अच्छे लड़के और बेहतर मर्द बनाने की ज़िम्मेदारी आप कैसे निभा सकते हैं?

सामाजिक विकास के क्षेत्र में लैंगिक बराबरी से जुड़े मुद्दों पर होने वाले काम में पारम्परिक रूप से महिलाओं और लड़कियों को ही शामिल किया जाता रहा है। नब्बे के दशक के मध्य तक आने के बाद ही कुछ चुनिंदा गैर-सरकारी संगठनों ने लैंगिक मुद्दों को लेकर लड़कों और पुरुषों के साथ काम करना शुरू किया। इसके शुरूआती बिंदुओं में से एक था जनसंख्या नियंत्रण और प्रजनन स्वास्थ्य, जिसके अंतर्गत लड़कों और पुरुषों को कॉन्डोम का इस्तेमाल करने और अपनी गर्भवती पत्नियों के साथ स्वास्थ्य केंद्रों तक जाने के लिए प्रोत्साहित किया गया।

इसका उद्देश्य पुरुषों को लैंगिक संवेदीकरण कार्यशालाओं के माध्यम से महिलाओं के प्रजनन स्वास्थ्य में शामिल करना था। जल्दी ही इसका उद्देश्य महिलाओं के खिलाफ होने वाली हिंसा, खासकर पत्नियों के साथ मारपीट के रूप में होने वाली हिंसा को रोकने का भी हो गया। साल 2000 के अंत तक आते-आते ‘मेन एंगेज’ जैसे कई वैश्विक मंच दक्षिण एशिया में सक्रिय हो गए और इसके साथ ही राष्ट्रीय स्तर पर ‘फोरम टु एंगेज मेन (एफईएम)’ का भी उदय हुआ। यह बहुत हाल की ही बात है जब लड़कों और पुरुषों के साथ जेंडर पर होने वाले काम में ‘मर्दानगी’ की ओर गौर करना शुरू किया गया है। हिंसा को लिंग आधारित हिंसा से परे हटकर एक अधिक व्यापक नज़रिए से देखने की कोशिश हुई है।

नारीवादी प्रयासों में मर्दों की क्या भूमिका है? यह वह प्रश्न है जिसे विकास के क्षेत्र में काम कर रहे कुछ शिक्षक स्वयं से पूछते आ रहे हैं और इसका जवाब तलाशने की कोशिश में हैं। बहुत लम्बे समय तक पुरुषों को एक विशुद्ध चुनौती की श्रेणी में रखा गया जिन्हें शराब पीने, जुआ खेलने, पत्नी को पीटने, और बच्चों पर चिल्लाने से रोका जाना चाहिए।

नब्बे के दशक के मध्य में एक नया नज़रिया उभरा जिसमें विकास क्षेत्र ने महिलाओं के साथ काम को आसान और अधिक स्थाई बनाने के लक्ष्य को पाने के लिए पुरुषों को भी हितधारक मानना शुरू किया। हमने उन प्रशिक्षकों से कुछ सवाल पूछे जो कि लड़कों के साथ और/अथवा मर्दानगी पर काम कर रहे थे: उन्हें किस तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ता है? वे अपने ज़मीनी अनुभवों से मर्दानगी के बारे में क्या सीख रहे हैं? पुरुषों और मर्दानगी पर काम करने के लिए नारीवादी शिक्षण पद्धती (पेडागॉजी) कैसे खुद में फेर-बदल करती है? जैसे कि जब आप लड़कों से भरे हुए किसी कमरे में घुसते हैं तो लिंग या यौनिकता या मर्दानगी के बारे में उन्हें सिखाने का जो लक्ष्य आप सोचकर जाते हैं उसकी जगह आप खुद और उन्हें क्या सिखाने में सफल हो पाते हैं?

हमने 11 लोगों से बात की, जिनमें फैसिलिटेटर, प्रशिक्षक, फिल्म निर्माता, अकादमिक आदि शामिल थे, ताकि हम उन विभिन्न तरीकों की शिनाख्त कर पाएं जिनके द्वारा पुरुष एक नई दुनिया में; जहां महिलाएं बदल चुकी हैं, खुद को देखते और महसूस करते हैं। इससे एक बात उजागर हुई कि लैंगिक विषयों पर काम करना कितना गड़बड़ या ऐसा जिसमें सारे पहलू मिल-जुले हों, से भरा हो सकता है, और तब जब जिस लिंग को लेकर आप काम कर रहे हैं वो स्वयं ताकतवर हो।

सत्ता को क्यों छोड़ा जाए?

वाईपी फाउंडेशन के पूर्व डायरेक्टर मानक मटियानी ने इस सवाल के साथ वाईपी के समक्ष मर्दानगी के एजेंडे को रखा कि, ‘मर्दों को बिना अलगाव में डाले जेंडर के कार्यक्रम कैसे उनसे जुड़ी बात करें…’ अपनी आंखों में एक चौंध लिए वे जोड़ते हैं, ‘और इस बात के प्रति भी सचेत रहते हुए कि उनके विशेषाधिकार और मज़बूत न हो जाएं?’

यही तो पहला संकट है, क्योंकि युवा महिलाओं के साथ की जानेवाली कार्यशालाएं, सकारात्मक रूप से अपने बारे में बात करने और सशक्तीकरण जैसे पहलुओं पर केंद्रित हैं, उससे ठीक इतर युवा लड़कों के साथ किए जाने वाले सत्र उन्हें सज़ा देने जैसे लगते हैं। जैसा कि मानक कहते हैं, ‘ये सकारात्मक अनुभवों के ठीक उलट हैं’ जिनमें काफी हद तक लगता है कि लड़कों को कैद में रखा गया है और अब उन्हें बताया जाएगा कि उन्होंने क्या गलत किया है। ऐसे में लड़के इस तरह के सत्रों/ मंचों का हिस्सा बनेगें ही क्यों?

‘लाख टके का सवाल यह है कि इससे (जेंडर के बारे में सीखने से) मुझे बदले में क्या मिलेगा, क्योंकि एक चीज़ जिससे हम सभी जूझते हैं कि पुरुषों को अपने विशेषाधिकार छोड़ने होंगे। अगर मैं अपने सभी विशेषाधिकार छोड़ दूं, जिनका फायदा मैं वर्षों से उठाता आ रहा हूं, तो मुझे बदले में क्या मिलेगा? वे कौन से व्यक्तिगत लाभ होंगे जो मुझे मिलेंगे?’ मुम्बई स्थित मेन अगेंस्ट वायलेंस एंड एब्यूज़ (मावा) के सचिव और मुख्य कर्ताधर्ता हरीश सदानी कहते हैं।

सेंटर फॉर हेल्थ एंड सोशल जस्टिस (सीएचएसजे) के प्रबंध संरक्षक अभिजीत दास, जिन्हें मर्दानगी के क्षेत्र में बीते तीन दशकों में सार्वजनिक स्वास्थ्य के ज़रिए हुए हस्तक्षेपों का अनुभव है, तर्क देते हैं कि मर्दानगी की पैरवी करने वालों के लिए  ‘लैंगिक समानता’ इकलौता लक्ष्य नहीं हो सकता। पहला, वे इस ओर ध्यान दिलाते हैं कि अधिकांश बार महिलाओं के साथ किये जाने वाले कार्यक्रमों में अक्सर सिर्फ उनके हाशियाकरण या उनकी उपेक्षा पर ध्यान दिया जाता है, इसके मुकाबले पुरुषों के साथ काम करने के दौरान हमेशा यह समझा जाता है कि वे अपने विशेषाधिकारों के साथ आएंगे। मर्दानगी पर विकास क्षेत्र के द्वारा किए जाने वाले काम विशुद्ध रूप से गरीबी-आधारित कार्यक्रम मालूम पड़ते हैं जो कि ग्रामीण इलाके और/अथवा वंचित जाति/वर्ग से आने वाले पुरुषों से जुड़ा है। ऐसे में इन पुरुषों के पास जेंडर संबंधी विशेषाधिकार तो हैं लेकिन दूसरी ओर ये रोज़ाना जाति और/अथवा वर्ग के कारण दमन का शिकार होते हैं (वैसे, यह स्थिति तब अलग होती जब विकास क्षेत्र के यह कार्यक्रम सवर्ण, उच्च-वर्गीय सिस-विषमलैंगिक पुरुषों के साथ चल रहे होते हैं, हालांकि तब इसकी अपनी चुनौतियां होती हैं)। इस तरह से विशेषाधिकार के साथ हमेशा अधीनता की भावना मौजूद रहती है। वे कहते हैं कि, ‘महज़ मर्दानगी ही नहीं बल्कि किसी भी तरह की समानता पर किए जा रहे काम के दौरान आपको विशेषाधिकार को समझना ज़रूरी है क्योंकि समानता किसी भी अधीन समूह का इकलौता हित नहीं हो सकती। ऐतिहासिक रूप से भी अधीन सामाजिक समूहों ने ही समानता की मांग की है। लेकिन जब समानता महज़ अधीन समूह की ही सामाजिक आकांक्षा होगी तो फिर असल में समानता कहां है?’

पर, जब लड़कों से विशुद्ध रूप से यह उम्मीद की जाएगी कि वे सत्ता छोड़ दें, तो…

लड़के इस प्रक्रिया में शामिल ही क्यों होंगें?

जैसा कि मानक कहते हैं कि, ‘पितृसत्तात्मक मर्दानगी के हिसाब से काम करने के एवज़ में एक तरह से असली फायदे मिलते हैं… मैं कैसे जाकर लड़कों से यह कहूं कि भाई अपने को इस तरह के दबाव में मत रखो (और जो फायदे मिल रहे हैं उसे लेने से बचो)?’ जेंडर लैब के सह-संस्थापक अक्षत सिंघल कहते हैं कि, ‘बतौर मर्द हमारे लिए यह बहुत आसान और आरामदेह है कि वर्तमान में मौजूद ढांचों के साथ जुड़े रहें। यह हमारे लिए बेहद आसान है कि बगैर सवाल पूछे चुपचाप सब करते रहें क्योंकि इससे कोई समस्या नहीं आएगी। क्योंकि ज्यों ही मैं लड़कों के सामने उनकी ताकत और विशेषाधिकार पर सवाल उठाउंगा तब उन्हें खुद पर काम करना पड़ेगा और उसकी अलग कीमत होगी। खुद पर काम करना इतना आसान नहीं होता। उन्हें एक स्तर पर आने के बाद वह सब कुछ छोड़ना पड़ेगा जो उन्हें विरासत में मिल रहा था।’

लेकिन क्या वर्तमान में मौजूद ढांचा लड़कों और मर्दों के लिए सुचारु रूप से काम कर रहा है? हरीश अपने स्कूल के दिनों को याद करते हुए बताते हैं कि, ‘मैं उस वक्त अकेला और तनावग्रस्त रहा करता था’ क्योंकि मुझे ‘नाज़ुक और लड़कियों के जैसा’ होने की वजह से छेड़ा जाता और ताने मारे जाते थे। नियम कायदों से हटकर जीने वाले मर्दों (सिस-विषम हों या नहीं) का अपना अकेलापन है और अति-मर्दवादी पुरुषों का अपना अकेलापन है जिसकी वजह से वे कभी सार्थक रिश्ते नहीं बना पाते हैं। जहां एक ओर नारीवादी पैरवी महिलाओं को सामूहिकता, दोस्ती, और एकजुटता का भाव मुहैया कराती है वहीं, दूसरी ओर इस देश के युवा मर्दों को यह सिर्फ़ और सिर्फ़ अकेलापन ही दे पाती है। यह बात न सिर्फ़ हमें साक्षात्कार देने वाले प्रशिक्षकों के अनुसार सही है, बल्कि युवा संस्था द्वारा 50 भारतीय शहरों के लगभग 100 कॉलेजों में किए गए सर्वेक्षण से भी यही बात सामने निकलकर आती है। (यह अध्ययन 2022 में मुम्बई स्थित रोहिणी निलेकनी, लोकोपकार – फिलैन्थ्रपिस की संस्था द्वारा आयोजित ‘बिल्ड टुगेदर: जेंडर एंड मैस्क्युलिनिटीज़ सम्मेलन’ में युवा द्वारा प्रस्तुत किया गया था।)

युवा संस्था के मुख्य कार्यकारी अधिकारी और संस्थापक निखिल तनेजा कहते हैं कि, ‘ऐसा क्यों है कि अधिकतर लड़कों द्वारा लड़कियों के प्रति दर्शाया जाने वाला इकलौता भाव प्रेम ही है? क्योंकि यही वह भाव है जिसे दर्शाने की उन्हें अनुमति है। वे हमेशा प्रेम और दिल टूटने की ही बात करते हैं क्योंकि उदासी जताने का यही एकमात्र रास्ता उन्हें दिखाई पड़ता है।’ दिल टूटना एक आम बहाना है जिसके ज़रिये मर्द संगठित हो सकते हैं।

ऑस्ट्रेलियाई समाजशास्त्री आरडब्ल्यू कॉनेल के मर्दवाद के सिद्धांत से प्रभावित होकर मानक, इस काम के सैद्धांतिक आधार की व्याख्या करते हैं और कहते हैं कि, ‘मर्दानगी को आमतौर पर सत्ता तक पहुंच या सत्ता की धुरी समझा जाता है जबकि असल में वह सत्ता की अपेक्षा है। आपसे यह अपेक्षा की जाती है कि आप हमेशा ताकतवर रहें जबकि मर्दानगी का अनुभव बताता है कि असल में ऐसा है नहीं!’

