है कि हम यह सुनिश्चित करें कि हमारी साझा विरासत बरकरार रहे। इसलिए, वास्तविक मालिकों के रूप में लोगों को यह सत्यापित करने का अधिकार दिया जाना चाहिए कि भावी पीढ़ियों के प्रति उनका कर्तव्य पूरा हो गया है। इसके लिए बिना किसी लागत के वास्तविक समय में सभी डेटा तक जनता की खुली पहुंच सहित मौलिक पारदर्शिता की आवश्यकता है। क़ानून में इसका प्रावधान होना चाहिए कि खनन करने वाली इकाई बिना किसी अपवाद के खनन से जुड़ी सभी जानकारियों को पारदर्शिता के साथ सार्वजनिक करे। इसका दायरा ईआईटीआई के मानकों से परे है।
अगर ये सभी शर्तें पूरी होती हैं तभी हम वास्तविक अर्थों में पीढ़िगत समानता और स्थिरता को प्राप्त कर सकते हैं। इससे थोड़ा भी कम होने पर विरासत को लेकर हम भावी पीढ़ियों के साथ धोखा कर रहे हैं – उनकी इच्छा यही होगी कि हम खनिजों को ज़मीन में ही छोड़ दें। हम इस बात की उम्मीद करते हैं कि खनिज संपदा और खनन के लिए साझा विरासत वाली सोच की वकालत करने के लिए नागरिक समाज के दूसरे लोग हमारे साथ जुड़ेंगे। एकजुट होकर हम बड़े-बड़े बदलाव ला सकते हैं!
लेखकों ने आईडीआर पर इस लेख के प्रकाशन के लिए इसमें थोड़े-बहुत बदलाव किए हैं। यह लेख मूलरूप से पब्लिश व्हाट यू पे पर प्रकाशित हुआ है।
इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें।
रात के बारह बजने को हैं और मुझे नींद नहीं आ रही है। मैं अब भी अपनी टीम के बारे में सोच रही हूं। सोचो तो कितना सीमित समय होता है हमारे पास दुनिया को थोड़ा बेहतर करने और उसमें कुछ बदल देने के लिए। हफ़्ते के सिर्फ़ पांच ही दिन… तो काम करते हैं हम। फिर भी, मेरी टीम से हर दिन कोई न कोई छुट्टी लेने के लिए तैयार रहता है। इन्हें देने कि लिए कितना कुछ है मेरे पास…मेरे अपने अनुभव, सेक्टर की समझ और सबसे ज़रूरी मेरा मार्गदर्शन लेकिन इन्हें क्या चाहिए? बस… छुट्टी!
अगर मुझसे कोई कहे कि दुनिया से एक चीज ख़त्म करनी है तो मैं चाहूंगी कि यह जब-तब छुट्टियां लेने का चलन ख़त्म हो जाए। लेकिन फिर सोचती हूं कि ग़रीबी, असमानता, शोषण और महामारी वग़ैरह में से किसी एक को चुनना ज़्यादा सही और समझदारी भरा होगा। कल शाम ही अचानक पता चला था कि हेड ऑफिस से कुछ लोग आज विज़िट के लिए आएंगे और आज सुबह ही टीम के आधे लोग छुट्टी पर चले गए हैं। ऐसी-ऐसी इमरजेंसी आती है लोगों को कि क्या कहूं? इन बहानों को ना निगलते बनता है और ना उगलते। कई बार तो एकदम साफ़-साफ़ दिख रहा होता है कि बहाना मारा जा रहा है। लेकिन मना करूं भी तो कैसे? आख़िर, कभी-कभी तो मुझे भी छुट्टी चाहिए होती है। और फिर, समानुभूति… अरे वही एम्पैथी, हमारी संस्था के सबसे ज़रूरी मूल्यों में से एक है। और, फिर मैं भी तो एक अच्छी इंसान हूं। कम से कम अपनी नज़रों में सही।
मुझे लगा था कल आज़ादी का दिन है तो काम से भी थोड़ी आज़ादी मिल जाएगी। लेकिन, टीम में एक साथ कई लोग बीमार हो गये हैं। एक बार को तो मैं डर गई कि कहीं दफ़्तर के वाटर कूलर में तो कोई दिक़्क़त नहीं आ गई है जिससे ख़राब हुआ पानी लोगों को बीमार बना रहा है। फिर मुझे ख़्याल आया कि 12- 13 अगस्त वीकेंड था और कल है 15 अगस्त यानी कि स्वतंत्रता दिवस। ऐसे में बस आज भर की छुट्टी लेने पर लोगों को लगातार चार दिन की छुट्टी मिल जाएगी। एक ही दिन कई लोगों को बुख़ार आने और पेट ख़राब होने की वजह समझते ही मुझे थोड़ी राहत मिली। ईमानदारी से कहूं तो थोड़ा ग़ुस्सा भी आया। ऐसे मौक़ों पर सोचती हूं मैनेजर बनने से पहले की ही ज़िंदगी अच्छी थी, ऐसे बहाने जो बना सकती थी। ख़ैर टीम के बीमार पड़े लोगों के हिस्से काम भी अब मुझे करना पड़ेगा… पड़ेगा क्या, करना ही पड़ रहा है…. अरे, कर ही रही हूं।
कभी-कभी मुझे अपनी समझदारी पर शक होने लगता है। हुआ यह कि कई महीनों से एक प्लान पर काम चल रहा था। एक-एक जन को मैंने अलग-अलग तरह की ज़िम्मेदारियां दे रखीं थीं। अब जब एक-एक करके उन सभी कामों को ख़त्म करने की तारीख़ नज़दीक आई है, तो लोगों ने छुट्टियों की मांग शुरू कर दी है। ये क्या बात हुई भला कि डेडलाइन मिस हो रही है तो छुट्टी पर चले जाओ। किसी ने तो मुझे यह तक कहा कि फ़लां ने छुट्टी ली ही इसलिए है ताकि वो अपना काम खत्म कर सकें। ना.. ना.. ना! मैं नहीं मान सकती। कोई मुझे बताए जो काम वर्किंग डेज़ में ना हुआ छुट्टियों में हो जाएगा? ये मुझे समझते क्या हैं! आख़िर मैं भी एक ही दिन में यहां थोड़े पहुंच गई हूं…ख़ैर छुट्टी तो सबका हक़ होता है और फिर वही बात कि मैं हूं भी तो एक अच्छी इंसान।
छुट्टियों को लेकर मेरी पॉलिसी पक्की है। छुट्टी के दौरान ऑफिस के फोन-मैसेज से किसी को ना तो परेशान करना अच्छा लगता है मुझे और ना ही ख़ुद परेशान होना। आख़िर इंसान छुट्टी लेता क्यों है, इन्हीं सबसे ब्रेक लेने के लिए ना! लेकिन अब मैं ख़ुद अपनी ही बनाई पॉलिसी को निभा नहीं पा रही। अब छुट्टी के दौरान भी लोगों को परेशान करना मेरी मजबूरी हो गई है। दरअसल छुट्टी पर जाने से पहले लोग अपना काम समय पर ख़त्म करके या उसकी सही स्थिति बताकर नहीं जाते हैं और मुझे ना चाहते हुए भी उनसे पूछना पड़ जाता है। आख़िरी काम तो नहीं रुकता ना उसे तो होना ही है भले चाहे मैं ही क्यों ना छुट्टी पर चली जाऊं। लेकिन साथ ही मुझे इस बात का अहसास होने लगा है कि इस कारण से मैं अपनी टीम के सामने विलेन बनती जा रही हूं। मैंने टीम से कहा भी कि ऐसा मत किया करो पर कोई सुनता नहीं। मेरी हालत शोले के ठाकुर जैसी हो गई है और मेरे सामने इनकी हरकतों को देखने और उन्हें झेलने के अलावा और कोई चारा नहीं बच रहा है!
