September 22, 2025

संस्थाओं की बुनियादी फंडिंग की कुंजी

भाषा और प्रक्रियाओं में सूक्ष्म बदलाव से आप अपनी संस्था की बुनियादी जरूरतों के लिए फंड सुनिश्चित कर सकते हैं।
7 मिनट लंबा लेख

जो गैर-लाभकारी संस्थाएं अक्सर यह सोचकर निराश हो जाती हैं कि संगठनात्मक कार्यों के लिए फंड जुटाना लगभग असंभव है, उन्हें हौसला बनाये रखना चाहिए। मानव संसाधन, वित्तीय मामले, प्रशासन, और निगरानी व मूल्यांकन जैसी बुनियादी जरूरतों के लिए भी संसाधन जुटाए जा सकते हैं, भले ही ये सभी पहलू सीधे किसी विशेष कार्यक्रम से न जुड़े हों। इसके लिए जरूरत है नवाचार (इनोवेशन) की, भाषा के बेहतर प्रयोग की, मजबूत आंतरिक प्रक्रियाओं की और कभी-कभी स्पष्ट रूप से अपनी बात रखने की।

पिछले वर्ष एक्सेस लाइफ असिस्टेंस फाउंडेशन (एएलएएफ), जिसे अंकित दवे और मैंने मिलकर स्थापित किया है, में हमने यह संकल्प किया कि हम केवल कार्यक्रमों की लागत ही नहीं, बल्कि अपने पूरे कामकाज की वास्तविक लागत के लिए भी फंड की व्यवस्था करेंगे।

एएलएएफ आज आठ शहरों में 11 केंद्र चलाता है, जो कैंसर से जूझ रहे बच्चों और उनके परिवारों के लिए आश्रय प्रदान करते हैं। जब हमने यह देखा कि इलाज के लिए दूर-दराज से आए माता-पिता अपने बच्चों के साथ अस्पतालों के बाहर सड़कों पर रहने को मजबूर होते हैं, तो हमने 2014 में मुंबई से अपने काम की शुरुआत की। अमूमन ऐसे माता-पिता दूर-दराज के इलाकों से आते हैं और शहर में रहने का खर्च नहीं उठा सकते हैं। इसलिए यह आम बात है कि वे अपने बच्चों के स्वास्थ्य में हल्का सा सुधार दिखते ही इलाज छोड़कर वापस घर लौट जाते हैं। हमने अपनी शुरुआत आठ परिवारों के लिए एक छोटे से आश्रय से की थी। लेकिन जल्द ही हमें यह समझ आ गया कि इन परिवारों को सिर्फ छत की ही नहीं, बल्कि राशन, पौष्टिक भोजन, इलाज के लिए यातायात और अन्य बुनियादी सहायताओं की भी उतनी ही जरूरत होती है।

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इस दौरान कॉर्पोरेट स्पॉन्सर बच्चों और उनके परिवारों के लिए केंद्र स्थापित करने और उन्हें चलाने में तो उत्साहपूर्वक सहयोग करते रहे, लेकिन मुंबई के चेंबूर स्थित हमारे मुख्यालय, जो पूरे संगठन की दिशा तय करने वाला केंद्र है, को उतना सहयोग नहीं मिल पाया।

वर्ष 2023 में एएलएएफ के दस वर्ष पूरे हुए और हमें एक अप्रत्याशित स्थिति का सामना करना पड़ा। जब हमारे दो सीएसआर समझौतों में देरी हुई, तो हमारी कार्यशील पूंजी (कॉर्पस) पर इतना दबाव पड़ा कि हमें अपने कोष से धन निकालने पर विचार करना पड़ा। इस अनुभव ने हमें अपनी रणनीति पर नए सिरे से सोचने को प्रेरित किया।

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एसओपी यह सुनिश्चित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं कि हर केंद्र अपने खर्चों को एक समान तरीके से रिकॉर्ड और रिपोर्ट करे। | चित्र साभार: पीएक्सहेयर

हमने तय किया कि अब हर केंद्र को चलाने की पूरी लागत को सामने रखकर ही योजना बनाई जाएगी और सीएसआर साझेदारों से अनुरोध किया जाएगा कि वे उस पूरी लागत को वहन करें। एक साल के भीतर ही कुछ संगठनों ने इस पर सहमति जतायी। हमारे लिए यह फंडरेजिंग से जुड़े प्रयासों की एक अहम सफलता रही। इस पूरे सफर से बीते वर्ष में हमें कुछ महत्वपूर्ण सबक हासिल हुए, जो इस प्रकार हैं:

1. अपनी कहानी को नए सिरे से गढ़ना

जब गैर-लाभकारी संस्थाएं फंडरों से संवाद करती हैं, तो अक्सर हमारी अपनी भाषा ही हमारे काम को कमतर बना देती है। हम उन गतिविधियों को, जो संगठन की रीढ़ हैं, ‘बैक-ऑफिस’, ‘ओवरहेड’ या केवल ‘प्रशासनिक खर्च’ का नाम दे देते हैं। लेकिन हकीकत यह है कि हम जो भी काम करते हैं, चाहे वह सामने दिखायी दे या नहीं, उसका अंतिम उद्देश्य समुदाय की भलाई ही होता है। यही वजह है कि कार्यक्रम से इतर सभी खर्चों को भी इसी नजरिये से प्रस्तुत करना बेहद जरूरी है, विशेषकर कॉर्पोरेट डोनरों के सामने।

यदि हम अपनी भाषा में छोटे-छोटे बदलाव कर यह दिखा सकें कि ये तथाकथित ‘अप्रत्यक्ष’ गतिविधियां भी संस्था के मूल उद्देश्य से कितनी गहराई से जुड़ी हैं, तो दानदाताओं की समझ और सहयोग दोनों में इजाफा हो सकता है। कई बार यह जरूरत बहुत स्पष्ट भी होती है। उदाहरण के लिए, एएलएएफ में माता-पिता के लिए काउंसलिंग सेवाओं की लागत। एक बच्चे की कीमोथैरेपी कई महीनों तक चल सकती है और इस दौरान माता-पिता भारी मानसिक और आर्थिक दबाव से गुजरते हैं। ऐसे समय में उनके लिए काउंसलिंग बहुत जरूरी होती है। वहीं कभी-कभी यह जरूरत प्रत्यक्ष रूप से नजर नहीं आती है। उदाहरण के लिए, मैनेजमेंट इन्फार्मेशन सिस्टम (एमआईएस) का निर्माण, जो सतही तौर पर अतिरिक्त या गैर-जरूरी खर्च लग सकता है। ऐसे में हमारा दायित्व है कि हम यह दिखायें कि एमआईएस कोई विलासिता नहीं, बल्कि समुदाय की बेहतर सेवा के लिए एक अनिवार्य उपकरण है। यह प्रणाली हमें प्रत्येक परिवार को वास्तविक समय में ट्रैक करने, शुरुआती स्तर पर कमियों की पहचान करने और यह सुनिश्चित करने में मदद करती है कि कोई भी पीछे न छूटे।

गैर-लाभकारी संस्थाएं यह भी दिखा सकती हैं कि संगठनात्मक खर्च किसी भी परियोजना की सफलता के लिए कितने अनिवार्य हैं। उदाहरण के लिए, कर्मचारियों के वेतन को अक्सर ‘ओवरहेड’ कहकर नजरअंदाज कर दिया जाता है, जबकि यही वेतन वह मानवीय ढांचा है जिसके बिना सेवा और देखभाल की पूरी प्रक्रिया विफल हो सकती है। इसी तरह, जब सीएसआर साझेदारों को यह स्पष्ट रूप से समझाया जाता है कि वास्तव में फंड का उपयोग किस प्रकार होता है, तो इससे भरोसा बनता है और उन्हें हमारी वास्तविक आवश्यकताओं की गहरी समझ मिलती है। यदि वे इसका फायदा समझ पाते हैं, तो संभावना है कि वे इसके लिए आवश्यक संसाधन जुटाने, चाहे वह नई व्यवस्था स्थापित करने की बात हो या उपयुक्त लोगों को नियुक्त करने की, के लिए तैयार हो जायें।

2. लागत को योजना का हिस्सा बनाना

किसी कार्यक्रम को उसकी पूरी लागत के साथ चलाने का पहला और सबसे जरूरी कदम है उसे सटीक रूप से आंकना। मजबूत प्रणालियां और मानक संचालन प्रक्रियाएं (एसओपी) संगठनों को हर प्रकार के खर्च का लेखा-जोखा रखने में मदद करती हैं और इस तरह किसी भी कार्यक्रम की सटीक लागत की गणना की जा सकती है।

एएलएएफ ने दो साल पहले एक एंटरप्राइज रिसोर्स प्लानिंग (ईआरपी) सॉफ्टवेयर का इस्तेमाल किया, ताकि संगठनात्मक कामों से जुड़े आंकड़ों का गहन विश्लेषण किया जा सके। हमने ऐसे ट्रैकिंग टूल्स का उपयोग किया, जो केंद्र चलाने में शामिल वास्तविक खर्चों (जैसे बिजली, कीट नियंत्रण, पानी और मरम्मत के छोटे-मोटे काम) को दर्ज करते थे और हर परिवार की प्रति माह परिचालन लागत की गणना करते थे। सर्विस डैशबोर्ड्स के जरिए यह भी दर्ज किया गया कि शैक्षणिक सहयोग, काउंसलिंग या पोषण संबंधी कार्यक्रमों के कितने सत्र आयोजित हुए, ताकि प्रति बच्चे प्रति कार्यक्रम की सटीक लागत समझी जा सके।