मर्दों के सत्ता के उनके अनुभव और सत्ता की अपेक्षाओं में ज़मीन-आसमान का फ़र्क है। मर्दों के विभिन्न समूह इस फ़र्क को अलग-अलग तरीके से अनुभव करते हैं जो कि इस बात से तय होता है कि ब्राह्मणवादी पितृसत्ता की सीढ़ी में उनका स्थान कहां है और यही वह वजह है जिससे भिन्न-भिन्न किस्म की मर्दानगियों का उदय होता है। यानी मर्दानगी का संकट शायद तब सामने आता है जब पितृसत्ता सता के अपने वादे से मुकर जाती है।

प्रशिक्षक, जेंडर और मर्दानगी पर बातचीत की कई भिन्न-भिन्न तरीकों से शुरुआत करते हैं, जैसे- यौनिक एवं प्रजनन स्वास्थ्य, यौनिकता, रोमांस, और कई मामलों में मर्दानगी के प्रचलित विचार से ही। मानक, के एक सत्र में बातचीत इस सवाल से शुरू होती है कि ‘आप कूल होने से क्या समझते हैं और क्या आप खुद को एक कूल इंसान मानते हैं?’ बिना जेंडर और मर्दानगी का ज़िक्र किए यह सवाल मर्दानगी के प्रति असुरक्षाओं की ओर स्वतः ही ध्यान ले जाता है। मानक इसे ‘आत्म-छवि की खोज’ का नाम देते हैं- जिसमें बाहर की ओर देखने से पहले खुद के अंदर झांकने से शुरुआत होती है।

‘मर्दों वाली बात’ नामक अपने कार्यक्रम पर आई प्रतिक्रिया के बारे में वे बताते हैं कि, ‘जो पहला पोस्टर हमने एक कॉलेज में लगाया उसपर सुपरमैन की फोटो के साथ ‘मर्दानगी क्या होती है’ लिखकर एक प्रश्नवाचक चिन्ह लगा दिया और उस कार्यक्रम में ऐसे बहुत सारे लड़के आए क्योंकि उन्हें इस सवाल का जवाब चाहिए था! उनका मानना था कि  हां, हम जानना चाहते हैं कि मर्दानगी क्या होती है ताकि हम इसे ढंग से निभा पाएं।’

शिक्षा और मनोरंजन दोनों ही क्षेत्रों में काम करने का अनुभव लिए हुए निखिल यह बात जानते हैं कि हास्य एक ऐसा माध्यम है जिससे लोगों को निहत्था करने में आसानी होती है। ‘मैं एक कहानी से बात शुरू करता हूं और उन्हें बातचीत में शामिल करता हूं ताकि वे यह न समझें कि, यह इंसान सिर्फ़ हमें उपदेश देने, पकाने और यहां तक कि चुनौती देने के लिए आया है।’ जितनी जल्दी वे बातचीत में शामिल हो जाते हैं तब वह अपनी एक सधी हुई असुरक्षा उनके सामने रखते हैं, जैसे कि पैनिक अटैक की कोई घटना। निखिल के अनुसार, अगर आप चाहते हैं कि लड़के आपसे खुलें तो आपको उन्हें इतना सम्मान देना होगा ताकि वो आपके सामने अपनी असुरक्षा को ज़ाहिर कर सकें। ‘मेरा विश्वास है कि कहानियां हमें सिर्फ़ कहानियों की ओर ले जाती हैं और असुरक्षा हमें असुरक्षा की ओर।’

साल 2021 में डॉ केतकी चौखानी ने मुम्बई में मध्य-वर्गीय और उच्च-वर्गीय विषमलैंगिक लड़कों के साथ एक शोध अध्ययन किया जिसमें उनसे उनकी किशोरावस्था के रोमांस के अनुभवों के बारे में पूछा गया और यह भी पूछा गया कि इसके बारे में उनकी जानकारी के स्रोत क्या हैं। उनके अध्ययन में एक बात उभर कर आई कि अनिश्चितता, यानी परिभाषा की अनुपलब्धता, और रोमांस में ‘विफलता’ किशोरों के लिए बेहद आम अनुभव हैं और यह घटनाएं बहुत कम ही हिंसा का रूप ले पाती हैं, चाहे रिश्ता कितना ही संजीदा क्यों न रहा हो।

‘इससे हिंसक मर्द का समूचा विचार ही पूरी तरह से बदल गया। मैंने यह महसूस किया कि उनके भीतर ढेर सारा डर और ढेर सारा ख्याल रखने का भाव मौजूद था। हमारा शुरुआती बिंदु आमतौर पर हिंसा होता है लेकिन क्या हो अगर हम यह बिंदु असुरक्षा रखें? अगर हम अनिश्चितता, विफलता, असुरक्षा, और झिझक को हिंसा से बदल दें तो लैंगिक संबंधों का क्या होगा?’ इस शोध के दौरान डॉ केतकी ने यह भी अनुभव किया कि शोध की जगह, धीरे-धीरे ‘थेरेपी’ का रूप ले रही थी। ‘उन्हें लगता था कि मैं एक मनोवैज्ञानिक हूं और वे इस पूरी प्रक्रिया को ‘थेरेपी की प्रक्रिया’ की ही तरह देखते थे।’ इस प्रक्रिया ने उन्हें अपनी किशोरावस्था के दौरान मिली रोमांटिक विफलताओं और अस्वीकार होने के बारे में बोलने में मदद की, जिन्हें अक्सर मर्दानगी की प्रचलित छवियों और समझदारी के अंतर्गत नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है।

और इस तरह प्रशिक्षकों ने पहले आए संकट का जवाब दिया। इस तरह से उन्हें लड़कों को बातचीत के स्तर पर लाने में मदद मिली। उन्होंने लड़कों को इस बात के प्रति आश्वस्त भी किया कि लड़कों की कहानियां उसी तरह सुनी जाएंगी जैसे एक पैडगॉजी वाली जगहों पर सुनी जानी चाहिए और किसी भी तरह से उन्हें पूर्वाग्रह से नहीं देखा जाएगा। लेकिन इससे एक अन्य गहरा संकट उभर कर सामने आया।

(लेख में दी गई महत्त्वपूर्ण जानकारी के लिए निरंतर ट्रस्ट के लर्निंग रिसोर्स सेंटर का आभार)

इस लेख का हिंदी अनुवाद अभिषेक श्रीवास्‍तव ने किया है।

यह आलेख मूलरूप से दथर्डआई पर प्रकाशित हुआ है जिसे आप यहां पढ़ सकते हैं।

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आकांक्षी जिलों को सीएसआर फंड का एक सीमित हिस्सा ही मिलता है

जनवरी 2018 में, भारत सरकार ने ‘आकांक्षी जिला परिवर्तन’ नाम से एक पहल की शुरुआत की। न्यू इंडिया बाय 2022 के दृष्टिकोण के साथ, इसके केंद्र में मानव विकास सूचकांक (एचडीआई) के तहत भारत की रैंकिंग में सुधार करना, अपने नागरिकों के जीवन स्तर को ऊपर उठाना और सभी के लिए समावेशी विकास सुनिश्चित करना था। आकांक्षी जिला कार्यक्रम के तहत हमारे देश के सात सौ से अधिक जिलों में सबसे कम विकसित जिलों की पहचान की गई।
यह कार्यक्रम हमारे विकास पिरामिड के निचले स्तर पर स्थित इन 115 जिलों की प्रगति में तेजी लाने के लिए विशेष ध्यान देने के साथ आवश्यक सहायता भी प्रदान करता है।

नोट: पश्चिम बंगाल के जिलों ने इस कार्यक्रम में भाग ना लेने का फैसला किया है। वर्तमान में, केवल 112 जिले ही एडीपी के हिस्सा हैं। हालांकि, हमारे विश्लेषण में हम उन सभी 115 जिलों में होने वाले सीएसआर फंड के खर्च को शामिल करते हैं जिनकी पहचान साल 2018 में एडीपी के लॉन्च के समय की गई थी।

आकांक्षी जिलों का परिवर्तन_सीएसआर

नीति आयोग ने स्वास्थ्य और पोषण, शिक्षा, कृषि और जल संसाधन, वित्तीय समावेशन और कौशल विकास और बुनियादी ढांचे के समग्र संकेतकों के आधार पर 28 राज्यों में 115 जिलों की पहचान की, जिनका एचडीआई पर प्रभाव पड़ता है। एडीपी के लागू होने के पांच सालों में, समग्र कंपोज़िट स्कोर में 72 फीसद से अधिक का सुधार देखा गया है। सबसे अधिक बदलाव शिक्षा, कृषि एवं जल संसाधन तथा स्वास्थ्य सेवा के क्षेत्र में हुआ है।

5 वर्षों में औसत स्कोर परिवर्तन_सीएसआर

एडीपी की व्यापक रूपरेखा झुकाव (केंद्रीय एवं राज्य योजनाओं का), सहयोग (केंद्र, राज्य स्तर के अधिकारियों एवं जिला कलेक्टरों का) और जन आंदोलन की भावना से प्रेरित जिलों के बीच प्रतिस्पर्धा है। एडीपी में जिलों को पहले अपने राज्य (सीमांत जिलों) के भीतर सर्वश्रेष्ठ जिलों में से एक बनने के लिए प्रेरित और प्रोत्साहित किया जाता है। इसके बाद, उनमें प्रतिस्पर्धी और सहकारी संघवाद की भावना में दूसरों के साथ प्रतिस्पर्धा करके और उनसे सीखकर देश में सर्वश्रेष्ठ में से एक बनने की इच्छा पैदा की जाती है। अगस्त 2023 तक, उत्तर-पूर्वी राज्यों में आकांक्षी जिलों (एडी) और बिहार, झारखंड और छत्तीसगढ़ राज्यों में बड़ी संख्या में एडी का समग्र समग्र स्कोर 50 या इससे कम था। वे अब सीमांत जिलों के साथ दूरी कम करने की दिशा में काम कर रहे हैं। इन राज्यों में एडी की हिस्सेदारी भी अधिक है।

सीमा से राज्यवार दूरी_सीएसआर

सरकार द्वारा एडी में सीएसआर निवेश की हिमायत करने के बावजूद, 2014-22 के दौरान कुल सीएसआर का केवल 2.15%* इन जिलों में निवेश किया गया है, जहां भारत की 15 फ़ीसद से अधिक आबादी रहती है। वित्तीय वर्ष 2021-22 में, एडी ज़िलों में किए गये सीएसआर खर्च में पिछले वर्ष कि तुलना में 50 फीसद से अधिक की वृद्धि देखी गई।

आकांक्षी जिलों में सीएसआर खर्च_सीएसआर

कुल सीएसआर फंड का आधे से अधिक हिस्सा (53%) इन पांच राज्यों – मध्य प्रदेश (448 करोड़), आंध्र प्रदेश (387 करोड़), झारखंड (328 करोड़), छत्तीसगढ़ (301 करोड़) और गुजरात (291 करोड़) में एडी पर खर्च किया जाता है।

आकांक्षी जिलों में सीएसआर खर्च_सीएसआर

साथ ही, एडी में खर्च हुए कुल सीएसआर फंड का तीन चौथाई हिस्सा (78%) इन चार टॉप सेक्टर्स (शिक्षा, स्वास्थ्य, ग्रामीण विकास, और पर्यावरण स्थिरता) में किया गया है। कोविड-19 वाले वर्षों के दौरान, शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में होने वाला सीएसआर खर्च 70 फ़ीसद से अधिक था। 2020-21 और 2021-22 के बीच पर्यावरण स्थिरता परियोजनाओं में सीएसआर खर्च में पांच गुना वृद्धि देखी गई।

शीर्ष प्राप्तियां क्षेत्र_सीएसआर

जनवरी 2023 में, एडीपी के शुरुआत के पांच साल बाद, भारत सरकार ने ‘आकांक्षी प्रखंड कार्यक्रम (एबीपी)’ की शुरुआत की। यह कार्यक्रम, भारत के सबसे कठिन और अविकसित प्रखण्डों (ब्लॉक) में नागरिकों के जीवन की गुणवत्ता में सुधार लाने पर केंद्रित है। भारत के 27 राज्यों और 4 केंद्र शासित प्रदेशों के 500 ब्लॉक की पहचान स्वास्थ्य और पोषण, शिक्षा, कृषि और संबद्ध सेवाओं, पेयजल और स्वच्छता, वित्तीय समावेशन, मूलभूत सुविधाओं, और समग्र सामाजिक विकास जैसे प्रमुख क्षेत्रों के तहत वर्गीकृत प्रमुख सामाजिक-आर्थिक संकेतकों की निगरानी करके आकांक्षी ब्लॉकों में बदलाव लाने के लिए की गई थी। एबीपी की शुरुआत के साथ, भारत में 45 फ़ीसद से अधिक जिले (~350 जिले) अब या तो एडीपी और/या एबीपी के जिले का हिस्सा हैं।

एडीपी और एबीपी के तहत कवर किया गया जिला_सीएसआर

पिछले पांच वर्षों में 115 एडी जिलों में विभिन्न विषयगत क्षेत्रों में किस प्रकार के परिवर्तन हुए हैं? किन जिलों में सभी विषयगत क्षेत्रों में लगातार सुधार देखे जा रहे हैं? उन्हें कितनी मात्रा में सीएसआर फंडिग प्राप्त हुई? इन एडी ज़िलों में किन कंपनियों का निवेश है? हम अपने पिरामिड के निचले स्तर पर निवेश को कैसे मजबूत करें और इन जिलों को उनके परिवर्तन लक्ष्यों तक पहुंचने में कैसे मदद करें? क्या कुल सीएसआर निवेश का 2 फ़ीसद आवंटन आकांक्षी जिलों के परिवर्तन को सुविधाजनक बनाने के लिए पर्याप्त है?