विकास सेक्टर में अक्सर तमाम प्रक्रियाओं और घटनाओं को बताने के लिए एक ख़ास तरह की शब्दावली का इस्तेमाल किया जाता है। आपने ऐसे कुछ शब्दों और उनके इस्तेमाल को लेकर असमंजस का सामना भी किया होगा। इसी असमंजस को दूर करने के लिए हम एक ऑडियो सीरीज़ ‘सरल–कोश’ लेकर आए हैं जिसमें हम आपके इस्तेमाल में आने वाले कुछ महत्वपूर्ण शब्दों पर बात करने वाले हैं।
कम्युनिटी मोबलाइजेशन, सरल मायनों वाला लेकिन बोलने में कठिन लगने वाला एक शब्द है। अर्थ है, सामुदायिक जुड़ाव। समुदाय के सदस्यों का आपस में जुड़ना और किसी उद्देश्य के लिए इकट्ठा होकर काम करना, कम्युनिटी मोबलाइजेशन कहलाता है।
लगभग हर समाजसेवी संस्था किसी न किसी स्तर पर लोगों को जोड़ने यानी कम्युनिटी मोबलाइजेशन का काम करती है। सामाजिक संस्थाएं, इसके लिए अलग से लोगों को नियुक्त भी करती हैं। इसलिए अगर आप एक कम्युनिटी मोबलाइजर हैं तो इसका मतलब है कि घर-घर जाकर लोगों से बात करना, उन्हें अपने कार्यक्रम की जानकारी देना या किसी विषय पर जागरुकता फैलाना वग़ैरह आपके काम में शामिल हो सकता है।
अगर आप इस सीरीज़ में किसी अन्य शब्द को और सरलता से समझना चाहते हैं तो हमें यूट्यूब के कॉमेंट बॉक्स में ज़रूर लिखें।
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सामाजिक सेक्टर में अच्छे और प्रभावी काम का आधार विविधता, समानता और समावेशन (डीईआई) होता है। हालांकि, अलग-अलग संगठन और लोगों में डीईआई को लेकर समझ भी अलग-अलग होती है। उदाहरण के लिए, ऐसे सेक्टर जहां पारंपरिक रूप से पुरुषों का वर्चस्व था उनमें लैंगिक समावेशन को अक्सर महिलाओं की संख्या बढ़ाने के रूप में देखा जाता है जो कि बहुत ही महत्वपूर्ण है। लेकिन, अगर हम लिंग को एक स्पेक्ट्रम की तरह देखें तो इस संवाद का विस्तार कैसे हो सकता है?
क्या डीईआई से जुड़े संवाद में, हमारी विविध पहचानों के कारण हमें मिलने वाली सुविधाएं और कमियों का ज़िक्र भी शामिल होता है? उदाहरण के लिए, एक सीईओ जो समलैंगिक है उसे सीईओ होने के कारण कुछ विशेष ताक़तें मिल सकती हैं लेकिन दूसरी तरफ़ समलैंगिक होने के कारण उसे हाशिये का जीवन बिताने जैसे अनुभव भी झेलने पड़ सकते हैं। क्या हम इस बारे में खुलकर बात करते हैं कि विभिन्न प्रकार की ये पहचान और इनका परस्पर हस्तक्षेप कार्यस्थल पर कैसे काम करते हैं और साथ ही हमारे कामों और प्रतिक्रियाओं को किस तरह प्रभावित करते हैं?
ये कुछ ऐसे सवाल हैं जो हमारी डीईआई की अपनी यात्रा के दौरान उम्मीद चाइल्ड डेवलपमेंट सेंटर के साथ काम करते समय हमारे सामने खड़े थे। उम्मीद की स्थापना 2001 में विकास संबंधी विकलांगता वाले और उनके ख़तरे उठा रहे बच्चों की मदद करने की सोच को केंद्र में रखकर किया गया था। इतने वर्षों में हम लोगों ने बच्चों और परिवारों को सीधे क्लिनिकल सेवाएं दी हैं। इसके अलावा हमने डॉक्टर, थेरापिस्ट, शिक्षकों और समुदाय के कार्यकर्ताओं जैसे पेशेवरों के लिए प्रशिक्षण कार्यक्रम भी आयोजित किया है।
विकलांगता से जुड़े मुद्दों पर काम करने वाली एक संस्था होने के नाते हमने हमेशा ही कार्यस्थल समेत सभी जगहों पर डीईआई के प्रति अपनी गहन प्रतिबद्धता को बनाए रखा है। जब हम एक छोटी सी टीम के रूप में काम कर रहे थे तब हमने आपसी बातचीत से संगठन की संस्कृति के कई पहलुओं के बारे में अनौपचारिक रूप से जाना। हालांकि, हमारी टीम – जिसमें बाल रोग विशेषज्ञ, चिकित्सक, स्कूल विशेषज्ञ, परियोजना प्रबंधक, माता-पिता, सामुदायिक कार्यकर्ता और सहायक कर्मचारी शामिल हैं – 2016 से 2021 के बीच 55 सदस्यों से दोगुना बढ़कर लगभग 110 तक पहुंच गई। अगले कुछ सालों में हमारा उद्देश्य इस संख्या को भी बढ़ाकर दोगुने तक पहुंचाने का है।
तेज़ी से बढ़ रही टीम और कोविड-19 महामारी के कारण वर्चुअल रूप से काम करने की बढ़ती संभावनाओं को देखते हुए हमें उन मूल्यों को औपचारिक रूप देने और आंतरिक प्रसार की आवश्यकता महसूस हुई, जिन्हें संगठन और उसके सदस्यों को अपनाना चाहिए। संगठन के युवा सदस्य इस बात को लेकर विशेष रूप से ऐसा चाहते थे कि संगठन को उनके लिए महत्वपूर्ण मूल्यों को सक्रियता से अपनाना चाहिए। इसके कारण ही, हमने ऐसे सुरक्षित कार्य स्थलों के निर्माण को लेकर अपने प्रयासों को तेज कर दिया जहां वे अपनी विविधता को दिखा सकें और अपनी क्षमता के अनुसार परिणाम हासिल कर सकें।
उम्मीद की डीईआई यात्रा की शुरूआत 2021 में हुई थी। सबसे पहले, नेतृत्व टीम ने संगठन के कामकाज से परिचित मानव संसाधन सलाहकार और कोच की सहायता से विविधता और समावेशन पर बातचीत में शामिल होना शुरू किया। इससे हमें समावेशी नेतृत्व की एक आम समझ विकसित करने में मदद मिली और डीईआई को और अधिक मजबूती से प्रतिबद्ध करने की दिशा में हम पहले से भी अधिक प्रेरित हुए। इस बातचीत से यह स्पष्ट हुआ कि ऐसे कई मामले थे जिनपर हमारी नज़र ही नहीं थी और इसका कारण डीईआई को लेकर हमारे मौजूदा ज्ञान में कमी थी। इसके अलावा, हमें इस बात का भी एहसास हुआ कि डीईआई के प्रति एक अपेक्षाकृत अधिक विचारशील सोच से उन बच्चों, परिवारों और प्रशिक्षण लेने वालों को भी लाभ होगा जिनके साथ हम काम करते हैं।
हमारे डीईआई प्रयासों के मुख्य केंद्र में भाषाई विविधता, न्यूरोडायवर्सिटी और विकलांगता के साथ लिंग और यौन विविधता जैसे विषय थे।
