पिछली कई सदियों से भारत के विविध समुदायों का कला के साथ गहरा संबंध रहा है। इसमें मौखिक परंपराएं, रंगमंच, संगीत, नृत्य और कविता जैसी कई कलाएं उल्लेखनीय हैं। ऐसी बहुत सी कलात्मक अभिव्यक्तियां देशभर में त्योहारों, सामुदायिक जमावड़ों और सांस्कृतिक उत्सवों का अभिन्न हिस्सा रही हैं। ये न केवल अपनी पहचान की अभिव्यक्ति का माध्यम हैं, बल्कि कहानी कहने का प्रभावशाली जरिया भी हैं। उदाहरण के लिए, आंध्र प्रदेश में एक सामुदायिक कार्यकर्ता ने ‘कोरोना राक्षस’ का वेश धारण कर रचनात्मक ढंग से कोविड-19 महामारी के प्रति जागरूकता फैलाने का प्रयास किया था। इसी तरह, बिहार की महिला किसान पारंपरिक गीतों के माध्यम से प्राकृतिक खेती के बारे में जागरूकता फैला रही हैं।
ऐसे कई उदाहरण यह दिखाते हैं कि कला केवल अहम सामाजिक मुद्दों के प्रचार-प्रसार का माध्यम नहीं है, बल्कि इसके जरिए निजी अनुभवों और सांस्कृतिक विरासत के आधार पर समुदायों से बेहतर रूप से जुड़ा जा सकता है। मौजूदा समय में भारत के कुछ सामाजिक उद्देश्य संगठन (एसपीओ) विभिन्न कलाओं से सामाजिक क्षेत्र के कई विषयों पर काम करने का प्रयास कर रहे हैं। यहां इससे जुड़े कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैं:
- शिक्षा: सामाजिक-भावनात्मक शिक्षा (एसईएल) के कौशल, जैसे संवाद, सहयोग, धैर्य, कल्पनाशक्ति और तार्किकता को उभारने में कला बड़ी भूमिका निभा सकती है। इससे बच्चों को रचनात्मक और भावनात्मक रूप से फलने–फूलने में मदद मिलती है। उदाहरण के लिए, ‘मंजिल मिस्टिक्स’ नामक एक संगीत समूह हाशिए पर रहने वाले समुदायों के बच्चों को संगीत के माध्यम से दुनिया की समझ विकसित करने में सहायता करता है। उनकी यह पहल न केवल बच्चों की रचनात्मकता और आत्मविश्वास को बढ़ावा देती है, बल्कि उनके लिए माहवारी और प्रजनन स्वास्थ्य जैसे जटिल विषयों को भी सरल बनाती है। इसी प्रकार, ‘बैठक फाउंडेशन’ पारंपरिक संगीत और नृत्य के माध्यम से ऐसा सुरक्षित शिक्षण परिवेश बनाती है, जहां बच्चों और शिक्षकों के मानसिक स्वास्थ्य पर खास ध्यान दिया जाता है। ‘स्लैम आउट लाउड’ संगठन रंगमंच, कविता और कहानियों जैसी विजुअल और परफॉर्मिंग कलाओं से वंचित समुदायों के बच्चों में एसईएल से जुड़ा कौशल-निर्माण करता है।
- सामूहिक प्रयास: कला वंचित समुदायों के लिए अपनी कहानियां और अनुभव साझा करने का एक प्रभावशाली माध्यम बन सकती है। उदाहरण के लिए, ‘आगाज थिएटर ट्रस्ट’ रंगमंच और अन्य कलाओं के माध्यम से समुदायों को एकजुट करने, उनके अनुभवों को साझा करने और उनकी कहानियों को मंच देने का काम करता है। यह संगठन सहभागी प्रस्तुतियों (कोलैबोरेटिव परफॉर्मेंस) और वर्कशॉप के माध्यम से समुदायों को अपनी कहानी, अपनी जुबानी कहने का मौका देता है, जिससे सामाजिक मुद्दों पर संवाद की शुरुआत होती है।
- लैंगिक (जेंडर) संवेदनशीलता: कला केवल प्रजनन स्वास्थ्य और मासिक धर्म जैसे जटिल विषयों पर ही नहीं, बल्कि रोजमर्रा के जीवन से जुड़ी लैंगिक भूमिकाओं और पहचान पर बात करने के लिए भी एक सुरक्षित परिवेश तैयार करती है। उदाहरण के लिए, मुंबई स्थित एक गैर-लाभकारी संगठन ‘मुक्कामार’, रंगमंच के जरिए किशोरियों को लैंगिक हिंसा को पहचानने और उसका सामना करने का प्रशिक्षण देता है।
- मानसिक और भावनात्मक सशक्तिकरण: अभिव्यक्ति और उपचार (हीलिंग) के लिए जरूरी सुरक्षित परिवेश तैयार करने में भी संगीत, रंगमंच और चित्रकला जैसी कलाओं का उपयोग किया जा सकता है। ‘सैटरडे आर्ट क्लास’ नामक एक गैर-लाभकारी संगठन, जो कला शिक्षा में मौजूद अंतर को पाटने का प्रयास कर रहा है, वंचित वर्गों के बच्चों के साथ काम करता है। शिक्षण में विजुअल कलाओं को अपनाने वाला यह संगठन, बच्चों को उनके विकास के प्रारंभिक वर्षों में रचनात्मक सोच विकसित और व्यक्त करने के लिए एक सुरक्षित परिवेश प्रदान करता है।
