विदेशी अंशदान (विनियमन) अधिनियम या एफसीआरए भारतीय संविधान का वह अधिनियम है जो किसी व्यक्ति या संगठन या कंपनी को विदेशों से मिलने वाले सहयोग या आर्थिक सहायता को विनयमित (नियंत्रित) करता है।1 यह किसी ऐसे सहयोग को स्वीकार करने और उसका उपयोग करने से रोकता है जो राष्ट्रहित में नुक़सानदेह साबित हो सकते हैं। यह अधिनियम इससे संबंधित सभी गतिविधियों की निगरानी करता है। सरल शब्दों में, एफसीआरए भारत में विदेशी योगदान या सहायता के प्रवाह को नियंत्रित करता है। इस क़ानून को गृह मंत्रालय द्वारा लागू किया जाता है।
एफसीआरए भारत में विदेशी योगदान या सहायता के प्रवाह को नियंत्रित करता है।
अधिनियम का उद्देश्य विदेशी संगठनों (ताक़तों) को भारत के सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और धार्मिक विमर्श पर हावी होने देने और उन्हें प्रभावित करने से रोकना है। ऐसे कुछ प्रभावों के उदाहरण हैं: भारत में धर्मांतरण कार्यक्रम चलाने वाले धार्मिक समूह, या बड़े बांधों या परमाणु संयंत्रों के खिलाफ विरोध करने वाले भारतीय कार्यकर्ताओं को धन देने वाले संगठन। एफसीआरए कुछ खास लोगों और संस्थाओं को कोई भी विदेशी सहायता स्वीकार करने से रोकता है। इनमें मुख्यरूप से राजनीतिक दल, सरकारी कर्मचारी, प्रिंट या विज़ुअल मीडिया आउटलेट इत्यादि शामिल हैं। जिन कंपनियों को विदेशी धन प्राप्त करने की अनुमति है, वे पंजीकरण प्राप्त करने के बाद ही ऐसा कर सकती हैं।यहां यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि भारतीय व्यवसायों के लिए वस्तुओं या सेवाओं के भुगतान के रूप में देश में आने वाले विदेशी धन को एफसीआरए के दायरे से बाहर रखा गया है।
एफसीआरए का इतिहास क्या है?
एफसीआरए को पहली बार, संसदीय चुनावों में विदेशी फंड के संभावित उपयोग पर हुए विवाद के बाद साल 1976 में लागू किया गया था। मूल अधिनियम में समाजसेवी संगठनों को स्वतंत्र रूप से विदेशी दान प्राप्त करने की अनुमति दी गई थी, लेकिन इसके लिए उन्हें अपनी वार्षिक आय और व्यय की राशि का ब्यौर देना अनिवार्य कर दिया गया था।
साल 1984 में, समाजसेवी संस्थाओं को प्राप्त धन के प्रवाह को बेहतर तरीके से विनियमित करने के लिए इस कानून में संशोधन किया गया। इस संशोधन के बाद, संगठनों और संस्थाओं के लिए किसी भी प्रकार की विदेशी सहायता प्राप्त करने से पहले पंजीकरण कराना अनिवार्य कर दिया गया। इसके साथ ही, इस बदलाव के बाद से वे विदेशी सहायता के रूप में प्राप्त धन को किसी अन्य ग़ैर-पंजीकृत संस्था या संगठन को भी नहीं दे सकते हैं। इस संशोधन के पीछे, सरकार का यह मानना था कि कुछ समाजिक संगठनों का उपयोग विदेशी संस्थाओं द्वारा भारतीय राजनीतिक दलों को धन मुहैया कराने के लिए किया जा रहा था।
लगभग 20 साल बाद, सरकार ने मूल बिल में छूट गई कुछ कमियों को दूर करने के लिए एफसीआरए को फिर से तैयार करने की प्रक्रिया शुरू की। विदेशी अंशदान (विनियमन) अधिनियम, 2010 – जो अब भी प्रभावी है – मई 2011 में अपनाया गया था। नए अधिनियम में कई नए प्रावधान और नियम शामिल किए गए हैं। उदाहरण के लिए, 1976 का अधिनियम मीडिया संस्थानों की बात करते समय केवल समाचार पत्रों को ही शामिल करता है। लेकिन 2010 अधिनियम में मीडिया के नये और आधुनिक रूपों जैसे कि टेलीविज़न और इंटरनेट का भी उल्लेख किया गया है। इस अधिनियम के तहत कोई भी संगठन को अपनी कुल प्रशासनिक लागत का 50 फ़ीसद से अधिक विदेशी सहायता हासिल या उपयोग नहीं कर सकता है।
एफसीआरए भारतीय समाजसेवी संस्थाओं को कैसे प्रभावित करता है?