हमारा पहला कदम सभी कर्मचारियों के साथ एक सर्वेक्षण करना था, जिसमें संगठन में डीईआई के बारे में कर्मचारी सदस्यों की धारणाओं का पता लगाने की कोशिश की गई थी। समाना सेंटर फॉर जेंडर, पॉलिसी, एंड लॉ द्वारा आयोजित, सर्वेक्षण अंग्रेजी और हिंदी दोनों ही भाषाओं में किया गाया था और उस समय कुल 110 कर्मचारी सदस्यों में से 88 ने इस सर्वेक्षण को पूरा किया था। इसके परिणामों में कर्मचारियों की सोच स्पष्ट हुई: जहां टीम के वरिष्ठ सदस्य सही राह पर थे, वहीं हमें इस बात को लेकर किसी भी तरह का अंदाज़ा नहीं था कि वास्तविक रूप से समावेशन का काम किस प्रकार किया जाए। सर्वेक्षण के आधार पर, हमें अपने डीईआई प्रयासों के मुख्य क्षेत्रों के बारे में पता लगाने में आसानी हुई: भाषाई विविधता, न्यूरोडायवर्सिटी और विकलांगता, और लैंगिक एवं यौनिक विविधता।
और इसलिए, साल 2022 में डीईआई की अपनी इस यात्रा को सहयोग देने के लिए हमने अपने साथ सामाजिक-आर्थिक सीख से जुड़े कार्यक्रमों के प्रदान करने वाली समाजसेवी संगठन अपनी शाला फाउंडेशन को जोड़ा। अपनी शाला की भागीदारी ने हमें अपने संगठन के भीतर पहले से मौजूद इरादों का सम्मान करने और उन्हें सिस्टम और ढांचे में शामिल करने में सक्षम बनाया जो इसकी भविष्य की यात्रा में अपना सहयोग देने वाले थे।
हमारी बातचीत ने प्रणालीगत परिवर्तन को काम करने के लक्ष्य के रूप में निर्धारित करने में मदद की, साथ ही व्यक्तिगत परिवर्तन को इसके मार्ग के रूप में तैयार किया। यह इस समझ पर आधारित था कि लोग ही प्रणालियों यानी कि सिस्टम को बनाते हैं और इस प्रकार प्रणाली-व्यापी परिवर्तन को प्रभावित करने में प्रत्येक व्यक्ति की भूमिका होती है। शुरुआत से ही, यह स्पष्ट कर दिया गया था कि उम्मीद की पूरी नेतृत्व टीम को अपनी शाला द्वारा आयोजित सत्रों में सक्रिय रूप से भाग लेना होगा। ऐसा करने के पीछे की सोच यह थी कि नेतृत्व टीम इस सीखने की यात्रा में सक्रिय भूमिका निभाए और सभी के लिए समानता, न्याय, समावेश और अपनापन लाने में अपनी उन शक्तियों का प्रयोग करे जो उन्हें अपने-अपने पद के कारण मिली हैं।
अपनी शाला के हस्तक्षेप कार्यक्रम में दो चरण शामिल थे। सबसे पहले, सभी कर्मचारी सदस्यों के साथ ओरिएंटेशन सत्र आयोजित किए गए। इन सत्रों में, प्रत्येक सदस्य को भाषा, न्यूरोडायवर्सिटी और विकलांगता, लैंगिक एवं यौनिक पसंद, और विविधता के अन्य प्रकारों से पहचान, ताकत और हाशिए पर होने के अपने व्यक्तिगत अनुभवों का पता लगाने का अवसर मिला। इन सत्रों का आयोजन 25-30 प्रतिभागियों के समूह के लिए उनकी भाषा में ही किया गया।
ओरिएंटेशन के बाद, संगठन से सभी स्तरों पर जुड़े कुल 30 वॉलंटियर ने हस्तक्षेप के अगले चरण में भाग लिया: पहचाने गए सात मुख्य क्षेत्रों पर सात गहन सत्रों का आयोजन। ये सत्र सात महीने के लिए महीने में एक बार किसी नई जगह पर आयोजित किए गए थे।
इस गहन सत्रों के दौरान अपनी शाला ने कुछ मुख्य रणनीतियों को अपनाया था। उदाहरण के लिए, कार्यस्थल पर शक्ति का वितरण अलग-अलग जगहों पर था, और बिना इन शक्तियों की स्थिति और इनके द्वारा निभाई जाने वाली भूमिकाओं का पता लगाये, डीईआई से जुड़ी किसी भी तरह की स्पष्ट बातचीत संभव नहीं है। अपनी शाला के सत्रों में सत्ता के इस अंतर पर प्रमुखता से बात करके, शक्ति के वितरण के लिए ज़िम्मेदार सत्र के इन और आउट-ऑफ़- व्यस्तताओं के लिए मानदंड तैयार करके, बातचीत और समूह गतिविधियों के लिए जानबूझकर समूह बनाने और एक अंतरविरोधी नज़रिए से चर्चा की सुविधा प्रदान करके संबोधित किया गया।
अपनी शाला ने जो एक दूसरी रणनीति अपनाई उसमें उसने सीरियल टेस्टीमनी प्रोटोकॉल का इस्तेमाल किया था। इसमें समूहों के सदस्यों को बोलने के लिए समान समय दिया जाता था, चाहे वे संगठन के किसी भी पद पर क्यों ना हों। इससे संगठन के उन सदस्यों को भी बोलने का अवसर मिला जो विशेष अधिकार की कमी के कारण चुप रह जाते थे। यह अभ्यास किसी की भी चिंताओं को सुनने में इतना प्रभावी था कि इसे उम्मीद में वर्तमान कर्मचारी बैठकों में भी अपनाया गया है।
अपनी शाला का यह हस्तक्षेप मई 2023 में समाप्त हो गया। इसके बाद इन गहन सत्रों में भाग लेने वाले कुल 30 में से 22 सदस्यों ने उन समूहों में शामिल होने की इच्छा जताई जो अगले एक से दो वर्षों में उम्मीद की नीतियों, प्रक्रियाओं, कार्यक्रमों और प्रणालियों को डीईआई के सिद्धांतों के साथ संरेखित करने को सुनिश्चित करने के लिए काम करने वाला था।
हालांकि अपनी शाला टीम को यकीन था कि व्यक्तिगत यात्राओं को बढ़ावा देने से संगठनात्मक बदलाव आएगा, लेकिन कुछ लोग इसमें लगने वाले समय को लेकर निश्चित नहीं थे। अपनी शाला की टीम ने उनकी चिंताओं को पहचाना, उन्हें दोबारा आश्वासन दिया और प्रत्येक सत्र में इस बारे में बात करने के लिए पर्याप्त अवसर दिये कि एक संगठन के रूप में उम्मीद के लिए उस दिन होने वाली चर्चा का क्या विशेष मतलब हो सकता है। इससे व्यक्तिगत रूप से बदलाव लाने वाले काम और संगठन की जरूरतों के बीच एक स्पष्ट संबंध प्रस्तुत करने में मदद मिली।
जहां एक तरफ उम्मीद टीम के अधिकांश लोग – विशेष रूप से समूह में शामिल लोग – इस नई पहल से सहमत थे, वहीं कुछ ऐसे लोग भी थे जिन्होंने इन सत्रों में लगाये जाने वाले समय पर आश्चर्य जताया और यह सवाल भी उठाया कि अख़िरकार इन सबका क्या मतलब निकल कर आयेगा। इस बात को समझा जा सकता था क्योंकि काम का कोई ठोस परिणाम देखने को नहीं मिल रहा था: कोई व्यक्तिगत परिवर्तन की माप कैसे कर सकता है?