- आजीविका: कला अलग-अलग तबकों और हुनर वाले कलाकारों की आजीविका का एक महत्वपूर्ण साधन है। ‘बैठक फाउंडेशन’ का तीन वर्षीय फ्लैगशिप प्रोग्राम स्कूल कॉन्सर्ट, कार्यशालाओं और प्रशिक्षण सत्रों के जरिए बच्चों को पारंपरिक कलाओं से परिचित कराता है। यह कार्यक्रम आर्थिक रूप से कमजोर पृष्ठभूमि से आने वाले 200 से अधिक युवा पारंपरिक कलाकारों को आजीविका के अवसर प्रदान करता है। इसी तरह, ‘अनहद फाउंडेशन’ लोक संगीतकारों के साथ मिलकर पारंपरिक कलाओं के संरक्षण के लिए काम करती है। यह संगठन पोर्टेबल, बैटरी-चालित प्रोडक्शन तकनीकों को कलाकारों तक ले जाता है, जिससे देश के विभिन्न आदिवासी समुदायों के कलाकार पेशेवर गुणवत्ता वाला संगीत और वीडियो रिकॉर्ड कर पाते हैं।
आर्टप्लेस अमेरिका की एक रिपोर्ट में कला की उन 13 विशिष्ट भूमिकाओं को रेखांकित किया गया है, जो विकास कार्यक्रमों का अंग बन सकती हैं। इसमें लोगों को प्राथमिकता देना, व्यक्तिगत सक्रियता को बढ़ावा देना, सामुदायिक पहचान को समझना, सामुदायिक आघात से उबरना और सांस्कृतिक निरंतरता सुनिश्चित करना जैसे कई बिंदु शामिल हैं।
बहुत सी प्रत्यक्ष सफलताओं के बावजूद, भारत के विकास सेक्टर में कला का उपयोग अभी भी कुछ मुट्ठी भर कोशिशों और शुभचिंतकों, फंडरों व उन समुदायों के समर्थन तक ही सीमित है, जिनके साथ ये एसपीओ काम कर रहे हैं।
सामाजिक बदलाव में कला की भूमिका के अनछुए पहलू
सामाजिक बदलाव के लिए कला को व्यापक रूप से न अपनाए जाने का एक प्रमुख कारण यह भी है कि इसे आमतौर पर संप्रभु वर्ग की संपत्ति के रूप में देखा जाता है, न कि रोजमर्रा के जीवन के एक अभिन्न अंग की तरह। कला को आमतौर पर बड़े शहरों के भव्य मंचों और दीर्घाओं से जोड़ा जाता है, जबकि वास्तविकता यह है कि भारत में ये हमेशा से आम जनजीवन का अहम हिस्सा रही है।
चूंकि कला को एक धनाढ़्य या अलग-थलग गतिविधि के रूप में देखा जाता है, इसलिए इस पूर्वाग्रह का असर इस से जुड़ी फंडिंग में भी साफ झलकता है। अगर कला को सामाजिक बदलाव या आम जीवन का हिस्सा ही नहीं समझा जाएगा, तो फंडर भी इसमें निवेश करने से कतरायेंगे। विशेषकर इसलिए, क्योंकि न तो इसके नतीजे तुरंत दिखते हैं और न ही उन्हें आसानी से मापा जा सकता है।

कला से समाज को बदलने के लिए सबसे पहले इस मानसिकता को बदलना जरूरी है। फंडरों को कला में अपनी भागीदारी को महज एक संरक्षणात्मक नजरिये से देखने के बजाय, उसे एक सतत और सामुदायिक निवेश की तरह देखने की जरूरत है, ताकि कला समाज के अलग-अलग क्षेत्रों में सुलभ, प्रासंगिक और प्रभावशाली बन पाए।
इस संदर्भ में कुछ महत्वपूर्ण बिंदु हैं, जिनके माध्यम से फंडर सामाजिक क्षेत्र में कला की भूमिका को सशक्त बना सकते हैं:
- संवाद के मंच तैयार करना: विकास सेक्टर में कला की समझ विकसित करने के लिए सुनियोजित और अर्थपूर्ण मंचों की आवश्यकता है। ऐसे मंच बहुआयामी साबित हो सकते हैं। उदाहरण के लिए, वे शोध को प्रोत्साहित कर सकते हैं, सीखी गई बातों का व्यवस्थित रूप से संकलन और प्रसार कर सकते हैं और कला और सामाजिक क्षेत्र के बीच एक जीवंत, परस्पर साझेदारी बना सकते हैं। हाल ही में ‘उज्ज्वल इम्पैक्ट एडवाइजर्स’ द्वारा आयोजित एक संगोष्ठी में लगभग 30 फंडरों को ऐसे सामाजिक उद्देश्य संगठनों (एसपीओ) से परिचित कराया गया, जो संगीत, रंगमंच, विजुअल आर्ट और कविता जैसी कलाओं के साथ काम कर रहे हैं। इस पहल का उद्देश्य यह दर्शाना था कि कला से सामाजिक बदलाव संभव है। इस कार्यक्रम ने फंडरों को यह समझने में मदद की कि वे अपनी ‘थ्योरी ऑफ चेंज’ में किस तरह कला का उपयोग कर सकते हैं। नतीजतन, वहां मौजूद कई लोगों ने कला के क्षेत्र में निवेश पर विचार करना शुरू किया।