एडीपी और एबीपी तथा एडी एवं एबीपी के जिलों में खर्च होने वाले सीएसआर के बारे में विस्तार से जानने के लिए एस्पिरेशनल डिस्ट्रिक्ट्स पर हमारे डाटा संपत्ति पर एक नज़र डालें।

*एमसीए सीएसआर पोर्टल पर उपलब्ध जिलों के प्रत्यक्ष श्रेय के अनुसार – सीएसआर का एक बड़ा हिस्सा किसी विशेष जिले को आवंटित नहीं किया जाता है।

यह लेख मूल रूप से इंडिया डेटा इनसाइट्स पर प्रकाशित हुआ था।

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पर्यावरण संरक्षण के ईमानदार प्रयास?

पर्यावरण संरक्षण पर व्यंग्य-पर्यावरण संरक्षण
चित्र साभार: मीत ककाड़िया

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क्या आप भी बजट समझने से पहले ही उसकी शब्दावली में उलझ जाते हैं?

सरकार हर साल बजट पेश करती है। बजट से हमें मालूम चलता है कि सरकार की आमदनी कहां से होती है और वह उसे कहां और कैसे खर्च करती है। अगर आप विकास सेक्टर से जुड़े हैं तो आपको बजट से सरकार की प्राथमिकताओं का पता चलता है। आप यह जान पाते हैं कि आपके काम से जुड़े क्षेत्र जैसे कृषि, शिक्षा, स्वास्थ्य और पोषण, ग्रामीण विकास और पंचायती राज, आजीविका वग़ैरह को लेकर सरकार कहां और किस तरह से खर्च करने जा रही है।

बजट के दौरान आपको कुछ ऐसे शब्द अक्सर सुनने को मिलते हैं जिन्हें आम बोलचाल की भाषा में कम ही इस्तेमाल किया जाता है लेकिन वे बहुत महत्वपूर्ण होते हैं। यहां पर हम आपके साथ बजट से जुड़ी ऐसी ही कठिन शब्दावली पर बात करने जा रहे हैं और आसान भाषा में उसे समझने की कोशिश कर रहे हैं। यह शब्दावली आपको न केवल केंद्रीय बजट में देखने को मिलती है बल्कि आपके राज्य बजट में भी इनमें से ज़्यादातर का उपयोग किया जाता है।

वार्षिक वित्तीय विवरण (एनुअल फाइनेंशियल स्टेटमेंट)

संविधान में ‘बजट’ शब्द का जिक्र नहीं किया गया है। इसे आम बोलचाल की भाषा में ही बजट कहा जाता है और संविधान के आर्टिकल-112 में इसे वार्षिक वित्तीय विवरण (एनुअल फाइनेंशियल स्टेटमेंट) कहा गया है। इस विवरण में भारत सरकार के वित्त मंत्री, वित्तीय वर्ष यानी 1 अप्रैल से 31 मार्च के दौरान अनुमानित प्राप्तियों और व्यय की जानकारी संसद में प्रस्तुत करते हैं। इतने समय में, कौन सी योजनाएं काम करेंगी? किस क्षेत्र के लिए कितने बजट का प्रावधान रखा गया है, इस सब का लेखा-जोखा बजट में देखने को मिलता है।

आम बजट और अंतरिम बजट (इंटिरिम बजट)

वास्तविक खर्च (एक्चुअल एक्सपेंडिचर) 

जब एक पूरा वित्तीय वर्ष गुज़र जाता है तो सरकार को यह पता चलता है कि अभी तक उसका वास्तविक खर्च कितना हुआ है। इसका ऑडिट भारत के नियंत्रक महालेखाकार (कंट्रोलर एंड ऑडिटर जनरल ऑफ इंडिया – सीएजी) द्वारा किया जाता है। इस तरह, आगामी बजट में आपको पिछले वित्तीय वर्ष का वास्तविक व्यय मिल जाता है।

बजट खाते का फ़्लोचार्ट_बजट शब्दावली
बजट खाते का फ़्लोचार्ट। | चित्र साभार: सीपीआर 

संशोधित अनुमान (रिवाइज्ड एस्टीमेट)

सरकार द्वारा चालू वित्तीय वर्ष के मध्य में समीक्षा की जाती है। इससे सरकार को यह मालूम चलता है कि चल रहे वित्त वर्ष में, आधा समय बीत जाने (सितम्बर/अक्टूबर) तक कितना बजट खर्च हो चुका है और बाकी वित्तीय वर्ष में कितना खर्च होने का अनुमान है। इसे ही संशोधित अनुमान कहते हैं। संशोधित अनुमानों में संसद की मंजूरी तभी ली जाती है जब सरकार को अतिरिक्त पैसों की जरूरत होती है। इसके लिए सरकार संसद में ‘पूरक बजट’ प्रस्तुत करती है। आगामी बजट में आप चालू वित्त वर्ष यानी 2023-24 का संशोधित अनुमान देख पायेंगे।

अनुमानित बजट (बजट एस्टीमेट) 

सरकार द्वारा हर साल अगले वित्त वर्ष में होने वाले खर्च और राजस्व का अनुमानित ब्यौरा पेश किया जाता है। साधारण शब्दों में, यह अगले वित्त वर्ष के लिए सरकार की वित्तीय योजना की जानकारी होती है। 

राजस्व प्राप्तियां (रेवेन्यू रिसिप्ट्स) 

यह सरकार की सबसे बड़ी आय होती है। सरकार के इस खाते में, विभिन्न प्रकार के करों से प्राप्त आय को शामिल किया जाता है। जैसे – आयकर, निर्यात शुल्क, वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) और सीमा शुल्क इत्यादि। इसके साथ-साथ गैर-कर राजस्व भी सरकार के पास होते हैं। इसमें मुख्य रूप से लाभांश, बाहरी अनुदान, ब्याज प्राप्ति इत्यादि। इनसे न तो सरकार की देनदारी उत्पन्न होती है और न ही उसकी परिसंपत्तियों में कमी आती है। 

पूंजीगत प्राप्तियां (कैपिटल रिसिप्टस)

पूंजीगत प्राप्तियां वे प्राप्तियां हैं जो या तो देनदारियां बनाती हैं या सरकार की संपत्ति के मूल्य को कम करती हैं। इसमें सरकार द्वारा बाजार से लिए गए ऋण, भारतीय रिजर्व बैंक से ली गई उधारी और विनिवेश के जरिए प्राप्त आमदनी को शामिल किया जाता है।

राजस्व व्यय (रेवेन्यू एक्सपेंडिचर)

सरकार के वह व्यय जिससे अचल सम्पति का निर्माण नहीं होता हो, वह राजस्व व्यय कहलाते हैं। सरकार विभिन्न लेखांकन मदों के तहत पैसा खर्च करती है। उदाहरण के तौर पर ऋण पर ब्याज का भुगतान, वेतन, पेंशन, विभिन्न मंत्रालयों/विभागों/योजनाओं पर व्यय एवं सब्सिडी इत्यादि।

पूंजीगत खर्च (कैपिटल एक्सपेंडिचर)

पूंजीगत खर्च, वह खर्च होता है जिसमें सरकार आने वाले लंबे समय के लिए आधारभूत संरचनाओं (इंफ़्रास्ट्रक्चर) के निर्माण या अधिग्रहण पर खर्च करती है। इनमें मुख्यरूप से एयरपोर्ट, हाई-वे, फ्लाईओवर, जमीन, मशीनें, इमारतें वग़ैरह आते हैं। इसके अलावा, यदि सरकार ऋण वापस चुकाती है तो वह भी पूंजीगत खर्च में ही आता है क्यूंकि इससे सरकार की भविष्य की देनदारियां कम हो जाती है।

सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी)

जीडीपी, किसी भी देश की आर्थिक सेहत को मापने का सबसे ज़रूरी पैमाना है। इससे पता चलता है कि देश की अर्थव्यवस्था का प्रदर्शन कैसा रहा है। जीडीपी किसी ख़ास अवधि के दौरान वस्तु और सेवाओं के उत्पादन की कुल क़ीमत है। भारत में जीडीपी की गणना हर तीसरे महीने यानी तिमाही आधार पर होती है। भारत में कृषि, उद्योग और सेवा, तीन प्रमुख घटक हैं जिनमें उत्पादन बढ़ने या घटने के औसत के आधार पर जीडीपी दर तय होती है। आसान शब्दों में समझें तो अगर जीडीपी का आंकड़ा बढ़ा है तो आर्थिक विकास दर बढ़ी है। अगर किसी तिमाही में यह पिछले तिमाही के मुक़ाबले कम है तो देश की आर्थिक स्थिति में गिरावट का रुख है।

बजटीय घाटे (बजट डेफिसिट)

बजटीय घाटा सरकार के राजस्व और पूंजी खाते दोनों में सभी प्राप्तियों और खर्चों के बीच का अंतर है। बजटीय घाटा आमतौर पर जीडीपी के प्रतिशत के रूप में व्यक्त किया जाता है। इसमें ज्यादातर 2 तरह के घाटे होते हैं –

1) राजकोषीय घाटा (फिस्कल डेफिसिट)

यह देश के कुल व्यय और कुल आय के बीच का अंतर है, जब व्यय आय से अधिक होता है तो इसे राजकोषीय घाटा कहा जाता है। ऐसे में सरकार को शेष राशि को उधार से पूरा करना पड़ता है। इसे आमतौर पर सकल घरेलू उत्पाद के अनुपात के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। साल 2003 में, सरकार ने राजकोषीय उत्तरदायित्व और बजट प्रबंधन अधिनियम को अपनाया था जिसके तहत अन्य बातों के अलावा सरकार को अपने राजकोषीय घाटे को सकल घरेलू उत्पाद के 3% तक कम करना लक्षित है। हालांकि इस लक्ष्य को प्राप्त करने की प्रारंभिक समय सीमा 2007-08 थी लेकिन पिछले कुछ वर्षों में कई बार बढ़ाया गया है।

2) राजस्व घाटा (रेवेन्यू डेफिसिट)

अगर सरकार की राजस्व आय (नियमित कर, शुल्क एवं ब्याज) राजस्व व्यय (वेतन, पेंशन, कार्यालय प्रबंधन एवं सब्सिडी) की तुलना में ज्यादा हो तो इसे राजस्व बढ़त कहा जाता है। इसी तरह राजस्व व्यय, राजस्व आय की तुलना में अधिक होने पर राजस्व घाटा कहलाता है।

सरकार की समेकित निधि (कंसोलिडेटेड फंड्स)

भारत में सरकार के सभी खातों के लिए समेकित निधि बहुत महत्वपूर्ण होती है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 266 के तहत स्थापित यह ऐसी निधि है, जिसमें समस्त एकत्रित कर/राजस्व जमा, लिये गये ऋण जमा किये जाते हैं। यह भारत की सर्वाधिक बड़ी निधि है जो कि संसद के अधीन रखी गयी है। इस निधि में से कोई भी राशि बिना संसद की पूर्व स्वीकृति के बग़ैर निकाली/जमा नहीं की जा सकती है।

लोक लेखा (पब्लिक अकाउंट)

इस खाते का गठन संविधान के अनुच्छेद 266 (2) के तहत किया गया है। इसका संबंध उस ख़ास तरह के लेनदेन के प्रवाह से है, जहां सरकार केवल एक बैंकर के रूप में कार्य करती है क्योंकि इसमें जमा धनराशि सरकार की नहीं बल्कि नागरिकों की होती है। सरकार को निर्धारित समय के बाद यह पैसा अपने मूल मालिकों को वापस भुगतान करना होता है। उदाहरण के तौर पर इसमें प्रोविडेंट फंड्स, स्मॉल सेविंग्स, फंड डिपॉजिट इत्यादि होते हैं।

आकस्मिकता निधि (कॉन्टिजेंसी फंड)

इस कोष का निर्माण इसलिए किया जाता है, ताकि जरूरत पड़ने पर आकस्मिक खर्चों के लिए संसद की स्वीकृति के बिना भी राशि निकाली जा सके और खर्चा किया जा सके। ऐसी स्थितियों में बाढ़, भूकंप, राष्ट्रीय सुरक्षा जैसे विषय आते हैं। राष्ट्रपति की अनुमति से आकस्मिक कोष से धन प्राप्त किया जा सकता है।

इस आलेख को तैयार करने में ताजुद्दीन खान ने सहयोग किया है जो कि सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च संस्था के साथ जुड़े हैं।

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समुदाय अपने प्राकृतिक संसाधनों की रक्षा के लिए सत्याग्रह कैसे करें?