इस प्रकार, उम्मीद की नेतृत्व टीम ने डीईआई के प्रति संगठन की प्रतिबद्धता पर फिर से जोर देने और इससे जुड़ाव के कारण पहले से ही हो रही ‘छोटी जीत’ को साझा करने की जिम्मेदारी ली। सभी सत्रों के समाप्त होने तक, किसी ने भी समय की बर्बादी वाली बात दर्ज नहीं करवाई और लगभग 75 फ़ीसद प्रतिभागियों ने इसके लिए अपने नाम दर्ज करवाए कि वे संगठनात्मक परिवर्तन की प्रक्रिया में मदद के लिए अपने व्यक्तिगत परिवर्तन का इस्तेमाल करेंगे।
संगठन के भीतर मजबूत डीईआई प्रथाओं को विकसित करने के लिए सजग प्रयास करने की प्रक्रिया मुफ्त नहीं होती है। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए कि आमतौर पर दानकर्ताओं का ध्यान बाहरी काम पर होता है और वे शायद ही कभी आंतरिक क्षमता निर्माण में निवेश की इच्छा जताते हैं, इस पहल को अपना सहयोग और समर्थन देने वाले केवल कुछ ही दानकर्ता थे; बाक़ी का खर्च उम्मीद की बचत के पैसे से पूरी की गई। हम यह आशा करते हैं कि दानकर्ता लोचदार संगठनों के निर्माण के लिए डीईआई को एक महत्वपूर्ण कदम के रूप में देखते हैं और साथ ही इसे या तो एक स्वतंत्र समर्थन या किसी प्रोग्रामेटिक फंडिंग के हिस्से के रूप में देखा जाता है।
इस गहन सत्रों ने पहचान और पिछड़ेपन के संबंध में प्रतिभागियों को उनके व्यक्तिगत अनुभवों को लेकर पहले से अधिक जागरूक बनाया और आंतरिक मानसिक स्वास्थ्य समर्थन के लिए बढ़ती ज़रूरत में अपना योगदान दिया। इसलिए, हमें भी इस पर सोचना पड़ा कि इन परिवर्तनकारी व्यक्तिगत यात्राओं को आगे बढ़ा रहे व्यक्तियों का प्रभावी ढंग से समर्थन कैसे किया जाए। इसके अलावा, ऐसे भी मामले थे जहां टीम के सदस्य का मैनेजर गहन सत्रों में भाग लेने वाले इन प्रतिभागियों में शामिल नहीं था। इसलिए, जब टीम के सदस्य इन सत्रों में हासिल अनुभव और सबक़ को लेकर वापस जाते हैं तो ज़रूरी नहीं है कि उनका मैनेजर हमेशा ही उनकी बात मान लेगा या उन्हें उत्साहित करेगा। इस पर बातचीत अभी भी जारी है कि ऐसी चुनौतीपूर्ण स्थितियों को ठीक से कैसे संभाला जाए।
हालांकि हमारा मानना है कि अभी भी और काम किया जाना बाकी है, हम हमारे डीईआई प्रयासों के कुछ परिणामों के बारे में यहां बता रहे हैं:
निकट भविष्य में, हमें उम्मीद है कि हम डीईआई के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को स्पष्ट रूप से बताने के लिए अपनी वेबसाइट को अपडेट करेंगे। हमने अब तक इस काम को रोका हुआ था क्योंकि हम पहले यह सुनिश्चित करना चाहते थे कि हमारी आंतरिक संस्कृति और प्रथाएं पूरी टीम के लिए एक समावेशी और न्यायसंगत वातावरण प्रदान करने में सक्षम हैं।
हम चाहते हैं कि उम्मीद काम करने वाली एक ऐसी जगह के रूप में विकसित हो सके जहां प्रत्येक व्यक्ति के लिए उसके अपने वास्तविक रूप में रहना संभव हो। हालांकि, इसे आंतरिक रूप से समर्थित किया जा सकता है, लेकिन संगठन को इसे बनाने वाले कर्मचारियों के दृष्टिकोण से कहीं अधिक संघर्ष करने की ज़रूरत है। उदाहरण के लिए, ऐसा भी समय था जब हमारे पास आने वाले बच्चे और उनके माता-पिता ने किसी ख़ास थैरेपिस्ट से इलाज करवाने के लिए मना कर दिया क्योंकि वे अलग दिखाई पड़ते थे। यह एक सामाजिक पूर्वाग्रह है जिससे एक संगठन के रूप में हमें निपटना है, और हमारे पास हर सवाल का जवाब नहीं है। लेकिन हम सीमित भी नहीं रहना चाहते हैं और हमारी इच्छा यह है कि हमारी सीख और सबक़ (और क्या नहीं सीखना चाहिए जैसी बातों) का प्रसार-प्रचार हो। इस प्रकार, हमारे पास ऐसी और भी जगहें होंगी जहां काम करने वाले प्रत्येक व्यक्ति के पास हमेशा ही अपने वास्तविक रूप में रहने की सुविधा होगी।
अपनी शाला के सीईओ रोहित कुमार, ने भी इस लेख में अपना योगदान दिया है।
इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें।
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यह पोस्ट @nonprofitssay से प्रेरित है।
बीते मार्च में केंद्र सरकार द्वारा बिठाई गयी उच्च स्तरीय समिति ने भारत में समकालिक चुनाव पर अपनी रिपोर्ट पेश की है। इससे पता चलता है कि सरकार ‘एक देश एक चुनाव’ को लेकर काफ़ी संजीदा है। समिति ने रिपोर्ट में इसी से जुड़े कुछ सुझाव दिए हैं, वे क्या हैं? क्या इनसे आम चुनाव से जुड़ी समस्याएं सुलझेंगी या और उलझेंगी?
