September 25, 2025

ग्रामीण भारत में पोषण संकट की असल जड़ क्या है?

ग्रामीण भारत में कुपोषण का कारण केवल भोजन की कमी नहीं, बल्कि पारंपरिक भोजन से दूरी भी है।
10 मिनट लंबा लेख

ग्रामीण भारत में पोषण संकट की जड़ केवल भोजन की कमी तक सीमित नहीं है। इसकी बड़ी वजह लोगों का पारंपरिक आहार से दूर चले जाना भी है। भारत जैसे विशाल और विविध देश में पोषण, स्वास्थ्य के साथ-साथ सामाजिक, सांस्कृतिक और कृषि प्रणालियों से भी गहराई से जुड़ा हुआ है। साथ ही, इसका संबंध स्थानीय भोजन, पारंपरिक ज्ञान और सामुदायिक सहयोग से भी उतना ही है। ग्रामीण और आदिवासी अनुभव बताते हैं कि बिना इन कारकों को समझे, केवल पूरक आहार और योजनाओं पर भरोसा करना, कुपोषण की समस्या को हल नहीं कर सकता है।

पोषण की असल समझ जरूरी है

भारत के गांवों में पोषण के संबंध में दो बड़े परिदृश्य दिखते हैं-

पहला वर्ग: सीमित साधनों वाले परिवार जिनका भोजन चावल-रोटी-दाल तक सिमटा होता है। आईसीआरईएसएटी के हालिया अध्ययन के अनुसार, भारत के अर्ध-शुष्क क्षेत्रों में 60-75% प्रोटीन केवल अनाज से आता है। चावल-रोटी-दाल की त्रिकोणीय व्यवस्था से अक्सर विविधता पूरी नहीं होती और थाली अधूरी रह जाती है। 

फेसबुक बैनर_आईडीआर हिन्दी

दूसरा वर्ग: दूसरे वर्ग में वे परिवार आते हैं जो आर्थिक रूप से बेहतर स्थिति में हैं लेकिन पारंपरिक भोजन से दूर हो गए हैं। बाजार पर भरोसा करने वाले परिवार, जो बच्चों को पैक्ड फूड, पाउडर दूध, बिस्किट और फोर्टिफाइड फूड खिलाना ही आधुनिक और पौष्टिक मानते हैं। आंकड़े बताते हैं कि भारत का बेबी फूड मार्केट 2025 में 232.99 मिलियन यूएस डॉलर हो चुका है और 2025-2030 के बीच हर साल लगभग 10 फीसदी की दर से बढ़ रहा होगा। 

असल में, दोनों ही स्थितियां बच्चों और परिवारों को स्थानीय भोजन और पारंपरिक व्यंजनों से दूर कर देती हैं और दोनों ही अपने तरीके से गंभीर चुनौतियां पैदा करते हैं। यह विभाजन न केवल आर्थिक स्थिति पर आधारित है बल्कि पोषण की समझ में मौलिक अंतर को दर्शाता है।

पारंपरिक भोजन और संस्कृति

आदिवासी और ग्रामीण समाज का लोकल फूड सिस्टम उनकी सबसे बड़ी ताकत रहा है। खेतों और जंगल से बिना खेती के मिलने वाले खाद्य पदार्थ – जैसे लाल भाजी, बथुआ, कोदो-कुटकी, झुनगा की दाल – थाली को पोषण से भर देते थे। अलग-अलग इलाकों में उनके विशिष्ट व्यंजन थे। उदाहरण के तौर पर – कमल के डंठल का अचार, जंगल की जड़ी-बूटियों से बनी सब्जियां और बाजरे की रोटी के साथ लहसुन की चटनी। हमारे त्योहारों और मौसम के अनुसार भी भोजन बदलता था जो शरीर को मौसम के मुताबिक ढलने में मदद करता था।

गर्मियों में बेल, खीरा, करेला, छाछ और जौ का सत्तू शरीर को ठंडक और ऊर्जा देते थे। वहीं बरसात में कोदो-कुटकी, तिल की चटनी और जंगल की हरी सब्जियां रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाती थीं। वहीं सर्दियों में बाजरा, गुड़, तिल और बथुए का साग शरीर को गर्मी और ताकत देते थे। यह मौसमी संतुलन न केवल शरीर को वातावरण के अनुकूल बनाए रखता था बल्कि यह स्थानीय जैव विविधता और कृषि प्रणाली को भी सुरक्षित रखता था।

