मेरा नाम अंगदुई फुंटसोक है। मैं हिमाचल प्रदेश के लाहौल और स्पीति जिले में पड़ने वाले किब्बर गांव का का रहने वाला हूं। मैं एक शिल्पकार होने के साथ बढ़ई का काम भी करता हूं। बचपन में, मैं परिवार की मदद करने के लिए हमारे गांव के चरागाहों में मवेशियों (भेड़, बकरी, गाय, याक और डज़ोमो) को चराने और जौ के खेतों की जुताई का काम करता था। बीस साल की उम्र से ही मैंने लकड़ी का काम करना शुरू कर दिया था। धीरे-धीरे मैं खिड़कियां, दरवाज़ों के फ़्रेम और कावा (लकड़ी के पाये) बनाने लगा जो पारंपरिक मिट्टी के घरों में इस्तेमाल होते हैं। मैंने स्पीति में मिट्टी के घरों को बनाने वाले कारीगरों और कलाकारों के साथ काम करते हुए सीखा है। ये लोग पत्थर की चिनाई के काम के कुशल कारीगर थे और मैंने घरों के मिस्त्री (मुख्य कारीगर) के रूप में अपने काम में इस ज्ञान का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया।
स्पीति में पारंपरिक घर बनाने और बढ़ई का काम करते हुए मुझे लगभग 27 साल हो चुके हैं। मैं अपनी गर्मियां मिट्टी के घरों को बनाने, उससे जुड़ी सलाह देने और स्थानीय लोगों की मदद करने में बिताता हूं। साथ ही, उनके लिए मरम्मत का काम करता हूं। सर्दियों में मैं पूरी तरह से केवल लकड़ी का काम करता हूं।
जब मैंने पहली बार काम शुरू किया था तब से लेकर आजतक स्पीति में घर बनने के तरीकों और वास्तुकला में बहुत अधिक बदलाव आ गया है। इस बदलाव का एक मुख्य कारण जीवनशैली का बदलना है। खेती स्पीति के लोगों की आमदनी का मुख्य स्रोत है। बीते कुछ सालों में यहां के किसानों ने अनाज वाली फसलों के बदले हरी मटर जैसी नक़दी फसलों की उपज को अपना लिया है। साथ ही, पर्यटन भी आजीविका का एक मुख्य स्रोत बन गया है। यह फ़ोटो निबंध इस बदलाव के इतिहास और कारणों की पड़ताल करता है और बताता है कि कैसे यह स्पीति की संस्कृति और वास्तुकला को प्रभावित कर रहा है।
पारंपरिक रूप से स्पीति की वास्तुकला में लकड़ी, मिट्टी और पत्थरों का इस्तेमाल प्रमुखता से होता रहा है। कच्चे माल का चुनाव उसकी स्थानीय उपलब्धता और जलवायु की स्थिति पर भी निर्भर करता है। इसके अलावा, क्षेत्रीय विविधता के कारण, कुछ निश्चित क्षेत्रों में कुछ चीजें बिलकुल ना के बराबर उपलब्ध होती हैं। उदाहरण के लिए, ऊपरी स्पीति के टोढ़ घाटी क्षेत्र में लकड़ी, अच्छी गुणवत्ता वाली मिट्टी, पत्थर और लोहे जैसे कच्चा माल हासिल करना बहुत मुश्किल होता है। इसलिए, आप देखेंगे कि इस क्षेत्र में बने घर की संरचना और डिज़ाइन अधिकतर मिट्टी पर आधारित थी जिसमें उन संसाधनों का न्यूनतम उपयोग किया गया था जो स्थानीय रूप से अनुपलब्ध हैं। निचले स्पीति के शाम घाटी जैसे क्षेत्रों में निर्माण के लिए कच्चे माल की उपलब्धता सहज है। इसका सीधा अर्थ यह है कि इस क्षेत्र में घरों की दीवार और छत के निर्माण में मिट्टी का इस्तेमाल प्रमुखता से किया जाता था और इमारत की स्थिरता को बढ़ाने के लिए इसके आधार में पत्थर लगाये जाते थे।
पहले स्पीति के लोग मुख्य रूप से खेती और पशुपालन पर निर्भर थे। इमारतों का निर्माण परिवार और समुदाय की खेती-पशुपालन से जुड़ी ज़रूरतों को ध्यान में रखकर किया जाता था। मवेशियों और पशुओं के बाड़े, अनाज और औज़ार रखने के लिए भंडार के साथ-साथ उपलों और गोबर रखने के लिए शौचालयों जैसे ढांचे, खुले बरामदे बनाए जाते थे। एक खेतिहर समाज के लिए समतल छत उनके घरों का एक अभिन्न हिस्सा हुआ करती थी।
समुदायों को स्थानीय स्तर पर उपलब्ध ऐसे संसाधनों और वस्तुओं की जानकारी थी जिनका इस्तेमाल निर्माण के लिए किया जाता था। इसके अलावा साधारण वास्तुकला निर्माण के तरीक़ों का सीधा अर्थ यह था कि पीढ़ी दर पीढ़ी ज्ञान का हस्तांतरण आसानी से हो सके। घर बनाना एक सामुदायिक काम हुआ करता था; समुदाय के सदस्य जौ, सब्ज़ियों और अन्य उत्पादों के बदले किसी के घर की छत बनाने के लिए एक साथ इकट्ठा होते थे।
