पिछले दो दशकों यानी साल 2000 से 2019 के बीच भारत कुदरती आपदाओं का सामना करने के मामले में तीसरे नंबर पर है। आने वाले समय और ज्यादा भयावह होने का अनुमान है। कई प्राकृतिक आपदाओं की आवृत्ति और तीव्रता में बढ़ोतरी होने का पूर्वानुमान है। इससे नुकसान और क्षति अरबों अमेरिकी डॉलर तक पहुंच जाएगी। तब राज्य के खजाने में भुगतान करने के लिए शायद पर्याप्त रकम ना हो।
भारत इस वित्तीय खाई को पाटने के लिए नए तरह के बीमा को सावधानी से आजमा रहा है। इसका नाम है पैरामीट्रिक बीमा। जहां नियमित बीमा योजनाएं क्षतिपूर्ति पर आधारित होती हैं या आपदा होने के बाद नुकसान का मूल्यांकन करती हैं, वहीं पैरामीट्रिक बीमा पहले से तय मापदंडों के सेट पर निर्भर करता है, जो पूरा होने पर तुरंत भुगतान शुरू कर देता है। एएक्सए क्लाइमेट के भारत प्रमुख पंकज तोमर ने कहा, “कोई सर्वेक्षण या मूल्यांकन की लंबी अवधि नहीं है, जो कि फर्क का मुख्य बिंदु है।” यह एएक्सए ग्रुप का उपक्रम है जो बदलते मौसम के हिसाब से समाधान बनाने पर काम करता है।
अहमदाबाद के अंबावाड़ी नगरपालिका में 60 साल की निर्माण मजदूर जशीबेन परमार ने कहा कि अब वह लू के चलते अपनी मजदूरी में होने वाले नुकसान की भरपाई उस दिन कर पाई, जब उन्हें स्वरोजगार महिला संघ (एसईडब्ल्यूए-सेवा) के सदस्यों के लिए चल रही पैरामीट्रिक हीट बीमा योजना के तहत 400 रुपये का भुगतान मिला। इस साल गर्मियों में उत्तर और उत्तर-पश्चिम भारत के ज्यादातर हिस्से भीषण गर्मी और रिकॉर्ड तोड़ तापमान की चपेट में थे। उन्होंने मोंगाबे इंडिया को बताया, “मैंने इस पैसे का इस्तेमाल खाने-पीने और घर चलाने में किया।”
सेवा की ओर से चलाया जा रहा यह कार्यक्रम, हाल के सालों में देश में तेजी से फैल रहे अन्य कार्यक्रमों में से एक है। इसमें बाढ़, गर्मी के बढ़ते प्रकोप और नवीन ऊर्जा संयंत्रों में उत्पादकता में कमी जैसी चीजें शामिल की गई हैं।
लेकिन पैरामीट्रिक बीमा के लाभ इस बात पर निर्भर करते हैं कि जोखिम और नुकसान का हिसाब किस तरह लगाया जाता है। पैरामीट्रिक बीमा के साथ भारत का अनुभव अभी शुरुआती स्टेज में है। जानकारों का भी कहना है कि इसे बदलते मौसम के हिसाब से मौजूदा रणनीतियों को बेहतर करना चाहिए, ना कि उनकी जगह लेनी चाहिए।
भारत में पैरामीट्रिक स्कीम
भारत के हर हिस्से में अब प्राकृतिक आपदाओं का आना आम बात हो गया है। सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट की रिपोर्ट के अनुसार, भारत ने 2022 के पहले नौ महीनों में लगभग हर दिन प्राकृतिक आपदाएं देखीं। 2019 और 2023 के बीच, देश को मौसम संबंधी आपदाओं के कारण 56 बिलियन डॉलर का नुकसान हुआ।
