भारत में समाजसेवी संगठनों का इतिहास रहा है कि उन्हें सरकार के साथ साझेदारी में काम करते हुए अनगिनत चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। इन चुनौतियों में जटिल आवेदन प्रक्रियाएं, लंबी समय सीमाएं और समझौतों में अनिश्चितता जैसी बातें शामिल हैं। फिर भी, आठ से दस साल पहले की तुलना में अब सरकारी संस्थाएं समाजसेवी संस्थाओं के साथ साझेदारी को लेकर अधिक उदार हो गई हैं। लेकिन इन साझेदारियों में साथ काम करने के लिए, किसी प्रकार की तय मानक प्रक्रिया नहीं है जो इसे और मुश्किल बना देता है।
सरकारी संस्थाओं के साथ काम करना चुनौतीपूर्ण तो हो सकता है, लेकिन इसके नतीजे बहुत अच्छे भी हो सकते हैं। उदाहरण के लिए, सरकारी व्यवस्थाओं के पास पर्याप्त मात्रा में धन उपलब्ध होता है लेकिन ज़्यादातर समाजसेवी संस्थाओं को इन फंड्स तक पहुंचने का तरीक़ा नहीं मालूम होता है। नतीजतन, उनके पास स्वतंत्र रूप से धन जुटाने जैसा चुनौतीपूर्ण विकल्प ही बचता है और वे इसका ही सहारा लेते हैं। सरकारी अनुदानों के लिए सफलतापूर्वक आवेदन करने या टेंडर प्रक्रिया में शामिल होने के तरीके को समझने में समय लगाकर, समाजसेवी संस्थाएं फंडिंग से जुड़ी अपनी कुछ चुनौतियों को कम कर सकती हैं। इसी प्रकार, एक या कई स्तरों पर काम करने की इच्छुक समाजसेवी संस्थाओं के पास, सरकार के साथ काम करने से बेहतर कोई विकल्प नहीं है। सरकार के पास वित्तीय और मानव संसाधनों की उपलब्धता एक समाजसेवी संगठन के पास होने वाली इसकी उपलब्धता की तुलना में बहुत अधिक होती है।
लीडरशीप फ़ॉर इक्विटी में हमने पिछले छः वर्षों का समय ज़िला, राज्य एवं राष्ट्रीय स्तर की सरकारों के साथ काम करने में बिताया है। अपने अनुभवों के आधार पर हम यहां वे पांच बातें बता रहे हैं जिन्हें सरकारी व्यवस्था के साथ काम करने वाली समाजसेवी संस्थाएं इस्तेमाल कर सकती हैं।
1. सरकार की संरचना और सूचना के प्रवाह को समझें
सरकार की संरचना को तीन पहलुओं: स्तर, सरकारी निकाय और व्यक्तियों से जाना जा सकता है। राष्ट्रीय स्तर पर ऐसे मंत्री होते हैं जो विभिन्न क्षेत्रों के लिए राष्ट्रीय एजेंडा तय करते हैं। इसमें शिक्षा, कृषि और स्वास्थ्य जैसे विषय शामिल होते हैं। केंद्र सरकार के नीचे राज्य सरकार होती है और राज्य सरकार के नीचे ज़िला, प्रखंड और तालुक़ा जैसी सरकारी स्थानीय इकाइयां होती हैं। सरकारी व्यवस्था में उच्च स्तर के निकाय, निचले स्तर पर काम कर रहे निकायों को जिम्मेदारियां देते हैं। इन ज़िम्मेदारियों को पूरा करते हुए विभिन्न स्तरों पर प्रत्येक इकाई की स्वायत्तता का स्तर अलग-अलग हो सकता है। विभिन्न स्तरों पर सरकार का प्रत्येक निकाय, इसके लोगों (यानी कर्मचारियों) से बना होता है जो इन इकाइयों के नेतृत्व और संचालन के लिए ज़िम्मेदार होते हैं।
2. सरकार के उस स्तर के बारे में अच्छी तरह सोचें जिसके साथ आप जुड़ना चाहते हैं