यह पॉडकास्ट मूलरूप से पुलियाबाज़ी.इन पर प्रकाशित हुआ था जिसे आप यहां सुन सकते हैं।
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अधिक जानें
मेरा नाम अंगदुई फुंटसोक है। मैं हिमाचल प्रदेश के लाहौल और स्पीति जिले में पड़ने वाले किब्बर गांव का का रहने वाला हूं। मैं एक शिल्पकार होने के साथ बढ़ई का काम भी करता हूं। बचपन में, मैं परिवार की मदद करने के लिए हमारे गांव के चरागाहों में मवेशियों (भेड़, बकरी, गाय, याक और डज़ोमो) को चराने और जौ के खेतों की जुताई का काम करता था। बीस साल की उम्र से ही मैंने लकड़ी का काम करना शुरू कर दिया था। धीरे-धीरे मैं खिड़कियां, दरवाज़ों के फ़्रेम और कावा (लकड़ी के पाये) बनाने लगा जो पारंपरिक मिट्टी के घरों में इस्तेमाल होते हैं। मैंने स्पीति में मिट्टी के घरों को बनाने वाले कारीगरों और कलाकारों के साथ काम करते हुए सीखा है। ये लोग पत्थर की चिनाई के काम के कुशल कारीगर थे और मैंने घरों के मिस्त्री (मुख्य कारीगर) के रूप में अपने काम में इस ज्ञान का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया।
स्पीति में पारंपरिक घर बनाने और बढ़ई का काम करते हुए मुझे लगभग 27 साल हो चुके हैं। मैं अपनी गर्मियां मिट्टी के घरों को बनाने, उससे जुड़ी सलाह देने और स्थानीय लोगों की मदद करने में बिताता हूं। साथ ही, उनके लिए मरम्मत का काम करता हूं। सर्दियों में मैं पूरी तरह से केवल लकड़ी का काम करता हूं।
जब मैंने पहली बार काम शुरू किया था तब से लेकर आजतक स्पीति में घर बनने के तरीकों और वास्तुकला में बहुत अधिक बदलाव आ गया है। इस बदलाव का एक मुख्य कारण जीवनशैली का बदलना है। खेती स्पीति के लोगों की आमदनी का मुख्य स्रोत है। बीते कुछ सालों में यहां के किसानों ने अनाज वाली फसलों के बदले हरी मटर जैसी नक़दी फसलों की उपज को अपना लिया है। साथ ही, पर्यटन भी आजीविका का एक मुख्य स्रोत बन गया है। यह फ़ोटो निबंध इस बदलाव के इतिहास और कारणों की पड़ताल करता है और बताता है कि कैसे यह स्पीति की संस्कृति और वास्तुकला को प्रभावित कर रहा है।
पारंपरिक रूप से स्पीति की वास्तुकला में लकड़ी, मिट्टी और पत्थरों का इस्तेमाल प्रमुखता से होता रहा है। कच्चे माल का चुनाव उसकी स्थानीय उपलब्धता और जलवायु की स्थिति पर भी निर्भर करता है। इसके अलावा, क्षेत्रीय विविधता के कारण, कुछ निश्चित क्षेत्रों में कुछ चीजें बिलकुल ना के बराबर उपलब्ध होती हैं। उदाहरण के लिए, ऊपरी स्पीति के टोढ़ घाटी क्षेत्र में लकड़ी, अच्छी गुणवत्ता वाली मिट्टी, पत्थर और लोहे जैसे कच्चा माल हासिल करना बहुत मुश्किल होता है। इसलिए, आप देखेंगे कि इस क्षेत्र में बने घर की संरचना और डिज़ाइन अधिकतर मिट्टी पर आधारित थी जिसमें उन संसाधनों का न्यूनतम उपयोग किया गया था जो स्थानीय रूप से अनुपलब्ध हैं। निचले स्पीति के शाम घाटी जैसे क्षेत्रों में निर्माण के लिए कच्चे माल की उपलब्धता सहज है। इसका सीधा अर्थ यह है कि इस क्षेत्र में घरों की दीवार और छत के निर्माण में मिट्टी का इस्तेमाल प्रमुखता से किया जाता था और इमारत की स्थिरता को बढ़ाने के लिए इसके आधार में पत्थर लगाये जाते थे।
पहले स्पीति के लोग मुख्य रूप से खेती और पशुपालन पर निर्भर थे। इमारतों का निर्माण परिवार और समुदाय की खेती-पशुपालन से जुड़ी ज़रूरतों को ध्यान में रखकर किया जाता था। मवेशियों और पशुओं के बाड़े, अनाज और औज़ार रखने के लिए भंडार के साथ-साथ उपलों और गोबर रखने के लिए शौचालयों जैसे ढांचे, खुले बरामदे बनाए जाते थे। एक खेतिहर समाज के लिए समतल छत उनके घरों का एक अभिन्न हिस्सा हुआ करती थी।
समुदायों को स्थानीय स्तर पर उपलब्ध ऐसे संसाधनों और वस्तुओं की जानकारी थी जिनका इस्तेमाल निर्माण के लिए किया जाता था। इसके अलावा साधारण वास्तुकला निर्माण के तरीक़ों का सीधा अर्थ यह था कि पीढ़ी दर पीढ़ी ज्ञान का हस्तांतरण आसानी से हो सके। घर बनाना एक सामुदायिक काम हुआ करता था; समुदाय के सदस्य जौ, सब्ज़ियों और अन्य उत्पादों के बदले किसी के घर की छत बनाने के लिए एक साथ इकट्ठा होते थे।
हालांकि 1990 के दशक से चीजें उस समय बदलनी शुरू गईं जब एक नक़दी फसल एक रूप में हरे मटर की खेती के लिए सरकार के प्रोत्साहन अभियान के कारण लोग समृद्धि होने लगे और उन्हें इसके लाभ दिखने शुरू हो गए। मटर उपजाने वाले किसान, पंजाब में चंडीगढ़ जैसी जगहों पर जाकर अपनी फसलें बेचने लगे। वापसी में वही किसान अपने साथ लकड़ी के मोटे टुकड़ों जैसा कच्चा माल लाने लगे जिसके कारण स्पीति में जुनिपर, विलो और चिनार जैसी पतली किस्मों की जगह इनका इस्तेमाल होने लगा। क़स्बे के लोगों में बड़े शहरों जैसा जीवन जीने की इच्छा जागने लगी जिसमें उनके द्वारा देखी गईं कंक्रीट (आरसीसी) से बनी इमारतें भी शामिल थी जिसमें स्टील, कांच और सीमेंट जैसे कच्चे माल का इस्तेमाल होता था। अब जब उनके पास इसे हासिल करने के साधन थे, तो स्पीति शहर की वास्तुकला ने खुद को ग्रामीण कला से दूर करना शुरू कर दिया है।