जनचेतना, एक समुदाय आधारित संगठन है जो बीते 12 वर्षों से छत्तीसगढ़ के रायगढ़ ज़िले में, कई गांवों के लोगों को साथ लाकर कोयला सत्याग्रह कर रहा है। इस सत्याग्रह का बीज 5 जनवरी, 2008 को पड़ा जब खमरिया और आसपास के कई अन्य गांवों के लोग रायगढ़ ज़िले में एक सार्वजनिक सुनवाई के लिए इकट्ठा हुए थे। यह सुनवाई जिंदल स्टील के गारे IV/6 माइनिंग प्रोजेक्ट से संबंधित थी जिसे कई पर्यावरण नियमों को अनदेखा करते हुए मंज़ूरी दी गई थी। इसके अलावा, पंचायतों को समय पर सूचित किए बग़ैर ही आनन-फ़ानन में इस सुनवाई का आयोजन कर दिया गया था। ऐसा करना इसलिए अनुचित था क्योंकि तमनार ब्लॉक में आने वाले ये गांव पांचवीं अनुसूची में आते हैं और पंचायत एक्सटेंशन टू द शेड्यूल एरिया एक्ट (पेसा) 1996 के तहत संरक्षित हैं। पेसा क़ानून इस तरह की सुनवाइयों से पहले ग्राम पंचायत को सूचित करना अनिवार्य बनाता है।

स्वाभाविक था कि लोगों ने इस मंज़ूरी का विरोध किया। यह विरोध प्रदर्शन पुलिस के साथ हिंसक झड़प में बदल गया जिसमें कम से कम 50 गांववाले घायल हो गए और कइयों को गिरफ्तार कर लिया गया। आसपास के गांवों तक जब प्रशासन के इस दमन की ख़बर पहुंची तो प्रोजेक्ट के ख़िलाफ़ लोगों की भावनाएं पहले से अधिक मज़बूत हो गईं। अगले दो सालों तक हमने कई सरकारी विभागों, अधिकारियों और मंत्रालयों को शिकायतें लिखकर भेजीं जिसका कोई ख़ास नतीजा नहीं निकल सका।

साल 2008 में हुई हिंसक घटना के बाद, गांववालों ने फ़ैसला किया कि हमारे आंदोलन को अहिंसक रखने की ज़रूरत है। अगर हम शांतिपूर्ण प्रदर्शन के अलावा किसी दूसरे रास्ते को चुनते हैं तो प्रशासन को हमारी नकारात्मक छवि बनाने और आंदोलन को कुचलने का मौक़ा मिल जाएगा। इसलिए हमने महात्मा गांधी के नमक सत्याग्रह वाले रास्ते को चुनकर कोयला सत्याग्रह करने का फ़ैसला किया। इसके लिए 2011 में हमने 2 अक्टूबर यानी गांधी की जन्म-तारीख़ चुनी। उस दिन हम लोगो ने गारे गांव से केलो नदी तक, 1.5 किलोमीटर लंबा प्रदर्शन किया और लगभग तीन टन कोयला खनन किया। इतना ही नहीं, इस कोयले को हमने बोली लगाकर स्थानीय ईंट-भट्ठे और ढाबे वालों को बेचने का काम भी किया। लेकिन, कोयला व्यवसाय स्थापित करना, हमारे कोयला सत्याग्रह का एक पहलू भर है। एक सामुदायिक संगठन के तौर पर हम शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा और भूमि अधिकार से जुड़े मुद्दों पर भी संवाद करते हैं। लोगों तक अपनी बात पहुंचाने के लिए हम मीडिया और सोशल मीडिया माध्यमों की अपनी एक व्यवस्था बना चुके हैं। साल 2023 में हमारे कोयला सत्याग्रह को 12 साल पूरे हो गए हैं। इतने समय में, हमने कई ऐसे सबक़ सीखे हैं जो कॉर्पोरेट हितों का साधने वाली नीतियों का विरोध करने में ग्रामीण भारत के काम आ सकते हैं। हमें यक़ीन है कि ये देश के हर कोने में, उन समुदायों के लिए उपयोगी हैं जो अपने प्राकृतिक संसाधनों को कॉर्पोरेट के शिकंजों से बचाना चाहते हैं। चलिए, जानते हैं कि एक सफल सत्याग्रह के लिए हम लोगों को कैसे तैयार करते हैं। इसके लिए हम उन्हें –

शिक्षित करते हैं

1. लोगों से सीखें और उनकी ज़रूरतों को समझें

किसी आंदोलन का उद्देश्य कितना भी बड़ा हो, लोग तब तक आपके साथ नहीं आएंगे जब तक कि उनके दैनिक जीवन की समस्याओं का हल उन्हें नहीं मिलता है। शुरुआत में हम अपना ध्यान भोजन और पेंशन के अधिकार पर केंद्रित रख रहे थे। एक बैठक के दौरान हमारे एक सदस्य ने पूछा कि ‘हमारे पास ज़मीन नहीं है, हमें खाने और पेंशन से क्या लेना-देना है।’ इसके बाद, हमने भूमि अधिकारों पर गौर करना शुरू किया। हमारे ज़्यादातर सदस्य भूमिहीन आदिवासी थे तो हमने उनके साथ काम करना और उन्हें सामुदायिक वन अधिकार के दावे करने में मदद करना शुरू किया। कोयला खदान के संदर्भ में बात करें तो, ज़मीन गंवाने वाले किसानों को कोल इंडिया, पांच लाख रुपए प्रति एकड़ का मुआवज़ा और एक छोटा प्लॉट देती है लेकिन ऐसा हो नहीं पा रहा था। समुदाय के नेताओं की मदद से हमने ऐसे लोगों की शिकायतें इकट्ठा करनी शुरू की और ज़रूरत पड़ने पर अदालत का दरवाज़ा भी खटखटाया।

सत्याग्रह के दौरान कोयला खनन के लिए जाते लोग_कोयला सत्याग्रह
सत्याग्रह के दौरान कोयला खनन के लिए जाते लोग। | चित्र साभार: राजेश कुमार त्रिपाठी

ऐसा करते हुए हमें समझ आया कि प्रत्येक परिवार की समस्याओं का हल मुआवज़ा नहीं हो सकता है। हमारे गांव में कई विधवा महिलाएं और युवा थे जिन्होंने अपने परिवार के कमाने वाले सदस्यों को खो दिया था। ऐसे में मुआवज़ा उन्हें केवल थोड़े समय के लिए राहत दे सकता था। हालांकि कोल इंडिया ने मुआवज़े की बजाय नौकरी का विकल्प भी रखा था लेकिन आदिवासी जन नौकरी को बहुत महत्व नहीं देते हैं। हमें उन्हें समझाना पड़ा कि पांच लाख नक़द की बजाय 45-50 हज़ार की नौकरी उनके लिए कहीं बेहतर विकल्प है। हम उन्हें नौकरी के लिए आवेदन करने में मदद करते थे। ज़रूरत पड़ने पर निजी ठेकेदारों की मदद से भी उन्हें नौकरी दिलवाते थे। वहीं, भूमिहीन लोगों को लेकर हमने कोल इंडिया से बात की और उन्हें छोटे व्यवसाय या दुकानें शुरू करने में मदद करवाई। लोगों से स्थाई जुड़ाव बनाने के लिए उनकी ज़रूरतों को समझना बहुत महत्वपूर्ण होता है और इसके लिए नई तरह के समाधानों को खोजने की ज़रूरत पड़ सकती है।

2. लोगों तक जानकारी पहुंचाएं

पढ़ाई-लिखाई से इतर, आज का युवा तकनीक, जैसे स्मार्टफ़ोन का इस्तेमाल करने में सक्षम है। हमने इसे एक मौक़े की तरह देखा और अपना एक मीडिया इकोसिस्टम तैयार किया। शुरूआत में हमारे साथ यह हो चुका था कि हम मुख्यधारा के मीडिया को कोई ख़बर देते थे लेकिन वे कुछ और ही छाप देते थे। अगर हमने बताया है कि ‘दो सौ लोग खनन के विरोध में प्रदर्शन करने पहुंचे’ तो ख़बर आई कि ‘दो सौ लोग खनन के समर्थन में प्रदर्शन करने पहुंचे’। इससे निपटने के लिए हमने अपने लोगों को बतौर पत्रकार तैयार करने का सोचा और इसके लिए वीडियो वॉलंटीयर संगठन की मदद ली। शुरुआत में हमने चार लोगों – दो लड़के और दो लड़कियों – को प्रशिक्षण हासिल करने के लिए भेजा जहां उन्होंने कहानियां पहचानना, वीडियो शूट करना और प्रभावी तरीक़े से बात रखने के तरीक़े सीखे।

प्रशिक्षण के बाद, दो-तीन महीने का समय लगाकर उन्होंने खनन क्षेत्र की चुनौतियों जैसे सड़क और स्वास्थ्य सेवाओं वग़ैरह पर काम किया और दो-तीन मिनट लंबी कई डॉक्युमेंट्री फिल्में बनाईं। इन फ़िल्मों को हम सभी सोशल मीडिया चैनल्स जैसे इंस्टाग्राम, फ़ेसबुक, व्हाट्सएप और ट्विटर पर लगाते हैं ताकि लोगों तक जानकारी पहुंच सके और वे इनसे प्रेरणा ले सकें। हम लोकल अख़बारों और डिजिटल मीडिया मंचों को भी ये वीडियो भेजते हैं। अगर वे इनसे जुड़ा कुछ प्रकाशित करते हैं तो हमें न्यूज़पेपर की कटिंग या तस्वीरें भेजते हैं जिससे समुदाय के सदस्यों का हौसला बढ़ता है।

संगठित करते हैं

1. ग्राम सभा का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करें

अगर आप एक आदिवासी इलाके में काम कर रहे हैं तो आपको सबसे पहले यह जानना चाहिए कि पेसा एक्ट ग्राम सभा को अनुसूचित क्षेत्रों में स्व-शासन की ताक़त देता है। यह प्राकृतिक संसाधनों पर आदिवासियों के अधिकार को मान्यता देने के साथ उन्हें किसी विकास परियोजना को अस्वीकृत करने का अधिकार देता है। इस तरह, ग्राम सभा वह मंच बन जाती है जहां पर समुदाय अपने विचार रख सकते हैं और बदलाव ला सकते हैं।

अपने क्षेत्रीय नेतृत्व को मज़बूत कर आप समुदाय की आवाज़ को अधिक बुलंद बना सकते हैं।

यह जान-समझकर हमने गांव-गांव जाकर महिला नेताओं को प्रशिक्षित किया और उन्हें पंचायत चुनावों में हिस्सा लेने के लिए प्रोत्साहित किया। इस समय, हमारे साथ काम करने वाली 15-16 महिलाएं और आदिवासी जनपद पंचायत का हिस्सा हैं जो ग्राम और जिला पंचायत के बीच कड़ी का काम करते हैं। वे डिस्ट्रिक्ट मिनरल फ़ाउंडेशन और कॉर्पोरेट सोशल रिस्पॉन्सिबिलिटी के धन का उचित उपयोग करने से जुड़ी मांग करने में मदद करते हैं। उन्होंने सार्वजनिक वितरण प्रणाली में होने वाले गड़बड़ियों को 77 से 2 प्रतिशत तक पहुंचाने में भी मदद की है। इस तरह, क्षेत्रीय नेतृत्व को मज़बूत कर आप उनकी आवाज़ को अधिक बुलंद बना सकते हैं।

2. विकास के विकल्प सुझाएं

साल 2011 में, जब हमने प्रशासन को यह दिखा दिया कि हम ख़ुद कोयला खनन और बिक्री कर सकते हैं तो उनका कहना था कि हमारा ऐसा करना एक ग़ैरक़ानूनी गतिविधि है और केवल रजिस्टर्ड कंपनियां ही खनन कर सकती है। हमने इससे जुड़े कई सवाल-जवाब उनसे किए। इससे हमें पता चला कि जब सरकार हमारी ज़मीन लेकर प्राइवेट कंपनियों को दे देती है तो वे उसे गिरवी रखकर बैंक से क़र्ज़ लेते हैं और कोयला खदान शुरू करते हैं। हमने उनसे कहा अगर आप उन्हें 40 लाख दे सकते हैं तो हमें केवल 10 लाख रुपए दीजिए, हम आपको दिखाएंगे कि इसे कैसे किया जाता है।