भारत में आपदा प्रबंधन के लिए पैसों का इंतजाम आमतौर पर राष्ट्रीय या राज्य आपदा प्रतिक्रिया कोष (एसडीआरएफ) और अंतरराष्ट्रीय सहायता से आता है। राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (एनडीएमए) को केंद्र सरकार से 75 से 90% तक मदद मिलती है, जबकि बाकी बची राशि राज्य सरकार द्वारा दी जाती है। हालांकि, ये फंड हमेशा तुरंत उपलब्ध नहीं हो पाते हैं। कई राज्य सरकारों ने संकट के समय केंद्र सरकार की ओर से फंड जारी करने में देरी को लेकर अदालत का रुख किया है। कोपेनहेगन विश्वविद्यालय में कानून के प्रोफेसर मोर्टन ब्रोबर्ग ने पैरामीट्रिक बीमा पर 2019 के एक पेपर में लिखा कि अंतरराष्ट्रीय मानवीय सहायता एक और उपयोगी तरीका है, लेकिन यह अप्रत्याशित हो सकता है और “देशों के लिए जोखिम में कमी के मूल्य को या खतरों के प्रबंधन में आने वाली लागत को पूरी तरह से समझना मुश्किल हो जाता है।”

इसके विपरीत, पैरामीट्रिक बीमा को मौसम में हो रहे बदलाव से निपटने के लिए मददगार टूल के रूप के रूप में देखा जाता है, क्योंकि यह सरकारों को किसी विनाशकारी घटना के बाद संभावित नुकसान का पहले से आकलन करने में मदद करता है। यह पैरामीटर पूरे होने पर बिना किसी रोक के भुगतान करके नकदी का प्रवाह बनाए रखने में भी मदद कर सकता है, जिससे पुनर्वास और बहाली तेजी से हो सकती है।
नागालैंड भारत का पहला ऐसा राज्य है जिसने पैरामीट्रिक बीमा के जरिए भारी बारिश को लेकर अपने पूरे भौगोलिक क्षेत्र का बीमा कराया है। नागालैंड में मानसून के दौरान भारी बारिश होती है और खास तौर पर राज्य के निचले इलाके बाढ़ की चपेट में आ जाते हैं। साल 2017 में, राज्य बाढ़ से तबाह हो गया था जिसमें 22 लोगों की मौत हो गई थी, 7,700 घर पूरी तरह या आंशिक रूप से नष्ट हो गए थे। तब राज्य की एक-तिहाई आबादी बाढ़ से प्रभावित हुई थी। राज्य सरकार की अपनी आपदा सांख्यिकी रिपोर्ट के अनुसार, 2018 और 2021 के बीच पानी और जलवायु संबंधी खतरों की घटनाएं 337 से बढ़कर 814 हो गईं। नागालैंड राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (एनएसडीएमए) के संयुक्त मुख्य कार्यकारी अधिकारी जॉनी रुआंगमेई ने कहा, “नागालैंड छोटा राज्य है और इस तरह की घटनाओं से होने वाला नुकसान सैकड़ों करोड़ में होता है, जिसकी भरपाई अकेले एसडीआरएफ की ओर से नहीं की जा सकती है।”
जहां नियमित बीमा योजनाएं क्षतिपूर्ति पर आधारित होती हैं या आपदा होने के बाद नुकसान का मूल्यांकन करती हैं, वहीं पैरामीट्रिक बीमा पहले से तय मापदंडों के सेट पर निर्भर करता है
आर्थिक रूप से कुछ सबसे कमजोर आबादी वाले मजदूर संघ भी जलवायु परिवर्तन से होने वाले नुकसान से उबरने के लिए पैरामीट्रिक बीमा की तरफ जा रहे हैं। पिछले साल स्व-नियोजित महिला संघ ने एड्रिएन आर्शट-रॉकफेलर फाउंडेशन रेजिलिएंस सेंटर और बीमाकर्ता ब्लू मार्बल के साथ समझौते में गुजरात के चार जिलों में अपने 21,000 सदस्यों के लिए हीट इंश्योरेंस योजना शुरू की थी। इस योजना में तापमान की एक सीमा तय की गई थी। इससे ज्यादा तापमान बढ़ने पर हर सदस्य को भुगतान किया जाएगा। बीमा के साथ-साथ, सेवा ने जलवायु अनुकूलन वाली दूसरी तकनीकों को भी लागू किया, जैसे कि सौर ऊर्जा से चलने वाले वाटर कूलर और लचीलापन बढ़ाने के लिए तिरपाल शीट उपलब्ध कराना। सेवा में वेलनेस प्रोग्राम समन्वयक साहिल हेब्बार ने कहा, “2022 में लू के दौरान हमारे कितने सदस्यों को अपना वेतन खोना पड़ा, यह देखने के बाद समाधान खोजना जरूरी था।” केरल में राज्य का सहकारी दुग्ध विपणन संघ केसीएमएमएफ, अपने डेयरी किसानों को गर्मी के कारण कम दूध उत्पादन से होने वाले नुकसान से बचाव के लिए पैरामीट्रिक बीमा का भी इस्तेमाल कर रहा है।