हालांकि 1990 के दशक से चीजें उस समय बदलनी शुरू गईं जब एक नक़दी फसल एक रूप में हरे मटर की खेती के लिए सरकार के प्रोत्साहन अभियान के कारण लोग समृद्धि होने लगे और उन्हें इसके लाभ दिखने शुरू हो गए। मटर उपजाने वाले किसान, पंजाब में चंडीगढ़ जैसी जगहों पर जाकर अपनी फसलें बेचने लगे। वापसी में वही किसान अपने साथ लकड़ी के मोटे टुकड़ों जैसा कच्चा माल लाने लगे जिसके कारण स्पीति में जुनिपर, विलो और चिनार जैसी पतली किस्मों की जगह इनका इस्तेमाल होने लगा। क़स्बे के लोगों में बड़े शहरों जैसा जीवन जीने की इच्छा जागने लगी जिसमें उनके द्वारा देखी गईं कंक्रीट (आरसीसी) से बनी इमारतें भी शामिल थी जिसमें स्टील, कांच और सीमेंट जैसे कच्चे माल का इस्तेमाल होता था। अब जब उनके पास इसे हासिल करने के साधन थे, तो स्पीति शहर की वास्तुकला ने खुद को ग्रामीण कला से दूर करना शुरू कर दिया है।
कंक्रीट से बनी पक्की सड़कों का निर्माण किया गया जिससे एक क्षेत्र को दूसरे क्षेत्र से जोड़ा गया। स्पीति में रहने वाले लोगों ने अन्य जिलों के लोगों से बातचीत करनी शुरू कर दी और धीरे-धीरे उनकी वास्तुकला को भी अपनाना शुरू कर दिया। उदाहरण के लिए, मेरे जैसे मिस्त्री कुल्लू में बने होटलों में जाकर वास्तुकला को सीखा। हमने देखा कि वहां हर कमरे में अलग से एक शौचालय बनाया गया था और उनकी छतों में टाइल्स का इस्तेमाल किया गया था जो कि हमारी छतों में नहीं होता है। इस समय तक इंटरनेट नहीं आया था इसलिए हम शौचालयों और कमरों की माप लेते थे और उनके निर्माण के तरीक़ों और तकनीकों से जुड़ी जानकारी को कागज पर दर्ज कर लेते थे। इसके बाद वापस लौटकर इस ज्ञान को हम अपने काम में लागू करते थे।
धीरे-धीरे स्पीति के काजा, ताबो, रांग्रिक, लोसर, खुरीक, शेगो और लारा जैसे गांवों ने पर्यटकों को अपनी तरफ़ खींचना शुरू कर दिया जिसके कारण इन इलाक़ों में होमस्टे और होटलों की भरमार हो गई। आर्थिक उछाल का मतलब था कि समुदाय का युवा वर्ग अब पढ़ाई के लिए स्कूलों और कॉलेजों में जाने लगा था, और उद्यमिता और नौकरियां वास्तविक करियर विकल्प बन गईं।
जहां एक तरफ़ निर्माण की ज़रूरत बढ़ रही थी वहीं दूसरी तरफ़ सामुदायिक श्रम की उपलब्धता में कमी आ रही थी और मांग की आपूर्ति को पूरा कर पाना असंभव हो रहा था। स्पीति को कारीगरों की ज़रूरत थी और उसकी यह ज़रूरत निचले हिमाचली ज़िलों जैसे कि मंडी, कांगड़ा, और शिमला के अलावा राजस्थान, बिहार, ओडिशा, झारखंड और महाराष्ट्र से आने वाले प्रवासी मज़दूरों से पूरी होने लगी। इमारत बनाने वालों के लिए यह फ़ायदे का सौदा था क्योंकि अप्रैल-मई माह के अनुकूल मौसम में काम करने वाले स्थानीय श्रमिकों के उलट ये प्रवासी मज़दूर पूरे साल काम करने के लिए तैयार थे। हमारे पूर्वजों ने बारिश के डर से जून-जुलाई में घरों का निर्माण ना करने की सलाह दी थी, लेकिन अब मानसून के दिनों में भी तिरपाल के नीचे निर्माण का काम जारी रहता है।
मेरे जैसे मिस्त्रियों की अब भी ज़रूरत है क्योंकि हम श्रमिकों को स्वदेशी तकनीकों जैसे घरों के निर्माण में पत्थरों के इस्तेमाल आदि के बारे में बताते हैं। लेकिन धीरे-धीरे हमारा यह सामुदायिक ज्ञान हमसे छूटता जा रहा है। स्पीति संस्कृति के एक घर का निर्माण समुदायों के लिए एक सहज प्रक्रिया थी क्योंकि वे पहले से ही मूल बातें जानते थे। इसमें कार्यान्वयन के लिए अनावश्यक रूप से जटिल तरीके और उपकरण शामिल नहीं थे। हमें सिखाने के लिए हमारे पास ग्यांगों-दा (एक मिट्टी-मिस्त्री), पिटी डोर-सी (राजमिस्त्री), और पिटी शिंगजो-वा (लकड़ी का कारीगर/बढ़ई) थे, लेकिन अधिकांश युवाओं को अपने आप ही छत, फ़र्श और मवेशियों के लिए बाड़ा बनाने का काम सीखना पड़ा। गैर-पारंपरिक, औद्योगिक कच्चे माल को अपनाने का यह बदलाव, अब तेजी से स्थानीय लोगों को उनकी अपनी भूमि, संसाधनों और स्वदेशी ज्ञान से दूर कर रहा है जिसे वे पिछली कई पीढ़ियों से बचाते आ रहे थे।
यह आलेख मूल रूप से हिमकथा में प्रकाशित हुआ था।
इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें।
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