सरकार की वह इकाई जिससे एक संगठन सम्पर्क करेगा और जिस हैसियत से संपर्क किया जाएगा, दोनों ही उनके द्वारा बनाए गए मध्यस्थता कार्यक्रमों (इंटरवेंशन) और उसके लाभार्थियों पर निर्भर करता है। किसी एक संगठन की विशेषज्ञता छात्रों या शिक्षकों के साथ सीधे काम करने में हो सकती है। वहीं, दूसरा टीकाकरण प्रदान करने के लिए आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं के साथ काम कर सकता है। दूसरे वाले मामले में संगठन सीधे समुदाय के साथ काम करता है इसलिए इस संगठन को राज्य स्तर के नेतृत्व से अनुमति या सहयोग के लिए सम्पर्क करने की जरूरत होगी न कि साझेदारी करने की।
जिला स्तर के निकायों को अक्सर कार्यक्रमों को लागू करने में मदद चाहिए होती है, और किसी समाजसेवी संस्था से इस प्रकार की सहायता मिलने से वे खुश हो जाते हैं।
हमारे अनुभव में, जिला-स्तरीय निकाय आमतौर पर सबसे अधिक ग्रहणशील होते हैं क्योंकि वे अंतिम लाभार्थी के सबसे करीब होते हैं। उनकी विशिष्ट जिम्मेदारियां होती हैं, वे समझते हैं कि उनके परिवेश में क्या ज़रूरी है, और वे निर्णय लेने की स्थिति में होते हैं। हालांकि, वे अक्सर राज्य और राष्ट्रीय मंत्रालयों द्वारा सौंपी जाने वाली प्राथमिक जिम्मेदारियों से दबे होते हैं। लेकिन फिर भी, जिला स्तर के निकायों को अक्सर कार्यक्रमों को लागू करने में मदद की जरूरत होती है, और किसी समाजसेवी संस्था से इस प्रकार की सहायता मिलने से वे खुश हो जाते हैं। उच्च स्तर पर, निर्णय लेने में एक राजनीतिक पहलू भी शामिल होता है जिससे वहां स्थिति जटिल हो सकती है।
3. समानांतर व्यवस्था या मध्यस्थता कार्यक्रम न बनाएं
यदि कोई समाजसेवी संस्था सरकार के साथ काम कर रही है लेकिन उनका समाधान सरकार के काम के साथ चलने वाला है तो वे मौजूदा समाधान को बेहतर करने या उसका लाभ उठाने के बजाय इकोसिस्टम को खराब करते हैं। उदाहरण के लिए, स्टेट काउंसिल ऑफ एजुकेशन रिसर्च एंड ट्रेनिंग की ज़िम्मेदारी सरकारी स्कूलों में शिक्षकों को प्रशिक्षण देना है। कई समाजसेवी संस्थाएं शिक्षकों के प्रशिक्षण के लिए विकासशील मॉड्यूल में अच्छा-खासा निवेश करती हैं, जिसके लिए वे सरकार से संपर्क करती हैं। यह समाधान सरकार के प्रयासों का पूरक होने की बजाय मौजूदा प्रणाली को बदलने का प्रयास करता है। यदि एक समानांतर कार्यक्रम को सरकार की मंजूरी मिल भी जाती है तो यह अंततः शिक्षकों और छात्रों को भ्रमित करने वाला होता है। ऐसा इसलिए क्योंकि उन्हें एक ही विषय पर कई स्रोतों से अलग-अलग निर्देश मिलते हैं। नतीजतन, एक बेहतर शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया का अंतिम उद्देश्य अधूरा रह जाता है।