जोखिम का आधार तैयार करने में समस्या
पैरामीट्रिक बीमा योजनाएं समय के साथ किसी दिए गए खतरे की भयावहता और आवृत्ति का अनुमान लगाने के लिए जटिल गणनाओं का इस्तेमाल करती हैं। साथ ही, इसे नुकसान के वाजिब कीमत से जोड़ती हैं, ताकि यह तय किया जा सके कि किस सीमा पर भुगतान शुरू किया जाना चाहिए। ये कारक बीमा कवर की कुल बीमा राशि और लागत (प्रीमियम) भी तय करते हैं। इन सभी गणनाओं के मूल में योजना के तहत आने वाले डेटा का चुनाव करना है।
वारविक विश्वविद्यालय में वैश्विक सतत विकास के एसोसिएट प्रोफेसर निकोलस बर्नार्ड्स ने कहा, “बहुत से विकासशील देशों की सरकारों में अक्सर ऐसे लोगों की संख्या बहुत कम होती है जिनके पास संबंधित गणना करने के लिए खास कौशल हो। असल में जब मॉडल बहुत जटिल होते हैं तो अक्सर इस बात में बहुत पारदर्शिता नहीं होती है कि मॉडल कुछ मामलों में भुगतान क्यों करता है और बाकी मामलों में नहीं।”
भारी बारिश और बाढ़ का सामना करने के बावजूद, बीमाकर्ता द्वारा नागालैंड में उन सालों के दौरान कभी भी भुगतान नहीं किया गया, जब उसने राज्य में पैरामीट्रिक बीमा को लागू किया गया था। रुआंगमेई ने कहा, “हमें अहसास हुआ कि पैरामीटर बनाने के लिए इस्तेमाल किया गया डेटा जमीन पर देखी गई असलियत से बहुत अलग था, और सीमा बहुत ज्यादा तय की गई थी। इतनी ज्यादा सीमा पर बहुत बड़ा हिस्सा बह जाता और हम जितना कवर किया गया था, उससे ज्यादा खो देते।”
नागालैंड ने 2021 से 2023 तक बीमाकर्ता के रूप में टाटा एआईजी और फिर से बीमा करने वाले के तौर पर स्विस रे (जिस पर बीमाकर्ता अपने खुद के जोखिम स्थानांतरित कर सकता है) के साथ पायलट पैरामीट्रिक बीमा समझौता किया। राज्य सरकार ने लगभग पांच करोड़ रुपये के कवरेज के लिए लगभग 70 लाख रुपये के सालाना प्रीमियम का भुगतान किया जिसमें ट्रिगर सीमा शुरू में 290 और 350 मिमी बारिश के बीच तय की गई थी। समझौते में इस्तेमाल किया गया डेटासेट नासा समर्थित सीएचआईआरपीएस उपग्रह का था। लेकिन बाद में सरकार को अहसास हुआ कि ये अनुमान भारतीय मौसम विभाग के ग्रिड किए गए डेटासेट के साथ-साथ उसके अपने मौसम स्टेशनों द्वारा कैप्चर किए गए डेटासेट से अलग थे।
पैरामीट्रिक बीमा को मौसम में हो रहे बदलाव से निपटने के लिए मददगार टूल के रूप के रूप में देखा जाता है।
जब नुकसान होता है, लेकिन योजना की सीमा पूरी नहीं होती है तो इस समस्या को आधार जोखिम कहा जाता है। अगर नुकसान को महंगे प्रीमियम के ऊपर वहन करना पड़ता है तो यह संसाधनों पर और ज्यादा दबाव डाल सकता है। बर्नार्ड्स ने कहा, “खासतौर पर जब वाणिज्यिक बीमाकर्ता शामिल होते हैं तो परस्पर विरोधी हितों की समस्या भी होती है। बीमाकर्ता बहुत सटीक रूप से परिभाषित और आदर्श रूप से ज्यादा कठोर शर्तों से लाभान्वित होते हैं। उपयोगकर्ताओं का हित इसके विपरीत होता है। व्यवहार में इन्हें अक्सर बहुत ज्यादा तकनीकी सवालों के रूप में माना जाता है जिसमें बीमा के संभावित खरीदार सीधे तौर पर शामिल नहीं होते हैं।”