इस तरह, साल 2013 में गारे ताप उपक्रम प्रोड्यूसर कंपनी लिमिटेड एक फॉर्मर प्रोड्यूसर कंपनी के तौर पर रजिस्टर हुई। हमने लोगों से पैसा इकट्ठा किया और एक एकड़ ज़मीन पर एक साल तक कोयला खनन किया ताकि हम यह दिखा सकें कि किसी बाहरी मदद के बग़ैर भी हम ऐसा कर सकते हैं। समय के साथ, लोग अपनी कंपनी के लिए ज़मीन देने की इच्छा जताने लगे। उन्होंने खनन के लिए हमें अपनी ज़मीन के काग़ज़ात और अनापत्ति प्रमाण पत्र भी दिए। अब हमारे पास लोगों द्वारा दी गई 700 एकड़ ज़मीन है। इसके बाद, हम सुनिश्चित करते हैं कि इस कंपनी से मिलने वाली धनराशि का इस्तेमाल सामुदायिक विकास में हो सके और लोगों की छोटी-बड़ी समस्याएं हल हो सकें। ऐसा करना आंदोलन को लंबे समय तक चलाए रखने में भी मददगार होता है।

आंदोलित करते हैं

1. अदालत का दरवाज़ा खटखटाएं

लोगों को उनके संवैधानिक अधिकारों के बारे में बताएं ताकि ज़रूरत पड़ने पर वे क़ानूनी लड़ाई के लिए तैयार रहें। हमें बार-बार यह करते रहना पड़ा है। उदाहरण के लिए, माइन एक्ट, 1952 महिलाओं को कोयला खदान में नौकरी पाने से रोकता है। हमारी समुदाय की सदस्य रत्थो बाई जिन्होंने अपने पिता और भाई को माइनिंग एक्सीडेंट में खोया था और दसवीं कक्षा तक की पढ़ाई की थी। अगर वे महिला नहीं होतीं तो कोल इंडिया उन्हें नौकरी दे देता। हम इसके लिए कोल इंडिया को छत्तीसगढ़ हाई कोर्ट तक लेकर गए और कहा कि अगर संविधान लैंगिक भेदभाव नहीं करता है तो माइन एक्ट कैसे कर सकता है? और, अदालत के फ़ैसले के बाद उन्हें नौकरी मिली।

मूल अधिकारों को जानना और सूचना के अधिकार के ज़रिए सवाल पूछना, आंदोलन को बनाए रखने के मज़बूत साधन बन सकते हैं।

ऐसा ही मामला रथकुमार का भी था जिनके पति को कोयला खदान में काम करते हुए हार्ट अटैक आया और उनकी मौत हो गई। हमने जब उन्हें नौकरी दिलवाने का प्रयास किया तो कंपनी का कहना था कि उनके पति के नाम वाला कोई भी शख़्स वहां नौकरी नहीं करता था। हमने राइट टू इंफ़ॉरमेशन के तहत जानकारी मांगी और अदालत में यह साबित किया कि वे झूठ बोल रहे थे। इस तरह हमने कई महिलाओं को खदान में नौकरी दिलवाने का काम किया। हम लोगों को क़ानून की जानकारी देने का महत्व समझते हैं। इसलिए हमने अपने संगठन के प्रशिक्षण कार्यक्रम में क़ानूनी शिक्षा को भी अनिवार्यता से शामिल किया। अपने मूल अधिकारों को जानना और सूचना के अधिकार के ज़रिए सवाल पूछना, आंदोलन को बनाए रखने के बहुत मज़बूत साधन बन सकते हैं।

2. अपने आसपास से सीखें और मदद लें

हमारा सत्याग्रह, विरोध प्रदर्शन करने से शुरू हुआ था और यह आज भी आंदोलन को मज़बूती देता है। यह लगातार बढ़ता ही जा रहा है। साल 2012 में हमने आसपास के गांवों के सदस्यों और प्रतिनिधियों से मिलना शुरू किया। फिर हमने राष्ट्रीय स्तर पर काम करने वाली संस्थाओं को भी आमंत्रित किया, 16 राज्यों से लोगों ने इसमें भाग लिया। इसमें से कोई बाक्साइट खनन से परेशान था तो कहीं लौह अयस्क का खनन किया जा रहा था। हमने उन्हें बताया कि हम कोयला सत्याग्रह कर रहे हैं क्योंकि हमारे पास कोयला है लेकिन आप हमारा यह अहिंसक तरीक़ा अपना सकते हैं. हम लोगों को दूसरे गांवों और राज्यों में भी लेकर जाते थे ताकि वे उनसे कुछ सीख सकें।

हमारे संसाधन सीमित हैं लेकिन लोग लगातार सहयोग करते हैं। हम गांव के हर घर से एक मुट्ठी चावल इकट्ठा करते हैं। जो ज़्यादा दे सकते हैं, वे ज़्यादा भी देते हैं और कुछ लोग आंदोलन को चलाए रखने के लिए धन भी देते हैं। 2024 के लिए, हमने सामुदायिक दान का एक नियम बनाया है कि जो एक एकड़ ज़मीन के मालिक हैं, वे 100 रुपए देंगे और जो दस एकड़ ज़मीन के मालिक हैं, वे 1000 रुपए दान करेंगे। इस तरह, हम 8.5 लाख रुपए और 40 क्विंटल चावल इकट्ठा करने में सफल हो पाए हैं। जब भी रैली, ट्रैफ़िक जाम, धरना जैसे प्रदर्शन होते हैं, यह पैसा और चावल हमारे काम आता है। इसके साथ ही, हमने प्रोजेक्टर, म्यूज़िक सिस्टम, लैपटॉप और प्रिंटर भी ख़रीदा है। हमारे कुछ सदस्य सरकारी संस्थाओं में भी पढ़ाते हैं, समाजसेवी संस्थाओं से सलाह लेते हैं और अपनी कमाई का एक हिस्सा आंदोलन के लिए देते हैं। हम आर्थिक रूप से पूरी पारदर्शिता रखते हैं, हर किसी को पता होता है कि कितना धन इकट्ठा हुआ और उसकी जवाबदेही किस पर है।

आंदोलन के दौरान हम यह भी सुनिश्चित करते हैं कि लोगों का कामकाज, उनकी आजीविका इससे प्रभावित ना हो। हर गांव को एक दिन धरना करने की ज़िम्मेदारी मिलती है। उदाहरण के लिए, अगर आज मेरे गांव से 500 लोग जा रहे हैं तो कल आपके गांव से जाएंगे। इस तरह ज़िम्मेदारी बांटने से बहुत मदद मिलती है। साल 2023 में 15-20,000 लोग हमसे जुड़े हैं। कंपनियों द्वारा खदान शुरू करने की कई हालिया कोशिशों के बाद भी रायगढ़ और उसके आसपास के गांवों ने इसे संभव नहीं होने दिया है। वे हमारे संसाधनों के लिए आएंगे तो हम हमेशा अपनी रक्षा में खड़े मिलेंगे। हमें कोयला खदानें नहीं चाहिए लेकिन अगर सरकार केवल इसे ही विकास समझती है तो हमें भी इसमें हमारा हिस्सा चाहिए।

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बजट के बादल, हम पर जाने कब बरसेंगे?

बजट के बरसने की उम्मीद में विकास सेक्टर के लोग_बजट स्पेशल
चित्र साभार: सृष्टि

सरल-कोश: सोशल अकाउंटेबिलिटी या सामाजिक जवाबदेही

विकास सेक्टर में तमाम प्रक्रियाओं और घटनाओं को बताने के लिए एक ख़ास तरह की शब्दावली का इस्तेमाल किया जाता है। आपने ऐसे कुछ शब्दों और उनके इस्तेमाल को लेकर असमंजस का सामना भी किया होगा। इसी असमंजस को दूर करने के लिए हम एक ऑडियो सीरीज़ ‘सरल–कोश’ लेकर आए हैं जिसमें हम आपके इस्तेमाल में आने वाले कुछ महत्वपूर्ण शब्दों पर बात करने वाले हैं।

आज का शब्द है – सोशल अकाउंटेबिलिटी या सामाजिक जवाबदेही। विकास सेक्टर के संदर्भ में बात करें तो सामाजिक जवाबदेही, संस्थागत प्रक्रियाओं में नागरिक भागीदारी पर आधारित होती है। इसका मतलब है कि आम नागरिक और नागरिक संगठन, प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से सरकारी संस्थानों और अधिकारियों से उनके कामकाज से जुड़े सवाल कर सकते हैं।

प्रशासनिक प्रक्रियाओं में सामाजिक जवाबदेही के कुछ प्रमुख उदाहरणों को देखें तो स्कूल प्रबंधन समितियों, मनरेगा योजना में सोशल ऑडिट, स्वास्थ्य एवं पोषण समितियों का ज़िक्र किया जा सकता है। यहां नागरिक संस्था के स्तर पर, सीधे सरकार के साथ जुड़कर अपनी भागीदारी निभाते हैं।

इसलिए सामाजिक जवाबदेही बढ़ाने के लिए ज़रूरी है कि सरकार अपने संस्थानों की कार्य प्रणाली, नागरिकों को शामिल करते हुए डिज़ाइन करे और प्रक्रियाओं को सरल करे। लेकिन इसके लिए यह भी ज़रूरी है कि नागरिक के तौर पर हमें इन बातों की जानकारी हो और हम यह समझें कि जवाबदेही कब और कैसे मांगी जानी चाहिए।

अगर आप इस सीरीज़ में किसी अन्य शब्द को और सरलता से समझना चाहते हैं तो हमें यूट्यूब के कॉमेंट बॉक्स में ज़रूर बताएं।

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युवाओं को संवैधानिक मूल्यों से जोड़ना हमेशा चलने वाली एक यात्रा है

भारत के संविधान का जन्म जन-आंदोलनों, संघर्षों और वैचारिक-राजनीतिक संवाद से हुआ है। इसमें न्याय, स्वतंत्रता, बंधुत्व और समानता के मूल्यों में भरोसा रखने वाले एक राष्ट्र की कल्पना की गई है। इसके साथ ही, हमारा संविधान सरकार की संरचना, शक्तियों, जिम्मेदारियों और नागरिकों के साथ उसके संबंधों को परिभाषित करता है और उन्हें मौलिक अधिकारों की गारंटी देता है।

संविधान सभा के सदस्यों ने इन अधिकारों को गरीबी, अशिक्षा या फिर जाति, वर्ग, लिंग और धार्मिक आधार पर व्यवस्था के स्तर पर होने वाले सामाजिक भेदभाव को ख़त्म करने के लिहाज़ से ज़रूरी माना था। जब ये मूल्य, अधिकार और कर्तव्य देश के नागरिकों और संस्थानों द्वारा व्यवहार में लाए जाते हैं तो इनसे हमारे धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य को बनाए रखने में मददमिलती है। इसलिए सभी नागरिकों और संगठनों, विशेषकर नागरिक अधिकारों के उल्लंघन और भेदभाव के खिलाफ काम करने वालों के लिए संविधान को बारीकी से समझना महत्वपूर्ण है।

यह एक ज़रूरी सवाल है कि हमारे संविधान के प्रगतिशील और दूरदर्शी होने के बावजूद, हमने इसे कितना आत्मसात किया है और किस हद तक उसे जीवन में अपना सके हैं? यहां पर दो समाजसेवी संगठन और एक सरकारी संस्थान इसी पर बात करते हुए बता रहे हैं कि वे लोगों और समुदायों के साथ काम करते हुए संविधान पर कैसे बात करते हैं। ये संस्थान उन विभिन्न तरीकों के बारे में बात कर रहे हैं जिनसे वे सामुदायिक चेतना में संवैधानिक मूल्यों को स्थापित करते हैं और लोगों में वैचारिक बदलाव लाने की कोशिश करते हैं। ऐसा करते हुए वे सुनिश्चित करते हैं कि अधिकारों और कानूनों को जमीनी हकीकत से जोड़ा जाए ताकि समाज के सभी वर्ग अन्याय के खिलाफ खड़े होने के लिए संवैधानिक उपचारों की मदद लेने में सक्षम बन सकें।

संविधान को समझना हमेशा चलने वाली एक यात्रा है

मध्य प्रदेश में जमीनी स्तर पर काम करने वाला संगठन, सिविक-एक्ट फाउंडेशन इस बात पर ज़ोर देता है कि संवैधानिक मूल्यों और अधिकारों को समझना एक लगातार चलने वाली यात्रा है। यह केवल एक बार होने वाली कोई घटना या आयोजन नहीं है। यह एक धीरे-धीरे और लगातार चलने वाली प्रक्रिया है जो महीनों या सालों तक चलती है। भाईचारे, समानता और स्वतंत्रता का अनुभव करने और इस तरह के विचारों और सिद्धांतों पर चर्चा के लिए की जगह बनाना बदलाव को बढ़ावा देने के लिए महत्वपूर्ण है। आमतौर पर लोगों की धारणा होती है कि संविधान से उनका कुछ ख़ास लेना-देना नहीं है या इसका संबंध केवल आरक्षण से है। इस तरह की विचारधारा और विश्वासों को बदलने और उन पर चर्चा करने के लिए एक जगह बनाना ज़रूरी है। सिविक-एक्ट इसके लिए कई महीनों तक चलने वाली कार्यशालाएं आयोजित करता है। इसमें विभिन्न जाति, लिंग और वर्ग से आने वाले लोगों के बीच सामूहिक चर्चा होती है। इसके लिए शुरूआती कार्यशालाओं में हिस्सा लेने वालों को कुछ इस तरह के सवालों का जवाब देना होता है जैसे – ‘क्या कुछ मामलों में हिंसा किया जाना उचित है?’ या फिर, ‘आप समलैंगिक विवाह के बारे में क्या सोचते हैं?’ आगे की कार्यशालाओं में, लोगों को उनके अनुभवों और ज़मीनी हक़ीक़तों के सहारे समानता, न्याय, बंधुत्व, स्वतंत्रता आदि की बारीकियां बताई जाती हैं।