1984 के संशोधन के बाद एफसीआरए को अब समाजसेवी संस्थाओं पर नज़र रखने वाला वाला कानून माना जाता है। हालांकि संभव है कि संशोधन या साल 2010 के नए अधिनियम के पीछे का मुख्य उद्देश्य यह न हो, लेकिन एफसीआरए विभाग अपने कुल समय का एक बड़ा हिस्सा समाजसेवी संगठनों से निपटने में ही खर्च करता है।
एफसीआरए के मुताबिक निश्चित सांस्कृतिक, आर्थिक, शैक्षिक, धार्मिक या सामाजिक गतिविधियों में संलग्न कोई भी संगठन विदेशी योगदान तभी स्वीकार कर सकता है, जब वह केंद्र सरकार से पंजीकरण प्रमाणपत्र प्राप्त कर ले। प्रत्येक समाजसेवी संस्था को एक एफसीआरए पंजीकरण संख्या दी जाती है। 2015-16 में, भारत में 23,802 एफसीआरए-पंजीकृत समाजसेवी संस्थाएं थीं। भारत में समाजसेवी संस्थाओं द्वारा किया जाने वाले लगभग सभी काम ऊपर बताई गई पांच श्रेणियों में से एक में आते हैं। लेकिन स्वास्थ्य, खेलकूद या विज्ञान जैसे कुछ विषयों को इस सूची में शामिल नहीं किया गया है।
इस बात को लेकर भी किसी तरह की स्पष्टता नहीं है कि एफसीआरए इन और अन्य गैर-सूचीबद्ध क्षेत्रों में काम करने वाली समाजसेवी संस्थाओं पर लागू होता है या नहीं। समाजसेवी संस्थाओं पर एफसीआरए का एक दूसरा प्रभाव यह भी है कि अब सभी समाजसेवी संस्थाओं के लिए वार्षिक रिटर्न दाखिल करना अनिवार्य कर दिया गया है। विदेशी दान प्राप्त करने की अनुमति प्राप्त किसी संगठन के लिए विदेशों से प्राप्त योगदानों के लिए अलग से खाता बनाना आवश्यक है। उन्हें एक चार्टर्ड अकाउंटेंट द्वारा प्रमाणित वार्षिक रिटर्न जमा करना होगा, जिसमें विदेशी योगदान की प्राप्ति और उद्देश्य-वार उपयोग का विवरण देना होगा। वार्षिक रिटर्न दाखिल न करने वाली संस्था या संगठन पर जुर्माना लग सकता है या पंजीकरण रद्द हो सकता है।
एफसीआरए प्रमाणपत्र प्राप्त करने की आवश्यक योग्यता क्या है?
एफसीआरए प्रमाणपत्र प्राप्त करने के लिए आवश्यक मानदंड इस प्रकार हैं:
- संगठन को भारतीय संविधान के मौजूदा अधिनियम के तहत पंजीकृत होना चाहिए, जैसे कि सोसायटी पंजीकरण अधिनियम, कंपनी अधिनियम, या एक सार्वजनिक सेवा ट्रस्ट के रूप में।
- यह कम से कम तीन वर्षों से अस्तित्व में होना चाहिए।
- इन तीन वर्षों में संगठन ने अपने चुने गये क्षेत्र में समाज के योगदान के लिए ऐसे काम किए हों जिनके लिए उन्हें विदेशी योगदान की आवश्यकता है।
- संगठन ने अपने लक्ष्य के लिए कम से कम 10 लाख रुपये खर्च किए हों। इसमें प्रशासनिक खर्च शामिल नहीं है।
एफसीआरए प्रमाणपत्र प्राप्त करने की वास्तविक प्रक्रिया क्या है?