पिछले साल अपने पायलट को खत्म करने के बाद से, एनएसडीएमए ने अपने खुद के मौसम और आपदा के बाद के डेटा की जांच करने और अलग-अलग बीमा मॉडलों का अध्ययन करने में एक साल बिताया, ताकि यह तय किया जा सके कि कौन-से पैरामीटर उसकी जरूरतों के लिए सबसे सही होंगे। इस साल फरवरी में, राज्य सरकार ने एक्सप्रेशन ऑफ इंटरेस्ट जारी किया जिसमें इच्छुक बीमाकर्ताओं से भारी बारिश के खिलाफ राज्य का बीमा करने के लिए आगे आने का आह्वान किया गया। इसमें जोर दिया गया कि वह ऐसा समाधान चाहती है जो “ग्राउंड वेदर स्टेशन डेटा की प्रासंगिकता को ज्यादा से ज्यादा महत्व करेगा।”
रुआंगमेई ने कहा, “हमें प्रमुख बीमा कंपनियों और पुनर्बीमा कंपनियों से कई बोलियां मिलीं, जो दिखाती हैं कि इस तरह के कार्यक्रम को वित्तपोषित करने के लिए बीमा बाजार में दिलचस्पी बढ़ रही है।” नागालैंड द्वारा जून तक लगभग 50 करोड़ रुपये के कवरेज के लिए नए बीमाकर्ता और पुनर्बीमाकर्ता के साथ समझौता करने की संभावना थी।
सेवा को भी 2023 की गर्मियों में अपने पायलट के दौरान आधार जोखिम की समस्या का सामना करना पड़ा, जब कोई भुगतान शुरू नहीं हुआ। तब से इसने नए साझेदारों क्लाइमेट रेजिलिएंस फॉर ऑल और स्विस रे के साथ मिलकर तापमान की सीमा को ज्यादा उपयुक्त सीमा में समायोजित करने, मापदंडों को ढीला करने और तीन राज्यों – महाराष्ट्र, राजस्थान और गुजरात के पचास हजार सदस्यों तक योजना को बढ़ाने का काम किया है। नए डिजाइन के अनुसार, भुगतान शुरू करने के लिए दिन के तापमान को लगातार दो दिनों तक तापमान सीमा से ऊपर रहना चाहिए, जबकि पायलट में यह तीन दिन था। सबसे कम ट्रिगर सीमा तापमान उदयपुर में 41.5 डिग्री सेल्सियस और सबसे ज्यादा बाड़मेर में 45 डिग्री सेल्सियस था।
हेब्बर ने कहा, “हमें पता चल रहा है कि जिस तापमान पर मजदूर काम करते हैं, वह आमतौर पर उपग्रह या मौसम संबंधी डेटा की ओर से दर्ज तापमान से कहीं ज्यादा होता है। अभी के लिए, हमारा डिजाइन और ट्रिगर सिर्फ दिन के तापमान पर निर्भर करता है, लेकिन भविष्य में हम निश्चित रूप से आर्द्रता और रात के तापमान सहित ज्यादा मापदंडों को एकीकृत करना चाहते हैं।”
आलोचक, जलवायु बीमा की बढ़ती लोकप्रियता को ज्यादा आय वाले देशों द्वारा अपने वित्तीय दायित्वों को निजी क्षेत्र पर डाल देने के तरीके के रूप में देखते हैं।
लेकिन, इसका दायरा बढ़ाकर भी अकेले पैरामीट्रिक बीमा के लाभ जलवायु परिवर्तन से सबसे ज्यादा पीड़ित लोगों के लिए पर्याप्त नहीं होने की संभावना है। जशीबेन ने इस सीमा को संक्षेप में समझाया। उन्होंने कहा, “हां, मुझे इस योजना से लाभ हुआ है।” “लेकिन मैं गर्मी के कारण 15 दिनों से काम पर नहीं जा पाई और मुझे सिर्फ एक दिन का भुगतान मिला। 400 रुपये ठीक हैं, लेकिन असल में मुझे 4,000 रुपये की जरूरत थी, ताकि मैं जो खो चुकी हूं उसकी भरपाई कर सकूं।” जशीबेन ने कहा कि स्थिर आय नहीं होने से और बहुत ज्याद गर्मी से बढ़ते चिकित्सा बिलों के साथ, वह अपने दोनों बच्चों को स्कूल भेजने के लिए संघर्ष कर रही थी। उन्होंने कहा, “मुझे इस साल अपने खर्चों को पूरा करने के लिए स्थानीय साहूकार से कर्ज लेना पड़ सकता है।”