इसलिए समाजसेवी संस्थाओं द्वारा डिज़ाइन किए गए समाधान, आवश्यकता-अंतर विश्लेषण पर आधारित यानी जरूरत के मुताबिक होना चाहिए और इसे व्यवस्था द्वारा छूट गई कमियों को पूरा करने का काम भी करना चाहिए। मौजूदा सरकारी कार्यक्रमों में अपने हस्तक्षेपों को एकीकृत करके समाजसेवी संस्थाएं एक अधिक टिकाऊ, मजबूत और प्रभावी साझेदारी विकसित कर सकती हैं। हमारा अनुभव कहता है कि कुछ सरकारी निकायों की रणनीति बहुत ही अच्छी हैं और कुछ प्रभावी रूप से किसी एक योजना का संचालन कर सकते हैं। लेकिन इनमें से ज़्यादातर बड़े पैमाने पर निगरानी ढांचे की योजना बनाने और उन्हें लागू करने में पिछड़ जाते हैं। यहां पर एक समाजसेवी संस्था किसी भी सरकार के लिए एक मूल्यवान साझेदार हो सकती है। यह कार्यक्रम के बड़े लक्ष्यों को छोटे-छोटे उद्देश्यों में बांट सकती है और हर उद्देश्य पर नजर बनाए रखने वाला एक ढांचा तैयार कर सकती है।
4. अधिकारियों से रणनीतिक रूप से संपर्क करें
व्यवस्था के भीतर, अपने हितों को साधने में मदद करने वाले व्यक्ति की पहचान करने के लिए समाजसेवी संस्थाओं को पहले सरकारी अधिकारियों की विभिन्न भूमिकाओं और जिम्मेदारियों को समझना होगा। सरकारी निकायों के भीतर नेतृत्व के पदों पर ऐसे राजनीतिक या प्रशासनिक प्रमुखों का कब्जा होता है जिन पर उनके कामों को पूरा करने की जिम्मेदारी होती है। राजनीतिक प्रमुख आमतौर पर लक्ष्य तय करने जैसे बड़े कार्यों पर काम करते हैं। वहीं प्रशासनिक प्रमुखों का काम नीतियों तथा कार्यक्रमों के जरिए इस लक्ष्य को हासिल करना, होता है।
राष्ट्रीय स्तर पर पदों के क्रम को देखने पर हम पाते हैं कि एक कैबिनेट मंत्री होता है जिसे एक विशेष मंत्रालय सौंपा जाता है। यदि हम शिक्षा का उदाहरण लेते हैं तो यह व्यक्ति शिक्षा मंत्री होगा। एक मंत्री वह राजनीतिक प्रमुख होता है जिसका काम मंत्रालय के उद्देश्य और संवाद को सम्भालना होता है। राज्य स्तर पर इसका कार्यान्वयन प्रमुख सचिव द्वारा किया जाता है, जो एक आईएएस अधिकारी होता है। हालांकि ज़्यादातर विभागों का ढांचा एक समान होता है लेकिन अमूमन ज़िला-स्तर पर इनमें विविधता आ जाती है। प्रत्येक स्तर पर प्रशासनिक एवं राजनीतिक प्रमुखों का एक समूह होता है। उदाहरण के लिए मुख्य जिला-स्तरीय अधिकारी कलेक्टर होता है जो जिले का नियुक्त मुखिया होता है। कलेक्टर के अधीन मुख्य कार्यकारी अधिकारी/मुख्य विकास अधिकारी (सीईओ/सीडीओ) होते हैं। ये अधिकारी विभिन्न विभागों में कार्यक्रमों को लागू करने की ज़िम्मेदारी सम्भालते हैं। सीईओ/सीडीओ द्वारा देखे जाने वाले विभागों के अपने संबंधित प्रमुख होते हैं, जो सीईओ/सीडीओ के मार्गदर्शन में इन विभागों के प्रशासन को संभालते हैं।
यदि कोई समाजसेवी संगठन नीति के स्तर पर काम कर रहा है, तब भी उसे जमीनी स्थितियों के बारे में जानना चाहिए और उचित सुझाव देना चाहिए।