अकाउंटेबल हैंडबुक एफसीआरए 2010 के लेखक और ऑडिट फ़र्म, ‘संजय आदित्य एंड एसोसिट्स’ के प्रमुख संजय अग्रवाल कहते हैं कि: ‘एफसीआरए पंजीकरण प्रमाणपत्र प्राप्त करने के लिए किसी संगठन या संस्था को fcraonline.nic.in पर उपलब्ध FC-3 फॉर्म भरकर ऑनलाइन आवेदन करना होगा। इसमें संलग्न की जाने वाली आवश्यक दस्तावेजों की सूची दी गई है और साथ ही, एक तय शुल्क भी है जिसका भुगतान ऑनलाइन ही करना होगा। इस वेबसाइट पर फॉर्म भरने के तरीक़े के बारे में एक ट्यूटोरियल भी उपलब्ध है।
इसके तुरंत बाद, एफसीआरए विभाग की स्थानीय खुफिया इकाई (एलआईयू) समाजसेवी संस्था से संपर्क करती है और एक क्षेत्रीय जांच और साक्षात्कार को आयोजित करती है। इसमें आमतौर पर 1-4 सप्ताह का समय लगता है, लेकिन कुछ मौक़ों पर 2-3 महीने भी लग सकते हैं। इसके बाद एलआईयू अपनी रिपोर्ट स्टेट ऑफिस को सौंपता है जो आगे फिर इसे विभाग को भेज देता है। इसके बाद पूरी प्रक्रिया थोड़ी धीमी हो जाती है और इसमें 8-12 महीने तक लग सकते हैं। यदि समाजसेवी संगठन के निदेशक नॉन-रेसिडेंट (अप्रवासी) हैं तो उस स्थिति में उस देश में स्थित भारतीय दूतावास के माध्यम से जांच शुरू की जाती है, जिससे प्रक्रिया में देरी हो सकती है। यदि निदेशक विदेशी (या भारतीय मूल के नहीं) हैं तो उस स्थिति में पंजीकरण को तुरंत अस्वीकार कर दिया जाएगा।
एफसीआरए विभाग ने इस प्रक्रिया को सभी के लिए स्पष्ट बनाने के लिए बहुत अधिक मेहनत की है, लेकिन समाजसेवी संस्थाएं अक्सर भ्रमित रहती हैं। उदाहरण के लिए, समाजसेवी संस्थाओं को तीन साल के ऑडिटेड खाते संलग्न करने की आवश्यकता होती है, जिसमें कम से कम 10 लाख रुपये कार्यक्रमों पर खर्च किए गये हों। समाजसेवी संस्थाएं अक्सर प्रशासनिक और वैतनिक खर्चों को कार्यक्रम में किए जाने वाले खर्च के रूप में देखती हैं लेकिन एफसीआरए ऐसा नहीं मानता है। कुछ समाजसेवी संस्थाएं, जिला मजिस्ट्रेट से अनुशंसा प्रमाणपत्र प्राप्त करने का प्रयास भी करती हैं, जबकि इसकी आवश्यकता नहीं होती। अक्सर समाजसेवी संस्थाएं विभाग द्वारा उठाए गये प्रश्नों का उत्तर देने में विफल हो जाती हैं।
एफसीआरए विभाग सभी दिशानिर्देशों को सार्वजनिक करने के पक्ष में नहीं रहता है ताकि शर्तों को नज़रअन्दाज़ ना किया जा सके। उदाहरण के लिए, पहले, समाजसेवी संस्थाएं न्यूनतम गतिविधि के दिशानिर्देशों को पूरा करने के वैकल्पिक समाधान के रूप में नकद दान को दिखा देती थी। लेकिन विभाग अब नक़द दान को नज़रअन्दाज़ कर देता है। कभी-कभी समाजसेवी संस्थाएं यह भी दावा करती हैं कि उनका गठन पंजीकरण के तीन वर्ष पहले हुआ था, लेकिन विभाग अब पंजीकरण तिथि को प्रारंभिक बिंदु मानता है। बोर्ड में रिश्तेदारों का होना, या ऐसे बोर्ड सदस्यों का होना, जो अन्य एफसीआरए-पंजीकृत संगठनों के बोर्ड में भी हों, को उचित नहीं माना जाता है, लेकिन ऐसा संभव है कि समाजसेवी संस्थाओं को इसकी जानकारी न हो।
कुल मिलाकर, यदि समाजसेवी संस्था ने वास्तव में ज़मीन पर काम किया है; इसका कोई राजनीतिक (जिसमें ऊर्जा, पर्यावरण और मानव अधिकार जैसे संवेदनशील क्षेत्र भी शामिल हैं) झुकाव नहीं है; न ही इसके बोर्ड का कोई भी सदस्य पत्रकार, राजनेता या विदेशी नागरिक है; यह किसी विदेशी संस्था की शाखा या उससे नियंत्रित संगठन नहीं है; तब ऐसी स्थिति में इस संस्था को एफसीआरए पंजीकरण मिलने में एक वर्ष का समय लगने की संभावना होती है।’
‘पूर्व अनुमति’ और ‘पूर्व अनुमोदन’ क्या है?
