वर्ष 2005 में लागू किया गया ‘घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम’ (पीडब्ल्यूडीवीए) महिलाओं के खिलाफ होने वाली शारीरिक, मानसिक और आर्थिक हिंसा को संबोधित करने वाला एक ऐतिहासिक कानून है। फिर भी, भारत सरकार के राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (2019-21) के अनुसार देश में 30 प्रतिशत महिलाएं घरेलू हिंसा का सामना करती हैं। घरेलू हिंसा के दर्ज मामलों में न्याय मिलने में देरी और सुरक्षा की कमी, सिस्टम में भरोसे को कमजोर करते हैं।
मुंबई स्थित स्नेहा (सोसाइटी फॉर न्यूट्रिशन, एजुकेशन एंड हेल्थ एक्शन) एक गैर-लाभकारी संस्था है, जो पिछले 25 वर्षों से शहरी झुग्गी बस्तियों में रहने वाली महिलाओं और बच्चों के खिलाफ हिंसा की रोकथाम और समाधान पर काम कर रही है। इस दौरान संस्थान के समुपदेशन केंद्रो (काउंसलिंग सेंटर) पर पीड़ितों द्वारा कारवाई में देरी, जटिल सरकारी प्रक्रियाएं और एक असंगठित सहयोग प्रणाली जैसी आम शिकायतें सामने आती हैं। इस लेख में पीडब्ल्यूडीवीए की मुख्य चुनौतियों और व्यवहारिक सुधारों को रेखांकित किया गया है।
1. ई-फाइलिंग प्रणाली पीड़ित-केंद्रित हो
अदालत की प्रक्रियाओं के डिजिटलीकरण के तहत देश के कई राज्यों में ई-फाइलिंग प्रणाली लागू की गई है। इसमें घरेलू हिंसा से संबंधित मामले भी शामिल हैं। इसका मकसद यह है कि केस तेजी और आसानी से दर्ज किए जा सकें। मगर यह प्रक्रिया काफी मुश्किल भरी है। हिंसा का सामना करने वाली महिलाएं अक्सर जानलेवा और डरावनी परिस्थियों से गुजरती हैं। ऐसे में उनके लिए स्वयं ई-फाइलिंग करना अतिरिक्त बाधा बन सकती है। उदाहरण के लिए, पीड़िता को कई दस्तावेज अपलोड करने पड़ते हैं – जैसे घरेलू हिंसा रिपोर्ट, शादी का प्रमाणपत्र, मेडिकल रिकॉर्ड, साझा वित्तीय कागज (बिजली का बिल या संयुक्त बैंक खाता) और हिंसा दर्शाती तस्वीरें।
इसके अलावा, पीड़िता को ऑनलाइन शपथ और डिजिटल फॉर्म जैसी अन्य प्रक्रियाएं भी पूरी करनी पड़ती है। इंटरनेट और तकनीकी ज्ञान का अभाव इसे और जटिल बना देता है। इन सभी रूकावटों से तनाव बढ़ता है और पीड़ित को त्वरित मदद नहीं मिल पाती है। इसलिए, एक ऐसा मॉडल बनाना जरूरी है जिसमें ऑनलाइन और ऑफलाइन दोनों विकल्प मौजूद हों। डिजिटल फॉर्म के साथ वॉक-इन सहायता और कागज पर फाइलिंग का विकल्प भी खुला हो। इससे पूरी व्यवस्था अधिक मददगार, जवाबदेह और पीड़ित केंद्रित होगी।
2. संरक्षण अधिकारियों की भूमिका को सशक्त बनाना आवश्यक है
घरेलू हिंसा अधिनियम, 2005 की धारा 8 के तहत संरक्षण अधिकारी, यानी प्रोटेक्शन अधिकारी (पीओ) एक सरकारी अधिकारी होता है, जिसे राज्य सरकार द्वारा नियुक्त किया जाता है। इनका काम घरेलू हिंसा से पीड़ित महिलाओं को कानूनी सहायता दिलवाना है। पीओ का मुख्य काम घरेलू घटना रिपोर्ट (डोमेस्टिक इंसीडेंट रिपोर्ट, डीआईआर) तैयार करना, मजिस्ट्रेट को आवेदन भेजना और सहायता दिलवाना, पीड़िता को आश्रय, चिकित्सा, कानूनी सलाह जैसी सेवाओं से जोड़ना है। पीओ, पुलिस और अन्य एजेंसियों के साथ मिलकर काम करते हैं और पीड़िता की सुरक्षा योजना बनाने में अहम भूमिका निभाते हैं। साथ ही वे यह भी सुनिश्चित करते हैं कि अदालत के आदेशों को सही तरीके से लागू किया जाए। जरूरत पड़ने पर वह पीड़िता के घर जाकर स्थिति का जायजा भी लेते हैं।