पैरामीट्रिक बीमा और वैश्विक असमानता
कोपेनहेगन विश्वविद्यालय के ब्रोबर्ग कहते हैं कि 1991 में जब जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन शुरू हुआ था, तभी से जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों से निपटने के लिए बीमा को समाधान माना जाता रहा है। लेकिन हाल के सालों में पैरामीट्रिक बीमा की लोकप्रियता ज्यादा आय वाले देशों की इस इच्छा से बढ़ी है कि वे सबसे बुरे असर का सामना कर रहे निम्न और मध्यम आय वाले देशों में इसे अपनाने में मदद करें।
आलोचक जलवायु बीमा की बढ़ती लोकप्रियता को ज्यादा आय वाले देशों द्वारा अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों के तहत अपने वित्तीय दायित्वों को निजी क्षेत्र पर डाल देने करने के तरीके के रूप में देखते हैं। यूएनएफसीसीसी के तहत 27वें कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टीज (कॉप-27) में वैश्विक नुकसान और क्षति कोष की घोषणा से पहले, ज्यादा आय वाले देशों ने बिगड़ती आपदाओं से निपटने के लिए समाधान के रूप में बीमा की वकालत की थी। पैरामीट्रिक बीमा को डिजाइन करने में कई चरण शामिल होते हैं। साथ ही, बीमाकर्ता ज्यादा जोखिम वहन करते हैं। इस वजह से पैरामीट्रिक बीमा के लिए प्रीमियम अन्य बीमा के पारंपरिक रूपों की तुलना में काफी ज्यादा होता है। नागालैंड और सेवा दोनों ही प्रीमियम की लागत को वित्तपोषित करने में मदद के लिए परोपकार के उद्देश्य से दी जाने वाली आर्थिक मदद पर निर्भर हैं। इन लागतों और सीमाओं ने बराबरी की चिंताओं को भी जन्म दिया है कि किस हद तक निम्न और मध्यम आय वाले देशों के लिए जलवायु परिवर्तन के सबसे बुरे प्रभावों के लिए खुद का बीमा कराना उचित है, भले ही इस समस्या को बढ़ाने में उनकी भागीदारी सबसे कम है।
बर्नार्ड्स ने कहा, “जलवायु नुकसान में सिर्फ विनाशकारी घटनाएं ही शामिल नहीं होती हैं। धीमी गति से होने वाली आपदाएं भी होती हैं, जिनमें काम के दौरान लोगों का गर्मी से जूझना या गर्मी, कीटों या अनियमित बारिश जैसी चीजों के कारण खेती की पैदावार कम होना शामिल है। इससे अक्सर बहुत ज्यादा कर्ज की समस्या और विकट हो जाती हैं। इनमें शायद ही कभी बीमा योग्य एकल घटनाएं शामिल होती हैं। लॉस एंड डैमेज फंड को बाद की घटनाओं की भरपाई करने भी करना चाहिए। या तो जलवायु-लचीले बुनियादी ढांचों और आवासों को वित्तपोषित करके या उदार सामाजिक सुरक्षा जैसी चीजों को लागू करने ऐसा करन चाहिए।”
पैरामीट्रिक बीमा का भविष्य
भारत में बीमा की पहुंच बहुत कम है तथा प्राकृतिक आपदाओं से होने वाली 90% से ज्यादा दुर्घटनाओं का बीमा नहीं होता है। प्रमुख वैश्विक पुनर्बीमाकर्ता के पूर्व कार्यकारी ने मोंगाबे इंडिया को बताया कि कंपनी ने अलग-अलग आपदाओं के लिए पैरामीट्रिक बीमा लागू करने के प्रस्ताव के साथ कम से कम पांच राज्यों – आंध्र प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, सिक्किम और केरल – से संपर्क किया था, लेकिन उन्हें झिझक का सामना करना पड़ा। पूर्व कार्यकारी ने कहा, “जहां तक बीमा शब्द का सवाल है, तो लोगों में भरोसे की कमी है। राज्य हमेशा बीमा द्वारा भुगतान नहीं किए जाने के किस्से सुनाते हैं, इसलिए सरकारों को यह बताने की जरूरत है कि पैरामीट्रिक बीमा वास्तव में किस तरह काम करता है।”