पूर्व अनुमति
यह समाजसेवी संस्थाओं के लिए एकमुश्त विदेशी दान प्राप्त करने का प्रावधान है। ऐसे संगठन जो तीन वर्ष से कम पुराने हैं, जिनके पास एफसीआरए पंजीकरण नहीं है, या उनका पंजीकरण रद्द या निलंबित कर दिया गया है, वे पूर्व अनुमति प्रमाणपत्र के लिए आवेदन कर सकते हैं। उन्हें अपना उद्देश्य, दानदाताओं के नाम और वे जिस दान की उम्मीद कर रहे हैं उसकी राशि के बारे में जानकारी देनी होगी। संस्थाओं के लिए दाता की ओर से समान विवरणों वाला एक प्रतिबद्धता पत्र भी जमा करना अनिवार्य होता है। यदि बीच में उद्देश्य या दाता में किसी तरह का परिवर्तन होता है तो ऐसी स्थिति में अनुमति रद्द हो जाती है और उसे फिर से प्रमाणित करना पड़ता है।
एफसीआरए प्रमाणपत्र की तुलना में पूर्व अनुमति प्राप्त करना अक्सर अधिक कठिन हो सकता है, क्योंकि इस मामले में दाता संगठन की भी जांच की जाती है। भारतीय समाजसेवी संस्था और विदेशी दाता (उदाहरण के लिए, एक सामान्य बोर्ड सदस्य या कर्मचारी) के बीच पाया गया कोई भी संबंध एक खतरे का संकेत है।
पूर्व अनुमति पर निर्णय देने में सरकार को आमतौर पर आठ से पंद्रह महीने का समय लगता है। इससे यह सुनिश्चित करने में अतिरिक्त कठिनाई होती है कि आवेदन करने से लेकर उसके स्वीकार होने तक की पूरी प्रक्रिया के दौरान दाता आर्थिक मदद देने के लिए राज़ी रहे।
पूर्व अनुमति के लिए आवेदन करने वाली समाजसेवी संस्थाओं की संख्या में लगातार गिरावट आ रही है जो 2003 में 604 समाजसेवी संस्थाओं से घटकर 2017 में नौ हो गई है।
पूर्व अनुमोदन
यह एक सूची है जिस पर केंद्र सरकार एक विदेशी दाता को रख सकती है। इस सूची में शामिल लोगों को किसी भारतीय समाजसेवी संस्था को दिये जाने वाले प्रत्येक दान के लिए सरकार की मंजूरी लेनी होगी। पूर्व अनुमोदन सूची में लगभग 20 दानदाता हैं। शोध में पाया गया है कि सूची में शामिल दानदाताओं द्वारा कम संख्या में समाजसेवी संस्थाओं को फंड दिया जाता है। इसके अलावा, इन दानदाताओं द्वारा किए गए दान की मात्रा 2012-13 में 327 करोड़ रुपये से गिरकर 2016-17 में 49 करोड़ रुपये रह गई है।
भारत में समाजसेवा के लिए विदेशों से कितना धन आता है?
2015-16 में, भारतीय समाजसेवी संस्थाओं को 17,620 करोड़ रुपये का विदेशी दान मिला था। यह आंकड़ा पिछले साल के मुकाबले 16 फीसद ज्यादा था। यह आंकड़ा भारतीय राज्यों के बीच विदेशी दान के असमान वितरण को दर्शाता है। 2016-17 में प्राप्त सभी विदेशी फंडों का 59 फ़ीसद दिल्ली, तमिलनाडु, कर्नाटक और महाराष्ट्र में वितरित किया गया था2, जो कुल एफसीआरए-पंजीकृत समाजसेवी संस्थाओं का 38 फ़ीसद और देश की आबादी का केवल 16 फ़ीसद है। इसके अलावा, पिछले आठ वर्षों में औसतन भारत में एफसीआरए पंजीकृत समाजसेवी संस्थाओं में से 45 फ़ीसद संस्थाओं को एफसीआरए फ़ंडिंग नहीं मिली है। 2016-17 में, शीर्ष 20 प्राप्तकर्ता सभी समाजसेवी संस्थाओं के केवल 0.1 फ़ीसद थे, लेकिन उन्हें लगभग 15 फ़ीसद विदेशी दान प्राप्त हुआ।
जैसा कि ऊपर बताया गया है, समाजसेवी संस्थाएं पांच सूचीबद्ध उद्देश्यों में से एक के तहत विदेशी दान प्राप्त करने के लिए अपना पंजीकरण करवाती हैं। 2015 से 2017 तक के आंकड़ों से पता चलता है कि सबसे अधिक 59 फीसदी दान ‘सामाजिक’ श्रेणी के तहत लिया गया था।
एफसीआरए से जुड़े विवाद की जड़ें क्या हैं?