संवैधानिक मूल्यों और अधिकारों को समझना एक लगातार चलने वाली यात्रा है।

कर्नाटक में सक्रिय संगठन, संवाद युवा अधिकारों और सशक्तिकरण के लिए काम करता है। सिविक-एक्ट की तरह, संवाद भी अपने साथ काम करने वाले युवाओं के साथ एक स्थायी जुड़ाव बनाए रखता है। तीन साल की अवधि वाले कार्यक्रमों में शामिल होने वाले कई युवा उसके बाद भी लंबे समय तक बदलाव के लिए सक्रिय रूप से काम करना जारी रखते हैं। उदाहरण के लिए वे अपने कॉलेज में यौन उत्पीड़न रोकथाम अधिनियम, 2013 के तहत आंतरिक शिकायत समितियां बनाने की मांग करते हैं या फिर अपने समुदाय से जुड़े किसी मुद्दे की जांच-पड़ताल करके उसका समाधान करने के प्रयास करते हैं। लेकिन यहां तक पहुंचने में काफी समय और प्रयास लगते हैं।

युवाओं के साथ जुड़ाव के पहले चरण में, संवाद प्रतिभागियों को जाति, लिंग, वर्ग, धर्म और असमानता और, इनके आपसी संबंधों के बारे में जानकारी देता है और इन्हें लेकर संवेदनशीलता विकसित करने पर ध्यान केंद्रित करता है। यह तरीक़ा उन्हें संविधान से जोड़ने से पहले वास्तविक जीवन में हो रहे भेदभाव को पहचानने और समझने का मौक़ा देता है। दूसरे चरण में, वे कार्यशालाएं आयोजित कर संविधान से जुड़े विषयों जैसे प्रस्तावना, मौलिक अधिकार और कर्तव्य पर बात करते हैं और युवाओं के अनुभवों के सहारे उन्हें जीवन में उतारने का तरीक़ा समझते हैं। तीसरे चरण में, पहले दो चरणों में हासिल की हुई सीखों से समुदाय से जुड़े मुद्दों को हल करने के प्रयास करते हैं.

परंपराओं और मान्यताओं के साथ संविधान का संतुलन

भारत में, कई परंपराएं और मान्यताएं अक्सर हमारे संवैधानिक सिद्धांतों और अधिकारों से उलट जाती दिखती हैं। इस तरह के विरोधाभास के उदाहरणों पर गौर करें तो करवा चौथ का ज़िक्र किया जा सकता है, जहां केवल महिलाएं अपने पतियों की लंबी उम्र के लिए व्रत रखती हैं, या उन नियमों का जिनमें महिलाओं को कुछ मस्जिदों में जाने की मनाही है। संवैधानिक मूल्यों पर बात करते हुए इस तरह के सामाजिक मानदंडों और धार्मिक विश्वासों से लोगों के गहरे जुड़ाव को ध्यान में रखना ज़रूरी है।

सिविक-एक्ट के राम नारायण सियाग बताते हैं कि मान्यताओं को लेकर बदलाव की शुरूआत कैसे परिवार के भीतर से शुरू हो सकती है। वे अनुसूचित जाति से आने वाली एक युवती रेखा* के अनुभव पर बात करते हैं जिसने जयपुर ज़िले में पड़ने वाले अपने गांव में पीढ़ियों पुरानी जातिवादी प्रथाओं को चुनौती दी थी। रेखा के गांव में, पहले अगर कोई ‘उच्च जाति’ से आने वाला व्यक्ति किसी दलित के घर जाता था तो दलित व्यक्ति उसके साथ बराबरी से कुर्सी पर न बैठकर, नीचे ज़मीन पर बैठता था। इस परंपरा के भेदभाव भरे स्वरूप को पहचान कर उसने इसे लेकर परिवार से बात की और ऐसा करना बंद कर दिया। लेकिन ऐसा नहीं है कि इस बदलाव की शुरूआत करते हुए उसके सामने किसी तरह की चुनौती नहीं आई। रेखा के परिजन पहले इसे लेकर तैयार नहीं थे और उन्हें इस बात के लिए राज़ी करने में कई महीनों का वक़्त लग गया। रेखा ने इस परंपरा से छुटकारा पाने की ज़रूरत के बारे में समझाने से पहले, अपने दादा और पिता की चिंताओं को सुना और उनके नज़रिए और डर या बहिष्कार की आशंकाओं को समझने की कोशिश की।

अपनी स्थानीय सांस्कृतिक परंपरा का उपयोग करना और इसे प्रस्तावना में मूल्यों से जोड़ना समुदायों में संविधान के प्रति स्वीकृति हासिल करने और जागरूकता फैलाने का एक और तरीका है। संवाद के फैसिलिटेटर्स को एक समय इस दावे से जूझना पड़ा था कि बीआर अंबेडकर और अन्य संविधान निर्माताओं ने पश्चिम की नक़ल कर भारतीय संविधान तैयार किया है। इससे निपटने के लिए उन्होंने संविधान के आदर्शों को स्थानीय समाज सुधारकों की शिक्षाओं से जोड़ने का एक तरीका खोज निकाला। उदाहरण के लिए, वे भक्ति आंदोलन काल के कवियों और समाज सुधारकों, बसावा और कबीर की शिक्षाओं को लाते हैं और बताते हैं कि दोनों ने लिंग और सामाजिक भेदभाव को खारिज किया था, या वे ज्योतिबा और सावित्रीबाई फुले का ज़िक्र करते हैं जिन्होंने उन्नीसवीं सदी में लड़कियों और दलित जातियों को शिक्षा तक पहुंच देने के लिए सामाजिक बुराइयों के खिलाफ लड़ाइयां लड़ी थीं।

संविधान को लेकर जन-जागरुकता बढ़ाने के लिए, केरल इंस्टीट्यूट ऑफ लोकल एडमिनिस्ट्रेशन (क़िला – केआईएलए) ने फरवरी 2022 में ‘द सिटीजन‘ नाम से एक कार्यक्रम शुरू किया था। किला द्वारा संवैधानिक साक्षरता कार्यक्रम शुरू करने की एक वजह केरल में बड़े पैमाने पर हो रहे विरोध प्रदर्शन थे। ये प्रदर्शन सबरीमाला मामले में सुप्रीम कोर्ट के उस फैसले के खिलाफ हो रहे थे, जिसने महिला भक्तों के लिए मंदिर खोल दिए थे। धीरे-धीरे, विरोध प्रदर्शन का हिस्सा रहे कई राजनेताओं और महिलाओं ने इस मुद्दे पर अपना विचार बदल दिया। उनका कहना था कि उन्हें संविधान में अधिकारों और सिद्धांतों के बारे में पता नहीं था, और न ही इस बात की जानकारी थी कि ये उन पर किस तरह लागू होते हैं।

लोगों को संगठित करने के लिए सिस्टम बनाना

भले ही भारत का संविधान विश्व स्तर पर सबसे उदार और प्रगतिशील संविधानों में से एक माना जाता है, लेकिन देश में ज़्यादातर लोग इसके बारे में कम ही जानते हैं। आज़ादी के बाद आने वाली सरकारों ने इसे लेकर जागरुकता बढ़ाने को प्राथमिकता नहीं दी। नतीजतन, इस पर काम करने वाले संगठनों को संवैधानिक सिद्धांतों और अधिकारों पर बात करने के नए और रचनात्मक तरीके अपनाने पड़े हैं।

स्कूल भवन के बाहर शिक्षक और बच्चे_संवैधानिक मूल्य
अपनी स्थानीय सांस्कृतिक परंपरा का उपयोग करना और इसे प्रस्तावना में मूल्यों से जोड़ना समुदायों में संविधान के प्रति स्वीकृति हासिल करने और जागरूकता फैलाने का एक और तरीका है। | चित्र साभार: फ़्लिकर

क़िला ने कोल्लम जिले में नागरिक अभियान शुरू करने से पहले, ग्राम पंचायतों, नौकरशाहों और राजनीतिक दलों के साथ मिलकर इसके लिए ज़मीन और माहौल तैयार किया। इस प्रयास में राज्यभर में इस बात पर जागरुकता लाने की कोशिश की कि क्यों नागरिकों को संविधान के बारे में जानना चाहिए। क़िला के सीनियर फ़ैकल्टी वी सुदेसन के अनुसार, केरल के इतिहास – उच्च साक्षरता और शासन में लोगों की भागीदारी – के कारण कोई भी नागरिकों को संविधान के बारे में बताने के खिलाफ नहीं था। योजना को लेकर कई तरह के लोगों से चर्चा की गई जिसमें मुख्य रूप से छात्र-शिक्षक, युवा संगठन और यहां तक ​​कि धार्मिक संगठन भी शामिल थे। इन्होंने लोगों को संवैधानिक साक्षरता से जुड़ी कक्षाओं और कार्यशालाओं में भाग लेने के लिए प्रेरित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

संवाद ने महसूस किया कि स्थायी परिवर्तन लाने के लिए युवाओं की ज़रूरतों से जुड़े संवाद और संबंधों को लगातार बनाए रखना ज़रूरी है।

साथ ही, इसके लिए ग्राम पंचायतों ने लगभग 4000 वॉलंटीयर्स का चयन किया, जिन्हें ‘सीनेटर’ कहा गया और इन्हें प्रति माह 1000 रुपये का मानदेय दिया जाता था। किला ने इन सीनेटरों को संविधान और दैनिक जीवन में इसकी प्रासंगिकता से जुड़े प्रशिक्षण दिये। ये सीनेटर समुदायों, स्कूलों, परिवारों, स्थानीय सार्वजनिक कार्यालयों और धार्मिक संस्थानों से जुड़े रहे। किला ने जानबूझकर शिक्षकों की बजाय समुदाय से आने वाले युवाओं को प्रशिक्षित किया, जिसमें 80 फ़ीसदी से अधिक लड़कियां थीं, ताकि ये सिखाने के परंपरागत तरीक़ों की तरफ़ न जा सकें। कोल्लम भारत का पहला जिला है जो शत-प्रतिशत संवैधानिक साक्षर है। इस दौरान केरल सरकार के सामने आने वाली चुनौतियों में से एक यह थी कि सामान्य लोग-मनरेगा कार्यकर्ता, महिलाएं, ग्रामीण और हाशिए की पृष्ठभूमि के छात्र और यहां तक ​​कि धार्मिक संस्थानों के कुछ प्रमुख-इस प्रक्रिया को लेकर खुली सोच रखते थे। लेकिन शिक्षित, उच्च वर्ग के लोग विरोध कर रहे थे क्योंकि उन्हें लगता था कि वे संविधान के बारे में जानते हैं और यह उनके समय की बर्बादी होगी।

संवाद ने महसूस किया कि स्थायी परिवर्तन लाने के लिए युवाओं की ज़रूरतों से जुड़े संवाद और संबंधों को लगातार बनाए रखना ज़रूरी है। इसीलिए संस्था ने बदुकु केंद्र की स्थापना की जहां पर युवा नेतृत्व विकास और सामाजिक असमानताओं से जुड़े विषयों के बारे में जानते हैं। इसमें भेदभाव, संवैधानिक मूल्यों और अधिकारों की पृष्ठभूमि समझना भी शामिल है। संवाद के साथ बतौर प्रोग्राम कन्वीनर काम करने वाली पूर्णिमा बताती हैं कि ‘छह से नौ महीने के व्यापक पाठ्यक्रमों के जरिए हम युवाओं में वे व्यावसायिक क्षमताएं विकसित करने पर काम करते हैं जो समाजिक बदलाव में मददगार साबित हो सकें। जैसे कि पत्रकारिता, इस तरह के पेशों में आज हम वंचित समुदायों जैसे दलित, मुस्लिम और महिलाओं के प्रतिनिधित्व का अभाव देखते हैं।’ इस तरह की भूमिकाओं में, ज़्यादातर ऊंची जाति और उच्च-वर्ग से आने वाले लोगों का ही क़ब्ज़ा दिखाई देता है। इस तरह के उद्देश्यों को ध्यान में रखकर युवाओं को सार्थक व्यावसायिक प्रशिक्षण देना महत्वपूर्ण है।

संगठनों से सीखना/संविधान को रोज़मर्रा से जोड़ना

अपने काम के दौरान क़िला, संवाद और सिविक-एक्ट फ़ाउंडेशन द्वारा हासिल किए गए कुछ प्रमुख सबके इस तरह हैं

1. संविधान आपका है, युवाओं में यह भावना पैदा करना

तीनों संगठनों के प्रयासों से पता चलता है कि युवाओं, वंचित वर्गों और महिलाओं को सशक्त बनाना और नेतृत्व भूमिकाओं के लिए प्रोत्साहित करना हमेशा संवैधानिक मूल्यों, अधिकारों और कर्तव्यों के बारे में जागरूकता फैलाने और कार्रवाई करने में मददगार साबित होता है। यह नज़रिया लोगों में संविधान के प्रति स्वामित्व की भावना पैदा करता है। साथ ही, वास्तविक जीवन में होने वाले अन्याय या अधिकारों के उल्लंघन और संबंधित संवैधानिक उपचारों के बीच संबंध स्थापित करना संविधान को अधिक वास्तविक बनाता है।