आज स्थिति उलट गई है—साल भर सेब, अंगूर, मटर और यहां तक कि ठंडे देशों के फलों तक पहुंच है। लेकिन यह ‘सुविधा’ हमारे शरीर की ऋतु-अनुकूल क्षमता को कमजोर कर रही है। उदाहरण के लिए, अगर मेरे इलाके में सीताफल होता है फिर बाजार लाए गए उस सेब की मेरी थाली में कितनी आवश्यकता है जिसे लंबे समय से स्टोर करके रखा गया था।

दूसरी ओर आज बाजार और रेडीमेड फूड की वजह से भोजन विविधता तेजी से गायब हो रही है। बच्चे और युवा अब बिस्किट, मैगी और पैकेज्ड स्नैक्स को भोजन का हिस्सा मानने लगे हैं। मैदा से बने ऐसे प्रोडक्ट पूरे साल भर बाजार में उपलब्ध हैं जो हमारे पोषण एवं पारंपरिक ज्ञान दोनों को गंभीर चुनौती दे रहे हैं।

ग्रामीण पोषण में आधुनिक चुनौतियां अधिक हैं

बाजार का दबाव और कुपोषण

ग्रामीण इलाकों में बाजार का दबाव अब स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। लोग अक्सर बाजार से खरीदी गई सब्जियों और रेडीमेड उत्पादों को पौष्टिक मानने लगे हैं जबकि घर के आसपास उगने वाली लाल-भाजी, बथुआ या मौसमी फसलें अनदेखी हो रही हैं। पैकेज्ड दूध और फोर्टिफाइड फूड को बच्चों के लिए आधुनिक पोषण मानना आम होता जा रहा है।

इस बदलाव का असर केवल स्वास्थ्य तक सीमित नहीं है। यह स्थानीय भोजन, पारंपरिक ज्ञान और खेती पर भी दबाव डालता है। बांसवाड़ा के कुशलगढ़ ब्लॉक की कुछ पंचायतों में कुपोषण से पीड़ित बच्चों को स्थानीय पोषण पर आधारित भोजन जैसे रागी-सब्जी के लड्डू, मूंगफली की चिक्की, फल और हरी सब्जियों की खिचड़ी वगैरह नियमित रूप से दिए गए। कुछ ही समय में इनका सकारात्मक असर दिखा। उदाहरण के लिए, एक बच्ची अंजली का वजन केवल तीन दिन में 100 ग्राम बढ़ा और 15 दिन बाद 400–500 ग्राम तक की वृद्धि दर्ज की गई। बांसवाड़ा के इस अध्ययन में देखा गया कि जिन गांवों में लोग स्थानीय फसलें खाने लगे, वहां बच्चों के पोषण स्तर में सुधार पाया गया। यही बताता है कि असली पोषण वह है जो घर और समुदाय से जुड़ा हो, न कि महंगे बाजार उत्पादों से।

खेती में एग्री-कल्चर बनाम एग्री-बिजनेस

परंपरागत खेती में मुख्य उद्देश्य हमेशा से भोजन की उपलब्धता और पोषण रहा है, न कि केवल मुनाफा। लेकिन बाजार-केंद्रित कृषि ने इस संतुलन को बदल दिया है। नकदी फसलें जैसे सोयाबीन, कपास और गन्ना आदि अब ज्यादा हावी हो गई हैं और सीधे बाजार में जाती हैं। इससे किसान अपने पोषण के लिए स्वयं बाजार पर निर्भर हो गए हैं।