संजय अग्रवाल कहते हैं: ‘पहली बात तो यह है कि सभी राजनीतिक दल आम तौर पर गैर-लाभकारी संस्थाओं में विदेशी योगदान के खिलाफ हैं – यह सरकारी नीति में भी स्पष्ट है। उदाहरण के लिए, वामपंथी शासन के दौरान विदेशी मदद प्राप्त समाजसेवी संस्थाओं के लिए पश्चिम बंगाल और केरल में संवेदनशील मुद्दों पर काम करना मुश्किल हो गया था।’ कुछ लोग तर्क देते हैं कि वर्तमान सरकार लोक-लुभावन काम करना चाहती है और इसीलिए विदेशी वित्त पोषित संगठनों और एफसीआरए समाजसेवी संस्थाओं से जुड़े कार्यकर्ताओं पर कार्रवाई की जा रही है।
सरकार ने एफसीआरए से जुड़े चार काम किए:
- निषिद्ध गतिविधियों या राजनीतिक गतिविधियों में संभावित रूप से (भले ही अप्रत्यक्ष रूप से) शामिल एफसीआरए समाजसेवी संस्थाओं को लक्ष्य बनाकर उनपर कार्रवाई की गई ।
- निष्क्रिय एफसीआरए समाजसेवी संस्थाओं को बाहर करने के लिए व्यापक स्तर पर सख़्त प्रशासनिक कदम उठाए गए।
- उस प्रक्रिया को धीमा कर दिया जिसके द्वारा समाजसेवी संस्थाओं को एफसीआरए पंजीकरण या पूर्व अनुमति दी जाती है।
- अंतर्राष्ट्रीय स्तर के लगभग 22 समाजसेवी संगठनों और संस्थाओं के लिए पूर्व-रेफ़रल दाताओं की सूची बढ़ाई गई।
निष्क्रिय एफसीआरए पंजीकरणों को थोकभाव में रद्द किया गया है जिसे कुछ लोग राजनीति से प्रेरित मानते हैं। इसे मीडिया ने भी खूब उछाला है जबकि यह लगभग 25 वर्षों से चल रहा है। समाजसेवी क्षेत्र भी इस बहस में शामिल हो गया है। सामाजिक क्षेत्र में भी यह धारणा है कि एफसीआरए फंडिंग में भारी गिरावट आई है जबकि वास्तव में, तथाकथित कार्रवाई के बावजूद, विदेशी फंड पिछले 3-4 वर्षों में बढ़े ही हैं।
कुल मिलाकर, नियामक और विनियमित के बीच इन मुद्दों को लेकर मुक्त और समझदारी भरी बातचीत न के बराबर हुई है। मीडिया ने भी या तो इस मुद्दे का राजनीतिकरण किया है या फिर उसका उद्देश्य इसे महज़ सनसनीख़ेज़ बनाना ही रहा है।’
इसका भारत में समाजसेवी संस्थाओं पर क्या प्रभाव पड़ा है?