2. रचनात्मक तरीकों का प्रयोग करें

क़िला ने यूट्यूब और अन्य सोशल मीडिया मंचों के जरिए संवैधानिक साक्षरता का प्रसार किया। स्कूलों, कॉलेजों और सार्वजनिक स्थानों पर संविधान की प्रस्तावना के पोस्टर लगाना भी कहीं अधिक प्रभावी और सरल तरीक़ा है। कर्नाटक सरकार, साथ ही सिविक-एक्ट फाउंडेशन जैसे कई संगठनों ने सामुदायिक मुद्दों और मूल्यों पर नियमित चर्चा के लिए युवा क्लबों के साथ पुस्तकालयों की स्थापना की। अलग-अलग पृष्ठभूमि वाले लोगों के साथ सार्वजनिक रूप से चर्चा करना, एक-दूसरे के जीवन के अनुभवों से सीखने के लिए प्रोत्साहित करता है। ऐसा करना उन्हें किसी और के साथ हो रहे अन्याय के प्रति भी संवेदनशील बनाता है। अक्सर थिएटर, संगीत और खेलों के जरिए स्थानीय संस्कृतियों और परंपराओं के सकारात्मक पहलुओं को शामिल करना भी महत्वपूर्ण है।

3. संविधान को अन्य कार्यक्रमों से जोड़ें

संवाद अपने हर कार्यक्रम में संविधान को शामिल रखता है। यह लिंग और जाति जैसे मुख्य विषयों का संवैधानिक सिद्धांतों के साथ संबंध (इंटरसेक्शनैलिटी) सुनिश्चित करता है। इस तरह, संगठन उन अलग-अलग मुद्दों को भी संविधान के चश्मे से देख सकते हैं जिन पर वे काम करते हैं। सामाजिक मुद्दों, व्यक्तिगत अनुभवों और संवैधानिक सिद्धांतों के बीच अंतर को पाटकर, संगठन सामाजिक चुनौतियों से निपटने में संविधान की प्रासंगिकता की समझ और महत्व में योगदान दे सकते हैं।

इसके अलावा नागरिक आंदोलन, नागरिक संगठन और समाजसेवी संस्थाएं जो समानता, स्वतंत्रता, न्याय और भाईचारे के मूल्यों को बढ़ावा देने, और/या जो अधिकारों के उल्लंघन से जुड़े विषयों पर काम कर रहे हैं, उन्हें एक साथ आना चाहिए। इन सबको आपस में विचारों और तरीकों को साझा करना चाहिए। भारत को संविधान साक्षर बनाने का यही एक तरीक़ा है।

*पहचान छुपाने के लिए परिवर्तित नाम।

इस आलेख को तैयार करने में बिपिन कुमार, राम नारायण सियाग, वी सुदेसन, पूर्णिमा कुमार और रमक्का आर ने विशेष सहयोग दिया।

सिविक-एक्ट फ़ाउंडेशन और क़िला, हर दिल में संविधान अभियान का हिस्सा हैं जो संवैधानिक मूल्यों को लेकर जागरुकता लाने का काम करता है। 

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आईडीआर एक्सप्लेन्स: भारत में स्थानीय सरकार

छब्बीस जनवरी यानी हमारा गणतंत्र दिवस। साल 1950 में इसी दिन भारत का संविधान लागू हुआ था। हमारे देश के प्रशासन को सुचारू रूप से चलाने के नियम-कायदे और समूची व्यवस्था संविधान द्वारा ही तय की जाती है। साल 1992 में देश ने 73वें और 74वें संशोधन के रूप में विकेंद्रीकरण की तरफ अपना कदम बढ़ाया। इसका उद्देश्य ज़मीनी स्तर के लोकतंत्र को मज़बूत करके स्थानीय राजनीतिक इकाइयों को मज़बूत बनाना था।

इस वीडियो में आप जानेंगे कि 73वें और 74वें संशोधनों के लागू होने के बाद देश के प्रत्येक राज्य के लिए यह ज़रूरी हो गया कि वे गांव और शहरों में अलग-अलग स्थानीय सरकारों का गठन करें। साथ ही, काम करने के लिए उन्हें फंड देने वाली व्यवस्था बनाएं और हर पांच साल में स्थानीय चुनाव करवाएं। इसके पीछे सोच यह थी कि आम लोगों पर सीधा असर डालने वाले फ़ैसलों में उनकी राय शामिल होनी चाहिए। साथ ही, यह भी माना गया कि स्थानीय समस्याओं का सबसे अच्छा और उचित हल भी स्थानीय लोग और सरकारें ही निकाल सकती हैं।

सभी राज्य सरकारें अपने नीचे आने वाली स्थानीय सरकारों द्वारा किए जाने वाले कामकाज के लिए ज़िम्मेदार होती हैं। इसलिए इन स्थानीय सरकारी संस्थानों को मिलने वाली शक्तियां उनके राज्य के क़ानूनों पर निर्भर करती हैं। स्थानीय सरकारें, जहां ज़मीनी स्तर पर विकास को सुनिश्चित करने के लिए ज़रूरी हैं, वहीं इसकी ज़िम्मेदारी एक समुचित प्रणाली के रूप में केंद्र, राज्य और ज़िला प्रशासन तीनों पर है। इन सबको एक सहजता से चलने वाली मशीन की तरह काम करना होता है, ताकि स्थानीय सरकारें अपने निर्धारित लक्ष्यों को हासिल करने के लिए नियमित और सुचारू रूप से काम कर सकें।

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ई-मित्र अपनी ज़िम्मेदारियां ठीक से निभाकर लोगों को सशक्त बना सकते हैं

मेरा नाम ऐसे तो चतर सिंह है लेकिन सभी मुझे प्यार से चतरु बुलाते हैं। मेरा घर राजस्थान के राजसमंद जिले के देवडुंगरी नामक गांव में है। मैं अपने माता-पिता के साथ रहता हूं। मेरे माता-पिता दोनों ही मनरेगा योजना के अंर्तगत दिहाड़ी मज़दूरी करते हैं। हमारे गांव देवडुंगरी में ज़्यादातर लोग या तो मज़दूरी करते हैं या फिर वे काम की तलाश में दूसरी जगह चले जाते हैं। इसके पीछे का कारण यह है कि हमारे गांव में इतनी बारिश नहीं होती है कि खेती-किसानी हमारे लिए रोजगार का विकल्प बन सके। हमारे परिवार में कुल सात लोग हैं, लेकिन शादी के बाद मेरी बहनें अब अपने ससुराल में रहती हैं और मेरे सभी भाई भी रोज़गार और काम-धंधे के सिलसिले में दूसरी जगहों पर जाकर बस गये हैं।

मैं एक ई-मित्र हूं। यह एक प्लेटफ़ार्म होने के साथ ही एक तरह की नौकरी भी है – एक ई-मित्र वह व्यक्ति होता है जो राजस्थान में लोगों को सरकार द्वारा लागू की गई अनिवार्य सेवाओं और योजनाओं और ऑनलाइन सेवाओं के लिए आवेदन करने में उनकी मदद करता है। अपने काम के लिए मैं जन सूचना पोर्टल का उपयोग करता हूं। यह एक सार्वजनिक सूचना पोर्टल है जिसे राजस्थान की सरकार चलाती है और रीयल टाइम में इस पर सूचनाएं अपडेट होती हैं। इस पोर्टल के माध्यम से हम लोगों की पात्रता डिलीवरी और आवेदन की स्थिति का पता लगाया जा सकता है। मैं मज़दूर किसान शक्ति संगठन (एमकेएसएस) के साथ काम करता हूं। इस संगठन की स्थापना देवडुंगरी में ही हुई थी। हमारा घर मेरे माता-पिता की आय और मेरे द्वारा हर दिन कमाए जाने वाले 289 रुपये के न्यूनतम वेतन से चलता है जो मुझे एमकेएसएस के साथ काम करने की एवज़ में मिलता है।

जब मैं सात या आठ साल का था तब एक बिना लाइसेंस के डॉक्टरी करने वाले व्यक्ति ने मेरी एक टांग में इंजेक्शन लगा दिया, जो किसी एक ऐसी नस पर असर कर गई जहां उसे नहीं करना चाहिए था। इसके कारण मैं स्थायी रूप से विकलांग हो गया। समाज में व्याप्त अंधविश्वासों के कारण, किसी ने भी मेरी विकलांगता को चिकित्सीय गलती से जोड़ कर नहीं देखा। बल्कि इसके उलट, लोगों का मानना था कि मुझ पर किसी तरह का अभिशाप है। मुझे समय पर हॉस्पिटल भी नहीं ले ज़ाया गया ताकि सही इलाज मिल सके। इसके बदले, मुझे सब लोग मिलकर मंदिर ले गये जहां एक पुजारी लगातार मेरे परिवार के लोगों को झूठी और ग़लत सलाह देता रहा। हर बार वह कभी दो महीने तो कभी चार महीने बाद बुलाता। उसका कहना था कि मैं एक दिन ठीक हो जाऊंगा। इसी तरह दो-तीन साल निकाल गये। समय इतना बीत चुका था कि इसके बाद मेरी उस नस को ठीक करना किसी भी डॉक्टर के वश में नहीं था। इस विकलांगता ने मेरे जीवन पर बहुत बुरा प्रभाव डाला। मेरे बड़े भाई ने कुछ समय तक मुझे घर पर ही पढ़ाया। लेकिन इस विकलांगता के कारण मुझे 10-11 साल तक की उम्र तक औपचारिक शिक्षा से वंचित रहना पड़ा।

मेरी बारहवीं तक की पढ़ाई देवडुंगरी के ही स्कूल से हुई और उसके बाद मैं डिस्टेंस लर्निंग से अपनी ग्रेजुएशन पूरी की। लेकिन जब मैंने दूसरी बार बीए करने का फ़ैसला लिया तो उसके लिए मेरे सामने कक्षा में जाकर पढ़ाई करने की शर्त थी। मेरी मां मुझे घर से बाहर नहीं जाने देना चाहती थीं। उन्हें हमेशा इस बात की चिंता लगी रहती थी कि बाहर मेरी देखभाल करने वाला कोई नहीं होगा और मैं ख़ुद से अपना ख्याल नहीं रख पाऊंगा। इस बात को लेकर मेरे और उनके बीच बहस भी गई थी। मैं उनकी चिंता समझ रहा था लेकिन मैं घर के बाहर की दुनिया को भी देखना और समझना चाहता था। मैंने अक्सर ही देखा है कि विकलांग लोग अपनी ज़िंदगी को घर की चारदीवारी में क़ैद कर लेते हैं। मुझे अपने लिए ऐसा जीवन नहीं चाहिए था।

समय के साथ मैंने चलना और यहां तक कि यात्राएं करना भी सीख गया। और इस तरह से मैंने अपनी उच्च शिक्षा पूरी की। ई-मित्र के मेरे काम से मेरे जीवन को नया अर्थ मिला और मैं इस काबिल बन पाया कि लोगों की मदद कर सकूं। ई-मित्र के जरिए मुझसे मदद पाने वाले लोगों में ज़्यादातर कम आय वर्ग वाले लोग होते हैं और अक्सर सरकारी सामाजिक अधिकारों और उनसे मिलने वाले लाभों तक स्वयं नहीं पहुंच पाते हैं।

एक दुकान के सामने खड़े चतर सिंह_ई-मित्र
लोगों की सहायता करना और उनके अधिकारों के बारे में उन्हें बताना इसलिए भी ज़रूरी है ताकि वे अपने अधिकारों के बारे में समझ विकसित कर सकें। | चित्र साभार: चतर सिंह

सुबह 3.30 बजे: मैं सुबह जल्दी जाग जाता हूं और दो घंटे तक विभिन्न प्रतियोगिता परीक्षाओं की तैयारी करता हूं। मैं राजस्थान एलिजेबिलिटी एग्जामिनेशन फॉर टीचर्स  (आरईईटी) से लेकर राजस्थान प्रशासनिक सेवाओं (आरएस) के लिए होने वाली सभी परीक्षाओं की तैयारी कर रहा हूं। मेरा सपना है कि या तो मैं एक अच्छा शिक्षक बन जाऊं या फिर मेरा चयन आरएस अधिकारी के रूप में हो जाये। मेरी नौकरी लगने के बाद मेरा परिवार आर्थिक रूप से स्थिर हो जाएगा। मुझे नई-नई चीजें सीखने में बहुत मजा आता है और तीन विषयों में एमए के करने के साथ ही मेरे पास बीएड की डिग्री भी है। चूंकि घर से निकलना मेरे लिए संभव नहीं था और मैंने केवल पांचवी कक्षा तक की ही पढ़ाई स्कूल से की है, इसलिए मुझे शिक्षा का महत्व अच्छे से मालूम है।