कंक्रीट से बनी पक्की सड़कों का निर्माण किया गया जिससे एक क्षेत्र को दूसरे क्षेत्र से जोड़ा गया। स्पीति में रहने वाले लोगों ने अन्य जिलों के लोगों से बातचीत करनी शुरू कर दी और धीरे-धीरे उनकी वास्तुकला को भी अपनाना शुरू कर दिया। उदाहरण के लिए, मेरे जैसे मिस्त्री कुल्लू में बने होटलों में जाकर वास्तुकला को सीखा। हमने देखा कि वहां हर कमरे में अलग से एक शौचालय बनाया गया था और उनकी छतों में टाइल्स का इस्तेमाल किया गया था जो कि हमारी छतों में नहीं होता है। इस समय तक इंटरनेट नहीं आया था इसलिए हम शौचालयों और कमरों की माप लेते थे और उनके निर्माण के तरीक़ों और तकनीकों से जुड़ी जानकारी को कागज पर दर्ज कर लेते थे। इसके बाद वापस लौटकर इस ज्ञान को हम अपने काम में लागू करते थे।
धीरे-धीरे स्पीति के काजा, ताबो, रांग्रिक, लोसर, खुरीक, शेगो और लारा जैसे गांवों ने पर्यटकों को अपनी तरफ़ खींचना शुरू कर दिया जिसके कारण इन इलाक़ों में होमस्टे और होटलों की भरमार हो गई। आर्थिक उछाल का मतलब था कि समुदाय का युवा वर्ग अब पढ़ाई के लिए स्कूलों और कॉलेजों में जाने लगा था, और उद्यमिता और नौकरियां वास्तविक करियर विकल्प बन गईं।
जहां एक तरफ़ निर्माण की ज़रूरत बढ़ रही थी वहीं दूसरी तरफ़ सामुदायिक श्रम की उपलब्धता में कमी आ रही थी और मांग की आपूर्ति को पूरा कर पाना असंभव हो रहा था। स्पीति को कारीगरों की ज़रूरत थी और उसकी यह ज़रूरत निचले हिमाचली ज़िलों जैसे कि मंडी, कांगड़ा, और शिमला के अलावा राजस्थान, बिहार, ओडिशा, झारखंड और महाराष्ट्र से आने वाले प्रवासी मज़दूरों से पूरी होने लगी। इमारत बनाने वालों के लिए यह फ़ायदे का सौदा था क्योंकि अप्रैल-मई माह के अनुकूल मौसम में काम करने वाले स्थानीय श्रमिकों के उलट ये प्रवासी मज़दूर पूरे साल काम करने के लिए तैयार थे। हमारे पूर्वजों ने बारिश के डर से जून-जुलाई में घरों का निर्माण ना करने की सलाह दी थी, लेकिन अब मानसून के दिनों में भी तिरपाल के नीचे निर्माण का काम जारी रहता है।
मेरे जैसे मिस्त्रियों की अब भी ज़रूरत है क्योंकि हम श्रमिकों को स्वदेशी तकनीकों जैसे घरों के निर्माण में पत्थरों के इस्तेमाल आदि के बारे में बताते हैं। लेकिन धीरे-धीरे हमारा यह सामुदायिक ज्ञान हमसे छूटता जा रहा है। स्पीति संस्कृति के एक घर का निर्माण समुदायों के लिए एक सहज प्रक्रिया थी क्योंकि वे पहले से ही मूल बातें जानते थे। इसमें कार्यान्वयन के लिए अनावश्यक रूप से जटिल तरीके और उपकरण शामिल नहीं थे। हमें सिखाने के लिए हमारे पास ग्यांगों-दा (एक मिट्टी-मिस्त्री), पिटी डोर-सी (राजमिस्त्री), और पिटी शिंगजो-वा (लकड़ी का कारीगर/बढ़ई) थे, लेकिन अधिकांश युवाओं को अपने आप ही छत, फ़र्श और मवेशियों के लिए बाड़ा बनाने का काम सीखना पड़ा। गैर-पारंपरिक, औद्योगिक कच्चे माल को अपनाने का यह बदलाव, अब तेजी से स्थानीय लोगों को उनकी अपनी भूमि, संसाधनों और स्वदेशी ज्ञान से दूर कर रहा है जिसे वे पिछली कई पीढ़ियों से बचाते आ रहे थे।
यह आलेख मूल रूप से हिमकथा में प्रकाशित हुआ था।
इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें।
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हल्का-फुल्का का यह अंक मज़दूर किसान शक्ति संगठन के सह-संस्थापक शंकर सिंह द्वारा आईडीआर को सुनाए गए एक किस्से पर आधारित है।
जब रिसर्च करने वाले ज़मीन पर पहुंचते हैं –
चित्र साभार: ईश्वर सिंह
विकास सेक्टर में तमाम प्रक्रियाओं और घटनाओं को बताने के लिए एक ख़ास तरह की शब्दावली का इस्तेमाल किया जाता है। आपने ऐसे कुछ शब्दों और उनके इस्तेमाल को लेकर असमंजस का सामना भी किया होगा। इसी असमंजस को दूर करने के लिए हम एक ऑडियो सीरीज़ ‘सरल–कोश’ लेकर आए हैं, जिसमें हम आपके इस्तेमाल में आने वाले कुछ महत्वपूर्ण शब्दों पर बात करने वाले हैं।
आज का शब्द है – इंटरनल कम्युनिकेशन।
इंटरनल कम्युनिकेशन या आंतरिक संचार, किसी एक संस्था में काम करने वाले लोगों के बीच होने वाली आपसी बातचीत को कहते हैं।
विकास सेक्टर में अक्सर ही संस्थाओं को इंटरनल कम्युनिकेशन से जुड़ी चुनौतियों का सामना करते देखा जा सकता है। किसी भी संस्था का कमजोर इंटरनल कम्युनिकेशन उसके काम पर नकारात्मक प्रभाव डालता है।
एक बेहतर इंटरनल कम्युनिकेशन प्रणाली को विकसित करके संस्थाएं अपनी टीम के रोज़मर्रा के कामों को लेकर उनसे सीधा संवाद कर सकती हैं। यह संस्था के लक्ष्यों, रणनीतियों, चुनौतियों और परिणामों को साझा करने और टीम को वास्तविक स्थिति से अवगत कराने के लिए भी एक बेहतरीन टूल है। इससे न केवल टीम के सदस्यों के बीच पारदर्शिता बढ़ती है बल्कि इसकी मदद से लोग अपने प्रदर्शन के स्तर में भी सुधार ला सकते हैं।