बांसवाड़ा के आदिवासी समुदाय के अध्ययन में पता चला कि पहले 100 से अधिक पारंपरिक खाद्य पदार्थ कैल्शियम, आयरन, विटामिन ए और फोलिक एसिड से भरपूर थे। हरित क्रांति के बाद यह संख्या घटकर 12-13 तक रह गई। जब किसान थाली के लिए उगाते थे तो पोषण चेन सुरक्षित रहती थी लेकिन अब यह टूट गई है। नतीजा यह है कि कृषि उत्पादन बढ़ने के बावजूद भी कुपोषण कम नहीं हुआ है। यह बदलाव केवल पोषण तक सीमित नहीं हैं बल्कि स्थानीय खाद्य विविधता, पारंपरिक ज्ञान और सामुदायिक आत्मनिर्भरता पर भी असर डालता है

पीढ़ी-दर-पीढ़ी ज्ञान का घटता हस्तांतरण और ज्ञान का टूटता सिलसिला

पहले पोषण से जुड़ा ज्ञान परिवार के भीतर ही चलता था। दादी-नानी से मां और फिर बेटी तक व्यंजन और आहार की समझ पहुंचती थी। आज यह परंपरा कमजोर हो गई है। आधुनिक शिक्षा और बाजार संस्कृति ने घर की रसोई को भी प्रभावित किया है। पीढ़ी दर पीढ़ी पहुंचने वाले ज्ञान की कमी ने हमें अपने ही पारंपरिक ज्ञान से काट दिया है। अगर बच्चों को फिर से पौष्टिक भोजन तक पहुंचाना है तो हमें इन संवादों को पुनर्जीवित करने की दिशा में कारगार कदम बढ़ाने होंगे।

पोषण के मामले में अलग सोच की जरूरत है

 नीतियों का जमीनी समझ से मेल न खाना

आंगनवाड़ी, मिड-डे मील और टेक-होम राशन जैसी योजनाओं ने लाखों बच्चों को भोजन की सुविधा दी है और पोषण सुधार की दिशा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। हालांकि, विभिन्न अध्ययनों और सामुदायिक संवादों से यह भी सामने आता है कि कई इलाकों में इन योजनाओं के बावजूद कुपोषण की चुनौती बनी रहती है। संस्था के एक अध्ययन से पता चला कि बांसवाड़ा जिले के 44 गांवों में 6,268 बच्चों में से 50.6% कुपोषित थे जबकि सभी जगह सरकारी योजनाएं चल रही थीं।

एक कमरे में कुछ महिलायें और बच्चे बैठकर खाना खा रहे हैं_पोषण
बाजार पर भरोसा करने वाले परिवार अक्सर बच्चों को पैक्ड फूड, पाउडर दूध, बिस्किट और फोर्टिफाइड फूड खिलाना ही आधुनिक और पौष्टिक मानते हैं। | चित्र साभार: जयेश जोशी

यह भी देखा गया है कि कई बार कार्यक्रमों में स्थानीय खाद्य सामग्री और पारंपरिक आहार को अपेक्षित स्थान नहीं मिल पाता। कुछ अध्ययनों में यह संकेत मिला कि जिन इलाकों में बच्चों को मुख्य रूप से बाजार से आए रेडीमेड खाद्य पदार्थ मिलते थे, वहां कुपोषण दर में कोई साफ़ कमी का नहीं दिखाई दी। इसके उलट कुपोषण दर कम होने के बजाय बढ़ गई। शोधकर्ताओं का मानना है कि इसका संबंध परिवारों के धीरे-धीरे स्थानीय खाद्य प्रणालियों से दूर होने से हो सकता है।

पोषण की आत्मनिर्भरता

दरअसल पोषण केवल सरकारी योजनाओं तक सीमित नहीं है, यह परिवार और समुदाय की जिम्मेदारी भी है। ‘पोषण पर स्वराज’ का अर्थ यही है कि असली पोषण तभी संभव है जब भोजन और संसाधनों का नियंत्रण परिवार और समुदाय के हाथ में हो। सबसे पहले जिम्मेदारी परिवार की होती है, फिर गांव और पंचायत स्तर पर सामुदायिक निर्णय लेने की क्षमता। इसमें सरकार का रोल सिर्फ फैसिलिटेटर और सपोर्ट देने वाला होना चाहिए, सप्लायर का नहीं। स्थानीय उत्पादन, कम दूरी से आने वाला भोजन और सामुदायिक सहयोग पोषण सुरक्षा की असली आधारशिला हैं। जब परिवार और समुदाय मिलकर पोषण की जिम्मेदारी लेते हैं तो खाद्य विविधता और स्वास्थ्य दोनों सुरक्षित हो जाते हैं।