पीओ पर काम का अधिक बोझ होता है। उन्हें अक्सर पर्याप्त संसाधन नहीं मिलते, जिससे उनकी भूमिका कागजी और प्रशासनिक स्तर तक सीमित रह जाती है। कानून को सही तरीके से लागू करने के लिए जरूरी है कि एक डिजिटल और रीयल-टाइम ट्रैकिंग सिस्टम भी बनाया जाए, जिससे शिकायतों, राहत आदेशों और अन्य प्रक्रियाओं में पीओ की प्रतिक्रिया पर नजर रखी जा सके। पीओ के पुलिस और अन्य एजेंसियों के साथ बेहतर समन्वय से पीड़िता को तुरंत न्याय और सुरक्षा मिल सकती है।
3. सेवा प्रदाताओं को मान्यता दें
‘घरेलू हिंसा अधिनियम 2005’ की धारा 10 (1) अनुसार, सेवा प्रदाता वह संस्था है जो राज्य सरकार द्वारा पंजीकृत हो। यह पीड़िता को मदद, संरक्षण, पुनर्वास, काउंसलिंग, चिकित्सा और कानूनी सहायता मुहैया करवाते हैं।
सेवा प्रदाता व्यवस्था की सबसे आगे की पंक्ति में काम करते हैं, फिर भी उन्हें अधिकांश पहचान नहीं मिलती है। कई राज्यों में जो संगठन या व्यक्ति पहले से यह काम कर रहे हैं, उन्हें अब तक कानून के तहत आधिकारिक सेवा प्रदाता घोषित नहीं किया गया है। सेवा प्रदाता अक्सर औपचारिक दर्जे और संसाधनों के अभाव में काम करते हैं। उन्हें पुलिस, स्वास्थ्य सेवाओं और अदालतों के साथ तालमेल बिठाने में भी परेशानी आती है और उनके काम को गंभीरता से नहीं लिया जाता है।
वर्ष 2010 में मुंबई में स्नेहा समेत कई गैर-लाभकारी संगठनों को आधिकारिक सेवा प्रदाता का दर्जा दिया गया था, लेकिन वर्ष 2013 में इसे निरस्त कर दिया गया। फिर भी कुछ गैर-लाभकारी संस्थाएं बिना किसी औपचारिक दर्जे के पीड़िताओं को सेवाएं देती रही हैं। अगर सेवा प्रदाताओं को आधिकारिक मान्यता मिलेगी तो, वह कानून को बेहतर तरीके से लागू करने में मदद करेंगे। सरकारी सहायता और प्रशिक्षण हासिल कर वे बिना किसी डर के अपना काम कर सकते हैं।
4. पीड़ितों के लिए धारा 31 का उपयोग किया जाए
घरेलू हिंसा अधिनियम की धारा 31 के अनुसार, पीड़िता के लिए सुरक्षा आदेश के उल्लघंन को अपराध माना गया है। इसमें एक वर्ष तक का कारावास, बीस हजार रूपये का जुर्माना या दोनों का प्रावधान है। यह आरोपी को पीड़िता से संपर्क करने या उसके आस-पास जाने से रोकता है। आदेश के उल्लघंन पर पीड़िता अपराधिक शिकायत दर्ज कर सकती है, जिस पर वही मजिस्ट्रेट कारवाई करते हैं जिन्होंने आदेश पारित किया होता है। लेकिन धरातल पर इस आदेश के लागू होने में कई तरह के भ्रम की स्थिति रहती है।