इंटरनल कम्युनिकेशन के उदाहरणों में व्हाट्सएप, स्लैक, टेलीग्राम जैसे कुछ ऐसे माध्यम हैं, जिनका इस्तेमाल संस्थायें अपने रोजमर्रा के कामों को प्रभावी और आसान बनाने के लिए करती हैं। इसके साथ ही संस्था से जुड़े महत्वपूर्ण फैसलों के लिए आमतौर पर ई-मेल के आदान-प्रदान को वरीयता दी जाती है।
टीम के सदस्य चाहे ऑफिस से काम करें या रिमोटली, दोनों ही लिहाज़ से इंटरनल कम्यूनिकेशन का अपना एक खास महत्व होता है। इसलिए मजबूत कम्युनिकेशन किसी भी संस्था की कार्य-संस्कृति को बेहतर बनाने के अलावा जल्दी और सही निर्णय लेने की क्षमता और उत्पादकता को भी बढ़ाने में मददगार साबित होता है।
अगर आप इस सीरीज़ में किसी अन्य शब्द को और सरलता से समझना चाहते हैं तो हमें यूट्यूब के कॉमेंट बॉक्स में ज़रूर बताएं।
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व्यापक यौनिकता शिक्षा किशोरावस्था के विकास का एक महत्वपूर्ण पहलू है जो दृष्टिकोण, व्यवहार, और समग्र विकास को प्रभावित करती है। समाज में बदलाव के साथ युवाओं के लिए यौनिकता शिक्षा का परिदृश्य भी बदल रहा है। परम्परागत रूप से यौनिकता के बारे में ज्ञान प्रदान करने की प्राथमिक विधि के रूप में औपचारिक स्कूली शिक्षा पर ध्यान केंद्रित किया गया है। हालांकि, डिजिटल युग के आगमन के साथ मनोरंजन और मीडिया युवाओं की धारणाओं और दृष्टिकोण को आकार देने में एक शक्तिशाली और प्रभावशाली साधन के रूप में उभरा है।
बदलाव को नकारा नहीं जा सकता है – युवा यौनिकता के बारे में अपनी जिज्ञासा को शांत करने के लिए तेज़ी से ऑनलाइन प्लेटफ़ॉर्म, टीवी शो, फ़िल्मों, और सोशल मीडिया की ओर क़दम बढ़ा रहे हैं। इस प्रतिमान बदलाव को पहचानते हुए व्यापक यौनिकता शिक्षा और संवेदनशीलता प्रदान करने के साधन के रूप में मनोरंजन और मीडिया का उपयोग करने की क्षमता का पता लगाना अनिवार्य हो जाता है।
मनोरंजन और मीडिया का आकर्षण जानकारी को ऐसे तरीक़े से प्रस्तुत करने की क्षमता में निहित है जो न केवल सुलभ हो बल्कि युवा दर्शकों के लिए प्रासंगिक भी हो। औपचारिक स्कूली शिक्षा के विपरीत, जो सामाजिक वर्जनाओं या संस्थागत सीमाओं से बाधित हो सकती है, मनोरंजन और मीडिया में यौनिकता को उसकी सभी जटिलताओं में संबोधित करने,और रिश्तों और अनुभवों की गहरी समझ को बढ़ावा देने की स्वतंत्रता है। मनोरंजन और मीडिया ऐसा साधन बन जाता है जहां कथाएं सामने आ सकती हैं, बातचीत शुरू हो सकती है, और जानकारी को इस तरह से प्रसारित किया जा सकता है ताकि उन दर्शकों का ध्यान आकर्षित हो सके जो सक्रिय रूप से ऐसी सामग्री की तलाश करते हैं जो उनके जीवन के अनुभवों को प्रतिबिंबित करती हो।
यह बदलाव चुनौतियों से रहित नहीं है। ज्ञान की तलाश में किशोरों को अनजाने में अविश्वसनीय स्रोतों से ग़लत सूचना का सामना करना पड़ सकता है, ख़ासकर इंटरनेट के विशाल विस्तार में। इससे उनकी मान्यताओं, उनके व्यवहारों और समग्र कल्याण पर ऐसी ग़लत सूचना के संभावित प्रभाव के बारे में चिंताएं पैदा होती हैं। नतीजतन, यौनिकता शिक्षा में शोधकर्ताओं को इन स्रोतों से उत्पन्न होने वाली ग़लत सूचना के नुकसान से निपटने के साथ-साथ मनोरंजन और मीडिया की क्षमता का दोहन करने की दोहरी चुनौती का सामना करना पड़ता है।
इस लेख में हम व्यापक यौनिकता शिक्षा के लिए मनोरंजन का उपयोग करने की जटिल गतिशीलता, इसके द्वारा प्रस्तुत अवसरों और समवर्ती चुनौतियों की जांच करेंगे, जो युवाओं के बीच यौनिकता शिक्षा की समग्र और सटीक समझ सुनिश्चित करने के लिए रणनीतिक हस्तक्षेप की मांग करते हैं।
युवा सक्रिय रूप से मनोरंजन-मीडिया की तलाश करते हैं क्योंकि यह आकर्षक तरीके से जानकारी प्रदान करता है। औपचारिक स्कूली शिक्षा के विपरीत मनोरंजन और मीडिया में वर्जित विषयों को संबोधित करने, कहानी के माध्यम से ध्यान खींचने, और जानकारी को इस तरह से प्रस्तुत करने की क्षमता है जो उसके दर्शकों के साथ जुड़ती है। स्कूलों में औपचारिक यौनिकता शिक्षा से जुड़ी सीमाओं और चुनौतियों को देखते हुए यह विशेष रूप से महत्वपूर्ण हो जाता है।
युवाओं के बीच यौनिकता शिक्षा के लिए मनोरंजन और मीडिया पर बढ़ती निर्भरता कई चुनौतियाँ सामने लाती है। एक प्राथमिक चिंता ग़लत सूचना एवं रिश्तों और यौनिकता के अवास्तविक चित्रण की संभावना है। इंटरनेट, विशेष रूप से, सामग्री के एक विशाल भंडार के रूप में कार्य करता है जो गुणवत्ता, सटीकता और उपयुक्तता में व्यापक रूप से भिन्न होता है। युवा खोज करने और सीखने की उत्सुकता में भ्रामक जानकारी पर ठोकर खा सकते हैं, और सहमति, सुरक्षित यौन प्रथाओं, और रिश्तों की जटिलताओं जैसे विषयों के बारे में मिथकों को क़ायम रख सकते हैं।
हमारे अनुभव में भारत-नेपाल सीमा के पास बसे बहराइच जनपद के एक ग्रामीण समुदाय मिहींपुरवा की किशोरी सोनी (काल्पनिक नाम) के साथ सत्र के दौरान हमको यह पता चला कि कैसे किशोरियां यौनिकता के बारे में जानकारी के लिए इंटरनेट स्रोतों पर भरोसा करती हैं। हालांकि आगे के सत्रों में यह देखा गया कि कुछ ऑनलाइन सामग्री में ग़लत सूचना और अवास्तविक चित्रण ने सहमति, सुरक्षित यौन सम्बन्ध, और रिश्तों में संचार के महत्व के बारे में ग़लत धारणाओं को बढ़ावा दे दिया है। यह मनोरंजन और मीडिया में प्रस्तुत जानकारी का आलोचनात्मक मूल्यांकन करने की आवश्यकता को रेखांकित करता है।