प्रकृति से जुड़ा पोषण

आदिवासी समाज हमें सिखाता है कि जल, जंगल, जमीन, जानवर और बीज केवल संसाधन नहीं हैं बल्कि पूजनीय धरोहरें हैं। आदिवासी इलाकों में खाने-पीने की चीजें आमतौर लगभग नहीं के बराबर बरबाद होती हैं यानी फूड वेस्टेज नहीं होता है। यहां सामूहिक भोज और सहयोग की परंपरा है। अलग-अलग अनाज और बीजों को बचाने और साझा करने की प्रथा से विविधता कायम रहती है। इन इलाकों में पोषण का आधार है – प्रकृति के साथ सामंजस्य। यही वजह है कि कई आदिवासी इलाकों में भूख और कुपोषण उतना व्यापक नहीं जितना अन्य जगहों पर।

सुधार के रास्ते

अगर हमें कुपोषण मिटाना है तो केवल योजनाओं और बाजार पर निर्भर रहने से काम नहीं चलेगा। इसके लिए हमें फिर से अपनी जड़ों की ओर लौटना होगा। यह वापसी सिर्फ अतीत की नकल नहीं है बल्कि पुराने ज्ञान और आधुनिक जरूरतों का संतुलन है।

1. परिवार और समुदाय स्तर

  • पोषण संवाद की पुनर्स्थापना: घर के भीतर ही पोषण का पहला स्कूल है। दादी-नानी के अनुभवों को आधुनिक पोषण विज्ञान से जोड़ा जाए। परिवारों को ‘रेसिपी नोटबुक’ बनाने की आदत डलवाई जा सकती है जिसमें स्थानीय और मौसमी व्यंजन दर्ज हों। इससे पारंपरिक ज्ञान सुरक्षित रहेगा और बच्चों तक पहुंचेगा।
  • सामुदायिक बीज बैंक और फूड फेस्टिवल: गांव स्तर पर सामूहिक बीज बैंक बनाए जाएं ताकि पारंपरिक फसलें जैसे कोदो, कुटकी, ज्वार, बाजरा, तिल और स्थानीय दालें बचाई जा सकें। हर मौसम में ‘फूड फेस्टिवल’ आयोजित हों जहां लोग अपने घरों में बनने वाले पारंपरिक व्यंजन साझा करें। यह न सिर्फ संस्कृति को बचाएगा बल्कि भोजन में विविधता भी लौटाएगा।
  • स्वयं सहायता समूहों की भूमिका: महिलाओं के स्वयं सहायता समूह को छोटे पैमाने पर प्रसंस्करण, अचार-पापड़, बाजरे का आटा, पोषण मिक्स बनाने की ट्रेनिंग दी जा सकती है। इससे गांव के भीतर ही पौष्टिक विकल्प उपलब्ध रहेंगे।

2. शिक्षा और संस्थान

  • स्कूलों में किचन गार्डन: हर स्कूल में किचन गार्डन अनिवार्य होना चाहिए। बच्चे जब खुद पालक, मूली, गाजर, या कोदो बोएंगे और खाएंगे तो उन्हें यह समझ आएगी कि भोजन कहां से आता है और क्यों मौसमी है। इससे ‘न्यूट्रिशन एजुकेशन’ किताबों से बाहर आकर व्यावहारिक बन सकेगी।
  • स्थानीय भोजन को पाठ्यक्रम में शामिल करना: बच्चों को यह पढ़ाया जाए कि उनके क्षेत्र का पारंपरिक आहार क्या है और उसमें कौन-कौन से पोषक तत्व हैं। जैसे राजस्थान में बाजरा और लहसुन की चटनी, झारखंड में कोदो-कुटकी और साग, केरल में रागी पुट्टू। इससे बच्चों की जड़ों से जुड़ाव मजबूत होगा।
  • आंगनवाड़ी और मिड-डे मील में बदलाव: आज मिड-डे मील में कई जगह पका हुआ चावल-दाल ही मिलता है। अगर इसमें स्थानीय मौसमी सब्जियां, बाजरा-रोटी, और घर के पास उगाई फसलें जोड़ी जाएं तो यह ज्यादा पौष्टिक और बच्चों के स्वाद के अनुकूल होगा।