कई बार पुलिस अधिकारियों को पूरी जानकारी नहीं होने के चलने वे इसे गलत तरीके से लागू कर देते हैं – जैसे धारा 31 के बजाय आईपीसी की धारा 498 (ए) (वर्तमान में भारतीय न्याय संहिता की धारा 86) के तहत केस दर्ज कर दिया जाता है। जानकारी के अभाव के साथ-साथ सामाजिक पूर्वाग्रहों के कारण अक्सर घरेलू हिंसा के मामलों को सामान्य ‘पारिवारिक झगड़ा’ या गैर-संज्ञेय अपराध मान लिया जाता है। इस तरह के पूर्वाग्रह से ग्रसित पुलिस अक्सर मामले को आपस में सुलझाने या सिविल कोर्ट जाने का सुझाव देती है।
इन समस्याओं के समाधान के लिए पुलिस और मजिस्ट्रेट को धारा 31 और पीडब्ल्यूडीवीए पर संवेदनशील प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए। धारा 31 को पुलिस के स्टैंडर्ड ऑपरेटिंग प्रोसीजर (एसओपी) में शामिल किया जाना चाहिए, ताकि इसे सही और एकसमान तरीके से लागू किया जा सके। सुरक्षा आदेशों और उनके उल्लघंनो की नियमित निगरानी की व्यवस्था होनी चाहिए।
5. न्यायिक प्रक्रिया को तेज किया जाए
स्नेहा के कानूनी सलाहकार ऐडवोकेट नजम्मूस्सहर असदी (नजमा) का कहना है कि अदालत की प्रक्रिया बहुत कठोर और लंबी होती है, जिससे घरेलू हिंसा अधिनियम का त्वरित राहत का मुख्य उद्देश्य कठिन हो जाता है। ऐडवोकेट असदी कहती हैं, “पीडब्ल्यूडीवीए की धारा 28 अदालत को प्रक्रिया में लचीलापन देने की छूट देती है, लेकिन जज अक्सर भारतीय साक्ष्य अधिनियम का सख्ती से पालन करते हैं। इससे पीड़िता पर अपने मामले को साबित करने का अतिरिक्त भार पड़ता है, जो खासतौर पर तब मुश्किल होता है जब जरूरी सबूत नहीं मिल पाते। इसका नतीजा यह होता है कि पीड़िता, जज के विवेक पर लिए गए फैसले पर निर्भर हो जाती है।”
वे आगे कहती हैं कि पीडब्ल्यूडीवीए में मिलने वाली राहत और पर्सनल लॉ के मामलों में मिलने वाली राहत के बीच स्पष्टता की कमी है, जिससे यह जरूरत महसूस होती है कि दोनों के बीच स्पष्ट अंतर तय किया जाए।

न्यायिक प्रणाली अक्सर पीड़िताओं की जरूरतों को तत्काल पूरा करने में विफल रहती है। अमूमन उन्हें परामर्श या अन्य समाधान प्रक्रियाओं से गुजरने के बाद भी मध्यस्थता के लिए भेजा जाता है, जिससे अदालत की प्रक्रिया बहुत लंबी हो जाती है। कई बार कुछ अदालतों में घरेलू हिंसा के मामलों की सुनवाई हफ़्ते में केवल एक दिन होती है, जिससे पीड़िता के जीवन पर दूरगामी प्रभाव पड़ सकता है। लगातार देरी की समस्याओं से निपटने के लिए कुछ विशेष कदम उठाए जा सकते हैं:
- घरेलू हिंसा मामलों की सुनवाई में अलग न्यायालय या विशेष जज की नियुक्ति का प्रावधान हो, जिससे कार्यवाही सुव्यवस्थित बने और मामलों को प्राथमिकता मिले।
- समयबद्ध समाधान को बढ़ावा दिया जाना चाहिए। जहां संभव हो, वहां एक महीने के अंदर मामले को सुलझाने का लक्ष्य तय किया जाना चाहिए।
- लंबी चलने वाली या अनावश्यक मध्यस्थता पर रोक लगनी चाहिए, खासकर उन मामलों में जहां तुरंत कानूनी राहत की जरूरत हो।
6. सुरक्षित आश्रय के अधिकार को पुनः प्राप्त करना