यहीं पर एसओपी बेहद अहम साबित होते हैं। वे सुनिश्चित करते हैं कि हर केंद्र अपने खर्च को एकसमान और पारदर्शी ढंग से दर्ज करे। इसमें स्पष्ट रूप से तय होता है कि राशन, सफाई का सामान या शैक्षणिक सामग्री समेत तमाम चीजें किस तरह से खरीदी जानी चाहिए और उनका हिसाब कैसे रखना चाहिए। इससे न केवल फिजूलखर्ची रुकती है बल्कि सभी केंद्रों में मानकीकरण भी होता है। नए परिवारों के आगमन की प्रक्रिया यह तय करती है कि प्रत्येक परिवार को शामिल करने में औसतन कितना समय और संसाधन लगते हैं। ऑडिट चेकलिस्ट उन सभी मात्रात्मक और गुणात्मक पहलुओं को दर्ज करती है जिनसे लागत पर असर पड़ सकता है। जैसे वस्तुओं का पुराना हो जाना, उन्हें बदला जाना या आपात स्थितियों में कर्मचारियों का ओवरटाइम। साथ ही, मुख्यालय का किराया और कर्मचारियों के वेतन भी इसमें जोड़े जाते हैं।

इस बहु-आयामी दृष्टिकोण ने हमें एक अधिक स्पष्ट, ठोस और बचाव योग्य लागत संरचना बनाने में मदद की। इससे न केवल हमारे आंतरिक कामकाज में पारदर्शिता आई, बल्कि बाहरी स्तर पर भी विश्वास बना। खासतौर पर सीएसआर साझेदारों और संस्थागत डोनरों के साथ, जो अब अक्सर प्रति-इकाई लागत, प्रभाव और खर्च अनुपात, और लाइन-आइटम पारदर्शिता जैसी जानकारियां चाहते हैं।

3. स्रोतों में विविधता बनाए रखना

पिछले वर्ष हमें लगभग 70 प्रतिशत फंडिंग कॉर्पोरेट्स के माध्यम से हासिल हुई। वर्तमान में भारत में सीएसआर गैर-सरकारी फंडिंग का सबसे बड़ा स्रोत है। वित्त वर्ष 2023–24 में इसका कुल व्यय लगभग 35,000 करोड़ रुपये था। इनमें से कुछ कॉर्पोरेट अब परिपक्व हो रहे हैं और संगठनों के रणनीतिक व दीर्घकालिक लक्ष्यों में निवेश करने को तैयार दिखते हैं। लेकिन अधिकतर सीएसआर विभाग एचआर शाखाओं के भीतर से ही संचालित होते हैं, जहां विकास सेक्टर की जटिलताओं को लेकर गहन समझ नहीं होती। नतीजतन, वे अब भी इस बात पर जोर देते हैं कि उनका अधिकतर फंड सीधे समुदाय-केंद्रित गतिविधियों पर ही खर्च किया जाना चाहिए। एएलएएफ अपने बजट का लगभग 20 प्रतिशत विदेशी अंशदान (विनियमन) अधिनियम (एफसीआरए) के तहत जुटाता है, लेकिन इन अनुदानों की शर्तें भी उतनी ही कड़ी होती हैं जितनी सीएसआर फंडिंग की।

इस कारण हम अब भी कुछ हद तक व्यक्तिगत दानदाताओं और फैमिली फिलैंथ्रॉपिस्ट्स पर निर्भर रहते हैं। संगठन-निर्माण से जुड़े खर्चों को लेकर वे अपेक्षाकृत अधिक लचीले होते हैं। शुरुआती तीन वर्षों तक हमारे कैंसर केंद्र पूरी तरह रिटेल फंडिंग से ही संचालित हुए थे। लेकिन जैसे-जैसे कोई संस्था आगे बढ़ती है, उसका बजट भी तेजी से बढ़ता है। ऐसे में रिटेल फंडिंग आम तौर पर इस गति के साथ तालमेल नहीं बिठा पाती है और अधिकांश संगठनों को अंत में सीएसआर का सहारा लेना ही पड़ता है।