- भागीदारी का निर्माण: बड़े स्तर के गैर-लाभकारी संगठनों और छोटे स्तर के कला-केन्द्रित संगठनों के बीच साझेदारी को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए, लेकिन यह पहल सुनियोजित और उद्देश्यपूर्ण होनी चाहिए। उदाहरण के लिए, ‘प्रथम’ ने ‘मंजिल मिस्टिक्स’ और ‘सैटरडे आर्ट क्लास’ के साथ मिलकर यह शोध किया कि किस प्रकार संगीत या विजुअल आर्ट पर आधारित सामाजिक-भावनात्मक शिक्षण (एसीईएल) पाठ्यक्रम बच्चों में रचनात्मक आत्मविश्वास को बढ़ावा देता है। ये शुरुआती प्रयास इस बात का खाका प्रस्तुत करते हैं, कि फंडर किस तरह अपने पोर्टफोलियो में शामिल गैर-लाभकारी संगठनों को, कला-केन्द्रित संगठनों के साथ साझेदारी के माध्यम से कला के उपयोग के लिए प्रेरित कर सकते हैं।
- ढांचागत सहायक (एनेबलर) तैयार करना: कला के निरंतर उपयोग को सुनिश्चित करने के लिए सामाजिक क्षेत्र में ढांचागत बदलावों की आवश्यकता है। उदाहरण के लिए, ‘एनुअल स्टेटस ऑफ एजुकेशन रिपोर्ट’ (एएसईआर) में कला को जानना-सीखना और कक्षा में उसके प्रभाव को समझना एक मापदंड की तरह शामिल किया जा सकता है। पांच से दस वर्षों की अवधि में इस प्रक्रिया से ऐसे आंकड़े मिल सकते हैं, जो नीति-निर्माताओं को ठोस पहल करने के लिए दिशा प्रदान करें। सामाजिक क्षेत्र और कला के बीच गहरे संबंध स्थापित करने के लिए ऐसे ढांचागत सहायक तंत्र बेहद जरूरी हैं।
- छोटे लक्ष्यों की जगह स्थायी बदलाव को प्राथमिकता देना: विकास सेक्टर के कई क्षेत्रों में परिणाम तुरंत दिखाई देते हैं। उदाहरण के लिए, स्कूलों का निर्माण करना, जिसका प्रभाव एक या दो वर्षों में साफ देखा जा सकता है। या फिर स्वास्थ्य शिविर आयोजित करना, जिससे तुरंत और मापने योग्य परिणाम मिलते हैं। लेकिन जब परिणाम केवल लंबे समय के बाद नजर आना संभव हो, तब क्या किया जाए? उदाहरण के लिए, जेंडर पर एक कार्यशाला पूरे समुदाय से लैंगिक भेदभाव को नहीं मिटा सकती। इस तरह की चुनौतियों में कला सबसे प्रभावशाली साबित हो सकती है। हालांकि, इसके लिए ऐसे फंडरों की जरूरत है, जो निरंतर और स्थायी बदलाव से जुड़े प्रयासों को धैर्यपूर्वक समर्थन देने के लिए तैयार हों।
- व्यापक इकोसिस्टम के साथ साझेदारी: वित्तीय सहायता के अलावा ऐसी सुलभ और मुख्यधारा की जगहों की भी जरूरत है, जहां इस विषय पर सार्थक संवाद हो सके। भारत में ऐसे अनेक महोत्सव होते हैं, जहां समाज के विविध क्षेत्रों के दर्शकों का जमावड़ा लगता है। उदाहरण के लिए, जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल और सेरेन्डिपिटी आर्ट्स फेस्टिवल जैसे आयोजन। सामाजिक क्षेत्र में कला की भूमिका पर बातचीत के लिए इन जैसे बड़े मंचों का उपयोग किया जा सकता है।
सामाजिक क्षेत्र में कला का अभी तक पूरी तरह उपयोग नहीं हो पाया है। फंडर इस स्थिति को बदलने में एक अहम भूमिका निभा सकते हैं, जिससे इस क्षेत्र के अधिक लोगों को इसे अपनाने के लिए प्रेरणा मिलेगी। सामाजिक सेक्टर को कला की दुनिया से अधिक जुड़ाव की जरूरत है, और कला की दुनिया को भी सामाजिक सेक्टर से अधिक सहयोग और भागीदारी की दरकार है।
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