घरेलू हिंसा अधिनियम, 2005 पीड़िता के लिए सुरक्षित आश्रय (शेल्टर) की व्यवस्था सुनिश्चित करता है। कानून के मुताबिक, अगर पीड़िता या उसकी जगह पीओ या सेवा प्रदाता यह मांग सामने रखते हैं तो आश्रय गृह (शेल्टर होम) इंजार्ज को उनके लिए आश्रय सुनिश्चित करना होता है। हालांकि यह अभी भी गंभीर चिंता का विषय बना हुआ है। कई आश्रय गृह ऐसी महिलाओं को ठहरने की अनुमति नहीं देते, जिनके साथ 12 साल से बड़ी उम्र के लड़के होते है। इससे पीड़ित महिलाओं को अपनी सुरक्षा और बच्चों के बीच एक मुश्किल चुनाव करना पड़ता है।
इसके अलावा लंबे समय से बीमारी या मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं से जूझ रही महिलाओं के लिए ऐसे आश्रय बहुत कम हैं। वहीं पीड़ित महिलाएं जीवन के बुनियादी संघर्षों से भी लगातार जूझती हैं, जैसे खाना-पीना, कपड़े, आय का साधन और बच्चों की देखभाल। ये स्थिति तब और खराब हो जाती है, जब उन्होंने आर्थिक हिंसा का सामना किया हो।
इसके लिए राज्य सरकारों की जिम्मेदारी है कि वे समावेशी और दीर्घकालिक आश्रय गृहों में निवेश करें। ऐसे गृह, जहां महिलाओं को स्वास्थ सुविधाएं और मानसिक-सामाजिक सहायता भी हासिल हो। यह भी सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि महिलाओं को अपनी सुरक्षा और बच्चों के साथ रहने के बीच कठिन चुनाव न करना पड़े। इन आश्रय ग्रहों में ऐसे प्रशिक्षित व्यक्ति होने चाहिए, जो भावनात्मक सहयोग, कानूनी सलाह और स्वास्थ्य सेवाओं के साथ सर्वाइवर पीड़िता को फिर से गरिमामयी जीवन जीने की राह दिखा सकें।
7. एक समग्र स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली का निर्माण
घरेलू हिंसा से निपटने में स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली का अक्सर सबसे कम उपयोग किया जाता है, जबकि वास्तविकता यह है कि अक्सर स्वास्थ्य कर्मचारी ही पीड़ित महिलाओं के पहले संपर्क में आते हैं। विशेष रूप से जब वे चोट या गंभीर स्थिति में इलाज के लिए पहुंचती हैं। लेकिन उचित प्रशिक्षण, स्पष्ट दिशा-निर्देश और प्रभावी रेफरल प्रणाली की कमी के कारण स्वास्थ्य कर्मचारी, पीड़िता को उचित सहयोग नहीं दे पाते हैं।
हमें एक ऐसी पीडित केंद्रित स्वास्थ्य प्रणाली की जरूरत है, जो महिलाओं की स्क्रीनिंग और गोपनीयता सुनिश्चित करे और मनोवैज्ञानिक रूप से संवेदनशील देखभाल प्रदान करे। इस मॉडल को राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन जैसे बड़े सार्वजनिक स्वास्थ्य कार्यक्रमों के साथ जोड़ा जाए, जो घरेलू हिंसा की रोकथाम से जुड़ी स्वास्थ्य सेवाओं का अहम हिस्सा बने।
कानून के लागू होने में आने वाली तमाम कमियों और चुनौतियों के बीच घरेलू हिंसा अधिनियम एक महत्वपूर्ण कानून है। इसका प्रभावी असर तभी दिखेगा, जब इसका पालन सुनियोजित और सशक्त तरीके से किया जाए। घरेलू हिंसा अधिनियम के लागू होने के बाद हम तीसरे दशक में प्रवेश कर रहे हैं। इसलिए अब जरूरी है कि कानून को जिम्मेदार संस्थाएं, अच्छे प्रशिक्षित कर्मचारी और मजबूत मदद देने वाली व्यवस्था का सहयोग मिले, क्योंकि हर महिला सुरक्षा और न्याय की हकदार है।
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