फिर भी, स्विस रे को उम्मीद है कि भारत में अगले पांच सालों में प्रीमियम में 7.1 प्रतिशत की बढ़ोतरी होगी। नागालैंड के रुआंगमेई को भी उम्मीद है कि जब राज्य अपना नया पैरामीट्रिक बीमा मॉडल लॉन्च करेगा तो बड़े राज्य भी कुछ ऐसा ही करने को तैयार होंगे। “ऐसी योजनाओं को ग्राहक और बीमाकर्ता दोनों के लिए बेहतरीन बनाने की जरूरत है। यह सिर्फ बीमाकर्ता के लाभ के लिए नहीं हो सकता है और यही हम करने की कोशिश कर रहे हैं।”
पैरामीट्रिक बीमा का बाजार भारत में ऐसे समय बन रहा है जब वैश्विक बीमा बाजार जलवायु परिवर्तन के कारण कई बदलावों से गुजर रहा है। अमेरिका में, ऐसी खबरें हैं कि बीमा कंपनियां ज्यादा और अप्रत्याशित जोखिमों के कारण बाजार से निकल रही हैं या अपनी क्षमता कम कर रही हैं।
एकएक्सए क्लाइमेट के तोमर के अनुसार, बीमा कंपनियों के लिए सबसे बड़ी चुनौती यह है कि वे अपने जोखिम मॉडलिंग में जलवायु परिवर्तन के भविष्य के असर को ध्यान में रखें। आमतौर पर, जोखिम मॉडलिंग किसी खास विनाशकारी घटना की वापसी अवधि तय करने के लिए पिछले डेटा का इस्तेमाल करती है। उन्होंने कहा, “पिछले एक दशक में, वापसी अवधि की गणना गड़बड़ा रही है क्योंकि ये घटनाएं ज्यादा बार हो रही हैं।” उन्होंने आगे कहा, “बीमाकर्ताओं और पुनर्बीमाकर्ताओं को अपने मॉडल में जलवायु परिवर्तन के लिए स्पष्ट इनपुट शामिल करने के लिए मजबूर किया जा रहा है, जिसका अनिवार्य रूप से मतलब होगा कि वापसी अवधि की गणना अब सिर्फ पिछले डेटा पर आधारित नहीं है। इसका ना सिर्फ कीमत पर बल्कि जोखिम और बीमाकर्ता इसे वहन करने के लिए तैयार हैं या नहीं, इस पर भी बहुत बड़ा असर पड़ सकता है।”
अर्ष्ट-रॉक फाउंडेशन की वैश्विक नीति और वित्त की उप निदेशक निधि उपाध्याय ने कहा कि भारत में बढ़ते जलवायु प्रभावों के मद्देनजर पैरामीट्रिक बीमा की पहुंच बढ़ रही है, लेकिन यह एकमात्र समाधान नहीं हो सकता है। उन्होंने सेवा की पायलट योजना को डिजाइन करने में मदद की थी।
उन्होंने कहा, “हमारा तरीका इस बात पर विचार करता है कि जोखिम हस्तांतरण – बीमा भाग – को जोखिम में कमी के साथ किस तरह जोड़ा जाए, ताकि गर्मी से निपटने को सुलभ और न्यायसंगत बनाया जा सके। खास तौर पर भारत में, अनौपचारिक क्षेत्र बहुत बड़ा है और औपचारिक रोजगार के बुनियादी ढांचे के बाहर बीमा कवरेज को बढ़ाना चुनौतीपूर्ण हो सकता है। इसे और अधिक किफायती बनाने के लिए इसका दायरा बढ़ाना अहम है। लंबी अवधि में, इस तरह की पहल को सरकारी सामाजिक सुरक्षा कार्यक्रम या इसी तरह के तहत शुरू करने की जरूरत है, जो भारत के अनौपचारिक क्षेत्र को कवर करता है।”
यह लेख मूलरूप से मोंगाबे डॉट कॉम पर प्रकाशित हुआ था।
गोपनीयता बनाए रखने के लिए आपके ईमेल का पता सार्वजनिक नहीं किया जाएगा। आवश्यक फ़ील्ड चिह्नित हैं *