2011 में विदेशी मदद हासिल करने वाली समाजसेवी संस्थाओं के लिए नए नियम निर्दिष्ट किए जाने के बाद, सरकार द्वारा कई एफसीआरए पंजीकरण रद्द कर दिए गए थे। इसके पीछे के प्राथमिक कारण के रूप में यह बताया गया कि संस्थाएं व्यय रिपोर्ट को समय-समय पर दाखिल करने जैसे नियमों का अनुपालन नहीं कर रही थीं।
हालांकि, समाजसेवी संस्थाएं इसे असहमति या विरोध पर प्रतिबंध लगाने के प्रयास के रूप में देखती हैं। मानव अधिकार संगठनों को इन रद्दीकरणों का खामियाजा भुगतना पड़ा, क्योंकि उनके काम को ‘राजनीतिक’ वर्ग में रखा गया और इसलिए वे विदेशी दान पाने के लिए योग्य नहीं थे।
2014 में, इंटेलिजेंस ब्यूरो की एक रिपोर्ट में कहा गया कि विदेशी फंड द्वारा संचालित समाजसेवी संस्थाएं भारत में ‘आर्थिक विकास पर नकारात्मक प्रभाव डाल रही हैं।’ रिपोर्ट में ग्रीनपीस नाम की एक अंतर्राष्ट्रीय पर्यावरण समाजसेवी संस्था को ‘राष्ट्रीय आर्थिक सुरक्षा के लिए ख़तरा’ बताया गया है। इसमें कहा गया है कि यह संगठन परमाणु और कोयला बिजली संयंत्रों जैसी परियोजनाओं का विरोध करके भारत की आर्थिक प्रगति को प्रभावित कर रहा है। इसके कारण ग्रीनपीस के एफसीआरए पंजीकरण को पहले निलंबित और फिर रद्द कर दिया गया और उसे किसी भी प्रकार के विदेशी दान को प्राप्त करने से रोक दिया गया।
हाल ही में, अमेरिका-आधारित ईसाई धर्माथ संगठन और कभी भारत में सबसे बड़ा अंतर्राष्ट्रीय दानदाता रहे- कंपैशन इंटरनैशनल (सीआई) को सरकार की पूर्व अनुमोदान सूची में रखा गया था। अब उन्हें भारत में किसी भी प्रकार के दान के लिए अनुमति लेनी होगी। 2017 तक सीआई द्वारा किए गए दान में लगातार गिरावट देखी गई और उसके बाद सीआई ने भारत में अपने संचालन को पूरी तरह से बंद कर दिया।
अगले कुछ वर्षों में एफसीआरए को लेकर किस तरह का माहौल रहेगा?
संजय अग्रवाल कहते हैं कि ‘अगले कुछ वर्षों में व्यापक सरकारी नीतियों में बदलाव की संभावना नहीं है। उनका प्रभाव पहले ही कुछ हद तक समाजसेवी संस्थाओं पर पड़ चुका है। कम से मध्यम समयावधि में, आंशिक रूप से विनिमय दर में आने वाले बदलाव के कारण विदेशी फ़ंडिंग में वृद्धि आएगी और यह स्थिर गति से बढ़ता रहेगा। हालांकि, विदेशी फ़ंडिंग का एक हिस्सा कम मीडिया एक्टिविज्म के साथ सरल और साधारण उद्देश्यों के लिए काम करेगा ताकि अत्यधिक जांच से बचा जा सके। लंबे समय में, ऐसी संभावना है कि विदेशी अंशदान अप्रासंगिक हो जाए क्योंकि संभव है कि स्थानीय या सीएसआर फ़ंडिंग इनकी जगह ले ले।’
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फुटनोट:
1. फ़ॉरेन हॉस्पिटैलिटी (विदेशी सहयोग) विदेशी योगदान का एक वैकल्पिक रूप है, जिसमें एक विदेशी संस्था किसी व्यक्ति की मेजबानी करती है। साथ ही, उनकी यात्रा, लॉज, चिकित्सा उपचार आदि के खर्च का वहन करती है। यह किसी विधायिका के सदस्यों, न्यायाधीशों या जैसे लोगों पर लागू होता है और संभव है कि समाजसेवी संगठनों के लिए प्रासंगिक न हो।
2. इसका मुख्य कारण यह है कि कई दान एजेंसियां दिल्ली, चेन्नई, बंगलुरु और मुंबई में स्थित हैं। ये अन्य राज्यों में फंड को फिर से आवंटित करती हैं।
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लेख में दिए गए सभी आंकड़े अशोका यूनिवर्सिटी के सेंटर फॉर सोशल इम्पैक्ट एंड फिलैंथ्रोपी (सीएसआईपी) द्वारा प्रकाशित रिपोर्ट ‘एस्टिमेटिंग फ़िलंथ्रोपिक कैपिटल इन इंडिया‘ से लिए गए है।
इस लेख में साहिल केजरीवाल ने भी अपना योगदान दिया है।
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