यही कारण है कि अब केवल एक ही तरह के डोनरों पर निर्भर रहना व्यावहारिक नहीं है। साथ ही यह भी उचित नहीं है कि जो डोनर अपेक्षाकृत लचीलापन दिखाते हैं, सारा बोझ केवल उन्हीं पर डाल दिया जाए।

4. अपनी बात मजबूती से रखना

पहले जब कोई सीएसआर साझेदार हमारे किसी केंद्र को सहयोग देता था, तो हम उन्हें विशेष ब्रांडिंग का अधिकार देते थे। उनका नाम हमारे केंद्र पर लगी पट्टिका पर दर्ज होता था। लेकिन अब हम इसी ब्रांडिंग को उनके साथ अपनी सोच साझा करने का साधन बना रहे हैं।

जब हमने केंद्र संचालन की पूरी लागत, जिसमें संगठन की बुनियादी जरूरतें भी शामिल थी, को स्पष्ट रूप से सामने रखा तो हमने यह भी साफ किया कि यदि वे पूरी लागत वहन करते हैं, तभी अकेले उस केंद्र का श्रेय ले सकते हैं। लेकिन यदि उनका योगदान आंशिक है और कोई अन्य डोनर हमारे अप्रत्यक्ष खर्चों को वहन कर रहा है, तो उन्हें श्रेय भी साझा करना होगा।

जब गैर-लाभकारी संस्थाएं फंडरों से संवाद करती हैं, तो अक्सर हमारी अपनी भाषा ही हमारे काम को कमतर बना देती है।

गैर-लाभकारी संस्थाओं को भी उसी दृष्टि से देखा जाना चाहिए, जैसे लाभकारी कंपनियों को देखा जाता है। जिस तरह कंपनियों को अपने कामकाज के लिए वर्किंग कैपिटल और दीर्घकालिक भंडार (कॉर्पस) की आवश्यकता होती है, वैसे ही गैर-लाभकारी संगठनों के लिए भी यह अनिवार्य है।

इनमें से वर्किंग कैपिटल विशेष रूप से अहम है क्योंकि सीएसआर साझेदार अक्सर साल की शुरुआत में करार तो कर लेते हैं, लेकिन फंड को साल के मध्य या अंत में जारी करते हैं। इस अस्थिर नकदी प्रवाह के बीच किसी संगठन से यह उम्मीद करना कि वह लगातार और सुचारु रूप से काम चलाए, अव्यावहारिक है। इसलिए यदि हम दानदाताओं को अपनी संस्था की इन व्यापक वित्तीय जरूरतों के बारे में समझाएं और उनसे संवाद करें, तो वे भी धीरे-धीरे अपनी सोच में बदलाव लायेंगे।

5. खुलकर अपनी मांग जाहिर करें

गैर-लाभकारी संस्थाओं की एक आम भूल यह है कि वे अपनी वास्तविक जरूरतें खुलकर सामने रखने से बचती हैं। जब कोई कॉर्पोरेट हमारा साथ देने का फैसला करता है, तो हम उनके इतने आभारी हो जाते हैं कि संस्था की बुनियादी जरूरतों के लिए संसाधनों की मांग करने में हिचकिचाते हैं। जबकि दिलचस्प बात यह है कि कई बार हमारे कुछ संवेदनशील कॉर्पोरेट साझेदार ही हमें यह बताते हैं कि गैर-लाभकारी संस्थाएं अपनी असली लागत और संगठन के विकास की जरूरतें स्पष्ट रूप से साझा ही नहीं करती हैं।

सच यह है कि फंडरेजिंग हमेशा अनिश्चितताओं से भरी होती है और अस्वीकृति का डर भी बना रहता है। लेकिन आगे बढ़ने के लिए जरूरी है कि हम लगातार नए तरीकों की तलाश करें, प्रयोग करते रहें और साहसपूर्वक अपनी असल जरूरतों को सामने रखें।

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लेखक के बारे में
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गिरीश नायर

गिरीश नायर एक्सेस लाइफ असिस्टेंस फाउंडेशन के संस्थापक और अध्यक्ष हैं, जो एक गैर-लाभकारी संगठन है और कैंसर से जूझ रहे बच्चों और उनके परिवारों को देखभाल, आश्रय और समग्र समर्थन प्रदान करता है। गिरीश के पास एविएशन, ट्रैवल और पीआर कंसल्टिंग में वित्तीय प्रबंधन का 15 वर्षों से अधिक का अनुभव है। वह स्थाई गैर-लाभकारी मॉडल बनाने, शासन तंत्र को मजबूत करने और स्वास्थ्य सेवाओं में गरिमा और समानुभूति सुनिश्चित करने के लिए प्रयासरत हैं।

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