इसके अलावा, इन ऑनलाइन मंचो के इस्तेमाल करने में मार्गदर्शन की कमी हानिकारक रूढ़िवादिता और अवास्तविक अपेक्षाओं को सुदृढ़ करने में योगदान कर रही है। युवा अनजाने में ग़लत मंचो से अपनी समझ विकसित करते हैं, जिससे उनके आत्म-सम्मान, शरीर की छवि, और एक स्वस्थ रिश्ते का गठन करने वाली धारणाओं पर असर पड़ सकता है। अनुचित सामग्री के संपर्क में आने का जोखिम चुनौतियों को और बढ़ा देता है, जिससे संभावित रूप से यौनिकता की ग़लत समझ विकसित हो सकती है।
इन चुनौतियों से निपटने के लिए एक बहुआयामी दृष्टिकोण की आवश्यकता है जिसमें शोधकर्ताओं, मनोरंजन निर्माता, सहकर्मी शिक्षकों, और समुदायों का सहयोग शामिल हो। एक महत्वपूर्ण क़दम सहकर्मी शिक्षकों और मनोरंजन निर्माताओं के बीच साझेदारी की स्थापना भी है। एक साथ काम करके, ये हितधारक के लिए ऐसी सामग्री विकसित कर सकते हैं जो न केवल आकर्षक हो बल्कि सटीक, ज़िम्मेदार, और किशोरों के अनुभवों की विविध वास्तविकताओं को प्रतिबिंबित करने वाली हो। किशोरों की यौनिकता की समझ पर मनोरंजन मीडिया के प्रभाव को समझते हुए समुदायों के साथ काम कर रहे सहकर्मी शिक्षक मनोरंजन निर्माताओं को एक गहन और सही दृष्टिकोण भी प्रदान कर सकते हैं।
युवाओं में उत्पन्न होने वाली चुनौतियों से निपटने के लिए, सहकर्मी और सामुदायिक शिक्षक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
हमें मीडिया साक्षरता कार्यक्रम भी लागू करना चाहिए जो समाधान का एक अत्यंत महत्वपूर्ण पहलु है। किशोरों में भ्रामक स्रोतों और विश्वसनीय स्रोतों को पहचानने के लिए कौशल विकसित करने की आवश्यकता है। ये कार्यक्रम युवाओं को उनके सामने आने वाली सामग्री पर सवाल उठाने, उसकी विश्वसनीयता का मूल्यांकन करने, और यौनिकता की उनकी समझ में शामिल जानकारी के बारे में सूचित निर्णय लेने के लिए सशक्त बना सकते हैं।
संभावित रूप से भ्रामक जानकारी के संपर्क में आने से युवाओं में उत्पन्न होने वाली चुनौतियों से निपटने के लिए, सहकर्मी और सामुदायिक शिक्षक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। ये शिक्षक खुली चर्चा के लिए सुरक्षित स्थान बना सकते हैं, मिथकों को दूर कर सकते हैं, और सटीक जानकारी प्रदान कर सकते हैं।
उन समुदायों में, जहां औपचारिक यौनिकता शिक्षा तक पहुंच सीमित हो, सहकर्मी और सामुदायिक शिक्षक और भी महत्वपूर्ण हो जाते हैं। यौनिकता शिक्षा की शैक्षिक सामग्रियों में स्थानीय रीति-रिवाज़ों और मूल्यों का एकीकरण शामिल हो सकता है। इसके अलावा, युवाओं की सोच और कौशल को सशक्त बनाने के लिए मंच, कार्यशालाएं, और सत्र आयोजित किए जा सकते हैं, जिससे वे भ्रामक स्रोतों से विश्वसनीय स्रोतों को पहचानने में सक्षम हो सकें।
व्यापक यौनिकता के बारे में जानकारी देने लिए समुदायों के विशिष्ट सांस्कृतिक संदर्भों का इस्तेमाल कर के शैक्षिक पाठ्यक्रम को तैयार करना चाहिए, जो मनोरंजक होने के साथ यह भी सुनिश्चित करता हो की वह स्थानीय आबादी के साथ मेल खाती है, और अधिक समावेशी और प्रभावी शिक्षण अनुभव को बढ़ावा देती है।
अंततः स्कूली शिक्षा के भीतर व्यापक यौनिकता शिक्षा को बढ़ावा देना महत्वपूर्ण है। जबकि मनोरंजन और मीडिया एक मूल्यवान पूरक हो सकता है, औपचारिक शिक्षा शारीरिक रचना, सहमति, संचार, और रिश्तों सहित यौनिकता के विभिन्न पहलुओं को व्यवस्थित रूप से संबोधित करने के लिए एक संरचित मंच प्रदान करती है। व्यापक यौनिकता शिक्षा को पाठ्यक्रम में एकीकृत करके, स्कूल सटीक जानकारी को सुदृढ़ कर, प्रदान कर सकते हैं।
निष्कर्ष में हम यह देखते हैं कि व्यापक यौनिकता शिक्षा के लिए मनोरंजन और मीडिया का उपयोग युवाओं तक प्रभावी ढंग से पहुंचने का एक आशाजनक अवसर प्रदान करता है। हालांकि यह चुनौतियों के साथ आता है और उन्हें सटीक सूचना प्रसार सुनिश्चित करने के लिए संबोधित किया जाना चाहिए। व्यापक यौनिकता शिक्षा के लिए मनोरंजन का उपयोग करने में चुनौतियाँ मौजूद हैं पर रणनीतिक सहयोग, मीडिया साक्षरता पहल, और समुदाय-केंद्रित शिक्षा प्रयास इन चुनौतियों को सकारात्मक प्रभाव के अवसरों में बदल सकते हैं।
यह दृष्टिकोण जागरूक और सशक्त पीढ़ी के निर्माण में योगदान दे सकता है जो अपने रिश्तों और यौन जीवन में जिम्मेदार विकल्प चुनने में सक्षम होंगे। विचारशील हस्तक्षेपों के साथ डिजिटल युग की जटिलताओं को दूर करके, हम युवाओ को सटीक जानकारी के साथ सशक्त बनाने के लिए मनोरंजन और मीडिया की क्षमता का उपयोग कर सकते हैं, और यौनिकता के बारे में समावेशी और ज़िम्मेदार ज्ञान पंहुचा सकते हैं।
यह आलेख मूलरूप से इनप्लेनस्पीक पर प्रकाशित हुआ था जिसे आप यहां पढ़ सकते हैं।
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