यदि कोई समाजसेवी संस्था नीति से जुड़े कार्यक्रम पर काम कर रही है तो यह नेतृत्व कर रहे अधिकारियों के साथ मिलकर काम करेगी। उदाहरण के लिए राज्य स्तर पर, संस्था प्रमुख सचिव और शिक्षा आयुक्त के साथ काम करेगी। यदि कोई समाजसेवी संस्था कार्यान्वयन पर ध्यान केंद्रित करना चाहती है तो उसे जिला और ब्लॉक स्तर के अधिकारियों के साथ काम करना चाहिए। इसलिए कि ये अधिकारी समुदायों के भीतर कार्यक्रमों को लागू करने का काम देखते हैं। यह भी है कि अगर कोई समाजसेवी संस्था केवल नीति के स्तर पर काम कर रही हो, तो भी उसे जमीनी परिस्थितियों के बारे में जानना चाहिए और उचित सुझाव देते रहना चाहिए।
5. सरकारी अधिकारियों के साथ सहानुभूतिपूर्वक जुड़ें
समाजसेवी संस्थाओं के लिए यह बहुत जरूरी है कि वे अथॉरिटी की तरह बर्ताव न करें। ऐसा करने से यह लग सकता है कि संगठन में इस स्तर का अहंकार है कि वह सरकार को काम करने के तरीक़े सिखा सकता है। सार्वजनिक विभागों से जुड़ी आम धारणा उन्हें धीमा, आलसी और अप्रभावी मानती है। लेकिन, प्रणालीगत अनिश्चितताएं जैसे फंड वितरण में देरी, राजनीतिक/अधिकारी वर्ग के नेतृत्व में बदलाव, और बेहद सीमित समय सीमा जैसी वजहें असल में इन विभागों के अनियमित प्रदर्शन के लिए जिम्मेदार हैं। निकायों में बुद्धिमान और कुशल अधिकारी भी होते हैं लेकिन वे काम के बोझ से दबे होते हैं। इसके अतिरिक्त ज़मीन से जुड़े और ज़मीनी स्तर पर काम करने वाले सरकारी अधिकारी अपने प्रभार के तहत समुदायों की गहरी समझ विकसित कर लेते हैं और जानते हैं कि समुदायों की मदद किस तरह की जा सकती है। फिर भी, ऐसा संभव है कि इन समुदायों में बदलाव को अकेले ही प्रभावी बनाने के लिए उनके पास समुचित संसाधनों की कमी हो। इसलिए, सरकारी अधिकारियों के साथ काम करते हुए उनके सामने आने वाली विभिन्न चुनौतियों के प्रति संवेदनशील होना जरूरी होता है। साथ ही, उनकी विशेषज्ञता और विचारों को नज़रअन्दाज़ करके उनके काम में टांग अड़ाने से भी बचना चाहिए।
ऐसे कोई नियम नहीं हैं जो समाजसेवी संस्थाओं को, सहयोगी प्रयासों में शामिल होने के उद्देश्य से सरकारी निकाय से संपर्क करने से रोकते हों।
ऐसे कोई नियम नहीं हैं जो समाजसेवी संस्थाओं को, सहयोगी प्रयासों में शामिल होने के उद्देश्य से किसी सरकारी निकाय से संपर्क करने से रोकते हों। लेकिन इन निकायों का नेतृत्व करने वाले अधिकारियों की मानसिकता, किसी भी प्रस्ताव को स्वीकार करने में एक प्रमुख भूमिका निभाती है। जहां कुछ सरकारी निकाय किसी भी तरह के सहयोग का स्वागत कर सकते हैं। वहीं अन्य वैकल्पिक समाधान के प्रस्ताव को, अपने द्वारा किए जा रहे काम के लिए खतरे के रूप में देख सकते हैं। उनकी आशंकाओं को पहचानना और एक सम्मानजनक और सहानुभूति भरे तरीके से इन्हें दूर करना जरूरी है। ऐसा करके सफलता और स्थिरता लाने वाली एक टिकाऊ साझेदारी स्थापित की जा सकती है। यह भी है कि सरकार के साथ की जाने वाली साझेदारी की सफलता और असफलता कई कारकों पर निर्भर करती है लेकिन इन पांच सिद्धांतों को ध्यान में रखकर शुरुआत करने से विषम परिस्थितियां भी अनुकूल हो सकती हैं।
इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें।
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