3. नीति और सरकार

  • योजनाओं को लोकल फूड से जोड़ना: टेक-होम राशन में बाजार से आए रेडी-टू-ईट पैकेट की बजाय क्षेत्रीय अनाज और दालों पर आधारित पोषण मिक्स तैयार किए जाएं। उदाहरण के लिए, राजस्थान में बाजरा आधारित मिक्स, छत्तीसगढ़ में कोदो-कुटकी आधारित, और दक्षिण भारत में रागी आधारित।
  • पोषण ग्रामसभा: पंचायत स्तर पर हर तिमाही ‘पोषण ग्रामसभा’ आयोजित हो जिसमें यह तय हो कि गांव में कौन-कौन से मौसमी खाद्य उपलब्ध हैं और उन्हें किस तरह स्कूलों, आंगनवाड़ी और परिवार की थाली में शामिल किया जाए।
  • नकदी फसल से पोषण फसल की ओर शिफ्ट: सरकारी सब्सिडी और न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) केवल गेहूं-चावल पर न हो। बाजरा, ज्वार, रागी और दलहन पर भी प्रोत्साहन मिले। इससे किसान भी अपनी थाली के लिए खेती करेंगे और पोषण सुरक्षा बढ़ेगी।
  • स्थानीय स्तर पर फूड प्रोसेसिंग यूनिट: सरकार ग्रामीण स्तर पर छोटे फूड प्रोसेसिंग सेंटर खोले जहां महिलाएं स्थानीय अनाज से पोषण मिक्स, सत्तू, और रेडी-टू-कुक आटा तैयार कर सकें। इससे रोजगार भी बढ़ेगा और बच्चों को सुरक्षित भोजन भी मिलेगा।

हमारा अनुभव बताता है कि जब स्थानीय पारंपरिक भोजन पर वापस फोकस किया जाता है, तो 15 दिनों में ही 68% बच्चों के पोषण स्तर में सुधार होता है। यह साबित करता है कि पोषण की असल चाबी हमारी अपनी परंपराओं और स्थानीय संसाधनों में छुपी हुई है, न कि महंगे कमर्शियल प्रोडक्ट्स में।

दरअसल एक मायने में पोषण का रास्ता केवल योजनाएं या बाजार नहीं है बल्कि परिवार, समुदाय, शिक्षा और नीति – चारों स्तर पर तालमेल है। पोषण का असली आत्मनिर्भर मॉडल बनने की शुरूआत हो सकती है अगर परिवार भोजन की विविधता सिखाएं, इसके साथ समुदाय बीज, अनाज और व्यंजन बचाएं और स्कूल बच्चों को स्थानीय भोजन से जोड़ें।

अधिक जानें

  • जानिये, समाज में स्वास्थ्य एवं पोषण की धारणा क्या है?  
  • जानिये, देश में कुपोषण की स्थिति भयावह है, पर कितनी?
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लेखक के बारे में
जयेश जोशी-Image
जयेश जोशी

जयेश जोशी, लगभग 30 सालों से वाग्धारा संस्था में सचिव हैं और गांधीवादी विचारधारा पर आधारित ‘स्वराज दर्शन’ को बढ़ाने का काम कर रहे हैं। वे, पर्यावरण के अनुकूल और सतत विकास के तरीकों पर जोर देते हैं जिनमें सांस्कृतिक विरासत और परंपराएं भी शामिल हैं। उनके प्रयासों से कई आदिवासी और ग्रामीण समुदायों को सतत विकास की ओर बढ़ने में मदद मिली है। उन्होंने ऐसे कई सफल सामुदायिक मॉडलों पर काम किया है जो जलवायु संरक्षण, खाद्य सुरक्षा और पारंपरिक ज्ञान को मजबूत करने पर केंद्रित हैं।

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