स्कूल ना जाना पाना मेरी एकमात्र चुनौती नहीं थी – कलंक और अंधविश्वास ने जीवन भर मेरा पीछा नहीं छोड़ा। गांव वालों का मानना था कि सुबह-सुबह मेरा चेहरा देखने से उनका दिन ख़राब हो सकता है। मेरा परिवार, विशेष रूप से मेरी मां को कई तरह के ताने सुनते पड़ते थे जैसे कि, ‘इसे सुबह दस या ग्यारह बजे के बाद ही बाहर भेजो। सुबह-सुबह इसका चेहरा देखना हमारे लिए अशुभ होता है।’

लेकिन जब से मैंने ई-मित्र के रूप में काम करना शुरू किया है तब से मेरे आसपास और समुदाय के लिए लोगों का व्यवहार मेरे प्रति बदल गया है। एक समय मेरी विकलांगता के कारण मुझे नीचा दिखाने वाले लोग ही मुझसे अपने पेंशन, राशन और अन्य सामाजिक अधिकारों के लिए किए गए अपने आवेदनों की स्थिति के बारे में पूछने के लिए सुबह से ही मेरे घर के बाहर क़तार में खड़े हो जाते हैं।

चूंकि मैं अपने इस कम को समाज सेवा से जोड़कर देखता हूं इसलिए मुझे उनकी मदद करने से ख़ुशी मिलती है। लोगों की सहायता करना और उन्हें उनके अधिकारों के बारे में बताना ज़रूरी है ताकि उन्हें अपने अधिकारों की समझ हो सके। उदाहरण के लिए, ग़रीबी में अपना जीवन गुजर-बसर कर रही एक विधवा बुजुर्ग मेरे पास इसलिए आई थी क्योंकि उसे अपना पेंशन नहीं मिल रहा था। हालांकि उन्हें विधवा पेंशन के साथ-साथ वृद्धा-पेंशन भी मिल सकता था लेकिन उन्हें पढ़ना-लिखना नहीं आता था इसलिए वह आवेदन से जुड़ी कागजी प्रक्रिया करने में सक्षम नहीं थीं। मैंने उनका पेंशन फॉर्म भरा, जॉब कार्ड बनाने के लिए भी आवेदन फॉर्म भरा, और कोशिश की कि उनका नाम राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम की सूची में भी उनका नाम दर्ज हो जाए। अगर सब कुछ सही रहा तो उन्हें जीवन भर इन सभी योजनाओं से मिलने वाले लाभ प्राप्त होंगे। अपने ई-मित्र सेंटर पर मैं हर दिन कम से कम ऐसे 50 से 60 लोगों से मिलता हूं और उनकी मदद करता हूं।

मेरा ऑफिस सुबह साढ़े नौ बजे शुरू होता है, इसलिए मैं सुबह का नाश्ता करने के बाद नौ बजे काम के लिए निकल जाता हूं।

सुबह 9.30 बजे: ई-मित्र का काम करने वाला कमरा, राजसमंद के भीम तहसील में स्थित एमकेएसएस के दफ़्तर में ही है। हमारे ऑफिस को ‘गोदाम’ कहा जाता है और यह चार जिलों – राजसमंद, पाली, अजमेर और भीलवाड़ा- के बीच में स्थित है। इन चारों जिलों के लोग अपना काम करवाने के लिए मेरे ऑफिस में आते हैं। मेरा काम मुख्य रूप से ऑनलाइन ही होता है, जहां मैं लोगों को सरकारी योजनाओं के तहत मिलने वाले लाभों के लिए आवेदन करवाने और समय-समय पर उनके आवेदनों की स्थिति का पता लगाने में उनकी मदद करता हूं। इसके अलावा मैं उन्हें राजस्थान राज्य सरकार की उन विभिन्न योजनाओं के बारे में भी बताता हूं जिनका उन्हें लाभ मिल सकता है।

राजस्थान की सरकार ने हमारे क्षेत्र में सेवा के लिए न्यूनतम पचास रुपये की दर तय की हुई है। हालांकि, मैंने देखा है कि कई ई-मित्र पचास रुपये की रसीद बनाते हैं लेकिन वास्तव में अपनी सेवाओं के लिए सौ से डेढ़ सौ रुपये तक भी लेते हैं।

कप्यूटर पर काम करते हुए चतर सिंह_ई-मित्र
विकलांग बच्चों के माता-पिता को मैं अक्सर यह सलाह देता हूं कि वे अपने बच्चों को घर की चारदीवारी में बंद करके ना रखें। | चित्र: चतर सिंह

मेरी सबसे बड़ी चिंता व्यवस्था में व्याप्त भ्रष्टाचार है। मैंने देखा है कि ई-मित्र उन लोगों का लाभ भी उठाते हैं जिन्हें सरकारी योजनाओं का लाभ मिल सकता है। उदाहरण के लिए, भवन और अन्य निर्माण श्रमिक अधिनियम, 1996 के तहत श्रम कार्ड रखने वाले आदमी को शुभ शक्ति योजना का लाभ मिल सकता है। इस योजना के अंतर्गत ऐसे श्रमिकों की बेटी को सरकार की तरफ से पचपन हज़ार रुपये की सहायता राशि मिलती है यदि वह अठारह साल तक अविवाहित है और उसने कम से कम कक्षा आठ तक की पढ़ाई पूरी कर ली है। ऐसे कई लोगों को ई-मित्रों द्वारा ठगा जाता है और वे उनसे कहते हैं कि अगर वे उन्हें दस से बीस हज़ार रुपये तक दें तो वे उनके पचपन हज़ार रुपये जल्द से जल्द दिलवाने में उनकी मदद कर सकते हैं। ऐसा नहीं करने पर आवेदन से लेकर अधिकार के पैसे मिलने की प्रक्रिया पूरी होने में बहुत लंबा समय लग सकता है।

हालांकि हमारे सेंटर को व्यवस्था में व्याप्त भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए ही शुरू किया गया था। जब 2014 में मैंने एमकेएसएस के ऑफिस में काम करना शुरू किया था, तब हमने पाया कि एक ई-मित्र ने एक महिला से बीस रुपये की जगह दो सौ रुपये का भुगतान करवाया था। चूंकि मैं ऑफिस से बाहर निकल बहुत अधिक मदद नहीं कर सकता हूं, इसलिए मुझे एक मॉडल ई-मित्र चलाने की जिम्मेदारी दी गई जहां लोगों से उचित राशि ही ली जाएगी।

दोपहर 1.30 बजे: मैं और मेरे सहकर्मी मिलकर दोपहर के खाने की तैयारी करते हैं। हम लोग गोदाम में ही खाना पकाते हैं और खाते हैं। खाना पकाने के दौरान हम अपनी निजी ज़िंदगियों से लेकर राजनीति जैसे विषयों पर चर्चाएं भी करते हैं। अक्सर ही हमारी बातचीत का विषय जवाबदेही व्यस्वथा में मौजूद धोखाधड़ी होती है क्योंकि ये विभिन्न सरकारी विभागों में स्थानीय अधिकारियों और ई-मित्रों के बीच के संबंध इस समस्या को और बढ़ा देते हैं।

राजस्थान सरकार के अंर्तगत छह सौ अधिक सेवाएं और योजनाएं हैं और ईमित्र के माध्यम से इन सभी तक पहुंचा जा सकता है। हम अब तक कुल तीन बार जन सुनवाई का आयोजन कर चुके हैं ताकि इस बात का अंदाज़ा लगाया जा सके कि इन योजनाओं का लाभ सही लोगों तक पहुंच रहा है या नहीं। यह जानने के लिए कि प्रत्येक ग्रामीण को मिलने वाला अधिकार किस चरण में मिलता है, हम गांव में सामाजिक ऑडिट भी आयोजित करते हैं। उसके बाद हम पूरे गांव और विभाग के अधिकारियों को जन सुनवाई के लिए एक जगह पर बुलाते हैं। इस सुनवाई में हम प्रत्येक व्यक्ति के सामने योजनाओं से जुड़ी ग़लतियों का पता लगाते हैं और उसे दूर करते हैं। उदाहरण के लिए, अगर हम प्रधान मंत्री आवास योजना के लिए जन सुनवाई का आयोजन करेंगे तो हम उसमें लोगों के सामने आने वाली समस्याओं की पहचान करेंगे ताकि उससे संबंधित विभाग अपनी ग़लतियों को ठीक करने की दिशा में काम कर सके। इससे हमें यह जानने में भी मदद मिलती है कि कहीं किसी ने ग़लत तरीक़े से पैसे तो नहीं लिये हैं और इसके बाद हम उसी समय पूरे गांव के सामने अधिकारियों को इसके लिए जवाबदेह बना सकते हैं।

शाम 5.00 बजे: मैं आमतौर पर शाम पांच से छह बजे तक काम करता हूं। एक आवेदन प्रक्रिया से जुड़ा काम करने में मुझे आधे घंटे से लेकर एक घंटे तक का समय लग जाता है क्योंकि सभी जानकारियों को सही-सही भरना बहुत महत्वपूर्ण है। इस सेवा के लिए मैंने किसी भी प्रकार की विशेष प्रशिक्षण नहीं ली है इसलिए बिना गलती के काम करने के लिए या तो मैं यूट्यूब पर निर्भर रहता हूं या फिर गलती करके सीखता हूं।

जनसूचना पोर्टल के माध्यम से हमें सभी प्रकार की प्रासंगिक जानकारी मिल जाती है और हम एक व्यक्ति के लिए कई आवेदन फॉर्म भर सकते हैं। ऐसे में गलती पकड़ना आसान होता है। मुझे आज भी याद है। ई-मित्र के रूप में काम करते हुए मुझे कुछ ही साल हुए थे, एक महिला अपनी पेंशन के बारे में जानने के लिए हमारे पास आई थी। कई महीनों से उसे उसकी पेंशन की किस्त नहीं मिली थी। मैंने रिकॉर्ड चेक किया और पाया कि दस्तावेज के सत्यापित नहीं हो पाने के कारण उसे मृत घोषित किया जा चुका है। इस मामले की गहराई से जांच करने के बाद हमने जाना कि राजस्थान में लगभग छह से आठ लाख लोगों को मृत घोषित किया जा चुका था जबकि वे जीवित थे। इन परिस्थितियों में, सरकार के लिए तकनीक से जुड़े काम करने वाले लोगों के साथ ही विभिन्न स्तरों के अधिकारियों से संपर्क रखना मददगार साबित होता है ताकि हम हम सीधे उनसे संपर्क कर सकें। हमने उप-विभागीय मजिस्ट्रेट (एसडीएम) और खंड-विकास अधिकारी (बीडीओ) से संपर्क किया और उनसे इस मामले को उजागर करने और समाधान खोजने के लिए कहा। मैंने हमेशा ही हमारे काम को सरकार से जोड़ कर देखा है – वे हमारे बिना काम नहीं कर सकते और ना ही हम उनके बिना।

काम के बाद कभी-कभी मुझे ट्रेनिंग या मीटिंग के लिए भी बुलाया जाता है। जैसे कि, मैं स्कूल फॉर डेमोक्रेसी से बहुत नज़दीक से जुड़ा हुआ हूं। यह एक संगठन है जो लोकतांत्रिक और संवैधानिक अधिकारों और मूल्यों के लिए काम करता है। वे मुझे वर्कशॉप के लिए बुलाते हैं ताकि मैं वहां के लोगों को राजस्थान की महत्वपूर्ण योजनाओं की जानकारी दे सकूं और उन्हें जन सूचना पोर्टल के इस्तेमाल के तरीक़ों के बारे में बता सकूं। मैं विकलांगों द्वारा झेले जाने वाले भेदभाव के प्रति संवेदनशील बनाने के लिए युवाओं के साथ भी काम करता हूं।

मैं विकलांग बच्चों के माता-पिता को यह सलाह देता हूं कि उन्हें अपने बच्चों को घर की चारदीवारी में बंद करके नहीं रखना चाहिए। इसके बदले, उन बच्चों को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए और जीवन में कुछ करने के अवसर प्रधान करने चाहिए। शिक्षा के बिना मेरा जीवन अभी के जीवन से बहुत अलग होता, और बचपन में मुझसे जुड़ा कलंक का भाव पूरी ज़िंदगी मेरा पीछा नहीं छोड़ता।

शाम 7.00 बजेकाम से घर लौटकर मैं लगभग एक घंटे तक टीवी देखता हूं। मुझे क्रिकेट देखने में बहुत मज़ा आता है और जब 2023 के वर्ल्ड कप में भारत के हारने पर मैं बहुत दुखी भी हो गया था। इसके अलावा, मैं सीआई डी धारावाहिक भी देखता हूं। यहां गांव में अंधेरा जल्दी हो जाता है इसलिए मैं आमतौर पर रात के नौ बजे से पहले खाना खा लेता हूं। दिन भर मुझे अपना फोन देखने का समय नहीं मिलता है, इसलिए खाने के बाद मैं अपने मैसेज पढ़ता हूं उनके जवाब देता हूं। यह सब करते करते मेरी आंख लग जाती है और मैं सो जाता हूं क्योंकि अगले दिन सुबह उठकर मुझे पढ़ाई भी करनी होती है। 

जैसा कि आईडीआर को बताया गया है।

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